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________________ कलाकार की साधना श्री 'ठाकुर' भारत में कई संस्कृतियां पाई और लुप्त हो गई; अनेक राजवंश उभरे और नष्ट हो गये; अनेक राजसत्तको प्रणालियों का उदय हुन्मा और वे महाकाल के शाप से तिरोहित हो गई। किन्तु अनन्त करुणा के प्रागार प्रभ 'दक्षिण कुक्कुट जिन' गोम्मटेश्वर बाहुबलि दोड्डवेष्ट (इन्द्रगिरि) पर एक हजार वर्ष से अडिग भाव से खड़े हुए स्मित मुद्रा में संसार पर अपनी अनन्त करुणा को वर्षा कर रहे हैं। किन्तु कौन था वह महाभाग शिल्पी, जिसको कुशल उंगलियों के जादू ने कठोर पाषाणों की छाती चोरकर इस सौम्य और जीवित लगने वाले भगवान् का निर्माण किया ? इस कथानक में उसी अमर शिल्पी की साधना का शब्द-चित्र खींचा गया है। प्रतिभा का जयघोष कर रहे है । जंकणाचार्य ,विड़ और होयसल शिल्पकला के प्राचार्य एक बार उन्होंने एक देव-विग्रह के लिये एक पर्वत थे। भारत ही नहीं; सुदूर द्वीपों के शिल्पी उनके चरणों का चुनाव किया । देश देशान्तरो के शिल्पी वहाँ एकत्रित में बैठकर शिल्प कला की बारीकियों को समझने का थे। जकणाचार्य ने घोषणा की थी कि यह विग्रह अवसर प्राप्त करने के लिए महान प्रयत्न करते रहते थे उनके जीवन की सम्पूर्ण साधना का एक अमृत फल और जिन्हे यह अवसर उपलब्ध हो जाता था, वे इसे होगा। वह विग्रह ऐसा होगा, जिसकी समता संसार में अपने पूर्वजन्म के किसी सकृत का परिणाम मानते थे। कोई मूर्ति न कर सकेगी। आचार्य की इस घोषणा ने उनकी ख्याति सुदूर देशों तक थी। बड़े-बड़े प्रतापी राज- शिल्पी समाज मे उत्सुकता जगा दी और उसका शिल्पवंश प्राचार्य के चरणों में विपुल वैभव वषेर कर भी सौन्दर्य अपनी आंखो से देखने को शिल्पियों का एक उनकी कृपा और अनुग्रह पाने को लालायित रहते थे। विशाल परिकर वहाँ प्राजटा । मभी शिल्पी प्राचार्य के किन्तु प्राचार्य के कुछ अपने सिद्धान्त थे। उनकी हस्त-लाघव को देखना चाहते थे। और जब आचार्य ने मान्यता थी कि कला एक साना है, वह बाजार हाटो में उस विग्रह के लिये शिला का चुनाव किया तो वह विकर्ने वाली चीज नहीं है। कला का मोल सोने और शिल्पी-परिवार प्राचार्य की पसन्दगी पर मुग्ध हो गया। चांदी के बंटखरों से नहीं हो सकती। उनकी सारा जीवन प्राचार्य ने बडे दम्भपूर्ण ढंग से कहा-'बन्धुप्रो ! ही कला के लिये समर्पित था। वे कला की साधना केवल ललित कला का प्राधार निर्दोष शिला है। मैंने अंगणित स्वान्तः सुखाय करते थे, राजामों और धनिकों के मनों- शिलाओं में से जिस शिला का चयन किया है, वह शिल्परंजन के लिये नहीं। उनकी कला के गर्भ से महाकाव्यों शास्त्र की दृष्टि से सभी प्रकार निर्दोष है। एक सफल के नव रसों की सृष्टि हुई थी। जिस पाषाण को उनकी शिल्पकार की दृष्टि कितनी सूक्ष्म होती है, यह आपने उंगलियों ने स्पर्श कर दिया, वह पाषाण मानो बोलने अनुभव किया होगा। मेरी सफलता का रहस्य यही है।' लैंगी। उनके नी-हथौड़े के आगे पाषाण की कठोरता शेष शिल्पियों ने प्राचार्य की बात को स्वीकार किया पिघलने लगती थी और तब वे कठोर पाषाण उनकी और प्रशसात्मक हर्ष किया। किन्तु तभी एक अज्ञात कुलंईच्छी के अनुसार रूप बदलने लगते थे। हले विदु, वेणूर, शील शिल्पी खड़ा हो गया। उसके बड़े होने का ढंग बडा सोमनाथपुरै के कलापूर्ण मन्दिर आज भी उनकी शिल्प- विनयपूर्ण था। उसके मुख पर शालीनता विराजमान (८५)
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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