________________
२४ ।
* अनेकान्त - मात्र ही दिखलाई पड़ते है। और भी “तचागत वाम् मुह्य जो निर्वाण को भाव प में खोजते हैं वे संसार को परिवर्त" में विस्तार से कहा गया है-"निर्वाण के लिये पार नही कर सकते क्योंकि निर्वाण वास्तव में (सर्वनिमित्त धर्मदेशना का ही बन पभाव है तो कहां से धर्मदेशना है सर्वेजित) धर्मों की उपरति (उपशान्ति) है। इसलिये वे तथा निर्वाण का अस्तित्व ही कैसे होगा। प्रतएव निर्धारण सब प्रज्ञानी है जो स्व ख्यात विनय धर्म मे प्रबजित होकर भी नहीं है, यही सिद्ध होता है। भगवान ने कहा भी है- तीर्थकों की मिथ्या दृष्टि मे पडकर निर्माण को भाव रूप में
लोकनाथ (बुद्ध) के द्वारा निर्वाण की प्रनिर्वाण रूप खोजते हैं जैसे तिलों में तेल या दूध में घी। वे अभिमानी में देशना की गई है। प्राकाश द्वारा बनाया गया मुच्छा तीविक हैं जो अत्यन्त परिनिवृत्त धर्मों में निरिण खोजते माकाश द्वारा ही मोचित हुया है।
हैं। सम्यक् प्रतिपन्न योगाचार न तो किसी धर्म का उत्पाद १-तथागतो हि प्रतिबिम्बभूतःकुशलस्य धर्मस्य मनास्लवस्य
करता है और न ही किसी बम का निरोध करता है, न ही नंवत्र तयता न तथागतोऽस्ति बिम्बंच संदृश्यति सर्व
किसी धर्म की प्राप्ति की इच्छा करता है और न ही किसी लोके।--म. शा. पृष्ठ २३६
धर्म के अभिसमय की इच्छा करता है।" २-प्रनिर्वाणं हि निवारणं लोकनायेनदेशितम् माकाशेन कृतो प्रन्धिराकाशेनव मोचितः ।
-म. शा. पृष्ठ २३७ १-मा. शा. पृष्ठ २३७
-
-
-
अनेकान्त के ग्राहकों से
आपके पास हमारी शोध-पत्रिका 'भनेकान्त' नियमित रूप से पहुँच रही है। कुछ ग्राहकों का इस वर्ष का तथा पिछले वर्ष का चन्दा हमें प्राप्त नहीं हरा है। पत्रिका को आर्थिक सछुट का स न करना पड़े, अतः मापसे अपना चन्दा अविलम्ब भेजने की प्रार्थना है। जिन ग्राहकों का चन्दा हमें इस माह के अन्त तक प्राप्त न हो सकेगा, उनके नाम हमें पत्रिका V.P.P.से भेजने के लिये बाध्य होना पड़ेगा।
भवदीय:
महासचिव, श्री वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज,
दिल्ली-६