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________________ काम करती रही । दक्षिण के अधिकाश मन्दिर राजानो, किन्तु पुरातत्व को ज्ञात जैन मंदिरो का प्रारम्भिक रानियो, राज्याधिकारियो और राज्यश्रेष्ठियो द्वारा निर्मित रूप विधान कैसा था, इममे अवश्य मतभेद दृष्टिगोचर हुए, जबकि उत्तर के मन्दिरों का निर्माण सामान्य जनो होता है। लगता है, प्रारम्भ मे मंदिर सादे बनाये जाते ने कराया । शक कुपाणकान के मथुरा के मूति लेखो से थे । उन पर शिखर का विधान पश्चात्काल मे विकसित प्रकट है कि वहाँ के पायागपट्ट, प्रतिमा और मन्दिर हुअा। शिखर सुमेरु और कैलाश के अनुकरण पर बने । स्वर्णकार, वेश्या आदि ने ही बनवाये थे। ककुभग्राम का अनेक प्राचीन सिक्को पर मदिरो का प्रारम्भिक रूप गुप्तकालीन मानस्तम्भ एक सुनार ने बनवाया था। देखने में आता है। मथुरा की वेदिकाओ पर मदिराअस्तु ! कृतियाँ मिलती है, जिन्हे विद्वानों ने मदिरो का प्रारम्भिक पुरातत्वज्ञो के मतानुसार महावीर काल में जिनायतन । रूप माना है। ई०पू० द्वितीय और प्रथम शताब्दी के नहीं थे, बल्कि यक्षायतन और यक्ष-चैत्य थे। श्वेताम्बर । मथुरा जिनालयो में दो विशेषताये दिखाई देती है --- सूत्र-साहित्य में किसी जिनायतन में महावीर के ठहरने प्रथम वेदिका और द्वितीय शिखर । इस सम्बन्ध मे का उल्लेख नहीं प्राप्त होता, बल्कि यक्षायतनो में उनके प्रो० कृष्णदत्त बाजपेयी का अभिमत है कि मदिर के ठहरने के कई उल्लेख मिलते है। इन यक्षायतनो और चयो चारो पोर वृक्षो की वेष्टनी बनाई जाती थी, इसे ही के आदर्श पर जिनायतन या जिन मन्दिरो की रचना की वेदिका कहा जाता था। बाद में यह वेष्टनी प्रस्तर निर्मित गई , यक्ष-मूर्तियो के अनुकरण पर जिन मूर्तियाँ निर्मित होने लगी। हुई और यक्ष एव नाग पूजा पद्धति से जिन मूर्तियो की विभिन्न कालो मे मन्दिरो के रूप और कला मे पूजा प्रभावित हुई। विभिन्न परिवर्तन होते रहे। कला एक रूप होकर कभी स्थिर नही रही। ममय के प्रभाव से वह अपने आपको किन्तु दिगम्बर साहित्यिक साक्ष्य के अनुसार कर्मभूमि मुक्त भी नहीं कर सकी। एक समय था, जब तीर्थकरके प्रारम्भिक काल मे इन्द्र ने अयोध्या मे पाच मन्दिरो प्रतिमा अष्ट प्रातिहार्ययुक्त बनाई जाती थी। किन्तु आज का निर्माण किया , भरत चक्रवर्ती ने ७२ जिनालय तो तीथकरो के साथ अष्ट प्रातिहार्य का प्रचलन ही समाप्त बनवाये : शत्रघ्न ने मथुरा में अनेक जिन-मन्दिरों का सा हो गया है. जबकि शास्त्रीय दष्टि से निर्माण कराया। जैन मान्यतानुसार तो तीन लोको की है। रचना मे कृत्रिम और अकृत्रिम दोनों प्रकार के चैत्यालयों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। नन्दीश्वर द्वीप के बाबन अकृत्रिम १. मन्दिरो के विकास-प्रकरण में प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी चैत्यालयो का पूजा विधान जैन परम्परा मे अब तक के विभिन्न लेखो और डा० भागचन्द की 'देवगढ़' सुरक्षित है। इसलिए यह माना जा सकता है कि जैन पुस्तक ये महायता ली गई है। इसके लिए दोनो परम्परा मे जिन चैत्यालयो की कल्पना बहुत प्राचीन है। विद्वानों के प्रति हम आभारी है। -लेखक अनेकान्त के ग्राहक बनिये 'अनेकान्त' जैन समाज की एकमात्र शोध-पत्रिका है। जैन साहित्य, जैन आचार्यो और जैन परम्परा का इतिहास लिखने वाले विद्वान 'अनेकान्त' की ही सहायता लेते है। इसका प्रत्येक लेख पठनीय और प्रत्येक अंक सग्रहणीय होता है। प्रत्येक मन्दिर और वाचनालय में इसे अवश्य मगाना चाहिये । मूल्य केवल ६) रुपया। वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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