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पाणिग्रहण मुहूरत ठहरा, तीसरे दिन का हो सुखकंद ॥ ( २८ )
बाजे बजने लगे मनोहर, होने लगा मंगलाचार । नहीं समावे मन में ऐसा, सब पर छाया हर्प अपार ॥ (२६) व्योमयान में बैठ शाम को,
सैर प्रवनंजय करते थे । अपने प्रिय प्रहस्त को भी वे, लिये साथ ही फिरते थे । (३०) इतने में हो इनके मन में,
उठा मनोरम एक विचार । "चलो चले छुपकर चल देख,
प्रिया कर रही क्या व्यापार ॥ (३१) "प्यारी प्यारी सखियों के संग, वह बातें करती होगी । मीठी मीठी बड़ी रसीली, मिश्री सी घुलती होगी" ॥ (३२) यो विचार, तज व्योमयान को, चले बड़े चतुराई से । लता वृक्ष की छुपे ओट में, खड़े रहे सुधराई से । (३३) लगे देखने जिधर प्रजना,
बैठी थी सखियों के सग । था नख से शिख तक साँचे में,
ढला हुआ सा उसका अग ॥ (३४) छिटक रही थी रम्य चॉदनी, कुसुम खिले थे रंग विरग । मन्द मन्द मारुत बहता था,
अंजना
उठती थी मन माहि उमंग ॥ (३५)
देख अजना का मुख - सुन्दर, मन में चंद्र लजाता है । इसी लिए क्या वादल भीतर, बार बार छुप जाता है ॥ (३३)
नख से शिख तक इसका जग में, कही नही मिलता उपमान । इससे बस इसकी सी है यह, किये पवनजय ने अनुमान ॥ (४७)
सखी अजना से कहती थी, इसने सुना लगाकर कान । तभी सुन पड़ा "सखी अजना,
बड़ा पवनजय हे गुणवान् " ॥ (३८)
"धन्य धन्य है भाग्य आप के,
मिला मनोहर वर ऐसा । देवाङ्गना विठा ले जिसको,
अपनी आँखो में ऐसा " ॥ ( ३९ ) सुन सुन ऐसे वचन पवनजय,
प्रमुदित होता जाता था ।
रूप-सुधारस रूपवती का,
पीते नही अघाता था ॥ (60) लगी 'मिश्रकेशी' यो कहने,
इतने में ही वात वनाय । " वसन्तमाला ! तू क्या जाने, पुरुष परीक्षा के सदुपाय " || ( ४१ ) भला पवनजय के भीतर कह,
क्या क्या गुण तू पाती है । झूठी बातें बना बनाकर,
बाई को बहकाती है ।
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