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________________ २८ वर्ष २६, कि.१ अनेकाल मिथ्यात्व, प्रविरति भोर कषाय तो नहीं है किन्तु योग तो कर्म कहलाता है जिसके फलस्वरूप मन में भ्रान्ति उत्पन्न रहता है, प्रतएव सयोगकेवली कहलाता है। तीर्थङ्कर होती है, एक सच्चे अन्तर्ज्ञान एवं ज्ञान की कमी प्रतीत होती अथवा जगद्गुरु इसी तेरहवें गुणस्थान मे बनता है। है। अन्तराय मात्मा की उन्नति में बाधक हैं, एवं पात्मा प्रघातिकर्म तो इस गुणस्थान में रहते हैं । यहाँ यह संकेत के विभिन्नपक्षीय विकास मे पातक है। किया जाय कि जाति, प्रायु और भोग के रूपमें, प्रघाति- शेष चार कर्म प्रघाति हैं। ये प्रात्मा के मुख्य गुणों कर्म योगदर्शन के प्रारब्धकर्म का ही पर्याय है। का पात न करके, उन्हीं घातिया कर्मों की सहायता के जिनमत में प्राध्यात्मिक विकास में उच्चतम पर्णता लिए पारकर के रूप में होते हैं । यथा :का प्रतिनिधित्व अन्तिम चौदहवें गुणस्थान में होता है। १. वदनायकम-इष्ट भोर मनिष्ट वस्तुमों का इसका नाम प्रयोगकेवली गुणस्थान है। यह ऐसे सिद्ध का संयोग कराता है। गुणस्थान है जो कि सब प्रकार के घाति भोर प्रघाति २. मायुकर्म-मनुष्यादिरूप किसी भी एक शरीर में कर्मों से रहित है, प्रतएव कामिक शरीर से मुक्त है। एक रोककर रखता है। सिद्ध पुरुष, कामिक शरीर से रहित विशुद्ध शरीरधारी है, ३. नामकर्म-शरीर की अनेक प्रकार की प्रवस्थायें एक ऐसा शरीर लिए हुए जो कि पूर्णरूपेण निर्मल है बना देता है। और जिसका कर्म के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। वह ४. गोत्रकर्म-विशेष प्रात्मा का विशेष परिस्थिति लोकाकाश में बहुत उच्च स्थान प्राप्त करता है और में एवं विशेष परिवार में जन्म दिलाता है। सिद्धशिला पर विराजमान हो जाता है-वह शिला जो उपर्युक्त चौदह गुणस्थान प्राध्यात्मिक विकास का कि देश-काल से परे है । सिद्ध पुरुष अत्यन्त विशुद्ध पात्मा क्रामक विवरण बतलाते हैं। प्रध्यात्म के इस क्रमिक है और नित्य है। सिद्ध शिला लोकाकाश और प्रलोका विकास में कर्म ही मुख्य विषय है। सम्पूर्ण विश्वसृष्टि काश के बीच की शिला है-एक ऐसा स्थान है जिसका पौर व्यष्टि मानव शरीर, कर्म के ही कारण हैं। विश्व कि भौतिक जगत् की क्रियानों से कोई सम्बन्ध नहीं है। पौर मानव तब तक है जब तक कि कर्म है । लेकिन जब कम गुणस्थानों के विकास से क्रमशः नाश को प्राप्त होता उपर्युक्त गुणस्थानो में मैंने घातिकर्म और प्रघातिकर्म है, प्रास्मा की सम्पूर्ण विशुद्धि होती है, एवं कर्म पौर का उल्लेख किया है। इस विषय में यहां यह कहना उसके परिणामों से मुक्त हो जाता है । कर्म के फलस्वरूप पावश्यक हो जाता है कि कर्म सामान्यतया दो प्रकार का ही शरीर के साथ सम्पर्क, दुःख-सुख की अनुभूति एवं माना जाता है-धाति और प्रघाति । प्रायु के कारण समय-पराधीनता रहती है। घाति कर्म चार प्रकार के हैं-१. ज्ञानावरण- चौदहवें गुणस्थान को प्राप्त हुए सिद्धात्मा को कई ज्ञान को नहीं होने देता, २. दर्शनावरण-देखने नही विद्वान परमात्मा कहते हैं। परमात्मा या ईश्वर यद्यपि देता ३. मोहनीय कर्म-सुख नहीं होने देता, ४. अन्तराय एक ही बात है तो भी कई दर्शनों में ईश्वर विश्वनियन्ता, कर्म-प्रात्मबल नहीं होने देता है। दूसरे शब्दों में मन्त· विश्वरचयिता अथवा जगद्गुरु का स्थान ले लेता है जो जान को ढकने वाला कर्म दर्शनावरणीय कर्म कहलाता है, ज्ञान द्वारा मानवता के कल्याण में लगे होते है। . ज्ञानार्जन की शक्ति को रोकने वाला कर्मशानावरणीय है, मानसिक सन्तुलन को विचलित करने वाला कर्म मोहनीय ६. प्रवचनसार-६०.
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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