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धर्म और राजसंरक्षण
तेजपाल सिंह
धर्म व्यक्ति के प्रान्तरिक पक्ष का आलोक है जो राजनैतिक पृष्ठभूमि को भी मजबूत बनाने में सर्वतः सहबाह्य के साथ समन्वय स्थापित कर 'धर्म चर' का सुन्दर योग दे । जो अधिकाश जन-मानस में मंरक्षणदाता राज्य स्वरूप धारण करता है जिसमे समाज का व्यापक समुदाय के लिए अहितकारक नीतियों को पनपने न दे तथा मार्ग पाकर लक्ष्य की ओर प्रवृत्त होता है। 'धर्मो धार- भावात्मक दृष्टि से राज्य के प्रभाव की वृद्धि मे योगदान यति प्रजा" का प्रवचन इस सदुद्देश्य के समर्थन में ही करे । वस्तुत ऐसा ही धर्म राजसरक्षण प्राप्त करने मे कहा गया है। धर्म प्रजा अर्थात् मानव समाज को तभी सक्षम रहा है इसमें आध्यात्मिकता को भौतिकवादी घारण करता है जबकि धर्म स्वत पुष्ट और प्रबल हो। समाज के हित में उपयोग करने का अवसर मिलता है। महान् राजसरक्षण भी उसी धर्म को सुलभ होता है जो महान मनीषी, मनि विद्वान अपने संचित धर्म का उपयोग अपनी सामर्थ्य से समाज पर अपना प्रभाव स्थापित कर तब अधिक अच्छी तरह कर पाते है जब उन्हे राजसंरक्षण चुका हो।
मिल जाता है। विश्व इतिहास का पटाक्षेप करने से पता राजसंरक्षण कोई सरल उपलब्धि नही है। जो चलता है कि जगदव्यापी ईशाई मिशनरी और भगवान मामान्य धर्म को भी प्राप्त हो जाय । राजसंरक्षण उसी बुद्ध के सन्देश राजसंरक्षण के बलबूते पर ही अधिकाश धर्म को प्राप्त होता है मो मानव-ममाज के लिए संस्कृति जन-मन का पालाकित कर सक है पार विश्व पर कवल साहित्य, कला और दर्शन-चिन्तन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण
वर्ग अपने धर्म विशेष का ही नही, वरन् राजविशेष की हो, साथ ही राजसरक्षण प्रदान करने वाले राज्य की सस्कृति, कला, साहित्य और विचार-दर्शन का सशक्त एवं
शाश्वत प्रभाव छोड़ गये है। है कि कलचुरि नरेशो के काल मे जैन धर्म का अत्यधिक प्रसार हुआ था।
भारतवर्ष मे धर्म को राजसंरक्षण प्रारम्भ से ही प्रतीकात्मक दष्टिकोण से भगवान ऋषभनाथ के मिलता रहा है । वैदिक धर्म आर्यों का पूर्ण संरक्षित धर्म हृदय पर अकित श्री वत्स अर्थात चक्र चिन्ह धर्म का रहा। उपनिषद-काल के साथ-साथ धर्म की विभिन्न प्रतीक माना जाता है। इसी भाँति इनका लाछन वृषभ
धारायें बन गई थीं। ब्राह्मण-धर्म का व्यापक विरोध भी धर्स का प्रतीक है । भगवान जिस पद्मासन पर विद्य
प्रारम्भ हो गया था। जिसका प्रथम प्रकाश जैनधर्म के मान दिखाये जाते है वह सृष्टि का प्रतीक एव मस्तक के
रूप मे प्रत्यक्ष हुआ। महान् राजकुल मे उत्पन्न भगवान् पीछे लगा हुमा धर्मचक्र, प्रभामण्डल के रूप मे वेद का महावार न अन्याय, हिसा व रूढ़िवादिता का अस्वार
समाज को नयी दिशा प्रदान की। समाज के साथ-साथ शक्ति के हाथों मे है और जिन तथा बद्ध से सम्बद्ध है। राजवंशों ने जैनधर्म को उच्च स्तर पर स्वीकार करना भगवान के मस्तक पर स्थित त्रिछत्र. त्रिशक्ति के प्रतीक प्रारम्भ कर दिया। मल्ल वंश के राजामों ने जैनधर्म को मात्र है। जो शिव और बुद्ध का त्रिशल तथा दुर्गा का सर्वाधिक संरक्षण प्रदान किया। यह जैन-धर्म के पुष्पित त्रिकोण है। धर्मचक्र एवं त्रिशक्ति के दोनों पार्श्व पर दो होने एवं उसके व्यापक वर्ग पर प्रभाव का प्रथम समय गज प्राध्यात्मिक गौरव और वैभव के प्रतीक हैं।
था। इसी से वौद्ध धर्म को इसकी सुनियमित पृष्ठभूमि मिली। और वह विश्व-धर्म बन गया। यद्यपि चन्द्रगुप्त