SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भ रतीय दर्शन में योग साध्वीश्री अशोकश्री जी भारतीय संस्कृति अध्यात्म प्रधान है। यहाँ के ऋषि- वहाँ अनासक्ति योग का भी वर्णन किया गया है। यहां महषियों ने गिरि कन्दराओं मे बैठ कर आत्म-निदिध्यामन पर एक असामजस्य भी पैदा हो जाता है कि एक ओर से जो अनुपम एवं मौलिक तत्त्व पाये, उन्होने उनको जहाँ कर्म-कुशलता को योग कहा है, वहीं दूसरी पोर विश्व-हित मे वितरित किया था। उन्हें जितना स्व- अनासक्त रहने का उपदेश भी दिया गया है। यह प्रत्यक्ष कल्याण अभिप्रेत था, उतना पर-कल्याण भी अभीष्ट था। बिरोध चिन्तन के लिए विशेष उत्प्रेरित करता है। कार्य आत्मा का साक्षात्कार करने में उन्होने अथक प्रआयाम निपणता के लिए उसमे तल्लीन व तन्मय बनना पडता उठाया था। कठिन से कठिन साधना उन्होने की और है और उसमे बिना तन्मय बने कार्य-दक्षता नहीं मधती उसके आधार पर उन्हे महत्त्वपूर्ण उपलब्धियां हुई । भावी तथा तल्लीन रहने पर भी इसमे ग्रामक्ति न हो, यह पीढी के लिए उन्होंने उन उपलब्धियो को संजोकर रक्ता, कैसे सम्भव है। पर गीता में इसका मुन्दर ममाधान जो आज हमारे लिए विशेष धरोहर बन गई है। हम दिया गया है, जिससे किसी को विरोधाभास प्रतीत न हो। यदि उसके अनुसार बढते रहे तो माधना के चरम उत्कर्ष काव्य की भाषा में कहा जा सकता हैको सहज ही प्राप्त कर सकते है। बांसों को छाया सीढ़ियो को बहार रही है ___ साधना के विभिन्न मार्ग है। योग-सावना भी उनमे परन्तु कोई धली नहीं उठती एक विशिष्ट मार्ग है, जिसे भारत की सभी परम्परागो ने चन्द्रमा का प्रकाश पानी के तल में अन्तप्रवेश करता है स्वीकार किया है। इस राज-मार्ग पर चलकर व्यक्ति परन्तु पानी में कोई चिह्न नहीं छोड़ता। स्व-हित और पर-हित दोनो को यथेष्ट रूप से साध अर्थ स्पष्ट ही है। क्रिया को सर्जना में कमल की सकता है। योग-परम्परा के विभिन्न पहलुयो पर विचार तरह निलिप्त रहे। करना प्रस्तुत निवन्ध का अभिप्रेत है । गीता मे एक दूसरी परिभाषा और भी आती है परिभाषा: 'योग, समत्वमुच्यते' समताभाव ही योग है। अरविद के योग शब्द युज् धातु के साथ छन् प्रत्यय से निष्पन्न विचारानुसार 'स्वास्थ्य, प्रसन्नता, स्फूर्ति और प्रानन्द हुआ है । युज् धातु दो प्रकार की है ..युज नर योगे और प्राप्त करने की कला का नाम योग है ।" वैसे तो अरविद युज समाधौ । प्रथम का अर्थ है ---जोड़ना और दूसरीका ने सम्पूर्ण जीवन को ही योग माना है। उनका कहना अर्थ है- समाधि (मन-स्थिरता)। विभिन्न प्राचार्यों ने है-"हम जीवन और योग दोनो को ही ठीक प्रकार योग को विभिन्न परिभाषाप्रो मे वाधा है। महर्षि पतजलि से देखे तो सम्पूर्ण जीवन ही सचेतन रूप से या अचेतन ने चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहा है। दूसरी परिभाषा रूप से योग है। क्योंकि इस शब्द से हमारा मतलब है की अपेक्षा उन्होने पहली परिभाषा पर अधिक बल दिया कि अपनी सत्ता में प्रसुप्त क्षमतायो के आविर्भाव द्वारा है और उसका ही अपने ग्रन्थ मे आद्योपान्त विवेचन अात्मा की परिपूर्णता की दिशा में व्यक्ति का विधिबद्ध किया है । भगवद्गीता मे 'योग कर्मसु कौशलम्' प्रयत्न और मानव सृष्टि का उस विश्वव्यापी तथा परस्पर मन, वचन और काय के राम्या प्राोग को योग कहा है। के सत्ता के साथ मिलकर, जिसे कि हम मनुष्य में प्रोर १. योगश्चित्तवृत्ति निरोः । २. ध्यान सप्रदाय, पृ. ६४ ।
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy