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१८८, वर्ष २६, कि० ४-५
अनेकान्त
भूमंडल में राजकुमार। राजन इन्हें अंजना देकर,
सुख पावेगे आप अपार"।
सुन प्रधान मंत्री की वाणी।
नरपति का मन मुदित हुअा। सुता पवनंजय को ही दूंगा,
ऐसा दृढ़ संकल्प हुा ।।
सुने पवनजय के गुण गौरव,
हुई अजना खुश मन में । देख कल्पनादृग से उनको,
बिठा लिया हृदयासन में ।
गये वहाँ से फिर सारे जन,
दर्शन करने श्री जी के । भक्ति भाव से बड़े चाव से,
निर्मल करने दग ही के ।।
शास्त्र सभा में बैठ पास ही, दोनों शास्त्र लगे सूनने ।।
(२१) दोनों रम्य शंल की शोभा,
साथ देखने जाते थे। एक दूसरे का गुण देखे, ___ मन में खूब लुभाते थे।
(२२) नृप प्रह्लाद चाहता था यह,
"होय अजना साथ विवाह । मेरे सूनु पवनंजय का तो, मुझको होवे बड़ा उछाह" ।
(२३) रानी भी इसमे राजी है,
राजी है सारा परिवार । और सुना है सच्चे दिल से, __ इसे चाहता राजकुमार ॥
(२४) स्वयं अंजना बड़ी सुशीला,
सारे सद्गुण वाली है। शील शिरोमणि मान पिता ने, शुभ शिक्षा दे पाली है।।
(२५) इतने में ही नप महेन्द्र ने,
अवसर पाय किया प्रस्ताव । "राजकुमार पवनंजय को मम, कन्या देने के है भाव" ।।
(२६) यह महेन्द्र नरपति की वाणी,
आदितपति के मन भाई। 'मेरा भी था यही मनोरथ,' कह प्रसन्नता दिखलाई ।।
(२७) बड़े ठाट से शुभ बेला में,
हुई सगाई यह सानद।
"सपरिवार आदित्यपुरी के,
आये है नृप भी प्रह्लाद । यात्रा को कैलाशधाम की"
सुना मार्ग में यह संवाद ।।
विधि से श्रीजिनवर के दर्शन,
नप महेन्द्र इत कर आये। उधर भूप प्रह्लाद दरस पा, अपने डेरे पर आये ।।
(१६) दोनों भूपति ने आपस में,
मिलने का सकल्प किया। राजरीति से मिले, मधुरतम ;
बातें कर मन मुदित किया ।।
दोनों जाने लगे साथ ही,
श्री जी के दर्शन करने ।