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वीतराग की पूजा क्यों
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भी हम जो आपकी पूजा वन्दनादि करते है उसका दूसरा सब संसारी जीव अविकसित अथवा अल्पविकसितादि ही कारण है, वह पूजा वन्दनादि आपके लिए नही- दशाओं में है-वे अपनो आत्मनिधि को प्रायः भूले हुए है आपको प्रसन्न करके आपकी कृपा सम्पादन करना, या सिद्धात्माओं के विकसित गुणों पर से वे प्रात्मगुणों का उसके द्वारा आपको कोई लाभ पहुचाना, यह सब उसका परिचय प्राप्त करते है और फिर उनमें अनुराग बढाकर ध्येय नहीं है। उसका ध्येय है आपके पुण्य गुणों का स्मरण उन्ही साधनों द्वारा उन गुणों की प्राप्ति का यल करते भावपूर्वक अनुचिन्तन---जो हमारे चित्त को-चिप- है, जिनके द्वारा उन सिद्धात्माओं ने किया था। और आत्मा को-पापमलो से छुड़ाकर निर्मल एवं पवित्र इस लिए वे सिद्धात्मा वोतराग देव आत्म-विकास के बनाता है, और इस तरह हम उसके द्वारा अपने आत्मा इच्छुक संसारी आत्माप्रो के लिए आदर्शरूप होते हैं। के विकास की साधना करते हैं। इसी से पद्य के उत्तरार्ध प्रात्मगुणों के परिचयादि मे सहायक होने से उनके उपमें यह सैद्धान्तिक घोषणा की गई है कि आपके पुण्य गुणो कारी होते है और उस वक्त तक के उनके आराध्य रहते का स्मरणहमारे पापमल से मलिन आत्मा को निर्मल है जब तक कि उनके प्रात्मगुण पूर्णरूप से विकसित न करता है-उसके विकास में सचमुच सहायक होता है। हो जाए इसी से स्वामी समन्तभद्र ने "ततः स्वनिःश्रेय
संभावना परैबुंधप्रवेकजिन शीतलेड्यसे। (स्व०५०) यहाँ वीतराग भगवान् के पुण्यगुणों से स्मरण से पाप
इस वाक्य द्वारा उन बुध जन-श्रेष्ठों तक के लिए वीतराग मल से मलिन प्रात्मा के निर्मल होने की जो बात कही
देव की पूजा को प्रावश्यक बतलाया है। जो अपने निःश्रेयस गई है वह बड़ी रहस्यपूर्ण है और उसमें जैनधर्म के प्रात्म
की- प्रात्माविकास की भावना में सदा सावधान रहते वाद और कर्मवाद, विकासवाद और उपासनावाद जैसे
है । और एक दूसरे पद्य 'स्तुतिः स्तोतुः साधोः' (स्व० सिद्धान्तों का बहुत कुछ रहस्य सूक्ष्म रूपों में सन्निहित ।
११६) मे वीतराग देव की इस पूजा भक्ति को कुशलहै। इस विषय में मैंने कितना ही स्पष्टीकरण अपनी
परिणामो को हेतु बतलाकर इसके द्वारा श्रेयोमार्ग का उपासना तत्त्व और सिद्धि सोपान जैसी पुस्तको में किया
सुलभ तथा स्वाधीन होना तक लिखा है। साथ ही, उसी है-स्वयम्भू स्तोत्र की प्रभावना के भक्तियोग और स्तुति
स्तोत्रगत नीचे के एक पद्य में वे योग बल से पाठों पापप्रार्थनादि रहस्य नामक प्रकरण से भी पाठक उसे जान
मलों को दूर करके संसार में न पाए जाने वाले ऐसे परम सकते हैं। यहाँ पर मैं सिर्फ इतना ही बतलाना चाहता
सौख्य प्राप्त हुए सिद्धात्मानों का स्मरण करते हुए अपने हैं कि स्वामी समन्तभद्र ने वीतराग देव के जिन पूण्य
लिए तद्रूप होने की स्पष्ट भावना भी करते है जो कि गुणों के स्मरण की बात कही है वे अनन्तज्ञान, अनन्त
जो कि वीतराग देव की पूजा-उपासना का सच्चा दर्शन, अनन्तराख और अनन्तवीर्यादि प्रात्मा के प्रसाधारण गुण है, जो द्रव्यदृष्टि से सब प्रात्माओं के समान होने पर सबकी समान सम्पत्ति है और सभी भव्य जीव
जो दुरितमलकलंकमष्टकं निरुपमययोगवलेन निर्दहन् । उन्हें प्राप्त कर सकते है। जिन पापमलों ने जत गणों को प्रभववभव-सौल्यवान् भवान्भवतु मयाऽपि भवोपशान्तये।' आच्छादित पर रखा है वे ज्ञानावरणादि पाठ कर्म हैं, स्वामी समन्तभद्र के इन सब विचारों से यह भले योगबल से जिन महात्माओं ने उन कर्म मलों को दग्ध प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि वीतराग देव की उपासना करके प्रात्मगुणों का पूर्ण विकास किया है वे ही पूर्ण की जाती है और उसका करना कितना अधिक प्रावविकसित, सिद्धात्मा एवं वीतराग कहे जा सकते हैं। शेष श्यक है।
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