________________
३०, वर्ष २६, कि० १
देवकुमार अब सचमुच देवतुल्य हो गए थे । २८-३० वर्ष के नवयुवक की कान्ति श्रात्मज्ञान से प्रोत प्रोत थी । ब्रह्मचर्य का घनी वह युवक जब जब निर्ग्रन्थ मुनि के रूप मे दिगम्बर होकर ध्यान मे निमग्न होता लोग नतमस्तक हो जाते।
अनेकान्त
जप तप का क्रम चलता रहा देवकुमार ने कहा -- भारतवर्ष के चले ।
और तब एक दिवस तीर्थों की यात्रा पर
दक्षिण भारत की उनकी यात्रा अनूठी थी गाडियो का उनका कारवां जहाँ पड़ाव डालता वही पाठशालाये खोलने का कार्यक्रम चल निकलता । जिनवाणी का उद्धार पत्रों एवं हस्तलिखित प्राचीन प्रयों को जहा तहाँ से निकलवा कर, साफ-सुथरा करा कर उनके सदुप योग पठन-पाठन और ग्रन्थागारों में स्थानान्तर करने की प्रेरणा दी जाती।
सारे दक्षिण में इस देवतुल्य युवक के श्रागमन की सूचना फैल गई और अगले गाव वाले गाजे-बाजे के साथ उनके श्रादर-सत्कार मे मीलों तक सोत्साह आगे चले प्रति |
देवकुमार के गुरु वास्तीति महाराज उनके साथ थे और स्वयं दक्षिण भारतवासी होने के कारण उनके आनन्द का ठिकाना न था ।
धर्म के पावन प्रवाह में धर्मकुमार के महाप्रयाण का दु.ख और घुलता जा रहा था। सभी परिवार वाले सीयों की इस अद्भुत यात्रा के सहगामी क्या हुए, वे कृतकृत्य हो गए ।
दक्षिण भारत से बम्बई, मध्य भारत, उत्तर प्रदेश और फिर अपना बिहार - जहाँ पहुँचे उसके पूर्व उनकी कीति वहाँ पहुँची रहती । जहाँ पहुँचते वही शिक्षा-दीक्षा और जिनवाणी उद्धार का कार्यक्रम ऐसा चलता कि नगर में दूसरी कोई बात किसी को भी जुबान पर नहीं रहती ।
आखिर धारा नगर में भी उन्होंने वह किया जिसने उन्हें अमर कर दिया। श्री जैन सिद्धान्त भवन और कन्या पाठशाला की स्थापना । और फिर उनका निश्चय कि
-
"जब तक जिनवाणी का उद्धार नहीं हो जाता प्रखंड ब्रह्मचर्य रखूंगा।"
जिसने सुना श्रद्धावनत हो गया ।
दक्षिण भारत की यात्रा में इनकी प्रेरणा पा कर चन्दाबाई ने स्त्री सभाप्रो में समाज और धर्म की सेवा का आन्दोलन प्रारम्भ किया। धर्म ग्रन्थों के अध्ययन के लिए पण्डितों और विद्वानों का सहयोग भी उन्हें मिला । भारतवर्ष के प्राकाश पर एक प्रोर चाँद उभर आया जिसने भागे चलकर "जैन बाला विश्राम" की स्थापना कर सैकड़ों हजारों लाओं को शिक्षित किया, ल दिया, गौरव दिया। जैन महिला परिषद और जैन महिलादर्श द्वारा महिलाओं में क्रान्ति की ।
बहिन नेमसुन्दर का जीवन तो भैया देवकुमार पर सदा निछावर था । उनके लिए प्रादरणीय व्यक्ति दुनिया मे कोई दूसरा न था । वे तो बस भैया के सुख में सुखी, दुख मे दुःखी थी। गौरव गाथा जब भी उनके मुख से निकलती थी- भैया की ।
और छोटे भाई धर्म कुमार की बहू चन्दाबाई के लिए तो वे सदा सब कुछ करने को दौड़ी फिरती । जब जैन बाला विश्राम की स्थापना धर्म कुञ्ज मे हुई तो अपने पति से कहकर बालीशान शिक्षा भवन बना कर उसके ऊपर भव्य जिन मन्दिर की स्थापना, प्रतिष्ठा इस धूमधाम से कराई कि जो जिसने देखा था भूला नही । स्वयं इन्द्राणी बनी और पति इन्द्र ।
इतना ही नहीं । बाहुबली का प्रथम दर्शन जो कि भैया देवकुमार के साथ दक्षिण की यात्रा में हुआ था उसे भूल सकती थी उनकी देवभक्ति गुरुभक्ति और शास्त्रभक्ति अनुपम थी ।
सो घर्मकुञ्ज धारा मे बाहुबली की विशाल प्रतिमा की स्थापना प्रतिष्ठा कर उन्होंने पूर्व पुण्य मोरय प्राप्त किया ।
यह सब हुआ पर राजर्षि देवकुमार यह सब देखने नहीं रहे थे । वे बहुत पहले महाप्रयाण कर चुके थे ।
हाँ, अपने जीवन काल में ही पूज्य गणेशप्रसाद जी वर्णों के एक पैसे के पोस्ट कार्ड के ऊपर उन्होंने बनारस स्थित अपने निवास स्थान और धर्मशाला के भव्य भवन को स्याद्वाद विद्यालय के लिये देकर घरयन्त उत्साहपूर्वक विद्यालय की सफलता के लिये कार्यरत हुए थे।