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चंदेरी-सिरोंज (परवार) पट्ट
भ. श्री श्री ललितकीतिदेवा: तशिष्य ब्रह्म बालचन्द्रमिदं जो दो लेख संगृहीत किये गये है वे दूसरे सकल कीर्ति ग्रन्थ लिष्यत स्वपठनाथ ।
होने चाहिए। मैने च देरी और सिरोज दोनो नगरो के सिरोंज के टोगका टि. जैन मन्दिर में वि० स० भी दि० जिनमन्दिरों के प्रतिमालेखो का अवलोकन किया १६८८ का एक प्रतिमा लेख है। उसमें चंदेरी पट्ट के है। पर भ. सुरेन्द्र कीर्ति द्वारा प्रतिष्ठापित कोई मूर्ति या सहस्रकीति के स्थान में रलकीति और पद्मनन्दी के स्थान यंत्र मेरे देखने में ही नहीं पाया। हो सकता है इनके में पद्मकीनि यह नाम उपलब्ध होता है । भ० ललितकीति काल में कोई पंचकल्याणक प्रतिष्ठा न हुई हो। के शिष्य भ० रत्तकीति ने प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराई थी।
दोनों नगरों के निगों के लोन से उक्त प्रतिमालेख इस प्रकार है
प्रतीत होता है कि भ० धर्मकीर्ति के दूसरे शिष्य भ. सं० १६८८ वर्षे 'फाल्गुन मुदि ५ बुधे श्री मुलसघे जगत्कीर्ति थे। सम्भवतः सिरोंज पट्ट की स्थापना इन्ही बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुदकंदाचार्यान्वये भ० श्री
के निमित्त हुई होगी। इनका दूसरा नाम यशकीर्ति भी देवेन्द्र कीर्तिदेवास्नत्प? भ. श्री त्रिभुवनकी तिदेवा तत्पट्टे
जान पडता है। इनके पट्टधर त्रिभुवनकीर्ति और उनके श्री रत्न कीति तत्प? भ. श्री पद्मकीर्ति देवा तत्प?
शिष्य भ० नरेन्द्रकीर्ति थे । नरेन्द्रकोति के पट्टाभिषेक का भ० यशकीनिदेवा तत्पटें भ० श्री ललितकीर्ति रत्नकीर्ति- विबरण सिरोंज के एक गुटिका में पाया जाता है। उसका देवा तस्यो......."मालवादेशे सरोजनगरे । गोलाराड- कछ ग्रंश इस प्रकार हैचैत्यालये गोलापून्विये .....तस्यप्रतिष्ठाया प्रतिष्टितं ।।
त । मुनिराज की दिक्ष्याको परभाव । श्रावक सब मिलि यहाँ के दो प्रतिमालेखों में भ० रत्नकोति को मंड.
मानिके जैसो कियो चाउ ॥६॥ धनि नरेन्द्र कीर्ति मुनिलेश्वर और मंडलाचार्य भी कहा गया है। लेख इस ।
राई। भई जग में बहुत बढ़ाई ।। जहाँ पौरपट्ट सुखदाई। प्रकार है--
परबार वंस सोई प्राई । बहुरिया मूर तहाँ साई। स० १६७२ फाल्गुन सु. ३ मूलसघे भ० श्री ललित
धनि मथुरामल्ल पिलाई ॥ माता नाम रजोती कहाई । कीर्ति तत्प? मडलाचार्य श्री रत्न कीयुपदेशात् गोलापूर्वा
जाके है घनश्याम से भाई ॥ तप तेज महामुनि राई : न्वये स० सनेजा..........."
ये कहाँ के महलाचार्य थे यह नहीं ज्ञात होता है। कार्प महिमा वरनी जाई ।। ........................। ये भी भ. ललितकीर्ति के पटधर थे यह 'भट्टारक सम्प्रदाय'
कहा कहों मुनिराज के गुण गण सकल समाज । जो महिमा
१. पुस्तक से भी ज्ञात होता है। इनके पट्टयर चन्द्रकीर्ति
भविजन करै भट्टारक पदराज ॥ भट्टारक पदराज की थे इसके सूचक दो प्रतिमालेख यहाँ भी पाये जाते हैं।
कीरति सकल भाव आई। अलप बुद्धि कवि कहा कहै चंदेरी पट के भटारको की सूची इस प्रकार है- बुधिजन थकित रहाई ॥ विधि अनेक सो सहर सिरोंज में १. देवेन्द्रकीर्ति, २. त्रिभवनकीति, ३. सहस्रकीर्ति, ४. पन- भया पट्ट अपना चारु । सिंघई माधवदास भव नन्दी, ५. यश:कीर्ति, ६. ललितकीर्ति, ७. धर्मकीर्ति, निकसे महा महोच्छव सारु ।। ८. पद्मकीर्ति, ६ सकल कीर्ति और सुरेन्द्र कीर्ति । जान यहाँ से वस्त्राभूषण से सुसज्जित कर चौदा सिंघई के पडता है कि सरेन्टकीर्ति चदेरी पटट के अन्तिम भ०थे। देवालय में ले गयं । वहाँ सब वस्त्राभषण उतारकरा इसके बाद यह पट्ट समाप्त हो गया।
लोंच कर मुनिदीक्षा ली। उस समय १०८ कलश से भट्रारक पप्रकीति का स्वर्गवास वि. स. १७१७ अभिषेक किया। सर्वप्रथम भेलसा के पूरनमल्ल बड़कूर मार्गशीर्ष सुदि १४ बुधवार को हुअा था ऐसा चंदेरी प्रादि ने किया ।.......... खंदार मे स्थित उनके स्मारक से ज्ञात होता है । सम्भवतः जगत्कोति पद उघरन त्रिभुवनकीर्ति मुनिराई। इसके बाद ही इनके पट्ट पर भ. सकल कीर्ति प्रासीन हुए नरेन्द्रकीति तिस पट्ट भये गुलाल ब्रह्म गुन गाई ॥ होंगे। 'भट्टारक सम्प्रदाय' पु. पृ० २०५ मे वि० स० शुभकीर्ति, जयकीर्ति, मुनि । उदयसागर, ब्र० परस १७१२ और बि० सं० १७१३ के लेखों में इनके नाम के राम, भयासागर, रूपसागर, राम श्री प्रायिका, र