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• अनेकाम *
में विचार करने पर कोई अन्तर नहीं है । वास्तव में वह वायु में प्रथवा बायुगगन में, गगन में कुछ न होने के कारण एक ही है और इसी को लेकर भगवान् ने कहा है कि हे (गगनस्याकिञ्चनत्वात्) प्राधार रहित (अस्थान योगेन) भिक्षुषों । इस जानि जरामरण ससार का कोई पन्त नहीं स्थित है तब सब निमित्तों के अनुलब्ध होने के कारण कही है । पतः समार और निर्वाण में कोई विशेष प्रनर नहीं बुद्धो ने कही भी मनुष्यों या देवों में या किसी भी मनुष्य है, यह सिद्ध होता है। प्राचार्य और भी कहते है कि या देव को न किसी सांक्लेशिक (क्लेशयुक्त) और न वैयनिर्वाण को कोई चरम सीमा (कोटि) नहीं है, न ही समार वदानिक (विशुद्धि युक्त) धर्म की देशना दी है, ऐसा जानना को कोई सीमा है इसलिए दोनों में सुपूक्ष्म अन्तर भी नही चाहिए। है ।' इसलिए निर्वाण के बाद क्या होता है अयवा ससार जमे कि 'आर्य तथागतगुह्य सूत्र' मे कहा गया है अन्तवान् है या मनन्तवान् है, शाश्वत है या अशाश्वत है कि हे शान्तिमति ! जिस रात्रि मे तथागत ने अनुत्तर इत्यादि पूर्वान्त और अपरान्त को लेकर सब (मिथ्या) सम्यक सम्बोधि का लाभ किया और जिस सात्रि में अनु. प्रिया बतलाई गई है।
पादाय परिनिर्वाण को प्राप्त होगे, इसके बीच तथागत के जब धर्म शून्य है तब उनमे अनन्तवान् पोर पन्तवान् मुख सेन नो एक भी अक्षर निकला है और न निकलेगा। धर्गे की कल्पना कैसे हो सकती है तथा उममे कैसे 'न नाना प्रधिमुक्ति बाले, नाना धातु प्राशय वाले सभी सत्त्व अनन्त' और 'न अन्त' हो धर्म हो सकता है। इसी प्रकार अपने-अपने अनुरूप तथागत के विविध वचनों को समझते उसमे क्या शाश्वत, क्या प्रशाश्वत गौर अगाश्वत तथा न है। अत: उनकी देशना पृथक-पृथक होती है कि भगवान् उभय (नाशाश्वत और न शाश्वन) हो सकते हैं । यहाँ पूर्व ने हमारे लिये यह देशना को है और हम तथागत की पती पूछता है कि यदि इस प्रकार प्राप निर्वाण का प्रति- देशना सुनते हैं । तथागत तो कल्प विकल्प नहीं करते है। पंध करते हैं तो महाकरुणा से युक्त भगवान् ने यह जो हे शान्तिमति, तथागत तो कल्प विकल्पों के जाल वासना सत्वों को अपनी प्रिय सन्तान के समान समझ कर निर्वाण से रहित होते हैं । और भी कहा गया है-'जो धर्मों को प्राप्ति की देशना दी है वह सब व्यर्थ होगी। इसका उत्तर प्रवाच्य, अनक्षर, सर्वशून्य शान्तादि निर्मल रूप जानता है देते हुए प्राचार्य कहते है कि जब कोई धर्म (स्वभावत.) वही कुमार 'बुद्ध' कहा जाता है। हो अथवा धर्म के सुनने वाले हों अथवा धर्म का कोई उप- यहाँ पूर्व पक्षी का कहना है कि यदि कभी किसी को वेश देने वाला भगवान् बुद्ध हो तो यह हो सकता है किन्तु किसी भी धर्म की देशना बुद्ध ने नहीं की है तो ये नाना जो धर्म सब प्रवृत्तियों का उपशम है, जो सब प्रपञ्चो का (बुद्ध) प्रवचन कैसे जाने जाते हैं। प्राचार्य कहते हैंउपशम है, शान्त है. ऐसी अवस्था में बुद्ध द्वारा किसी भी विद्या निद्रा में लीन स्वप्न देखने वाले प्राणियो की तरह धर्म की कही भी, किसी को भी देशना नहीं की गई है। यह स्वविकल्पोत्पत्ति है कि सकलभिभुवन, देवों, प्रसुगे
प्राचार्य चन्द्रकीति कहते है कि जब भगवन् बुद्ध सर्व और मनुष्यो के स्वामी भगवान् (बुद्ध) हम सबके लिये इस प्रपञ्वोशम एव शिवरूप निर्वाण में प्राकाश मे हसरानो धर्म को देशना देते है, जैसे कि भगवान ने कहा हैकी तरह स्वपुण्य ज्ञान सम्भार रूप पखमोचन से उत्पन्न कुशल, अनास्रव धर्म का तथागत प्रतिविम्ब मात्र है। १-३० म. शा. २५/२०, पृष्ठ २३५
न यहाँ तथता है, न तथागत है और सम्पूर्ण लोक मे बिम्ब २-पर निरोधावन्तायाः शाश्वताधाच हव्यः ।
१-० म. शा. पृष्ठ २३६ निर्वाणमारान्तं च पूर्वान्तं च समाश्रिताः ।।
२-वही -म. शा. २५/११, पृष्ठ २३५ ३-वही ३-सर्वोपलम्मोपशमः प्रपञ्चोपशमः शिव ।
४-प्रविद्यानिद्रानुगतानां देहिनां स्वप्नायमानानामिव स्वन क्वचित्कस्यचित्कश्चिद्धर्मो बुद्धन देशितः ॥
विकल्पाभ्युदय एष:-अयं भगवान् सकलत्रिभुवन सुरासुर -म. शा. २५/२४, पृष्ठ २३६ नरनाथः इम धर्ममस्मभ्यं वेशयतीति । -वही