Book Title: Agam 42 mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Shayyambhavsuri, Bhadrabahuswami, Agstisingh, Punyavijay
Publisher: Prakrit Granth Parishad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Prakrit Text Series Vol. XVII DASAKĀLIASUTTA WITH NIRYUKTI AND CŪRNI PRAKRIT TEXT SOCIETY AHMEDABAD-380 009. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Prakrit Text Society Series No. 17 General Editors Dr. P. L. VAIDYA Dr. H. C. BHAYANI SAYYAMBHAVA'S DASAKĀLIYASUTTAM WITH BHADRABĀHU'S NIRYUKTI AND AGASTYASIMHA'S CŪRŅI Edited by MUNI SHRI PUNYAVIJAYAJI PRAKRIT TEXT SOCIETY AHMEDABAD-380 007. 2003 Jain Education Intemational Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published by RAMNIK SHAH Secretary PRAKRIT TEXT SOCIETY Shree Vijay-Nemisuriswarji Jain Swadhyay Mandir 12, Bhagatbaug Society, Sharada Mandir Road, Paldi, Ahmedabad-380 007. Reprint : October, 2003 Price: Rs. 250/ Available from : 1. Saraswati Pustak Bhandar, Ratanpole, Ahmedabad-1. 2. Parshwa Prakashan, Zaveriwad, Relief Road, Ahmedabad-1. 3. Motilal Banarasidas, Delhi, Varanasi. Printed by : MANIBHADRA PRINTERS 3, Vijay House, Parth Tower, Nr. Bus Stop, Nava Vadaj, Ahmedabad-380 013. Tel. 764 2464, 764 0750 Jain Education Intemational Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतग्रन्थपरिषद् ग्रन्थाङ्क : १७ सिरिसेजंभवथेरविरड्यं दसकालियसत्तं सिरिभद्दबाहुसामिविरड्याए निजुत्तीए सिरिवइरसामिसाहुन्भवसिरिअगत्थियसिंहथेरविरइयाए चुण्णीए य संजुयं संशोधकः सम्पादकश्च मुनिपुण्यविजयः जिनागमरहस्यवेदिजैनाचार्यश्रीमद्विजयानन्दसूरिवर (प्रसिद्धनाम-आत्मारामजीमहाराज) शिष्यरत्नप्राचीनजैनभाण्डागारोद्धारकप्रवर्तकश्रीमत्कान्तिवजयान्तेवासिनां श्रीजैनआत्मानन्दग्रन्थमालासम्पादकानां मुनिप्रवरश्रीचतुरविजयानां विनेयः प्राकृत ग्रन्थ परिषद् अहमदाबाद-३८०००७. वीरसंवत् : २५३० विक्रमसंवत् : २०६० इस्वीसन् : २००३ Jain Education Intemational Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: रमणीक शाह सेक्रेटरी प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी श्री विजयनेमिसूरीश्वरजी जैन स्वाध्याय मंदिर १२, भगतबाग सोसायटी, शारदा मंदिर रोड, पालड़ी, अहमदाबाद-३८०००७. पुनःमुद्रण : ओक्टोबर, २००३ मूल्य : रू. २५०/ मुद्रक : माणिभद्र प्रिन्टर्स ३, विजय हाउस, पार्थ टावर, . बस स्टेन्ड के पास, नवा वाडज, अहमदाबाद-३८० ०१३. Jain Education Intemational Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પુન:પ્રકાશનના લાભાર્થી પરમ શાસનપ્રભાવક મહારાષ્ટ્રદેશોદ્ધારક વ્યાખ્યાનવાચસ્પતિ સુવિશાલગચ્છાધિપતિ સુવિશુદ્ધદેશનાદાતા રત્નત્રયીપ્રદાતા સ્વ. પૂજયપાદ પરમોપકારી આચાર્યદેવેશ શ્રીમદ્ વિજયરામચંદ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજા તથા તેઓશ્રીજીના આજીવન અંતેવાસી વાત્સલ્યમહોદધિ સુવિશાલગચ્છનાયક સ્વ. પૂજયપાદ આચાર્યદેવેશ શ્રીમદ્ વિજયમહોદયસૂરીશ્વરજી મહારાજાના દિવ્ય આશીર્વાદથી પ્રશમરસનિધિ પ્રવચનપ્રભાવક વર્તમાનગચ્છાધિપતિ પૂજ્યપાદ આચાર્યદેવેશ શ્રીમદ્ વિજયહમભૂષણસૂરીશ્વરજી મહારાજાના આજ્ઞાવતિની માતૃહૃદયા પ્રવર્તિની સ્વ. પૂ. સા.શ્રી જયાશ્રીજી મ.સા. ના પ્રથમાન્તવાસી પ.પૂ. સા. શ્રી ભદ્રપૂર્ણાશ્રીજી મ.ના શિષ્યાઓ પૂ.સા. શ્રી સૂર્યપ્રભાશ્રીજી મ. પૂ. સા. શ્રી મનોરમાશ્રીજી મ. પૂ.સા શ્રીનિરંજનાશ્રીજી મ.ની દિવ્યકૃપાથી તથા તેઓશ્રીના શિષ્યરત્ના પૂ.સા. શ્રીપુણ્ય પ્રભાશ્રીજીમ.ના ઉપદેશથી શ્રી હસમુખલાલ ચુનીલાલ મોદી પરિવાર ટ્રસ્ટ દ્વારા સ્વદ્રવ્યનિર્મિત શ્રી અજિતનાથ સ્વામી પ્રાસાદ તેમજ સા. શ્રી સૂર્યપ્રભાશ્રીજી સ્વાધ્યાય મંદિર, કુમુદમેન્શન અને શ્રી વિજયરામચંદ્રસૂરીશ્વરજી સાધના મંદિર, લોટસ હાઉસમાં થયેલ જ્ઞાનદ્રવ્યની ઉપજમાંથી સૂરિરામના વિયરત્ન કલિકાલના ધશા અણગાર સચ્ચારિત્રપાત્ર વર્ધમાનતપોનિધિ સ્વ. પૂજય પંન્યાસપ્રવરશ્રી કાંતિવિજયજી ગણિવરના વિનેયરત્ન વાત્સલ્યવારિધિ શાસનપ્રભાવક પૂજયપાદ આચાર્યદેવેશ શ્રીમદ્ વિજયનરચંદ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજાની પ્રેરણાથી કુમુદબેન હસમુખલાલ મોદી અને શ્રી કુમુદ મેન્શન તપાગચ્છ આરાધક સંઘ, કુમુદબેન્શન ફોરજેટીલ, તારદેવ, મુંબઈ-૪૦૦૦૩૬, વાળાએ આ પુસ્તક પ્રકાશનનો લાભ લીધેલ છે. મંત્રી, પ્રાકૃત ગ્રંથ પરિષદુ અમદાવાદ, પ્રાપ્તિસ્થાન: દિપકભાઈ જી. દોશી કાપડના વેપારી . દેપાળાવાડ સામે, વઢવાણ સીટી-૩૬૩ ૦૩૦ ફોન : (૦૨૭૫૨) (ઓ.) ૨૪૧૧૫૨ પી.પી. (રહે.) ૨૪૩૪૨૪ પી.પી. Jain Education Intemational Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय स्व. आगमप्रभाकर मुनिराज पू. पुण्यविजयजी म.सा. द्वारा संपादित ‘दसकालियसुत्त'का पुनर्मुद्रण प्रकाशित करते हुए हमें आनंद अनुभव हो रहा है। प्राकृत ग्रन्थ परिषद् द्वारा ई.स. १९७३ में परिष। इस ग्रन्थ का प्रकाशन किया था। पाँच वर्ष से अधिक समय से इस ग्रन्थ की सभी नकलें समाप्त हो गई थी। हम पुनर्मुद्रण करने के लिए आतुर थे किन्तु आवश्यक फंड के अभाव में प्रकाशन कार्य में विलंब हो रहा था। तदनन्तर प.पू.आचार्यश्री ओंकारसूरीश्वरजी के शिष्य पू. आचार्यश्री मुनिचंद्रसूरिजी म. ने ग्रंथ के पुनर्मुद्रण के लिए हमें लिखा और आपने प्रथम आवृत्ति में दिए हुए शुद्धिपत्रक अनुसार एक नकल में स्वयं शुद्धियाँ भी कर ली और अन्य भी अशुद्धियाँ दूर कर के ग्रंथ की वह नकल हमें भेजी। उन्ही की सहाय से एवं सुविशालगच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद् विजयरामचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के समुदाय के आचार्यदेव श्रीमद् विजयनरचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.की प्रेरणा से श्रीमती कुमुदबेन हसमुखलाल मोदी (मुंबई) की ओर से ग्रंथ प्रकाशन के लिए हमें रू. ६०,०००/- की सहाय मिली। साथ ही साथ एस. देवराज जैन वाले श्री शान्तिलाल जैन, चेन्नाई के प्रयत्नों से श्री चन्द्रप्रभु जैन नया मन्दिर ट्रस्ट, चेन्नाई की और से रू. ३५,०००/- की सहाय भी हमें प्राप्त हुई। इस तरह इस अमूल्य ग्रंथ के पुनर्मुद्रण के लिए सम्पूर्ण आर्थिक सहाय मिलने से हम यह कार्य संपन्न कर सके। उपरिनिर्दिष्ट प.पू.सूरिवरों एवं दोनो दाता ट्रस्टों के हम आभारी हैं। पुनर्मुद्रणका कार्य सुचारु ढंग से पेश करने के लिए माणिभद्र प्रिन्टर्स के श्री के. भीखालाल भावसार को भी धन्यवाद। - रमणीक शाह प्राकृत ग्रन्थ परिषद् अहमदाबाद ज्ञानपंचमी, ता. २९-१०-२००३ Jain Education Intemational Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविर श्री अगस्त्यसिंहगणिकृत दशवकालिकसूत्रचूणि की ताडपत्रीयप्रति का आदि भाग (जेसलमे रग्रन्थभण्डार, क्रमांक ८५(२), पत्र १७४वाँ) - RECEPmhd d atara BIHAR A परबा REAmaraneetiamsteyamaramatgaonna विNिJARITRA मिनमRAMILARISMAMATAR TAR नानासायाधिनयमित बोधिनी प्रयास विभरिम पहिवरेन Triमनिशानिरसन AARAHATARAH ARE कासया मानिसका हिमालमा भूपित समय Jawanigamusmedyमबहानामुमनिमममिकाय दिया NO काययोगदपमाaananp Page गोपालगनEिRTAINMENT PRESSUESAR उपर्युक्त ताडपत्रीय प्रतिका अंतिम भाग (पत्र ३४१-४२) Jain Education Intemational Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना प्रस्तुत ग्रन्थ और उसके संपादक इस ग्रन्थमें 'दसकालियसुत्त' और उसकी नियुक्ति'-नामक टीका तथा उक्त दोनोंकी 'चूर्णि' नामक टीका मुद्रित हैं। 'दसकालियसुत्त' के कई संस्करण प्रकाशित हुए हैं। और उसकी नियुक्ति' भी आचार्य हरिभद्रकी टीकाके साथ मुद्रित हो गई थी और एक चूर्णि भी प्रकाशित हो चुकी है। किन्तु इस ग्रन्थमें जो 'चूर्णि' मुद्रित है वह प्रथमवार ही प्रकाशित हो रही है। इसका संपादन पूज्यपाद मुनिराज श्री पुण्यविजयजीने किया है और वे ही इसकी विस्तृत प्रस्तावना लिखते किन्तु उनका स्वर्गवास ता. १४-६-७१ को हो गया अत एव उनके इस अधूरे कार्यकी पूर्ति मैं कर रहा हूं। ग्रन्थका मुद्रणकार्य भी कुछ अधूरा था उसे भी पूर्ण करना था जो पू. मुनिराजके दीर्घकालके साथी पं. अमृतलाल भोजकने किया, अत एव सोसायटीकी ओरसे तथा मेरी ओरसे मैं यहां उनका आभार मानता हूँ। पूज्यपाद मुनिराज श्री पुण्यविजयजी प्राकृत टेक्स्ट सोसायटीके स्थापक ही नहीं थे किन्तु उसके प्राण भी थे। इस ग्रन्थके प्रकाशनके पूर्व भी 'अंगविजा' आदि महत्त्वपूर्ण छः ग्रन्थोंका संपादन सोसायटी के लिए उन्होंने बडे परिश्रमसे किया है। इतनाही नहीं किन्तु इसके बाद प्रकाशित होनेवाली 'सूत्रकृतांगचूर्णि'का भी संपादन उन्होंने ही किया है। वह भी आधेसे अधिक मुद्रित हो चुकी है। सोसायटीके लिए वे एक दृढ आधारस्तम्भ थे। ता. १४-६-७१ की रात ८-४५ बजे उनका स्वर्गवास हो जानेसे सोसायटीका आधारस्तम्भ अस्त हो गया। इससे सोसायटीकी जो क्षति हुई है उसकी पूर्ति होना संभव नहीं है। सोसायटीकी स्थापनासे लेकर अब तक सोसायटीके विकासमें जो उनका प्रदान है वह अमर रहेगा। इस ग्रन्थमें प्रथमवार ही मुद्रित स्थविर अगस्त्यसिंहकृत 'चूर्णि' की हस्तप्रतकी शोधका श्रेय भी पू. मुनिराजको है। इसकी प्रत जेसलमेरके भंडारमें थी और प्राच्यविद्यामंदिर, वडोदराद्वारा प्रकाशित सूचीपत्रमें (G.O.s.xXI) संख्यांक २५४ (२) में उस प्रतका निर्देश 'दशवैकालिक चूर्णि' नामसे है किन्तु वह अगस्त्यसिंहकृत है और उसका क्या महत्त्व है-इस ओर किसीका ध्यान नहीं गया था। पू. मुनिराजश्ची जब ई. १९५० में जेसलमेर गये और जेसलमेर के हस्तप्रतसंग्रहोंका पुनरुद्धार किया तब अन्य कई ग्रन्थोंके साथ इस ओर भी उनका ध्यान गया और उनके द्वारा तैयार किये जेसलमेर भंडारके नये सूचिपत्रमें उस हस्तप्रतका योग्यरूपसे उन्होंने संख्यांक ८५/२ में परिचय दिया है। उसके आदि-अन्त तथा प्रशस्ति भी नये सूचिपत्र में मुद्रित किये हैं-पृ. २८॥ श्रीनगर काश्मीरमें १९६१ अक्तूबर में होनेवाले ओरिएन्टल कोन्फरंसके अधिवेशनमें जैनविभागके अध्यक्षपद के लिए लिखे गये अपने भाषणमें पू. मुनिजीने विद्वानों का ध्यान इस चूर्णिकी ओर दिलाया है-वह व्याख्यान 'ज्ञानाञ्जलि' में मुद्रित है। संपादनमें उपयुक्त हस्तप्रत आदि पूज्य मुनिराज श्री पुण्यविजयजीने जिन हस्तप्रतों आदिका उपयोग प्रस्तुत सम्पादनमें किया है उनका विवरण यहां दिया जाता है। इसका आधार उनके द्वारा लिखी गई कुछ नौधै जो हमें प्राप्त हुई हैं वे तथा मुद्रित ग्रन्थ में जो संकेत मिलते हैं वे हैं। १-दसकालियसुत्तं अपा=अगस्त्यसिंहचूर्णिस्वीकृत पाठ अचूपा=अगस्त्यसिंहकृतचूर्णिमें पाठान्तररूपसे निर्दिष्ट पाठ खं १= शान्तिनाथ जैनज्ञानभंडार, खंभात की यह ताडपत्रकी प्रत है। इसका परिचय उक्त भंडारके सूचिपत्र में जो प्राच्य विद्यामंदिर, बडोदाने प्रकाशित किया है (VOL-135), स्वयं पू. मुनिराजश्रीने संख्यांक ७३ में दिया है। इसके पत्र ५७ है और समय विक्रम १३ वीं का पूर्वार्ध अनुमानित है। १. इसे आ. हरिभद्रने वृद्धविवरण कहा है। २. यह सूचीपत्र पूरा छप करके तैयार है। और वह पू. पाद मुनिराजश्रीके रहते ही पूरा छप भी गया है। वह ला. द. विद्यामंदिरसे प्रकाशित हो गया है। ३. प्राप्तिस्थान श्री महावीर जैन विद्यालय, अगस्त क्रान्तिमार्ग, बंबई-३६. Jain Education Intemational Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना खं २उक्त भंडारकी यह ताडपत्रीय प्रत है उसका संख्यांक ७४ है। उसके ६० पत्र हैं और उसका समय अनुमानसे विक्रमकी १४ वीं शतीका उत्तरार्ध है। खं ३= यह भी उक्त भंडारकी ताडपत्रीय प्रत है। और उसका संख्यांक ७५ है। इसकी पत्रसंख्या ५३ है। समय अनुमानसे विक्रम १४ वीं शतीका उत्तरार्ध है। खं ४= यह प्रत भी उक्त भंडारगत है। उसका संख्यांक ७६/१ है। उसके पत्र ७३ हैं, और समय अनुमानसे विक्रम १४ वीं शतीका उत्तरार्ध है' जे यह प्रत जेसलमेर भंडारगत हो सकती है। पू. मुनिराजजीने स्वयं एक नोंधमें यह लिखा है कि दशवकालिकसूत्रकी जेसलमेरकी प्रत के पाठान्तर मैने स्वयं लिए हैं। किन्तु जेसलमेरमें एकाधिक दशवैकालिकसूत्रकी हस्तमतें हैं। फिर भी जिसका उपयोग उन्होंने किया हो वह सूचीगत ८६ (३) संख्यांकवाली प्रत ही हो सकती है, क्यों कि यही ताडपत्रीय ऐसी प्रत है जो जेसलमेरकी दशवकालिककी सब प्रतोंमें प्राचीनतम है इतनाही नहीं किन्तु उसमें लेखन सं. १२८९ भी दिया हुआ है। डो. शुकिंगकी आवृत्तिमें स्वयं पू. मुनिराबजीने J संज्ञा इस प्रतकी दी है जब कि प्रस्तुतमें सर्वत्र जे संकेत है। बी-महिमा भक्तिज्ञान भंडार, बीकानेरकी यह प्रत है ऐसा सम्भव है। इसी संकेत बी का प्रयोग उन्होंने इसी मंडारकी एक अन्य प्रति जो अनुयोगद्वारसूत्रकी है, उसके लिए किया है। देखो नंदी-अनुयोगद्वारसूत्र, महावीर विद्यालय प्रकाशन, संपादकीय-पृ.७. वृद्ध इस संकेतका अर्थ है 'वृद्धविवरण' अर्थात बही मुदित पुस्तक वो 'दशवकालिक चूर्णि' के. नामसे श्री के. श्वे० संस्थाने रतलामसे इ. १९१३ में प्रकाशित किया है। 'स्वयं आचार्य हरिभद्रजीने इस चूर्णिका 'वृद्धविवरण 'के नामसे उद्धरण (दशवै० चूर्णि. पृ० २५२ से) अपनी दशव० की वृत्तिमें पृ. २१७/१ में दिया है तथा दशवै. की सुमतिसूरिकृत टीकामें भी यही नाम दिया गया है-पृ०२१४'-ऐसा संकेत पू. मुनिश्रीने अपनी एक नोंध में किया है। अत एव उन्होंने प्रस्तुत संपादनमें उक्त चूर्णिके लिए 'वृद्धविवरण' नाम मानकर 'पद्ध' ऐसा संकेत किया है। वृद्धपा पूर्वोक्त 'पद्धविवरण' गत पाठान्तर. शु-डॉ. लोयमान संपादित तथा डॉ. शुकिंगद्वारा अंग्रेजीमें अनूदित दसवेयालियसुत्त जिसे शेठ भाणंदजी कल्याणजीकी पेढीने अहमदाबादसे इ० १९३२ में प्रकशित किया है। उस पुस्तक में जो पाठ स्वीकृत है उसे शु संज्ञा देकर प्रस्तुतमें निर्दिष्ट किया है। शुपा उक्त आवृत्तिमें टिप्पणमें जिन पाठान्तरोंका निर्देश किया है उनका निर्देश प्रस्तुतमें शुपा संकेतसे किया है। हाटीआचार्य हरिभद्रसूरिकृत दशवकालिककी टीका जो-दे. ला. पु. फंडने १९५८ में प्रकाशित की है। उस टीकागत पाठका निर्देश हाटी संज्ञासे है। २-दसकालियनिज्जति खं संभवतः खंभातके शान्तिनाथ भंडारकी संख्यांक-७२ की यह प्रत है। इसी प्रतके आधार पर उन्होंने नियुक्तिकी अपने हस्ताक्षरसे कॉपी की है। अत एव उसी के पाठान्तरोंकी नोंध प्रस्तुतमें खं संज्ञा से की हो यह संभव है। यही प्रत खंभातमें नियुक्तियोंकी प्रतोंमें प्राचीनतम भी है। उन्होंने स्वयं भपने सूचिपत्रमें इसे अनुमानसे विक्रम १३ वीं शतीके पूर्वार्धकी बताई है। पु= यह पू. मुनिराज श्री पुण्यविजयजीके संग्रहगत प्रत है। यह संग्रह ला. द. विद्यामन्दिर, अहमदाबादमें है। वी=महिमा भक्तिशानभंडारकी यह दशवकालिकनियुक्तिकी प्रत हो सकती है। । खं १, २, ३, ४, प्रतोंके यहां दिये गये स्पष्टीकरण का आधार है डो. शुब्रिगकी दशवकालिक सूत्रकी आवृत्ति जिसमें स्वयं पू. मुनिजीने अपने हाथसे संशोधन किया है और अनेक हस्तप्रतोंके पाठांतरोंकी भी नोंध की है। उस पुस्तकमें १C, RC, ३C और ४C, ऐसे संकेत पाठान्तरों के लिये किये हैं और ये प्रतियाँ खंभातकी हैं यह भी उनके चिपत्र गत संख्यांक के साथ वहां निर्दिष्ट है। दशवैकालिक मूलका जो संशोधन उन्होंने इस मुद्रितमें किया था उनके आधार पर ही प्रस्तुतमें दशवकालिक संपादित करके चूर्णिके साथ उन्होंने छापा है। यहाँ C-Cambay रखा है. यहाँ खं संभात संकेत किया है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादन पद्धति। (३) सापूर्वोक दशवकालिक की आचार्य हरिभद्रकी टीका में जो नियुक्ति मुद्रित है - उसीकी संज्ञा सा है। आचार्य आनन्द सागरजीने इसका संपादन किया था अत एव उसकी सा संज्ञा रखी है। हाटी दशवकालिक की आचार्य हरिभद्रकृत टीकामें स्वीकृत पाठ ३- स्थविर अगस्त्यसिंहकृत चूर्णि मूलादर्श-इसकी एकमात्र ताडपत्रकी प्रत जेसलमेरके मंडारमें उपलब्ध है। अत एव जहाँ उसमें संशोधन करना जरूरी लगा है वहाँ पूज्य मुनिराजश्रीने किया है और मूलपत का जो पाठ है उसे मूलादर्श-इस संकेतके साथ टिप्पण में दिया है। इस हस्तप्रत का विस्तृत परिचय पूज्य मुनिजीने अपने जेसलमेर-भंडारके नये सूचिपत्रमें पृ. २८ में क्रमांक ८५/२ में दिया है। इस हस्तप्रतका लेखनसमय दिया नहीं गया है। किन्तु वह १२ वीं विक्रमशतीके पूर्वार्धकी होनेका पू. मुनिजीने अपने जेसलमेरके सूचिपत्रमें निर्देश किया है। इस हस्तप्रतकी जो पट्टिका है उस पर जो लिखा है उससे यह प्रत आचार्य जिनदत्तसूरिकी होनेका प्रमाण मिलता है।। प्रतके अंतमें जो प्रशस्ति दी गई है उसमें यह बताया गया है किपल्लिका पुरीमें धर्कटवंशीय शालिभद्रनामक श्रावक रहता था। उसकी बहुदेवी नामक पत्नी थी। साधारणनामक उनका पुत्र था। उसकी पत्नीका नाम शान्तिमती था उसके दो पुत्र हुए-पूर्णभद्र और हरिभद्र। शांतिमतीने अपने मोक्षके लिए इस प्रतका लेखन करवाया है। यहां इस प्रतका फोटो छापा गया है। संपादनपद्धति प्रस्तुतमें 'दसकालिय' 'निज्जुत्ति' और 'चुण्णि' जो मुद्रित हैं उनके संपादनकी पद्धति यह जान पड़ती है-जिन प्रतोंका तथा मुद्रित पुस्तकोंका उपयोग प्रस्तुत संपादनमें किया गया है उनका उल्लेख हो चुका है। उन सभीका उपयोग होते हुए भी दसकालिय और निज्जुत्तिके प्रस्तुत सम्पादनमें स्थविर भगस्त्यसिंहकृत चूर्णिकी एकमात्र प्रति जो मिली है उसको ही प्रधानता दी गई है। और यदि उसमें पाठ अशुद्ध नहीं है तो उसीके पाठ दसकालिय मूल भौर निज्जुत्तिमें स्वीकृत किये गये हैं। मूलकी गाथाओमें जहां जिस प्रतमें न्यूनाधिकता देखी गई है या पाठान्तर उपलब्ध हुआ है, वहां उसका निर्देश टिप्पणोंमें दिया गया है। उनमें स्थविर अगस्त्यसिंहकी चूर्णिकी विशेषता भी दिखाई गई है। ___स्थविर अगस्त्यसिंहकी चूर्णिकी तो एकमात्र हस्तप्रत उपलब्ध थी अत एव उसमें जहां अशुद्धि थी उसेही ठीक किया गया है और प्रतिका पाठ नीचे टिप्पणमें निर्दिष्ट कर दिया है। शेष संपूर्ण जैसाका तैसा पदच्छेद आदि ठीक करके छापा गया है। प्रस्तुत सम्पादनमें मुख्यतः जिन हस्तप्रतोंका तथा मुद्रित पुस्तकोंका उपयोग किया गया है उसका विवरण संकेतके स्पष्टीकरणमें कर दिया है। किन्तु उसके अलावा भी कह अन्योंका उपयोग पू. मुनिजीने किया है। तब जा कर पाठशुद्धि वे कर पाये हैं। अत एव यह नहीं समझना चाहिए कि पूर्वनिर्दिष्टके अलावा प्रस्तुत सम्पादनमें किसी ग्रन्थका उपयोग नहीं हुआ है। टिपप्पणोंमें चूर्णिके समान या असमान विवरण जो वृद्धविवरण, आचार्य हरिभद्रकी टीका तथा सुमतिरिकृत टीकामें देखा गया उसका भी निर्देश यत्र तत्र कर दिया है जिससे तीनों टीकाकारों के समान-असमान मन्तव्योंको जाना जा सकेगा। दसकालियसुत्तं नाम : अब तक जो इस ग्रन्थके संस्करण प्रकाशित हुए हैं उनमें संस्कृतरूप 'दशवकालिक' और प्राकृतरूप दसवेयालिय' ग्रन्थके नामके लिए स्वीकृत हुए हैं और यह ग्रन्थ प्रायः इन्हीं नामोसे पहचाना और छापा जाता है। किन्तु प्रस्तुत आवृत्तिमें पूज्य मुनिराजश्रीने इसे 'दसकालियसुत्तं' ऐसा जो नाम दिया है वह इस कारण कि उसकी नियुक्तिमें जो नामके निक्षेप किए गए हैं वे 'दस' और 'काल' पदों के ही किये हैं अत एव उसका मुख्य नाम 'दसकालिय' ही सिद्ध होता है। आचार्य स्थविर अगस्त्यसिंहने भी मुख्यरूपसे प्रारंभमें यही नाम स्वीकृत किया है-देखें मंगलाचरण तथा पृ० १५० ३, २. ११, १४, ३. १८, २१, ६. २४; २३० इत्यादि। साथ ही 'अथवा' कह कर 'दसवेकालिय' और 'दसवेतालिय' भी स्वीकृत किया है-पृ. ३,५, २४, २४५ इत्यादि । Jain Education Intemational Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) प्रस्तावना किन्तु उसे गौण समझना चाहिए। अत एव इसका मुख्य नाम 'दसकालिय' है जो यहां प्रस्तुत संस्करणमें पूज्य मुनिराजद्वारा यथार्थ रूपसे स्वीकृत किया गया वह उचित ही है। इसका एक नाम विधिसूत्र भी है-निशीथभाष्य गा०८८१ । बाह्यस्वरूप : यह दश अध्ययन और दो चूलिकामें समाप्त होता है। उसके नामसे ही स्पष्ट है कि इसमें मूलमें दश ही अध्ययन हैं और दो चुलाएं इसमें जोडी गई है। यह चुलिका नामसे ही सिद्ध होता है। नियुक्तिकारने इन चूलाओंको सूत्रार्थका संग्रह करनेवाली संग्रहणीरूप उत्तरतंत्र कहा हैं-नि० गा० २५८। यह ग्रन्थ पद्यप्रधान है। कुछ ही सूत्र ऐसे हैं जो गद्य में है। डो. शुब्रिगकी आवृत्ति, आचार्य हरिभद्रकी टीकासह आवृत्ति, और स्थविर अगस्त्यसिंहकी चूर्णिसह आवृत्तिमें जो गाथाओंकी संख्या है वह इस प्रकार है। डो० शुबिंग आचार्य अगस्त्य आ० हरिभद्र० म०३ १५ म०४ २८ अ०५-११०० ४७३ म०७ ५७ म०८ म०९-१ ९-२ २३ ९-३ १५ aum म. १० २१ इस सूचीसे स्पष्ट हो जाता है कि प्रस्तुत अगस्त्यसिंहकी चूर्णिमें गाथाओंकी संख्यामें विशेषरूपसे पांचवें अध्ययनके प्रथम उद्देश में गाथाओंकी विशेष अधिकता पाई जाती है। और वह भी अन्यत्र जो संग्रहणी गाथा है उसीका विस्तार होनेसे है। इससे यह निश्चित किया जा सकता है कि पुरानी पद्धतिके अनुसार विस्तृत करके कहनेकी शैलीका संग्रहणीमें संक्षेप है। विस्तारके स्थान पर संग्रहणी गाथाका आना यह सिद्ध करता है कि अगस्त्य चूर्णिका पाठ अन्य चूर्णिटीकाओंके पाठसे प्राचीन है। अगस्त्यसिंहकी चूर्णिकी प्राचीनताका यह भी एक प्रमाण है। आन्तरस्वरूप : इस ग्रन्थमें मिक्षुओंके धर्ममूलक आचारका निरूपण है। खासकर निर्ग्रन्थ मुनिओंके आचार के नियमोंका विस्तारसे निरूपण इस सूत्रमें है। उसमें संयम ही केन्द्रमें है। वह भिक्षु यदि संयत है तो जीवहिंसासे बचकर किस प्रकार अपना संयमी जीवन धैर्यपूर्वक बितावे इसका मार्गदर्शन इसमें है। अतएव भिक्षुके महाव्रत तथा उसके आनुषंगिक नियमोंका वर्णन विस्तारसे करना अनिवार्य हो जाता है। यही कारण है कि इसमें पांच महाव्रत और छठा रात्रिभोजनविरमण व्रतकी चर्चा की गई है। संयमका मुख्य साधन शरीर है और शरीरके लिए भोजन अनिवार्य है। वह भिक्षासे ही सम्भव है। अत एव किस प्रकार भिक्षा ली जाय जिससे देनेवालों को तनिक भी १. डो. शुकिंग और आचार्य हरिभद्रवृत्तिमें नं-२७ के बाद एक प्रक्षिप्त गाथा छापी गई है। २. अन्यत्र संग्रहणी रूप दो गाथासे काम लिया गया, जब यहां विस्तार है-देखे पृ. १०८ टि. ६ ३. गा. १० के स्थानमें अन्यत्र दो गाथाएं हैं-देखो पृ. १२७ टि.९ । गा. संख्याकी कमी के लिए यह भी कारण है कि गाथा २१३ वीं तीन पक्तिकी है। ओर भी देखो-पृ. १२९ टि. १ और ४ तथा पृ. १३५ टी. ४ ४. शुबिंगकी गा. नं-८ को प्रस्तुत में और आचार्य हरिभद्रने नियुक्तिकी बताया है ५. प्रस्तुतमें गा. ८-९ के स्थानमें अन्यत्र तीन गाथाएं है-देखो पृ. १६६ टि. ६ । ६. आ. हरिभद्रकी गा. ३५ को डॉ. शुबिंगने प्रक्षिप्त मानी है। देखो प्रस्तृत में पृ. १९३ टि. ५ ७. गा. ६ के बाद की एक गाथा को डॉ. शुबिंगने प्रक्षिप्त माना है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसकालियके कर्ता। कष्ट न हो-और भिक्षुको-योग्य भिक्षा भी मिले यह कहा गया है। जीवमें समभावकी पुष्टि अनिवार्य मानी गई है जिससे मनोवांछित भिक्षा न भी मिले तब भी क्लेश मनमें न हो तथा अच्छो भिक्षा मिलने पर रागका आविर्भाव न हो यह जीवनमंत्र दिया गया है। संयत पुरुषकी भाषा कैसी हो—जिससे किसीके मनमें उसके प्रति कभी भी दुर्भाव न हो यह भी विस्तारसे प्रतिपादित किया गया है। यह तभी संभव है जब उसमें आचारशुद्धि हो अर्थात् कषाय-राग-द्वेष आदिसे मुक्त होनेका जागरूक प्रयत्न हो, अहिंसा हो दयाभाव हो और अपने शरीरके कष्टोंके प्रति उपेक्षा हो। लेकिन आचारशुद्धिका मुख्य कारण सुगुरुकी आसना भी है अत एव विनयका विस्तारसे वर्णन इसमें किया गया है। अन्तमें सबका सार देकर सच्चा भिक्षु कैसा हो यह संक्षेपमें वर्णित है। . इस सूत्रमें दो चूलिका भी जोडी गई हैं। उनका उद्देश भिक्षुको अपने संयमी जीवनमें दृढ रहनेका उपदेश देना-यह है। अर्थात् ही इसमें गृहस्थ जीवनकी हीनता और संयमीजीवनकी उच्चताका प्रतिपादन अनिवार्य हो गया है। इस प्रकार संयमी जीवन के अनेक प्रभोंको लेकर इस ग्रन्थमें निरूपण होने से इसी सूत्रसे नये भिक्षुका पठनक्रम शुरू होता है। इसे ' - भिक्षु जीवनकी प्रथम पाठ्य पुस्तक कहा जाय तो अनुचित नहीं होगा। दसकालियके कर्ता 'दसकालिय' सूत्रके कर्ता कौन थे इसका संकेत हमे नियुक्तिकी अन्तिम गाथा से मिलता है जहाँ यह सूचित किया गया है कि मनकके समाधिपूर्वक मरणके अनन्तर (गा० २७०) 'सिजंभव थेरने आनन्दाश्रुपात किया तब जसभद्दने (कारण) पूछा। उसके उत्तर में स्थविरने जो कहा उसीकी विचालना (विआलणा) संघमें हुई' (गा० २७१)। यहां 'विआलणा' पदका स्पष्टीकरण करते हुए स्थ० अगस्त्यसिंहने कहा है कि 'मनक' अपना पुत्र है इस बात को सेज्जभवने छुपाकर इसलिए रखा था कि गुरुपुत्र समझकर उसका अन्य शिष्यसमुदाय अनावश्यक आदर न करे। जब अंतमें पता चला तब यह कथाका प्रचलन संघ में हुआ कि मनक शय्यभवका पुत्र है। इससे यह परंपरा स्थिर हुई है कि सिज्जभवने इस ग्रंथ की रचना मनकके लिए की थी। इसमें तो संदेह नहीं कि मनकके लिए यह ग्रन्थ 'णिज्जूद' किया गया था क्यों कि स्वयं नियुक्तिमें प्रारंभमें ही (गा. ७) यह कहा गया है-'एयं किर णिज्जूढं मणगस्स अणुग्गहवाए' और उपसंहारमें भी कहा गया है कि 'आर्य मनकने छ मासमें इसे पढा। उसका (दीचा) पर्याय छ मासका ही था और वह समाधिपूर्वक कालगत हुआ। (नि० गा० २७०) नियुक्तिमें मनक और सिजभवका क्या संबंध था इसकी कोई सूचना नहीं है। यह स्पष्टीकरण सर्वप्रथम हमें अगस्त्यसिंहकृत चूर्णिमें ही मिलता है।' वह इस प्रकार है (पृ. ४)_ 'भगवान वर्धमानस्वामीके बाद क्रमशः सुधम्म, जंबु और पभव हुए। पभवको चिन्ता हुइ कि परम्पराको कायम रखनेवाला गणधर कौन हो? उन्होंने अपने गणमें तथा गृहस्थोंमें उपयोग लगाया और देखा कि यज्ञकर्ममें दीक्षित राजगृहका एक ब्राह्मण सेजभव इस पदके योग्य है। राजगह जाकर उन्हीने अपने संघाडेके भिक्षुओं को कहा कि यज्ञवाडमें भिक्षाके लिए जाकर धर्मलाभ दो। वह तुम्हे मानेगा नहीं। तब इतना ही कहो कि तुम तत्त्वको नहीं जानते। भिक्षुओंने ऐसा ही किया। सेज्जभवने सोचा कि ये तपस्वी भिक्षु जूठ तो बोलेंगे नहीं। अत एव उसने अपने अध्यापक से पूछा 'तत्त्व क्या है ?' उत्तर मिला-'वेद तत्व है'। तब उसने तलवार खींच कर गुरुसे कहा यदि नहीं कहोगे तो मस्तक काट दूंगा। तब कहीं गुरुने सत्वर बताया कि तत्त्व तो आईत धर्म ही है। जिससे इस यशयूपके नीचे रखी गई आहेत की रत्नमयी प्रतिमाकी वेदमन्त्रों द्वारा स्तुति की जाती है। सुनकर वह पभवके पास जाकर धर्म सुनकर दीक्षित हो गया और स्वाध्याय करके चतुर्दशपूर्वी हो गया। जब उसने दीक्षा लीथी तब उसकी पत्नी गर्भवती थी और लोगोंके पूछने पर बताया था कि 'मणाग' अर्थात् 'छोटा' है। पुत्रके जन्म होने पर उसका नाम उसी उचर के आधार पर 'मणग' रखा गया। मणग जब आठ वर्षका हुआ तब उसने मातासे पूछा कि मेरा पिता कौन है। माताने उत्तर दिया कि उन्होंने श्वेतपटकी दीक्षा ली है। तब पुत्र घरसे भागकर पिताकी शोधमें निकला। उन दिनों आचार्य (सेजभव) चंपामें विहार करते थे। आचार्य शौचके लिए जा रहे थे वहां रास्तेमें मिलन हुआ। दोनोंमें परस्पर स्नेह हुआ। आचार्यके पूछने पर उसने उत्तर दिया कि मैं राजगृहसे आ रहा हूं, मेरे पिता का नाम सेजंभव ब्राह्मण है। और वे दीक्षित हो गए हैं। मैं भी दीक्षा लेना चाहता हूं। क्या आप मेरे पिताको जानते हैं। आचार्यने उत्तर दिया कि हां में जानता हूं। वे तो मेरे मित्र थे और मेरे शरीर जैसे थे। मेरे पास ही तुम दीक्षा ले लो। तुम अपने पिताको भी देखोगे। उसने दीक्षा ले ली। आचार्यने अपने ज्ञानसे देखा कि मनकका आयु तो छ मास ही है। उनको चिन्ता हुई कि वह आचारादि ग्रन्थोंको जो समुद्र जैसे विशाल हैं कैसे पूरा करेगा? वह सिद्धान्तके परमार्थको बिना जाने ही मरेगा। अत एव उन्होंने सोचा कि अब क्या किया जाय। उन्होंने मन में सोचा कि अन्तिम चतुर्दशपूर्वी तो-अवश्य निज्जूह करते हैं और अन्य चतुर्दशपूर्वी किसी कारण वश। तो मेरे समक्ष इसका अनुग्रह करना १ आचार्य हरिभद्रकी टीकामें प्रारम्भ में ही कुछ नियुक्तिगाथाएँ हैं जो प्रस्तुतमें नहीं हैं। और उनमें यह निर्देश हैं कि सेज्जभवने यह निज्जूढ किया है (गा०१२) और यह भी कहा है कि वे मनकके पिता थे (गा०१४)। ये गाथाएँ बादमें जोडी गइ हैं-यह निश्चित है। क्यों कि वृद्धविवरण में भी ये गाथाएँ नहीं है। Jain Education Intemational Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) प्रस्तावना यह कारण तो है तो मैं भी क्यों न नितह करूं। ऐसा सोचकर उन्होंने निज्जूह करना प्रारंभ किया और विकाल-संध्यासमय होते होते उन्होंने दस अध्ययनों को निज्जूह कर लिया। अत एव ये दसवेयालिय कहलाये।" इस कथासे यह स्पष्ट होता है कि आचार्य सेज्जभवने ही इन दश अध्ययनोंका संग्रह किया है। 