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________________ प्राचीन जैन ***** प्राचीन जैन परपरा में व्रतधारी गृहस्थ को श्रावक, उपासक प्रथवा भरणुव्रती कहा जाता था। वे श्रद्धा एव भक्ति के साथ अपने भ्रमण गुरुजनों से निर्भय प्रवचन का श्रवण करते थे । अतः उन्हें श्राद्ध या श्रावक कहा जाता था । प्रर्थात् श्रद्धापूर्वक अपने गुरुजनो अथवा श्रमणो से निग्रंथ प्रवचन का श्रमण करने के कारण ब्रतधारी जैन गृहस्थ को श्राद्ध प्रथवा श्रावक कहते थे। उन्हें श्रमणोपाशक भी कहा गया है, क्योंकि वे श्रमरणो की उपासना करते थे। उन्हें धरती, देश विरत देश यमी तथा देश संपति की भी संज्ञा दी गई है। घर-गृहस्थी का त्याग न कर घर पर ही रहने के कारण उन्हें सागार प्रागारी गृहस्थ तथा गृही श्रादि नामो से भी जाना जाता था। श्रमण श्रमणी के प्राचार अनुष्ठान की ही भाँति श्रावकश्राविका के प्रचार अनुष्ठान की भी अनिवार्य अपेक्षा होती बी । श्रावक धर्म की भित्ति जितनी सदाचार पर प्रतिष्ठित होती है, श्रमण धम की नींव उतनी ही अधिक दृढ मानी जाती है ।" नावकाचार : श्रावक कुल मे उत्पन्न होने से जिन धर्म प्राप्ति में विश्वास किया जाता था । गृहस्थाश्रम में रहते हुए श्रावक के लिये श्रा (छोटे) व्रतो के पालन का विधान था। जैन परंपरा मे ये प्रव्रत पाँव प्रकार के माने गये हैं, १- समराहा कहा ३ पृष्ठ २२८ ५ पृ ४७३। २- जैन साहित्य का वृद् इतिहास, भाग १, पृष्ठ २३० । ३-मा कहा ७, पृष्ठ ६, १८ । ४- ३, पृ २२८ ५ पृ ४७३, ४८० ८ पृष्ठ ८१२१३ ६ ४ ६५३ । श्रावक -डॉ० भिनकू यादव यथास्थूल प्रतिपात विरमा, स्थूल मृषावाद विरमण स्थूल प्रदत्ता दान विरमण, स्वदार सन्तोष तथा इच्छा परिमारण व्रत। * श्रावकों के प्रचार का प्रतिपादन सूत्र कृताङ्ग पौर उपासक दशांग प्रादि श्रागम ग्रन्थो में बारह व्रतो के प्राधार पर किया गया है। इन बारह व्रतों में क्रमश: पाँच भगुव्रत और शेष सात शिक्षा व्रत है । यहाँ तीन गुरण व्रतों प्रौर चार शिक्षा व्रतों का ही सामूहिक नाम शिक्षा व्रत है । समराइच्च कहा में उल्लिखित है कि श्रावक श्रतिचारो से दूर रहता हुआ कुछ उत्तर गुण व्रतो को स्वीकार करता है। ये है दिगुणवत, प्रपोदिगुन तिर्यक श्रादि गुरण व्रत, भोगोपभाग परिणाम लक्षण गुरणव्रत ( उपभोग और उपभोग का कारण स्वर और कर्म का स्वाग), बुरे ध्यान से याचरित विरति गुण व्रत पापकपदेश लक्षण बिरति गुरण बन, अनर्थ दण्ड विरति गुरण व्रत तथा साक्ययोग का परिवर्जन और निवद्ययोग का प्रतिसेवन रूप सामयिक शिक्षा व्रत पोर दिक वन से ग्रहरण किया हुआ दिशा के परिणाम का प्रतिदिन प्रमाणकरण, देशावकाशिक शिक्षा व्रत, शरीर के सत्कार से रहित ब्रह्म५--कैलाशचन्द शास्त्री-जैन धर्म पृष्ठ १८४१६५, हीरालाल जन- भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृष्ठ २५५-६० मेहता जैनाचार, पृष्ठ ८६-१०४ ६२/२३/३ रविरमा प are पोलोव वासेहि बप्पा नावे मारणो एव चरण बिह ७-पाक वशांग, प्रध्याय १. सूक्त १२, १८ पंचा लियंस सायं वास्तविहंगम् ..." ।
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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