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राजषि देवकुमार की कहानी
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भाई भक्त नेमसुन्दर बतलाती है :
के रूप में थी मैं भूल नहीं सकी थी। पर यह सूचना उन्हें प्रसाधारण बीमारी की दशा मे अन्ततोगत्वा उन्हें देने के लिए मैं हिम्मत कहां से बटोर ।" कलकत्ता उपचार के लिए ले जाया गया। उनके उपचार 'मैने प्रभू को याद किया और फिर निर्भय होकर मे किसी को रुपये की कोई परवाह नही थी। उन्हे तो मै उनके कमरे में पहुंची। उन्हे बिल्कुल चतन्य पाया। किसी प्रकार बचाना ही था। उनके बिना धन किस काम इसके पूर्व कि मै कुछ व हूँ उन्होने सूखे होठों पर मुस्कान का रहता। दोनों बच्चे अभी दश वर्ष के भी तो नहीं लाकर मुझे पास बुलाया और कान मे पूछा-कुछ सुनहुए थे।
कर पाई है ? मैं बिल्कुल हतप्रभ हो गई पर उन्हें देखराजर्षि यह सब देखने और हसकर कहते-अपने
कर मेरी हिम्मत फिर लौट आई । मैने देखा कि वे मन की सब बात निकाल लो पर जो होना है उसे कोई सुनने को तैयार पड़े थे। मैंने सर हिलाकर हामी भरी रोक सकता है क्या? एक लाख रुपये, उस बीमारी के उपचार मे खर्च हो
और फूट फूट कर रो पड़ी। उन्होने मेरे बालों मे हाथ चुके पर बीमारी घटने का नाम न लेती। कलकत्ता का
फेर कर मुझे चुप कराया। तब तक सभी कमरे मे पा
गये थे। उन्होने अपने गुरु चारकोति स्वामी को पास बडा से बड़ा डाक्टर और कविराज अपनी सारी योग्यता
बुलाया और पृथ्वी शंया देने को कहा। तभी भाभी खर्च कर रहा था। स्वनामधन्य छोटेलाल जी जैन ने
अनूपसुन्दर फूट-फूट कर रोने लगी। भैया ने अपनी तेजस्वी बतलाया :
श्रांखो को उठाया, जिसके इशारे सभी समझने लगे थे।" मैं उस समय छोटा था। अपने पिता के साथ सदा
"भाभी को पकड़ कर कमरे के बाहर ले जाया इस धर्मपरायण व्यक्ति के पास जाता था। उन्हें सदा
गया। भैया की मांख फिर उठी और दरवाजे को बन्द चिन्तामुक्त पाया । प्रत्यन्त कृश हो गए थे। बोलते तो
कर दिया गया ताकि अन्दर रोने की आवाज न पाये । थक जाते थे, पर धर्म और सिद्धान्त की बात कहते तो
और प्रन्त में भैया की मांखे और उनकी २१ प्रगुलियो लोग अपलक हो उनकी प्रोर देखते रह जाते । नियम पूर्वक
के इशारे को किसी को नकारने की हिम्मत नहीं हुई। चारुकीति महाराज के साथ एकान्त मे धर्म चर्चा शान्त उन्हे कलपते हृदय से हमने भू-शया दो। होकर श्रवण करते थे। उनकी जुबान को कभी किसी ने
चारुकीति महाराज से उन्होने हाथ जोड़कर मुनि'उफ' करते हुए नहीं देखा । बीमारी तो ऐसी थी कि देखी
व्रत दिलाने को कहा।" नही जा सकती थी। कारबकल !!
९० वर्ष के ऊपर की वृद्धा नेमसुन्दर उस समय की "ऐसी हिम्मत थी, मेरे भैया की। दिगम्बर मुनि माथा विभोर होकर कहती थीं :
का व्रत लेकर मन्त्र को होठो से थीरे-घोरे स्वय कहते हुए "भैया को कभी डर किसी बात का छ नही गया एवं सिद्ध-भक्ति का पाठ सुनते हुए वे सदा के लिए परम था। वे नितान्त निर्भय थे। उसी बीमारी की अन्तिम शान्ति पूर्वक चले गये।" दशा मे मुझसे कहा-मैं तभी तुझे अपनी प्रच्छी बहिन इतना कह कर मेरी पूज्या वृद्धा नेमसुन्दर बूमा समझंगा जब तू मुझे चुपचाप डाक्टर की बात पाकर दादीजी ने अपनी मौखों के मांसू पोच लिए। बता देगी। मै अपना अन्त भी बनाना चाहता हूं। तू मृत्यु के कुछ दिन पूर्व पूज्य दादाजी देवकुमार जी बता देना जब भी डाक्टर से ऐसी कोई बात सुनना ।" ने अपनी जमींदारी का सबसे अच्छा और कीमती गांव
नेमसुन्दर ने कहा--"मैं तो उनकी ऐसी बात सुनकर का एक न्यास किया तथा एक वसीयतनामा लिखा । सन्न रह गई और तब एक दिन मैंने डाक्टर के मह से बह वसीयतनामा भी अपने में अद्भुत था। उसमे वे सुन। कि प्रब २४ घण्टे का समय शेष रह गया है तो मैं अपने सेवकों को भी भूले नहीं थे। बिल्कुल सहम गई। भैया की कही बात, जो कि प्रादेश
अपने मुसलमान वृद्ध पिउन (नोकर) से लेकर उन