'निज्जूह' शब्दका अर्थ है बाहर निकालना। तात्पर्य होगा-सार तत्त्वको-खींचलेना। अर्थात् ही सिद्धान्त ग्रन्थोंकी राशिसे सारभूत बातोंका संग्रह सेज्जभवने किया। अत एव यह स्वाभाविक है कि इसमें शब्दतः और अर्थतः आचारांग आदि ग्रन्थोंका सार रखा गया है । स्थ. अगस्त्यसिंह द्वारा स्पष्ट की गई यह परंपरा आगे के सभी टीकाकारोंने मान्य रखी है। सिज्जंभव या सज्जभवका संस्कृत रूपान्तर शय्यंभव ऐसा ही सभी टीकाकारों और अन्य लेखकोंने किया है किन्तु डो. शुब्रिगने इसे 'स्वयंभू' शब्दके साथ जोडा है। (प्रस्ता. पृ.४ टि. १) तथा 'स्वयंभू' शब्दसे बननेवाला 'स्वायंभव' रूपसे वह निकलता हैऐसा संभव माना है -डॉक्ट्रीन ओफ ध जैनास-पृ. ४४ सेज्जंभव, पट्टावलीमें जैसा कि निर्दिष्ट है वीरनिर्वाण सं. ७५ से ९८ तक युगप्रधान बने रहे। अत एव तदनुसार दशवकालिककी रचना परंपराके अनुसार विक्रमपूर्व ३९५ से ३७२ के बीच हुई ऐसा कहा जा सकता है। आधुनिक विद्वानोंका मत इससे भिन्न है। उनके मतसे वीरनिर्वाणके समयमें करीब ६० वर्षका अंतर है। ऐसी स्थिति, विक्रमपूर्व ३३५ से लेकर ३१२ के बीच हुई ऐसा मानना चाहिए । दसकालियका आधार 'दसकालिय' निज्जूद है तो उसका आधार क्या था इसकी चर्चा नियुक्तिमें की गई है। तदनुसार आत्मप्रवादपूर्वसे धम्मपण्णत्ति (अ. ४), कर्मप्रवादपूर्वसे पिण्डैषणा (अ०५), सत्यप्रवादपूर्वसे वाक्य शुद्धि (अ०७) और शेष अध्ययनको निज्जूद किया गया है (प्रत्याख्यान नामक) नवमपूर्वकी तृतीयवस्तुसे (नि० गा०५-६)। आधारके विषमें यह एक मत है। किन्तु इस विषयमें एक अन्य मतका भी निर्देश नियुक्तिमें किया गया है कि द्वादशांग गणिपिटकसे मनकके अनुग्रहके लिये यह निज्जूद किया गया है (नि० गा० ७)। __ स्थविर अगस्त्यसिंहने इसके विषयमें अपना कोई मत दिया नहीं है। दोनोंका नियुक्ति के अनुसार निर्देशमात्र कर दिया है। केवल एक विषयकी चर्चा की है कि कर्मप्रवाद तो कर्मविषयक है तो उसके साथ पिंडैषणाका क्या सम्बन्ध ? उत्तर दिया है कि अशुद्ध पिण्डके ग्रहणसे कर्मबन्ध होता है इसका प्रमाण प्रज्ञप्ति (भगवती) में भी मिलता है अतएव संबंध है ही। यहां जो दो मान्यताएं दी गई हैं उनका कारण भागम या श्रुतकी रचनाके विषयमें जो दो मान्यताएं हैं, वह हो तो कोई आश्चर्य नहीं। एक मान्यता तो यह है जिसका निर्देश बृहत्कल्पभाष्य (गा० १४५) तथा विशेषावश्यकभाष्य (५४८) में किया गया है कि समग्रवाङ्मयका समावेश दृष्टिवादमें होता है फिर भी उसमेंसे मन्दबुद्धि तथा स्त्रीकी अपेक्षा से अंग-अनंगकी रचना की जाती है। दूसरी मान्यता वह है जो भाचारांगकी नियुक्तिमें उपलब्ध है जिसके अनुसार सभी तीर्थंकरों द्वारा तीर्थप्रवर्तनके प्रारंभमें आचारका ही उपदेश दिया जाता है और शेष ग्यारह अंगकी रचना क्रमशः होती है। (आचा०नि०८) आवश्यकनियुक्तिमें केवल इतना ही कहा गया है कि तीर्थकर संक्षेपमें अर्थ बताते हैं उसके आधारसे गणधर सूत्रोंकी रचना करते हैं (आव०नि० गा० ९२ = विशेषा. गा० १११६)। उसके भाष्यमें स्पष्ट किया है कि उसी अर्थ को लेकर गणधर द्वादशांगकी रचना करते हैं (विशे० गा० १११५-११२३), इससे यह स्पष्ट होता है कि प्राचीन मान्यता इतनी ही थी कि गणधर सूत्रोंकी रचना करते हैं वे सूत्र कौन थे यह क्रमशः स्थिर हुभा। 'पूर्व' नामक साहित्य जो भ. महावीरको भी विरासतमें मिला होगा। उसीके आधार पर श्रुतकेवली या बहुश्रुतके लिये पूर्वधर या चतुर्दशपूर्वी ये शन्द प्रचलित हुए। सूत्रग्रन्थोंमें गणिपिटकके रूपमें द्वादशांगी की मान्यता जब स्थिर हुई तब माना गया कि बारहवें अंगमें पूर्वोका समावेश है। बारह अंगकी मान्यता कालक्रमसे स्थिर हुई है-इसमें संदेह नहीं क्यों कि व्यवहारसूत्र में जहां स्वाध्यायका प्रकरण है वहां द्वादशांगमें समाविष्ट कुछ ही ग्रन्थोंका निर्देश है। ऐसी स्थितिम प्राधान्य पूर्वोको दिया जाय या द्वादशांगको-यह एक समस्या बनी रही । यही कारण है कि जब दशवैकालिकके आधारको खोजा गया तब एक मतसे पूर्व और दूसरे मतसे द्वादशांगीको माना गया। शास्त्रीय चर्चामें जिसे भी आधार माना जाय वह केवल शास्त्रीय परंपरा ही रहेगी किन्तु उपलब्ध जैनश्रुतमें दशवैकालिकका आधार क्या हो सकता है इसकी खोज तो आधुनिक विद्वान ही कर सकते हैं। डो. शुकिंग, डो. घाटगे तथा प्रो. पटवर्धनने इस विषयमें जो चर्चा की है उसीसे यहां संतोष माना जाता है। १. अंतिम दो चूलिकाएँ मी आ. सेज्जंभवकृत है-ऐसा स्वयं स्थविर अगस्त्यसिंहने माना है, वह इस निर्देशके साथ कैसे संगत है यह विचारणीय है। २. विद्वानोंने इसकी तुलना आचारांग और उत्तराध्ययनसे विशेषरूपसे की भी है। देखो कापडिया, Canonical Literature of Jainas, 156-157 pp. ३. The Dasavaikalikasutra : A Study (in two parts 1933, 1936) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसकालियनिज्युत्ति। दसकालियनिज्जुत्तिनियुक्तियाँ-आचार्य भद्रबाहुने दश नियुक्तियाँ लिखी हैं। उनमें एक दसकालिय निज्जुत्ति भी है। नियुक्तिका प्रयोजन बताते हुए आचार्य भद्रबाहुने स्पष्टीकरण किया है कि ये नियुक्तियाँ आहरण दृष्टांत, हेतु, कारण-उपपत्तिका संक्षेपमें प्रदर्शनपूर्वक की जायेंगी'। स्पष्ट है की नियुक्ति के समय उपदेशमें अगमका प्राधान्य नहीं रहा। उसका स्थान क्रमशः अनुमान और तर्कने ले लिया था। यही कारण है की तत्कालीन सभी धर्मों और दर्शनाने अपने अपने शास्त्र-आगम प्रतिपादित तथ्यों के लिए दलीलें देना शुरू कर दिया था। उस प्रवाहसे मुक्त रहना जैन विद्वानों के लिए भी संभव नहीं रहा। अत एव अपने आगमगत तथ्यों के लिए अनुमान और उपपत्ति देना शुरू कर दिया। उस प्रवाहपतनका प्रारूप हमें नियुक्तिओंमें, खास कर प्रस्तुत दसवेयालियकी नियुक्तिमें मिलता है जहां अनुमान विद्याका प्रवेश ही नहीं है बल्कि उसका विविध प्रभीमें प्रयोग भी है। नियुक्तिकी एक विशेषता यह भी है कि उसमें किसी भी शब्द की व्याख्या प्रायः नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन निक्षेपों के 'द्वारा की जाती हैं। परिणामस्वरूप एक ही शब्द किन किन विविध अर्थोंमें प्रयुक्त होता है यह ज्ञात हो जाता है। उपरांत इस शब्दके जो एकार्थक पर्यायवाची शब्दांतर होते है उन्हें भी दे दिया जाता है। इस प्रकार ये नियुक्तियाँ प्राकृत और संस्कृत भाषा के कोषोंके लिए उत्तम साधन बन गया है। खेद है कि भारतीय कोषकारोंका इस ओर विशेष ध्यान नहीं गया है। इस दृष्टिसे आचार्य भद्रबाहुकी नियुक्ति ही नहीं किंतु उसके जो अनेक भाष्य और चूर्णि बने हैं उनका भी विशेष अध्ययन जरूरी है। __ जैनों की एक अपनी विशेषता यह भी है कि किसी भी वस्तुके जो अनेक प्रकार और उपप्रकार होते हो उन्हें भी बता देना। इस विशेषताका विशेषरूपसे प्रदर्शन नियुक्तिमें पाया जाता है जहां वस्तुके भेदानुभेद गिनानेका प्रयन किया गया है। प्रस्तुत नियुक्ति में भी यह विशेषता स्पष्टरूपसे ज्ञात होती है। नियुक्तिकी एक अन्य विशेषता यह भी है कि किसी भी प्रतिपाद्य विषयको स्पष्ट करनेके लिए कथानकोंका प्रयोग करना। ये कथानक मूलनियुक्तिमें केवल सूचित किये जाते हैं जिनका विस्तार भाष्य और चूर्णिमें देखा जा सकता है। इसके कारण ये नियुक्तिय प्राचीन लोककथा और शिष्टकथाओंके भंडाररूप बन गई हैं जिनका इस दृष्टिसे अध्ययन अभी शेष ही है। नियुक्ति के कर्ता चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु हैं या अन्य यह भी एक चर्चा का विषय बना हुआ है। पू. मुनिश्री पुण्यविजयजीने यह तो निश्चित कर दिया है कि विद्यमान नियुक्तिओं के कर्ता चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु नहीं हो सकते। यह संभव अवश्य है कि विद्यमान नियुक्तिओंमें प्राचीन नियुक्तिओंका संग्रह किया गया हो। यदि प्रस्तुत नियुक्तिको देखा जाय तो पू. मुनिजीके उक्त अभिप्रायकी पुष्टि होती है। गा० ५५ में स्पष्टरूपसे नियुक्तिकारने कहा है कि यहां जो व्याख्या की गई है वह संक्षिप्त है। इसका विशेष अर्थ तो जिन और चतुर्दशपूर्वी कहते हैं। इससे फलित यह होता है कि प्रस्तुत नियुक्तिके कर्ता न तो जिन हैं और न चतुर्दशपूर्वी । अत एव वे चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु तो हो ही नहीं सकते। अन्य भद्रबाहु हो सकते हैं। नियुक्तिके समयके विषयमें इतना ही कहा जा सकता है कि उसका प्रस्तुत संग्रह या रचना आचार्य जिनभद्र और उनसे भी पूर्व में होनेवाले बृहत्कसके भाष्यके रचयिता संवदास गणि के पूर्व है। आचार्य जिनभद्र ई० ६०९ में जीवित थे। ऐसी स्थितिमें नियुक्तिकी रचना ई. ५७५ से पूर्वही कभी हुई एसा माना जाय तो उचित होगा। पूज्य मुनिजी के अनुसार तो नियुक्तियां आगम वाचनाके बाद लिखी गई हैं। यह वाचना भगवान महावीर के निर्वाणके बाद ९८० अथवा ९९३ में हुई ऐसा माना जात है। तदनुसार सामान्य तौरपर यह कहा जा सकता है कि विक्रमकी छठी शतीके प्रारंभके बाद ये नियुक्तियां बनी हैं। १. आनि० ८४-८६ = विशेषा. १०७१-७३ । २. दनि० २२-२५, ५४ ३. दनि० २६-२९ ४. प्रस्तुतमें देखें दनि० १, ३, १३, १७, ६८ इत्यादि । ५. दनि० १४, २४, ६५, ६६ इत्यादि । ६. दनि० १८-२०; २५; ६९-७२, ७४-८१; ९२-११४ इत्यादि ७. दनि० २५ और उसकी चूर्णिमें उदाहरणों के प्रकारों का निरूपग है। प्रस्तुतमें कथाओंकी ऐसी सूचना नहीं मिलती किन्तु अन्य नियुक्तिमें यह पद्धति देखी जाती है जैसे आवश्यक नि० गा० १४१, १४२, १४६, १४७, ६७१-२ इत्यादि ८. बृहत्कल्पभाष्यप्रस्तावना; ज्ञानांजलि पृ० ५७ (गुजराती) ९. कल्पसूत्र-१४७ । Jain Education Interational Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) प्रस्तावना पूज्य मुनिजीने विशेषरूपसे नियुक्तिका समय निर्धारित किया है और कहा है कि नियुक्तिकर्ता भद्रबाहु ये वराहमिहिर के भाई थे। और वराहमिहिर की पंचसिद्धान्तिकाका समय विक्रम सं. ५६२ निश्चित है। ऐसी स्थितिमें विक्रम छठी शती ही नियुक्तिका समय निश्चित किया जा सकता है। एक ओर भाष्य की अपेक्षा लेकर नियुक्तिका समय वि. ६३१ (ई. ५७५) से पूर्व है और दूसरी ओर वराहमिहिर के समय की अपेक्षा वि. ५६२ (ई०५०६) आसपास है। अत एव यह कहा जा सकता है कि नियुक्तिका समय ई० छठी शतीका प्रारंभ है। दश नियुक्तिकी गाथाएँ-दशवकालिक नियुक्तिकी गाथाओंकी संख्या कितनी है यह जानना जरूरी है। आचार्य हरिभद्रके अनुसार अर्थात् आचार्य हरिभद्रकृत टीकाकी मुद्रित आवृत्ति के अनुसार गाथासंख्या ३७१ है। स्थविर अगस्त्यसिंहकृत चूर्णिमें गाथासंख्या २७१ है। यहाँ यह स्पष्ट करना जरूरी है कि प्रस्तुत संपादनमें पूज्य मुनिश्रीने ग्रन्थ छप जानेके बाद गाथा. नं. २ को नियुक्तिकी-नही माना हे-अत एव उसे काट दिया है। गाथासंख्यांक १२९ तथा २२९ दियाही नही गया इस प्रकार तीन गाथाओंकी कमी हुई । अतएव २७१-३२६८ गाथासंख्या वस्तुतः हुई। किन्तु गाथासंख्यांक २१० दोबार मुद्रित है अतएव पू. मुनिजीके अनुसार स्थ, अगस्त्यसिंह की चूर्णिमें २६८+१=२६९ गाथाएँ हैं-यह फलित होता है। इस दृष्टिसे आचार्य हरिभद्रकी वृत्तिके संस्करणमें १०२ गाथाएँ अधिक है-ऐसा मानना चाहिए। यहाँ आ. हरिभद्र और स्थ, अगस्त्यकी गाथाओंकी समीकरणसूची दी जाती है। उसे देखने से पता चलता है कि-प्रारंभ में ही आचार्य हरिभद्र में कुछ गाथाएँ जोडी गई हैं। आ० हरिभद्रकी वृत्ति स्थ० अगस्त्यसिंह संमत गा० ३०, ३१, १२२-१२४, १२७१२८, १३०, १३१, १३५, १३६, १४३ और १४६ नियुक्तिगाथाओंको भाष्यकी मानी गई हैं। दो गाथाएं ऐसी हैं जिन्हें आचार्य हरिभद्र में प्रक्षिप्त माना गया है किन्तु स्थ० अगस्त्यमें वे नियुक्ति की हैं गा० ४४,६४। स्थ० अगस्त्यमें ऐसी भी कुछ गाथाएँ हैं जो आ. हरिभद्रमें नहीं है-गा० १३८ २६२ और २६७। इनमें से गा० १३८ के विषयमें आचार्य हरिभद्रने “वृद्धास्तु व्याचक्षते" कह कर वह गाथा अपनी वृत्तिमें उद्धृत की है और वृद्धव्याख्या भी दे दी है नि० गा० २२८ हरि०। यह ब्याख्या इतः पूर्व मुद्रित दशवकालिकचूर्णिमें उपलब्ध है-दशवै० चू० पृ० १२९। और उसमें प्रस्तुत गाथाको नियुक्तिकी माना है। आचार्य हरिभद्रमें जो अधिक गाथाएँ हैं उनमें से कुछके विषयमें थोडा विचार करना जरूरी है। साथकी सूची देखनेसे पता लगता है कि आ० हरिभद्रमै प्रारंभमें ही प्रायः अधिक गाथाए पाई जाती हैं। आचार्य हरिभद्रने प्रारंभमें जो गाथाएँ दी हैं उनको देखनेसे पता चलता है कि उनमें प्रथम मंगलगाथा है और शेष दशवैकालिकके अनुयोगके विषयमें उत्थानिकाकी सूचक गाथाएँ हैं। आ. भद्रबाहुने समग्रनियुक्तिओंका मंगल और उत्थानिका आदि आवश्यकनियुक्ति में दे ही दिया है। तदनुसार अन्यत्र भी समझ लेना जरूरी है। अतएव आचार्य अगस्त्यसिंहमें और इतःपूर्व मुद्रित चूर्णिमें इसके लिए स्वतन्त्र गाथाएँ देखी नहीं जाती। किन्तु आचार्य हरिभद्रने इसे स्वतंत्र नियुक्ति मानकर मंगलआदिकी पूरक गाथाएँ प्रक्षिप्त की हो तो आश्चार्य नहीं है। आ० हरिभद्रकी गाथा नं. १० वस्तुतः पाठान्तर के साथ निशीथमाध्यमें गा० ३५४५ उपलब्ध है अतएव वह नियुक्तिकी नहीं हो सकती। आ. हरिभद्रकी गाथा नं. १२ संपूर्तिरूप है। किन्तु गा. १४ तो निश्चितरूपसे आ. हरिभद्रकृत ही हो सकती है-उसमें सेज्जभवको नमस्कार किया गया है। ये दोनों गाथाएँ भी पूर्वमुद्रित चूर्णिम नहीं हैं। गा० १५ पुनरुक्त बनती है और वह भी अन्यत्र नहीं है। गा० १९ और २५ संपूर्तिरूप स्पष्ट है। यह गाथा नं० २५ प्रस्तुमें मुद्रित है (पृ० ६) किन्तु उसे नियुक्ति गाथा माना नहीं गया है। वह उपसंहारात्मक गाथा है और वह पूर्वमुद्रित चूर्णिमें भी प्राप्त होती है। दोनों चूर्णिओंमें इसकी व्याख्या नहीं की गई। आ० हरिभद्रकी गा०२६-३३ भी संपूर्तिरूप हैं। गा० २७ विशेषावश्यक में उपलब्ध है-विशे० ९५३ । गा० २८ भी विशेषावश्यक की गा० ९५४ का दशवै० के अनुरूप रूपान्तर है। गा० २९ भी अनुयोगद्वार में गा०२९ है। तथा वह उत्तराध्ययनकी नियुक्ति गा० ६ है। गा० ३० उत्तराध्ययननियुक्ति गा०७ है। तथा गा० ३१ भी उत्तरा०नि० गा० ८ है। वह अनुयोगद्वारमें भी उपलब्ध हैगा० १२६, पृ० १९७ । गा० ३२ उत्तरा०नि०९ का रूपान्तर है और गा० ३३ उत्तराध्ययन नि० की गा० ११ है। आ. हरि० की गा० ३६ उनके द्वारा जोडी गई हो ऐसा संभव है। पूर्वमुद्रित चूर्णिमें पुष्प के एकार्थ दिये हैं उन्ही के आधारपर यह गाथा निर्मित की गई है। गा०४३ का भाव गद्यके रूप में प्रस्तुत में और पूर्वमुद्रित चूर्णिमें है। आ. हरिभद्रने उसे पद्यबद्ध किया है। आ० हरिभद्रकी गा० ४५ की सूचना दोनों चूर्णिमें गद्यमें है उसे गाथाबद्ध किया गया है। गा० ४६ की तुलना ओघनियुक्तिके भाष्यकी - गा० १६९ से करना चाहिए। गा० ४७ उत्तराध्ययनमें पाठान्तर के साथ ३०.८ में है। गा० ४८ भी उतराध्ययनकी ही है३०.३०। गा०५१ आचार्य हरिभद्रकी ही कृति हो तो आश्चर्य नहीं, यहाँ वह संपूर्ति रूप है। __इस प्रकार यदि आचार्य हरिभद्रमें जो अन्य मी अधिक गाथाएं हैं उनकी तलाश की जाय तो पता लगेगा कि कहीं संपूर्तिके लिए और कहीं विषयके निरूपण के लिए ये गाथाएँ या तो स्वयं बनाकर या अन्यत्रसे लेकर यहां आचार्य हरिभद्रने रखी हैं। १ देखो बृहत्कल्पभाष्यकी प्रस्तावना। २. प्रस्तुत चुणि गत गाथा नं ५६ से पूर्व ही अधिकमात्रामें आ. हरिभद्रमें अधिक गाथाएँ हैं। Jain Education Intemational Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिगाथाओं का समीकरण हरि० स्थ० अ० X OLO x xxxxx १६१ AMU X X X X १६४ १६५ .nxcmsxxxxx...xxxxxxx X आ० हरिभद्र और स्थ० अगस्त्यसिंहसंमत नियुक्ति गाथाओं का समीकरण हरि० स्थ० अ० हरि० स्थ० भ० हरि० स्थ० अ० हरि० स्थ० अ०) हरि० स्थ० म. १९८ ९९ ४० १८ ८२४ ११९ x (प्रक्षेप) १ ६४ । ८३ x १२० x २०० १०० ८४ x १२१ x २०१ १२२ x २०२ x २०३ १०२ ८७४। १२४ ४५ २०४ १०३ १२५ ४६ १६ २०५ १०४ ८९ २६ १२६ २०६ १०५ १२७ ४८ २०७ १०६ ९१ २८ १२८ ४९ २०८ १०७ ९२ २९ १२९ ५० १६ २०९ १०८ १६८ २१० १०९ १६९ २११ ११० १३२४ १७० २१२ १११ १३३ x २१३ ११२ १७२ २१४ ११३ १७३ २१५ ११४ १३६ ५३ २१६ ११५ १७५ २१७ ११६ १३८ x २१८ ११७ १७७ २१९ ११८ १७८ २२० ११९ २२१ १२० २२२ १२१ ७ १२२ ८ १२३ ९ १२४ २२३ १२५ १४७ २२४ १२६ १४८ २५ १२७ भा० २८ १२८ १५० ५७ भा० ३३ १३० १५१ ५५ भा० ३४ १३१ x २२५ १३२ ७४ x. ११२ ४० १५३ ९४ २२६ १३३ १५४ ९५ - २२७ १३४ ७६ x ११४ ४२ १९३ ९६ भा० ५६ १३५ ७७ x ११५ ४३ १५६ ६२ x भा० ५७ १३६ (प्रक्षेप) गा.१४ ११६ x * यहाँ ५६,५७,५५ xt संख्यांक १२९ नहीं ८० x ११७ x में क्रमव्यत्यय है।। १९७ ९८ दिया गया है। १७६ xxxxxxxxxxxxxxxx . MANG 6- xxxxxxxxxxx X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X *xxxxxxxxxxx A १८८ ५२ -- 0.00.00 ३७ ३८ १५ १६ । 1 छप जानेके बाद यह गाथा काट दी गई Jain Education Intemational Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना (१०) हरि० स्थ० भ०। २२८ १३७ ___ x १३८ २२९ १३९ २३० १४० २३१ १४१ २३२ १४२ भा० ६० १४३ २३३ १४ २३४४ २३५ १४५ भा०६२ १४६ २३६ २३७ ४ २३८४ हरि० स्थ० म० २५१ १५४ २५२ १५५ २५३ १५६ २५४ १५७ २५५ १५८ २५६ १५९ २५७ १६० २५८ १६१ २५९ २६० १६३ २६१ १६४ २६२ १६५ २६३ १६६ २६४४ २६५ १६७ २६६ १६८ २६७ १६९ २६८ १७० २६९ १७१ २७० १७२ २७१ १७३ २७२ १७४ २७३ १७५ २७४ १७६ २७५ १७७ २७६ १७८ । २२.xxxxxxxxx हरि० स्थ०म० हरि० स्थ०म० हरि० स्थ०० हरि० स्थ.. २७७ १७९ ३०३ २०५ ३२६ २२७ ३४८ २४७ २७८ १८० ३०४ २०६ ३२७ *२२८ ३४९ २४८ २७९ १८१ ३०५ २०७ ३२८४ ३५० २४९ २८० १८२ ३०६ २०८ ३२९ २३० ३५१ २५० २८१ १८३ ३०७ २०९ ३३० २३१ ३५२ २५१ २८२ १८४ ३०८ *२१० ३३१४ ३५३ २५२ २८३ १८५ ३०९ २१० ३३२ २३२ ३५४ २५३ २८४ १८६ ३१० २११ ३३३ २३३ ३५५ २५४ २८५ १८७ ३११ २१२ ३३४ २३४ ३५६ २५५ २८६ १८८ ३१२ २१३ ३३५ २३५ ३५७ २५६ २८७ १८९ २१३ २६४ ३३६ २३६ ३५८ २५७ २८८ १९० ३१४ २१५ ३३७ २३७ ३५९ २५८ २८९ १९१ ३१५ २१६ ३३८ २३८ ३६० २५९ २९० १९२ ३१६ २१७ ३३९ २३९ ३६१ २६० २९१ १९३ ३१७ २१८ ३४०४ ३६२ २६१ २९२ १९४ ३१८ २१९ ३४१ २४० २९३ १९५ ३१९ २२० ३४२ २४१ ___x २६२ २९४ १९६ ३२० २२१ ३४३ २४२ ३६४ २६३ ३२१ २२२ ३४ २४३ ३६५ २६४ २९६ १९८ ३२२ २२३ ३४५ २४ ३६६ २६५ २९७ १९९ ३२३ २२४ ३४६ २४५ ३६७ २६६ २९८ २०० ३४७ २४६ x २६७ २९९ २०१ ३२५ २२६ ३६८ २६८ ३०० २०२ * यहाँ गाथासंख्यांक ३०१ २०३ * २१० संख्यांक दो २२९ नहीं दिया ३७० २७० ३०२ २०४ | बार दिया गया है। गया है। ३७१ २७१ २३९४ २४० २४१ ૨૪૨ २४३ २४x २४५ १४८ २४६ १४९ २४७ १५० २४८ १५१ २४९ १५२ २५० १५३ । ३६९ २६९ स्थविर अगस्त्यसिंहकृत चूर्णि स्थविर' अगस्त्यसिंहने अपनी वृत्तिको चूर्णि संज्ञा दी है यह अंतिम वाक्यसे स्पष्ट है-"चुण्णिसमासवयणेण दसकालियं परिसमत्तं" और प्रशस्तिकी तीसरी गाथामें भी इसे 'चूर्णि' कहा है। अत एव यह टीका 'चूर्णि' है इसमें संदेह नहीं है। अपना परिचय देते हुए अपनेको कोटिकगणके वज्रस्वामिकी शाखामें होनेवाले 'रिसिगुत्त'-'ऋषिगुप्त' क्षमाश्रमणके शिष्य बताया है। और अपना नाम 'कलसभवमइंद' इस सांकेतिक रूपमें प्रशस्तिमें रखा है। इसका स्पष्टार्थ पू. मुनिराजश्री पुण्यविजयजीने कलसभव = कलशभव = अगस्त्य और मइंद = मृगेन्द्र = सिंह-एसा मानकर अगस्त्यसिंह नाम होनेका जो अनुमान किया है वह उचित ही है। लेखकको प्रस्तुतमें विस्तारसे व्याख्यान करना इष्ट है। व्याख्यानमें एक भी महत्त्वका शब्द बिना व्याख्याके नहीं रहा। इस तरह यह व्याख्या विभाषा-या परिभाषाके लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। चूर्णिकारने विभाषा शब्दका प्रयोग पुनःपुनः किया भी है। अत एव १. प्रस्तुत चूणिको ग्रन्थकर्ताने वृत्ति भी कहा है-पृ० ११२ २. वित्थरवक्खाणाहिगारोऽयं-पृ० १, ३. ३.१६; ५.१५; १०.२२; ११.१५, ५०.१५; ११४.२५; १२१.११. इत्यादि। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविर अगस्त्यसिंहकृत चूर्णि (११) वे अपनी इस व्याख्याको विभाषा कहना पसंद करते हैं ऐसा लगता है। बौद्धों के वहां सूत्र = मूल और विभाषा' = व्याख्या ये दो प्रकार ग्रन्थोंके हैं। वैसा जैनों में भी सूत्र और विभाषा ये श्रुतके भेद किये जा सकते हैं। विभाषाके स्वरूपके विषयमें स्पष्टीकरण अन्यत्र किया है। अत एव यहाँ उसके विवरणकी आवश्यकता नहीं है। उसका खास लक्षण यह है कि शब्दों के जो अनेक अर्थ होते हों, उन्हें बता देना चाहिए और प्रस्तुतमें जो अर्थ उपयुक्त हो उसका निर्देश कर देना चाहिए। प्रस्तुत चूर्णिमें यह पद्धति अपनाई गई है अत एव यदि इसे 'विभाषा' कहा जाय तो उचित ही होगा। केवल यही नहीं प्रस्तुत चूर्णिको ग्रन्थकर्ताने 'वृत्ति' नाम भी दिया है-पृ० ११२ चूर्णिमें अनेक दृष्टान्तों, कथानकों द्वारा मूलके वक्तन्यको स्पष्ट किया गया है। यह चूर्णिकी एक विशेषता ही समझी जा 'सकती है। अनेक ग्रन्थोंसे अवतरण दिये हैं उससे यह निश्चित होता है कि स्थविर अगस्त्यसिंह बहुश्रुत थे। वे केवल जैन शास्त्रके ही नही किन्तु अन्यशास्त्रोंके भी ज्ञाता थे। ये अवतरण ग्रन्थोंके नामके साथ और विना नामके भी दिये गये हैं। इसका कितना विस्तार है यह अंतमें दी गई अवतरण सूचीसे पता लग सकता है। प्रस्तुत चूर्णिके अध्ययनसे यह निश्चित होता है कि इसके पूर्वभी कोई वृत्ति दसक लियकी बनी थी। उस वृत्तिका निर्देश अगस्त्यसिंहने कई स्थानोंमें किया है-पृ. ६४, ७८,८१, १००, २५३ । अपने समय तक दशवकालिकमें तथा नियुक्तिमें जो पाठान्तर उपलब्ध थे उनका भी निर्देश चूर्णिमें किया गया है-पृ० ३८, ४८, ६०, ६१, ७७, ९९, १०१, १३२, १६४ इत्यादि। इससे यह अनुमान हो सकता है कि स्थविर अगस्त्यसिंहके समक्ष अन्य हस्तप्रतें मौजुद थीं। अन्य वृत्तिका निर्देश तो ऊपर हो चुका है। एक स्थानमें पाठान्तरके स्थान में स्थविर अगस्त्यसिंहने 'आलावगो' शब्दका मी प्रयोग किया है-पृ० १६४ । स्थ० अगस्त्यसिंहकी चूर्णिकी जो प्रत मिली है उससे यह निश्चित होता है कि प्राकृत शब्दके रूप एक जैसे ही प्रयुक्त नहीं हुए हैं। मूलके प्रतीक जो हैं उन शब्दों के भी रूपान्तरोंका प्रयोग चूर्णिमें दिखाई देता है। अत एव पाठको एक निश्चितरूप देकर ही मुद्रित करने की जो पद्धति है वह कहाँतक उचित है-यह विद्वानों के लिए विचारणीय है। प्राकृतभाषाकी यही विशेषता है कि उसमें कई रूपान्तरोंकी शक्यता है। लेखक स्वयं भी नानारूपोंका प्रयोग करे-यह भी संभव है ही-ऐसी परिस्थितिमें संपादनमें एकरूपता लानेका प्रयत्न करना कहां तक उचित है । यह प्रश्न है। इस एकरूपताकी कमी को देखकर यदि यह कहा जाय कि सम्पादन उचित ढंगसे नहीं हुआ है तो यह पू. मुनिजीके प्रति अन्याय होगा ऐसा मैं मानता हूँ। विदेशी विद्वानों का यह आग्रह रहा हैप्रतमें एकरूपता न भी मिले फिरभी संपादकको एकरूपता लानेका प्रयत्न करना चाहिए-संपादनकी यह पद्धति प्राकृतभाषाके मूलमें ही कुठाराघात जैसी दिखती है। ऐसी परिस्थितिमें यदि पू. मुनिजीने उस एकरूपताका आग्रह नहीं रखा है तो उनका दोष नहीं हैउन्होंने प्राकृत भाषाकी प्रकृतिका ही अनुसरण किया है। जैनोंमें प्रचलित अनुमानविद्याका भी तात्कालिक निरूपण उत विद्याके इतिहासकी एक कडी बन सके ऐसा विस्तृत है-जो अन्यत्र दुर्लभ है। आज्ञाका-आगमका महत्त्व होते हुए भी वातावरणमें जब अनुमानविद्या या तर्कविद्याका महत्त्व बढा तो जैन आगम भी उससे अछूता नहीं रह सकता था। अत एव उस विद्याका प्रथम प्रवेश नियुक्तिमें हुआ और विशदीकरण इस चूर्णिमें है। दशवैकालिक नियुक्तिकी गा० २२ से यह चर्चा शुरू होती है जो अतिविस्तारसे प्रस्तुत चूर्णिमें की गई है। विस्तृत होते हुए भी उसकी चर्चा की जो भूमिका है वह प्राथमिक ही कही जा सकती है। आचार्य अकलंक आदिने इस विषयमें जो आगे चल कर कहा वह इस भूमिका को छोड कर और तात्कालिक चर्चा विचारणा को लक्ष्य करके ही है। स्थविर अगस्त्यसिंहके समक्ष दशवकालिक की कई वृत्तियाँ होनेका संभव इस लिए है कि उन्होंने प्रारंभमें ही 'भदियायरिओ. वएस' और 'दत्तिलायरिओवएस' की चर्चा की है-पृ० ३। अन्यत्र भी वृत्तिके मतों का निर्देश कईबार किया है। इससे यह तो निश्चित होता है कि दशवकालिककी वृत्तिओंकी परंपरा प्राचीनकाल से ही प्रारब्ध हुई थी। आचार्य अपराजित जो यापनीय ये उन्होंने भी दशकालिककी विजयोदया नामक टीका लिखी थी। वह स्थविर अगस्त्यके समक्ष थी या नहीं इसका निर्णय जरूरी है। किन्तु १. व्याकरणगत परिभाषामें 'विभाषा' शब्दका जो अर्थ है उसके लिए देखें शाकटायन व्याकरण-प्रस्तावना, पृ०६९, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी. २. नंदीसुत्तं अणुयोगद्दाराई च (महावीर जैन विद्यालय) की प्रस्तावना-पृ०३७. ३. बृहत्कथा जैसे ग्रन्थका उनका अध्ययन अवश्य उन्हें इसके लिए सहायक हुआ है।