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* अनेकान्त * (विस्मृति के कारण खुद गया हो अथवा कोई वस्तु प्राप्त और मात्सर्य (श्रद्धापूर्वक दान न देते हुए दूसरे के दान हुई हो तो उसका भी परित्याग करना); उपभोग परिभोग गुण की ईर्ष्या से दान देना) प्रादि प्रतिचार गिनाये गये परिमाण के अन्तर्गत–सचित्ताहार, मचित्तप्रतिबद्धाहार है जिसका पालन करना श्रावको के लिये अति आवश्यक प्रपक्वाहार, दुष्पक्वाहार तथा तुच्छौरुचि भक्षण; अनर्थ बताया गया है। दण्ड विरमण के अन्तर्गत-कन्दपं (विकार वर्धक वचन ऊपर समराडच्च कहा मे उल्लिखित अतिचारों को बोलना या सुनना), कौत्कुच्च (विकार वर्धक चेष्टा करना जैनाचार के अनुसार पाँचो प्ररणवतो के अन्तर्गत ही रखा या देखना), मौखर्य (असम्बद्ध एव अनावश्यक वचन जा सकता है । बन्ध, वध, किसी प्रङ्ग का काटना, जानवरों बोलना), सयुक्त धिकरण (जिन उपकरणो के संयोग से पर अधिक बोझ लादना तथा किसी को भोजन पानी में हिसा की संभावना बढ़ जाती है) और उपभोगपरिभोगा- बाधा पहुँचाना प्रादि अतिचार स्थूल अहिंसा अथवा स्थूल तिरिक्त (पावश्यकता से अधिक उपभोग एव परिभोग की प्राणातिपात विग्मरण के अन्तर्गत गिनाये गये है। इसी सामग्री का सग्रह) प्रादि अनिचार गिनाये गये हैं। शिक्षा प्रकार सभा मे किसी की निन्दा करना, विसी की गुप्त बात ब्रत के अन्तगत गिनाये गये अतिचारों में सामयिक शिक्षा को प्रकट करना, अपनी पत्नी की बात को दूसरों में कहना अत के मनोदुष्परिणवान, बागदुष्पणिधान, कायदुष्परिणधान, किसी को भूठा उपदेश देना तथा जाली लेख लिखना प्रादि स्मृत्यकरण, अनवस्थित करण (समय पुगहए बिना ही स्कूल मृषावाद के अन्तर्गत, घोनी से लयीहई वस्तको सामयिक पूरी कर लेना), देशावकाशिक के अन्तर्गत प्रान- खरीदना, चोरों से किसी का धन चुरवा लेना, राज्य के यन प्रयोग (मर्यादित क्षेत्र के बाहर की वस्तु लाना या कानून को भङ्ग करना, नकली तराजू-बाट रखना, न्यूनामंगवाना), प्रेषण प्रयोग (मर्यादित क्षेत्र से बाहर वस्तु धिक तौलना या इस प्रकार के अन्य व्यवहार को स्थूल भेजना तथा ले पाना मादि), शब्दानुगात (किसी को निर्धा- अदत्ता दान विरमण के अन्तर्गत, व्यभिचारिणी स्त्रीके रित क्षेत्र से बाहर खड' देखकर शब्द सकेगो से बुलाने को साथ सम्पर्क स्थापित करना, अविवाहिता स्त्री से ससर्ग चेटा करना), रुपानपत (सीमित क्षेत्र के बाहर के लोगो काम क्रोडा, दूसरे का विवाह करना तथा काम की तीन को हाथ, मह, सिर वादि का सबेत कर बुलाना) और अभिलाषा प्रादि म्वदार मतोष के अन्तर्गत; धोत्र और वस्त पुद्गल क्षेप (मर्यादित क्षेत्र से बाहर के व्यक्ति को अपना की मीमा का उल्लघन, द्विपद या चतुष्पद के प्रमागा का अभिप्रय बनाने लिये कागज, डुण प्रादि फेक कर।
उल्लघन और मणि-मुक्ता प्रादि के प्रमाणो का उल्लङ्गन इङ्गित करना); पौषधोपवम के अन्तर्गन अनिलेग्नित
प्रादि अतिचार इच्छा परिमाण ब्रत के अन्तर्गत माने गये दुष्पनिलेखित शय्या-सम्नारक (मकान और बिटौना का
हैं। यहाँ समराइच कहा मे केवल पांचो प्रणब्रतो के ही निरीक्षण ठीक ढड़ से न करना) प्रप्रम जित
हात तिचाश को गिनाया गया है जबकि अन्य प्राचीन जैन शय्या मम्तारक (बिना झाडे पोछे बिस्तर काम में लाना ग्रन्था के प्राधार पर मोहनलाल मेहता ने जैनाचार मे पाँचो प्रप्रति लेखित-दुष्प्रतिलेखित, उच्चार प्रस्रवण भूमि (मल- अणुः
अणुब्रतो के साथ तीन गुण ब्रत तथा चार शिक्षा व्रत के भी मूत्र की भूमि का बिना देखे उपयोग करना) पौर पौषधो. पाँच-पाँच अतिचार की बात कही है। ये प्रतिचार जैन पवास सम्यक् अनुपालनता (प्रात्म पोषक तत्वो का भली
धावकों को उत्तरोत्तर श्रमणत्व की पोर अग्रसित करने का भॉति गेवन न करना) पतिथिसंविभाग के अन्तर्गत
मार्ग प्रशस्त करते थे। इन्ही मार्गों पर चलकर सर्वजीबोसचित्तनिक्षेप (कपट पूर्वक साध को देने योग्य पानि पकारी श्रमरणत्व की सिद्धि तथा माक्ष पद प्राप्त किया जा को सचेतन वनस्पति प्रादि पर रखना)सचिनपिपान सकता था क्योकि श्रावक धर्म श्रमणत्व सिद्धि का प्रथम (पाहार पादिको सचित्त वस्तु मे ढकना), कालातिक्रम,
सोपान माना जाता था। परापदेश (न देने की भावना मे अपनी वस्तु को पगई कहना अथवा पराई वस्तु देकर अपनो बचा लेना प्रादि)