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अनेकान्त
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोषमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
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वर्ष २६
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वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर-निर्वाण संवत् २४६८, वि० सं० २०३०
फरवरी १६७४
किरण ६
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सिद्धस्तुतिः र मत्वादणुदशिनोऽवधिदृशः पश्यन्ति नो यान् परे, यत्संविन्महिमस्थितं त्रिभुवनं खमस्थं भमेकं यथा । सिद्धानामहमप्रमेयमहसां तेषां लघुर्मानसो, मूढात्मा किम् वच्मि तत्र यदि वा भक्त्या महत्या वशः॥ निःशेषामरशेखराश्रितमणिश्रेयचिताङ्घ्रिद्वया, वेवास्तेऽपि जिना यदुन्नतपदप्राप्त्यै यतन्ते तराम् । सर्वषामुपरि प्रवद्धपरमज्ञानादिभिः क्षायिकः,
युक्ता न व्यभिचारिभिः प्रतिदिनं सिद्धान् नमामो वयम् ।। सूक्ष्म होने से जिन सिद्धों को परमाणुदर्शी दूसरे भवधिज्ञानी भी नहीं देख पाते हैं तथा जिनके ज्ञान में स्थित तीनों लोक प्राकाश में स्थित एक नक्षत्र के समान स्पष्ट प्रतिभासित होते हैं उन अपरिमित तेज के धारक सिद्धों का वर्णन क्या मुझ जैसा मूर्ख व हीन मनुष्य कर सकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता। फिर भी जो मैं उनका कुछ वर्णन यहां कर रहा हूं वह प्रतिशय भक्ति के वश होकर ही कर रहा हूँ। जिनके दोनों चरण समस्त देवों के मुकुटों में लगे हुए मणियों की पंक्तियों से पूजित हैं । अर्थात् जिनके चरणों में समस्त देव भी नमस्कार करते है, ऐसे वे तीर्थदर जिनदेव भी जिन सिद्धों के उन्नत पद को प्राप्त करने के लिए अधिक प्रयत्न करते हैं। जो सबों के ऊपर वृद्धिंगत होकर अन्य किसी में न पाए जाने वाले ऐसे अतिशय वृद्धिंगत केवल ज्ञानादि स्वरूप क्षायिक भावों से संयुक्त हैं, उन सिद्धों को हम नमस्कार करते हैं।