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________________ जैनदर्शन में कर्मसिद्धान्त डा० कोशल्या बल्लो जैन दर्शन के अनुमार कर्म सिद्धान्त एक तथ्य है। करता है, एक प्रति गर्म लोहपिण्ड पानी को सब पोर से कम एक ऐसा द्रव्य है जो हमेशा आत्मा के किसी प्रश माकृष्ट करता है, ठीक उसी प्रकार कषाययुक्त मात्मा को प्रावृत करता है । जितनी शीघ्रता से कर्मनाश होता योग के कारण सब दृष्टिकोण से कर्म को ग्रहण करता है। है, उतना ही व्यक्ति के लिए अच्छा है। कम के सम्बन्ध में प्राचार्य कुन्दकुन्द का दृष्टिकोणजैनदर्शनानुसार जब तक कोई प्रयोजन न हो तब जन-संस्कृति में प्राचार्य कुन्दकुन्द पुरातन ख्यातिप्राप्त तक कोई कम नहीं होता। अतएव प्रयोजन से सम्बन्धित विद्वान है। जैनदर्शन मे "समयसार"' नामक उनकी किन्ही विशेष परिस्थितियों के अन्तर्गत ही क्रिया शब्द कृति मात्मा, बन्धन और मोक्ष के सम्बन्ध मे एक उत्कृष्ट भौर विचार कर्म कहलाता है। कृति है। अपनी कृति मे कुन्दकुन्द ने जैनधर्म की विचारजिनमत में कर्म समस्या, दूसरे भारतीय दर्शनों के । धारा पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। पहले दो अध्यायों में समान मात्मा के बन्धन के प्रश्न के साथ सम्बद्ध है। प्राचार्य ने यह दर्शाने का प्रयास किया है कि जीव पौर जैन विचारकों के अनुसार मात्मा कषाय के कारण पुद- प्रजीव-इन दो का अध्ययन करना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। गल को अपनी मोर प्राषित करता है जो कि कर्म के यह बताया गया है कि यद्यपि शभ और प्रशभ कर्म में अनुरूप है। बन्धन के पांच कारण हैं-१. मिथ्यादर्शन, अन्तर है, फिर भी सत्य तो यह है कि उच्च दृष्टिकोण से यह २. प्रविरति, ३. प्रमाद, ४. कषाय, ५. योग । बन्धन में अन्तर निरर्थक है, क्योंकि कर्म अपने मे ही बन्धन का कर्म और पुद्गल एक साथ संबद्ध हैं। कर्म भौतिक कारण है और कर्म का निराकरण ही होना चाहिए । जीवन का कारण है, पर मात्मा का गुण नहीं है । मिथ्या. उत्कृष्ट सत्य तो परमात्मा या शुद्ध प्रात्मा है जो कि दर्शन के कारण, पुद्गल के सूक्ष्म अणु, मात्मा से उसी अपने में पूर्ण है। यही परमार्थ है, यही परमतथ्य है। प्रकार मिले हुए हैं जिस प्रकार दूध पोर जल परस्पर यदि हमें परमात्मा के विषय में प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता तो मिले होते हैं। योग मोर कषाय के प्रभाव से'मात्मा में सब तपस्या और नियमपालन निरर्थक हैं। विश्वास, भौतिक द्रव्य कर्म का रूप धारण करते हैं। कर्म परिणाम माधरण और ज्ञान सत्य होने चाहिए, लेकिन यदि वह स्वरूप पुण्य भोर पाप के नाम से पुकारा जाता है। सत्य नहीं हैं और कम से प्रभावित हैं तो भौतिक जीवन जैन दर्शन में 'योग' शम्ब तथा उसका कर्म पर के दुःख अवश्यम्भावी है। प्राचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार प्रभाव-शरीर, मन पौर वाणी की क्रिया ही योग या भात्मा कर्म द्वारा विभिन्न परिवर्तनों को अपनाता है। प्रास्रा कहलाता है और कर्मोत्पत्ति का कारण है। पांचवें अध्याय में मानव जीव में कर्मागम को लाते हैं। त्रिकोणात्मक क्रिया से कम पात्मा में प्रविष्ट होता है। यह पूनः बतलाया जाता है कि मिथ्यात्व या गलत का प्रत्येक योग प्रास्रव नही है अथवा यदि वह कम विश्वास, अविरति या पनुशासनहीनता, कषाय या काम को प्राकृष्ट नहीं करता, इसे अनास्रव कहते हैं। जिस और योग अथवा मनोभौतिक प्रवृत्तियां-दो प्रकार के प्रकार एक गीला कपड़ा सब भोर से धूलि को प्राकृष्ट कर्मों को जन्म देते हैं-द्रव्यकर्म और भावकर्म। भावकर्म मात्मा में रहता है तथा भौतिक कर्म को जन्म देता है। १. तत्त्वार्थसूत्र-८.१. २. तत्वार्थवृत्ति ८.२. ३. समयसार-पाचार्य कुन्दकुन्द ।
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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