________________
वीतराग की पूजा क्यों ?
प्राचार्य जुगलकिशोर मुख्तार
जिसकी पूजा की जाती है वह यदि उस पूजन से अशोभन, अपावन मनुष्य के पूजा कर लेने पर वह देव प्रसन्न होता है, और प्रसन्ता के फलस्वरूप पूजा करने नाराज हो जाएगा। और उसकी नाराजगी से उस मनुष्य वाले का कोई काम बना देता अथवा सुधार देता है तो तथा समूचे समाज को किसी देवी कोप का भाजन बनना लोक में उसकी पूजा सार्थक समझी जाती है। और पूजा पडेगा; क्योंकि ऐसी शंका करने पर वह देव वीतराग ही से किसी का प्रसन्न होना भी तभी कहा जा सकता है नहीं ठहरेगा-उसके वीतराग होने से इनकार करना जब या तो वह उसके बिना अप्रसन्न रहता हो, या उसमें होगा, और उसे भी दूसरे देवी देवतामों की तरह रागी उसकी प्रसन्नता में कुछ वृद्धि होती हो अथवा उससे द्वेषी मानना पडेगा। इसी से अक्सर लोग जैनियों से कहा उसको कोई दूसरे प्रकार का लाभ पहुंचता हो; परन्तु करते हैं कि जब तुम्हारा देव परम वीतराग है, उसे पूजा वीतराग देव के विषय में यह सब कुछ भी नहीं कहा जा उपासना की कोई जरूरत नहीं। कर्ता धर्ता न होने से सकता-ये न किसी पर प्रसन्न होते हैं; न अप्रसन्न और किसी को कुछ देता-लेता भी नहीं। तब उसकी पूजा न किसी प्रकार की इच्छा ही रखते हैं, जिसकी पूर्ति- वन्दना क्यो की जाती है ? और उससे क्या नतीजा है। प्रपति पर उनकी प्रसन्नता अप्रसन्नतानिर्भर हो। वे सदा इन सब बातों को लक्ष्य में रखकर स्वामी, समन्तभद्र ही पूर्ण प्रसन्न रहते हैं उनकी प्रसन्नता में किसी भी जो कि वीतराग देवों की सबसे अधिक पूजा के योग्य कारण से कोई कमी या वृद्धि नही हो सकती। और जब समझते थे और स्वयं भी .प्रतेक स्तुति स्तोत्रों के द्वारा पूजा पूजा से वीतराग देव की प्रसन्नता या अप्रसन्नता उनकी पूजा मे हमेशा सावधान एवं तत्पर रहते थे, अपने का कोई सम्बन्ध नहीं। वह उसके द्वारा संभाव्य ही नहीं। स्वयंभू स्तोत्र में लिखते हैंतब यह तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता कि पूजा कैसे की न पूजार्थस्त्वयि वीतरागेन निन्दयानाथ नितान्त वैरे। जाए, कब की जाय, किन द्रव्यों से की जाय, किन मंत्रों से नया
स तथापि ते पुण्य गुणस्मृतिर्नः पुनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः॥ की जाय, और उसे कौन करे-कौन न करे ? और न
अर्थात हे भगवान् पूजा वन्दना से आपका कोई प्रयोयह शंका हो की जा सकती है कि प्रविधि से पूजा करने
जन नही है, क्योकि आप वीतरागी है-राग का अंश भी पर कोई अनिष्ट घटित हो जागगा । अथवा किसी अधर्म
आपके आत्मा मे विद्यमान नही है, जिसके कारण किसी से हट गया, मैं उसी क्षण चल दी और निरन्तर चलती की पूजा वन्दना से आप प्रसन्न होते। इसी तरह निन्दा हो रही।
से भी आपका कोई प्रयोजन नहीं है। कोई कितना ही यह है मेरी आत्म-कथा मां, मुझे आश्रय दो। आपको बुरा कहे, गालिया दे, परन्तु उस पर आपको जरा संसृति के अपावन कोलाहल ने मेरी शान्ति, मेरी प्रास्था भी क्षोभ नहीं आ सकता, क्योंकि आपकी प्रात्मा से छीन ली है। मुझे भगवान ऋषभ देव की अमृतवाणी का वैरभाव द्वेषांश बिलकुल निकल गया है। वह उसमे विद्यपान कराओं।
मान भी नही है। जिससे क्षोभ तथा प्रसन्नता आदि कार्यों प्रायिका पद्मश्री ने अनन्तमती की अनन्त व्यथा को का उद्भव हो सकता। ऐसी हालत में निन्दा और स्तुति पहिचाना।
दोनों ही आपके लिए समान है। उनमें आपका कुछ भी वह पत्नश्री का प्राश्रय पाकर निहाल हो गई। . बनता या बिगड़ता नहीं है। यह सब ठीक है। परन्तु फिर