-पृ. १९९ में बृहत्कथाके कथनको स्त्रीसंसर्गनामक दोष बताया है। किन्तु 'कोकास'को शिल्पीके रूपमें उदाहृत करनेमें उन्हें कोई संकोच नहीं हुआ है।-पृ. ५४। ४. ये व्याख्यायें मौखिक भी हो सकती हैं। संभव है कि इसीको लक्ष करके 'उपदेश' (उवएस) शब्दका प्रयोग किया गया है। ५. “दशवैकालिकटीकायां श्री विजयोदयायां प्रपञ्चिता उद्गमादिदोषा इति नेह प्रतन्यते" भगवती आराधना टीका विजयोदया-गा. १९९७ Jain Education Intemational Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) प्रस्तावना वह उपलब्ध नहीं है अत एव यह जानना कठिन है। स्थविर अगस्त्यसिंहद्वारा किया गया वृत्तिका उल्लेख पूर्वोक्त तीनोंमेंसे किसी एकका है या अन्य कोई है यह भी कहना कठिन है। आचार्य अगस्त्य सिंहने अनेक मतभेद या व्याख्यान्तरोंका उल्लेख किया है। किन्तु यहां उन सबकी चर्चा न करके उनमें से कुछ की ही चर्चा की जाती है। ध्यानका सामान्य लक्षण दिया है-'एगग्गचिंता-निरोहो झाणं' और उसकी व्याख्यामें कहा गया है कि "एक आलम्बनकी चिन्ता करना यह छद्मस्थका ध्यान है। योगका निरोध यह केवलीका ध्यान है। क्योंकि केवलीके चिन्ता नहीं होती। इस विषयमें कोई कहते हैं कि केवलीको योगनिरोध अर्थात् मनोयोग का निरोध नहीं होता। किन्तु उनका यह कहना ठीक नहीं। क्योंकि भगवानको भी द्रव्य-मनका निरोध संभव है। यदि ध्यान एकाग्रचिन्ता है तब तो योगनिग्रह भी ध्यान है ही। किन्तु जो यह कहते है'एकाग्र चिन्ताका निरोध ध्यान है"तो यह लक्षण केवलीमें घटित नहीं होता है क्योंकि चिंता यह आमिनिबोधिक ज्ञानका भेद है। भत एव 'हद अध्यवसान ध्यान है' तो उनको समासके विग्रहका ज्ञान नहीं है यही कहना चाहिए। वे सूत्रका दूषण निकाल अपनी बुद्धिके माहात्म्यकी अभिलाषा करते हैं। उन्होंने व्यर्थ ही कहा है। क्योंकि दृढ अध्यवसाय और चिन्ता इनमें भेद नहीं है। जब यह कहा जाता है कि इसका क्या अध्यवसाय है तो यही समझा जाता है कि इसकी क्या चिंता है। और तत्त्वार्थमें तो तकादि सबकोआमिनिबोधिक ज्ञानके भेद बताये ही हैं।" वृद्धविवरण जो दशवकालिक चूर्णिके नामसे मुद्रित है उसमें ध्यानका जो लक्षण स्वीकृत है वह यहाँ अमान्य किया गया है। उक्त चूर्णिने यह मत प्राचीन वृत्तिसे स्वीकृत किया हो यह संभव है क्योंकि प्रस्तुत चूर्णि वृद्धविवरणसे पूर्ववर्ती है। देखो प्रस्तुत में पृ० १६ टि०४। प्रस्तुतमें ध्यानका जो लक्षण 'एगमाचिंता-निरोहो' स्वीकृत किया गया है वह तत्त्वार्थसंमत है। तत्त्वार्थ भाष्यमें स्पष्ट लिखा है कि 'एकाग्रचिन्ता निरोधश्च ध्यानम्'-९. २७ और मूलसूत्रके 'एकाग्रचिन्तानिरोधो" इस समस्तपदका ऐसा विग्रह भाष्यमें स्वयं आचार्य उमास्वातिने जो किया वह निर्मूल नहीं था किन्तु जैनपरंपरासंमत आध्यात्मिकविकासक्रमको देखकर ही किया था। आवश्यकनियुक्तिगत ध्यानातक गा. ३ में ध्यानविषयक जो स्पष्टीकरण है वह भी इस प्रकारके विग्रहका ही समर्थन है अंतोमुहुत्तमित्तं चित्तावत्थाणमेगवत्थुम्मि। छउमत्थाणं झाणं जोगनिरोहो जिणाणं तु॥ यद्यपि ध्यानशतकमें ध्यानका जो लक्षण दिया है-"जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं" गा०२, उसका तो प्रस्तुत चूर्णिमें निरास ही किया है। क्यों कि 'दढमज्झवसाओ' और 'थिरमझवसाणं' में शब्दका अन्तर है, अर्थका नहीं। 'एकाग्रचिन्तानिरोध' के विग्रह के विषयमें जो आक्षेप किया गया है वह आचार्य पूज्यपादने तत्त्वार्थकी टीकामें जो विग्रह किया है उसे लक्ष करके किया हो ऐसा संभव है। क्यों कि उसमें तत्त्वार्थ भाष्यके विग्रहसे विपरीत ही विग्रह दिखता है 'चिन्ता परिस्पन्दवती, तस्या अन्याशेषमुखेभ्यो ब्यावर्त्य एकस्मिन्नग्रे नियम एकाग्रचिन्तानिरोध इत्युच्यते'-सर्वार्थसिद्धि ९-२७५ सामान्यतौरसे उपांगग्रन्थ जीवाजीवाभिगमः नामसे प्रसिद्ध है किन्तु यहां उसका नाम 'जीवाजीवाधिगम' निर्दिष्ट है (पृ०९४)' प्रभ यह है कि क्या मि→हि-धि की प्रवृत्तिका यह परिणाम है या यही उसका नाम मूलतः होगा। आचार्य उमास्वातिने 'अधिगम। १. २.२९, ३.५, १६.९, २५.५, ६४.६; ७८.२९: ८१-३४: १००.२५, २४८ : २५४.५ इत्यादि। २. १६. ७. ३. तुलना करें इस चर्चाकी भगवती आराधनागत विजयोदया टीका गा० १६९९ । वहाँ चर्चा इसी लक्षणकी है किन्तु चर्चा अन्य ढंगसे की गई है। ४. वस्तुतः यहाँ मूलमें पाठ 'निरोधी' ही उचित था। और आचार्य उमास्वातिने उसे उस रूपमें ही लिखा होगा। किन्तु अन्य सभी वृत्तिकारों के समक्ष योगसूत्रगत लक्षण 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' १.२. मौजुद था, अत एव उसी रूपको समक्ष रखकर 'निरोधौ' के स्थानमें 'निरोधो' मानकर ही व्याख्याएँ की हो तो आश्चर्य नहीं है। राजवार्तिक और विजयोदयागत ध्यानके स्वरूपका वर्णन कई बातों में समान है फिर भी विवरणमें कई बातें ऐसी हैं जो एककी दूसरेमें नहीं हैं। ५. राजवार्तिक आदि में तथा सिद्धसेनमें भी इसी प्रकार विग्रह किया गया है। आचार्य उमास्वाति की ध्यानकी व्याख्यामें संगति बिठानेका विशेषप्रयत्न अपराजितसूरिने भगवती आराधनाकी टीकामें (१६९९) किया है वह भी यहां देखना जरूरी है। आचार्य उमास्वातिने योगसूत्रका अनुकरण करके ध्यानकी व्याख्या की किन्तु उसमें जैन दृष्टिसे विशेष स्पष्टीकरण की आवश्यकता थी उसकी पूर्ति भी उन्होंने की है। ६. नंदिसुत्तमें उसे 'जीवाभिगम' कहा गया है-सू. ८३ । दशवकालिक मूलमें (४.३७) जो तत्त्वचर्चा है उससे ये तत्व फलित होते हैं- जीव-अजीव-पुण्य-पाप-बंध-मोक्ष-संवर. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविर अगस्त्यसिंहकृत चूर्णि (१३) 'अभिगम' 'आगम' इत्यादिको पर्यायवाचक माना है (१.३) इसे देखते हुए दोनों नाम संभव हैं। किन्तु 'जीवाजीवाभिगम' यह नाम अधिक प्रचलित हो गया है-इसे देखते हुए वही नाम मूलतः मानना उचित ऊँचता है। 'सुयं मे आउसं ' इत्यादिका तथा 'महावीरेणं कासवेणं' का जो अर्थ दिया गया है वह ध्यान देने योग्य है-पृ०७३। प्रस्तुतमें यह स्पष्टीकरण है कि प्रत्येक गणधर सूत्रोंकी रचना अपने शिष्यों के लिए करते हैं। विकल्पसे प्रस्तुतमें जंबूके उत्तर में सुधर्मस्वामिने यह वाक्य - 'सुयं मे' इत्यादि कहा यह भी स्पष्टीकरण है। और 'सुयं मे' इत्यादि पाठके दो और पाठान्तर देकर भी उनके अर्थ दिये गये हैं। काश्यपका अर्थ ऋषभस्वामी किया गया और उनके गोत्रज होनेसे महावीर भी काश्यप हैं - यह स्पष्टीकरण है। दशवकालिक मूलमें (२०४०, पृ०७६) 'सब्वे देवा सब्वे असुरा' यह प्रयोग है। तथा 'देवा जक्खा य गुग्मगा' यह भी है९-२.१०। यह सूचित करता है कि देवोंके जो चार प्रकार तत्त्वार्थ में (४.१) हैं वे स्थिर होनेके पूर्वके ये प्रयोग हैं। आचार्य अगस्त्यसिंहकी व्याख्या (पृ०७७) भी यहां देखी जा सकती है जहाँ कहा गया है कि असुर ये देवोंके प्रतिपक्षी हैं। जब तत्त्वार्थ में असुर देवों के अन्तर्गत हैं। तथा देवा इत्यादिकी व्याख्या करने में आचार्य अगस्त्यको कठीनाई पडी है। यह सूचित करता है कि देवविमाग जो तत्त्वार्थमें है वह अभी स्थिर नहीं हुआ था। __ वृद्धविवरण तथा भाचार्य हरिभद्रमें मृषाके चार भेद किये हैं जबकि प्रस्तुत चूर्णिमें तीन भेद है, यह सूचित करता है कि सम्भवतः यह चूर्णि वृद्धविवरणसे प्राचीन हो-पृ० ८२ तथा टिप्पण नं. ७ ज्ञानाचारका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि प्राकृतभाषानिबद्ध सूत्र का संस्कृतमें रूपान्तर नहीं करना चाहिए क्यों कि व्यञ्जनमें विसंवाद करने पर अर्थविसंवाद होता है। परिणामस्वरूप अंततः दीक्षाकी निरर्थकता हो जाती है-पृ० ५३ । प्राकृतके लिए 'अपभ्रश' शब्दका प्रयोग किया गया है-पृ०७। आगम-प्राकृतमें होने से कुछ लोग जो आपत्ति करते थे उसका भी निर्देश है-"सन्धमेतं पागतभासानिबद्धत्तणेण [ण] कुसलकल्पितं होज्जा"-पृ०५०"। सिद्धसेनके सन्मतिकी गाथा' उद्धृत होने से वह भी प्रस्तुतसे पूर्वकी रचना सिद्ध होती है-गृ०२२॥ 'रात्रिभोजनविरमण'व्रतको मूलगुण माना जाय या उत्तरगुण १ इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि यह उत्तरगुण ही है किन्तु सर्वमूलगुणकी रक्षाका हेतु होनेसे मूलगुणके साथ कहा गया है-पृ०८६। वृद्धविवरणमें उत्तरगुण तो माना है किन्तु वह प्रथम-अंतिम तीर्थकर के समयके पुरुष-विशेषकी अपेक्षासे ही तथा बीचके तीर्थंकरोंके समयमें तो सभीकी अपेक्षासे उत्तरगुण है-देखें प्रस्तुत पृ०८६ की टिप्पणी ६। इससे स्पष्ट है कि यह व्रत बादमें जोडा गया है। मूलमें यह बात कही गई है कि वस्त्रपात्रादि संयम और लज्जाके लिए रखे जाते हैं अत एव वह परिग्रहमें शामिल नहीं है-मूर्छा ही परिग्रह है-(६-१९-२१)। इसकी चूर्णिमें 'चोलपट्टगादि'का उल्लेख है। और यह भी स्पष्ट किया गया है कि-"ण केवलं संघयणहीणाणं जिणकप्पियाण वि भगवतैवोपदिष्टम् "-पृ० १४७। और भी "उवधी वत्थायोहरणाति, सन्वस्थ उपधिणा सह सोपकरणा बुद्धा जिणा, साभाविक्रमिदं जिणलिंगमिति सम्वे वि एगदूसेण निमाता। पत्तेयबुद्धजिणकप्पियादयो वि रयहरणमुहणंतगातिणा सह संजमसारक्खणत्ये परिगाहेण मुच्छानिमित्ते तम्मि विजमाणे वि ते भगवंतो मुच्छं न गच्छंतीति अपरिगाहा"-पृ० १४८।। दशवकालिककारको यह भी इष्ट है कि कोई साधु नम भी रह सकता है देखें-६.६४, पृ० १५७ । अत एव यह ग्रन्थ यापनीय संघके भिक्षु जो नम रहते थे उन्हें भी मान्य हुआ है। तभी तो यापनीय आचार्य अपराजितने इस की टीका भी लिखी है। नियुक्ति में प्रशस्त-अप्रशस्त राग आदि की जो चर्चा है उसकी चूर्णि देखने लायक है। इसमें तीर्थंकरोंकी पूजाके समय वाद्यादि तथा नाटक आदिमें जो मन लगता है वह प्रास्त इन्द्रियरागका दृष्टान्त है तथा जैन शासनके विरोधीके प्रति जो क्रोध होता है, परवादिका पराभव होने पर जो अभिमान होता है, अभिमानसे संयममें उद्युक्त होने पर जो मान होता है, परवादीको हरानेकी दृष्टिसे जो छलप्रपंच किया जाता है वह माया, श्रुतज्ञान के लिए जो असन्तोष होता है वह लोभ-ये सब प्रशस्त प्रणिधिके उदाहरण हैं।-पृ० १८२-१८३ । दृष्टिवाद वस्तुतः था नहीं केवल कालनिक ग्रन्थ है-ऐसी मान्यतावालों के लिए दशवैकालिककी यह गाथा नया प्रकाश देगी “आयारपण्णत्तिधरं दिट्टिवादमधिज्जगं।" ८.४९. . प्रस्तुतमें चूर्णिमें आचारधर, पण्णत्तिधर, और दिद्धिवादमायणधर का उल्लेख है जो दृष्टिवादके अस्तित्वको सूचित करता है इतना ही नहीं किन्तु आगोंमें उसके महत्त्वको भी सूचित करता है -पृ० १९७१ धर्मकी व्यवहारिकताका समर्थन यह कह कर किया गया है कि अनंत ज्ञानी भी गुरुकी उपासना अवश्य करे-दशवै० ९. १. ११, पृ० २०९। यहां चूर्णिकारने अनंत शब्दका पारिभाषिक ही अर्थ लिया है-अर्थात् सर्वज्ञ भी। १. यह गाथा दशवैकालिकनियुक्तिकी हरिभद्रकी टीकामें भी नियुक्तिरूपसे ली गई है- गा०६० २. मूलाचारमें भी इसे मूलगुण माना नहीं गया-देखो गा० २-३ (मूलगुणाधिकार) Jain Education Intemational Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) • प्रस्तावना गुणवत्ता के कारण भिक्षु है और यदि गुण नहीं तो भिक्षु मी नहीं-इस अनुमानकी सिद्धि सुवर्णदृष्टान्तसे की गई है और भन्यत्र प्रसिद्ध कस-छेद-ताव-तालण द्वारा सुवर्णकी प्रसिद्ध परीक्षाविधिका उल्लेख है -नि० गा० २४९। इसकी तुलना तत्त्वसंग्रहगत निम्नकारिकासे करना योग्य है - "तापाच्छेदाच निकषात् सुवर्णमिव पण्डितैः। परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्य मद्धचो न तु गौरवात् ॥ ३५८८ ॥ दशवकालिकमें (८.२७) "देहदुक्खं महाफलं" कहा है उसकी व्याख्यामें आचार्य अगस्त्यसिंहने कहा है-“दुक्खं एवं सहिज्जमाणं मोक् वपज्जवसाणफलत्तेण महाफलं"-पृ० १९२। और अन्यत्र बौद्धोंने जो चित्तको ही नियन्त्रणमें लेना जरूरी है-ऐसा माना है उसका निराकरण करते हुए काय का भी नियन्त्रण जरूरी है-ऐसा कहा है-पृ०२४१।। प्रस्तुत चूर्णिगत कुछ दार्शनिक चर्चाएं भी ध्यान देने योग्य हैं जिससे जैनोंके दार्शनिक मन्तव्यों के इतिहास पर प्रकाश मिलता है। अनेकान्तवादकी यथावत् स्थापना जैसी दार्शनिक ग्रन्थोंमें देखी जाती है उसके पूर्व उस वादकी क्या क्या भूमिकाएं थीं यह एक गवेषणाका विषय है। प्रस्तृत चूर्णिमें उस विषयमें जो भूमिका है वह इस प्रकारकी है-नियुक्तिमें धम्म शब्दके अनेक अर्थ बताए हैं। उससे यह स्पष्ट होता है कि धर्म शन्दका प्रयोग द्रव्यके लिए और उसके पर्यायोंके लिए भी होता है-गा० १८ की चूर्णिमें पर्यायोंके विवरणमें लिखा है-"जीवदम्बस्स वा अजीवदन्वस्स वा उप्याय-हिति-भंगा पजाया त एव धम्मा। जीवदधस्स इमे उप्पादहितिभंगा-देवभवातो मणुस्सभवमागतस्स मणुस्सत्तेग उप्पातो, देवत्तेण विगमो, जीवदव्वमवद्वितं।" इत्यादि-पृ.१० इसमें ध्यान देनेकी बात यह है कि स्थिति को भी पर्याय कहा है फिर भी विवरणमें जीवद्रव्य को अवस्थित कहा गया है। इस विषमता का निवारण दार्शनिकोंने आगे चलकर कर दिया है। प्रस्तुत चर्चा में आकाशादि तीन द्रव्योंके उत्पादादि परप्रत्ययसे' होते हैं यह स्पष्टीकरण किया गया है यह ध्यान देने योग्य है-पृ०१० 'अनेकान्तपक्ष' के अवलंबनसे जीव द्रव्यार्थतासे नित्य है और पर्यायार्थितासे अनित्य है-यह भी सन्मतिकारके प्रभावसे कहा गया है और आत्माको सर्वथा नित्य माना जाय तो सुखदुःखादिका संभव नहीं होगा यह भी सिद्धसेनके सन्मतिके अवतरणद्वारा सिद्ध किया गया है-पृ० २२ जीवके अस्तित्वको अनुमानसे सिद्ध किया गया है किन्तु एकेन्द्रिय जीवकी सिद्धि के विषयमें कहा है कि हेतुसे उसकी सिद्धि गुरुके अनुसार छज्जीवनिकाय नामक अध्ययनसे होती है किन्तु यहाँ तो आगमके आश्रयसे की जाती है-पृ. २३ । जीवके अस्तित्वके विषयमें 'णाहितवादी' (नास्तिकवादी) के समक्ष जो दलील दी गई है। वह यह कि 'यदि तुम कहो कि सर्वभाव ही जब नहीं तो जीव कैसे अस्ति होगा ?' तो तुम्हारा यह वचन 'है' या 'नहीं है' १ यदि 'है' तब तो सर्वभावका निषेध नहीं कर सकते-इत्यादि।' इस चर्चासे स्पष्ट है कि यहाँ नास्तिक से अभिप्राय शून्यवादीसे है। किन्तु वह शून्यवादी बौद्ध है या चार्वाक यह स्पष्ट नहीं होता। चार्वाकके तत्त्वोपप्लववादका मूल यदि इसमें माना जाय तब इसे चार्वाकमत कहा जा सकता है। 'लोकायत'का उल्लेख पृ० १४३ में है। लौकिकशास्त्र गीतासे तथा वैदिक योंके फलकी चर्चाके आधार पर भी जीवकी सिद्धिका समर्थन किया गया है-पृ०६८। अन्यत्र भी इसमें जीवके अस्तित्व आदिकी चर्चा की गई है किन्तु चर्चासे स्पष्ट है कि कहीं भी स्थविर अगस्त्यसिंहने जिनभद्रके विशेषावश्यकमें से उद्धरण नहीं दिया है, यद्यपि चर्चा में अन्यकृत गाथाएँ उद्धृत है-पृ० २२, २३, २५। तजीव तच्छरीरवादकी चर्चा आचार्य जिनभद्रने' मी की है किन्तु उस चर्चाका भी उपयोग प्रस्तुतमें नहीं है-पृ० २१ । 'लोकायतिक' आदि मोक्ष और परलोक तथा ज्ञान-दर्शन-चारित्र के विषयमें जो कुछ कहें किन्तु वे जिनप्रवचनमें ही अस्तिथ हैं, अन्यत्र नहीं-यह नियुक्तिकी व्याख्या में कहा गया है। द्रन्यजीवके विषयमें आचार्य उमास्वातिने कहा है-"गुणपर्यायवियुक्तः प्रज्ञास्थापितोऽनादिपारिणामिकभावयुक्तो जीव उच्यते। अथवा शून्योऽयं भङ्गः। यस्य हि अजीवस्य सतो भव्यं जीवत्वं स्यात् स द्रव्यजीवः स्यात् । अनिष्टं चैतत् ।" तत्त्वार्थभाष्य १.५। किन्तु १. आचार्य उमास्वातिने इन तीनों के परिणामको अनादि कह कर संतोष माना था।-५.४२। पूज्यपादने सामान्य परिणामको अनादि और विशेषको सादि माना था किन्तु परप्रत्ययसे होनेवाले परिणामकी चर्चा नहीं की थी। २. पृ० २४ । ३. आचार्य जिनभद्रने शून्यवादीके विरुद्ध अनेक दलीलें दी हैं उनमें एक यह भी है-विशे० २१८८ से। प्रस्तुतमें जिनभद्रकी युक्तियोंकी असर नहीं है यह स्पष्ट है। ४. २२.१५, २३.२४, २५.२८, २६.१०, १४; २८.२; इत्यादि । ५. विशेषा० २१०४ से। ६. गाथा १६८१ Jain Education Intemational Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविर अगस्त्यसिंहकृत चूर्णि (१५) प्रस्तुतमें (पृ०६६) अन्य प्रकारसे ही स्पष्टीकरण है-“दवजीवो जं अजीवदव्वं जीवदव्यत्तेण परिणमिस्सति त्ति ओरालितादिसरीरपरिणामजोगं। तं कह १ जीवो सरीरं च ण एगंतेण अत्यंतरं। जति अत्यंतरमेव सरीरभावभेदेसु ण सुहदुक्खाणुभवणं होजा।" आचार्य अगस्त्यसिंहने प्रस्तुतमें द्रव्यजीवके विषयमें जो स्पष्टीकरण किया है वह आगमानुसारी है।' आचार्य उमास्वातिने जो स्पष्टीकरण दिया था वह दार्शनिक विकासको अग्रभूमिका थी। किन्तु स्थविर अगस्त्यसिंहने आगमिक भूमिका का ही प्रश्रय लिया है। आचार्य पूज्यपादने द्रव्यनिक्षेपका विस्तारका आश्रय लेकर जो सष्टीकरण किया है उसमें आचार्य उमास्वातिके मतका भी स्वीकार है ही। उपरांत अन्य पक्ष भी देखे जाते हैं जिनमें अगस्त्य सिंहका पक्ष भी समाविष्ट हो जाता हैं।' शून्यवादका निर्देश (पृ. ६८) जीवच को लेकर किया गया है किन्तु यहां भी विशेषावश्यकगत शून्यवादकी विस्तृत चर्चाकी कोई सूचना मिलती नहीं। ___आत्माके अस्तित्वको माननेवालोंमें वेद, कापिल और काणादका भी उल्लेख है-पृ०६८। इतना ही नहीं किन्तु उसी प्रसङ्ग में 'बुद्धस्स पंचजातकसताणि'को भी आत्माके अस्तित्वके समर्थनमें ही उपस्थित किया गया है-पृ०६८। ___ 'क्रियावाद' से तात्पर्य आस्तिकदर्शनोंसे था यह भी यहाँ स्पष्ट होता है-किरिया का अर्थ 'अस्थिभाव' करके जो माता-पिताजीव आदिका अस्तित्व मानता है वह क्रियाकी आशातना नहीं करता यह स्पष्टीकरण है-पृ० १५, २०५. __स्याद्वादके विषयमें विचित्र विधान किया गया है जो आश्चर्यजनक इस लिए है कि सन्मति जैसे ग्रन्थों में स्याद्वादके भङ्गोंकी चर्चा है और उन ग्रन्थोंको अगस्त्यसिंहने देखा है। क्या इसका तात्पर्य यह है कि उनके समय तक 'स्याद्वाद' शब्द जैनोंने अपनाया नहीं था ?' आचार्य अगस्त्यसिंहने लिखा है कि-"सिया इति निच्छय-संदेहवयणो। सन्देहे यथा स्याद्वादः । इतरम्मि-'सिया य केलाससमा अणंतका' [उत्त० ९. ४८] इह णिच्छयवयणो।"-पृ० १७९ । _वैशेषिक संमत जीवकी-नित्यता का खंडन यह कहकर किया है कि यदि अरूपी होने के कारण आकाशकी तरह वह नित्य माना जाय तब तो बुद्धि भी अरूपी होने से नित्य माननी पडेगी-अत एव हेतु अनेकान्तिक है, पृ० २७ । स्थविर अगस्त्यसिंहका समय स्थविर अगस्त्य कब हुए यह एक विचारणीय प्रश्न है। पू. मुनिश्रीने जब सर्वप्रथम इस चूर्णिको देखा तब उनका जो अभिप्राय बना था वह यहां दिया जाता है। सर्वप्रथम अपने एक पत्रमें (ता.५-५-५१) अगस्त्यसिंहकृत दशवकालिकचूर्णिका मात्र उल्लेख किया है " उसके अनन्तर जब उन्होंने इ. १९६१ में अखिल भारतीय प्राच्यविद्या परिषद के जैन विभागके अध्यक्षपदसे दिये जानेवाले व्याख्यानमें निर्देश किया है वह इस प्रकार है “(३०) अगस्त्यसिंह (भाष्यकारोंके पूर्व)-ये स्थविर आर्य वज्रकी शाखामें हुए हैं। इन्होंने देशवैकालिक सूत्र पर चूर्णिकी रचना की है। यह चूर्णि दशवकालिक सूत्र के विविधपाठभेद एवं भाषाकी दृष्टिसे बहुत महत्त्व की है। इस चूर्णिमें भाष्यकार की गाथाओं का उल्लेख न होनेसे इसकी रचना भाष्यकारों के पूर्वकी प्रतीत होती है। इसमें कई उल्लेख ऐसे भी हैं जो चालू सांप्रदायिक प्रणाली से भिन्न प्रकारके हैं। आचार्य श्री हरिभद्रने अपनी वृत्तिमें कहीं भी इस चूर्णिका उल्लेख नहीं किया है। इसका कारण यही प्रतीत होता है। विद्वानोंकी भी ज्ञातियां होती हैं। इसमें कल्लिविषयक जो मान्यता चलती है और जिसका विस्तृत वर्णन तित्योगालिय पइण्णयमें पाया भी जाता है, इस विषय में-"अणागतमहं ण णिद्वारेज-जधा कक्की अमुको वा एवंगुणो राया भविस्सइ"-ऐसा लिखकर कल्किविषयक मान्यताको आदर नहीं दिया है। इस चूर्णिमें 'भणितं च वररुचिणा अंबं फलाणं मम दालिमं पियं' [पृ. १७३] इस प्रकार वररुचिके कोई प्राकृत ग्रंथका उद्धरण है। वररुचिका यह प्राकृत उद्धरण प्राकृत व्याकरण प्रणेता वररुचिके समयनिर्णय के लिए उपयुक्त होने की संभावना है। इस चूर्णिकी प्रति जेसलमेरके जिनभद्रीय ज्ञानभंडार में सुरक्षित है। इसका प्रकाशन प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी की ओरसे मेरेद्वारा संपादित होकर शीघ्र ही प्रकाशित होगा।" __इसके बाद जब उन्होंने इ. १९६६ में अपने नन्दीसूत्रचूर्णिके संपादन में अगस्त्यसिंहकृत चूर्णिका परिचय दिया वहां इस चूर्णि के विषयमें निम्न लिखा है १. आगमयुगका जैन दर्शन, पृ० ६४। २. यह स्पष्ट है कि स्थविर अगस्त्यसिंह, आचार्य उमास्वातिके बाद हुए हैं। वे तत्त्वार्थमूल और उसके भाष्यको भगवान् उमास्वातिके ___नामसे ही उद्धृत करते हैं-पृ० ८५ । ३. सर्वार्थसिद्धि १.५। ४. 'अणेगंतपक्ख' जैसे शब्दका प्रयोग मिलता है-पृ०२२ ॥ ५. ज्ञानांजलि पृ. २७० (गुजराती) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) प्रस्तावना "३. दशवकालिक चूर्णिके कर्ता श्री अगस्त्यसिंहगणी हैं। ये भाचार्य कौटिकगणान्तर्गत श्री वनस्वामीकी शाखामें हुए भी ऋषिगुप्त क्षमाश्रमण के शिष्य है। इन दोनों गुरुशिष्यों के नाम शाखान्तरवर्ति होनेके कारण पट्टावलियोंमें पाये नहीं जाते। कल्पसूत्रकी पट्टावलीमें जो श्री ऋषिगुप्तका नाम है वे स्थविर आर्य सुइस्तिके शिष्य होने के कारण एवं खुद वज्रस्वामीसे भी पूर्व होने के कारण श्री अगस्त्यसिंहगणिके गुरु ऋषिगुप्तसे भिन्न हैं। कल्पसूत्रकी स्थविरावलिका उल्लेख इस प्रकार है'थेरस्सणं अज्जसुहत्थिस्स वासिटुसगुत्तस्स इमे दुवालस थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिण्णाया होत्था। तं जहा थेरेय अज्जरोहण १........... इसिगुत्ते ९...................... स्थविर आर्य सुहस्ति श्री वज्रस्वामिसे पूर्ववर्ती होनेसे ये ऋषिगुप्त स्थविर दशकालिकचूर्णिप्रणेता श्री अगस्त्यसिंहके गुरु भी ऋषिगुप्त क्षमाश्रमणसे भिन्न हैं यह स्पष्ट है। आवश्यकचूर्णि, जिसके प्रणेताके नामका कोई पता नहीं है-उसमें तपसंयमके वर्णनप्रसंगमें आवश्यकचूर्णिकारने इस प्रकार दशवैकालिकचूर्णिका उलेख किया है तवो दुविहो-शो अन्मंतरो य। जघा दसवेतालियचुण्णीए चाउलोदणंत (चालणेदाणत) अलुद्धेण णिज्जरलु साधुसु पडिवायणीयं ८१८ आवश्यकचूर्णि विभाग २ पत्र ११७॥ आवश्यकचूनि के इस उद्धरणमें दशवैकालिकचूर्णिका नाम नजर आता है। दशवकालिक सूत्र के उपर दो चूर्णियां आज प्राप्त हैंएक स्थविर अगस्यसिंहप्रणीत और दूसरी जो आगमोद्धारक श्री सागरानन्दसूरिमहाराजने रतलामकी श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी जैन श्वेताम्बर संस्थाकी ओरसे संपादित की है जिसके कर्ताके नामका पता नहीं मिला है और जिसके अनेक उद्धरण याकिनी महत्तरापुत्र भाचार्य श्री हरिभद्रसरिने अपनी दशवकालिक सूत्रकी शिष्यहितावृत्तिमें स्थान स्थान पर वृद्धविवरण के नामसे दिये हैं। इन दो चूर्णिओं में से आवश्यकचूर्णिकारको कौनसी चूर्णि अभिप्रेत है, यह एक कठिनसी समस्या है। फिर भी आवश्यकचूर्णिके उपर उल्लिखित उद्धरणको गोरसे देखनेसे हम निर्णयके समीप पहुंच सकते हैं। इस उद्धरण में 'चाउलोदणंतं' यह पाठ गलत हो गया है। वास्तव में 'चाउलोदगतं' के स्थानमें मूलपाठ 'चालणेदाणंतं' ऐसा होगा। दशवैकालिकसूत्रकी प्राप्त दोनों चूर्णियोंको मैंने बराबर देखी है। किन्तु 'चाउलोदणंतं' का कोई उलेख नहीं पाया है और इसका कोई सार्थक संबंध भी नहीं है। दशवकालिकसूत्रकी अगस्त्यसिंहीया चूर्णिमें तपके निरूपणकी समाप्ति के बाद 'चालणेदाणिं' (पत्र-१९) ऐसा चूर्णिकारने लिखा है, जिसको आवश्यक चूर्णिकारने 'चालणे दाणंत' वाक्य द्वारा सूचित किया है।......अतः मैं इस निर्णय पर आया हूं कि आवश्यक चूर्णिकारनिर्दिष्ट दशवकालिकचूर्णि अगस्त्यसिंहीया ही है। और इसी कारण अगस्त्यसिंहीया चूर्णि आवश्यकचूर्णि के पूर्व की रचना है। आचार्य श्री हरिभद्रसरिने अपनी शिष्यहिता वृत्तिमें इस चूर्णिका खास तौरसे निर्देश नहीं किया है। सिर्फ रइवक्का (सं. रतिवाक्या) नामक दशवकालिक सूत्र की प्रथमचूलिकाकी व्याख्या (पत्र २७३-२)-“अन्ये तु व्याचक्षते"-ऐसा निर्देश करके अगस्त्यसिंहीयचूर्णिका मतान्तर दिया है। इस के सिवा कहीं पर भी इस चूर्णिके नाम का उल्लेख नहीं किया है।' इस अगस्त्यसिंहीया चूर्णिमें तत्कालवर्ती संख्यावन्ध वाचनान्तर-पाठभेद, अर्थभेद एवं सूत्र पाठोंकी कमी-बेशीके काफी निर्देश हैं बो अति महत्त्व के हैं। ___ यहां पर ध्यान देने जैसी एक बात यह है कि दोनों चूर्णिकारोंने अपनी चूर्णिमें दशवैकालिकसूत्रकी एक प्राचीन चूर्णि या वृत्तिका समानरूपसे उल्लेख रइवक्काकी चूर्णिमें किया है जो इस प्रकार है "पत्थ इमातो वृत्तिगतातो पदुद्देसमेत्तगाधाओ जहादुक्खं च दुस्समाए...पदमद्वारसमेतं वीरवरसासणे भणितं ॥५॥" -अगस्त्यसिंहीया चूर्णि दूसरी मुद्रित चूर्णिमें (पत्र ३५८) "एस्थ इमाओ वृत्तिगाधाओ। उक्तं च-" ऐसा लिखकर उपर दी गई गाथाएँ उद्घ कर दी हैं। इन उल्लेखोंसे यह निर्विवाद है कि दशवकालिकसूत्रके ऊपर इन दो चूर्णिओंसे पूर्ववर्ती एक प्राचीन चूर्णि भी थी जिसका दोनों चूर्णिकारोंने वृत्तिनामसे उल्लेख किया है।"-ज्ञानाजलि-पृ० ७८ (हिन्दी) पूज्य मुनिजीके लेखोंसे समयके विषयमें ये नतीजे निकलते हैं१ अगस्त्यचूर्णि भाष्योंके पूर्व रची गई थी। २ आवश्यकचूर्णिसे भी यह प्राचीन है। १. पृ. ३८ की टिप्पणी में पू. मुनिजीने आचार्य हरिभद्रका जो पाठ उद्धृत किया है उससे यह संभव प्रतीत होता है कि आ. हरिभद्रने इस चूर्णिको देखा हो। उन्हें चूर्णिनिर्दिष्ट पाठान्तर प्रतोंमें बहुत मिले अत एव उनकी व्याख्या करना उचित नहीं जंचा। Jain Education Intemational Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविर अगस्त्यसिंहकृत चूर्णि (१७) उनके ये लेख अगस्त्यसिंहीया चूर्णिके सम्पूर्ण सम्पादनके पूर्व लिखेगये थे। अत एव अब मुद्रितके प्रकाशमें समयविचारणा की जाय यह उचित होगा। स्वयं पू. मुनिजीने ही अपने सम्पादन में प्रस्तुत अगस्त्यसिंहचूर्णिमें जो उद्धरण हैं उनके मूलस्थानकी शोध करके जहां जहां मूल ग्रंथोंका निर्देश किया है उनमें पृ० २, पृ० २४ तथा पृ० २०० में कल्पसूत्रभाष्यकी-क्रमसे गा० १४९, गा० १७१६' तथा ११६९ होनेका निर्देश किया है। तथा पृ.८४ में मुद्रित हो जानेके बाद अपने हाथसे कल्पभाष्यकी गा. ४९४४ उद्धृत होनेका लिखा है। तथा व्यवहारभाष्यकी गा० २८९ भी प्रस्तुतके पृ० ९८ में उद्धृत है-ऐसा निर्देश किया है। आ० हरिभद्रमें दशवैकालिकनियुक्तिकी जो अधिक गाथाएं मिलती हैं उन्हें यदि मूलभाष्यकी मानी जायँ तब यह भी मानना होगा कि प्रस्तुत चूर्णिमें जो ऐसी गाथाएं उद्धृत हैं वे भी भाष्यकी है-इसके लिए देखें पृ० २२ और २५। यहां पृ० २२ में जो हरिभद्रसंमत नियुक्तिकी मानी गई है वह वस्तुतः सन्मति (१.