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________________ २२०, वर्ष २६, कि०६ भनेकान्त राज्य के निवासी, सामन्त परिवार के सभी सदस्य मेरे देगा। मार्ग में मुझे पिता के समान व्यवहार किया और स्वागत की प्रतीक्षा में होंगे। मैं नहीं चाहता कि तू मेरे कहा-बेटी तू चिन्ता न कर । यदि लोकापवाद के कारण मगौरव का कारण बने । मैं शीघ्र ही लौट कर पाऊँगा तेरे माता-पिता तुझे स्वीकार नहीं करेंगे तो तू मेरी पुत्री और तुझे ले जाऊंगा। और इस तरह मुझे किन्नरपुर के तो है ही। मैं तेरा विवाह किसी उत्तम कुल के युवक से निकट निर्जन वन में छोड़कर चला गया। सम्भव है उसने कर दंगा। सोचा हो, इस निर्जन वन मेंमेरी प्रतीक्षा के अतिरिक्त मैंने कहा-धर्म पिता, मेरे विवाह का प्रश्न ही नही और मार्ग ही क्या हो सकता है ? पर दुःखो की कोई उठता। पुष्पसेन ने पाश्चर्य से कहा-अभी यौवन काल सीमा नहीं होती मां । कुछ समय बाद मैंने एक दैत्याकार का प्रारम्भ है। तुझे जीवन के अनेक यौवन-बसन्त देखने श्यामवर्ण मानव को देखा। वह मृगया के शस्त्रों से लैस हैं। इस वय में विरक्ति ? मैं कुछ समझ नहीं पाया। था। उसके पीछे उसी के आकार जैसे अनेक व्यक्ति थे। मैंने कहा-बाल्यकाल में अष्टाह्निका पर्व के समय चम्पामैं भय से कांपने लगी । भाग भी न सकी । इतने में उसने पुर में एक जैन श्रमण पाये थे । मेरी मां और पिता जी मझे पकड़ लिया और कन्धे पर टांग लिया। किन्तु अन्ध- ने अष्टाह्निका पर्व में ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया । मैंने भी कार में से ही प्रकाश की किरण फूटती है। रात्रि के अनजाने में कहा-पिता जी मैं भी ब्रह्मचर्य लूंगी। पिता पश्चात् भोर होता हैं। वह मुझे अपने गांव ले गया। हंसी मैं वोले---तू ले ले बेटी। मैंने जीवन भर के लिए भील की पत्नी भील से भी भयंकर थी, किन्तु मां उसकी ब्रह्मचर्य स्वीकार कर लिया। बाल्यकाल की स्मृति यौवन भयंकरता के कारण ही मेरी पावनता की रक्षा हो सकी। की देहरी तक पाते-पाते मस्तिष्क पर दृढ़ता से छा चुकी भील पत्नी ने कहा-इस घर में सौत नही रहेगी। उसने मुझे है। मैं प्रति वर्ष अष्टाह्निका पर्व पर अपने बाल्यकाल की सरक्षा में लिया। बहुत स्नेह दिया । भीलनी का व्यवहार स्मृति में इस संकल्प को दोहरा लेती हैं। भगवान महास्नेह देखकर मुझे लगा कि इस श्याम तन पर अनेक वीर और महासती चन्दनबाला के पावन चरित्र मेरे सौन्दर्य न्योछावर किये जा सकते है। भीलों का राजा मस्तिष्क में सदैव गंजते रहते हैं। ये नित नयी प्रेरणा सींगों मादि तथा चन्दन की लकड़ियों का व्यापार करता और शक्ति देते हैं, यदि मझे मेरे माता-पिता स्वीकार न था। एक दिन एक प्रौढ़ व्यक्ति कई सेवकों के साथ लकड़ी करें, तो हे धर्म पिता पाप मेरे जीवन का भार उठाइये । खरीदने पाया। भीलनी ने उसे बुलाकर कहा-यह एक मझे किसी जैन प्रायिका के चरणों में स्थान दिला दीजिये। शीलवती युवती है। इसे कोई निकट की सघन अटवी में पूष्पसेन ने मेरे कथन पर प्रसास किया। हरण करके छोड़ गया है। तुम इसे ले जामो । प्रतिज्ञा तीन दिन गए। मैंने सोचा था अब मेरे दुःखों का करो कि इसे पुत्री के समान रखोगे तथा सुविधा पाकर अन्त निकट मा गया है। किन्तु दुर्भाग्य ने पीछा नहीं इसके माता-पिता के पास पहुंचा दोगे। छोड़ा। जिसे मैं धर्म पिता समझी थी, उसने एक दिन __मैंने उस व्यापारी की भोर देखा। उसके चेहरे के अत्यन्त घृणित प्रस्ताव प्रस्ताव रखा-अनन्तमती धर्म पीछे से झांकती वासना मेरी दृष्टि से छिपी न रह सकी। और शील की बात छोड़ । मैं तुझे अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति मैं भयभीत हई। मैंने कहा-मां मैं तुम्हारे पास ही सुखी की स्वामिनी बना दंगा। मानव जीव बार-बार नहीं है। किन्तु इसके पूर्व भीलनी कुछ कहती, वणिक बोला मिलता। यौवन के सुखद अण फिर नहीं पाते। यौवन में पुष्पसेन हूँ । मेरी प्रौढ़ावस्था है । तुम्हारी उम्र की का उपभोग करो। यौवन की मादकता का प्रभी तुझे पुत्र-पुत्रियों से मेरा मांगन सदैव गूजता रहता है, मैं भय अनुभव नहीं है। एक बार इन भोगों को प्रारम्भ कर मुक्त हुई और उसके साथ चल दी। मार्ग में पुष्पसेन का दिया था छोड़ने का नाम भी नही लोगी। धर्म की बाते व्यवहार बहुत सुखद रहा। मुझे उसने विश्वास दिलाया निस्सार है। कि वह शीघ्र ही मुझे मेरे माता-पिता के पास पहुँचा मैंने कहा-धर्म पिता, मानव जीवन बार-बार नहीं
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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