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________________ कौशाम्बी पभोसा कहा जाता है, ढाई हजार वर्ष पहले राजा शतानीक दूसरी वेदी मे एक चैत्य है जिसमें चारों दिशाओं में पद्म का किला चार मील के घेरे में था । उसमे बत्तीस दरवाजे प्रभ भगवान् की प्रतिमा हैं। इस मंदिर का प्रबन्ध थे। उसी के अन्दर कौशाम्बी नगरी बसी हुई थी। इस बाबू निर्मलकुमार जी आरा के परिवार की ओर से किले के अवशेष अब भी है । कई स्थानो पर तो किले को होता है । धर्मशाला के बरामदे में बच्चों की पाठशाला , ध्वस्त दीवाले ३० से ३५ फुट ऊची स्पष्ट दिखाई देती लगती है। है। यहाँ प्राचीन नगर के भग्नावशेष मीलों मे विखरे पड़े है। इनके मध्य सम्राट अशोक का बनवाया हुआ एक स्तम्भ भी खड़ा हुआ है, जो वस्तुतः उसके पौत्र सम्राट पभोसा क्षेत्र कौशाम्बी से १६ कि०मी० दूर है। मार्ग सम्पत्ति द्वारा निर्मित है। भगवान् पद्मप्रभ का जन्म- कच्चा है । किन्तु इक्के जा सकते है। कौशाम्बी से यमुना स्थान होने के कारण सम्राट सम्प्रति ने यहाँ स्तम्भ निर्मित नदी मे नावों में जाने से मार्ग केवल १० कि० मी० पड़ता कराया था और उसके ऊपर जैन धर्म की उदार शिक्षायें है और सुविधाजनक भी है। कौशाम्बी से पाली होते हुए अंकित कराई थी। पैदल मार्ग से केवल ८ कि. मी. है। पभोसा यमुना तट यहाँ के खण्डहरो में मैंने सन् १९५८ की शोध-यात्रा पर अवस्थित है। मे अनेक जैन मूर्तियो के खण्डित भाग पडे हुए देखे थे। तीर्थक्षेत्र---छटे तीर्थकर भगवान् पद्मप्रभ अपने राजमुझे अखण्डित जैन प्रतिमा तो नही मिल पाई । किन्तु जो महलों के द्वार पर बघे हुए हाथी को देखकर विचारमग्न खण्डित प्रतिमाएँ मिली, 'उनमे किसी प्रतिमा का शिरो- हो गये, उन्हे अपने पूर्व भवो का स्मरण हो पाया। उन्हें भाग था तो किसी का अधोभाग। मुझे जो शिरोभाग संसार की दशा को देखकर वैराग्य हो गया और कौशाम्बी मिले, वे भावाभिव्यजना और कला की दृष्टि से अत्यन्त के मनोहर उद्यान (पभोसा) में जाकर कार्तिक कृष्णा समुन्नत थे। मुझे सिहासन पीठ और पायागपट्ट के भी त्रयोदशी के दिन दीक्षा ले ली। देवो और इन्द्रो ने भगकुछ भाग उपलब्ध हुए थे। सिहासन पीठ पर धर्मचक्र वान् का दीक्षा कल्याणक महोत्सव मनाया। और पुष्प उत्कीर्ण थे। वे तथा पायागपट्ट के अलकरण भगवान् दीक्षा लेकर तपस्या में लीन हो गये और भी अनिन्द्य कला के उत्कृष्ट उदाहरण थे। लगभग छह माह के घोर तप के बाद उन्हे चैत शुक्ला खुदाई मे एक विहार निकला है, जो मंग्वलीपत्र पूर्णमासी को उसी मनोहर उद्यान में केवलज्ञान प्राप्त गोशालक का कहलाता है। कहा जाता है, इस बिहार में हुआ। देवो पोर इन्द्रो ने आकर ज्ञान कल्याणक का गोशालक के सम्प्रदाय के पांच हजार साध रहते थे। महोत्सव मनाया। यही पर भगवान् का प्रथम समवसरण प्रारंभ में गोशालक भगवान् महावीर का शिष्य था। लगा और भगवान् की प्रथम कल्याणी वाणी खिरी । किन्तु बाद में वह भगवान् से द्वेष और स्पर्धा करने लगा। भगवान् के चरणों में बैठकर और उनका उपदेश सुनकर उसने एक नया सम्प्रदाय भी चलाया, जिसका नाम असंख्य प्राणियों को प्रात्म-कल्याण की प्रेरणा मिली। प्राजीवक सम्प्रदाय था। किन्तु अब तो वह केवल ग्रन्थो जिस स्थान पर भगवान् पद्मप्रभ के दीक्षा और ज्ञानमें ही रह गया है। कल्याणक मनाये गये, वह स्थान पभोसा है । इसीलिए यह जैन मन्दिर-विधि की यह कैसी विडम्बना है कि कल्याणक तीर्थ माना जाता है। जो नगरी कभी जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र रही, आज वहाँ यह स्थान प्राचीन काल मे मुनियों की तपोभूमि एक भी जैन का घर नहीं है। केबल लाला प्रभुदास जी रहा है। कालिन्दी का प्रशान्त कूल, सुरम्य पर्वत की पारा वालों का वनवाया हा एक दिगम्बर जैन मन्दिर हरीतिमा और गुहा की एकान्त शान्ति-यह सारा वाताऔर एक जैन धर्मशाला है। मन्दिर में दो वेदियाँ है। वरण मुनियो के ध्यान-अध्ययन के उपयुक्त है। प्राचीन एक मे भगवान् पद्मप्रभ की प्रतिमा और चरण है। तथा साहित्य मे ऐसे उल्लेख मिलते है, जिनसे पता चलता है
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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