१८) की गाथा है। यह भी ध्यान देने की बात है कि आचार्य हरिभद्र जिन्हें भाष्यकी गाथा मानते हैं उसे प्रस्तुतमें नियुक्ति मानी गई हैं-इसके लिए देखें पृ० ९८, गाथा १४६ । ____ आवश्यकमूलभाष्य भी प्रस्तुत चूर्णिमें (पृ० २६) उद्धृत है-ऐसा संकेत पू. मुनिजीने दिया है। इस गाथाको आचार्य हरिभद्रने मूलभाष्य कहा है। किन्तु वह गाथा विशेषावश्यक भाष्य (२९३६) में उपलब्ध है। इसके प्रकाशमें पू. मुनिजी अपना पूर्वोक्त अभिप्राय अवश्य बदल देते ऐसा नहीं कहा जा सकता। क्योंकि कल्पभाष्यके प्रारम्भमें ही टीकाकारका यह स्पष्टीकरण है कि प्रस्तुतभाष्य तथा व्यवहारभाष्यमें भाष्य और नियुक्तिकी गाथाएँ मिलकर एक ग्रन्थ हो गया है। अत एव दोनोंका पृथक्करण करना सरल नहीं। फिर भी यत्र तत्र टीकाकारने नियुक्तिका निर्देश किया है। विशेषावश्यककी-वह गाथा भी प्राचीन होनेका संभव माना जा सकता है। अभिप्राय नहीं बदलनेका यह भी एक कारण हो सकता है कि प्रस्तुत चूर्णिमें जहां अनेक गाथाएँ उद्धृत की गई है वहां भाष्योंकी मानी जाने वाली गाथाओंकी संख्या अत्यल्प है। अन्य चूर्णिओंमें बहुतायतरूपसे भाष्य गाथाएं उद्धृत हैं जब कि यहां भाष्योंमें विद्यमान ऐसी पांच ही गाथाएँ हैं। पू. मुनिजी अपना अभिप्राय यदि बदलते तो और कारणोंकी खोज करके ही ऐसा मुझे लगता है। मेरा यह अभिप्राय भ्रान्त भी हो सकता है। किन्तु पू. मुनिजीकी जो विधान करनेकी शैली थी उसे देखते हुए अभी तो यही जंचता है। __ अब यह देखा जाय कि आवश्यकचूर्णि से मी पूर्व यह प्रस्तुत अगस्त्य सिंहकृतचूर्णि है या नहीं। भाष्य की पूर्ववर्ती मानने पर आवश्यकचूर्णिके पूर्ववर्ती होने में संदेह का स्थान नहीं होना चाहिए किन्तु प्रस्तुत संस्करण में आवश्यकचूर्णिके उद्धरण हैं ऐसा निर्देश पू. मुनिजीने किया है-पृ. ५०, ५१ और ५४ । अत एव यह जांचना जरूरी है कि वस्तुस्थिति क्या है। इन तीनों ही स्थानोंमें "जहा आवस्सए" ऐसी ही सूचना मूल चूर्णिमें है। कहीं भी आवश्यक चूर्णिमें उन कथानकों के होने की बात कही गई नहीं है। पूरी कथा के लिए 'आवश्यक' देखनेको कहा गया है। अत एव उससे अगस्त्यसिंह को वहां मुद्रित आवश्यकचूर्णि ही अभिप्रेत है ऐसा नहीं कहा जा सकता फिर भी उन स्थानोंमें कौंसमें पू. मुनिजीने आवश्यकचूर्णि के पृष्ठोंका निर्देश किया है उसका इतना ही अर्थ है कि उस उस कथा के विषयमें चूर्णि देखी जाय। इसका यह अर्थ नहीं कि वहां अगस्त्यसिंह को आवश्यकचूर्णि जो मुद्रित है वही अभिप्रेत है। जिस प्रकार प्रस्तुत दशवकालिक की प्राचीन वृत्ति थी उसी प्रकार भावश्यककी भी प्राचीन वृत्ति होना संभव है जिसको लक्ष्य करके आचार्य अगस्त्यने आवश्यक देखने को कहा हो। ___भाष्यपूर्व यदि अगस्त्यसिंह को माना जाय तब उनका समय नियुक्ति के समय के बाद और भाष्यके पूर्व अर्थात् ई० छठी शती के मध्यमें ठहरता है। अगस्त्यसिंहकी चूर्णिमें अन्यग्रन्थोंके या व्यक्तिओंके बो निर्देश मिलते हैं उनमें-तत्त्वार्थ (पृ. १, १६, १९, ८५ इत्यादि), कप्प (पृ. २), तंदुलवेयालिय (पृ. ३), भदियायरिय (पृ. ३), दत्तिलायरिय (पृ. ३), पंचकप्प (पृ. २३), वैशेषिक (पृ. २३), गोविंदवाचक (पृ. ५३), अज्जवर (पृ. ५१), कोकास (पृ. ५४), पंचजातकसताणि (पृ. ६८), कक्की (कल्की) (पृ. १६६), बडुकहा (पृ. १९९) इत्यादि ऐसे नहीं है जो उक्त समयके बाधक बन सकें। प्रस्तुत ग्रन्थके अन्तमें दिये गये परिशिष्टोंका निर्माण श्री रमेशचन्द मालवणियाने किया है। एतदर्थ मैं उनको धन्यवाद देता हूँ। ला. द. विद्यामंदिर, अहमदाबाद-९ दलसुख मालवणिया ता.१-१०-७२ ) १. यद्यपि इस गाथाको चूर्णिमें तो ओघनिज्जुत्ति की कहा गया है -पृ० २४ । २. संभव यह भी है कि वे बदल देते क्यों कि मूलमें जहां 'पंचकप्पे' शब्द है (पृ. २३) वहाँ उन्होंने टिप्पणमें ‘पञ्चकल्पभाष्ये इत्यर्थः' ऐसा टिप्पण जोडा है। किन्तु यहाँ भी कोई 'पंचकल्प' को सूत्र न समझ ले इसी उद्देशसे 'भाष्य'शब्दका निर्देश किया है। ३. बृहत्कल्पभाष्य टीका पृ०२। Jain Education Intemational Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थानुक्रमः १-२७२ ३६-४८ ४९-६४ ६५-९७ ९८-१२५ प्रस्तावना ग्रन्थानुक्रमः दसकालियसुत्तं पढमं दुमपुफियज्झयणं बिइयं सामण्णपुग्वगजायणं तइयं खुडियायारकहजायणं चउत्थं छजीवणियज्झयणं पंचमं पिंडेसणज्झयणं-पढमो उद्देसमो " , -बिइओ उद्देसओ छटुं महइमायारकहज्मयणं-अवरनाम-धम्मत्यकामज्वर्ण सत्तमं वकसुद्धिमझयणं अट्टमं आयारप्पणिहिमायणं णवमं विणयसमाहिमायणं-पढमो उहेसओ " -बिडो उद्देसमो , , -तइमो उदेसओ " , -चउत्थो उडेसो दसमं सभिक्खुमायणं पढमा रहवका चूलिया बितिया विवित्तचरिया चूलिया चुण्णिकारपसत्थिया पढम परिसिटुं-दसकालियसुत्तगाहाणुकामो बीयं परिसिटुं-दसकालियनिजुत्तिगाहाणुक्मो - तइयं परिसिटुं-सकालियचुणितग्गयगंयंतराववरणाणुकमो चउत्थं परिसिटुं-दसकालियसुत्त-चुण्णिवग्गयविसेसनामाणुकमो पंचम परिसिटुं-दसकालियचुण्णितग्गयवक्खात-अवक्खातविसिट्ठसहाणुकमो सुद्धिपत्तयं १२५-१३७ १३८-१५८ १५९-१७९ १८०-२०१ २०२-२११ २११-२१८ २१९-२२३ २२४-२२९ २३०-२४४ २४५-२६० २६१-२७१ २७१-२७२ २७३-२७७ २७८-२८० २८१-२८२ २८३-२८४ २८५-२९४ २९५-२९६ Jain Education Intemational Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ णमो त्थु णं महइमहावीरवद्धमाणसामिस्स ॥ सिरिसेन्जंभवथेरविरइयं दसकालियसुत्तं। सिरिभद्दबाहुसामिविरइयाए णिजुत्तीए सिरिवइरसामिसाहुन्भवसिरिअगत्थियसिंहथेरविरइयाए चुण्णीए य विभूसियं । [पढमं दुमपुफियज्झयणं] ॥ ॐ नमः श्रुतदेवतायै ॥ . अरहंत-सिद्ध-विदु-वायणारिए णमिय सव्वसाधू य । दसकालियत्थमुवणीयमंगला सुणह निविग्धं ॥१॥ दसकालियत्थवित्थरवक्खाणाहिगारोऽयं । तस्स इमं पढमं सिलोगसुत्तं १. धम्मो मंगलमुक्कट्ठ, अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तं णमंसंति, जस्स धम्मे सदा मणो ॥ १ ॥ १. धम्मो मंगलमुक्कट्ठ० ति । एयस्स अत्थवित्थारणावकासे भण्णति-सव्वण्णुप्पणीयं संसारनित्थरणसमत्थं सत्थमिमं ति परमं निस्सेयसं । 'बहुविग्घाणि पुण निस्सेयसाणी'ति विग्धोवसमणत्थमज्झत्थकाला बहुविहा जोगा उद्देस-कालादिविहयो य कीरति । वक्खाणकाले पुण सविसेसमुण्णीयंति ति गुरवो सुहणिसेज्जोवगया पउत्तविहिवित्थरे सुस्सूसाभिमुहे सिस्से आमंतेऊण भणंति-सोम्ममुहा ! मंगलादीणि सत्थाणि मंगलमज्झाणि मंगलावसाणाणि । सव्वसत्थसामण्णो धम्मोऽयमिति बहुवयणनिद्देसो । मंगलपरिग्गहिया य सिस्सा अवग्गहेहा-ऽवाय-10 धारणासमत्था सत्थाणं पारगा भवंति, ताणि य सत्थाणि लोगे विरायंति वित्थारं च गच्छंति, तम्हा आदिमज्झा-ऽवसाणेसु मंगलारंभो । इदाणि य "तिण्ह वि जो जस्स उवयोगो" [ ] तं विसेसिजति-आदिमंगलेण औरंभप्पभितिं णिव्विसाया सत्थं पडिवजंति, मज्झमंगलेण अव्वासंगेण पारं गच्छंति, अवसाणमंगलेण सिस्स-पसिस्ससंताणे पंडिवाएंति । इमं पुण सत्थं संसारविच्छेयकर ति सव्वमेव मंगलं तहा वि विसेसो दरिसिजति-आदिमंगलमिह “धम्मो मंगलमुक्कट्ट" [अ० १ गा० १], धारेति संसारे पडमाणमिति धम्मो ए क परमं समस्सासकारणं ति मंगलं । मज्झे धम्मत्थकामपढमसुत्तं-“णाण-दंसण-संपण्णं, संजमे य तवे य" [अ० ६ गा० ], एवं सो चेव धम्मो विसेसिजति, यथा-"सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः" [तत्त्वा० अ० १.१] इति । अवसाणे आदि-मज्झदिह्रविसेसियस्स फलं दरिसिजति-"छिंदित्तु जाती मरणस्स बंधणं, उवेति भिक्खू अपुणागमं गति" [अ० १० गा० २१], एवं सफलं सकलं सत्थं ति सफलमज्झयणादिपरिस्सममंते णिदरिसंतेण भणितं भगवता । तं पुण मंगलं चउव्विहं णामादि आवस्सगादिअणुक्कमेण परुवेतव्वं । समाणसत्थभणियस्स भवति आदि-20 गहणेण अणुकरिसणं, जहा-“भूवादयो धातवः" [पा० १.३..]। भणितं च-"आवस्सगस्स दसकालियस्स तह उत्तरज्झमायारे ।" [आव० नि० गा० ८५] । तत्थ भावमंगलं पंचणमोकारो, अवा “वीरं कासवगोत" [ __] सव्वाणि वा थुतिवयणाणि । अहवा भावमंगलं गंदी, सा तहेव चउन्विहा, तत्थ वि भावणंदी पंचविहं नाणं ॥ १ मती अपा० ॥ २ आरम्भात् प्रभृति निर्विषादाः ॥ ३ अव्यासङ्गेन ॥ ४ प्रतिवाचयन्ति ॥ ५परिश्रमम् अन्ते निदर्शयता ॥ ६°स्सममंते मूलादर्शे ॥ ७ प्ररूपयितव्यम् ॥ ८ अनुकर्षणम् ॥ Jain Education Interational Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [ पढमं दुमपुफियज्मयणं ___ तं सवित्थरोदाहरणं पसंगेण परवेउं णियमिजति-इहं सुयनाणेणं अहिगारो, जम्हा सुयनाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य । वक्खाणाहिगारोऽयमिति भण्णति - उद्दिट्ठ-समुद्दिट्ठ-अणुण्णातस्स अणुयोगो भवति तेण अहिगारो। सो चउन्विहो, तं जहा - चरणकरणाणुओगो सो य कालियसुयादि १ धम्माणुओगो इसिभासियादि २ गणियाणुओगो सूरपण्णत्तियादि ३ दवियाणुओगो दिद्विवादो ४ । स एव समासओ दुविहो-पुंहत्ताणुओगो 5 अपुहत्ताणुओगो य । जं ऐकतरम्मि पट्ठविते चत्तारि वि भासिजंति एतं अपुहत्त, तं पुण भट्टारगाओ जाव अजव इरा । ततो आरेण पुहत्तं जत्थ पत्तेयं पभासिज्जति । भासणाविहिपुहत्तकरणं अजरक्खिय-पूसमित्ततिकविंझादि विसेसित्ता भण्णति । इहं चरणकरणाणुओगेण अधिकारो । सो इमेहिं अणुओगद्दारेहिं अणुगंतव्वो। तं० निक्खेवेगट्ठ १-२ णिरुत्त ३ विहि ४ पवित्ती य ५ केण वा ६ कस्स ७।। तद्दार ८ भेय ९ लक्खण १० तदरिह ११ परिसा य १२ सुत्तत्थो ॥१॥ [कल्पभाष्ये गा० १४९ पत्र ४६] 10 एत्थ जं “केण वा कस्स" ति एतेण पसंगेण कप्पे जहोववण्णियगुणेण आयरिएण सव्वस्स सुयनाणस्स भाणियव्वो अणुओगो विहिरींत्तपमुहभूयं ति, विसेसेण दसकालियस्स, ईमं पुण पट्ठवणं पडुच्च तस्स पत्थुओ। जदि दसकालियस्स अणुओगो दसकालियं णं किं अंग अंगाइं ? सुयक्खंधो सुयक्खंधा ? अज्झयणं अज्झयणा ? उद्देसो उद्देसा? दसकालियं णं नो अंगं नो अंगाई, सुयक्खंधो णो सुयक्खंधा, णो अज्झयणं अज्झयणा, नो उद्देसो उद्देसा॥ __दसकालियमिति संखाणेण कालेण य निद्देसो, तम्हा दस णिविखंविस्सामि, कालं णिक्खिविस्सामि, सुयं 15 निक्खिविस्सामि, खंधं णिक्खिविस्सामि, अज्झयणं निक्खिविस्सामि, "उद्देसं निक्खिविस्सामि । तत्थ पढमदारं दस, ते पुण एक्कादिसंकलणाते निप्फजंति, तम्हा एक्कस्स निक्खेवो कातव्यो ततो दसण्हं । एक्कस्स दारगाधा Bणामं ठवणा दविए माउयपद संगहेक्कए चेव । पज्जव भावे य तहा सत्तेए एक्कको होति ॥१॥ णाम-ठवणातो जहा आवस्सए । दव्वेक्कगं जहा एवं दव्वं सचित्तमचित्तं मीसं वा । सञ्चित्तं जहा एक्को 20 मणूसो, अञ्चित्तं जहा 'करिसावणो, मीसं जहा पुरिसो वत्था-ऽऽभरणभूसितो । मोतुयपदेक्कगं तं जहा- उप्पण्णे तिवाभूते ति वा विगते ति वा, 'एते दिट्टिवाते मातुयापदा । अहवा इमे माउयापदा-अ आ एवमादि । संगहेक्कगं जहा दव्वं पदत्थमुद्दिस्स एक्को सालिकणो साली भण्णति, जातिं तु पदत्थमुद्दिस्स बहवो सालयो साली भण्णति, जहा निप्फण्णा साली, ण य एक्कम्मि कणे निष्फण्णे निप्फण्णं भवति । तं संगहेक्कगं दुविहं-आदिट्ठमणादिटुं च । आदिटुं नाम विसेसितं, अणादिहँ अविसेसियं । अणादिटुं जहा साली, आदिटुं कलमो । पज्जवेक्ककं पि 25 दुविहं-आदिट्ठमणादिद्वं च । पज्जादो गुणादिपरिणदी । तत्थ अणादिद्वं गुणे त्ति, आइ8 वण्णादि । भावेक्ककमवि अणादिट्ठमादि[{ च] । अणादिद्वं भावो, आदिटुं ओदइओ [ओ]वसमिओ खइओ खओवसमिओ पारिणामितो। ओदतियभावककं दुविहं-आदिट्ठमणादिटुं च । अणादिटुं ओदयिओ भावो, आदि8 पसत्थमप्पसत्थं च । पसत्थं तित्थगरणामोदयादि, अप्पसत्थं कोधोदयादि । ओवसमियस्स खझ्यस्स य अणादिट्ठा-ऽऽदिट्ठभेदो सामण्णविसेसस्स अभावे न संभवति । "केति खयोवसमियं एवं चेव इच्छंति, तं ण भवति, जेण सम्मदिट्ठीण मिच्छदिट्ठीण य १ नियम्यते ॥ २ पृथक्त्वानुयोगः अपृथक्त्वानु गश्च ॥ ३ एकतरस्मिन् प्रस्थापिते ॥ ४ भट्टारकः-भगवान् महावीरः । ५ अर्वाग्-अनन्तरम् ॥ ६ भाषणाविधिपृथक्त्वकरणं आर्यरक्षित-पुष्यमित्रत्रिक विन्ध्यादीन् ॥ ७ दुर्बलिकापुष्यमित्र १ घृतपुष्यमित्र २ वस्त्रपुष्यमित्र ३ इति पुष्यमित्रत्रिकम् ॥ ८ विधिसूत्रप्रमुखभूतमिति ॥ ९इमा पुनः प्रस्थापना-प्रारम्भं प्रतीत्य ॥ १० निक्षेप्स्यामि ॥ ११ उद्देसो मूलादर्शे ॥ १२ एकादिसङ्कलनया ॥ १३ °का भणिया वृद्धविवरणे ॥ १४ कार्षापणः ॥ १५ मातृकापदैककम् ॥ १६ भूतशब्दोऽत्र सद्भतार्थवाचकः, ध्रुव इति योऽर्थः । धुवे ति वा इति वृद्धविवरणे पाठः॥ १७ दृष्टिवादसत्कमातृकापदपरिचयार्थ समवायाङ्गसूत्रे ४६ सूत्रं द्रष्टव्यम् पत्र ६९॥ १८ आदिष्टं अनादिष्टं च ॥ १९ केचित् ॥ २० "इयाणि उपसमिय खइय-खओवसमिया-ते तिष्णि वि भावेगा णियच्छणस्स (णिच्छयणयस्स) पसत्था चेव, एतेसिं अपसत्थो पडिवक्खो णस्थि । कम्हा? जम्हा मिच्छट्टिीण केइ कम्मंसा खीणा केई उवसंता, खओवसमेण य कम्माण बुद्धिपाडवादिणो गुणा संता वि तेसिं विवरीयगाहित्तणेणं उम्मत्तवयणभिव अप्पमाणं चेव, तम्हा उवसमिय-खयिय-खओक्समियभावा सम्मदिद्विणो चेव लन्भति" इति वृद्धविवरणे॥ Jain Education Intemational Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 सुत्तगा० १ णिज्जुत्तिगा० १-३] दसकालियसुत्तं । खयोवसमलद्धीओ बहुहा संभवंति, तम्हा दुविहत्तणं चेव । पारिणामिओ- अणादि[ट्ठाऽऽदिह]पारिणामियौवेक्ककं सामण्ण-विसेसभेदेण तहेव । जं आदिट्टं तं सादियपारिणामियं अणादियपारिणामियं च । तत्थ सादियपारिणामियऐक्ककं कसायपरिणयो जीवो कसायो, अणादियपारिणामियएक्ककं जीवो जीवभावपरिणयो सता एवमादि।। ___इह कयरेण ऍक्केण अहिकारो ?, सव्वण्णुभासिए का एक्कीयमयविचारणा ? तहा वि वक्खाणभेदपदरिसणत्थं कित्तिनिमित्तं गुरुणं भण्णति - भदियायरिओवएसेणं भिन्नरूवा एक्कका दससद्देण संगिहीया भवंति । [ति] संगहेक्ककेण अहिकारो, दत्तिलायरिओवएसेण सुयनाणं खयोवसमिए भावे वट्टति ति भावेक्ककेण अहिगारो, उभयमविरुद्धं, भावो एवं विसेसिज्जति ॥१॥ दुयादिपरूवणावसरे दस परूविजंति, एवं सेसं परूवियं भवति, तम्हा दसगनिक्लेवो । सो छव्विहो, तं जहा Lणाम ठवणा दविए खेत्ते काले तहेव भावे य। एसो खलु णिक्खेवो दसगस्स उ छविहो होति ॥२॥] [णामं ठवणा दविए० गाधा ।] णामदस ठवण० दव्व० खेत्त० काल० भावः । णाम-ठवणाओ गताओ । दव्वदस सच्चित्तादि जहा एक्कतो । खेत्तदस आकासपदेसा दस । कालदस "बोला मंदा". जहा तंदुलवेयालिए [गा० ३१]। भावदस एए चेव दसऽज्झयणा ॥ २॥ काले त्ति दारं तत्थ गाधा दव्वे अद्ध अहाउय उवक्कमे देस कालकाले य । तह य पमाणे वण्णे भावे पगयं तु भावेणं ॥३॥ 15 एसा सव्वा गाहा विभासियव्वा जहा सामाइयनिजुत्तीए [गा० ६६० हा० वृ० पत्र २५७-१ चूर्णि भा० ।। पत्र ३५० ] तहा इहं पि । दिवस[प]माणकालेणाहिगारो, तत्थ वि ततियपोरुसीए पत्थुयं ति तीए अहिगारो ॥३॥ दस कालो यति वणियं । उभयपदनिप्फण्णं नामं दसकालियं । तत्थ कालादागयं विसेसिज्जतिचोदसपुस्विकालातो भगवतो वा पंचमातो पुरिसजुगातो, “तत आगतः" [पाणि० ४. ३. ७४] इति ठप्रत्ययः, कालं वा सव्वपन्जाएहिं परिहीयमाणमभिक्ख कयं एत्थ "अधिकृत्य कृते ग्रन्थे" [पाणि० ४. ३. ८७ ] स एव ठप्रत्ययः, तस्य 20 इयआदेशः, दशकं अज्झयणाणं कालियं निरुत्तेण विहिणा ककारलोपे कृते दसकालियं । अहवा वेकालियं मंगलत्थं पुव्वण्हे सत्यारंभो भवति, भगवया पुण अजसेवभवेणं कहमवि अवरण्हकाले उवयोगो कतो, कालातिवायविग्घपरिहारिणा य निज्जूढमेव, अतो विगते काले विकाले दसकमज्झयणाण कतमिति दसवेकालियं । चउपोरिसितो सज्झायकालो तम्मि विगते वि पढिज्जतीति विगयकालियं दसवेकालियं । दसमं वा वेतालियोपजातिवृत्तेहिं णियमितमज्झयणमिति दसवेतालियं । इदाणिं सुयक्खंध-ऽज्झयणुद्देसा सविसेसमणुयोगद्दारविहिणा भाणियव्वा । किंच-25 अवरण्हकाले णिज्जूढं ति निज्जूहणं भणियं, दसनिक्लेवेण परिमाणमवि, तह वि कत्तारं हेउमागमसुद्धिमज्झयणपरिमाणणियमा मत्थाणुपुविनियमं च संकलिंतेहिं भण्णति १°भावेकेक मूलादर्शे ॥ २°एकेक मूलादर्श ॥ ३ सदा ॥ ४ एक्केकेण मूलादर्शे ॥ ५ "बाला १ मंदा २ किया ३ बला य ४ पन्ना य ५ हायणी चेव ६ । पन्भार ७ मम्मुही ८ सायणी य ९ दसमा उ कालदसा १०॥” इति पूर्णगाथा। दशवैकालिकसूत्रनिर्युक्त्यादर्शेषु तन्दुलवैतालिके च "बाला किडा मंदा" इति पाठ उपलभ्यते, श्रीहरिभद्रसूरिचरणैरेनमेव पाठमनुसृत्य व्याख्यातमस्ति । किश्वचूर्णिकद-वृद्धविवरणकृत्सम्मत: “बाला मंदा किडा" इति पाठस्तु नोपलभ्यते क्वचिदपि ॥ ६ परिहीयमाणममीक्ष्य कृतम् ॥ ७ कालातिपातविघ्नपरिहारिणा च नियूंढमेव ॥ ८ पठ्यत इति ॥ ९ अपराह्नकाले नियूढमिति निर्वृहणम् ॥ १० सङ्कलयद्भिः॥ Jain Education Intemational Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पढमं दुमपुफियज्झयणं जेण व जं व पडुच्चा जत्तो जावंति जह य ते ठविया। सो तं च तओ ताणि य तहा य कमसो कहेयव्वं ॥४॥ जेण व जं व पडुच्चा० गाधा । जेणं ति कत्ता निद्दिट्ठो, गोरवठ्ठावणनिमित्तं सिस्साणं, 'महापुरिसेणं भणियं' ति आयरेण सत्थं पढंति । 5 वद्धमाणसामिस्स सामायियकमेण निग्गमे भणिये, तयणु गणहराणं सुधम्मसामि-जंबुणामप्पभवाण य । पभवस्स कयाइ चिंता जाया - को अव्वोच्छित्तिसमत्थो गणहरो होजा ? । सगणे कओवओगो अपेच्छमाणो संघे य घरत्येसु उवओगो कतो । उवउत्तो पासति रायगिहे सेजंभवं बंभणं जण्णे दिक्खियं, 'ऎसेवऽत्थु' ति अवधारए । रायगिहं गंतुं संघाडगं वावारेति -- अज्जो ! जण्णवाडं भिक्खवाए गंतुं धेम्मलामेह, तत्थ तुन्भे अतिच्छाविजिहिह ताहे भणेजह “अहो ! तत्तं न ज्ञायते" । तेहिं जहासंदिट्ठमणुट्ठियं । तेण 10 सेज्जं भवेण दारमूलट्ठिएणं सोउं चिंतियं -एते उवसंता तवस्सिणो असंतं न वयंतीति । अज्झावगमुवगंतुं भणति-किं तत्त्वम् । सो भणति-वेदास्तत्त्वम् । तेण असिं कडिऊण भणियं-कहय, सीसं ते छिदामि जति ण कहेसि । उवज्झाएण भणियं - "एयं परं सीसच्छेदे कहेतव्वं" ति एस पुण्णो समयो तं कधेमि-आरुहंतो धम्मो तत्त्वम् , जेण एयस्स जूवस्स हेट्ठा रयणमयी अरहंतपडिमा वेदमंतेहिं धुव्वति । ताहे सो उवज्झायस्स पाएसु पडिउं जन्नोवक्खेवं च से दातुं निग्गतो ते साधुणो गवेसंतो [गओ] आयरियसगासं । गुरवो साधू य वंदित्ता 15 भणति-को धम्मो ? । आयरिया उवयुत्ता- 'इमो सो' त्ति णातो । साहुधम्मे कहिते पव्वतितो, अणुक्कमेण चोदसपुवी जातो । जेण व एतं गतं । जदा पव्वइतो तदा से भज्जा गम्भिणी, तं दर्दू लोगो सयणो य परितप्पति-तरुणी अपुत्ता य, किंचि वा ते पोट्टे ?-त्ति पुच्छंति । सा भणति - मणागं लक्खेमि । समते दारतो जातो । गते बारसाहे सयणेण नामं कतं जम्हा पुच्छिते ते 'मणागं' ति भणियं तम्हा मणगो। अट्ठवरिसितो जातो मायरिं भणति-को मम पिता ? । सा 20 भणति-सेयंपडतो पव्वइतो । सो णासित्ता पिउपासं पट्टितो । तदा आयरिया चंपाए विहरति । सो चंपं गतो। गुरूहि सण्णाभूमिं निग्गतेहिं दिवो । वंदिता य तेणं । दिढे गुरूण सिणेहो जातो, तस्स वि दारगस्स । आभट्ठो गुरूहिं- भो दारग! कतो आगम्मति ? । सो भणति-रायगिहाओ। तत्थ तुमं कस्स पुत्तो णत्तुओ वा । भणति-सेजंभवो बंभणो तस्स अहं पुत्तो, सो पव्वतितो। तेहिं भणियं-तुमं किं आगतो? । भणति-पव्वइस्सं, तं ता तुन्भे जाणही । ते भणंति-जाणामो । आह-सो कहिं ? । ते भणंति -सो मम मित्तो सरीरभूतो, पव्वयाहि 25 मम मूले, तं पि पेक्खिहिसि । तेण भणियं -एवं होउ । पव्वावितो य । आयरिया आगंतुं पडिस्सए इरियापडिक्ता आलोएंति-सच्चित्तो पडुपण्णो अज्जो सो (अजेसो) पव्वावितो । गुरवो उवउत्ता- एयस्स किं आउं? । णायंछम्मासा । अद्धितीकया चिंतेंति-इमस्स थोवं आउं, आयाराती गंथा समुद्दभूया आयतजोगा य, एस तवस्सी अणायसिद्धंतपरमत्थो कालं करेहिति, किं कायव्वं १ । चिंतियं च णेहिं-चैरिमो चोदसपुव्वी अवस्सं निज्जूहति, १जावतिय वी.। एनं पाठमेदमनुसृत्यैव वृद्धविवरणे व्याख्यानं वर्तते । तथाहि - "जेण निज्जूढं सो भाणितव्यो १ ज वा पडुश्च निज्जूढं २ [जत्तो वा णिज्जूढाणि ३] जइ वा णिज्जूढाणि ४ जाए वा परिवाडीए अज्झयणाणि ठवियाणि ५, पंच कारणाणि भाणियव्वाणि ।" इति ॥ २ अव्यवच्छित्तिसमर्थः ॥ ३ गृहस्थेषु ॥ ४ एस वऽत्थु मूलादर्श । एष एवास्तु इति अवधारयति ॥ ५ धर्मलाभयत । ६ अतिक्रामयिष्यथ ॥ ७ स्तूयते ॥ ८ यज्ञोपक्षेपम् ॥ ९ समये दारको जातः ॥ १० अष्टवार्षिको जातः मातरं भणति ॥ ११ श्वेतपटः प्रव्रजितः । स नष्ट्वा पितृपार्श्व प्रस्थितः ॥ १२ आभाषितः ॥ १३ सचित्तः पटुप्रज्ञ आर्यः स (अद्यैषः) प्रवाजितः ॥ १४ अधृतीकृतः ॥ १५ “तं चोदसपुब्बी कहिं पि कारणे समुप्पण्णे णिज्जूहइ, दसपुव्वी पुण अपच्छिमो अवस्समेव णिज्जूहइ, ममं पि इमं कारणं समुप्पणं तो अहमवि णिजहामि" इति वृद्धविवरणे हारिभद्रीवृत्तौ च ॥ Jain Education Interational Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० १ णिज्जुत्तिगा० ४-१२] दसकालियसुत्तं । चोदस(दस)पुव्वी वि कारणे, मम वि इमं कारणं- एयस्स अणुग्गहो तो निज्जूहामि । तहेव आढत्ता निज्जूहिउँ । ते वि दस वि अज्झयणा निज्जूहिजंता विकाले निज्जूढा वावसेसे दिवसे तेण दसवे] कालियं ति ॥४॥ जं व पडुच्च [त्ति] गतं । जत्तो त्ति दारं, एत्थ निजुत्तिगाधाओ आयप्पवायपुव्वा णिज्जूढा होइ धम्मपण्णत्ती। कम्मप्पवायपुव्वा पिंडस्स तु एसणा तिविधा ॥५॥ सच्चप्पवातपुव्वा णिज्जूदा होति वक्कसुद्धी उ । अवसेसा णिज्जूढा णवमस्स उ ततियवत्थूतो ॥ ६॥ बितिओ वि य आदेसो गणिपिडगातो दुवालसंगातो। एवं किर णिज्जूढं मणगस्स अणुग्गहट्ठाए ॥७॥ आयप्पवायपुव्वा० गाहा । सच्चप्पवात । बितिओ वि य आदेसो । आयप्पवायपुव्वातो 10 धम्मपण्णत्ती निज्जूढा, सा पुण छजीवणिया। कम्मप्पवायपुवाओ पिंडेसणा । आह चोदगोकम्मप्पवायपुव्वे कम्मे वणिजमाणे को अवसरो पिंडेसणाए १ । गुरवो आणति - असुद्धपिंडपरिभोगो कारणं कम्मबंधस्स, एस अवकासो । भणियं च पण्णत्तीए- "आहाकम्मं णं भंते ! भुंजमाणे कति कम्म०" [भग० श० । उ० ९ सू० ७९] सुत्तालावओ विभासितव्वो ॥५॥ सच्चपवायाओ वकसुद्धी । अवसेसा अज्झयणा पञ्चक्खाणस्स ततियवत्थूतो ॥६॥ 15 बितियादेसो बारसंगातो जं जतो अणुरूवं ॥ ७॥ जत्तो ति गतं । जावन्ति दारं, तं निद्दिसति-दुमपुफियादीणि सभिक्खुकावसाणाणि दस रतिवक्कचूलियातो चूलुत्तरचूलातो ॥ जावंति गतं । जह ठविय ति दारं, एत्थ इमाओ पंच निज्जुत्तिगाहाओ पढमे धम्मपसंसा सो य इहेव जिणसासणम्मि त्ति १। बितिए धितीए सक्का काउंजे एस धम्मो त्ति २॥८॥ ततिए आयारकहा उ खुडिया ३ आयसंजमोवातो। तह जीवसंजमो वि य होति चउत्थम्मि अज्झयणे ४ ॥९॥ भिक्खविसोधी तव-संजमस्स गुणकारिया तु पंचमए ५। छठे आयारकहा महती जोग्गा महयणस्स ६॥१०॥ वयणविभत्ती पुण सत्तमम्मि ७ पणिहाणमट्ठमे भणियं ८। णवमे विणओ९समे समाणियं एस भिक्खु त्ति १० ॥११॥ दो अज्झयणा चूलिय विसीययंते थिरीकरणमेगं १। बितिए विवित्तचरिया असीयणगुणातिरेगफला २॥१२॥ पढमे धम्मपसंसा०। पंच वि संहियाणुक्कमेण उच्चारेत्ता अणुपुव्वेणं अत्थो विवरिज्जति–णवधम्मस्स 30 असम्मोहत्थं पढमज्झयणे धम्मो पसंसिजति, सो य इहेव जिणसासणे एवं णियमिजति १ । बितिए पहाणं एवं धम्मकारणं ति धितिपरूवणं, कधं ? “जस्सै धिती तस्स तवो.”[ ]२॥८॥ १°णायरे वी० ॥२ “जस्स धिती तस्स तवो जस्स तवो तस्स सोग्गई सुलहा । जे अधितिमंतपुरिसा तवो वि खलु दुल्लहो तेसि ॥" इति पूर्णा गाथा वृद्धविवरणे ॥ Jain Education Intemational Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पढमं दुमपुफियज्झयणं आयारे धिति करणिज त्ति ततियज्झयणं खुड्डियायारो भणितो ३ । आयारो पुण छक्कायदया पंच महव्वयाणि [ति] खुड्डियायाराणंतरं धम्मपण्णत्ती ४ ॥९॥ तदणु धम्मे धितिमतो आयारट्ठियस्स छक्कायदयापरस्स णासरीरो धम्मो भवति, पहाणं च सरीरधारणं पिंडो त्ति पिंडेसणावसरो । अहवा छज्जीवणियाए पंच महव्वया भणिता ते मूलगुणा, उत्तरगुणा पिंडेसणा, कहं ? 5 "पिंडस्स जा विसोधी०" [व्यव० भा० उ० ३ गा० २८९] अतो छज्जीवणिकायाऽणतरं पिंडेसणा । छज्जीवणितोवदिट्ठसव्वमहव्वयसंरक्खणं ति वा तदणंतरं पिंडेसणा-पाणातिवातरक्खणं ताव “उदओलेण हत्थेणं दवीए मायणे०" [भ० ५ उ० १ गा० ३३] एवमादि, मुसावादे “तवतेणे वतितेणे" [अ० ५ उ० २ गा० ४४ ], [अदिण्णादाणे] "कवाडं णो पणोलेज्जा ओग्गहं से अजातिया।" [अ० ५ उ० १ गा० १८ ], मेहणे "ण चरेज वेससामंते" [अ० ५ उ० १ गा० ९], पंचमे "अमुच्छितो भोयणम्मी" [म० ५ उ० २ गा० २५] मुच्छा परिग्गहो सो निवारिज्जति ५। 10छट्टे आयारकहा पुव्वेण अभिसंबज्झते-गोयरग्गगयमणेसणं पडिसेहितो कोति आयारं पुच्छेजा तत्थ "गोयरग्गपविट्ठो उ न निसीएज कत्थति । कथं वा ण पबंधेज" [अ० ५३० २ गा० ८] त्ति ण कहेति, भणति तु-जति अत्थित्तं गुरुसगासं एह ते सविसेसं कहयंति, ततो जायकोउहल्ला एंति "रायाणो रायमचा य०" [अ० ६ गा० २] सिलोगो ६॥१०॥ ___ तदणु सव्वदोसपरिसुद्धं गुरवो वयंति वक्कमिति वक्कसुद्धीए अवसरो ७ । आयारपणिहीसंबंधो15 गुरवो अक्खेवणादिकहाकुसला 'आयारहरणीयो य लोगो' त्ति रायातीए आमतेउं भणंति-सोम्ममुहा ! "आयारपणिहिं लटुं०" [५० ८ गा० . ] सिलोगो ८ । णवमज्झयणसंबंधो-तेसिं कोति सवणाणतरमायारं पडिवज्जेज्जा तस्स गुरुसमाराहणत्थमुपदिसति विणयसमाहिं, अवि य – “विणतो सासणे मूलं०" [आव० नि० गा० १२२८ ] ९ । सभिक्खुयं न केवलमणतरेण णवहिं वि अज्झयणेहिं अभिसंबज्झति, कहं ? जो धम्मे धितिसंपण्णो आयारत्थो छक्कायदयावरो एसणासुद्धभोगी आयारकहणसमत्थो विचारियविसुद्धवक्को आयारे पणिहितो 20विणयसमाहियप्पा स भिक्खु त्ति सभिक्खुयं १० ॥११॥ सेसत्थसंगहत्थं मउडमणित्थाणीयाणि दो चूलज्झयणाणि । रतिवक्कचूलिया-जम्मि ठितो भिक्खू भवति एस आयारसमुदओ धम्मो, धम्मट्ठिओ विसायं काहिति त्ति सीयणे दोसा पढमाए दरिसिया १। बितियाए असीयणगुणा फलं च सकलस्स धम्मप्पयासस्स "सुरक्खितो सव्वदुहाण मुञ्चति ॥ त्ति बेमि" [चू० २ गा० १६ ] २॥१२॥ देसकालियस्सेह (१ स्स उ इहं) पिंडत्थो वण्णितो समासेणं । एत्तो एक्केकं पुण अज्झयणं कित्तयिस्सामि ॥१॥ ____एयाणि दुमपुस्फियादीणि सभिक्खुयावसाणाणि दस अज्झयणाणि । तत्थ पढमज्झयणं दुमपुफिया, तस्स चत्तारि अणुओगद्दारा । तं० - उवक्कमे निक्खेवे अणुगमो णयो । तत्थ उवक्कमो जहा आवस्सए, णिक्खेवो य ओहनिप्पण्णो । नामनिप्पण्णो-दुमपुफिय त्ति, दुपयमभिहाणं दुमे ति पदं पुप्फे ति पदं । दुमे निज्जत्तिगाधा णामदुमो ठवणदुमो दव्वदुमो चेव होति भावदुमो। एमेव य पुप्फस्स वि चउब्विहो होति णिक्खेवो ॥ १३ ॥ णामदुमो ठवणदुमो० । णाम-ठवण-दव्वाणि जहा आवस्सए, णवरं दुमाभिलावेण । जाणगसरीरभवियसरीरतव्वतिरित्ता रुक्खा विगप्पेण भाणितव्वा । भावदुमो दुविहो-आगमतो नोआगमतो य । आगमतो जो १ धर्मप्रयासस्य इत्यर्थः ॥ २ दसवेयालियस्स उ इहं पिंडत्थो वृद्धविवरणे। दसकालियस्स एसो पिंडत्थो हाटी० नियुक्ति गा० २५॥ ३ वन्नयिस्सामि वृद्धविवरणे ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० १ णिज्जुत्तिगा० १३-१५] दसकालियसुत्तं । दुमत्थाधिगारजाणतो 'एतेहिं कम्मेहिं दुमेसु उववत्ती' तम्मि नाणे उवउत्तो। नोआगमतो दुमनामा - गोताई कम्माई वेदेंतो भावदुमो । आह चोदतो-दुमणामा-गोताणि वेदेंतो भवतु भावदुमो, जं पुण तदुवओगेणं भावदुमो तदसमंजसं, जति पुण एवं होजा तो अग्गिविण्णाणोवउत्तो पुरिसो दहण-पयण-पगासणाणं कत्ता होजा । गुरवो भणंति-विण्णाणं वेयणा भावो अभिप्पातो ति तुलं, लोगे वि भण्णति-को एयस्स भावो?, अभिप्पाओ त्ति वुत्तं भवति, ण य विन्नाणवतिरित्तो अप्पा, तम्हा भवति दुमविण्णाणोवउत्तो भावदुमो । दव्वदुमेण अधिगारो ॥१३॥ एत्ताहे दुमएगट्ठियाई, जहा इंदस्स मघवं-पुरंदरादीणि, ताणि पुण दुमा य १ पायवा २ रुक्खा ३ विडिमी य ४ अगा ५ तरू ६ । कुहा ७ महीरुहा ८ वच्छा ९ रोवंगा १० भंजगा वि य११ ॥१४॥ दुमा य पायवा रुक्खा० गाहा । भूमीय आगासे य दोसु माया दुमा, अहवा दूः-साहा ताओ जेसिं विजंति ते मा १ । पा पाणे धातुः रक्खणे वा, पादेहिं पिबंति पालिजंति वा पायवा, पाया-मूला पिजंति तेसु 10 तेसु कारणेसु २।क्खा वृक्षाः, एतस्स अवभंसो एस ३ । विडिमाणि जेसिं विजंति ते विडिमी ४ । अगमणाद् अगा ५। अत्थाहमुदगं तरंति तेहिं तरवो ६ । कुत्ति भूमी तीए धारिजंतीति कुहा ७ । महीए रुहंतीति महीरुहा ८ । सुतप्रियभवनं वच्छा, पुत्ता इव रक्खिजंति वच्छा ९ । रुप्पंति रोपणीया वा रोपका १० । "भैलो भंगे" भजतीति भंजका ११ ॥ १४ ॥ दुमे त्ति गतं । पुप्फे ति दारं, तं पि चतुव्विहं जहा दुमो तहेव । दैव्वपुप्फेण अधिकारो । ऍगट्ठियाणि से पुप्फ फुलं 15 कुसुमं सुमणं एवमादीणि । जहा रुक्खस्स तहा [पुप्फस्स] सणिरुत्तेसु भणिएसु इदाणिं भिणपयसमसणं समासोएगीभावगमणं सो कीरति-इह छट्ठीतप्पुरिसो, दुमस्स पुप्फ दुमपुप्फं, दुमपुप्फोवमाणपहाणत्थमज्झयणं, गहादिविहितः [पा० ४. २. १३८ ] उप्रत्ययः, दुमपुफियं ॥ तस्स इमे अत्थाहिगारा दुमपुफियं च १ आहारएसणा २ गोयरे ३ तया ४ उंछे ५ । मेस ६ जलोया ७ सप्पे ८ वण ९ ऽक्ख १० उँसु ११ पुत्त १२ गोलु १३ दए १४ ॥१५॥ 20 दुमपुष्फियं च आहारएसणा० गाधा । दुमपुफियं ति वा आहारेसणे ति वा एवं पयविभागो । एतेहिं ओवम्मं ति एते अज्झयणस्था । जहा दुमस्स पुप्फेहिंतो अकयमकारियं भमरो रसं आहारति, ण य पुप्फस्स विणासो किलामो वा भवति, एवं सव्वेसणासुद्धं गिहीणं पीलं अकरेंतो साधू आहारं गेण्हति १ । आहारएसण त्ति गवेसण-गहण-घासेसणासु जतितव्वं २। १ वृद्धविवरणकृता रुक्खा विडिमी अगमा तरू इति पाठभेदानुसारेण विवृतमस्ति । श्रीहरिभद्रपादैः पुनः रुक्खा अगमा विडिमी तरू इति पाठानुसारेण व्याख्यातमस्ति, नियुक्त्यादर्शेषु तु रुक्खा अगमा विडिमा तरू इति पाठो दृश्यते ॥ २रोवगा रुजगा वि य इति वृद्धविवरणकृत्सम्मतः पाठः, दृश्यतां टिप्पणी ५ । रोवगा रुंजगा वि य इति हारिभद्रीवृत्ती, नियुक्तिप्रतिष्वयमेव पाठ उपलभ्यते । रोवगा रुजगा दिय खं०॥३मूला छिजंति मूलादर्श । “पादा-मूला भण्णति" इति वृद्धविवरणे ॥ ४ “रु त्ति पुहवी, ख ति आगासं, तेसु दोसु वि जहा ठिया तेण रुक्खा; अहवा रुः-पुढवी, तं खायंतीति रुक्खा । विडिमाणि जेण अत्थि तेण विडिमी" इति वद्धविवरणे॥ ५ "हत्ति पिथिवी, तीय जायंति त्ति रुजगा" इति वृद्धविवरणे ॥ ६ भावपुप्फेण मूलादर्शे । “दव्वपुप्फेण अहिगारों" इति वृद्धविवरणे ॥ ७ "पुप्फा य कुसुमा चेव फुला य पसवा वि य । सुमणा चेत्र सुहुमा य सुहुमकाइयाणि य ॥१॥” इति पुष्पैकार्थिकानि ॥ ८ भिण्णपयपसमणं मूलादर्शे ॥ ९ दुमपुफिया य आहार सर्वासु नियुक्तिप्रतिषु वृद्ध। हरिभद्रपौदरयमैव पाठ: खीकृतोऽस्ति ॥ १० उसु गोल पुत्तुदए इति पाठः सर्वासु नियुक्तिप्रतिधूपलभ्यते, एनमेव पाठमनुसृत्य श्रीहरिभद्राचार्याख्या कृताऽस्ति । चर्णि-वृद्धविवरणकृत्सम्मतस्तु पाठ उपरि उल्लिखित एव, किञ्च नोपलभ्यतेऽयं पाठः कुत्राप्याद” इति ॥ Jain Education Intemational Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पढमं दुमपुप्फियज्झयणं गोयरे ति गहणाविसेसेण दरिसिजति -- एगम्मि सेट्टिकुले वच्छओ केण वि सामिसालप्पमाएण दिवसं खुह-पिवासिओ सव्वालंकारविभूसियाए वहुए दिण्णं चारिं पाणियं च पडिच्छति तीसे रूवे अण्णेसु य विसएसु अरत्त-दुट्ठो, एवं साहुणा गोयरगएणं दायगसरीरे अण्णत्थ वा अरत्त-दुट्टेणं भक्खं घेत्तव्वं ३। तये त्ति "चत्तारि घुणा पण्णत्ता" ठाणालावगा [स्था० ४ सू० २४३ पृ० १०५-1] भाणितव्वा, तयक्खायी 5 णामेगे णो सारक्खाती चउभंगो ४, एवामेव चत्तारि भिक्खागा पण्णत्ता ४ । उंछे त्ति तं चउव्विहं, णाम-ठवणातो तहेव, दव्बुंछं उंछवित्ती मोदीणं, भावे अण्णाएसणं ५। मेसे त्ति जहा मेसो थिमितं पिबति, एवं साहुणा वि दायओ बीयादिसंघटणे न डहरप्फरेण वारेयव्यो जहा मुज्झति, किंतु उवाएण सणियं 'परिहराहि' ति ६ । जलोय त्ति जलोया वि एमेव, अयं विसेसो-जइ वि दायओ पुव्वं केणेति कारणेण पदोसमावण्णो तं पि 10 उवएसवयणेहिं निदोसं करेति जहा जलुगा ७।। सप्पे त्ति घासेसणाविसेसेणं, जहा सप्पो सर ति बिलं पविसति तहा साहुणा अरत्त-दुटेणं हणुयाओ हणुयं असंकामेंतेण भोत्तव्वं, जहा वा सप्पो एगंतदिट्ठी एवमेसणाए "उवयुजिऊण पुव्वं तल्लेसे०” [ओघ० नि० गा० २८७ पत्र ११६-२] गाधा ८॥ वणे ति आलंबणविसेसेणं जहा 'वणो मा फुट्टिहिति' त्ति मक्खणादिदाणं एवं जीवस्स सरीरद्वितिनिमित्तमाहारो, 15 ण रूवादिहेतुं ९। अक्खे ति आलंबणफलनिरूवणं-जहा अक्खो जत्तासाहणत्थमन्भंगिजत्ति तहा संजमभरवहणट्ठमाहारो १० । उसु त्ति अप्पमायफलवण्णणं-जहा कयजोगो वि रहितो उवउत्तो लक्खं विंधति ण अणुवउत्तो, एवमुवउत्तो हिंडतो साधू संजमलक्खं लमति ११। पुत्ते ति वच्छगदिटुंतातो फुडयरोपसंहारपुव्वकारिसु दिटुंतो दरिसिज्जति त्ति, जीवसरीरमतो ति पुत्तमंस20 तुल्लो वि आहारो कारणत्थमाहारेतव्वो, जहा सुंसुमापिति-भायादीहिं १२। ___ गोले ति गहणेसणाए अतिभूमीगमणिरोहत्थं भण्णति-जतुगोलमैणया कातव्वा, जतुगोलतो अग्गिमारोवितो विपिरति, दूरत्थो असंतत्तो रूवं ण निव्वत्तेति, साहू वि दूरत्थो अदीसमाणो मिक्खं न लभति एसणं वा न सोहेति, आसण्णे अप्पत्तियं भवति तेणीतिसंका वा, तम्हा कुलस्स भूमिं जाणेज्जा १३।। उदये ति दुमपुफियादिपयाणमत्थो सदिटुंतो सफलो य नियमिजति-जहा कोति वाणियतो दिसानिग्गतो 28छ रयणाणि विढवेत्ता 'चोराडवीते असमत्थो नित्थारेउं छिण्णचीवरवसणो फुट्टपत्थरहत्थो कहिंचि ठवियरयणो उम्मत्तगवेसो रयणवाणियओ त्ति कयाभिण्णाणो गच्छंतो समुप्पण्णकोउहल्लेहिं गहियविसज्जिओ तिक्खुत्तो भाविए 'पिसाओ' ति परिच्छिन्नो, रयणहत्थो तेणेव विहिणा पहावितो पिपासाभिभूतो खेलरं मत-कुहितसत्तवसा-रुहिरमिस्सपाणियमुपगम्म पाण-रयणनित्थारणत्थं अणस्सायंतो उदयं पातुं सरयणोतिण्णो रयणविणिओगफलं पत्तो, एवं रातीभोयणवेरमणछट्ठाणि पंचमहव्वयरयणाणि विसयचोरविघट्टियसंसाराडवीए अंत-पंत - फासुयाहारकयपाणधारणो 30 नित्यारेत्ता मोक्खपुरमुवगम्म सुही भवति १४ ॥१५॥ १ स्थानाङ्गसूत्रस्य आलापका इत्यर्थः ॥ २ मायिनाम् ॥ ३ अज्ञातैषणम् , अज्ञातपिण्डैषणमित्यर्थः ॥ ४ दायकः ॥ ५ केनचित् ॥ ६ रथिकः ॥ ७ फुडयरोसंपहार मूलादर्शे ॥ ८ जीवशरीरमयः ॥ ९ एतदुदाहरण झाताधर्मकथाङ्केऽष्टादशे सुंसुमाशाताध्ययने द्रष्टव्यम् ॥ १० °मयणा मूलादशैं। जतुवृत्तमणिका इत्यर्थः ॥ ११ अग्निमारोपितः 'विधिरति द्रवीभवति ॥ १२ स्तेनादिशङ्का । १३ चौराटव्याम् ॥ १४ उन्मत्तकवेषः ॥ १५ खल्लर-खिल्लूर-छिल्लरशब्दा देश्या एकार्थकाः॥ १६ सरत्नोऽवतीर्णः॥ Jain Education Intemational Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० १ णिज्जुत्तिगा० १६] दसकालियसुत्तं गोणं णामं दुमपुप्फियं ति । नामनिष्फण्णो गतो । सुत्तालावगनिष्फण्णो पत्तलक्खणो वि ण निक्खिप्पति, इतो अत्थि ततियमणुओगद्दारमणुगमो त्ति, इह तत्थ य समाणत्यो निक्खेवो त्ति तहिं णिक्खिप्पिहिति, एवं लहु सत्यं भवति असम्मोहकारगं च। अणुगमो त्ति दारं, सो दुविहो-सुत्ताणुगमो वा १ निज्जुत्तिअणुगमो वा २ । निज्जुत्तिअणुगमो तिविहो, तं जहा-निक्लेवनिज्जुत्तिअणुगमो १ उवग्यायनिज्जुत्ति० २ सुत्तफासियनिज्जुत्ति० ३। निक्खेवनिज्जुत्तिअणुगमो. दसनिक्खेवप्पमिती भणितो । उवग्घायनिज्जुत्तीअणुगमो-उद्देसे णि० गाहा [भाव नि० गा० १४०-४१ पत्र १०५] । तित्थगरस्स सामाइयकमेण उवग्याते कए अजसुधम्म-जंबु-प्पभवाण य दसकालियकमेण पभवचिंताती जाव मणओ एस उवग्घाओ । सुत्तप्फासियनिज्जुत्ती सुत्तसहगय ति सुत्ते उच्चारिते तदत्थवित्थारणी भविस्सति । इयाणि सुत्ताणुगम-सुत्तफासियनिज्जुत्ति-सुत्तालावयनिप्फण्णनिक्लेवाणं पंढमसण्णत्थाणं पडिसमाणणत्थमत्थवित्थरागारभूतं सुत्तं उच्चारेतव्वं अक्खलितादिअणियोगद्दारविधिणा जाव णोदसवेयालियपयं वा । तं च इमं मंगलनिहाणभूतं 10 दसकालियपढमसुतं धम्मो मंगलमुकिट्ठ अहिंसा संजमो तवो० एतस्स वक्खाणं । वक्खाणलक्खणमुपदिस्सतिसंहिता य १ पदं चेव २ पदत्थो ३ पदविग्गहो ४ । चालणा य ५ पसिद्धी य ६ छव्विहं विद्धि लक्खणं ॥१॥ [ अनुयो० सू० १५५ पत्र २६१] संहिता अविच्छेदेण पाढो, जहा "धम्मो मंगल०" आ सिलोगसमत्तीतो १। पदविभागो इदाणिं-धम्मो इति पदं, मंगलं इति पदं, उक्टिं इति, अहिंसा इति, संजमो इति, तवो इति, देवा इति, अवीति, तमिति, णमंसंतीति, जस्स इति, धम्मे इति, सदा इति, मणो इति २। पदविभागाणंतरं पदत्यो-धारेति दुग्गतिमहापडणे पतंतमिति धम्मो । विसिट्टधम्मफलगमणं मंगलं । उग्गयतरं उकिटें प्रधानम् । अहिंसा पाणातिवातवजणं । संजमो समिति-गुत्तीसु उवरमो । तवो अट्ठविहकम्मकिट्टतावणमणसणाति । विशेषण क्रीडायुक्ता इति देवा । अविसद्दो अणेगेसु अत्थेसु, इहं संभावणे, किं 20 संभाविजति ? संसारिसत्तणिकायप्पहाणा देवा ते वि, किं पुण सेसा १ । किं करेंति ? ति पडिणिहिसिज्जति-तं णमंसंति । कयरं ? ति उद्देसवयणं, जस्स निद्देसवयणं । जस्स निद्देस - उद्देसवयणातो पढमसिलोगे वि संभवतिकिं जस्स ? मण्णति, धम्मे सदा मती, सदा सव्वकालं मती चित्तं मतिसमाहरणं । जस्स धम्मे सव्वकालं चित्तं तं देवा वि णमंसंति ३। पदविग्गहावसरो-सो पुण समासपदाणं भवति, इह पत्तेयत्थाणि पदाणि ति न भवति ४ ॥१॥ सुत्ताणु-25 गमो गतो । एस एव सुत्तत्यो वित्थारिजति । चोयणातो वा आसंकामुहेण वा आयरियो विसेसेति । किंच कत्थति पुच्छति सीसो कहिंचरपुट्ठा कहिंति आयरिया। सीसाणं तु हितट्ठा विपुलतरागं तु पुच्छाए ॥१६॥ कत्थति पुच्छति सीसो० गाहा । इमं पुण सतमेव धम्मपदवित्थारणत्यमाणवेंति गुरवो ॥ १६ ॥ अयं सुत्तालावयनिप्फण्णो निक्खेवो । अतो परं सुत्तफासियनिजुत्ती 15 30 १ से १ णिदेसे य २ णिग्गमे ३ खेत ४ काल ५ पुरिसे य ६ । कारण ७ पञ्चय ८ लक्खण ९ णए १० समोयारणा ११ ऽणुमए १२ ॥१४०॥ किं १३ कइविहं १४ करस १५ कहिं १६ केसु १७ कहं १८ केचिरं हवइ कालं १९ । कइ २० संतर २१ मविरहिय २२ भवा २३ गरिस २४ फासण २५ णिरुत्ति २६ ॥१४१॥ २ प्रथमसंन्यस्तानां प्रतिसमाप्त्यर्थमर्थविस्तरागारभूतम् ॥ . ३ अनशनादि ॥ ४ भणति मूलादर्श ॥ ५ विउलयरायं तु वी०॥ ६ खयमेव ॥ दस० सु. २ Jain Education Intemational Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पढमं दुमपुफियज्झयणं णाम-ठवणाधम्मो वठवधम्मो य भावधम्मो य। एएसिं णाणत्तं वोच्छामि अहाणुपुवीए ॥१७॥ णाम-ठवणाधम्मो० गाधा । णाम-ठवणातो तधेव ॥ १७ ॥ दव्वधम्मे गाहा दव्वं च १ अत्थिकायो २ पयारधम्मो य ३ भावधम्मो य। दव्वस्स पञ्जवा जे ते धम्मा तस्स दव्वस्स १॥१८॥ दव्वं च अस्थिकायो । दव्वधम्मो तिविहो, तं जहा-दव्वधम्मो १ अस्थिकायधम्मो २ पयारधम्मो ३। तत्थ दव्वधम्मो-दव्व[स्स] पज्जवा जे ते धम्मा तस्स दव्वस्स, जीवदव्वस्स वा अजीवदव्वस्स वा उप्पाय-द्विति-भंगा पन्जाया त एव धम्मा। जीवदव्वस्स इमे उप्पायद्वितिभंगा-देवभवातो मणुस्सभवमागतस्सा 10 मणुस्सत्तेण उप्पातो, देवत्तेण विगमो, जीवदव्वमवद्वितं । एगभवग्गहणे वि कुमारगत्तेण उप्पातो, बालभावेण विगमो, देवदत्त इति अवहितो। अजीवदव्वस्स वि दुपदेसितादिभेदा जाव परमाणुस्स परमाणुत्तेण उप्पातो, दुपदेसितभावातो भंगो, रूविअजीवत्तावत्थाणं । अभिण्णे वि दव्वे गुणोवएसेण, जहा-घडस्स पागेण सामताविगमे रत्तभावसमुप्पाए वि घडावत्थाणं । एवं रूविदव्वेसु फुडं । अरूविसु आगासादिताणं तिहं परपञ्चया नियमा, जहा- कहिंचि आगासपदेसे घडो विण्णत्यो, तदवगमे कुंडसो आगासपदेसो कुंडागासत्तेण उप्पण्णो, घडागासभावेण विगतो, आगास[715 रूविभावादीहिं अवस्थितो । धम्मा -ऽधम्मा वि एवं १॥ १८ ॥ अत्थिकायधम्मो त्ति दारं धम्मत्थिकायधम्मो २ पयारधम्मो य विसयधम्मो ये ३ । लोइय १ कुप्पावर्यणिय २ लोगुत्तर ३ लोगऽणेगविहो ॥ १९ ॥ __ धम्मस्थिकायधम्मो० गाहद्धं । काया समुदाया, अत्थी य काया य अत्थिकाया, ते य इमे पंचधम्मा -ऽधम्मा-ऽऽकास -जीव-पोग्गला, धम्मो सभावो लक्खणं । धम्मत्थिकायो गतिपरिणयस्स गमणोवकारि त्ति 20 गतिसमावो गतिलक्खणो, एवं अहम्मत्यिकायो द्वितीए, आगासत्थिकायो अवगाहणस्स, पोग्गलत्थिकायो गहणस्स, जीवत्थिकायो सततमुवयोगधम्मी २। पयारधम्मो त्ति दारं- इंदियविसयो पयारो स एव धम्मो, समणस्स सोतव्वं, एवं विभासा ३ । भावधम्मो त्ति दारं-सो य लोइय कुप्पावयणि० गाहद्धं । लोइतो १ कुप्पावयणिओ २ लोउत्तरिओ ३ तिविहो । लोइओ अणेगहा ॥ १९ ॥ तं० गम्म १ पसु २ देस ३ रज्जे ४ पुरवर ५ गाम ६ गण ७ गोहि ८ राईणं ९। सावज्जो उ कुतित्थियधम्मो ण जिणेसु तु पसत्थो ॥२०॥ गम्म पसु देस रज्जे पुरवर-गाम-गण-गोढि-राईणं । गम्मधम्मो दक्षिणावहे मातुलधीता गम्मा णे गोल्लविसए, भक्खा- ऽभक्ख-पेता - ऽपेतविहयो वि भिण्णा १ । पसुधम्मो गम्मा-ऽगम्मविसेसो नत्थि २ । देसधम्मो णेवैच्छादिभेदो ३१ रज्जे करपवत्तणादि ४ । रजस्स भागो देसो। पुरे देसणराग -तंबोल 26 १°कायप्पया खं० ॥ २ आकाशादिकानाम् ॥ ३ उ खं० ॥ ४ 'यणे लोगु वी० वृद्धविवरणे च ॥ ५“धम्मत्थिकाय. गाहाव्याख्या-धर्मप्रहणाद् धर्मास्तिकायपरिग्रहः, ततश्च धर्मास्तिकाय एव गत्युपष्टम्भकोऽसंख्येयप्रदेशात्मकोऽस्तिकायधर्मः । अन्ये तु व्याचक्षते-धर्मास्तिकायादिखभावोऽस्तिकायधर्म इति, एतच्चायुक्तम् , धर्मास्तिकायादीनां धर्मत्वेन तस्य द्रव्यधर्माव्यतिरेकादिति” इति हारि०वृत्ती ६ श्रवणस्य-कर्णस्य श्रोतव्यम् ॥ ७ जिणेहिं उ ख० वी० पु. वृद्धविवरणे च ॥ ८ मातुलदुहिता ॥ ९ "उत्तरावहे अगम्मा" इति वृद्धषिधरणे ॥ १० भक्ष्या-ऽभक्ष्य-पेया-ऽपेयविधयः॥ ११ नेपथ्यादिभेदः ॥ १२ दसणगरावंवोल° मूलादर्शे ॥ वृषिधरणे पोतव्यम् ॥ ७जित एतच्चायुक्तम् , धर्मास्ति गत्युपष्टम्भकोऽसंख्येयप्रा. पदविवरणे च ॥ , Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० १ णिज्जुत्तिगा० १७-२१] दसकालियसुत्तं । समाणणादी ५, ण गामे ६ । गणधम्मो सारस्सतादीण एगस्स वि आवतीए समाणकज्जया ७ । गोद्विधम्मो ललियासणिकादिट्ठाणेसु जहाविहि भोयणातिपरिभोगो ८ारायधम्मो इट्ठा-ऽणिद्वेसु दंडधरणं मयगसूयगं णत्थि ९॥ कुप्पावयणितो कुच्छियं पवयणं कुप्पवयणं सक्क कणादादि । कहं पुण एताणि कुप्पवयणाणि ? जम्हा सावज्जो उ कुतित्थियधम्मो ण जिणेसु तु पसत्थो, अवजं गरहणीयं, सह अवजेण सावजो सारंभपरिग्गहत्तणेणं, तहा य कुप्पवयणितो, अतो ण पसंसितो जिणवरेहिं । ते य जिणा चउब्विहा - नामादिविहिणा । । णाम-उवणातो तहेव । देव्वजिणा जे वाहिं वेरियं वा जिणंति । भावजिणा केवली. तेहिं ण पसंसितो. सारंभपरिग्गहो ति कुप्पावयणियो ॥२०॥ लोउत्तरियो भावधम्मो दुविहो-सुतधम्मो चरित्तधम्मो य । सुतधम्मो दुवालसंगं गणिपिडगं, तस्स धम्मो जाणितव्वा भावा, [अहवा] असंजमातो नियत्ती संजमे पवित्ती । चरित्तधम्मो दसविहो उत्तमो साधुधम्मो, तं जहा-खमा १ मद्दवं २ अजवं ३ सोयं ४ सचं ५ संजमो ६ तवो ७ चातो ८ अकिंचणत्तणं ९ बंभचेरमिति १० ॥10 तत्य खमा - अक्कोस - तालणादी अहियासितस्स कम्मक्खयो भवति अणहियासिंतस्स कम्मबंधो, तम्हा कोहोदयस्स निरोहो कातव्यो उदयप्पत्तस्स वा विफलीकरणं, एसा खम त्ति वा तितिक्ख त्ति वा कोहनिग्गहो त्ति वा [एगट्ठा] १४ मद्दवता- जाति -कुलादीहिं परपरिभवाभावो एत्थ वि माणोदयनिरोहो उदयप्पत्तस्स विफलीकरणं २ । अजवंरिजुभावो, तस्स अकरणे कम्मोवचतो करणे निजरा, मायाए वि उदयनिरोहो वा उदिण्णविफलीकरणं वा ३ । सोयं-अलुद्धता धम्मोवगरणेसु वि, तस्स करणे अकरणे य कम्मस्स निजरा उवचतो य, अतो लोभोदयनिरोहो 15 उदयप्पत्तस्स विफलीकरणं च कातव्वं ४ । सर्च-अणुवघायगं परस्स वयणं, तहाभणंतस्स निजरा, अण्णहा कम्मबंधो ५ । संजम-तवा सुत्तालावगपदत्थविभासाए भणिता, निजुत्तिविसेसेण भणितव्वा, अतो ण भण्णंति ६-७। चागो-दाणं, तं अलुद्धेण निन्जरहें साहूसु पडिवायणीयं ८ । आंकिंचणीयं-नत्थि जस्स किंचणं सोऽकिंचणो तस्स भावो आकिंचणीयं, कम्मनिज्जरहें सदेहाइसु वि णिम्ममेण भवियव्वं ९ । बंभमट्ठारसप्पगारं-ओरालिया कामभोगा मणसा न सेवति न सेवावेति सेवंतं ण समणुजाणति ३ एवं वायाए ३ कारण वि ३ णवविहं गतं, दिव्वेसु वि एते 20 विगप्पा ९, एतं अट्ठारसविहं बंभचेरं आयरंतस्स कम्मनिजरा अणायरंतस्स बंधो तम्हा सेवियव्वं १० । एस दसविहो समणधम्मो मूलुत्तरगुणेसु समोयरति-संजमो पाणातिवायविरती, सच्चं मुसावायवेरमणं, आकिंचणीयं निम्ममत्तं ति अदत्त -परिग्गहवजणं. बंभचेरं मेहणविरती. खंती-मद्दव -अजव-सोत-तव-चाता उत्तरगणेस जहासंभवं । गिया धम्मो ति दारं ॥ मंगलं ति दारं-तं चउन्विहं नामादि । णाम - ठवणातो गतातो । दव्य - भावेसु इमा गाधा दव्वे भावे वि य मंगलाणि दवम्मि पुण्णकलसादी। धम्मो 3 भावमंगलमेत्तो सिद्धि त्ति काऊणं ॥२१॥ दव्वे भावे वि य मंगलाणिः । देवमंगलं पुण्णकलसादि घडोदगसंजोग -सुवण्ण-सिद्धत्थगादी समुप्पत्तितो। भावमंगलं अयमेव लोउत्तरो धम्मो, जम्हा एत्थ ट्ठियाणं जीवाणं सव्वदुक्खक्खओ मोक्खो भवति । दव्व-भावमंगलाणं को पतिविसेसो ?, दव्वमंगलमैणेगंतियमणचंतियं च, भावमंगलमेगंतियमचंतियं च । एगतियमवस्संभावि, अचंतियं सदाभावि ॥ २१ ॥ 30 १ भोजनादिपरिभोगः ॥ २ मृतकसूतकम् ॥ ३ शाक्य-कणादादि ॥ ४ “वजो णाम गरहिओ, सह बजेण सावजो भवई" इति वृद्धविवरणे ॥ ५“दव्वजिगा जे छउ मत्था, वाहिं वा वेरियं वा जे जिणति ते दव्वजिणा" इति वृद्धविवरणे ॥ ६ त्यागः ॥ ७ अध्यासमानस्य सहमानस्येत्यर्थः ॥ ८ साहुसपडि मूलादर्शे। "तम्हा वत्थ-पत्त-ओसहादीहिं साहूण संविभागकरणं काय," इति वृद्धविवरणे ॥ ९ आकिञ्चन्यम् ॥ १०य वी० पु०॥ ११ "तत्थ दवमंगलं पुण्णकलसादी, आदीगहणेण न केवल पुण्गकलसो एगो मंगलं, किंतु जाणि दवाणि उप्पज्जतगाणि चेव लोगे मंगलबुद्धीए घेप्पंति, जहा-सिद्धत्थग-दहि-सालि-अक्खयादीणि, ताणि मंगल ।" इति वृद्धविवरणे ॥ १२ समुत्पत्तितः ॥ १३ अनेकान्तिकमनात्यन्तिकं च ॥ Jain Education Intemational Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पढमं दुमपुस्फियज्झयणं उकिटं ति दारं-मंगलविसेसणमिमं । एस लोउत्तरो भावधम्मो भावमंगलं उकिटं पहाणं ॥ अहिंसेति पदं-पढमं हिंसावण्णणं, ततो अकारेण पडिसेहणं । पैमत्तजोगस्स पाणववरोवणं हिंसा । एत्थ चत्तारि भंगा-दव्वतो नाम एगा हिंसा णो भावतो ४ । चरिमभंगो पासंगिको सुण्णो । पुण तत्थ दव्व-भावतो जहा केति पुरिसे मिगवधपरिणते मिगवहाए उसु खिवेजा विधेज य तं मिगं एसा दव्व-भावतो हिंसा १। 5दव्वतोन भावतो इमा-"उच्चालियम्मि पाए०" ओहनिजुत्तिगाहा, "णे य तस्स तन्निमित्तो०" एसा वि २।भावओ न दव्वओ जहा-केति पुरिसे असिणा अहिं छिंदिस्सामीति रज्जु छिंदेजा ३। विकोवेणट्ठमिदं । अहिंसाए अहिगारो । को पुण अहिंसाए संजमस्स य विसेसो ? अहिंसा पंच वि महव्वयाई, सव्वावत्थमहिंसोवकारी संजमो। अहिंस त्ति गतं ॥ ___ संजमोत्ति-संजमो सत्तरसविहो, तं जहा-पुढविकायसंजमो १ आउ० २ तेउ० ३ वाउ०४ वणस्सति०५ बेइंदिय०६ तेइंदिय० ७ चरिंदिय०८ पंचेंदिय० ९ पेहासंजमो १० उवेहासंजमो ११ अवहड्ड संजमो १२ ०पमजियसंजमो १३ मणसंजमो १४ वतिसं० १५ काय० १६ उवगरणसंजमो १७ ति । पुढविकायसंजमोपुढविकायं तियोगेन ण हिंसति ण हिंसावेति हिंसंतं नाणुजाणति १ । एवं आउक्कायसंजमो जाव पंचेंदियसंजमो २-९ । पेहासंजमो-जत्थ ठाण-निसीयण-तुयट्टणं काउकामो तं पडिलेहिय पमजिय करेमाणस्स संजमो भवति, अण्णहा असंजमो १० । उवेहासंजमो-संजमवंत संभोइयं पमायंतं चोदेंतस्स संजमो, असंभोइयं चोयंतस्स असंजमो, पावयणीए कज्जे चियत्ता वा से पडिचोयण त्ति अण्णसंभोइयं पि चोएति, गिहत्थे कम्मायाणेसु 15 सीदमाणे उपेहंतस्स संजमो, वावारिंतस्स अस्संजमो ११ । अवहढ संजमो-अतिरेगोवगरणं विगिचंतस्स संजमो, पाणजातीए य आहारादिसु असुद्धोवहिमादीणि य परिट्ठतिस्स १२ । पमजणासंजमो-साँगारिए पाए अपमजंतस्स संजमो, अप्पसागारिए पमज्जंतस्स संजमो १३ । मणसंजमो-अकुसलमणनिरोहो वा कुसलमणउदीरणं वा १४ । वतिसंजमो-अकुसलवइनिरोहो वा कसलवतिउदीरणं वा १५। कायसंजमो-अवस्सकरणीयवजं सुसमाहियस्स कम्म इव गुत्तिदियस्स चिट्ठमाणस्स संजमो १६ । उवगरणसंजमो-पोत्थएसु घेप्पंतेसु असंजमो महाधणमोलेसु वा दूसेसु, 20वजणं तु संजमो, कालं पडुच्च चरणकरणटुं अव्वोच्छित्तिनिमित्तं गेण्हंतस्स संजमो भवति १७॥ तवो दुविहो बज्झो १ अभितरो य २ । पढम बज्झो भण्णति सूवलक्खो त्ति । एतं चैव तस्स बज्झत्तणं जं सव्वजणपञ्चक्खो, सासणबज्झेहिं वि कजति घरत्थ-कुतित्थिएहिं वि, लोगे पूयणकारणं च । सो छविहो, तं जहा-अणसणं १ ओमोयरिया २ भिक्खायरिया ३ रसपरिचाओ ४ कायकिलेसो ५ संलीणय ६ ति । __ असणं-भोयणं तस्स परिचातो अणसणं । तं दुविहं-इत्तिरियं १ आवकहियं च २ । इत्तिरियं - परिमियं 25 कालं, तं चउत्थाती छम्मासावसाणं । आवकहियं-जावजीविगं, तं तिविहं-पादोवगमणं १ इंगिणिमरणं २ भत्त पञ्चक्खाणं ३ । तत्थ पाओवगमणं-जं निप्पडिकम्मो पायवो विव जहापडिओ अच्छति । तं दुविहं-वाघातिमं णिव्वाघातिमं च । वाघातिमं-जं आउयं पंहुप्पंतं बला उवक्कामेति, वाधिगहितो वेयणाणहितासे वेहासादी वा करेति । निव्वाघातं सुत्त-ऽत्थ-तदुभयाणि गेण्हिऊण अव्वोच्छित्तिं कातुं जरापरिणतो करेति १ । इंगिणिमरणं संयमेव उव्वत्तण-परियत्तणादि करेति चतविहाहारविरतो २। भत्तपञ्चक्खाणं नियमा सपडिकम्म. 30 उव्वत्तण-परियत्तणादि, असहुस्स वा सव्वं पि कीरति ३ । तिण्णि वि णीहोरिमा अनीहारिमा वा । गतमणसणं १॥ १ "प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा" तत्त्वा० अ० ७ सू०८॥ २ "उच्चालियम्मि पाए इरियासमियस्स संकमट्ठाए । वावजेज कुलिंगी मरिज तं जोगमासज्जा ॥" [ओघनि० गा० ७४८]॥३"न य तस्स तन्निमित्तो बंधो सुहुमो वि देसिओ समए । अणवजो उ पओगेण सबभावेण सो जम्हा ॥" [ ओघनि० गा० ७४९ ] ॥ ४ विकोचनार्थ-स्पष्टीकरणार्थमित्यर्थः ॥ ५ चियत्ता-अभिमता ॥ ६ सागारिकेगृहस्थे पश्यति सति पादौ अप्रमार्जयतः संयमः, अल्पसागारिके-गृहस्थेऽपश्यति सति ॥ ७ तपःस्वरूपं भगवत्यङ्गे श० २५ उ० ७ मध्ये तथा औपपातिकोपाङ्गे सूत्र १९-२० मध्ये द्रष्टव्यम् ॥ ८पडिसंलीणय मूलादर्शे ॥ ९ पादपोपगमनम् ॥ १० पडुप्पंतं मूलादर्शे ॥ ११ वेदनानध्यासे वैहायसादि वा करोति ॥ १२ “णीहारिमे ति यद् आश्रयस्यैकदेशे विधीयते, तत्र हि कडेवरमाश्रयान्निर्हरणीयं स्यादिति कृत्वा निहोरिमम् । 'अणीहारिमे य' त्ति अनिहोरिमं यद् गिरिकन्दरादौ प्रतिपद्यते।" [भगवतीसूत्रटीका श० २५ उ० ७ पत्रं ९२४] ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० १] दसकालियसुत्तं । १३ ओमोदरियं-ओमोदरभावो। ओमं-ऊणं । सा दुविहा-दब्वे भावे य । दवे उवकरणे भत्त-पाणे य । उवकरणे एगवत्थधारित्तं एवमादि । ___ भत्तपाणोमोदरिया अप्पप्पणो मुहप्पमाणेण कवलेणं पंचविगप्पा-अप्पाहारोमोदरिया १ अवड्डोमोदरिया २ दुभागोमोदरिया ३ पमाणोमोयरिया ४ किंचूणोमोदरिय ५ त्ति । एतासिं विभागो-चतुव्वीसं लंबणा पमाणजुत्तोमोदरिया, एयातो ओमोयरिदातो तिहं ओमोयरियाणं उत्थाणं, तिण्हं ति-अप्पाहार-अवड-दुभागोमोयरियाणं । निप्फत्ती भवति, पंचमा सणामसूयिता किंचूणोमोयरिया भवति । ___एतासिं निदरिसणं-अप्पाहारोमोदरिया-जम्हा अप्पतरं कुच्छीए पुण्ण बहुतरं ऊणं, पैमाणोमोदरिदाए तिभागो १ । पमाणजुत्ता ओमोयरिया अवगतऽड्ढा अवड्डोमोदरिया २ । पमाणोमोदरियं तिधा काउं एगं भागं उज्झिउं दोभाए अब्भवहरति एसा दुभागोमोयरिया, पमाणजुत्ताहारस्स वा दुभागं अब्भवहरति दुभागोमोदरिया ३। पमाणजुत्तोमोदरिया नाम-बत्तीसं लंबणा संपुण्णो पुरिसस्स आहारो, तस्स चतुब्भागो छड्डिजति सेसा 10 चउव्वीस कवला पमाणजुत्तोमोयरिया ४ । किंचूणोमोयरिया-थोवूणाहारो ५। ___ एता चेव सोदाहरणं विसेसिज्जंति-अप्पाहारोमोयरिया पमाणोमोदरियाए तिभागे, ते य अट्ठ कवला, सा.. अट्ठविधा, तं जहा-अट्ठकवलअप्पाहारोमोयरिया १ एकूणऽडकवलअप्पाहारोमोदरिता जाया सत्त २ बिऊणऽट्ठकवलअप्पाहारोमोदरिता जाता छ ३ तिऊणऽट्टकवलअप्पाहारोमोयरिया जाया पंच ४ चतुरूणऽटकवलअप्पाहारोमोयरिया जाया चतुरो ५ पंचूणऽट्टकवलअप्पाहारोमोयरिया जाया तिण्णि ६ छऊणऽट्ठकवलअप्पाहारोमोदरिया 15 जाया दो ७ सत्तूणऽढकवलअप्पाहारोमोदरिया जातो एक्को ८ । अप्पाहारोमोयरिया एक्ककवलाहारोमोयरिया जहण्णा, अट्ठकवलाहारोमोयरिया उक्कोसा, सेसा अजहण्णमणुक्कोसा १। इदाणिं अवड्डाहारोमोयरिया बारसकवला, सा चउन्विहा, तं०-बारसकवलअवड्डाहारोमोयरिया १ एकूणबारसकवलअववाहारोमोयरिया जाया एक्कारस २ बिऊणबारसकवलअवढाहारोमोयरिया जाया दस ३ । तिऊणबारसकवलअवड्वाहारोमोयरिया जाया नव ४ । अवडाहारोमोयरियाए जहण्णा नव कवला, उक्कोसा बारस, सेसा अजहण्णमणुक्कोसा २। 20 दुभागोमोयरिया सोलसकवला, सा चतुम्विहा, तं०-सोलसकवलदुभागोमोयरिया १ एकूणसोलसकवलदुभागोमोयरिया जाया पण्णरस २ दुऊणसोलसकवलदुभागोमोयरिया जाया चोद्दस ३ तिऊणसोलसकवलदुभागोमोयरिया [जाया तेरस ४ । दुभागोमोयरियाए] जहण्णा तेरस, उक्कोसा सोलस, सेसा अजहण्णमणुक्कोसा ३। पमाणजुत्ताहारोमोयरिया चतुव्वीसकवला अट्ठविहा, तं०-चतुव्वीसकवलपमाणजुत्ताहारोमोयरिया १ एकूणचतुवीसकवलप्पमाणजुत्ताहारोमोयरिया जाया तेवीसं २ बिऊणचतुव्वीसकवलपमाणजुत्ताहारोमोयरिया जाता बावीसं ३ 25 तिऊण जाया एक्कूणवीसं ४ चतूण• जाया वीसं ५ पंचूण० जाया एक्कणवीस ६ छऊण० जाया अट्ठारस ७ सत्तऊण० जाया सत्तरस ८ । पमाणजुत्ताहारोमोयरिया जहण्णा सत्तरसकवला, उक्कोसा चतुव्वीसकवला, सेसा अजहण्णमणुक्कोसा ४। किंचूणाहारोमोयरिया एक्कत्तीस कवला, सा सत्तविहा, तं०-एक्कतीसकवलकिंचूणाहारोमोयरिया १ एकोणेक्कतीसकवलजुत्ताहारोमोयरिया जाता तीसं २ बिऊणेक्कतीस० जाया एक्कूणतीसं ३ तिऊणेक्कतीस० जाया अठ्ठावीसं ४ चतूण० जाया सत्तावीसं ५ पंचूण० जाया छव्वीसं ६ छऊण जाया 30 पंचवीस ७। किंचूणाहारोमोयरियाए जहण्णा पंचवीस, उक्कोसा एक्कतीसा, अवसेसा अजहण्णमणुक्कोसा ५। एसा पुरिसस्स ओमोयरिया । इत्थियाए वि एवं चेव, णवरं अट्ठावीस कवला संपुण्णाहारो, तदणुसारेण सेसं भाणितव्वं । दव्योमोयरिया गता । भावोमोयरिया चउण्हं कसायाणं उदयनिरोहो उदयप्पत्तविफलीकरणं च ।ओमोदरिता गता २॥ १ लंबणा-कवलाः ॥ २ अवमोदरिकातः॥ ३ प्रमाणावमोदरिकायाः ॥ Jain Education Intemational Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पढमं दुमपुफियज्मयणं भिक्खायरिया अणेगप्पगारा, तं जहा-दव्वाभिग्गहचरगा, जहा कोति अभिग्गहं गेण्हेजा-जति मे भिक्खं हिंडमाणस्स अमुगं दव्वं लभेजा तो पारेयव्वं सेसं न कप्पति, एवमादी भिक्खायरियाए अभिग्गहा तव्वा । अहवा भिक्खायरिया छविहा-पेला य १ अद्धपेला २ गोमुत्तिया ३ पयंगवीहिया ४ संवुक्कावट्टा ५ गंतुपञ्चागता ६ । ३॥ रसपरिचातो खीर-दहि-णवणीयादीणं रसविगतीणं वजणं ४ ॥ 5 कायकिलेसो लोया-ऽऽतावणाती ५॥ संलीणता चतुम्विहा, तं०-इंदियसंलीणया १ कसायसंलीणया २ जोगसंलीणया ३ विवित्तचरिया ४ । इंदियसंलीणया पंचविधा, तं०-सोतिंदियसंलीणया जाव फासिंदियसंलीणया । सोतिंदियसंलीणया णामसद्देसु त भद्दत-पावगेसु सोतविसतमुवगएसुं । स्टेण व तुट्टेण व समणेण सया ण होयव्वं ॥१॥ [ज्ञाता० अ० १७ गा० १६] 10 सेसेसैं वि इंदिएसु एसेव गाधा इंदियविसयाभिलावेणं १ । कसायसंलीणया चतुविहा, तं०-कोहोदयनिरोहो वा उदयप्पत्तस्स वा कोहस्स विफलीकरणं, एवं सेसेसु वि २ । जोगसंलीणया तिविहा, तं०अकुसलमणनिरोहो कुसलमणउदीरणं वा, एवं वायाए, कायसंलीणया चकमणादीणि ण अकजे, कजे जयणाए ३। विवित्तचरिया आरामुजाणादिसु इस्थि-पसु-पंडगविरहिएसु फासुएसणिज्जेसु पीढ-फलगादीणि अभिगिज्झ विहरितव्वं ४ । ६ । एस बज्झो॥ अभितरो तवो छविहो ।तं जहा-पायच्छित्तं १ विणतो २ वेयावच्चं ३ सज्झातो ४ झाणं ५ विओसग्गो ६ ति। पायच्छित्तं दसविहं, तं जहा-आलोयणं १ पडिक्कमणं २ तदुभयं ३ विवेगो ४ वियोसग्गो ५ तवो ६ छेदो ७ मूलं ८ अणवठ्ठप्पो ९ पारंचिओ १० त्ति । परोप्परस्स वायण परियट्टण-लोयकरण-वत्थदाणादिअणालोइए गुरूणं अविणयो ति आलोयणारिहं १ । पडिक्कमणं पुण-पंवयणमादिकादिसु आवस्सग[इकमे वा सहसाइक्कमणे पडिचोतितो सतं वा सरिऊण 'मिच्छा दुक्कडं' करेति, एवं तस्स सुद्धी २ । मूलत्तरगुणातिकमसंदेहे आउत्तेण वा 20 कते आलोयण-पडिक्कमणमुभयं ३ । आहारातीण उग्गमादिअसुद्धाणंगहियाणं पच्छा विण्णाताणं संसत्ताण वा विवेगोपरिचातो ४ । विओसग्गो-काउस्सग्गो, गमणागमण-सुविण-गइसंतरणादिसु ५। तवो-मूलुत्तरगुणातियारे पंचराइंदियाइ छम्मासावसाणमणेकधा ६ । "छेदो-अवराहोपचएण सासणविरुद्धादिसमायरणेण वा तवारिहमतिकंतस्स पंचरातिदियादिपव्वजाविच्छेदणं ७ । मूलं-पगाढतरावराहस्स मूलतो परियातो छिजति ८ । अणवट्ठो-मूलच्छेदाणंतरं केणति कालावधिणा पुणो दिक्खिजति ९ । पारंचितो-खेत्तातो देसाओ वा निच्छुभिजइ १० । छेद-मूल-अणवठ्ठ26 पारंचियाणि देस-काल-पुरिस-सामत्थाणि पडुच्च दिजंति । पायच्छित्तं गतं १॥ .. विणयो सत्तविहो, तं०-नाणविणओ १ सणविणओ २ चरित्त० ३ मण० ४ वति० ५ काय०६ ओवयारियविणओ ७ त्ति । नाणे विणओ पंचविहो, तं०-आमिनिबोहियनाणविणओ जाव केवलनाणविणयो । कहं नाणविणओ ? जस्स पंचसु वि नाणेसु भत्ती बहुमाणो वा, जे वा एएहिं भावा दिट्ठा तेसु सद्दहाणं ति नाणविणतो १ । १“अहवा इमा चउविहा भिक्खायरिया, तं०-पेला अद्धपेला गोमुत्तिया संबुक्कावट्ट त्ति ।" इति वृद्धविवरणे ॥ २ केशलोचा-तापनादिः ॥ ३ ज्ञाताधर्मसूत्रे तुट्टेण व रुटेण व इति पाठो दृश्यते ॥ ४ अत्र शेषचक्षुः-घ्राण-जिह्वा-स्पर्शनेन्द्रियविषयाश्चतस्रो गाथाः ज्ञाताधर्मकथाले सप्तदशाध्ययने द्रष्टव्याः ॥ ५ चक्रमणादीनि ॥ ६ अष्टप्रवचनमातृकादिषु आवश्यकातिकमे वा सहसातिक्रमणे प्रतिचोदितः खयं वा स्मृत्वा 'मिथ्या दुष्कृतम्' करोति ॥ ७ "छेदो नाम-जस्स कस्स वि साहुणो तहारूवं अवराह पाऊण परियाओ छिजइ, तं जहाअहोरतं वा पक्खं वा मासं वा संवच्छ वा एवमादि छेदो भवति ।" इति वृद्धविवरणे ॥ Jain Education Intemational Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० १] दसकालियसुत्तं । ___दसणविणतो दुविधो, तं०-सुस्सूसणाविणतो १ अणासायणाविणओ य २। सुस्सूसणाविणयो-सम्मइंसणगुणाहियाण साधूण सुस्सूसणं सम्मइंसणसुस्सूसणत्थं । सुस्सूसाविणतो अणेगप्पगारो, तं०-सक्कारविणतो १ सम्माणविणतो २ अब्भुट्ठाणविणतो ३ आसणाभिग्गहो ४ आसणाणुप्पदाणं ५ कितिकम्म ६ अंजलिपग्गहो ७ एतस्स अणुगच्छणता ८ ठितस्स पज्जुवासणया ९ गच्छंतस्स अणुव्वयणं १० । सक्कार-सम्माणविसेसोऽयं-वत्थादीहिं सक्कारो. थुणणादिणा सम्माणो । आसणाभिग्गहो-आगच्छंतस्स परमादरेण अभिमुहमागंण नत्थासणेहिं भण्णतिअणुवरोहेण एत्थ उवविसह । आसणप्पदाणं-ठाणातो ठाणं संचरंतस्स आसणं गेण्हिऊण इच्छिते से ठाणे ठवेति । अन्भुट्ठाणादीणि फुडत्थाणीति न विसेसिताणि १। अणासायणाविणतो पण्णरसविधो, तं०-अरहंताणं अणासायणा १ . अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अणासायणा २ एवं आयरियाणं ३ उवज्झायाणं ४ थेर ५ कुल ६ गण ७ संघ ८ संभोगस्स अणासायणा ९ । किरियाए अणासायणा, किरिया-अत्थिभावो, तं०-अस्थि माता अत्थि पिता अत्यि जीवा . एवमादि, जो एयं ण सद्दहति विवरीतं वा पण्णवेति तेण किरिया आसातिया, जो पुण सद्दहति तहाभावं वा 10 पण्णवेति तेण णाऽऽसातिया १०। आभिणिबोहियनाणस्स अणासातणा ११ जाव केवलनाणस्स अणासायणा १२-१५ । एतेसिं पण्णरसण्डं कारणाणं एक्केकं तिविहं, तं०-अरहंताणं भत्ती १ अरहंताणं बहुमाणो २ अरहंताणं वण्णसंज[ल]णता ३, एवं जाव केवलनाणं पि तिविहं, सव्वे वि एते भेदा पंचचत्तालीसं २। इदाणिं चरित्तविणतो, सो पंचविहो, तं०-सामायियचरित्तविणतो १ एवं छेदोवट्ठावणिय. २ परिहारविसुद्धिग० ३ सुहुमसंपराग० ४ अधक्खाय० ५। एतेसिं पंचण्डं चरित्ताणं को विणतो ? भण्णति-पंचविधस्स वि चरित्तस्स 15 जा सहहणता सद्दहियस्स य कारण फासणया विहिणा य परूवणया एस चरित्तविणयो ३।। मणविणयो-आयरियादिसु अकुसलमणवजणं कुसलमणउदीरणं च ४ । एवं वायाविणओ वि ५ । कायविणतोतेसिं चेवाऽऽयरियादीणं अद्धाण-वायणातिपरिसंताणं सीसादारब्भ जाव पादतला पयत्तेण विस्सामणं ६ । ओवयारियविणतो सत्तविहो, तं०-सदा आयरियाण अब्भासे अच्छणं १ .छंदाणुवत्तणं २ कारियनिमित्तकरणं ३ कतपडिकतिता ४ दुक्खस्स गवेसणं ५ देस-कालण्णुया ६ सव्वत्येसु अणुलोमया ७ । तत्थ अन्भासे 20 अच्छणं-'इंगितेण अभिप्पातं णाऊण निजरट्ठाए जहिच्छितं उववातइस्सामीति गुरूणं अब्भासे अच्छति १। तत्थ छंदाणुयत्तणं-आयरियाणं जहाकालं आहारोवहि-उवस्सगाणं उववायणं २। कारियनिमित्तकरणं-पसण्णा आयरिया सविसेसं सुत्त-उत्थ-तदुभयाणि दाहिंति [त्ति] तहा अणुकूलाणि करेति जेणं आयरियाणं चित्तपसादो जायति ३। कतपडिकतिया-जति वि णिज्जरत्यं ण करेति तहा वि मम वि एस पडिकरेहिति त्ति करेति विणयं ४ । दुक्खस्स पुच्छणादीणि पसिद्धाणि अतो ण भण्णति ७ । अधवा एस सव्वो चेव विणतो नाण-दसण-चरित्ताण अव्वतिरित्तो 25 त्ति तिविहो चेव २॥ - इदाणं वेयावच्चं । तं च इमेहिं कज्जति-अण्ण-पाण-भेसज्जादीहिं धम्मसाहणेहिं । तं केसिं कजति ? इमेसिं दसण्हं, तं०-आयरिय १ उवज्झाय २ थेर ३ तवस्सि ४ गिलाण ५ सिक्खग ६ साहम्मिय ७ कुल ८ गण ९ संघाण १० । आयरियो पंचविहो, तं०-पव्वावणायरियो १ दिसायरियो २ सुयस्स उदिसणायरियो ३ सुयस्स समुहिसणायरिओ ४ सुयस्स वायणायरिओ ५।१। अविदिण्णदिसो गणहरपदजोग्गो विज्झातो २ । थेरो-30 जाति-सुय-परियाएहिं वृद्धो, जो वा गच्छस्स संथितिं करेति ३। तवस्सी-उग्गतवञ्चरणरतो ४ । गिलाणो १ "सकारो-थुणणाई, सम्माणो-वत्थ-पत्तादीहिं कीरइ ।" इति वृद्धविवरणे। हरिभद्रपादैरपि वृत्तौ "सकारो-थुणण-वंदणादी, सम्माणो-वत्थ-पत्तादीहिं पूयणं" इत्येव व्याख्यातमस्ति ॥२ गंतूणऽवग्गहत्थेहिं भण्णह इति वृद्धविवरणे पाठः ॥ ३ न्यस्तासनैः ॥ ४ विश्लेषितानि विशेषितानीति वा ॥ ५“अत्थिवादो” इति वृद्धविवरणे ॥ ६ अध्व-वाचनादिपरिश्रान्तानां शीर्षादारभ्य ॥ ७ अभिप्रायम् ॥ ८ यथेप्सितं उपपादयिष्यामीति ॥ ९ समुद्देशनाचार्यः॥ १० अविदत्तदिग्-अप्राहिताचार्यपद इत्यर्थः ॥ ११ उपाध्यायः ॥ Jain Education Interational Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पढमं दुमपुफियज्झयणं रोगी ५। सिक्खगो-अहुणपव्वतितो ६ । साहम्मितो लिंग-पवयणचतुभंगो-तत्थ पवयणतो लिंगतो य जहा साहू साहुस्स, पवयणतो नो लिंगतो जहा साधू सावगस्स, णो पवयणतो लिंगतो निण्हतो, जो णो लिंगतो णो पवयणतो सो णेव साहम्मिओ ७ । कुल-गण-संघा पसिद्धा ८-१० ॥३॥ मज्झाओ पंचविहो, तं जहा-वायणा १ पुच्छणा २ परियट्टणा ३ अणुप्पेहा ४ धम्मकहा ५। वायणा5सीसस्स अज्झावणं १। पुच्छणा-सुत्तस्स वा अत्थस्स वा संकितस्स २ । पेरियट्टणं-पुव्वपढितस्स अन्भसणं ३। अणुप्पेहा-सुत्त-ऽत्थाणं मणसाऽणुचिंतणं ४ । धम्मकहा-जो अहिंसालक्खणं धम्ममणुयोग वा कहतति ५।४॥ ईदाणिं झाणं । तस्स इमं सामण्णं लक्खणं- एगग्गचिंतानिरोहो झाणं, अग्गसद्दो आलंबणे वट्टति, एगग्गोएगालंबणो, आलंबणाणि विसेसेण भणिहिंति, एगग्गस्स चिंता एगग्गचिंता, एतं झाणं छउमत्थस्स; निरोहो केवलिणो जोगस्स, चिंता नत्थि त्ति । "केवलिणो तन्निरोहो न संभवति" त्ति केति, तं न, दव्वमणनिरोहो तस्स 10 भगवतो, जति एगग्गचिंता झाणं ततो जोगनिग्गहो सुतरामेव । जे पुण भणति-"एगग्गचिंतानिरोहो झाणं' ति एतं न घडते केवलिणो, आभिणिबोहियभेदो चिंत ति, तम्हा दढमज्झवसाणं झाण"मिति, ते अविदितविग्गहमेदा सुत्तदूसणेणं बुद्धिमाहप्पमभिलसंति, परिफग्गु जंपियं, दढमज्झवसाओ एतं विसेसेण चिंतारूवं, को एतस्स अज्झवसातो ? यदुक्तं का चिंता ?, तक्कादतो सव्वे आमिनिबोहियनाणभेदा पढिता तत्त्वार्थे । कालनिरोहो आ मुहत्तातो, एगनाणस्स चिरमवत्थाणमसक्कं ती एतं उक्करिसेणं । तं सामण्णलक्खणोववातियं झाणं पत्तेयं 18 लक्खणभेदेण इमाणि चत्तारि अट्ट-रोद्द-धम्म-सुक्काणि । ऋतं-दुःखं तन्निमित्तं दुरज्झवसातो अझं १ । रोदतीति रुद्रः, तेण कृतं रौद्रं-अतिक्रूरतालिङ्गितम् २। खमादिधम्माऽणपेतं धम्मं ३। सु त्ति-सुद्धं शोकं वा क्लामयति सुकं ४ । परिणामविसेसो य फलविसेससूतितो ति भण्णति अट्टे तिरिक्खजोणी, रोइज्झाणेण गम्मती णरयं । धम्मेण देवलोग, सिद्धिगती सुक्कझाणेणं ॥१॥ 20 अट्टमवि सविसए लक्खणभेदेण चउधा । तस्स पढमभेदरूवं-अमणुण्णसंपओगसंपउत्ते तस्स विप्पओगाभि केखी सतिसमण्णागते यावि भवति । अमणुण्णं-अणिटुं, एगीभावेण पगरिसेण य जोगो संपओगो, तेण अमणुण्णेण संपउत्तो, तस्स विप्पओगाभिकंखी 'सतिसमण्णागते' चिंतामणुगते तदेगग्गो चिंतानिरोहेण तमेव झायति, 'कहमणिह्रविसयविप्पओगो भवेज ? इटेहिं वा संपयोगो ? ति सुतिसमण्णाहरणमेव तिव्वराग-दोसाणुगतो कम्ममुवचिणति, पढममेओ १। विवरीओऽयमुत्तरो-मणुण्णसंपओगसंपउत्ते तस्स अविप्पओगाभिकंखी सतिसमण्णागते यावि भवति । मणुण्णा-मणोभिरामा विसता तेहिं संपउत्तो तेसिं अविप्पतोगत्यं तहेव सतिसमण्णाहरणमेव ते अचंतमभिलसंतो दुक्खपडिभीतो करेति बितियभेदो २। अतो पुण आयंकसंपओगसंपउत्तो १ अधुनाप्रबजितः-नवदीक्षितः ॥ २“परियट्टणं ति वा अन्भसणं ति वा गुणणं ति वा एगट्ठा" इति वृद्धविवरणे ॥३ कथयति ॥ ४ "इदाणिं झाण-तं च अंतोमुहुत्तियं भवइ । तस्स य इमं लक्खणं, त.-दढमज्यवसाणं ति । केई पुण आयरिया एवं भणति-"एगम्गस्स चिंताए निरोधो झार्ण" एगग्गस्स किर चिंताए निरोधो तं झाणमिच्छति, तं छउमत्थस्स जुज्जइ, केवलिणो न जुज्जइ ति । कि कारण ! जेण मइ त्ति वा सुति त्ति वा सण्ण ति वा आभिणिबोहियणाणं ति वा एगट्ठा, केवलिस्स य सव्वभावा पञ्चक्ख ति कारण आभिणिवोहियणाणस्स अभावे कओ चिंतानिरोधो भवइ ! तम्हा “एगम्गचिंतानिरोधो झाणं" इति विरुज्झते, दढ़मज्यवसाओ पुण सव्वाणुवाइ ति काऊण । जेसिं पुण आयरियाण “एगग्गचिंता निरोधो झार्ण" तेसिं इमो वक्खाणमग्गो-एगग्गस्स य जा चिंता [निरोधो य] तं माणं भवइ, एते दोण्हाणं, तत्थ एगग्गस्स चिंता एतं साणं छउमत्थस्स भवइ, कहं ? जहा दीवसिहा निवायगिहावत्थिया वि किचि कालतरं निचला होऊण पुणो वि केणइ कारणेण कंपाविजइ, एतं छउमत्यस्स झाणं, तं कम्मि वि आलंबणे कंचि कालं अच्छिऊण पुणो वि अवत्यंतरं गच्छइ; जो पुण एगग्गस्स निरोधो एयं साणं केवलिस्स भवइ, कम्हा? जम्हा केवली सव्वभावेसु केवलोवयोग णिभिऊण चिट्ठइ ।" इति वृद्धविवरणे॥ ५ विप्रहः-समस्तपदपृथक्करणम् ॥ ६ तकोदयः॥ ७“आ मुहूर्तात्" तत्त्वार्थ० ९-२८॥ ८ सामान्यलक्षणोपपादितम् ॥ ९ "तत्य संकिलिट्ठज्झवसायो अट्ट १ । अइकूरावसाओ रोई २ । दसविहसमणधम्मसमणुगतं धम्म ३ । सुकं असंकिलिट्ठपरिणामं अट्ठविहं वा कम्मरयं सोधति तम्हा सुकं ४ ।" इति वृद्धविवरणे ॥ १० स्मृतिसमन्वागतः। “सतिसमन्नागते नाम चित्तनिरोहं काउं झायइ" इति वृद्धविवरणे ॥ ११ स्मृतिसमन्वाहरणमेव ॥ १२ अविप्रयोगार्थ तथैव स्मृतिसमन्वाहरणमेव ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० १] दसकालियसुत्तं तस्स विप्पओगाभिकंखी सतिसमण्णा० । आतंको-दीहकालो कुट्ठाति जेण कहिंचि जीवति, "तकि कृच्छ्रजीवने" इति एतस्स रूवं, आयंकस्स उवद्दवो आसुकारी वा सूलातिरोगो, “रुजो भंगे" सैद्दो, रुजतीति रोगः, अत एव आयंकग्गहणेण रोगो वि घेप्पति, जेणं आयंकस्स उवद्दवो ण पत्तेयं, तस्स विपतोगत्थं सतिसमण्णाहारं काउं झायति ततियभेदो ३ । परिज्झितकाम-भोगसंपउत्ते तस्स अविप्पओगाभिकंखी [ सतिसमण्णागते यावि भवति । परिज्झा-अभिज्झा अभिलासो, कामो-फरिसो, तदुपकारिणो सेसिं दियविसया भोगा, परिज्झितो-अभिलसितो, तेहिं । संपउत्तो। परिज्झितो परिज्झा जस्स संजाता तारकादिइतचि परिज्झितो । जं वा इंद-चक्कवट्टिमहाभोगाभिलासेण सति वा असति वा तधेतदुपपत्तिसुतिसमण्णाहरणं णिदाणं नाम चतुत्थमट्टविहाणं ४ । - को पुण अट्ट झातति ? सामिविसेसेणं सो अविरत-देसविरत-पमत्तसंजता । कण्ह-नील-काउलेस्सा अंतग्गतो भावो । तेसिं इमे क्रियाविशेषा भावसूचकाः, तं०-कंदणता १ सोतणता २ तिप्पणता ३ विलवणता ४ । कंदणंमहता सद्देण विरवणं संपओग-विप्पओगत्थं १ सोयणं-अंसुपुण्णनयणस्स रोयणं २ तिप्पणं-अंतग्गतजरेणं तितोग-10 परितावो ३ विलवणं-हा हा ! कहें, अहो ! विणट्ठो हमिति सोगसंबद्धमणेगसो भासणं ४।१। __अट्टाणंतरसमुद्दिटुं रोइं । तं चउविहं-हिंसाणुबंधी १ मोसाणुबंधी २ तेणाणुबंधी ३ सारक्खणाणुबंधी ४ । हिंसाणुबंधी-सया सत्तवहपरिणामो सीहस्सेव १, मोसाणुबंधी-परभक्खाण-पेसुण्ण-परुसवयणरती २, तेणाणुबंधीपरदव्वहरणाभिप्पातो निचं ३, सारक्खणाणुबंधी-असंकणिज्जेसु वि संकितस्स परोवमद्देण वि सैतसरीरसारक्खणं ४, सव्वत्थ सुतिसमण्णाहारो। तं कस्स भवति ? अविरतस्स देसविरतस्स य तिव्वकण्ह-नील-काउलेसस्स । इमाणि 16 तैज्झाइणो लक्खणाणि-उस्सण्णदोसो १ बहुदोसो २ अण्णातदोसो ३ आमरणंतदोसो ४ । हिंसादीणं अण्णतरे अणवरतं पवत्तमाणो उस्सण्णदोसो १ । हिंसादिसु सव्वेसु पवत्तमाणो बहुदोसो २ । अण्णातहिंसादिदोस-फलविवागो तिव्वतदज्झवसाणो अण्णातदोसो ३ । परिगिलायमाणो वि आगतपञ्चादेसो अभिमुहीभूतकैम्मोदतो कालसोगरिक इव हिंसादिसु अपच्छाणुतावी आमरणंतदोसो ४ । २।। पसत्थमुवरिमं झाणदुगं । तत्थ पढमं धम्म, तं चउव्विहं .उपडोतारं । पडोतारवयणं सव्वविसेससूतणत्थं 30 तस्स विधतो-आणाविजए १ अवायविजए २ विपाकविजए ३ संठाणविजए ४ । आणा-वीतरागवयणं, तेण विजयणं विजतो-जिणभणित-दिढेसु भावेसु धम्मा-ऽधम्मा-ऽऽगास-जीव-पोग्गलत्थिकाय-पुढविकायादि समितिगुत्ति-समय-लोगंत-समुप्पत्ति-विगम-ध्रुवादिसु परमसुहुमेर्स हेउ-दिटुंतादीतेसु वि सुतोवएसेणेव एवमेतदिति अज्झवसातो आणाविजतो, जहा-"तमेव सच्चं निस्संकं जं जिणेहिं पवेदितं" [भाचाराङ्गे श्रु० १ अ० ५ उ० ५ सू० ३] १। मिच्छादरिसणा-ऽविरति-पमाद-कैसाद-जोगाणं इह परलोए य विवागा इति णिच्छतो पसत्यनिच्छओ वा अवात-26 १"तत्थ आतंको णाम-आसुक्कारी, तं०-जरो अतीसारो सूलं सजहूओ एवमादि, आतंकगहणेण रोगो वि सूइओ चेव, सो य दोहकालिओ भवइ, तं०-गडी अदुवा कोढी० [आचा० श्रु. १ अ० ६ उ. १ सू०२] एवमादि' इति वृद्धविवरणे॥२ शूलादिरोगः ॥३धातुरित्यर्थः ॥ ४ विप्रयोगार्थ स्मृतिसमन्वाहारम् ॥ ५"परिज्म त्ति वा पत्थणं ति वा गिद्धि त्ति वा अभिलासो त्ति वा लेप्प ति वा कंख ति वा एगट्ठा" इति वृद्धविवरणे ॥ ६ "तत्थ कामग्गहणेण सहा रूवा य गहिया, भोगग्गहणेणं गंध-रस-फरिसा गहिया" इति वृद्धविवरणे ॥ ७ ध्यायति ॥ ८°ण भितोग° मूलादर्शे । अन्तर्गतज्वरेण त्रियोगपरितापः । “तिप्पणया नाम-तीहि वि मण-वयण-काइएहिं जोगेहि जम्हा तप्पति तेण तिप्पणया।" इति वृद्धविवरणे॥९ एतदातध्यानचतुर्लक्षणानन्तरं वृद्धविवरणकृता ["अहवा कूवणया ककरणया तिप्पणया विलवणया। तत्थ] कूवणया नाम-माति-पिति-भाति-भगिणी-पुत्त-दुहित्तमरणादीसु महइमहंतेण सहेण रोवइ त्ति कूवणया। ककरणया नाम-जो घडीजतन व वाहिज्जमाणं करगरइ सा ककरणया । तिप्पणया-विलवणयाओ पुव्ववणियाओ।" इति प्रकारान्तरेणापि लक्षणचतुष्क निष्टडितमस्ति ॥ १० मृषानुबन्धि-पराभ्याख्यान-पैशुन्य० ॥ ११ खकशरीरसंरक्षणम् , सर्वत्र स्मृतिसमन्वाहारः ॥ १२ तख्यायिनः॥ १३-कर्मोदयः कालशौकरिक इव । कालशौकरिक इति एतन्नामा महाघातुकः कषायी ॥ २४ चतुष्प्रत्यवतारम् । प्रत्यवतारवचनं सर्वविशेषसूचनार्थम् ॥ १५ विधयः प्रकारा इत्यर्थः ॥ १६ °सु मेओ दि मूलादर्श । हेतु-दृष्टान्तातीतेष्वपि ॥ १७-कषाय-॥१८ निश्चयः॥ १९ अपायविजयः अपायविचयो वा ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ णिज्जुत्ति-पुणिसंजुयं [पढमं दुमपुष्फियझयणं विजतो २ । पुण्णा-ऽपुण्ण-कम्मप्पगडि-ठिति-अणुभाव-प्पएसबंधविविहफलोदयचिंतणं विपकविजतो ३ । अस्थिकाय-लोग-दीवोदहि-पव्वय-णदी-वलय-दव्व-खेत्त-काल-पज्जवविचयणं संठाणविजतो ४ । तदत्यं सुतिसमण्णाहारो धम्मं । तं इंदियादिप्पमातणियत्तमाणसस्सेति भण्णति अपमत्तसंजयस्स । तस्स सामिणो लक्खणाणि, तं जहा आणारुयी १ निसग्गरुयी २. सुत्तरुयी ३ ओगाढरुयी ४ । आणारुयी-तित्थगराणं आणं पसंसति १ निसग्ग। रुती-समावतो जिणपणीए भावे रोयति २ सुत्तरुयी-सुतं पढंतो संवेगमावनति ३ ओगाढस्यी-णेयवायमंगगुखिलं सुतमत्यो सोऊणं संवेगजातसडो झातति ४ । आलंबणाणि से चत्तारि जहा विसमसमुत्तरणे वल्लिमादीणि, तं०वायण १ पुच्छण २ परियट्टण ३ धम्मकहातो ४ । इमा पुण से अणुपेहाओ, तंजहा-अणिचाणुप्पेहा १ असरणाणुप्पेहा २ एगत्ताणुप्पेहा ३ संसाराणुप्पेहा ४ । संगविजयणिमित्तमणिचताणुप्पेहं आरभते, “सव्वट्ठाणाई असासताई." गाहा [मरणसमाहीए गा० ५७४] १ । धम्मे थिरताणिमित्तं असरणतं चिंतयति, “जेम्म-जरा-मरण." गाहा 10 [मरण• गा० ५४]२।संबंधिसंगविजताय एगत्तमणुपेहेति, "एको करेति कम्म०" गाहा [महापचक्याणे गा० १५]३। संसारुव्वेगकरणं संसाराणुप्पेहा, "धी संसारो जहियं०" गाहा [मरण० गा० ५९९] ४ । एसा ण केवलमप्पमत्तः संजतस्स उवसामग-खवगसेढीपज्जवसाणे उवसंतकसायस्स खीणकसायस्स एक्कारसंगवितो । एवमणेगविहाणं धम्मज्याणमुपदिटुं३। धम्म पवादितगुणं । अणंतरुद्दिटुं तु तस्स सुत्तं (१ चतुत्थं सुकं), तं चतुन्विहं, तं जहा-पुहत्तवियकं वितारं १ एगत्तवियचं अविचारं २ सहमकिरियमपडिवादिं ३ समच्छिण्णकिरियमणियदि ४। परमाण-जीवादिएकदव्वे उप्पाय-विगम-धुवमावपनायाणेगणयसमाहितं पुहत्ते वा यस्स चिंतणं वितक्कसहचरितं सविचारं च एतं पुहत्तवियकं सविचारं १ । जं पुण पनवंतरविणियत्तितमेगपज्जवचिंतणं सवितकमेव विचारविउत्तं तु तं एगत्तवियक्कमविचारं २ । तं एतं उभयं सामिविसेसेण सुक्कलेसस्स चोइसपुव्वधरस्स अणुत्तरोववाताभिमुहस्स उत्तमसंघयणस्स । उत्तरमवि उभयं उत्तमसंघयणाधिकारा तस्सेव, जेण जीवा नियमा पढमसंघयणे सिझति । वितियं 90 सुक्खयाणमतिकंतस्स ततियमप्पत्तस्स एतं झाणंतरं, एत्थ वट्टमाणस्स केवलनाणमुप्पज्जति । जं पुण भवधारणीयकम्माणं वेयणिज्जादीणं आयुसमधिकाणं अचिन्तमाहप्पसमुग्घायसमीकयाणं तुलेसु वा समुग्धायाभावे अंतोमुहुत्तभाविपरमपदस्स मण-वयण-कायजोगणिरोधपरिणतस्स तिभागूणोरालियसरीरस्थितस्स केवलिस्स सण्णिपंचेंदिय बेइंदिय-पणगजीवापज्जत्तगाहोसंखेजगुणहीणसुहुमजोगत्तं पडिवायविजुतं तं सुहुमकिरियमपडिवाति ३ । जं तु "सीसो आह-अवाय-विवागविजयाणं को पइविसेसो ?। आयरिओ भणइ-अवायो एगतेण चेव अवादहेलहिं सम्मेहिं भवइ, मेहि असहेहिं संसारियाई दुस्साई पावंति ताणि चेव कम्माणि वावहारियणयस्स अवायो भण्गइ। कह ? जहा लोगे अण्णवेजए "अण्णमया बै प्राणाः जम्हा किर अणेण विणा पाणा ण भवंति तम्हा लोगेण अण्णं चेव पाणा कया, एवं इहई पि जम्हा मिच्छादरिसणा-विरइपमाद-कसाय-जोगेहिं विणा णावायो भवइ तम्हा ताणि चेव अवातो भण्णइ । भणियं च-इहलोइए अवाए अदुवा पारलोइए । चितयतो जिणक्वार्य धम्म माण झियायइ ॥१॥ विवागो पुण सुभा-ऽसुभाण कम्माणं जो अणुभावो त चिंतइ सो विवागो। भणियं च-"सुहाणं असुहाणं च कम्माण जो विवागय । उदिण्णाणं च अणुभार्ग धम्मज्झाणं झियायइ ॥१॥" अवाय-विवागाणं एस विसेसो ति गये।" इति सदविवरणे पत्र ३२-३३॥२-प्रमाद-॥३-४ "ओगाहरुयी" इति वृद्धविवरणे ॥ ५नयवादभा-॥६ ध्यायति ॥ .७"भालंबणाणि वायण-पुच्छण-परियट्टणा-ऽणुचिंताओ" इति ध्यानशतके गा.४२॥ ८"सव्वट्ठाणाई असासताई इह चेव देवलोगे य । सुर-असुर-नरावीणं रिद्धिविसेसा सुहाई वा ॥” इति पूर्णगाथा ॥ "जम्म-जरा-मरण-भएहऽमिदुते विविहवाहिसंतते । लोगम्मि णत्यि सरणं जिणिंदवरसासणं मोत्तुं ॥" इति पूर्णा गाथा ॥ १. "एको करेति कम्म फलमवि तस्सेको समणुहोइ । एको जायइ मरइ य परलोयं एकओ जाइ ॥ इति सम्पूर्ण गाथा ॥ ११ "धी। संसारो जहिये जुवाणओ परमरूवगवियओ। मरिऊण जायइ किमी तत्येव कलेवरे नियए ॥" इति पूर्णा गाथा ॥ १२ उपपादितगुणम् ॥ १३ सविचारम् ॥ १४ "मुहुमकिरियं अणियट्टि ३ समुच्छिन किरिय अप्पडिवादि ४।" इति वृद्धविवरणे । व्याख्याप्राप्ति श. २५ उ० ७ स्थानाङ्गसूत्र स्था• ४ उ० १सू० २४७ ध्यानशतक गा. ८१-८२ प्रमृतिष्वयमेव नामप्रकारो रश्यते। यौपपातिकोपाज सू०२. तत्त्वार्थादिषु पुनः श्रीअगस्त्यसिंहपादप्रतिपादितो नामप्रकारो दृश्यते॥१५ “तत्थ आदिल्लाणि दोणि चोहसपुन्विस्स उत्तमसंघयणस्स उवसंत-खीणकसायाणं च भवति ।" इति वृद्ध विवरणे॥ Jain Education Intemational Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ सुत्तगा० १] दसकालियसुत्तं सव्वजोगकृतोवरतं पंचरहस्सक्खरुच्चारणाकालं सेलेसि वेदणीया-उ-णाम-गोतनिस्सेसखवणमणियत्तिसमावं केवलिस्स तं परमसुक्कं समुच्छिण्णकिरियमणियदि ४ । एतेसिं लक्खणाणि-अव्वहे १ असम्मोहे २ विवेगे ३ विओसग्गे ४ । 'अब्बहे' विण्णाणसंपण्णो न बीभेति ण चलति १ 'असम्मोहे' सुसण्हे वि पयत् ण सम्मुज्झति २ 'विवेगे' सव्वसंजोगविवेगं पेच्छति ३ 'वितोसग्गे' सव्वोवहिवितोसग्गं करेति ४ । ईमातो अणुप्पेहातो-अवाताणुपहा १ अणंतवत्तियाणुप्पेहा २ असुभाणुप्पेहा ३ विपरिणामवत्तियाणुपेहा ४ । जहत्थं ओसवावा पेक्खति १० संसारस्स अणंतत्तं० २ असुभत्तं० ३ सव्वभावविपरिणामित्तं०४।ताणि पुण चत्तारि वि सुक्कज्झाणाणि सामिविसेसेण त्रि-एक-काययोग-अजोगाणं । त्रिजोगाणं भंगितसुतपादीणं पुहत्तवितकं, अण्णतरएगजोगाणं एगत्तवियकं, कायजोगाणं सुहुमकिरितमपडिवाति, अजोगाणं समुच्छिण्णकिरियमणियहि । मणसोऽवस्सभावे वि पाहण्णेण निद्देसो सेसाण वि जोगाणं । जहा-"सव्वं कुटुं तिदोसं हि पवणेण तु तिगिच्छितं ।" [ ]। एतेसिं पुण सुक्कझाणाणं जहा जोगकतो विसेसो तहा इमो वि-एकाहारं सवितकं विचारं पढम, बितियं च परमाणुम्मि अण्णत्थ 10 वा एगदव्वे समसियमुभयं अवितकाविचारं तु कटें व तुल्लता अविचारं बितितं । को पुण वितको विचारो वा ? भण्णति-वितको पुव्वगतं सुतं, अत्थ-वंजण-जोगसंकमणं वियारो, एगदव्वविवण्णादिपज्जाओ अत्थो, वंजणं सहो, जोगा कायादयो । एतं सुक्कं । चतुव्विहमवि ज्झाणं परिसमत्तं ५॥ विओसग्गो पुण-वितोसग्गो-परिचागो, सो बाहिर-ऽभतरोवहिस्स जिण-थेरकप्पियाणं चेल चेला दुविहा बारसावसाणचउद्दसोवग्गहे अणेगविहगण-भत्त-सरीर-वाया माणसाणं अभंतरस्स मिच्छादरिसणा-ऽविरति-पमाय-18 कसायाणं वितोसँग्गो इति ६ । अब्भतरो तवो॥ . एस बारसविहो तवो आसवनिरोहसमत्थो निजराकारणं च, "तपसा निर्जरा च" [तत्वा० ९५] इति वचनात् , परमं धम्मसाहणं, तेणं अहिंसा-संजम-तैवसाहितो मंगलमुक्टिं धम्मो भवति । सुत्तप्फासितनिज्जुत्ती गता, वित्थारेण य उवरि मण्णिहिति । उवघायपदत्था य संभवत उक्ता । चालणेदाणि-चालणा पुण सुत्तं पुच्छितगिति(१) चोदगवयणं । किं चणि त्य]गमवत्थं च ऊणं वाऽधियमेव य । संदिद्धं पुणरुत्तं च असिलिटुं च चोदणा ॥१॥ आह चोदगो-'धम्मो मंगलमुक्किट्ठमिति भणिते किमहिंसा-संजम तवगहणेण पैतोयणं १ जतो ताणि चेव धम्मसाहणाणि तम्हा पुणरुत्तदोसोऽयं । चालणा गता ॥ पसिद्धी भण्णति, तं पुण पञ्चवट्ठाणं इमंअण्णातं थितितोपेतं विरोधोपत्थितं णयो । दूसिय पचवत्थाणं सिद्धिमाहु मणीसिणो ॥१॥ १० 28 गम्म-पसु-देसातीणिद्धारणत्थं पहाणसाहणग्गहणं, अहिंसा-संजम-तवेहिं जो साहिजति सो धम्मो मंगलमुक्किडं । सुत्तगतं चोदणावत्थाणं भणितं । इदाणीं पुणो चोयइ-किं एस धम्मो आणाए पडिवजितव्वो अह किंचि कारणमवि पैडिवादणस्थमत्थि? । 'अत्थि' गुरखो भणंति-सव्वण्णुमयमिति पहाणमाणापडिवत्तिकारणं किंतु 30 सीसस्स मैतिविउद्धत्तणमभिसमिक्ख कारणातिवित्थारोपेतमवि भण्णति ति । निडुत्तिगाहा १ पचहखाक्षरोच्चारणाकालम् ॥२ "विवेगो विउस्सगो संवरो असम्मोहो, एते लक्षणा मुक्कस्स" इति वृद्धविवरणे ॥३"इदाणिं अणुप्पेहाओ, तं०-असुहाणुप्पेहा अवायाणुप्पेहा अर्णतवत्तियाणुप्पेहा विप्परिणामाणुप्पेहा ।" इति वृद्धविवरणे॥ ४ अपायानुप्रेक्षा ॥ ५माश्रवापायम् ॥ ६ भतिकश्रुतपातिना दृष्टिवादश्रुतपाठिनामित्यर्थः ॥ ७“विओसम्गो ति वा विवेगो ति वा अधिकरण ति वा छहणं ति वा बोसिरण ति वा एगट्ठा।" इति वृद्धविवरणे ॥ ८"जो अहिंसा-संजम-तवजुत्तो सो धम्मो मंगलमुक भवइ ।" इति वृद्धविवरणे। ९-तपःसाधितः ॥ १० प्रयोजनम् ॥ ११ गाम-पसु मूलादर्शे ॥ १२ प्रतिपादनार्थमस्ति ॥ १३ मतिविबुद्धत्वमभिसमीक्ष्य कारणादि. विस्तारोपेतमपि भण्यत इति ॥ Jain Education Intemational Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पढमं दुमपुप्फियज्झयणं जिणवयणं सिद्धं चेव भण्णती कत्थई उदाहरणं । आसज्ज उ सोयारं हेऊ वि कहिंचि भण्णेजा ॥ २२॥ ज़िणवयणं सिद्धं चेव० । जिणा चउव्विहा जहा पुव्वं भणिता । तेसिं भावजिणाणं वयणं सव्वण्णुत्तणेण अकोप्पं निव्वयणिजं पुज्वपसिद्धमेव । भणितं चवीयरागा हि सव्वण्णू मिच्छा णेव पभासती । जम्हा तम्हा वती तस्स तचा भूतत्यदरिसिणी ॥१॥ ॥२२॥ किंच ण केवलं हेऊ, उदाहरणमवि । अहवा पंचावयवमवि उपपातिजति ति गाहा कत्थति पंचावयवं दसहा वा सव्वहा ण पडिसिद्धं । __ण य पुण सव्वं भण्णति हंदी! सवियारमक्खातं ॥ २३ ॥ 10 कत्थति पंचावयवं सिस्समतिसामत्यावेक्खं भण्णति, दसावयवमवि संभवति । आह-जति पंचदसावयवोववण्णमत्यविवरणसमत्थमत्थि वयणं किण्ण तेणेव वक्खाणिजति सैता। आयरिया भणंति-हंदी! सवियारमक्खातं, हंदीति उपप्पदरिसणे, एवं गिण्ह-एत्थ वा पगरणे पगरणंतरेसु वा कयाइ आगममेत्तमेव कहिज्जति, कदादि सहेतुकं, आगम-हेउ-दिटुंता वा, अहवा सोपसंहारा, पइण्णा हेउ-दिटुंतोवसंहार-णिगमणेहिं वा णिरूविजति आगमवयणं पंचर्हि, दसहिं वा । 