SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अहिच्छत्र श्री बलिभद्र जैन स्थिति-अहिच्छत्र उत्तर प्रदेश के बरेली जिले की की ओर देखा। पार्श्वनाथ के हाथों हए अपमान का आँवला तहसील में स्थित है। दिल्ली से अलीगढ़ १२६ प्रतिशोध लेने को आतुर हो उठा और अनेक प्रकार के कि० मी० तथा अलीगढ से बरेली लाइन पर (चन्दौसी भयानक उपद्रव करके उन्हे त्रास देने का प्रयत्न करने से आगे) आवला स्टेशन १३५ कि. मी० है । प्रावला लगा। किन्तु स्वात्मलीन पार्श्वनाथ पर इन उपद्रवो का स्टेशन से अहिच्छत्र क्षेत्र १८ कि० मी० सड़क द्वारा है। रचमात्र भी प्रभाव नही पड़ा । न वे ध्यान में चल-विचल आवला से अहिच्छत्र तक पक्की सडक है । स्टेशन पर हा और न उनके मन में पानतायी के प्रति दुर्भाव ही तागे मिलते है। इसके अतिरिक्त इसी रेलवे लाइन पर पाया । तभी नागकुमार देवो के इन्द्र धरणेन्द्र और उसकी करेंगी स्टेशन मे ८ कि० मी० तथा रेवती बहोड़ा खेडा इन्द्राणी पद्मावती के पासन कम्पित हए। वे पूर्वजन्म मे स्टेशन से ५ कि० मी० दिना मे पटता है । विन्तु सुविधा नाग-नागिन थे । मवर देव वाम तप-वी था। पार्श्वनाथ पावला स्टेशन से अधिक है। इसका पोस्ट ग्राफिग गम- उस समय राजमार थे । जब पावकुमार मोलह वर्ष के नगर है। किशोर थे, तब गङ्गा-तट पर सेना के साथ हाथी पर चढ ____ कल्याणक क्षेत्र-अहिच्छत्र आजकल रामनगर गाव कर वे भ्रमण के लिए निकले । उन्होंने एक तपस्वी को का एक भाग है । इसको प्राचीन काल मे सख्यावली नगरी देवा, जो पचाग्नि तप तप रहा था । कुमार पार्श्वनाथ कहा जाता था। एक बार भगवान पार्श्वनाथ मनि-दशा अपने अवधिज्ञान के नेत्र से उसके विडम्बनापूर्ण तप को मे विहार करते हुए सख्यावली नगरी के बाहर उद्यान में । देछ रहे थे । इम तपस्वी का नाम महीपाल था पीर यह पधारे और वहा प्रतिभा योग धारण करके ध्यानलीन हो पावकुमार का नाना था। पावकुमार ने उसे नमस्कार गए सयोगवश सवर नामक एक देव विमान द्वारा आकाश-. नही किया। इससे तपस्वी मन में बहुत क्षुब्ध था। उसने मार्ग से जा रहा था। ज्योही विमान पार्श्वनाथ के ऊपर लकड़ी काटने के लिए अपना फरमा उठाया ही था कि से गुजरा कि वह वही रुक गया। उग्रतपस्वी ऋद्धिधारी भगवान पार्श्वनाथ ने मना किया 'इसे मत काटो, इसमे मनि को कोई सचेतन या अचेतन वस्तू लांघकर नही जा जीव है।' किन्तु उनके मना करने पर भी उसने लकड़ी सकती । संवर देव ने इसका कारण जानने के लिए नीचे काट डाली। इससे लकडी के भीतर रहनेवाले मर्प और - - सपिणी के दो टुकड़े हो गए । परम करुणाशील पाच प्रभु उच्छ्वसित हो उठा-देवी मै राहभ्रष्ट हो गया था, ते अपने अमह्य वेदना मे तडपते हुए उन सर्प-मपिणी को तुमने मुझे राह बता दी। मां ! क्षमा करो मुझे । आज को णमोकार मन्त्र मनाया । मन्त्र मुनकर वे अत्यन्त शांत कंचन के मोल काच खरीदने चला था । तुमने मुझे बचा भावा के माथ मरे और नागकुमार देवो के इन्द्र और लिया। मुझे क्षमा करो कहते हुए विचित्रमणि तेजी मे इन्द्राणी के रूप मे धरणेंद्र और पद्मावती हुए महीपाल । निकल गए। अपनी सार्वजनिक अप्रतिष्ठा की ग्लानि मे अत्यन्त कुत्सित बुद्धिषणा गौरव से भर उठी। वह सोचने लगी- भावो के माथ मरा और ज्योतिष्क जाति का देव बना। जीवन के इस उत्थान-पतन का एकबार फिर उसका भूत- उसका नाम अव सम्बर था । उसी देव ने अब मुनि पार्श्वकालीन जीवन चित्रपट की भाति उसकी आखो मे फिरने नाथ में अपने पूर्व वैर का बदला लिया एव धरणेद्र और लगा। पद्मावती ने पाकर प्रभु के चरणों मे नमस्कार किया । -
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy