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स्थावाब-दर्शन
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और किसी ने 'संशयबाद' बतलाया है। परन्तु यह सब द्रव्य और क्षेत्र के समान ही पदार्थ की सत्ता और तो 'प्रत्येक विभिन्न कथन के साथ विभिन्न अपेक्षा होती असत्ता बताने के लिए काल की भी अपेक्षा है, जैसेहै'-स्याद्वाद के इस सूत्र को हृदयगम न कर सकने के प्राचार्य श्री तुलसी ने अणुव्रत-अान्दोलन का सूत्रपात कारण हुआ है। बद्धमूल धारणा तथा जैनेतर ग्रन्थो मे सवत् २००५ मे किया। इसके अतिरिक्त किसी काल का जैनो के लिए किये गए कथन को सत्य मानकर चलना भी कथन किया जाए तो वह अणुव्रत-आन्दोलन के सम्बन्ध मे इसमें सहायक हुए है। अन्यथा अपेक्षा भेद से 'सत्' अर्थात् सत्यता प्रकट नहीं कर ककता। 'है' 'असत् अर्थात् 'नहीं है' का कथन विरुद्ध मालूम नहीं इसी प्रकार वस्तु को सत्यता में भाव भी अपेक्षित है: देना चाहिए।
जैसे पानी मे तरलता होती है। इसका तात्पर्य यह हमा वस्त्र की दुकान पर किसी ने दुकानदार से पूछा- कि तरलता नामक भाव से ही पानी की सत्ता पहचानी 'यह वस्त्र सूत का है न। दुकानदार ने उत्तर दिया-- जा मकती है, अन्यथा तो वह हिम, वाष्प या कहरा ही 'हा साहब, यह मूत का है।' दूसरे व्यक्ति ने ग्राकर उसी होता, जो कि पानी नही, किन्तु उसके रूपान्तर है। वस्त्र के विषय मे पूछा- 'क्यो साहब, यह वस्त्र रेशम उपर्युक्त प्रकार से हम जान सकते है कि प्रत्येक का है न? दुकानदार बोला- 'नही, यह रेशम का नही पदार्थ की मत्ता स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की है।' यहाँ कथित वस्त्र के लिए 'यह सूत का है', यह बात अपेक्षा से ही है, परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की जितनी सत्य है, उतनी ही 'यह रेशम का नही है' यह भी अपेक्षा से नही। यदि परद्रव्य आदि से भी उसकी सत्ता हो सत्य है। एक ही वस्त्र के विषय मे सूत की अपेक्षा से सकती तो एक ही वस्तु सब वस्तु होती और सब क्षेत्र, सब 'सत्' अर्थात् 'है' और रेशम की अपेक्षा से 'असत्' अर्थात् काल और गुणयुक्त भी होती अर्थात् एक घडा मिट्टी का 'नही है' का कथन किसको अग्खर सकता है ? स्यावाद भी कहा जा सकता और मोने, चादी, लोहे आदि का भी, भी तो यही कहता है। सत् है तो वह असत् कैसे हो कानपुर का भी कहा जा सकता और दिल्ली का भी। सकता है ?' यह शका तो ठीक ऐसी ही है कि 'पुत्र है, मवत् २००५ का भी कहा जा सकता और सवत् २००० तो वह पिता कैसे हो सकता है । इसमें कोई विरुद्धता । का भी। जलाहरण के काम में भी लिया जा सकता नही पा सकती, क्योकि अपेक्षाए भिन्न है।।
और पहनने के काम मे भी। स्याद्वाद के मतानुसार प्रत्येक पदार्थ 'स्व' द्रव्य, परन्तु ऐसा नही हो सकता, क्योकि उसमे स्वधर्मो की क्षेत्र, काल और भाव की अपेशा से 'सत्' है तथा 'पर' सत्ता के समान ही परधर्मो की असत्ता भी विद्यमान है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से 'असत्'। इसे स्वद्रव्यादि की अपेक्षा में घट में 'अस्ति' शब्द का विषय सरलतापूर्वक यो समझा जा सकता है--एक घड़ा स्व- बनने की जितनी योग्यता है, उतनी ही परद्रव्यादि की द्रव्य मिट्टी की अपेक्षा से सत्-अस्तित्व युक्त है, पर अपेक्षा से 'नास्ति' शब्द का विषय बनने की भी। यही द्रव्य-वस्त्रादि इतर वस्तुओ की अपेक्षा से असत् है कारण है कि घड़े का स्वरूप विधि और निषेध दोनो से अर्थात् धड़ा है, वस्त्र नहीं है।
प्रकट होता है। द्रव्य के समान ही किसी बात की सत्यता में क्षेत्र की उपर्युक्त 'सत्-असत् अर्थात् 'अस्ति-नास्ति' अर्थात् अपेक्षा भी रहती है। कोई घटना किसी एक क्षेत्र की विधि-निषेध' के प्रापेक्षिक कथन के समान ही वस्तु मे अपेक्षा से ही सत्य हो सकती है। जैसे-भगवान महावीर सामान्य-विशेष, एक-अनेक आदि विभिन्न धर्मो का मी का निर्वाण 'पावा' मे हुआ। भगवान के निर्वाण की घटना आपेक्षिक अस्तित्व समझना चाहिए। 'पावा क्षेत्र की अपेक्षा से ही सत्य-सत् है, परन्तु यदि स्याद्वाद का सिद्धान्त, जिस वस्तु में जो-जो अपेक्षायें कोई कहे 'भगवान् का निर्वाण राजगृह में हुआ तो यह घटित होती हो, उन्हे ही निर्भीकतापूर्वक स्वीकार करने बात असत्य ही कही जायेगी।
का अनुरोध करता है। इसका यह तात्पर्य कभी नहीं है