SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५४, वर्ष २६, कि०२ अनेकान्त वाक्य' या 'विकलादेश' कहलाता है। दूसरे शब्दो मे उसके विषय मे कही जा सकती है और सबकी सब समान उपर्युक्त बात को यो भी कहा जा सकता है- वस्तु रूप से सत्य हो सकती है। इनमें से प्रत्येक कथन वस्त्र सम्बन्धी हमारी सम्पूर्ण दृष्टि प्रमाण और एक दृष्टि या सम्बन्धी कोई न कोई जानकारी देता है। एक वाक्य मे दृष्टिकोण नय कहलाता है। जो बात कही गई है, दूसरे प्रत्येक वाक्य मे उससे भिन्न प्रमाण-वाक्य कहे चाहे नय-वाक्य, दोनो ही स्थितियो बात कही गई है। फिर भी इनमें परस्पर कोई विरोध मे उद्देश्य यही होता है कि वस्तु-प्रतिपादन में भाषा का नही है । विरोध इसलिए नहीं है कि प्रत्येक की अपेक्षाएं प्रयोग ठीक मे हो और ज्ञाता उमका अभिप्राय ठीक भिन्न है । वह वस्त्र उपादान-कारण की अपेक्षा से रुई का, समझे । प्रतिपाद्य के प्रति किसी भी प्रकार का अन्याय तो सहकारी-कारणो की अपेक्षा से मिल का और स्वामित्व तभी ग्क मकता है, जबकि प्रतिपादक अपने आग्रह और की अपेक्षा से नरेन्द्र का, कार्यक्षमता की अपेक्षा से पहनने एकान्त से विमुख होकर यथावस्थित कथन करे। अयथार्थ का तथा मूल्य की अपेक्षा मे पाच रुपये का है। प्रश्नकथन वैचारिक हिमा है तो यथार्थ कथन अहिमा। प्रमाण- कतयिो की ये जिज्ञामाऐं- यह वस्त्र कई का है या रेशम वाक्य और नय-वाक्यमय स्यादवाद की इम कथन प्रणाली का? मिल का है या हाथ का है ? नरेन्द्र का है या को वैचारिक हिसा का प्रतीक कहा जा सकता है, वीरेन्द्र का ? पहनने का है या प्रोढने का ? कितने मूल्य क्योकि यह प्रणाली ही कथित और कथनावशिष्ट म्वभावो का है ?. उत्तरदाता को भिन्न-भिन्न उत्तर देने के लिए को, यदि वे वस्नु मे प्रमाणित होने है तो ममान रूप मे ही प्रेरित करती है। किमी एक उत्तर मे सारी जिज्ञासाएं म्वीकार करती है । यहाँ तक कि परम्पर विरोधी स्वभावो शान्त नही हो सकती। को भी जिस-जिग अपेक्षा में वे वहाँ प्राप्त होते है, उस- गाधारण लोक-व्यवहार में अपेक्षा-भेद से कथन का उस अपेक्षा से स्वीकार करना हम प्रणाली को अभीष्ट यह प्रकार जितना मौलिक, उचित और सत्य है, उतना है। यदि ऐमा न किया जाये तो दार्शनिक पहलुग्रो का ही दार्शनिक क्षेत्र में भी। उपर्युक्त वस्त्र-सम्बन्धी ज्ञान समाधान तो दूर रहा, साधारण व्यवहार भी नही चल मे एकान्तवादिता सत्य से जितनी दूर ले जा सकती है, सकता। तत्वज्ञान सम्बन्धी एकान्तवादिता भी उतनी ही दूर ले भिन्न-भिन्न अपेक्षाएं भिन्न-भिन्न जिज्ञासाओं के उत्तर जाती है, अत: दार्शनिक क्षेत्र मे भी 'स्याद्' (अपेक्षावाद) से स्वयं फलित होती है । एक वस्त्र विशेष के लिए पूछने का प्रयोग अादरणीय ही रही, अनिवार्य भी है । वालो को हम उनकी जिज्ञासाग्रो के अनुसार ये भिन्न- ___ जैनेतर दार्शनिको का स्याद्वाद के विषय मे एक भिन्न उत्तर दे सकते है --- खास तर्क यह रहा है कि यदि पदार्थ 'सत्' है तो 'असत्' १. यह वस्त्र रुई का है। कैसे हो सकता है ? इसी प्रकार नित्य-अनित्य, सामान्य२. यह वस्त्र मिल का है। विशेष, वाच्य-अवाच्य आदि परस्पर विरोधी धर्म एक ही ३. यह वस्त्र नरेन्द्र का है। समय मे एक पदार्थ मे कैसे टिक सकते है ? इसी तर्क के ४. यह वस्त्र पहनने का है। आधार पर शंकराचार्य और रामानुजाचार्य जैसे विद्वानों ५. यह वस्त्र पांच रुपये का है। ने 'स्याद्वाद' को 'पागल का प्रलाप' कहकर इसकी उपेक्षा अब बताइए, यह वस्त्र किस-किस का समझा जाए? की। राहुल साकृत्यायन ने 'दर्शन-दिग्दर्शन' मे बौद्ध दार्शकिसी एक का या पाच का ? इन पाचो कथनो मे से निक धर्मकीर्ति के शब्दों के आधार पर दही, दही भी है कोई भी कथन ऐसा नही, जिसे अप्रमाणित कहा जा सके। और ऊंट भी, तो दही खाने के समय ऊंट खाने को क्यों नहीं पाचों ही बाते भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से उसी एक वस्त्र के दौड़ते ? इस आशय का कथन कर स्याद्वाद का उपहास विपय मे सत्य है। पाँच ही क्यो, दो गज का है, भारत किया है । डा० एस० राधाकृष्णन् ने इसे 'अर्द्ध सत्य' कह का है, सन् १९५५ का है आदि और भी अनेक बाते कर त्याज्य बताया है । इसी प्रकार किसी ने इसे 'छल
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy