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________________ राजर्षि देवकुमार को कहानो सुबोध कुमार जैन देवलोक से एक सितारा टूटा। और भारा नगर के उगकी नव-विवाहिता बहू चन्दा बाई भी साथ थी। देखते सुप्रसिद्ध प्रभू परिवार में समय पाकर बाबू चन्द्र कुमार के देखते धर्मकुमार को प्लेग हो गया। सभी पर वज्रपात घर पुत्र-रत्न ने जन्म लिया । हुमा। नाम रखा गया देवकुमार । बीमारी बढ़ चली और धर्मकुमार को प्रपार कष्ट पिता चन्द्रकुमार की मृत्यु प्रकाल में हो गई । देवकु- था। भैया की गोद में उनका सर था और किसी की मार का हंसमुख गम्भीर हुमा सो हुआ। आँखो मे नीद नही थी। ये कुशाग्रबुद्धि । नन्हा सा एक भाई था। नाम था लोगो ने देवकुमार की प्रांखो मे कभी प्रासू नही देखे धर्मकुमार। एक बहिन, नाम नेमसुन्दर । फिर तो बच थे। उनकी डबडबाई प्रांखों से सभी की हिम्मत टूट चली गई माता । बस इतना ही परिवार था। थी। धर्मकुमार ने चिन्तायुक्त होकर अपनी नव-विवाहिता घर का हिसाब-किताब देखा तो देवकुमार का चन्दा की पोर देखा । देवकुमार ने प्रेमसिक्त स्वर मे गम्भीर मुख सोच में पड़ गया। कहा-चिन्ता छोड़ दो। मैं तो हूँ। धर्मकुमार का मुख एक लाख का कर्ज। बाल सुलभ लज्जा सा होकर शान्त हो गया। उनका पितामह प्रभूदास ने कोशाम्बी, बनारस और पारा दातों को मीज कर कष्टो का झेलना एक अद्भुत दृश्य में पांच मन्दिर मौर धर्मशालामों को पूरा कराने के हेतु था। भाभी अनूपमाला और जीजी नेमसुन्दर नन्हीं चन्दा कुछ कर्ज लिया था वही बढ़ते बढ़ते एक लाख हो गया। के मुर्भाए मुख को देखकर सुबुक उठीं। परन्तु देवकुमार माता ने एक छोटी सी बात कही-बेटा! खर्च के नयनों के प्रार्तनाद को देख करके सहम कर रह गई। कम कर देने से कर्ज प्रासानी से चुकता हो जाता है। तभी १८ वर्ष के धर्मकुमार ने फिर प्रांखे खोली पोर देवकुमार ने वही किया और समय पाकर कर्ज भैया देवकुमार की भोर भक्ति मौर विनय से भरे नयनों चुकता हो गया। से देखते हुए टूटते स्वर में कहा :पौर जब एक लाख और इकट्ठा हो गये तो भारतवर्षे के तीर्थों की यात्रा का प्रोग्राम बनाने लगे। पर तभी "भैया ! अब माज्ञा दो, मैं चलू ! कष्ट बरदाश्त पारा नगर में प्लेग का रोग मा गया। यह महामारी के बाहर है। बहिन नेमसुन्दर को उसके ससुराल में लग गई। धर्मसुन्दर की मांखों के अनुनय ने देवकुमार को वीर गम्भीर देवकुमार को डर छु नहीं गया था। बिल्कुल द्रवित कर दिया। भाई को कलेजे से लगा कर जबकि लोग प्लेग से बीमार अपनों को छोड़ रहे थे, वे वे भरे हुए कण्ठ से मृदुल प्रवाह में णमोकार मंत्र का पाठ नेमसुन्दर को अपने घर उठा लाए। करने लगे। सभी की मांखों में मासुपों की पारा थी जब रोग ने नगर में जोर पकड़ा तो परिवार को और पोठों पर चित्कार की जगह मंत्र पाठ। हिचकियों के लेकर अपने बाग में चले गए। फिर सभी को लेकर साथ प्रवाह रूप तब तक चलता रहा जब तक देव तुल्य सम्मेद शिखर की यात्रा को निकल पड़े। देवकुमार ने लक्ष्मण स्वरूप भाई को जमीन पर नहीं ईसरी में छोटे भाई धर्मकुमार को ज्वर हो पाया। लिटा दिया ।
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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