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________________ * अनेकान्त . पर्य ब्रत का सेवन, व्यापार रहित पौषष शिक्षा व्रत का लेना, राज्य के कानूनों को मड़ करमा, नकली तराजू-बाट मेवन तथा न्यायपूवक अजित एव कल्पनीय अन्न-पान प्रादि रखना, म्यूनाधिक तौलना या इस प्रकार के अन्य पवहार द्रव्यो का वेश, काल, श्रद्धा, सरकार प्रादि से युक्त तथा करना व्यभिचारिणी स्त्री से सम्पर्क स्थापित करना या परम भक्ति से प्रात्म शुद्धि के लिये साधुषों को दान और अविवाहिता स्त्री से संसर्ग करना, काम क्रीड़ा, दूसरे का अतिथि विभाग शिक्षा ब्रत आदि सभी उत्तर गुण के रूप विवाह करना, काम की तीब्राभिलाषा क्षेत्र व वस्तु की सीमा मे स्वीकार किये गये हैं। का उल्लघन, द्विपद या चतुष्पद के प्रमाण का उल्लंघन, उपासक दशांग में श्रावकों को पांच प्रणबत और सात मरिण मुक्ता प्रादि के प्रमाणों का उल्लंघन या इस प्रकार शिक्षा ब्रतों का नाम गिनाया गया है। यहाँ तीन गुण के अन्य कार्य एव पदार्थ जो ससार भ्रमण के निमित्त ब्रतो और चार शिक्षा ब्रतो को ही सामूहिक रूप से शिक्षा हैं।'१ श्रावक के पांच प्रणु व्रत, तीन गुण व्रत तथा चार शिक्षा व्रत इन सभी के पांच-पांच अतिचार है.२ जिनका ब्रत कहा गया है। विवरण निम्रलिखित प्रकार से प्राप्त होता है। समर। इच्ज कहा मे श्रावकाचार के अन्तर्गत पाँच प्रगा स्थूल अहिमा अथवा स्थूल प्राणातिपात विरमण के ब्रतों के साथ २ तीन गुण व्रतों का भी उल्लेख है।'' इन्हे गुण ब्रत इसलिये कहा गया है कि इनसे प्रणुब्रत रूप पांच-पांच प्रमुख अतिचार है-बध, बध, छविच्छेव (किसी भी प्राणी को प्रङ्गोपांग काटना, प्रतिभार तथा अन्न-पान मूल गुणो की रक्षा तथा उसका विकास होता है । धार्मिक विरोष, स्थूल मृषावाद विरमण के अन्तर्गत-सहसा क्रियाओं में ही दिन व्यतीत करना पौषधोपवास व्रत कहलाता है। इसे गृहस्थ को यथाशक्ति प्रत्येक पक्ष की अष्टमी अभ्यारूपान, रहस्य अभ्याख्यान, स्वदार पौर म्वपति मंत्रएव चतुर्दशी को करना चाहिए जिससे उसे भूख, प्यास भेद, मृषा उपदेम और कूट लेखकरण (झूठा लेख तथा प्रादि पर विजय प्राप्त हो। चौथे अपने गृह पर पाये हुए लेखा-जोखा लिखना, लिखवाना प्रादि); स्थूल अदत्तादान मुनि मादि को दान देना अतिथि संविभाग व्रत है। के अन्तर्गत-स्तेनात (चोरी का माल लेना), तस्कर प्रयोग, राज्यादि विरुद्ध कर्म, कूट तौल-माप तथा तत्पतिश्रावक-अतिचार : रूपक व्यवहार (वस्तुपों में मिलावट करना), स्वदार संतोष समराइच्च कहा मे गृहस्थ श्रावकों के लिये कुछ के अन्तर्गत-इत्वरिक परिगृहीता गमन (यहाँ इत्वर का अतिचारों का नाम गिनाया गया है जिनका पालन करना अर्थ अल्प काल से लगाया गया है अर्थात् पल्प काल के उनके लिये मावश्यक था । सासारिक भ्रमण अथवा सासा- लिये स्वीकार की हुई स्त्री के साथ काम-भ ग का सेवन रिक दुखों के कारणभूत प्रतिकार इस प्रकार हैं-बन्ध, करना), अपरिगृहितागमन (अपने लिये अस्वीकृत स्त्री के बंध, किसो अङ्ग का काटना, जानवरों पर अधिक बोझ साथ काम-भोग का सेवन), अनङ्ग क्रीड़ा, पर विवाह लादना, किसी को भोजन-पानी में बाधा डालना, सभा मे करण तथा काम भोग तीब्राभिलाषा; इच्छा परिमारण के किसी की निन्दा करना या किसी की गुप्त बात को प्रकट अन्तर्गत-क्षेत्र वस्तु परिमाण अतिक्रमण, हिरण्य सुवर्ण करना, अपनी पत्नी की बात दूसरों से कहना, किसी को परिमाण प्रतिक्रमण, धन धान्य परिमारण प्रतिक्रमण, झूठा उपदेश देना, जाली लेख लिखना अथवा चोरी से द्विपद-चतुष्पद परिम ण प्रतिक्रमण तथा कुप्य परिमाण लायी हई वातु खरीदना या चोरों से किसी का धन चुरवा अतिक्रमण प्रादि अतिचार गिनाये गये हैं। इसी प्रकार -समराहच्च कहा १ पृष्ठ ६२। गुण बनो मे दिशा परिमाण के अतिचार-ऊध्र्व दिशा ६-उपासक दशांग, अध्याय १, सूक्त १२ ५८ । परिमाण अतिक्रमण अघोदिशा परिमाण पतिक्रमण, १०-समराइब कहा, पृष्ठ ५७; देखिए-हीरालाल जैन तिर्यक दिशा परिमाण अतिक्रमण, क्षेत्र वृद्धि, स्मृत्यन्तर्धा मारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगवान, पृष्ठ २६१- ११-समराइच कहा, १, पृष्ठ ६१-६२। ६२; मोहनलाल मेहता-जमाचार, पृष्ठ १०४.५। १२-मोहनलाल मेहता-जनाचार, पृ८६ से १२४ ।
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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