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नौकाओं द्वारा माल एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँबाया जाता था। ऐसे उल्लेख भी मिलते हैं कि विदेह से गान्धार, मगध से सौवीर, मरुकच्छ से समुद्र के रास्ते दक्षिण पूर्व के देशों से व्यापार होता था ।
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स्वातन्त्र्य सेनानी सुध्वज श्रावस्ती की यह समृद्धि र स्वतन्त्रता १२-१३ वीं शताब्दी तक ही सुरक्षित रह सकी और उसकी सुरक्षा का अन्तिम सफन प्रयत्न श्रावस्ती नरेश ध्वज वा सुहषदेव ने किया नियम तथा स्मिथ ने भी इसका समर्थन किया है। यह राजा जैन था। उस समय महमूद गजनवी भारत के धनेक प्रातो को रौंदता हुआ गजनी लौट गया। उसने अपने भानजे सैयद सालार मसऊदगानी की श्रवध-विजय के लिये मुमलमानों की विशाल सेना के साथ भेजा । लार जितना बहादुर सिपहसालार था, उतना ही कूटनीतिज्ञ भी था । उसने अनेकों हिन्दू राजाभो को फूट डालकर अथवा युद्ध में गायों को प्रागे करके पराजित कर दिया। किन्तु जब वह बहराइच के समीप कौड़ियाला के मैदान में पहुँचा तो उसे बडी जैन नरेश सुहलदेव से मोर्चा लेना पड़ा। इस युद्ध में सन् १०३४ मे संयद सालार और उसके सैनिक राजा सुहलदेव के हाथो मारे गये। इससे श्रावस्ती मी सुरक्षित रही और लगभग दो सौ वर्ष तक अवध भी मानों के घाट से मुक्त रहा। किन्तु इस घटना के कुछ समय पश्चात् किसी देवी विपत्ति के कारण श्रावस्ती का विनाश हो गया। उसके बाद अलाउद्दीन खिलजी ने श्राकर यहाँ के मन्दिरो, बिहारों स्तूपो और मूर्तियो का बुरी तरह विनाश किया। उसके कारण भावस्ती खण्डो के रूप में परिवर्तित हो गई और फिर कभी अपने पूर्व गौरव को प्राप्त न कर सकी १० सर्वे रिपोर्ट ऑफ इण्डिया भाग २
• प्रनेकान्त •
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पृष्ठ ३१६-३२३ २- जर्नल रायल एशियाटिक सोसायटी सन् १९०० पृष्ठ १ ३- प्रदुरहमान चिश्ती कृत 'मोराते मसऊदी'- सुहलदेव ने
उन्हें उनके पड़ाव बहराइच में था घेरा यहां मसऊव रज्जबुल मुरज्जक १८ वीं तारीख को ४२४ हिजरी में (सन् १०३४ ई०) अपनी सारी सेना सहित मारा
गया ।
पुरातत्व नगरी प्रारम्भ से तीर्थ क्षेत्र के रूप मान्य रही है तथा खूप समृद्ध रही है। अतः यहाँ विपुल सख्या में मन्दिरो स्तू पोर बिद्वारो का निर्माण हुआ। मौर्य युग मे सम्राट् अशोक ने कई स्तम्भ प्रोर समाधि स्तूप बनवाये थे। उनके पोत्र सम्राट् सम्पति ने भगवान् सभवनाथ की जन्मभूमि पर स्तूप पर मन्दिरों का निर्माण कराया था । किन्तु पलाउद्दीन खिलजी (१२६६१३१६ ) ने इन कलाकृतियो और धर्मायतनों का विनाश कर दिया। उसके खण्डहर सहेट-महेट ग्राम में मीलों तक बिखरे पड़े हैं। भारत सरकार की ओर से यहाँ सन् १८६३ से पुरातत्ववेत्ता जनरल कनिघम, वेनेट, होय, कागल, दयाराम साहनी, मार्शल आदि की देख-रेख में कई बार खुदाई कराई गई। इस खुदाई के फलस्वरूप जो महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध हुई है, वह लखनऊ और कलकत्ता के म्यूजियमों में सुरक्षित है। इस समय में स्तूपों, मन्दिरो और बिहारो के अवशेष, मूर्तियाँ, ताम्रपत्र, प्रभिलिखित मुहरे प्रावि है । यह सामग्री ई० पू० चौधी शताब्दी से लेकर १२ वी शता ब्दी के अन्त तक की है। एक ताम्रपत्र के अनुमार, जो कन्नौज के राजा गोविन्द चक्र का है, ज्ञात होता है कि सहेट प्राचीन जेतवन (बौद्ध विहार) का स्थान है और महेट प्राचीन श्रावस्ती है। महेट के पश्चिमी भाग में जैन अवशेष प्रचुर मात्रा में मिले हैं। यह भाग इमलिया दरबाजे के निकट है। यही पर भगवान् सभवनाथ का जी शीखं मन्दिर है जो प्रत्र सोमनाथ मन्दिर कहलाता है । सोभनाथ संभवनाथ का ही विकृत रूप है। इस मन्दिर की रचना पर ईरानी जी की छाप है। इसके नीचे प्राचीन जैन मन्दिर के अवशेष हैं। मन्दिर के ऊपर गुम्बद साबुत है किन्तु दो तरफ की दीवारें गिर चुकी हैं। वेदी के स्थान पर एक पाँच फुटी महराबदार अलमारी बनी हुई है । गर्भ गृह १०×१० फूट है। उसर, पूर्व और दक्षिण की पोर द्वार है। दीवार के आसार साढ़े तीन फुट है। गर्भगृह के बाहर एक चबूतरा है। उसके भागे नीचाई में दो भांगन हैं। ऐसा लगता है कि यह मन्दिर तीन करनियों पर बना था। इसका पूर्वी भाग कंकरीले फर्श वाला समचतुर्भुज श्रांगन है जो पूर्व से पश्चिम ५६ फुट और उत्तर से दक्षिण ४६ फुट चौड़ा है। इसके चारों ओर ईटों की दीवार है
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