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________________ जैन धर्म में नीति धर्म और साधना -रामजीसिह, एम ए० भारतवर्ष मे नीति धर्म और साधना का जनता के कि संस्कृत का धर्म शब्द नीति नियमों का पर्याय है न कि जीवन से घनिष्ट सम्बन्ध रहा है। यहाँ पर ग्रंशतः श्रुति अग्रेजी 'रिलोजन' शब्द का अर्थ धर्म है। पाश्चात्य 'रिली. की मान्यता के कारण और अंशतः व्यक्तिगत विचारकों जन' शब्द के लिये हिन्दी भाषा में कोई पर्याय नहीं मालूम में मौलिक कहलाने की महत्वाकांक्षा न होने के कारण, पड़ता है। इसलिये वहाँ पर हम नीति धर्म का मथ नीति विभिन्न वादों का या सम्प्रदायों का व्यक्तियों के नाम से नियमो के पालन से लेंगे न कि अंग्रेजी शब्द 'रिलीजन' प्रचार नहीं हुआ। इसी कारण जैन धर्म भी किसी व्यक्ति से। नीति नियमों का तात्पर्य है-जीव को अपने पहले के विशेष के नाम पर नहीं उत्पन्न हुआ। जैन धर्म की प्रमुख स्वाभाविक अवस्था का ज्ञान कराना और जो बन्धन विशेषता उसके व्यावहारिक उपदेश में पाई जाती है। (कषाय) जीव को बांधे हुए है उससे मुक्ति दिलाना । जीव तत्व दर्शन पथवा ज्ञान मीमांसा अथवा किसी भी प्रकार जो बन्धन में पड़ा हुमा है, उसका यह बन्धन नीति धर्म से का ज्ञान वहीं तक उपयोगी है, जहाँ तक कि वह उचित ही दूर हो सकता है। सामान्य रूप से जैन धर्म में बन्धन पाचरण का सहायक होता है। उचित माचरण का परप का भय जन्म ग्रहण करना , लक्ष्य मोक्ष होता है। मोक्ष का पर्थ पास्मा का प्रत्येक भोगना है । बन्धन का अर्थ सभी पास्तिक दार्शनिक यही प्रकार के बन्धनों से मुक्ति पा जाना तथा अपने स्वरूप को समझते हैं । जैन धर्म के अनुमार जीव पूर्ण है, उसके अन्तर पहचान लेना है। 'जिन' शब्द का अर्थ ही होता है-अपने में अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन अनिवार्य है। इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेना। प्रतः जैन शब्द से ही बस, वह दुःखी इस कारण है कि जीव बाह्य कषायों में इस धर्म को व्यावहारिकता स्पष्ट हो जाती है। फंप गया है । जीव को बन्धन में डालने वाली वासनायेंप्रायः लोग नीति धर्म को अग्रेजी में 'एथिक्स' कहते क्रोध, मद, मान, माया पौर लोभ मादि जो हैं, उन्हें ही है पोर इसे संस्कृत में नीति-शाम या नीति धर्म के नाम से कषाय कहते हैं। जब जीव पूर्ण रूप से कषायों में फंस अभिहित किया जाता है। वस्तुत: ऐसा मालूम पड़ता है। जाता है तो बन्धन कहते हैं।' १-जन दर्शन को जन धर्म कहना प्रषिक उचित मासूम बन्धन दो प्रकार का होता है-भाव बन्ध और द्रव्य बन्ध । जीव के मन के अन्दर दूषित भावनाओं का प्रा पड़ता है। क्योंकि यह पार्शनिक समस्यामों की अपेक्षा बीव को कर्म-बन्धन से छुटकारा देना अधिक पाहता २-कवायत्वात नीवः कर्मलो योग्यान पुरगलालू मापत्ते है और यह व्यवहारिक प्रषिक, परमाधिक कम है। सम्बम्ब:-तत्वाधिनमसूत्र, ८.१।
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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