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२६ वर्ष २६, कि.१
अनेकान्त
इस सम्बन्ध में प्राचार्य कुन्दकुन्द ने दो प्रावो के नामो बच जाता है। प्रात्मा का उत्थान अवश्यम्भावी है। का उल्लेख किया है-भौतिक और मनोवैज्ञानिक । प्रात्मा की ऊपरी गति ऊपर की ओर जाने वाली अग्नि द्रव्यानव का अर्थ प्रात्मा भौतिक अंशो का प्रागमन है को लो से मेल खाती है। प्रलोकाकाश तक पहुँची हुई जो कि भावानव को जन्म देते हैं, परन्तु एक ऐसे व्यक्ति प्रात्मा के लौटने का प्रश्न नहीं उठता । के सम्बन्ध मे जो कि सम दृष्टि रखना है, द्रग्यक्रम का सम्पूर्ण पूर्णता-प्राप्ति के लिए चौदह गुणस्थानों का मागमन प्रारमा मे नही होता; द्रव्य कर्म न होने से भाव- वर्णन है । पहला गुणस्थान सामान्य मानव की परिस्थिति कम का प्रश्न ही नहीं उठा। इस प्रकार कोई बन्धन को बतलाता है। इस सार पर मिथ्यात्व, अविरति, कषाय सम्भव नहीं है। केवल जब भाव कर्म मात्मा में होते है, और योगयुक्त क्रिया विद्यमान रहती है । यह मूलत: जीव तब पारमा बन्धन में होता है। प्रत्यक्ष जानान्वित मनुष्य _है जिस पर प्राध्यात्मिक जीवन का भवन प्राश्रित है। को न भावास्रव होता है और न द्रव्यामव ।
इस गुणस्थान मे जीव को अंधेरे मे थोडा सा प्रकाश
दिखाई देता है । इस गुणस्थान का नाम 'मिथ्यात्वदृष्टि" ___ इमसे स्पष्ट है कि ज्ञानी कम से प्रछता रहता है, लेकिन यह भी सत्य है कि भूतकाल के जीवन के सब कम
है । यह गुणस्यान सोढी की पहली पीढी है । ग्रन्थि रहित मनुष्य के कर्मशरीर मे निश्चय रहते हैं। इन बुनियादी
पात्माएँ जो थोडी देर के लिए प्राध्यात्मिक दृष्टि से कर्मबीजों का नाश करने के लिए जिनमत के अधिका
युक्त होते है, इस गुणस्थान तक गिर सकते है। ग्रन्थिरियो ने रत्नत्रय का अभ्यास निश्चित किया है । वह
बद्ध पात्मा गहन अन्धकार मे डुबा होता है। पहले गण
स्थान का प्राध्यात्मिक जीवन योगी को मिथ्यात्व से रत्नत्रय है श्रद्धा, ज्ञान और चरित्र । इस रत्नत्रय के
पूर्णतया छुटकारा पाने की सहायता करता है, जिससे कि दृढ़ाभ्यास न होने पर ही विभिन्न कर्म प्रात्मा को बद्ध करते हैं। समयसार के षष्ठ अध्याय में कुन्दकुन्दाचार्य ने
दूसरे गुणस्थानों में मिथ्यात्व बिल्कुल दृश्यमान नही ।
इसका अभिप्राय है कि प्राध्यात्मिक जीवन की नीव सब संबर का वर्णन किया है । सवर का अर्थ है कर्मागम को
क्षेत्रों में सत्य के व्यावहारिक जीवन पर प्राश्रित है। रोकना। यह सर्व प्रसिद्ध है कि जब तक देहात्मबोध है,
दूसरे गुणस्थान का नाम "सास्वादन सम्यग्दृष्टि" है। तब तक कर्म अवश्यम्भावी है, इसी को भावान व कहते
महान् ऋषियों ने हमें यह बतलाया है कि दूसरे गृणस्थान हैं, इसी का परिणाम द्रव्यास्रव है।
तक साधक पहले गुणस्थान से उत्थान के रूप मे प्रगति जैनदर्शन मे सारी सष्टि को नो प्रकार से विभाजिर
नहीं करता हैं, अपितु उच्च गणस्थान से पतन के कारण किया गया है-जीव (आत्मा), अजीव (पनात्मा),
थोड़े समय के लिए, दूसरे गुणस्थान तक गिरता है । पुण्य, पाप, पलव, संघर (कर्म-रोक), निर्जरा (कर्म
उदाहरणतया पहली बार प्रकाशयुक्त होने पर, संभावना त्याग), बन्थ और मोक्ष । मौलिक दो बातें हैं जीव और
है कि चिरकालीन कामनाएं जग जाएँ, प्रात्मा स्वाभाविअजीव । शेष इन दो की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप है।
कतया प्रात्मदर्शन के पहले अवलोकन से दूसरे गुणस्थान जनदर्शन में पूर्णता प्राप्ति के लिए चौदह गुणस्थान
तक गिरता है । एक बार दूसरे गगस्थान तक प्रवतरित प्रसिद्ध हैं। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग से
होने से, पहले गुणस्थान तक भी गिर जाता है। दूसरे युक्त क्रिया ही कम है। सब कर्मों के नाश होने पर प्रात्मा
गुणस्थान में मिथ्यात्व पूर्णतया अनुपस्थित है लेकिन लोकाकाश तक जाता है । जैनियों के अनुसार, कर्मप्रभाव
प्रविरति, कषाय और योग विद्यमान रहते हैं। के कारण ही, प्रात्मा नीचे के स्तर पर प्राकर सांसारिक
तीसरा गुणस्थान सम्यग्दृष्टि कहलाता है। पहले स्तर पर रहता है, लेकिन कर्मनाश होने पर, मात्मा
प्रकाश के बाद, यदि अनिमल कर्म, दृष्टि को भ्रमयुक्त सम्बन्धहीन होता है, अतएव नीचे के स्तर पर गिरने से
करके दिखाई दे, तो प्रात्मा थोड़ी देर के लिए इस गुण४. तत्त्वार्थवृत्ति ८. २.
स्थान में अवतरित होता है । यह भी सम्भव है कि थोड़ी ५. तत्वार्थवृत्ति।
देर के लिए यह पहले गुणस्थान तक गिर जाए, पर शीघ्र