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अंजना
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दुखिया पापों की मारी। अपने माता पिता के घर पर, तिरस्कार पाई भारी॥
(६५) पा अपमान चली जंगल में,
निराधार दुखिया वाला। दुख-सुख-संगातिन थी सँग में,
प्यारी सखि वसन्तमाला ।।
(८७) थोड़े दिन ही भीतर बाते,
लगी फैलने चारों ओर । हुई अजना गर्भवती है, पाप किया इसने अति घोर ॥
(८८) कोई कहने लगा "अंजना,
बड़ी सती थी कहलाती। पर, ऐसी है, इसी लिए तो,
नही पवनंजय को भाती॥"
(८६) कहा किसी ने "वाह वाह जी,
क्या ऐसा हो सकता है ? वड़ी सुशील है वह, उसके लिए व्यर्थ जग बकता है।"
(६०) "तुम हो भोले भाले भाई,
त्रियाचरित तुम क्यों जानो। जो छल कपट अंजना करती,
कहो उन्हे तुम क्या जानो।"
धीरे धीरे ऐसी बात
पहुँची राजा रानी को। उनको हुआ बड़ा भारी दुग्व,
हो दुख क्यो नहि मानी को!
(६२) रानी केतुमती झट पाई,
अपनी पुत्रवधू के पास । गर्भवती जब उसको देखी,
लगी डालने तब निश्वास ।।
(६३) कोप अजना पर कर भारी,
उसको दिया तुरन्त निकाल । तथ्य कथन, मुद्रा दिखलाना,
उसको इसने माना जाल ।।
प्रथम भिणी, फिर वह वन-महि,
चला न कुछ भी जाता था। कठिनाई से राम राम कर,
कुछ कुछ पद उठ पाता था ।।
(६७) धीरे-धीरे गल-गुफा तक,
पहुंची, पहुँची मुनि के पास । कुशल पूछ वचनामृत सुनकर,
मन मे बंधा इसे विश्वास ।।
(६८) चैत्र शुक्ल अष्टमी तिथि को,
बीती जब थी आधी रात । हुना अजना के बलशाली,
तेजस्वी बालक दृढगात ।।
(86) इतने में ही सिंहगर्जना,
एकाएक हुई भारी। प्रतिधुनि से सारे जगल में,
कोलाहल छाया भारी ।।
(१००) चिल्ला उठी अंजना इससे,
भय खाकर अपने मन में। इतने में ही व्योमयान इक,
आया इसके ढिंग पल में ।।
(१०१) उससे उतरे नृप प्रतिसूरज,
पूछा उनने इसका हाल ।
(६४)
गई कोसती हुई गर्भ को,