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. अनेकान्त . की प्रज्ञपि ह्रस्व वस्तु के सापेक्ष है। कभी-कभी हेतु जनित है। यदि कोई भाव नाम की वस्तु हो तभी उसके प्रतिप्रज्ञप्त होता है जैसे रोशनी दीपक से, अंकुर बीज से । इस षेध रूप में निर्वाण न भाव की कल्पना की जाय अथवा प्रकार जब कोई वस्तु प्रतीत्य एव उपादाय सिद्ध होती है यदि कोई प्रभावात्मक वस्तु हो जिसके प्रतिषेध के रूप में और इस जन्म-मरण परम्परा की सन्तति जब अप्रतीत्य न प्रभाव निर्वाण की कल्पना की जाय। जब भाव और एवं अनुपादाय या अप्रवृत्त होगी तब हो निर्वाण व्यवस्था- प्रभाव दोनों ही नहीं है तो उन दोनों के प्रतिषेधात्मक तत्व पित होगा किन्तु भाव या प्रभाव की प्रवृत्तिमात्र कल्पना 'न भाव और न अभाव' हो ही नहीं सकते। इसलिये नहीं की जा सकती। इसलिए निर्धारण न भाव है और न निर्वाण को यह कल्पना कि वह 'न भाव' और 'न अभाव' प्रभाव है।
है, नही ठहरती। पौर भगवान् ने तो भव और विभव के प्रहारण को
यदि निर्वाण 'न भाव' और 'न प्रभाव' रूप हो तो भी बात कही है। अतएव निर्वाण न तो भाव है और न
यह न उभयरूप निर्वाण कैमे ग्रहण किया जाता है', क्या प्रभाव है। और यदि यह कहा जाय कि निर्वाण भाव
इसका कोई प्रतिपत्ता (जाना) है । यदि है तो ऐसा होने से
निरिण में भी प्रात्मा होगी जो इष्ट नहीं है क्योकि निर् और प्रभाव है तो फिर भाव भी मोक्ष होगा और अभाव भी मोक्ष होगा। फिर तो सस्कारों का प्रात्म लाभ भी
+उपादान (उपादान रहित) वस्तु कोई प्रात्मा होती ही मोक्ष होगा और संस्कारो का निगम भी मोक्ष होगा।
नही। यदि विज्ञान से ऐसा प्रकाशित होना कहे तो यह
भी युक्त नहीं है क्योकि विज्ञान निमित्तालम्बन होता है लेकिन संस्कारों का होना मोक्ष नही माना जा सकता।
पौर निर्वाण अनिमित्त होता है। प्रतएव निर्वागग विज्ञान अतः यह प्रयुक्त है कि निर्वाण भाव और प्रभाव है।
से भी नहीं जाना जा सकता । ज्ञान से भी यह नहीं जाना यदि निर्वाण दोनो भाव और प्रभाव है तो निर्वाण
जा सकता क्योंकि ज्ञान शून्यतालम्बन होता है और शून्यता मंस्कृत होगा क्योकि वह भाव और प्रभाव संस्कृत माने
अनुत्पाद रूप ही होती है तब उसके प्रविद्यमान स्वरूप से गये हैं। भाव स्वहेतु प्रत्यय सामग्री के कारण सस्कृत है
तथा ज्ञान के सर्वप्रपञ्चासीन होने से न भाव और न और प्रभाव के सापेक्ष (प्रतीत्य) होने के कारण संस्कृत है
प्रभाव रूप निर्वाण कैसे ग्रहण किया जा सकता है। अत: जैसे जरामरण जन्म के प्रतीत्य (शापेक्ष) होने से संस्कृत
निर्वाण 'न भाव' 'न प्रभाव' रूप नही हो सकता।
प्राचार्य नागार्जुन ने निर्वाण की कल्पना में इतना तक यदि यह कहा जाय कि निर्वाण न तो भाव है और
कहा है कि ससार और निर्वाण मे काई अन्तर नहीं है। न प्रभाव है तो जब भाव या प्रभाव की सिद्धि होगी तभी
बुद्ध के होते हुए भी यह कल्पना नहीं की जा सकती कि ता यह सिद्ध होगा कि निर्वाण न भाव है और न प्रभाव
बुद्ध है और उनके परिनिवृत्त होने पर भी यह नहीं कहा १-'स चायमाजवंजवी मावः कदाचिन् हेतु प्रत्यय सामग्री
जा सकता कि वह हैं या नहीं। अत: संसार और निर्वाण माश्रित्य प्रस्तीति प्रज्ञप्यते दीर्घह्रस्ववत् ।'
१-नवा मावो नैव मावो निर्वाणमिति साञ्जना।
-वही पृष्ठ २३१ प्रमावे व भावे च सा सिद्ध सति सिद्धयति । २-प्रहारणं चावीच्छास्ता मवस्य विमवस्य
-मा. शा. २५/१५, पृष्ठ २३३ तस्मान्न मायो नामावो निर्वाणमिति युज्यते ॥
२-नवामावो नेव भावो निर्वाणं यदि विद्यते। -म. शा. २५/१०, पृष्ठ २३२ नेवाभावो नैव माव इति केन तदज्यते ॥ ४-२०-म. शा. २५/११, पृष्ठ २३२
-वही २५/१६, पृष्ठ २३३ ४-भवेदमावो मावश्न निर्वाणमुमयं कथम् ।
३- संसारस्य निर्वाणाटिकचिवस्ति विशेषणम् । प्रसंस्कृतं निर्वाणं भावाभावो च संस्कृती।।
न निर्वाणस्य संसारास्किचिदस्ति विशेषणम् ।। -म. शा. २५/१३ पृष्ठ २३३
-म. शा. २५/१६, पृष्ठ २३३