SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कलिंग जिन -श्री ठाकुर उन्होने जब जो चाहा, मिला-अन्धकार में दीप्ति, निराशा कलिंग प्रजा अपने युवक सम्राट् खारवेल से अत्यन्त में सम्बल, हार में प्रेरणा और विषाद में प्राश्वासन । सन्तुष्ट है। प्रजा रंजन के लिए उन्होंने लक्ष-लक्ष पण वह उनके हृदय में गहरे विश्वास की तरह जम गई थी। लगाकर अनेकों सुख सुविधायें प्रदान की थीं। पैतीस लक्ष और वही एक मात्र कड़ी थी कि कलिग की ३५ लाख पण से खिविर सागर से एक कुल्या बनवाई । जिससे सारे प्रजा का एक ही विश्वास और एक ही मार्ग बन गया था। जानपद अति सन्तुष्ट है। ७५ लाख पण लगाकर रत्न किन्तु विश्वास का वह देवता उनके पास न था। नन्दराज बड़ित चार स्तम्भ बनवाए। महा विजय प्रसाद का । कलिग विजय के उपहार के रूप में उस प्रतिमा को उठा सौन्दर्य और कला मानों दर्शको से मौन संलाप करता है। ने गया था। पराजय के व्रणकाल ने भर दिये थे, किन्तु वहाँ के मदनोद्यान, राजकीयोद्यानादि अनेकों उपवनों में जब उनके विश्वास का एक मात्र सम्बल ही उनके पास प्रकृति इठलाती फिरती है। प्रजा को खारवेल के रूप मे न रह गया, छीन लिया गया तो धैर्य और सन्तोष का सौन्दर्य मिला, समृद्धि मिली, कला मिली, न्याय मिला स्थान भी रिक्त हो गया। लगता था, निरन्तर बढ़ती हुई और सन्तुष्टि मिली। समृद्धि के प्रति उनकी वितृष्णा दूर न होगी, जब तक मन किन्तु कलिग की प्रजा जब 'जयकलिंग जिन पुकारती । __ का वह देवता अपने सूने देवालय मे न प्रान विराजे । तब उसके मन में दबी हुई वेदना उभर पाती। कलिग जिन उसके प्राराध्य देवता थे। उस देवता के चरणों मे उसने धर्म पाया था, आत्म प्रतीति पाई थी, कर्म पाया और सम्राट् खारवेल ? था और जग की सुषमा पाई थी। इस जगत की नश्वरता- उनका कुल देवता छिन गया था। उनके वंश का में सब कुछ ही तो नश्वर था। किन्तु एक मात्र अविनश्वर भारी अपमान हुआ था। कलिग के विद्यापीठ में जब में की वह कलिंग जिन की विमुग्धकारी मूर्ति जो कलिग की उन्होने पढा था कि दक्षिण कौशल से आकर उनका सारी प्रजा के मन में, सम्पूर्ण पात्मा मे ऊँचे आसन पर प्रतापी पूर्व सम्राट महामेघवाहन ने कलिंग में ऐलचेदि न जाने कब मे विराज रही है। उस भव्य प्रतिमा से वंश का प्रभाव स्थापित किया और उसका पराभव मगध संख्या बुद्धिमानी की निशानी है शक्कर मीठी है यह सम्राट् नन्दराज ने किया, इतना ही नहीं, उनके कुलपानी में घुल मिल जाती है तो अपना अस्तित्व देवता को भी मानों वह सम्राट् उठा ले गया, तब से ही व्यापक बना देती है । शक्कर के मिल जाने पर लोग खारवेल खार खाये बैठा था। क्षत्रिय होकर वह अपने कहते है 'जल मीठा है' पर वास्तविक बात तो यह वंश के पराभव का प्रतिशोध लेना ही कुल देवता की है कि शक्कर की मिठास है। जैन भी अन्यो मे कलिग में पुनः प्रतिष्ठा किए बिना उसका प्रतिशोध धुल कर उनमे चुपचाप मधुरता भरते रहते हैं।"५ निरर्थक होगा। और यों युवक सम्राट् के जीवन की साधना अपने वंश के अपमान का प्रतिशोध लेने की बजाय स्याद्वाद जैन दर्शन का अजेय किला है; जिसमे वादी अपने कुल देवता की प्रतिमा को पुनः कलिंग में लाना प्रतिवादी के मायामय गोले प्रविष्ट नहीं हो सकते। . यह हो गई। कलिंग जिनकी वह रत्नमय प्रतिमा केन्द्र ५. प्राचार्य विनोवाभावे, जैन भारती, वर्ष-१५, अंक-१६ बन गई, जिसके चारों भोर अपमान का प्रतिकार, प्रमा
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy