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________________ ॐ अहम् अनेकान्त परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वर्ष २६ । किरण ४-५ । वार-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्लो-६ वीर-निर्वाण सवत् २४६६, वि० स० २०३० 5 अक्टूबरदिस. १६७३ ऋषभ स्तोत्रम् जय उसह णाहिणन्दण तिहुवणणिल एक्कदीव तित्थयर । जय सयलजीववच्छल णिम्मलगणरमणणिहि णाह ॥ सयल सुरासुरमणिमउडकिरण कब्बुरिय पायपीढ तुम । धण्णा पेच्छन्ति थुणन्ति जवन्ति झायंति जिणणाह। चम्मच्छिणा वि दिटू तइ तइलोए ण माइ महहरिसो। णाणाच्छिणा उणो जिण ण-याणिमो कि परप्फुरइ॥ -पद्मनन्दि हे ऋषभ जिनेन्द्र ! नाभि राजा के पूत्र आप तीन लोक रूप गह को प्रकाशित करने के लिए अद्वितीय दीपक के समान है। धर्म तीर्थ के प्रवर्तक हैं। समस्त प्राणियों के विपय में वात्सल्य भाव को धारण करते हैं । तथा निर्मल गुणो रूप रत्नो के स्थान है । आप जयवन्त होवे । नमस्कार करते हए समस्त देवों और असुरों के मणिमय मुकृटों की किरणो से जिनका पादपीठ विचित्र वर्ण का हो रहा है, ऐसे हे ऋषभ जिनेन्द्र ! पुण्यात्मा जीव आपका दर्शन करते हैं, स्तुति करते है और जप करते हैं और ध्यान भी करते हैं। हे जिन चर्ममय नेत्र से भी आपका दर्शन होने पर जो महान् हर्ष उत्पन्न होता है वह तीनों लोकों में नही समाता। फिर ज्ञान रूप नेत्र से आपका दर्शन होने पर कितना आनन्द प्राप्त होगा, यह हम नही जानते हैं ।
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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