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कलकत्ते का कार्तिक महोत्सव
ले० भंवरलाल नाहटा
मुमुक्ष-भव्यों को समार रूपी अटवी से पार पाने के अवसरो पर चाँदी सोने के रथ में प्रभु को विराजमान लिए दो मार्ग वतलाये गये है, एक ज्ञान मार्ग और दूसरा करके सवारी निकाली जाती है। पुराने संघ वर्णनो मे भक्ति मार्ग । ज्ञानमार्ग दुरूह होने के साथ-साथ अभिमान भगवान को चैत्यालय-रथो में विराजमान कर साथ में आदि आ जाने पर पतन भययुक्त है । परन्तु भक्तिमार्ग में
रखे जान का वर्णन तो मिलता ही है पर ३५० वर्ष पूर्व विनय, लघता और श्रद्धा प्रधान होन स सहन प्ररि थाहरूमाह भणशाली द्वारा निकाले गये मघ के रथ का मगमता से श्रावक अपने साध्य की प्राप्ति कर मकता है दर्शन प्राज भी लौडवपर के प्राचीन मन्दिर में किया जा जैसे ज्ञान मार्ग इंजन की भाँति तो भक्ति मार्ग उसके सकता है । यद्यपि रथ प्राचीन हा गया है पर ऐतिहासिक पीछे लगे डिब्बो की भांति है, जिसमे नवल दृढ़ता से पकड । वस्तु होने मे प्रेक्षणीय है। भारतवर्ष में जगन्नाथपुरी की (श्रद्धा) है और इच्छित स्थान में जा पहुचता है । अष्टा- ग्थयात्रा विशेष प्रसिद्ध है, विद्वानो के अभिमत में वह पद महातीर्थ पर अनन्य भक्ति के योग मे ही रावण जैमे शकराचार्य के पूर्व में जैन मन्दिर ही था, और आश्चर्य नरकगामी जीव ने तीर्थङ्कर नाम कम उपार्जन कर भावी नही कि वहाँ की रथयात्रा किसी प्राचीन जैन परम्परा त्रैलोक्यपूज्य पद की प्राप्ति की थी। भारतीय दर्गनो मे का अनुधावन हो। सर्वप्राचीन जैन दर्शन में भक्ति का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ।
जैन परम्परा में ग्थयात्रा-महोत्मधादि अत्यन्त प्राचीन स्थान है । नंदीश्वरादि शाश्वत अशाश्वत तीर्थों में चागे
काल से प्रचलित है। बीमवे तीर्थङ्कर श्री मनिमत्रत स्वामी निकाय के देव और इन्द्र आदि भी समय-समय पर जाकर
के समय में हस्तिनापुर में पद्मोनर गजा हुए हैं जिनकी अट्ठाईस महोत्सवादि द्वारा अपना सम्यक्व निर्मल कर
गनी ज्वालादेवी ने जिनेश्वर भगवान का महान् ग्थ आत्म कल्याण करते है। जिसका जीवाधिगमसूत्रादि मे
निर्माण करवाया तो ईर्ष्यावश दूमरी गनी लक्ष्मी न उल्लेख पाया जाता है।
ब्रह्मरथ बनवा कर रथयात्रा के प्रसग पर अपना रथ भक्ति सूर्य का उदय होने पर हृदय कमल पूर्ण विक- पहले शहर में निकल इसकी याचना की और इच्छापूति सित हो जाता है और उसकी सौरभ एव प्रकाश मे न होने पर आत्मघात की धमकी दी। इधर ज्वालादेवी प्रज्ञानांधकार व पाप-प-कालुष्य नष्ट होकर भगवान से भी जिनेन्द्र रथ के पहले न चलन पर अनशन करने को उनके गुणो के साथ एकतानता आ जाती है। इस प्रकार प्रस्तुत हो गई। राजा ने ऐसे अवसर पर दानो रथो का के भक्ति साधनों मे रथयात्रा-महोत्सवादि का प्रमुख स्थान निकालना बन्द कर दिया। ज्वालादेवी के पुत्र महापद्म है। इस अवसर्पिणीकाल में भगवान ऋषभदेव से धर्म जिसके हाथ मे राज्य की बागडोर होते हुए भी पिता के प्रवर्तन हुअा और उनके पुत्र भरत चक्रवर्ती ने सर्वप्रथम वचनो का विरोध न कर "स्वतन्त्रतापूर्वक माता के शत्रुजय का संघ निकाल कर तीर्थोद्धार कराया। संघ- जिनेन्द्र रथ को चलाने की प्रतिज्ञापूर्वक रात्रि के समय यात्रा मे तीर्थङ्कर बिव विराजमान किया हुआ रथरूप नगर त्याग कर गया और बहुत वर्षों के बाद छ' खण्ड जिनालय का होना संघ का अनिवार्य अंग है। अत भरत साध कर पाने के वाद नवम चक्रवर्ती महापद्म ने बड़े चकवर्ती के अनुकरण मे असंख्यकाल से यह परम्परा चली भारी समारोह से जिनेश्वर भगवान की रथयात्रा निकाल आ रही है अब भी शत्रुजय पर कात्तिक पूर्णिमा आदि कर माता की इच्छा पूर्ति की। इस उदाहरण से स्पष्ट