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२४, वर्ष २६, कि.१
अनेकात
प्रस्तु, अब तमिल भाषा को लीजिए। तमिल भाषा गए चार सौ पद्य हैं। पांड्य राज को धर्म, अर्थ, काम के प्रादि कबि भी जन ही है। तमिल संघकाल की और मोक्ष का उपदेश देने के लिए यह अमर ग्रन्थ रचा रचनाओं मे तिरुक्कुरल ही अन्तिम रचना है। इसके पूर्व गया था। इसकी रचना की कहानी बहुत रोचक है। पर की रचनामो में बहुत कम ग्रन्थ उपलब्ध है। तीसरी उसके उल्लेख से लेख का कलेवर बढ़ जायगा। शताब्दी में तृतीय तमिल सघ नामावशेष हुग्रा। ऐसी परि- जनश्रुति है कि इस ग्रन्थ के रचयिता सभी विद्वान् स्थिति में भी मान्य जैन कवियों ने वात्सल्य एवं गौरव के सर्वसंगपरित्यागी मुनि थे। साथ तमिल भाषा को बढाया। तीसरी शताब्दी से लेकर
___मणिमेखल-यह ग्रन्थ कवि शीतशन्तनार के द्वारा छठवीं शताब्दी तक जन कवियों ने पर्याप्त बहुमूल्य ग्रंथों
रचित एक वृहच्चरित काब्य है । इसकी शैली सुन्दर एवं की रचना की थी। यह सौभाग्य की बात है कि इस समय
गम्भीर है। इसमे बौद्धधर्म का सिद्धान्त एवं प्राकृतिक प्राप्त उन ग्रन्थोंसे भी जैन कवियों का पाण्डित्य एव उनकी
दृश्यो का सुन्दर वर्णन है। यह एक महत्त्वपूर्ण तमिल प्रखर बुद्धि स्पष्ट व्यक्त होती है। कन्नड़ वाङ्मय की ही तरह तमिल वाङ्मय भी जैन कवियों का चिर ऋणी है। "
महाकाव्य है। इस बात को निष्पक्षपाती प्रत्येक साहित्यप्रेमी सादर शिलप्पाधिकार-यह इल गोयडिंगल की रचना है। एवं सहर्ष स्वीकार करते है जिन कतियों में तिसक्करल. यह भी एक महत्त्वपूर्ण चरित-काव्य है। इसकी शैली नाल डियार, मणिमेखल, शिलप्यधिकार और जीवकचिन्ता. चित्ताकर्षक है। विद्वानो की राय है कि यही तमिल मणि ये बहुत ही ख्यातिप्राप्त कृतियां है। इन ग्रन्थों का भाषा का प्रथम काव्य है। इसमे गद्य भी है। यह काव्य संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :
उस समय के नाटक के रूप मे रचा गया है। इसमे रग
मंच, नट, गायक, संगीत और नृत्य प्रादि के सुन्दर विवेतिरुक्कुरल : इस कृति को सर्वमान्य कवि तिरुवल्ल.
चन के साथ साथ तत्कालीन रीति, नीति, राजा मादि वरने धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थ की प्राप्ति
पर भी यथेष्ट प्रकाश डाला गया है। के लिए रचा था। महाकवि तिरुवल्लवर इस प्रमर रचना से ही कविसावं भौम कहलाया । यद्यपि कुरल प्रथ
जीवकचिन्तामणि - यह काव्य तिरुतक्कदेवर के द्वारा के मंगलाचरण में कवि ने किसी भी भगवान् का नाम
रचा गया है। यह कवि जैन मुनि थे। इस काव्य मे स्पष्ट नही लिया है। फिर भी इसमे कमलगामी, प्रष्ट
जीवन्धर का चरित वणित है। इसकी भाषा शद्ध, गभीर गुणयुक्त प्रादि भगवान के विशेषण रूप से दिये गए जैन एवं सरल है। इसमे चरित्र के साथ-साथ जैन सिद्धान्त पारिभाषिक शब्दों से तिरुवल्ल वर जैन धर्मावलम्बी स्पष्ट तथा सामाजिक कलाओ का भी समावेश है। सिद्ध होता है। स्वर्गीय प्रोफेमर ए. चक्रवर्ती प्रादि
उपयुक्त कृतियों के अतिरिक्त जैन कवियों के चूलामान्य विद्वानों के मत से तिरुक्कुरल एलाचार्य अर्थात् मणि, यशोधरकाब्ध, नागकुमारकाव्य, उदयकुमारकाव्य माचार्य कुन्दकुन्द की अमर रचना है। इस बात को सुदृढ़ आदि काव्य ग्रन्थ, पालमोलिन नुरु बेलाडि, परिने रिचरं पुष्ट प्रमाणों से चक्रवर्तीजी ने सिद्ध किया है। बल्कि प्रादि नीतिग्रन्थ, प्रच्चनन्दिमल प्रादि छन्द पौर मलं. नीलकेशी नामक बौद्ध ग्रंथ के सफल जैन भाष्यकार मूनि कार ग्रन्थ, नन्नुल, नेमिनादं प्रादि व्याकरण ग्रंथ, मेरुसम, समय दिवाकर भी इस तिरुक्कुरल को अपना एक पवित्र दरपुराण, थिरुकुलवरं मादि पुराण सभी ग्रन्थ उपलब्ध ग्रंथ मानते रहे।
हैं। विद्वानों का मत है कि जैन कवियों के द्वारा ही तमिल नालडियार-चार-चार पंक्तियों से निबद्ध पद्यमय भाषा में संस्कृत शब्द नहीं के बराबर लिये गये थे। यह ग्रंथ बहुत ही उच्चकोटि का है। इसमें अन्यान्य चार जैन कवियों के संस्कृत विशेषज्ञ होने के कारण उनकी सो सर्वमान्य कवियों के द्वारा एक-एक के क्रम से रचे तमिल रचनामों में भी संस्कृत का होना स्वाभाविक ही है।