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* महम
अनेकान्त
परमागमस्य बीज निषिद्धनात्यन्षसिम्पुरविषानम् । सकलमयविलासितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
प्रप्रल
वर्ष २६ किरण १
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वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४६६, वि० सं० २०२९
स्तुतिकर्म यद्गर्भस्य महोत्सवे सुरचयराकाशसंपातितनिावर्णधरविचित्रमरिणभिः संछादितं भूतलम् । शुम्भपधरैस्तदीयसुगुण रेजे यथा लाञ्छितं तं वन्दे वृषभं वृषाञ्चितपदं भक्त्या सदा सौख्यदम् ॥१॥ प्रोत्तुङ्गे गिरिराजरम्यशिखरे मोरोवराहत३चञ्चञ्चन्द्रकलाकलापतुलितरम्भोभिरानन्दिताः । जातं यं मुदिताः सुरा रतिधराः संसिक्तवन्तः स्वयं तं वन्दे ह्यजितेश्रं जिनवरं सत्कोतिराकापतिम् ॥२॥
अर्थ-जिनके गर्भकल्याणक के समय देवसमूह के द्वारा प्राकाश से बरसाये हुए रङ्ग-विरङ्गे नाना मणियों से आच्छादित पृथिवीतल ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों उन्हीं के शोभायमान गुणों से युक्त हो, इन्द्र के द्वारा पूजित चरणों के धारक एवं सदा वास्तविक सुख प्रदान करने वाले उन वृषभनाथ भगवान को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ॥१॥
मानन्द से युक्त एवं प्रीति को धारण करने वाले देवों ने उत्पन्न होते ही जिनका क्षीरसागर से लाये हुए चन्द्रमा की कलानों के समूह की तुलना करने वाले जल से मेरु पर्वत के उच्चतम शिखर पर स्वयं अभिषेक किया था उन कीतिरूप पूर्णचन्द्र से युक्त प्रजित जिनेन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ॥२॥
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