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________________ तीर्थकर और प्रतीक-पूना है! कर विराजमान किया था। इस ऐतिहासिक शिलालेख ङ्कर प्रतिमाओं का अध्ययन करने पर एक वात की ओर की इस सूचना को अत्यन्त प्रामाणिक माना गया है। ध्यान आकृष्ट हुए बिना नही रहता। ईसा की इन प्रथम इसके अनुसार मौर्य काल से पूर्व में भी एक मूर्ति थी, जिसे द्वितीय शताब्दियो में भी आदिनाथ, शान्तिनाथ, मुनि'कलिंग-जिन' कहा जाता था । 'कलिग-जिन' इस नाम से सुव्रतनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर आदि तीर्थङ्करों के समान ही प्रगट होता है कि सम्पूर्ण कलिंगवासी इस मूर्ति को जनता मे नेमिनाथ की भी मान्यता बहुप्रचलित थी। इस अपना पाराध्य देवता मानते थे । नन्द सम्राट् इसे अपने काल की भगवान नेमिनाथ की तीन प्रतिमायें विभिन्न साथ केवल एक ही उद्देश्य से ले गये थे और वह उद्देश्य स्थानो से उपलब्ध हुई है। एक मे नेमिनाथ पद्मासन था कलिग का अपमान । लगभग तीन शताब्दियो तक लगाये ध्यान-मुद्रा मे अवस्थित है और उनके दोनो ओर कलिंगवासी इस अपमान को भूले नही और अपने राष्ट्रीय बलराम और कृष्ण खड़े है। दोनो ही द्विभुजी है। दूसरी अपमान का प्रतीकार कलिग सम्राट् खारवेल ने किया। प्रतिमा में ध्यानमग्न नेमिनाथ के एक ओर शेषनाग के वह मगध की विजय करके अपने साथ अपने इस राष्ट्र- अवतार के रूप में चतुर्भुजी वलराम खडे है। उनके सिर देवता की मूर्ति को वापिस ले गया। किन्तु यह कितने पर शेषनाग का प्रतीक फण-मण्डप है। दूसरी ओर विष्णु पाश्चर्य की बात है कि अब तक एक भी पुरातत्त्व- के अवतार के रूप में चतुर्भुजी कृष्ण खड़े है। उनके हाथों वेत्ता और इतिहासकार ने इस ऐतिहासिक मूर्ति के में चक्र, पन प्रादि सुशोभित है। तीसरी मूर्ति अर्धभग्न सम्बन्ध मे कोई खोज नही की। पाखिर ऐसी ऐतिहा- है । इसमे नेमिनाथ ध्यानावस्थित है। एक पोर बलराम सिक मूर्ति कुमारी पर्वत से कब किस काल में किसने खडे है। इनका हल-मूसल उनके कन्धे पर विराजित है। की कहाँ स्थानान्तरित कर दी? यदि यह मूर्ति उपलब्ध हो इन मूर्तियो की प्राप्ति पुरातत्व की महान उपलब्धि मानी तो जाय तो इससे लोहानीपुर की मूर्ति को प्राचीनतम मानने जाती है। इससे नारायण कृष्ण की ऐतिहासिकता के वाले पुरातत्ववेताओं के मत को न केवल असत्य स्वीकार समान उनके चचेरे भाई भगवान नेमिनाथ को ऐतिहाकरना पडेगा, वरन मूर्ति निर्माण का इतिहास और एक- सिक महापुरुष मानने में कोई सन्देह नही रह जाता। दो शताब्दी प्राचीन मानना होगा। कुछ अनुसन्धानकर्ता इस काल मे तीर्थङ्कर प्रतिमाओं के अतिरिक्त प्रायाविद्वानों की धारणा है कि जगन्नाथपुरी की मूर्ति ही वह गपट. स्तप. यक्ष-यक्षी. अजमख हरिनंगमेशी. सरस्वती. 'कलिग-जिन' मूर्ति है। किन्तु इस सम्बन्ध मे अभी साधि सर्वतोभद्रिका प्रतिमा, मागलिक चिह्न, धर्मचक्र, चैत्यकार कुछ कहा नहीं जा सकता। वृक्ष प्रादि जैन कला की विविध कृतियो का भी निर्माण इसके पश्चात् शक-कुषाण काल मे मूर्ति कला का हुआ। इन कलाकृतियो के वैविध्य और प्राचुर्य से प्रभाद्रुत वेग से विकास हुआ। इस काल मे भी सर्वप्रथम वित कुछ विद्वान तो यह भी मानने लगे है कि जैन मूर्तितीर्थङ्कर मुर्तियों का निर्माण प्रारम्भ हुआ। मथुरा इस पूजा का प्रारम्भ ही मथुरा से हुआ है। यद्यपि यह सर्वाकाल में मूर्ति कला का केन्द्र था। तीर्थङ्कर मूर्तियो मे भी शत: सत्य नही क्योकि जैन मूर्तियो और मूर्ति-पूजा के अधिकांशतः पद्मासन ही बनाई जाती थीं। इस काल की प्रमाण इससे पूर्व काल में भी उपलब्ध होते है। इतना तीर्थङ्कर मूर्तियों के वक्ष पर श्रीवत्स लाछन और प्रष्ट अबश्य माना जा सकता है कि जैन धर्म का प्रचार करने प्रातिहार्य का प्रचलन प्रायः नही दीखता। तीर्थङ्कर और उसे लोकप्रिय बनाने में मथुरा की जैन कला का मूर्तियों में अलंकरण का भी प्रभाव था। मूर्तियों की विशेष योगदान रहा है । चरण-चौकी पर अभिलेख अंकित करने की प्रथा का जन्म मथुरा की तीर्थङ्कर मूर्तियो के अध्ययन से एक परिहो चुका था। जिस वोद्व स्तूप की चर्चा ऊपर आ चुकी णाम सहज ही निकाला जा सकता है। दिगम्बर-श्वेताहै, उसकी सूचना भी भगवान मुनिसुव्रतनाथ की चरण- म्बर सम्प्रदाय-भेद यद्यपि ईसा से तीन शताब्दी पूर्व हो चोकी के अभिलेख से ही मिलती है । इस काल की तीर्थ- चुका था, किन्तु उसका कोई प्रभाव मथुरा की तीर्थङ्कर
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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