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जैन दर्शन में कर्मसिद्धान्त
ही पुन. उत्थान का मार्ग अपनाता है। अतएव सम्यग- त्मिक जडना भी वर्तमान रहती है। दृष्टि के अतिरिक्त इस गणस्थान को कतिपय विद्वान् सप्तम गुणस्थान में प्रात्मनुशासन अथवा माध्यामिथ्यादृष्टि के नाम से भी पुकारते है । स्मरण रहे कि त्मिक कुण्ठता की कमी प्रथवा प्रमाद की कमी रहती है। पहले गणस्थान का वर्णन करते समय ऊपर मैंने कहा था इस गुणस्थान का नाम "अप्रमतसम्यक्त्व है। कि पहले गुणस्थान को छोड़ कर अन्य गणस्थानों में माठमें गुणस्थान का नाम अपूर्वकरण है। इस गुणमिथ्यात्व की अनुपलब्धि है और तीसरे गूणस्थान का स्थान मे प्रात्मा इतना पवित्र है कि कम की गहनता नाम सम्यग्दृष्टि के अतिरिक्त मिथ्यादृष्टि भी कहा; पर और स्थिति स्वतः ही कम हो जाती है । इस गुणस्थान में स भवन: यहां यह दुहराने की मावश्यकता पडे कि सम्यग- भात्मा की पवित्रता की स्थिति और गहनता बढ़ जाती दृष्टि मिथ्यादृष्टि में अर्धनिर्मल कर्म के कारण परिणत है। प्रात्मा, इस गुणस्थान मे, पवित्र कार्यों में बहुत होने से, व प्रात्मा के इस गुणस्थान में गिरने के कारण ते जीवाद होता है। इस गुणस्थान में प्रात्मा अत्यधिक ही इसे मिथ्या दृष्टि कहा जाता है।।
काल तक नहीं रहता। चौथे गणस्थान का नाम अविरतसम्यग्दृष्टि है । इस नौवे गुणस्थान का नाम "अनिवृत्तिबावरसपराय" गणस्थान में स्पष्टतया सम्यग्दृष्टि प्राप्त तो हुई है, लेकिन है। इस गुणस्थान में स्थूल इच्छायें प्राक्रमण कर सकती प्राध्यात्मिक बल की कमी है। इस अनियम के कारण, हैं। ज्ञान और इच्छा, निःसन्देह हों, किन्तु तब भी प्रात्मा दसवे गुणस्थान का नाम सूक्ष्मसपराय है । इस गुणगलत मार्ग से जा सकता है । यद्यपि दृष्टि स्थिर है, तब स्थान मे स्थूल वासनाये नहीं रहती, लेकिन सूक्ष्म वासभी प्रात्मा का अनुशासन अनुपस्थित है। इस गुणस्यान । नाये प्रात्मा को प्राकान्त करती है। इस गुणस्थान मे, में सम्यग्दृष्टि के कई कारण हैं। मुख्य कारण यह है कि सब वासनाय नष्ट तो हुई होती है, केवल सूक्ष्म लोभ की दुष्टि भ्रान्त करने वाला कर्म पूर्णतया समाप्त हुया है। विद्यमानता होती है जो कि यथार्थ मे शरीर के साथ इसी का दूसरा नाम उपशम है । यह स्मरणीय बात हैं प्रववेतन-प्रामक्ति के कारण है। कि प्राध्यात्मिक विकास तब तक सम्भव नही है, जब ग्यारहवे गुणस्थान का नाम "उपशान्तकषाय" है। तक दृष्टि, ज्ञान और प्रात्मानुशासन समानरूप से सुदृढ दसवे गुणस्थान मे सूक्ष्म लालच था। इस गणस्थान में न हों। इस परिस्थिति में प्रात्मदमन की पावश्यकता है भी प्रात्मा सम्पूर्ण रूपेण कामिक प्रभाव से रहित नहीं है, यद्यपि ज्ञान और दृष्टि विद्यमान हैं। इस गुगस्थान में प्रतएव इसको छास्य कहा जाता है । यह आसक्ति से सदिच्छा होते हुए भी प्रात्मानुशासन की अावश्यकता है। रहित है- अर्थात् ग्यारहवा गणस्थान बीतराग का गण
पचम गणस्थान देशाविरतसम्यादृष्टि है। इस गण- स्थान माना जाता है । प्रात्मा इस गुणस्थान मे चिर काल स्यान में प्रात्मानुशासन प्रधूरा ही प्राप्त होता है. प्रात्मा तक रह नहीं पाता। का थोड़ा सा उत्थान तो अवश्य होता है, पर किन्ही एक निर्मल पात्मा सीधा ही दसवें से बारहवें गुणकामनामो के रहते हर, नीति रहित कार्यों से प्रात्मा स्थ न तक उन्नत हो सकता है। बारहवें गुणस्थान में पूर्णतया रहित नहीं है। इस गुणस्थान में प्रात्मसंयम वासनापों का नाश होता है। यह गुणस्थान नाश की केवल अपूर्ण रूपेण ही प्राप्त हुआ होता है ।
चरम सीमा तक पहुँचता है। इस गुणस्थान में मारमा षष्ठ गुणस्थान मे निस्सन्देह उन्नति तो होती है, पूर्णरूप से चार प्रकारके घातिकर्मों से मुक्त हो जाता है। किन्तु प्रात्मा में प्रात्मानुशासन की पूर्ण शक्ति नहीं प्रकट बारहवें गुणस्थान को क्षोणकषाय नाम दिया जाता है। होती। इस गुणस्थान का नाम प्रमत्तसम्यक्त्व है। इस तेरहवें गुणस्थान को जैन दर्शन ने सयोगके बली का गुणस्थान में प्रमाद उपस्थित है। दूसरे शब्दों में, यद्यपि नाम दिया है । दूसरे भारतीय दर्शनों में इस गुणस्थान को इस गुणस्थान मे प्रात्मानुशासन वर्तमान है, किन्तु माध्या- जीवनमुक्त का नाम दिया जाता है। इस गुणस्थान में