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________________ ७०, वर्ष २६, कि० २ अनेकान्त कि यहाँ पर मुनि जन तपस्या किया करते थे। ललितघट अनुज को मृत देखकर वे ऐसे मोहाविष्ट हुए कि छह माह प्रादि बत्तीस राजकुमार मुनि बनकर यहाँ आये और तक मृत देह को लिये फिरे । अन्त में एक देव द्वारा समयमुना-तट पर खड़े होकर विविध प्रकार के तप करने झाने पर तुगीगिरि पर जाकर उन्होने दाह सस्कार किया। लगे । एक दिन यमुना में भयंकर बाढ़ आ गई और वे इस प्रकार इस कल्पकाल के अन्तिम नारायण श्रीसभी मुनि बाढ़ मे बह गये । उनकी स्मृति में यहाँ बत्तीस कृष्ण के अन्तिम काल का इतिहास पभोमा की मिट्टी मे समाधियाँ बनी हुई थी, जिन पर हिन्दुनों ने अधिकार कर ही लिखा गया। लिया है। स्थानीय मन्दिर–यहाँ दिगम्बर जैन धर्मशाला बनी इतिहास--पभोसा कौशाम्बी का ही भाग था। यहाँ हुई है। धर्मशाला में ही एक कमरे मे मन्दिर भी है। उस समय वन था। इसलिए कौशाम्बी मे भिन्न पभोस। उसमे पद्मप्रभु भगवान की मूर्ति के अतिरिक्त भूगर्भ से का अपना कोई स्वतन्त्र इतिहास नहीं है। किन्तु यहाँ निकली हई कुछ प्राचीन जैन मूर्तियाँ भी विराजमान है । तीर्थकर पद्मप्रभ के दो कल्याणको की पूजा और उत्सव के ये मुनियाँ प्रायः हल जोतते हए किसानो को मिली है। बाद बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ के काल में एक महत्वपूर्ण धर्मशाला के निकट ही पहाडी है। पहाड़ी छोटी सी घटना घटी। भगवान् नेमिनाथ ने बलराम के पूछने पर है। पहाड़ी पर जाने के लिए सीढ़ियों बनी हुई है। द्वारका और नारायण श्रीकृष्ण के भविष्य का वर्णन करते मीढ़ियो की कुल संख्या १६८ है। ऊपर जाकर समतल हए कहा -- प्राज से बारह वर्ष पीछे मद्यपी यादवों द्वारा चबूतरा मिलता है। वहाँ एक कमरा है जो मन्दिर का उत्तेजित किये गये द्वैपायन मनि के शाप से द्वारका भस्म काम देता है। पहले यहाँ मन्दिर था किन्तु भाद्रपद वदी होगी। अन्तिम समय में श्रीकृष्ण कौशाम्बी के वन मे है वीर स० २४५७ को यकायक पर्वत टूटकर मन्दिर के शयन करेंगे और जरत्कुमार उनकी मृत्यु के कारण बनेंगे। ऊपर गिर पडा, जिससे मन्दिर तो ममाप्त हो गया, किन्तु भगवान की इस भविष्यवाणी को सुनकर बलराम के प्रतिमा बाल-बाल बच गई। तब प्रतिमा निकाल कर एक मामा (रोहिणी के भाई) द्वैपायन विरक्त होकर मुनि कमरे में विराजमान कर दी गई। कहते है, पहले पहाड़ बन गये और कही दूर वनो में जाकर तप करने लगे। पर तीन मन्दिर थे। उनके नष्ट होने पर इलाहाबाद के इसी प्रकार श्रीकृष्ण के बडे भ्राता जरत्कुमार भी वहाँ से लाला छज्जूमल ने संवत् १८८१ मे यह मन्दिर बनबाया .चले गये और बनों में रहने लगे। तीर्थकर अन्यथावादी था। नहीं होते । दोनो ने ही, लगता था, भवितव्य और तीर्थकर इस कमरे में एक गज ऊँचे चबूतरे पर सब प्रतिमाये वाणी को झुठलाना चाहा। किन्तु भवितव्य होकर ही विगजमान है। इनमे मूलनायक भगवान् पद्मप्रभ की रही। द्वैपायन के क्रोध से द्वारका भस्म हो गई। बलराम प्रतिमा भरे वर्ण की पद्मासन मुद्रा मे है । अवगाहना प्रायः और श्रीकृष्ण वहाँ से चल दिये और कौशाम्बी के इस वन दो हाथ है। प्रतिमा चतुर्थ काल की है, ऐसी मान्यता है। में पहुँचे। श्रीकृष्ण प्यास से व्याकुल हो गये । वे एक पेड प्रतिमा पर गूढ लास्य और वीतराग शान्ति का मामञ्जस्य की छांव में लेट गये । बलराम जल लाने गये। जरत्कुमार अत्यन्त प्रभावक है। उसी वन में घूम रहा था। उसने दूर से कृष्ण के वस्त्र को मन्दिर के ऊपर पहाड़ की एक विशाल शिला मे हिलता हुआ देखकर उसे हिरण ममझा। उमे वाण सन्धान उकेरी हुई चार प्रतिमाये दिखाई पड़ती है जो ध्यानमग्न करते देर न लगी । वाण आकर श्रीकृष्ण के पैर में लगा। मुनियों की है। ऊपर दो गुफाएँ भी है, जिनमें शिलालेख जब जरत्कुमार को तथ्य का पता लगा तो वह आकर पैरो प्राप्त हए है। में पड़ गया। श्रीकृष्ण सम्यग्दृष्टि थे, भावी तीर्थकर थे। इस पहाड़ी के नीचे ही यमुना नदी बहती है। यहाँ उन्होंने बड़े शान्त और समता भाव से प्राण विसर्जन का प्राकृतिक दृश्य अत्यन्त आकर्षक है । ध्यान- सामायिक किये। बलदेव जब लौट कर आये तो अपने प्राणोपम के लिए स्थान अत्यन्त उपयुक्त है।
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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