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________________ राखी १८५ उसने विश्वनाथ से यही बात कही भी मुझे लगता है विश्वनाथ ने फिर मट्री खोलकर राखी को देखा और जमे मुझे कुछ चाहिए। से हॅम पड़ा। बोला .. हाय रे दुर्वल मानव । तेरी विश्वनाथ हंसा..'यही, यही तो आपत्ति का मूल है। दुर्बलता ने ही तो ससार को रहस्यमय बना दिया है।। बिना सुने नीरु वोली सुनो विश्वनाथ । क्या मै उसने उठना चाहा पर कहानी पूरी होने से कुछ देर तुम्हारे पास आ सकती हूँ। थी। नीरजा की सगीत भारती एक बार फिर विवाह के ___ क्यो नही । पा सकती हो, पर तुम्हे मेरी पत्नी से मंत्रो से गंज उठी उसने लिखा . . .' इस बार बिवाह आज्ञा लेनी होगी। घर उसका है। अचानक ही हो गया। मैने उसे स्वीकार कर लिया है । नीरु ने झिझकते हुए कहा 'समझती हूँ। काम ठीक चल रहा है। किसी दिन सपरिवार आयो फिर कई क्षण वे दोनो चुप बैठे रहे थे। बाद में न? . . . .' नीरज ने ही उस मौन को भंग किया था बोली...अब यही सब सोचकर विश्वनाथ को लगा मनुष्य कुछ भी क्या करूं? हो, सहारा चाहता है। उसके बिना खडा होने की शक्ति जो मन मे पाये। पाने में उसे अभी बहुत मजिल तय करनी है । वह नही हो सकता। और तब उसका हाथ फिर ढीला पड़ गया। उसने क्या क्या है वह ? उसने राखी को फेकने का विचार छोड दिया और वह मैं तुमसे प्रेम करना चाहती हैं, पर क्या कर सकती। उमे फिर अपने स्थान पर रखने चला कि तभी कमरे के किवाड खुले, देखा नीरु है। शान्त, प्रसन्न, विश्वास से विश्वनाथ ने वृष्टि उठा कर नीरजा को देखा फिर पूर्ण । चकित विस्मित वह बोल उठा, नीरु । धीरे से कहा: "सच पूछो तो प्रेम करने का अवसर ही नीरु हंसी। हाँ मै ही है। तुम तो आये नही, मुझे अब मिला है। ही आना पड़ा। क्या? ____ क्या बताये । प्रा नही सका। कोई विशेष बात भी ठीक कहता हूँ। अब तुम मझे पाने की लालसा के नहीं थी। बिना प्रेम कर सकती हो । जहाँ स्वार्थ नही है, वही प्रेम है। हाँ, विशेप तो कुछ ही नहीं थी। राखी मै डाक से मुनकर नीरजा के नयन भर पाये। कई क्षण मौन भी भज सकती थी पर मुझे लगा चलना चाहिए, सो मूर्तिवत् चित्रकार की तुलिका-सी भावो से भरी वह बठी चली पाई। रही फिर चली गई। पत्र द्वारा उसने अपना निश्चय और फिर बोली · · · लो हाथ बढ़ायो । विश्वनाथ को लिख भेजा... विश्वनाथ ने बिना कुछ कहे हाथ बढ़ा दिया। मुट्ठी ... . . मै अब अपने नगर मे सगीत भवन खोल रही में वही राखी थी। देखकर नीफ बोली · · · यह किसकी हूँ। मैने देश के लिए जीने का निश्चय कर लिया है। राखी है ? मेरा देश असीम है । दीवारें उसकी सीमा नहीं है। कल तुम्हारी । क्या होगा मै नही जानती, जानना भी नहीं चाहती। मेरी? मन करे तो कभी-कभी पाना। नरेश मझसे रूठ हाँ, पहिली बार माँ के कहने पर जो राखी तुमने गया है, तुम भी रूठ सकते हो पर अब मझे किसी की बाँधी थी वही है। चिन्ता नही है। नीरजा मुस्करा पड़ी · · · इसे क्यों रख छोड़ा है ? पुनश्च करके लिखा था.. परसों श्रावणी पूर्णिमा है। तुमने ? तुम तो मोह को पाप समझते हो। राखी भेज रही हूँ। विश्वनाथ के मुंह पर यह करारा तमाचा था। वह हतप्रभ-सा हो गया पर साहस करके बोला · · · नीरु ! बस....
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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