13 एतेर्सि पंचण्हं अवयवाणं लक्खणं लोगसिद्धे अत्थे फुडं निदरिसिज्जति ततो समए अत्थपसाहणं भविस्सति साहणीयनिदेसो पतिण्णा, जहा अणिच्चो सद्दो १ । उदाहरणसाधम्मेण साहणीयस्स साहणं हेऊ, वैधम्मेण वा, जहा पयत्तनिष्फण्णत्तणेण साहणीयधम्मेण २ । तद्धम्मभावी दिलुतो उदाहरणं, तविवजए वा, विवरीयं जहा पडो ३। उदाहरणावेक्खो तहेति उपसंहारो ण वा तहेति साहणीयस्स उवणतो, जहा पडो पयत्तनिप्फण्णे त्ति तहा सद्दो वि, ण वा तहेति हेतुववदेसो ४ । पतिण्णाए पुणो वयणं निगमणं, जहा-तम्हा पयत्तनिप्पण्णत्तणेण अणिच्चो 20सद्दो ५ । एतं अवयवनिरूवणं । एतेहिं समए अत्थत्थपसाहणं । धम्मो पत्थुतो, तम्मि साहेतव्वे जीवत्थित्तं णिदरिसिज्जति, तम्मि विजमाणे सव्वं सफलमिति भण्णति-अस्थि जीवो पतिण्णा, एकपदनामसिद्धेरिति हेतुः, दिट्ठतो घडो, जहा घड इति ऍगपतं नाम सिद्धं तं च वत्यु विजते तहा असमासपदं जीव इति, तम्हा एगपदसिद्धेरिति अस्थि जीवो, तस्स सरूवं चेयणत्तणं । दसावयवपरूवणं पुण-पतिण्णा पढमो अवयवो १ पतिण्णासुद्धी २ हेऊ ३ हेउसुद्धी ४ दिहतो ५ दिटुंत25 विसुद्धी ६ उवसंहारो ७ उवसंहारसुद्धी ८ निगमणं ९ निगमणविसुद्धी दसमो १० । एते एत्थेव उवरि भण्णिहिंति । पतिण्णा अक्खरथोववइत्तो फुडा इति । हेतुरपि तदुभयमतिकम्म पहाणमिदमत्थसाहणमिति । मणितं च ताव पइण्णाओ हेउणा वि सह णोवलब्भते अत्यो। जाव [य] लोगपसिद्धो दिलुतो न पयासति ॥१॥ अतो दिटुंतेगट्टितनियुत्तिगाहा इमा णातं १ आहरणं ति य २ "दिहंतो ३ वम्म ४ निदरिसणं ५ तह य । एगहुं तं दुविहं चउव्विहं चेव णायव्वं ॥ २४ ॥ णातं आहरणं ति य०॥णजंति अणेण अत्था णातं १ । आहरति तमत्थे विण्णाणमिति आहरणं २। "दिट्ठोऽस्स अंतो दिहंतो ३ । उवेच्च माणं उवमा, तब्भावो ओवम्म ४ । अहिकं दरिसणं निवरिसणं ५। १ उपपातजुति ति मूलादर्शे । उपपाद्यत इति ॥२°वेक्खत्थं भण्णति मूलादर्शे ॥ ३ सदा-निरन्तरम् ॥ ४ कदाचित् ॥ ५ उपनयः॥ ६ अस्त्यर्थप्रसाधनं धर्मास्तिकायाद्यर्थप्रसाधनमित्यर्थः ॥ ७ एकपदम् ॥ ८ अक्षरस्तोकवचस्तः स्फुटा ॥९नायमुदाहरणं सा० हाटी । ख. वी. आदर्शयोः वृद्धविवरणे अस्यां चागस्त्यचू! णातं आहरणं इत्येव पाठो वर्तते ॥ १०दिटुंतु ३ वमाण ४ नि हाटी ॥ ११ दिदुस्समंतो मूलादर्शे । ॥२३॥ 30 Jain Education Intemational Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ सुत्तगा० १ णिज्जुत्तिगा० २२-२५] | दसकालियसुत्तं एगद्विता गता । तं उदाहरणं दुविहं-चरितं कप्पितं च । चरितं-केणति अणुभूतं दिद्वंतत्तेण उवदंसिजति । कप्पितं-असम्भूतमवि अत्थसाहणत्थमुपपादिज्जति । इदमविजह तुम्भे तह अम्हे तुम्भे वि य होहिहा जहा अम्हे । अप्पाहेति पडतं पंडुयपत्तं किसलयाणं ॥१॥ [उत्त. नि. गा० ३०८ अनुयो० पत्र २३२] . एतं कप्पियं । एत्थ एक्ककं चउन्विहं ॥ २४ ॥ तत्थ गाहा चरितं च कैप्पितं या दुविहं तत्तो चउविहेक्के । आहरणे तसे तद्दोसे चेवुवण्णासे ॥ २५ ॥ चरितं च कल्पितं च । चउव्विहमेव, तं०-आहरणे आहरणतद्देसे आहरणतदोसे उवण्णासोवणए । एतेसि पि एक्कक्कं चरित-कप्पितभेदेण दुविहं ॥ २५ ॥ आहरणं ति दारं, तं चउव्विहं, तं०-अवाते उवाते ठवणाकम्मे पडुप्पण्णविणासि । अवाए वि चउव्विहे, 10 तं०-दव्व-खेत्तकाल-भावावाए। तत्थ दवावाए उदाहरणं-मालवगाओ दोहिं भाउगेहिं सुर8 गंतूण साहस्सितो णउलतो विढत्तो । ते सग्गामं पहाविता तं वारएण वहति । जस्स हत्थे भवति सो इयरं चिंतेति 'घाएमि' त्ति । चिंतेति ण य अज्झवस्संति । सग्गामभासं पत्ता दहतडं पादपक्खालणट्ठमुवगता । जेट्टेण इतरस्स पेच्छंतस्स सहसा दहे पक्खित्तो । कणीयसो संभंतो भणति-किं ते कतं ? । जेद्रेण साहिप्पायो कहिओ । इतरो भणति-मम वि. एस 16 च्चेव अभिप्पातो आसि, सुटु कतं । घरं गताण सागतक्कियं काऊण माताए तेर्सि भगिणी कुमारिया वीहिं पेसिता मच्छाणं । सो णउलओ जेण मच्छेण गिलितो सो मारिओ मच्छिएण, हट्टे विक्कायमाणो तीए गहितो । घरे फालिंतीए [णउलओ] दिट्ठो । सव्वेसिं च चक्दुं हरिऊणं उच्छंगे छूढो कहमवि थेरीए दिट्ठो । पुच्छिया य-किं एतं १ । गृहंतीए घेत्तुमभिप्पायंती थेरी असिएणं मम्मत्थाणे पहता मता य । भाउएहिं पडती दिट्ठा, चेडियसंभमक्खलितो णउलओ [वि] । 'इमो सो अणत्थो' त्ति थेरि सक्कारेऊणं चेडीए दाउं पव्वझ्या ॥ 20 तेहिं दव्वातो अवातो कतो, थेरीए ण कओ । एवमत्थजातस्स कारणगहितस्स अवाओ करणीओ, विणासकारणमिह परलोए य एतं ति । एतं दव्वओ आहरणं ॥ खेत्तावाते-जो जतो खेत्तातो सावातातो अवक्कमति, जहा दसारा मधुरातो जरासंधभएण बारवतिं गता । एवं साधुणा वि असिवादिनित्थरणत्थं खेत्तावादो कातव्यो । कालावाते-जहा दीवायणेम बारवती कालपरिमाणेण मुक्का तहा “संवच्छरबारसएण होहिति०" 25 [भोधनि० भा० गा० १५] गाहा, सकाल एव अवातो कातव्यो। भावावाए उदाहरणं-एक्को खमतो चेल्लएण सह वासारत्ते मिक्खस्स हिंडति । तेण मंडुक्कलिता मारिता । चेल्लगं पडिचोएंत भणति-चिरमता । रत्तिं आवस्सए अणालोएंतो चेल्लएण 'आलोएहि मंडुक्कलियं' ति मणिए रुट्ठो खेलमल्लगं घेत्तुमुद्धातितो खंभस्स अंसीए वेगावडितो मतो जोतिसिएसु उववण्णो । चइत्ता दिट्ठीविसकुले दिट्ठीविसो जातो। तत्थ समीवणगरे रायपुत्तो सप्पेण खतितो। वालग्गाहिणा मंतेहिं मंडलं पवेसित्ता भणिता-जेण खइतो सो 30 अच्छतु, सेसा गच्छंतु । गतेसु एक्को ठितो । अंगाररासिं समीवे काउं भणितो-विसं पडिपिब अग्गिं वा पविस । १ उपपाद्यते ॥ २ कप्पियं वा दु खं० ॥ ३ साहनिकः सहस्ररूप्यकपरिमितः ॥ ४ अध्यवस्यन्ति-प्रवर्तन्ते ॥ ५ स्वाभिप्रायः ॥ ६ क्षेत्रापायः कर्तव्यः ॥ ७ “संवच्छरबारसएण होहिइ असिवं ति तो तओ गिति । सुत्तत्थं कुव्वंता अइसयमाईहिं नाऊणं ॥” इति पूर्णा गाथा ॥ ८ गृहीत्वा उद्धावितः स्तम्भस्य अख्या वेगापतितः ॥ ९ दृष्टिविषाः नागजातिविशेषः॥ Jain Education Intemational Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [ पढमं दुमपुस्फियज्जयण सप्पा य गंधणा अगंधणा य । अगंधणा उत्तमा माणिणो । सो अगंधणो अग्गिं पडितो, न पिबति । मतो रायपुत्तो। रण्णा रुद्वेण घोसावियं-जो सप्पसीसमाणेति तस्स दीणारं देमि । लोगो दीणारलोभेण सप्पे मारेति । तं खमगसप्पकुलं जातीसरं रत्तिं चरति ‘मा दिया दहीहामो'। वालग्गाहीहिं सप्पे मग्गंतेहिं रत्तिं परिमलेण खमगसप्पविलं दिदं । दारट्टिएहिं ओसहीहिं आवाहितो विदितकोवविवागो 'मा अभिमुहो डहिहामि' ति पतीवं निग्गच्छंतो पुंछादारभ कप्पितो जाव सीसं । सो देवतापरिग्गहितो । तीए रण्णो दरिसणं दिण्णं-मा सप्पवहं करेहि, पुत्तो ते भविस्सति । णागदत्तं च से णामं करेहि । खमगसप्पो सम्मं पाणपरिच्चागेण रायपुत्तो जातो नागवत्त इति । जातिसरो खुडलओ चेव तहारूवाणं थेराणं अंतिए पव्वतितो । तिरियाणभाव तणेण छुहालू दोसीणवेलाए आढत्तो ताव मुंजति जाव सूरत्थमणं, उवसंतो धम्मसद्धिओ य । तत्थ गच्छे चत्तारि खमगा-चाउमासितखमतो तेमासिय० दोमासिय० एगमासितो । रतिं देवया वंदिया आगता, एक्कमासितो बारमूले, तदणु दोमासितो, तदणु10तेमासितो, तदणु चाउम्मासितो, पंचमओ खंडतो, ते वोलेउं खुडओ वंदितो । खमगा रुट्ठा । निग्गच्छंती चाउमासितेण वत्यंते घेनुं भणिता-कडपूयणे ! तवस्सिणो न वंदसि १ दोसीणविद्धंसणं वंदसि । सा मणति-मावखमगं वंदामि, ण पूया-सक्कारमाणिणो। ते वेगंतेण सामरिसिता। देवता चेलगरक्खणत्थं पडिचोयणत्थं च सण्णिहिता चेव । बितियदिवसे चेल्लओ दोसीणमाणेतुमालोएत्ता चाउम्मासितं णिमंतेति । तेसिं तदिवसं पारणगाणि, तेण पडिगहगे से निमुढं । मिच्छा दुक्कडं, तुभ मते खेलमलतो ण दिण्णो ति । तमणेण उप्परातो खेलमलए छूटं । एवं तेमा16 सिय-दोमासिएहिं जाव मासिएण अ । फेडेता कुसणियलंबणं गेण्हंतो खमएहिं हत्थे गहितो। तस्स चेल्लगस्स अदीणस्स विसुद्धपरिणामस्स केवलमुप्पणं । देवया भणति-कोषाभिभूता कहं तुम्भे वंदियव्वा ? । [ताहे ते खमगा संवेगमावण्णा-मिच्छा मे दुक्कडं, अहो ! बालस्स माहप्पं, अम्हेहिं पुण आसातितो । तेसि पि सुहअज्झवसाणाणं केवलमुप्पण्णं । एवं कोहा वि अवातो कातव्यो । जीवचिंताए वि सेहादीणं अवातो दरिसिज्जति संवेगत्थं सम्मत्तथिरीकरणत्थं च । जहा-जस्स वादिणो 20 जीवो सव्वहा निच्चो तस्स सुह-दुक्ख संसार मोक्खा ण संभवंति, कूडत्यो सुहादीहिं अविपरिणामी आगासतुल्लो त्ति, जस्स वा खणभंगो तस्स सह कम्मणा पतिक्खणनिरोह समुप्पाते को सुहादिसंबंधो १ । किंचसुह-दुक्खसंपओगो ण संभवति णिच्चपक्खवातम्मि । एगंतुच्छेयम्मि य सुह-दुक्खविकप्पणमजुत्तं ॥१॥ [दशवै० नि० गा० १० हाटी पत्र ४०] । इह पुण अणेगंतपक्खावलंबणम्मि जीवो दव्वट्ठताए निच्चो पज्जवट्ठताए अणिच्चो, दिलुतो सुवणं-जहा 25 सुवण्णमंगुलीयत्तेण विणलु कुंडलभावेण संभूतं सुवण्णदव्वमवहितं, तहा जीवदव्वमवहितं मणुस्सादिपज्जवेण संभूतं विणटं देवादिणा उप्पाय-विगम-हितिजुत्तं ति सुह-दुक्ख-संसार मोक्खा तस्स संभवंति ॥ उवाए त्ति दारं, सो दव्वादि चतुव्विहो । देव्योवातो-जहा धातुवातिता उवादेण सुवण्णादि करेंति तहा संघादिकज्जे जोणिपाहुडादीहिं दव्वोवाए दरिसेति, पडिणीयपडिघायणत्थं वा । खेत्तोवातो-जहा पुत्ववेतालीओ अवरवेताली णावाए गम्मति एवं विज्जादीहिं अद्धाणाती आवती नित्यरितव्वा । कालोवातो-जहा णालियाए 30 कालो णज्जति तहा सुत्त-ऽत्थन्भासेण एत्तिओ कालो गओ त्ति कजे जाणितव्वं ॥ भावोवाते उदाहरणं-सेणितो राया भन्जाए भण्णति-एगखंभं मे प्रसाद कोहि । तेण वडतिणो १ प्रतीपम् ॥ २ दोषीनवेलायाः-प्रथमालिकाभोजनाद् आरब्धः तावत् ॥ ३ धम्मसंठिओ य वृद्धविवरणे ॥ ४क्षपका:-तपखिनः ॥५ञ्जालकः ॥ ६ तेऽप्येकान्तेन सामर्षिताः ॥ ७ निष्टयूतम् ॥ ८ मया खेलमालकः ॥ ९क्षिप्तम् ॥ १० आशातितः॥ ११ण जजए णिचवायपक्खम्मि खे० । ण पविस्सइ णिश्चवायपक्खम्मि वी० । ण विजई निचवायपक्खम्मि सा. हाटी.॥ १२ द्रव्योपायः यथा धातुवादिकाः उपायेन ॥ १३ वर्षकिनः ॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० १] दसकालियसुत्तं । २३ आणत्ता गता कट्ठछिंदगा । तेहिं सलक्खणो महादुमो दिट्ठो, धूवो दिण्णो-जेणेस परिग्गहितो सो दरिसावं देउ जा न छिंदामो, अण्णहा छिंदामो। वाणमंतरेण अभयस्स अप्पा दरिसितो-अहं एकखंभे पासादं सव्वोउयपुप्फ फलं च आरामं करेमि, सव्वरुक्खसमिद्धं मा छिंदहा । ण छिण्णो । कतो [पासादो]। ____ अण्णया एक्काए मातंगीए अंबडोहलो, भत्तारं भणति-आणेहि । अकालो अंबयाणं, रायारामाओ ओणामणीए ओणामेत्ता गहिता अंबा, उण्णामणीए उण्णामिता । रण्णा दिटुं-पदं ण दीसति, कहमंतेउरे ण माणूसो पविट्ठो ? जस्स एसा सत्ती सो अंतेउरमवि विणासज्जा । अभयं भणति-सत्तरत्तभंतरे चोरमणुवणेतस्स पत्थि जीतं । अभतो गवेसति । एगत्थ य गोजो रमिउकामो । लोगो मिलितो। तत्थ अभतो भणति-जाव आढवेति गोजो ताव अक्खाणगं सुणेह ___ एगम्मि दरिद्दसेट्टीकुले वडुकुमारी रूविणी । सा वरकामा देवं अञ्चेति । एक्कम्मि आरामे चोरिउं पुप्फाणि उच्चेंती आरामिगेण दिवा । कविउमारद्धो । सा भणति-मा मे विणासेहि, तव वि भगिणी भागिणेजी वा अस्थि 110 भणति-एक्कहा मुयामि, जदि जद्दिवसं परिणिज्जसि तदिवसं भत्तारं अमिलिता मम सगासं एहि । 'एवं होउ' त्ति विसजिता । परिणीया. तलिमे भत्तारस्स सम्भावो कहितो. विसजिता आरामं जाति । अंतरे चोरेहिं गहिता. तेर्सि पि सव्वं कहियं, मुक्का गच्छति । अंतरा रक्खसो छण्हं मासाणं आहारत्थी णीति । सम्भावे सिढे मुक्का गता आरामितस्स सगासं । दिट्ठा-कतो सि आगता ? । भणति-सो समओ । कहं मुक्का सि भत्तारेणं १ । सव्वं कहेति । 'अहो ! सच्चपतिण्णा, एत्तिएहिं मुक्कं कहं दुहामि ?' ति मुक्का । पडिएंती सव्वेसि मज्झेण आगता । सव्वेहिं मुक्का । 15 भत्तारसगासमक्खुता आगता । __ अभतो जणं पुच्छति-एत्थ केण दुक्करं कतं १ । ईसालुया भणंति-भत्तारेण । छुहालुया-रक्खसेण । पारदारिया-मालागारेणं । हरिएसो भणति-चोरेहिं । सो गहितो 'एस चोरो' ति । अहवा अंबकोइलियाओ कुकुडएहिं ओक्कतल्लियाओ हरिएसेहिं णिज्जाइयातो । 'एस चोरों' त्ति रण्णो उवणीतो । पुच्छितो, सब्भावो कहितो । रण्णा भण्णति-जति णवरं एताओ विजाओ देहि तो न मारेमि । देमि त्ति । आसणत्यो पढिउमावाहेति, ण 20 वहंति । राया भणति-किं ण वहंति ? । पाणो भणति-अविणयगहिता, अहं भूमित्थो तुमं आसणे । तस्स अण्णं आसणं दाउं णीयतरे ठितो, सिद्धा । जहा अभएण उवाएण भावो णातो एवं सेहाणं पव्वावणे भावो नातव्यो । "अट्ठारस पुरिसेसुं०" एतं पंर्चकप्पे ॥ जीवचिंताए वि सेहादीणं उवाओ दरिसिज्जति-पच्चक्खतो अणुवलब्भमाणो जीवो सुह-दुक्खादीहिं साहिजति अस्थि ति, पञ्चक्ख तो] वि विजमाणो घडो दव्वतो कडियोसिणिजति (१), खेत्ततो गामातो 25 णगर, कालओ हेमंताओ वसंतं जाति, भावतो पागेण सामतातो रत्तत्त; एवं जीवो वि कम्मर्सहगतो दव्वतो देवसरीरपरिचागे मणुस्ससरीरजोगलक्खणो अत्थेसो जीवो, दिटुंतो वेतिधम्मेण कुंभो, कुंभदव्ववत्थुत्ते सति चेतण्णविरहितमिति ण केणति जीवो त्ति भण्णति, तम्हा उवयोगलक्खणो अस्थि जीव इति । किंचजो चेति कायगतो जो सुह-दुक्खस्सुवायतो निचं । विसयसुहजाणओ वि य सो अप्पा होति नायव्वो॥१॥ ] 30 चोदगो भणति-तव छज्जीवणियाए (ढविकातियादतो जीवा भणिहिति, तत्थ एगिदिया उवओगविरहिता घडसमाण त्ति न जीवा । गुरखो भणंति हेउगतं साहणं छजीवणियाए, इहाऽऽगमप्पहाणं भण्णति १जीवितम् ॥ २ नाटकादिकारी गायकः ॥ ३ आम्रकोकिलिकाः-आम्रविट् कुर्कुटैः अवकृताः-हदिता इत्यर्थः । यद्वा आम्रकोकिलिकाः-आमछल्लिखण्डाः कुकुंटैः ओकतल्लियाओ-चर्वित्वा निष्कासिताः वान्ता वा ॥ ४ पंचकप्पे इति पञ्चकल्पभाष्ये इत्यर्थः ॥ ५ वैधाण ॥ ६ पृथ्वीकायिकादयः ॥ Jain Education Intemational Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पढमं दुमपुफियजायणं सव्वजीवाणं आहारादीयातो दस सण्णाओ पढिजंति, तहा “सव्वजीवाणं अक्खरस्स अणंतभागो निचुग्याडिओ" [नन्दि० सू०४२] त्ति भणितं, अक्खरं पुण विण्णाणमेव, “जति पुण सो वि वरिन्जेज तेण जीवो अजीवत्तं गच्छेज्जा, सुट्ठ वि मेहसमुदए होति पहा चंद-सूराणं ।" [नन्दि० सू० ४२] । तहा “सव्वविसुद्धे उवओगे अणुत्तरोववातियाणं, उवरिमगेवेजाणं असंखेजगुणहीणे, एवं असंखेज्जयगुणहाणीए जाव पुढविकायिया" [ ], अण्णे सव्वत्थ अणंतगुणहीणे भणंति, तम्हा ते वि अव्वत्तेण उवओगेण उवओगलक्खणो त्ति जीवो एव ।। ठवणाकम्मे त्ति दारं-तं च किंचि णिभं काऊण अभिरुइतस्स अत्थस्स परूवणं, जहा पोंडरीयजायणे पोंडरीयणिभेण परमतदूसणं सव्वणयविरु(सु)द्धपवयणोवदेसो य एवमादि ठवणाकम्मं । ठवणाकम्मे उदाहरणं-मालागारो पुप्फे घेत्तूण वीहिं जाति । सन्नाडोप्पीलितेण सिग्धं वोसिरित्ता घुप्फपुडिया तोवरिं पल्लत्थिता । लोगो पुच्छति-किं पुप्फे छड्डेसि १ । भणति-देवेण अहं एत्थ सन्निहितो ति 10निदरिसणं दिण्णं । अपरिक्खएहि तं परिग्गहितं । अज वि पाडलिपुत्ते हिंगुसिवं देउलं ॥ एवं जति किंचि पावयणीतं उड्डाहं [केणइ कतं पैमादेण तं तहा पच्छादेतव्वं जेण पवयणओभावणा [ण] भवति । जहा ओहनिज्जुत्तीए (१) "ओद्धंसितो य मरुतो साहू पत्तो जसं च कित्तिं च ।" [कल्पभा० गा० १७१६ पत्र ५०६] । एवं जीवादिचिंताए जदि परवादी भासमाणस्स छलं लहेज तस्स तं छलवयणं णयदिट्ठीए तहा वामोहेतव्वं 15 जहा निरुत्तरो भवति ॥ पडप्पण्णविणासीदारं-एगरस वाणितस्स बहुतीओ भगिणी-भागिणेन्जिमादीओ। घरसमीवे [राउलगा] णाडगायरिया संगीतं करेंति तिसंझं । ताओ महिलातो गीयसद्देण तेसु अज्झोववण्णातो कम्मं ण करेंति । वाणिएण चिंतितं-विणढे को उवातो १ । मित्तस्स कहितं । सो भणति-सघरसमीवे वाणमंतरं करेहि । कतम्मि पाडहियाणं मोलं दाऊण संगीतवेलाए पडहे पाडावेति भेरि-झलरि-संखप्पारण । गंधव्वायरिया 'संगीतविग्यो' ति 20 राउलं उवट्ठिया । वाणियतो सद्दावितो । किं विग्धं करेहि ? । भणति-पराए भत्तीए देवस्स पडहे दवावेमि । राया भणति-अण्णत्थ ठाह, किं देवस्स पूयाविग्घेण कतेण १॥ एवं आयरिएण सीसेसु कहिंचि अज्झोववजमाणेसु उवातो कातव्यो तद्दोस निरोहणत्थं । जीवचिंताए वि णोहितवादीणं अदूरयो जीवस्स अस्थिभावो पण्णविजति, तत्थ जति कोति भणेज-सव्वे भावा नत्थि किं पुण जीवो? । सो भण्णति-एयं ते सव्वभावपडिसेहगं वयणं किं अस्थि णत्थि ? जति अस्थि तो जं भणसि 'न सन्ति सव्वभावा' तं न भवति, अह नत्थि पडिसेहवय25 णाभावे अस्थिपक्खसिद्धी । सो एवमादीहिं हेऊहिं पडिहणितव्यो । पडुपण्णविणासी गतं । समत्तमाहरणमिति ॥ ___ आहरणतद्देस त्ति दारं । तं चउन्विहं, तं जहा-अणुसट्ठी १ उवालंभो २ पुच्छा ३ णिस्सावयणं ४ । अणुसट्ठीए उदाहरणं चंपाए जिणदत्तस्स धूता सुभद्दा रूविणी तचण्णियसलेण दिट्ठा, अज्झोववण्णो मग्गति । 'अमिगहियमिच्छादिहि' ति ण लभति । साधुसमीवं गतो धम्म पुच्छति । कहिते कवडसावगधम्म पगहितो, उवगओ 30 य से सम्भावो । [साहूणं] आलोएति-मए दारियानिमित्तं कवडं आरद्धं, अण्णाणि अणुव्वयाणि देह । दिण्णाणि । १"अक्खरं णाम चेयणं ति वा उवयोगो त्ति वा अक्खरं ति वा एगट्ठा" इति वृद्धविवरणे ॥ २ “जहा पुंडरीयज्झयणे पुंडरीयं परूवेतूण अण्णाणि मयाणि दूसियाणि, णिव्वयणं च सव्वणयविसुद्धं पवयणमुट्टि, एवमादि टवणाकम्मं भण्णइ" इति वृद्धविवरणे ॥ ३ मलोत्सर्गबाधोत्पीडितेन ॥ ४ पुष्पपुटिका उपरि पर्यस्ता ॥ ५ प्रावचनिकम् ॥ ६ “पमायेणं ताहे तहा पच्छादेतव्वं जहा पजते पवयणुब्भावगा भवति" इति वृद्धविवरणे ॥ ७ अध्युपपन्नाः-रागवत्यः ॥ ८ अध्युपपद्यमानेषु रागभावमापद्यमानेष्वित्यर्थः ॥ ९ नास्तिकवादिनामदूरतः ॥ Jain Education Intemational Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० १] दसकालियसुत्तं लोगपगासो सावगो जातो । कालंतरेण वरगा पट्ठविता । 'सम्मदिहि' त्ति दिण्णा । कतविवाहा विसज्जिया । जॅयकं से घरं कतं । 'तचण्णिएसु भत्तिं न करेति' ति सासु-णणंदाओ पउट्ठाओ भत्तारस्स से कहेंति एसा खमगेहिं समं [लग्गा] । सो ण सद्दहति । [अण्णदा] खमगस्स भिक्खट्ठमतिगतस्स कणुगं लग्गं । सुभदाए जीहाए फेडितं । तिलगो से खमगललाडं पंस्सिणं संकेतो। उवासियाहिं 'सावगो सि' त्ति भत्तारस्स से सासूयं दरिसियं, पैत्तीतं, ण तहा अणुवत्तति । सुभद्दा चिंतेति-किं चित्तं जदि अहं गिहत्था छोभेगं लभामि? जं सासणस्स उड्डाहं 5 एतं कटुं । काउस्सग्गं ठिता । देवो आगतो-संदिसाहि । अयसं पमजाहि त्ति । देवो भणति-एवं, अहं चत्तारि वि णगरदाराणि टएहामि, भणिहामि य-जा पतिव्वता सा उग्घाडेहिति, तुमं चेव उग्घाडेहिसि, सयणपञ्चयनिमित्तं लणिगतमदगं दरिसेन्जाहि णिग्गलं।तं आसासेऊण गतो देवो । ठतियाणि दाराणि । आदण्णो जणो।आगासे वाया-मा किलिस्सह, जो सती ससएण चालणीगयमुदगं तं घेत्तूणं अच्छोडेति सा उग्घाडेज्ज । कुलवहुवग्गो किलिस्संतो न सक्केति । सुभद्दा सयणमापुच्छति । अविसजेताणं चालणिगतेण उदगेण पाडिहेरे दरिसिते विसज्जिता। उवासितातो 10 पवंचिंति-एसा किल उग्घाडेति!। चालणिगतं से उदगं ण गलति' त्ति विसण्णातो । ततो महाजणेण समुस्सुतेण दीसंती गता । अरहंताणं णमोकार काऊणं चालणीयो उदएण अच्छोडिता दारा । महता कोंचारवं करेमाणा तिण्णि दारा उग्घाडिया, उत्तरं न उग्धाडितं, भणितं-जा मए सरिसा एतं सा उग्घाडेजा । तं अज वि अच्छति । णागरजणेण साहुक्कारो कतो सक्कारिता य ॥ एवं पिय-दढधम्मा वेयावच्चादिसु उज्जमंता अणुसासितव्वा, अणुज्जमंता संठवेतव्वा-सीलमंताणं इहेव 15 एरिसं फलमिति । जीवचिंताए वि जेसिं जीवो अस्थि ते अणुसासितव्वा-साधु एतं जं जीवो अस्थि, अम्ह वि त्थि, जं भणह 'अकारतोऽयं' [एयं ] न जुज्जति, जेण सुहातीणि अणुभवति कत्ता, अणुभवणदरिसणा, तं०करिसंगादतो कम्मं करेंति तस्स फलं सालिमुपभुंजंति, तम्हा करेति भुंजति य । एवमादीहिं हेअहिं अणुसासिज्जति॥ ___उवालंभे त्ति दारं-उदाहरणं मिगावती, जहा आवस्सए दव्वपरंपरए [हाटी० पत्र ६२] जाव पव्वतिता, अज्जचंदणाए सिस्सिणी दिण्णा । कयाइ कोसंबीए भगवतो समोसरणं । चंदा-ऽऽइच्चा सविमाणेहिं वंदगा आगता, 20 दिवसं समोसरणं काउं अत्थमणकाले गता। मिगावती संभंता। 'विकालो जातो' त्ति भणिऊण साहुणीसहिता जाव अजचंदणासगासं गता ताव अंधकारो जातो । अवचंदणादीहिं पडिकंतं । अज्जचंदणाए उवालभतितुमं णाम कुलपसूया एवं करेसि, अहो ! ण लढें । सा पडिक्कमंती पाएसु पडिता परमेण विणएण खमावेति-खमह मे खमज्जाओ!, ण पुणो एवं करेहामि । अजचंदणा य किर तम्मि समए संथारगता पसुत्ता । मिगावती परमं संवेगं गया, केवलनाणमुप्पण्णं । अंधकारे य सप्पो तेणोवासेण आगतो । खमज्जाणं हत्थो लंबमाणो तीए उप्पाडितो 125 पडिबुद्धा पुच्छति-किं एतं १ । भणति-दीहजातितो । किं अतिसतो जं जाणसि ? । आमं । को ? । 'अपडिवादि' त्ति मणिए सा वि संभंता खामेति ॥ एवं पमादी सीसो उवालंभियव्वो । जीवचिंताए वि गोहितवाती उवालंभितव्वो-जं कुसत्थं भवता जीवभावपडिसेहकमुच्चारियं एस जीवभावं कहयति, इट्टालातिसु अत्थि नत्थिं त्ति वीमंसा ण संभवति, तम्हा पडिसेहेण जीवभावं तुमं कहेसि। अत्थि त्ति जा वितका अहवा नत्थि त्ति जं कुविण्णाणं । अच्चतमभावे पोग्गलस्स एवं चिय ण जुत्तं ॥१॥ उवालंभो त्ति गयं ॥ [दशवै० नि० गा० ७७ हाटी० पत्र ५०-1] १ जुयकं पृथगित्यर्थः ॥ २ प्रविन्नं प्रखेदयुक्तमित्यर्थः ॥ ३ प्रत्ययितम् ॥ ४ छोभगं आलं दोषारोपमित्यर्थः ॥ ५ या सती 'स्वशयेन' वहस्तेन । जा सति समएण मूलादर्शे पाठः ॥ ६ समुत्सुकेन ॥ ७ अत्थित्तं तं जं भणह मूलादर्शे ॥ ८ सुखादीनि ॥ ९ कर्षकादयः॥ १० क्षमाः । ॥ ११ नास्तिकवादी ॥ 30 दस०सु०४ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पढमं दुमपुफियज्झयणं पुच्छावारं । कूणिएण सामी पुच्छितो-चक्कवट्टिणो अपरिचत्तकाम-भोगा कालं किच्चा कहिं गच्छंति है। सामी मणति-सत्तमीए पुढवीए । सो भणति-अहं कहिं उववज्जीहामि १ । सामिणा भणियं-छट्ठपुढवीए । सो भणति-अहं सत्तमीए किं न उववन्जामि ? । सामी भणति-सत्तमि चक्कवट्टी गच्छति । भणति-अहं किं न चक्कवट्टी ? मम वि चउरासीतिं दंतिसयसहस्सा । सामी भणति-तव किं रयणा अस्थि ? । सो कित्तिमाणि 5 रयणाणि कारवेत्ता ओयवेउमारद्धो। तिमिसगुहं पविसिउमारद्धो कयमालएण वारितो-वोलीणा चक्कवट्टी पारस वि, तुमं विणस्सिहिसि । ण ठाति । कयमालएण हतो छडिं गतो ॥ एवं बहुस्सुया कारणाणि पुच्छितव्वा, ततो सक्काणि समायरणीयाणि, णासक्काणि । पुच्छह पुणो पुणो आदरेण धारेह कुणह य हियाई । दुलहा संदेहवियाणएसु कुसलेसु संसग्गी ॥१॥ 10 जीवातिचिंताए णाहितवादी भण्णति-नत्थि त्ति को हेऊ १ । भणेज-अपञ्चक्खत्तणं । भण्णति-भवता चम्ममएण चक्खुणा समुद्दजलपत्थपरिमाणं न लब्भति तं किं ण होज १ तम्हा पञ्चक्खत्तणमहेऊ । पुच्छा गता ॥ हिस्सावयणे-गागलिगादयो जहा पव्वतिता तावसा य, आवस्सगविहिणा [हाटी० पत्र २८९ ] गोयमसामिस्स अद्धिती । भगवता भणियं-चिरसंसट्ठो सि मे गोतमा !। तण्णिस्साए अण्णे अणुसासिया दुमपत्तए अज्झयणे । एवं असहणादओ अण्णे मद्दवातिसंपण्णनिस्साए अणुसासेतव्वा । जीवचिंताए नैत्थितो 15 अण्णावदेसेण पण्णविन्जति, अण्णहा राग-दोस त्ति ण पडिवजेज्जा । अण्णो एवं भण्णति-जस्स सव्वभावा सुण्णा तस्स दाण-दमातीणं किं फलं १ । एवमण्णावदेसेणं पण्णविनति । णिस्सावयणं गतं । एवं आहरणतसे ॥ आहरणतहोस त्ति दारं । तं चउव्विहं, तं०-अहम्मपयुत्ते १ पडिलोमे २ अत्तोवण्णासे ३ दुरुवणीते ४ । ___ अहम्मपउत्ते उदाहरणं-चाणक्केण उच्छादिते गंदे चंदगुत्ते ठिते जहा सिक्खाए [भाव० नि गा० ९५० हाटी० पत्र ४३३] णंदपुरिसेहिं चोरग्गाहो मिलितो णगरं मुसत्ति । चाणको अण्णं चोरग्गाहं मग्गति, 20 परिव्वायगनेवच्छेण णगरमण्णातो हिंडति । नलदामकोलियस्स य चेलिक्कं मक्कोडएण खतितं । तेण तं विलं खणित्ता दई । चाणको तहिं भणति-[किं एतं डहसि ? । कोलिओ भणति-] जदि से मूला ण उप्पाडिजंति तो पुणो वि खातिस्संति । चाणको चिंतेति-एस णगरपुरिसे समूले उद्धरिहि-त्ति चोरग्गाहो कतो । तेण दुट्ठा वीसंमिता-अम्हे सहिता मुसामो । तेहिं अण्णे वि अक्खाया-बहुता सुहं मुसीहामो त्ति । ते सव्वे मारिया ॥ एवं अहम्मपउत्तं ण उल्लावेतव्वं, ण कातव्वं । जीवचिंताए वि पावयणीयं कजं णाऊण सावज पि कज्जेन, 25 जहा छलएणं सो परिव्वातो “मोरी उलि." [माव० मूलभाष्य गा० १३८ हाटी• पत्र ३१९] एवमादीहिं विजाहिं जिओ । एवमादी अहम्मपउत्तं ॥ पडिलोमे त्ति दारं-तत्थ अभय-पजोयाणं हरण-पडिहरणोदाहरणं जहा सिक्खाए [आव० हाटी० पत्र ६७४-७५] । जीवचिंताए जदि परवाती एवं भणेजा-दो रासी जीवा अजीवा । तत्थ भणितव्वं न याणसि, तिण्णि रासी । ततियं ठावेत्ता जित्ते भण्णति-बुद्धी तव परिभूता, दो चेव रासी । एवमादी पडिलोमे ॥ 30 अत्तोवण्णासे ति दारं-एगस्स रण्णो तलागं रजस्स आधारभूतं, तं भरितं भरितं भिजति । राया भणति-केण उवाएण ण भिजेज १ । तत्थेगो मणूसो भणति-जदि कविलपिंगलो पिंगलदाढिओ पुरिसो जीवंतो भेदे निक्खम्मति तो ण भिजति । राया भणति-को एरिसो १ । कुमारामचेण भणियं-एवंलक्खणो एस चेव । निक्खतो । एरिसं ण उल्लावेतव्वं जं अप्पवहाए होति । १ उपपत्स्ये ॥ २ साधयितुम् ॥ ३ उत्तराध्ययनसूत्रे दशममध्ययनम् ॥ ४ नास्तिकः ॥ ५ परिव्राजकनेपथ्येन नगरमज्ञातः ॥ ६ बालपुत्रः ॥ ७बहुकाः ॥ ८“मोरी णउलि बिराली वग्घी सीही उलूगि ओवाई । एयाओ विज्जाओ गेह परिवायमहणीओ॥" इति पूर्णा गाथा ॥ ९ निखन्यते ॥ Jain Education Intemational Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 सुत्तगा० १] दसकालियसुत्तं। जीवचिंताए तारिसं ण उल्लावेतव्वं जं दुस्साधितवेताल इव अप्पवहाए । जहा कोति भणेज-एगिंदिया जीवा, जम्हा तेसिं फुडो उस्सास-नीसासो [१ ण] दीसति, दिटुंतो घडो, घडस्स निजीवस्स उस्सासनिस्सासो नत्थि, तहा एगिदियाणं उस्सास-निस्सासो नत्थि तम्हा । एवमाइ विरुद्धं ण भणितव्वं ॥ दुरुवणीत ति दारं-तचण्णिओ मच्छए मारितो रण्णा दिट्ठो भणितो-किं मच्छए मारेसि । भणति-अविलंको न सकेमि पातं । मज पिएसी। भणति-महिला ढोयं ण देति । महिला विते? किं जातपुत्तमंडं छड्डेमि १ । णं पुत्ता वि ते । किं ताई ? खत्तं खणामि । खत्तं पि खणसि १ । किं वाऽकम्म खोट्टिपुत्तागं १। खोट्टिपुत्तो सि १ । कुलपुत्तो को वा बुद्धसासणे पव्वयति ॥ एरिसं ण वत्तव्वं जेण सयं भंडावियति सासणपीला वा। जीवचिंताए तहा सव्वणयविसुद्धमभिधेयं जहा जओ भवति । दुरुवणीयं गतं । समत्तमाहरणतद्दोस त्ति दारं ॥ उवण्णासोवणए चउविहे, तं०-तव्वत्थुगे १ तदण्णवत्थुए २ पडिणिभे ३ हेऊ ४। तव्वत्थुते उदाहरणं-एगम्मि देवकुले पहिया मिलिया भणंति-केण किंचि दिढे १ । एको भणति-मए [किं पि] दिटुं, जति एत्थ सावगो णस्थि तो साहामि । तेहिं भणियं-नस्थि । भणति-मए पुव्वं समुद्दतीरे रुक्खो महइमहालओ दिट्ठो, तस्स साहाओ समुदं थलं च पत्तातो, जाणि से पत्तातिं जले पडंति ताणि जलचराणि भवंति थले थलचराणि । वातिया भणंति-अहो! देवस्स विभूती । एक्कोऽत्थ सावतो भणति-जाणि मज्झे पडंति ताणि कह १ । सो खत्थो भणति-मए पुव्वं भणितं जति सावतो नत्थि तो कहेमि ॥ एवं कुसुइकहाए 15 ततो चेव किंचि वत्थु घेत्तव्वं जेण तुहिक्का भवंति। जीवचिंताए वि जति वैसेसियादी भणेजा-एगतेण णिच्चो जीवो, जम्हा अरूवी, दिलुतो आगासं, जहा आगासमरूवी निचं तहा जीवो वि । सो भण्णति-जति अरूवित्तं णिच्चत्तणे कारणं बुद्धिरपि ते णिचा आवण्णा, ण य तदत्थि, तम्हा अणेगंतितो हेतू । गतं तव्वत्थुयं ॥ सदण्णवत्थुयं ति दारं । जति कोति भणेज-जस्स वाइणो अण्णो जीवो अण्णं सरीरं तस्स अण्णसद्दो तुल्लो20 जीवे सरीरे य, तेण अण्ण इति भणंतस्स जीव सरीराणं एगत्तं भवति । एवं तज्जीव सरीरवादिणा चोदिते उत्तरम्जदि अण्णसहसारिसेण जीव सरीरएगत्तं मण्णसि एवं ते सव्वभावाणं एगत्तं पावति, जम्हा अण्णो देवदत्तो अण्णो जण्णदत्तो, अण्णसद्दो समाणो ति किमुभयमेकं भवति ?, एवं सव्वभावेसु, तम्हा सिद्धं 'अण्णो जीवो अण्णं सरीरं' । गतं तदण्णवत्थुगं ॥ पडिणिभे ति दारं । उदाहरणं-परिव्वातो सोवण्णेणं खोरेणं भिक्खं हिंडति । सो भणति-जो असुयं 25 सुणावेति तस्सेयं देमि । सावरण भणितं तुझ पिता मज्झ पिऊ धारेति अणूणतं सतसहस्सं । जदि सुतपुव्वं दिजतु अह ण सुतं खोरयं देहि ॥१॥ एवं समत्थमुत्तरं दातव्वं । जीवचिंताए जो भणेज-[जं] अस्थि तं पहाणं । सो वत्तव्यो-जति जं अत्थि तं पहाणं एवं घडो अत्थि सो वि ते पहाणं एवमादि । पडिणिभं गतं ॥ हेउ ति दारं, सो चउविहो-जावओ थावओ वंसओ लूसओ । १ अत्रार्थे हारिभद्रीवृत्तिगतमिदं पद्यमवधेयम्कन्याऽऽचार्याऽधना ते !, ननु शफरवधे जालमनासि मत्स्यान् !, ते मे मद्योपदंशान् , पिबसि ?, ननु युतो वेश्यया, यासि वेश्याम् । कृत्वाऽरीणां गलेऽधि, क नु तव रिपवो ?, येषु सन्धि छिनमि, चौरस्त्वम् !, यूतहेतोः, कितव इति कथं ? येन दासीसुतोऽस्मि ॥१॥ २ खत्यो सङ्गितः ॥ Jain Education Intemational Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [ पढमं दुमपुफियज्झयण जावओ-एक्को जवा किणति । अण्णेण पुच्छितो-किं जवा किणसि १ । भणति-जेण मुहा ण लभामि । जीवचिंताए जो भणेज-कहं जीवो न दिस्सति ? । भणति-जम्हा अणिदियगज्झो तम्हा णो दिस्सति । एत्थेव वाणिणीए उदाहरणं-एगा वाणियभजा दुस्सीला 'जतो ततो गच्छतु' त्ति पति भणति-जाहि वाणिज्जेणं। सो भणति-भंडमोलं गत्थि। ताए [ मा] चिरं करेउ' त्ति भणितो-उट्टलेंडाइं उज्जेणि नेहि, दीणारेण एक्केक्कं 5 विक्किणसु । सो सगडं भरेऊण गतो, वीहीए ठविताई, ण कोति गेण्हति । मूलदेवेण दिह्रो पुच्छितो । कहिए णातं-एस वराओ महिलाए वंचिओ । भणितं च तेण-अहं एताणि विक्तिणावेमि. मोलस्स अद्धं देहि । भणति-देमि त्ति । ततो मूलदेवेण कह वि सउणजुत्तजाणविलग्गुष्पतितेण णिसिं णगरोवरि-महसंतिं करेह, जस्स चेडरूवस्स गलए उट्टलिंडिया नत्थि तस्स जीवितं नत्थि । लोएण भीतेण दीणारिकातिं कीताई । दिण्णमद्धं । मूलदेवेण भणितो-तव महिला धुत्ती, ताए एवं 'सिट्टितो सि । भणति-मा एवं भणसु, सा 10 पुण्णमंतिया । मूलदेवेण भणितं एहि जामु, जति ण पत्तियसि । गया अण्णातलेस्साए । मूलदेवेण कयलिपत्तेहिं वेढेत्ता 'मा नजिहिति' ति देवपडिमाकतो कैम्मारएण वहावितो गतो। तीए वि धुत्ताणं आगमणत्थं देवकुलं कतं तस्स कोणे पडिमाए थाणं मग्गितं । दिण्णं । सा महिला विडो य आगतो, मनं पिवंताई गायंति इमं ईरिमंदिरि पत्तहारतो, गततो मज्झ कंतो वणिजारतो । वरिसाण सयं पजीवउ, मा घराई एउ ॥१॥ मूलदेवेण वि उग्गीतं15 कयलीवणपत्तवेढिता !, देउलस्स कोणे । जं मद्दलएण गिजति, तं सुणेहि देव !॥१॥ एवं जापित इति जावतो । सूरोदए निग्गंतूण पभाए आगतो। संभंता अब्भुट्टिता । पच्छा सव्वं संभारियं उवालद्धा य ॥ एवं सीसो केति पदत्थे असद्दहंतो देवता-विजाईहिं सद्दहावेतव्यो । तहा वादी वि कुत्तितावणादीहिं णिजिणितव्यो, जहा सिरिगुत्तेण छलुओ। गओ जावओ ॥ थावए उदाहरणं-एक्को परिव्वायतो भणति लोगमज्झमहं जाणामि । जत्थ पुच्छितो तत्थ कीलगं 20 निहणिऊण भणति-जति विपञ्चओ तो मिणह । सावरण अण्णेसिं समक्खं पुच्छितो भणति-एतं मज्झ । अण्णत्थ वि पुच्छितो भणति-एतं मज्झं । सावरण भणितं-जदि एतं मज्झं तं ण भवति विवजतो वा, पुवावरविरुद्धमिति थावतो। जीवचिंताए वि सो पक्खो घेत्तव्यो जस्स परो उत्तरं ण भणति । एसो थावतो ॥ वंसके-एक्केण गामेल्लएण कट्ठसगडेण णगरं जंतणं अंतरे तित्तिरी मता लद्धा । तं सगडे पक्खिवित्ता गरे पविसंतो णगरधुत्तेण पच्छितो-कहं सगडतित्तिरी लब्भति। तेण भणितं-तैप्पणादयालिताए । धुत्तेण सा 25 आहणिऊणं सगडं सतित्तिरीयं णीयं । गामेलओ सचिंतओ अच्छति । अण्णेण विडेण पुच्छितो-किं चिंतेसि ? । तेण सव्वं कहितं । विडो भणति-जाहि पदेसिणिं वेढेत्ता भण-विसिढे पि ता तप्पणाडुगालियं देहि । दिण्णाए 'अंगुली दुक्खति' ति महिलाए आडतालावेहि । तं महिलं ससक्खियं हत्थे घेत्तुं भण-तप्पणाडुतालिता सगडतित्तिरीए कीता । तेण जहोवएसं कतं । धुत्तेण संण्होरं जेमावेत्ता सगडभरो विसज्जितो, णियत्तिया भन्ना । एवं प्रतिव्यंसित इति वंसतो। जीवचिंताए वि जति कोति अभिमुंजेजा-आरिहताणं 30जीवो अस्थि वा णत्थि वा ?, जदि अस्थि घडो वि,अस्थि उभयमवि अत्थि त्ति एकमवि घडो जीवो य, अह णत्थि त्थियपक्खावलंबणं तं च दुटुं । सो भण्णति-वच्छ ! एस एव अणेगंतवातो णियमा-ऽणियमविसेसेण, जहा १ दैनारिकाणि दिनारमूल्यानीत्यर्थः ॥ २ शिष्टोऽसि शिक्षितोऽसीत्यर्थः ॥ ३ कर्मकारकेण-कर्मकरेण ॥ ४ लक्ष्मीमन्दिरे पत्रधारकः गतो मम कान्तः वाणिज्यकारकः । वर्षाणां शतं प्रजीवतु मा गृहाणि एतु ॥ ५कुत्रिकापणादिभिः-विश्ववस्तुभण्डारापणादिभिः निर्जेतव्यः॥ ६ मता ॥ ७ तप्पणादुयालिता भोजनविशेषः, सक्तुप्रधानं वा भोजनम् ॥ ८शीतीकरणार्थ आचालय ॥ ९ तर्पणाचालिका ॥ १० सण्होरं सलज्जम् ॥ ११ आर्हतानां-जैनानाम् ॥ १२ नास्तिकपक्षावलम्बनम् ॥ Jain Education Interational Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० १ णिज्जुत्तिगा० २६-२८] दसकालियसुत्तं । २९ खदिरो नियमेण वणस्सती, वणस्सती पुण खदिरो सज्ज-ऽज्जुणादी वा । एवं जीवो नियमेण अस्थि, अत्थि पुण जीवो घडो वा । वंसतो गतो॥ लूसए त्ति दारं-एको तउसभरिएण सगडेण णगरं पविसति । धुत्तेण भण्णति-जो एतं सगडं तउसभरितं सव्वं खाति तस्स तुमं किं देसि १ । तेण भण्णति-तं मोदगं देमि जो णगरदारेण न नीसरति । धुत्तेण सक्खीसमक्खं सव्वतउसाणि दंतेहिं उडुक्कियाणि, मोदगं मग्गति । सागडितो भणति-ण खइयातिं । करणे 5 ववहारो-खइयाइं, न विक्कयं गच्छंति । जितो मग्गिज्जति । सतेण वि रूवयाण ण मुच्चति । अण्णेण से धुत्तेण उवदि8विसोदेण घेत्तुं ठावेहि ससक्खितं णगरद्दारेण मोदगं । सो सेतं ण णीति । तहाकते पडिजितो ॥ लूसणं-विणासणं, पुव्वमुत्तरं लूसितमिति लूसओ । जीवचिंताए वि सहसा सामस्थतो वा सव्वभिचारं हेतुं भणित्ता उवचयहेऊहिं समत्थेति । एस हेतू । उवण्णासोवणतो त्ति दारं । दिटुंतो समत्तो ॥ पतिण्णा हेतुपुत्वो दिट्ठतो भवति त्ति तप्पसंगेण सव्वावयवविगप्पा दरिसिजंति-धम्मपसंसा पत्थुता, सो य 10 धम्मो पंचावयवेण दसावयवेण वा साधिज्जति । पंचावयवेण ताव धम्मो गुणा अहिंसादिया उ ते परम मंगल पतिण्णा १ । देवा वि लोगपुज्जा पणमंति सुधम्ममिति हेऊ २॥२६॥ धम्मो गुणा अहिंसादिया उ० गाहा । अहिंसादिसाधितो स इति ते एव अहिंसादिगुणा धम्मो, आदिगहणेणं संजम-तवगहणं । अहिंसा-संजम-तवसाहितो धम्मो मंगलमुक्किटं भवतीति पतिण्णा। पतिण्णाऽणंतर हेऊ, 15 सो पढम सुत्तालावगगतो भण्णति-देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मे सदा मणो। सुत्तप्फासियनिजत्तीगाहापच्छद्धेण विसेसिजति-देवा वि लोगपुज्जा पणमंति सुधम्ममिति हेऊ । देवा लोगेण इंवाइमहामहेसु पूँतिजंति, ते वि अहिंसादिगुणट्ठियं णमंसति । को पुण सुधम्मो ? त्ति भण्णति-जस्स धम्मे सया मणो, धम्मे अहिंसादिगुणसाहणे जस्स [सया ] अविरहितो जावजीवं मणो ॥२६॥ हेऊ गतो । दिढतो भण्णति इमाए अद्धगाहाए दिटुंतो अरहंता अणगारा य बहवे य जिणसिस्सा। वैत्तऽणुवत्ते णज्जति जंणरवतिणो वि पणमंति ३॥ २७॥ दिलुतो अरहंता अणगारा य बहवे य जिणसिस्सा। अरहंताण पुव्वमुद्देसो पूज्यतमा इति । अणगारा समणा गोतमादयो य जिणसिस्सा देवेहिं पूइता । चोदणा-कहं णजति तित्थगरा ससिस्सवग्गा देवेहिं पूतिया ? गाहापच्छद्धं समत्थणं-वत्तऽणुवत्ते गजति जं णरवतिणो वि पणमंति, वत्तं-चिरातीतं 25 तं अणुवत्तेण साधिज्जति, जेण अज वि राय-रायमचा निमित्तसत्थकुसलाण तवस्सिवग्गस्स [य] पूया सक्कार-पजुवासणं करेंति । एस दिलुतो। आह चोदगो-पच्चक्खं वत्थु दिटुंतो भवति, ण य तित्थगरा पञ्चक्खा, आगमाऽणुमाणसाधिता, तेण ण दिटुंतोऽयं, भण्णति-ण अधुणा सुत्तं उप्पण्णं, तक्कालियमेव वत्तऽणुवत्तेण नजति त्ति य ॥ २७ ॥ दिटुंतो गतो। उवसंहारो देवा जह तह राया वि पणमति सुधम्मं है। तम्हा धम्मो मंगलमुकटं निगमणं एवं५॥ २८॥ १खादति ॥ २ लाग्छितानि दष्टानि वा ॥ ३ खादितानि ॥ ४ विशोपकेन-कपर्दिकाया विंशतितमेनांशेन ॥ ५ खयं न निर्गच्छति ॥ ६ पूज्यन्ते ॥ ७ वत्तऽणुवसेणऽजति इत्यपि पदविच्छेदः साधुरेव ॥ ८ "क" इति चतुःसंख्यासूचकोऽक्षराङ्गः ॥९°मुकट्टमिईणिगमणं च ५ खं० वी० । 'मुछिट्टमिई य निग्गमणं ५ सा०॥ Jain Education Intemational Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पढमं दुमपुफियमयणं उपसंहारे इमं गाहापुव्वद्धं-उवसंहारो देवा जह तह राया वि पणमति सुधम्मं । सोभणे धम्मे ठितं जहा देवा तहा रायाणो विर्भविया पणमंति । णिगमणं गाहापच्छद्धेण भण्णति-तम्हा धम्मो मंगलमुफटुं निगमणं एवं । अतो पूयणहेतु त्ति अहिंसा-संजम तवसाहणो धम्मो मंगलमुक्टिं भवति ५॥२८॥ अयमेव पंचावयवसाहितो अत्थो विसेसत्थं दसावयवेण वित्थारिजति वितियपइण्णा जिणसासणम्मि साहेति साहवो धम्म २। हेऊ जम्हा साभावियं अहिंसादिसु जयंति ३ ॥ २९ ॥ बितियपहण्णा जिणसासणम्मि० गाहद्धं । पंचावयवभणियाए पढमपतिण्णाए इमा वितियपदण्णा । तम्मि भावजिणाणं सासणे ठिता साहवो धम्ममणुवालयंति, पतिण्णासुद्धी । जहा जिणाणं सासणे ठिता विसुद्धं धम्ममणुपालेंति ण एवं परतित्थियसमएसु विसुद्धो अणुपालणोवातो । एत्थ चोदेति-सव्वे पावादिया 10 अप्पप्पणो धम्मं पसंसंति, धम्मसद्दो य तेसु वि । गुरवो भणंति-नणु भणितं "सावजो उ कुतित्थियधम्मोण जिणेहिं उपसत्थो”[नि० गा० २० ] जो वि एतेसिं सासणे धम्मसद्दो सो उवयारतो, णिच्छततो पुण अहिंसा-संजम-तवसाहितो जो सो धम्मो, जहा सीहसदो सीहे पाहण्णेण उवयारेण अण्णत्थ, एसा पतिण्णाविसद्धी २। अहिंसादिगुणजुत्तत्तं हेऊ, तत्थ इमं गाहापच्छद्धं-हेऊ जम्हा साभावियं अहिंसादिसु जयंति जम्हा अहिंसादिसु महन्वतेसु सभावेण जयंति कहमक्खलियसील-चारित्ताण मरणं भवेज १ । एस हेऊ ३ ॥ २९ ॥ 15 हेउविसुद्धी जं भत्त-पाण-उवकरण-वसहि-सयणा-ऽऽसणादिसु जयंति । फासुयमकयमकारियमणणुमतमणुदिसितभोती ॥ ३० ॥ जं भत्तपाणउवकरण. अद्धगाहा । जेण अहिंसादिविसुद्धिनिमित्तं भत्त-पाण-उवकरण-वसहिसयणा-ऽऽसणादिसु संजमोवकरणेसु जयंतीति । किमिदं ? एत्थ इमं गाहापच्छद्धं-फासुयमकय20 मकारियमणणुमतमणुद्दिसितमोती, धम्मोवकरणाणि एवंविहाणि भुंजंति ॥ ३० ॥ कुतित्थिया पुण अप्फासुय-कय-कारित-अणुमय-उद्दिट्ठभोईणो हंदि ।। तस-थावरहिंसाए जणा अकुसला उ लिप्पंति ॥३१॥ अप्फासुयकयकारित० गाहा । हेतुविसुद्धी ४ ॥ ३१ ॥ दिलुतो25 २. जहा दुमस्स पुप्फेसु भमरो आवियती रसं । ___ण य पुप्फ किलामेति सो य पीणेति अप्पयं ॥२॥ २. जहा दुमस्स पुप्फेसु भमरो आवियती रसं । जहा इति उवमा । दुमो वणितो पुष्पाणि य । तेसु भमरो आवियति पियति । रसो सारो । एस दिटुंतो एगदेसेण-चंदमुही दारिकेति, अतीवसोमता अवधारिजति ण सेसं, एवं भमरदिटुंते अणियतवित्तित्तणं अकिलामणकरणं च घेप्पति । एस दिलुतो । दिटुंतविसुद्धी 30 सुत्तेण भण्णति-ण य पुप्फ किलामेति सो य पीणेति अप्पयं । ण य पुप्फाणं किलामणं करेति अप्पाणं च पीणेति त्ति दिटुंतविसुद्धी ॥२॥ १ वैभविका ऋद्धिमन्तः॥ २ साभाविएसुऽहिंसा खं० वी० । साभाविएहिऽहिंसा हाटीपा• (1)॥ ३ फासुय. अकय-अकारिय-अणणुमय-अणुदिट्ठभोई य खं० वी० सा•॥ ४ भोयणो वी० ॥ ५६ इति चतुःसंख्याद्योतकोऽक्षराहः॥ Jain Education Intemational Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० २ णिज्जुत्तिगा० २९-३७] दसकालियसुत्तं । दिलुतो दिटुंतविसुद्धी य सुत्तफासितनिज्जुत्तीए भण्णति जह भमरो त्ति य एत्थं दिटुंतो होति आहरणदेसे । चंदमुहिदारिगेयं सोमत्तऽवधारण ण सेसं ५॥ ३२॥ जह भमरो त्ति य एत्थं० अद्धगाधा पाढेण गतत्था ५॥ ३२ ॥ दिटुंतविसुद्धीए णिज्जुत्तिमासंकामुहेण सूरिराह एत्थ य भणेन कोती समणाणं कीरती सुविहिताणं । पाकोवजीविणो त्ति य लिप्पंताऽऽरंभदोसेण ॥ ३३ ॥ वासति ण तणस्म कते ण तणं वहति कते मयकुलाणं । ण य रुक्खा संतसाहा फुलेंति कते महुयराणं ॥ ३४ ॥ एत्थ य भणेज कोती समणाणं कीरती सुविहिताणं पाकोवजीविनिमित्तं पाको कीरति त्ति 10 पाकोवजीविणो साहवो वि आरंभदोसेण संबज्झंति ॥ ३३ ॥ उत्तरम्–ण एतं एवं, जम्हा-- वासति ण तणस्स कते. गाधा पाढसमा । एत्थ चोदेति हविं अग्गिम्मि हूतति, सो आदिचं प्रीति, आदिच्चो वरिसेति प्रजावृद्धिनिमित्तं, [ ततो] ओसहीओ संभवंति, तेण ण कहं तणस्स कते १ । सूरिराह-यदि एवं तो सव्वदा हूयति ति न कयाति दुभिक्खं होज, अह दुरिटं किं सव्वत्थ तुलं ? तेण एतं ण किंचि; अह इंदो णिग्धातादीहिं विग्विजति ? अह रितुविसेसेणं ? जम्हा हिमं हेमंते, किं पयाहितकप्पणाए ? तम्हा न तणस्स कते 15 ॥३४॥ इदं च किंच दुमा पुफेती भमराणं कारणा अहासमयं । . मा भमर-महुगेरिगणा किलामएज्जा अणाहारा ॥ ३५॥ किंच दुमा पुष्पेंती० गाहा पाढेण सिद्धा ॥ ३५ ॥ कस्सति बुद्धी-पयावतिणा सत्ताणं वित्ती विहिता तेण दुमा भमराणं अट्ठाए पुप्फंति, तं ण भवति, ते हि दुमनामा-गोतस्स कम्मस्स उदएणं पुप्फ-फलं निव्वाति 120 किंच अत्थि यहू वणसंडा भमरा जत्थ ण उवेंति ण वसंति । तत्थ वि पुष्पेंति दुमा पगती एसा दुमगणाणं ॥३६॥ अत्थि बहू वणसंडा० ॥ ३६ ॥ अह भणेज-जति पगती किमकाले न पुप्फ्रेंति फलिंति वा । आयरियो आह-जं काले पुप्फ-फलं अत एव पगती एस दुमाणं जं उउसमयम्मि आगए संते । पुति पादवगणा फलं च कालेण बंधति ॥ ३७॥ पागोव० ख० वी० ॥ २तिणस्स ख०॥ ३ तिणं खं० ॥ ४ मइकु वी० ॥ ५ सयसाला खं०॥ ६ "एत्यंतरे सीसो चोदेइ, जहा-मेहा पयाविवहिनिमित्तं वासंति, सा य पयाविवड्डी ण तेण विरहिया भवइ, तम्हा जं भणह “वासइ न तणस्स कए" तं विरुज्मइ । एत्य आयरिओ भाह-न तं एवं भवइ, कम्हा ?, जम्हा सुतीओ विरुद्धाओ वीसंति । परे कहयंति जहा-मघवं वास; अण्णे पुण भणति-गमा वासंति; तत्थ जइ इंदो वासति तओ उक्कावात-दिसादाह-निग्घायादीहिं उवघाओ वासस्स न होज्जा; अह पुण गम्भा वासंति तओ तेसिं असण्णीणं णे सण्णा भवति, जहा-लोगस्स अट्ठाए वरिसामि त्ति तणाणं वा अट्ठाए।" इति वृद्धविवरणे॥ ७ विध्यते ॥ ८ किं तु वृद्धविवरणे ॥ ९°महुयरि वी०॥ १० च ण उति वी०॥ ११ पई खं० वी० ॥ Jain Education Intemational Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पढमं दुमपुफियज्झयणं पगती एस दुमाणं० गाहा ॥ ३७॥ जहा दुमा रितुविसेसेण पुष्पेंति न भमरट्ठा तहा किण्णु गिही रंधती समणाणं कारणा सुविहियाणं १ । मा समणा भगवंतो किलामएज्जा अणाहारा ॥ ३८ ॥ कंतारे दुन्भिक्खे आयके वा महई समुप्पण्णे । रत्तिं समणसुविहिया सव्वाहारं ण भुंजंति ॥ ३९ ॥ अह कीस पुण गिहत्था रत्तिं आयरतरेण रंधति ?। समणेहिं सुविहिएहिं चउविहाहारविरएहिं ॥ ४० ॥ अत्थि बहुगाम-देसा समणा जत्थ ण उवेंति ण वसंति । तत्थ वि रंधति गिही पगती एसा गिहत्थाणं ॥४१॥ पगती एस गिहीणं जं गिहिणो गाम-णगर-णिगमेसुं। रंधति अप्पणो परियणस्स कालेण अट्ठाए ॥४२॥ ऍत्थ य समणसुविहिया परकड-परनिट्टियं विगयधूम। आहारं एसंती जोगाणं साहणट्ठाए ॥४३॥ णवकोडीपरिसुद्धं उग्गम-उप्पायणेसणासुद्धं । छहाणरक्खणहा अहिंसअणुपालणट्ठाए ६॥४४॥ किण्णु गिही रंधंती० गाहा ॥ ३८ ॥ अह भणेज-समणअणुकंपणट्ठा पुण्णनिमित्तं च जुत्तमेव गिहत्थाणं पाककरणं, समणट्ठाए पुण पाको ति कहं निरुवलित्ता ? । एत्थं भण्णति-जं भणसि साधुनिमित्तं पाककरणं तं ण, जम्हा-कंतारे दुन्भिक्खे० गाहा पाढगता ॥ ३९ ॥ अह कीसः । इदमवि तहेव ॥४०॥ अस्थि बहगामदेसा॥४१॥ पगती एस गिहीणं० पुव्वगतं ॥४२॥ एत्थ य समण सुवि20 हिता। एसा वि ॥४३॥ णवकोडीपरिसुद्धं । इमाओ णव कोडीओ-ण हणति ण हणावेति हणंत नाणुजा णेति ३, ण पयति०३, ण किणति०३ । णवकोडीहिं उग्गम-उप्पायणाहि य सुद्धमाहारेति । इमेहिं पुण कारणेहिं"वेर्यण वेयावच्चे०" सिलोगो (१ गाहा) जहा पिंडनिजुत्तीए [ गा० १०२३] । एसा दिटुंतविसुद्धी ६॥४४॥ ___उवसंहारो सुत्तेण भण्णति ३. एमेते समणा मुक्का जे लोके संति-सार्हवो । विहंगमा व पुप्फेसु दाण-भत्तेसणे रया ७॥३॥ ३. एमेते समणा० सिलोगो । एवंसद्दो तहासद्दस्स अत्थे, जहा दुमपुप्फरसं भमरा, वकारलोपो सिलोगपायाणुलोमेणं । एते इति साहुणो पञ्चक्खीकरेति अणियतवित्तित्तणेण । समणा तवस्सिणो, "श्रमू तपसि" इति । मुक्का आरंभदोसेणं । जे इति उद्देसे । लोके इति पराहीणवित्तिता दरिसिज्जति । संति विजंति [साहवो] खेत्तंतरेसु वि एवंधम्मताकहणत्थं । अहवा संतिं सिद्धिं साधेति संतिसाधवः । उवसमो वा संती तं सोहेंति कारणा अहासमयं खं० वी० सा० ॥ २ महया खं०॥ ३ गाम-नगरा समणा ख. वी. सा. वृद्धविवरणे च ॥ ४ तत्थ समणा सुविहिया पर वृद्धविवरणे । तत्थ समणा तवस्सी पर° खं० वी० सा• हाटी० ॥५हरिभद्रपादैः टीकायाम् "इयं च किल भिन्नकर्तृकी" इति निर्दिष्टमस्तीति तेषामभिप्रायेणेयं गाथा न नियुक्तिसत्का। चूर्णि-वृद्धविवरणाभिप्रायेण तु नेयमन्यकर्तृकीति नियुक्तिगाथेयम् ॥ ६ “वेयण १ वेयावच्चे २ इरियट्ठाए य ३ संजमट्ठाए ४ । तह पाणवत्तियाए ५ छटुं पुण धम्मचिंताए ६॥" इति पूर्णा गाथा ॥७ मुत्ता अचू० विना ॥८ साहुणो अचू० विना ॥९ साहेंति-साधयन्ति कथयन्ति इति वा। "तामेव गुणविशिष्टां शान्ति साधयन्तीति [शान्ति] साधवः, अहवा संति-अकुतोभयं भण्णइ, ते चेव साहुणो अप्पमत्तत्तणेणे जीवाणं शान्ति भणति" इति वृद्धविवरणे॥ 25 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 सुत्तगा० ३-५ णिज्जुत्तिगा० ३८-४७] दसकालियसुत्तं । संतिसाहवो । णेव्वाणसाहणेण साधवः । साहणीयसाहणतुल्लतोवसंहरणत्थं भण्णति-विहंगमा व पुप्फेसु दाणभत्तेसणे रया, विहं-आगासं, विहायसा गच्छंति त्ति विहंगमा, के य ते १ भमरा एत्थाहिकता इति । विहंगमा व पुप्फेसु जहा विहंगमा पुप्फेसु एवं ते दाणभत्तेसणे रता, दाण इति दत्तं गेहंति, भत्त इति “भज सेवायाम्" इति साहुजोगता भण्णति, एसणे इति गवेसण गहण-घासेसणा सूइता, रता इति एसणासु आउत्ता । एस उवसंहारो ७॥ ३॥ उवसंहारविसुद्धी सुत्तफासितनिजुत्तीए भण्णति- 5 अवि भमर-महुकरिगणा अविदिन्नं आवियंति कुसुमरसं । समणा पुण भगवंतो णादिण्णं भोत्तुमिच्छति ॥ ४५ ॥ अवि भमर-महुकरिगणा० गाहा पाढसिद्धा ॥४५॥ एत्ताहे अणंतरनिहुत्तिगाहा सुत्तविहिणा समत्थिज्जति सिस्ससंपच्चायणत्थं, आयभावो य साहुसामण्णो दरिसिजति त्ति गुरवो भणंति ४. वयं च वित्तिं लब्भामो ण य कोति उवहम्मति । अहागडेहिं रीयंति पुप्फेहिं भमरा जहा ॥ ४ ॥ ४. वयं च वित्तिं लन्भामो ण य कोति उवहम्मति । कहं णो उवहम्मति ? दाणभत्तेसणे रय त्ति, उग्गमुप्पायणेसणासुद्धमुंछमाहोरेंतेहिं । पुणरवि एगदेसोदाहरणस्स पतिसमाणणत्थं भण्णतिअहागडेहिं रीयंति पुप्फेहिं भमरा जहा, पवित्तीए अणण्णहाभावं दरिसेति अहासदो, जेण पगारेण पढमं साहुग्गहणं भिक्खग्गहपवित्तीए कयं तहा इदाणीमवि कयं, जहा सरितुसभावपुप्फितेहिं भमरा तहा 15 गोत्तसामण्णेसु पागेसु साहुणो रीयंति तृप्तिमुवलभंति ॥ ४ ॥ अत एव ५. मधुकारसमा बुद्धा जे भवंति अणिस्सिया। नाणापिंडरया दंता तेण वुचंति साहुणो ॥ ५ ॥ त्ति बेमि ॥ ॥ दुर्मपुफियज्झयणं समत्तं ॥ ५. मधुकारसमा बुद्धा जे भवंति अणिस्सिया। मधु कुव्वंतीति मधुकरा तेहिं तुल्ला सरिसा, 20 तस्समाणा बुद्धा जाणगा अणिस्सिया अणभिसंधितदायारो ॥ चोदगो भणति अस्संजतेहिं भमरेहिं जदि समा संजता खलु भवंति । एयं उवमं किच्चा णूणं अस्संजता समणा ॥ ४६॥ अस्संजतेहिं भमरेहिं जदि समा० गाहा । जदि भमरसमा तो अस्सण्णिणोऽसंजता य, जतो एवंगुणा भमरा । गुरवो भणंति-बुद्धगहणेण अणिस्सियगहणेण य तं परिहरितं ॥ ४६॥ अहवा इमं सुत्तफासितणिज्जुत्तिगतमुत्तरं उवमा खलु एस कता पुव्वुत्ता देसलक्खणोवणया। अणिययवित्तिणिमित्तं अहिंसअणुपालणट्टाए ॥४७॥ 25 १सहगरिगणा खं० । महुयरिगणा वी० सा० । मधुकरगणा वृद्ध० ॥ २ आइयंति वी० । आदियंति श्रद्धविवरणे । ३ अहागडेसुरीयंते पुप्फेहिं वृद्धविवरणे । अहागडेसु रीयंते पुप्फेसु हाटी० खं १-२-३-४ जे. शु.। अब पाठभेदे जे• खं २-४ प्रतिषु रीयंति पाठो वर्त्तते ॥ ४ खऋतुस्वभावपुष्पितेषु ॥ ५इयं पुष्पिका खं १ प्रतावेव वर्त्तते ॥ ६ अनभिसन्धितदातारः अन पेक्षितदातारः॥ ७जति खं० । जइ वी.॥ दस० सु०५ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ -णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [ पढमं दुमपुफियज्झयणं उवमा खलु एस कता० गाहा । एगदेसेण उवमा-जहा सीहो माणवगो, सूरतामेत्तं सारिसं, ण सरीरागारो सेसगुणा वा, एवमणुवरोहवित्तिता तुला, न सेसं ॥ ४७ ॥ इमं च - जह दुमगणा उ तह णगरजणवया पयण-पायणसभावा। जह भमरा तह मुणिणो वरि अदिण्णं ण गेण्हंति ॥ ४८॥ 5 जह दुमगणा उ० गाहा । जहा सभावतो दुमा काले पुप्फ-फलं देंति तहा जणा वि पाकादि । जहा भमरा तहा मुणिणो विसेसधम्मा ण अदिण्णं गेण्हंति ॥४८॥ कहं पुण जहा भमरा तहा मुणिणो ? नणु कुसुमे संभावपुप्फे आहारेंति भमरा जह तहेव । भत्तं सभावसिद्धं समणसुविहिता गवसंति ॥ ४९ ॥ 10 कुसुमे सभावपुप्फे० णिज्जुत्ती। जहा सभावकुसुमितेसु दुमेसु भमरा अणुवरोहेण रसमापियंति __ एवं लोगस्स सभावनिव्वत्तियातो पागातो समणसुविहिता उग्गमादिविसुद्धमाहारेति (माहारं गवेसंति) ॥ ४९ ॥ असण्णि-असंजतदोसपरिहरणत्थं विसेसेण उवणतोवदरिसणत्थं च इमा अद्धगाहा ___ उवसंहारो भमरा जह तह समणा वि अवधजीवि त्ति। उवसंहारो [भमरा] जह तह ख (स) मणा वि अवधजीवि त्ति । जहा भमरा पुप्फस्स 15 अणुवमद्देणं तहा अणुवरोहेण साहुणो ॥ संजतेहिं भमरेहितो गुणाहिकयासमुन्भावणत्थं भण्णति नाणापिंडरता दंता, नाणापगारं दव्वादिअभिग्गहविसेसेहिं पिंडरता, 'अंत-पंत-विगतिविवन्जितेसु वा सरीरधारणमुद्देसरतिगता । भण्णिहीति य-"अरसं विरसं वा वि" [अ० ५ उ० १ श्लो० १२० ] दंता दव्वयो अस्स-हत्थिमादि, भावतो इंदियनोइंदियदमेण दंता साहुणो ॥ वक्खाणधम्मतोवदरिसणत्थमत्थवित्थारणनिमित्तं च भण्णति दंत त्ति पुण पदम्मी णातव्वं वक्कसेसमिणं ॥५०॥ दंत त्ति पुण पदम्मी णातव्यं वक्कसेसमिणं । वक्कसेसो-जं सुत्ते सूतितं लाघवत्थं न निगदितं । दंत त्ति एगजातिताणि पदाणि सूतिजंति-खंतो गुत्तो एवमादि ॥ ५० ॥ जह एत्थ चेव इरियादिएसु सव्वम्मि दिक्खियपयारे । तस-थावरभूयहियं जयंति सम्भावियं साहू ८॥५१॥ 25 जह एत्थ चेव० गाधा । जहा एयम्मि चेव अज्झयणे एसणासमितिपसंगेण सेससमितिवयणमवि दिक्खियपयारे जं दिक्खियायरणितं तं सव्वमुक्तम् । उवसंहारविसुद्धी ८॥५१॥ निगमणं तेण वुचंति साहुणो, जेण मधुकारसमा नाणापिंडरता य तेण कारणेण । तम्हा अहिंसा संजम-तवसाहणोववेतमधुकरवयऽणवज्जाहारसाधुसाहितो धम्मो मंगलमुक्कटुं भवति ९ ॥५॥ 'णिगमणविसुद्धी चोदणा विसंव [य]इत्ति आसंकामुहेण गुरवो भणंति-जति कोति भणेज-तित्थंतरिया वि 30 अहिंसादिगुणजुत्ता इति तेसिं पि धम्मो भविस्सति तत्थ समत्थमिदमुत्तर-ते छक्कायजतणं ण जाणंति, ण वा उग्गमउप्पायणासुद्धं मधुकरवदणुवरोहि भुंजंति, ण वा तिहिं गुत्तीहिं गुत्ता । साहवो पुण १ अनुपरोधवृत्तिता ॥२णवर वृद्ध० ॥ ३ अदत्तं खं० वी० सा० ॥४ण भुंजंति सा. हाटी० ॥५सहावफुल्ले खं. वी. सा हाटी० ॥६ तहा उ सा०॥७°जीवीआ खं०॥ ८ अन्त-प्रान्त-विकृतिविवर्जितेषु ॥ ९णायव्वो वक्सेसोऽयं ख• हाटी.॥ १० मधुकरवद् अनवद्याहारसाधुसाधितः ॥ ११ निगमनविशुद्धिं चोदना विसंवदते इति ॥ 20 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ५ णिज्जुत्तिगा० ४८-५७] दसकालियसुत्तं । कायं वायं च मणं च इंदियाई च पंच दमयंति। धारेंति बंभचेरं संजमयंती कसाए य ॥५२॥ कायं वायं च मणं० गाहा । कारण जुत्तं चेहँति, वायाए अकुसलवतिणिरोहिणो कुसलउदीरगा, एवं कुसलमणे । कुसलियइंदियविसएसु इट्ठा-ऽणिढेसु राग-दोसपरिहारिणो । अट्ठारसविहअब्बभनिवृत्ता । कोहादीणं उदयणिरोहजुत्ता उदिण्णविफलीकरणे य ॥ ५२ ॥ अयं विसेसो जं च तवे उज्जुत्ता तेणेसिं साधुलक्खणं पुण्णं । तो साधुणो त्ति भण्णंति साहवो णिगमणं चेयं १० ॥५३॥ जं च तवे उज्जुत्ता० गाधा । जं च इति जम्हा बारसविहे तवे जहासत्तीए उजुत्ता तम्हा साधूसु संपुण्णं साधुलक्खणं, ण तित्थंतरिएसु । तेहिं समत्तसाधुलक्खणलक्खितेहिं साधूहिं साधितो संसारनित्थरणहेऊ सव्वदुक्खविमोक्खमोक्खगमणसफलो धम्मो मंगलमुक्कटुं भवति त्ति सुट्ठ निद्दिटुं । एसा निगमणविसुद्धी १०॥५३॥ 10 सव्वावयवपच्चवगरिसणमिदं ते उ पतिण्णा १ सुद्धी २ हेउ ३ विभत्ती ४ विवक्ख ५ पडिसेहो ६ । दिढतो ७ आसंका ८ तप्पडिसेहो ९णिगमणं च १० ॥५४॥ ते उ पतिण्णा सुद्धी० गाधा ॥५४॥ दुमपुप्फितअज्झयणविवरणं समासतोऽभिहितं । वित्थरेण सव्वक्खरसण्णिवायावदातागमबुद्धीहिं चोदसपुव्वीहिं भण्णति । अत्थपडिसमाहरणत्थं णिज्जुत्ती इमा- 15 दुमपुफियाए णित्तिसमासो वण्णिओ विभासा य । जिण-चोईसपुव्वी वित्थरेण कहयंति से अटुं ॥५५॥ दुमपुफिया० गाधा ॥ ५५ ॥ ततियमणुओगदारं सुत्ताणुगम इति समत्तं । णये त्ति दारं णायम्मि गेण्हियचे अगेण्हियवम्मि चेव अथम्मि । जइयत्वमेव इति जो सो उवदेसो णओ णाम ॥५६॥ . सबेसि पि णयाणं बहुविहवत्तव्वयं णिसामेत्ता। तं सबणयविसुद्धं जं चरणगुणट्टिओ साहू ॥ ५७॥ ॥ दुमपुफियणिज्जुत्ती समत्ता ॥ णायम्मि गेण्हियवे० गाहा । सवेसि पि णयाणं० गाहा । जहा आवस्सए (हाटी० पत्र ४४८) ॥५६॥ ५७॥ 25 ॥ दुमपुफियचुण्णी दिट्ठाग्रं (?) समत्ता॥ धम्मो ससाहणगुणो पंचावयवं तहा दसावयवं । धम्मस्स साहगाणं साधूण गुणा य पढमम्मि ॥१॥ १दमइंति ख० ॥२ ते उपाण्ण १विसुद्धी २ वृद्धविवरणे । ते उ पइन्न १ विभत्ती २ ख० वी० सा• हाटी । अस्या गाथाया हरिभद्रव्याख्या--"तत्र प्रतिज्ञान प्रतिज्ञा वक्ष्यमाणस्वरूपेत्येकोऽवयवः १। तथा विभजनं विभक्तिः तस्या एव विषयविभागकथनमिति द्वितीयः २ तथा हिनोति-गमयति जिज्ञासितधर्मविशिष्टानानिति हेतुः तृतीयः ३। तथा विभजनं विभक्तिरिति पूर्ववच्चतुर्थः ४ । तथा विसदृशः पक्षो विपक्षः साध्यादिविपर्यय इति पञ्चमः ५। तथा प्रतिषेधनं प्रतिषेधः, विपक्षस्येति गम्यते इत्ययं षष्ठः ६। तथा दृष्टमर्थमन्त नयतीति दृष्टान्त इति सप्तमः । तथा आशङ्कनमाशङ्का, प्रक्रमाद् दृष्टान्तस्यैवेत्यष्टमः ८ । तथा तत्प्रतिषेधः अधिकृताशङ्काप्रतिषेध इति नवमः । तथा निश्चितं गमनं निगमनं निश्चितोऽवसाय इति दशमः १० । चशब्द उक्तसमुच्चयार्थ इति गाथासमासार्थः [ पत्र ७५] ॥ ३ दुमपुफियणिजुत्तीसमासओवणिया विभासाए सा०॥४°चउदस वी०सा०॥५अत्थं खं०॥६°यज्झयणं॥ छ। खं०॥ Jain Education Intemational Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [बिइयं सामण्णपुव्वगज्झयणं [ बिइयं सामण्णपुव्वगज्झयणं ] 15 धम्मो पढमज्झयणे पसत्थो, तस्स पहाणं घिति त्ति धीतिपरूवणाभिसंबंध पिंडत्थमज्झयणं बितियं सामण्णपुश्वगं । तस्स चत्तारि अणिओगदारा जहा सामाइए । नामनिप्फण्णो से सामण्णपुव्वगस्स तु निक्खेवो होइ णामनिप्फण्णो। सामण्णस्स चउको तेरसगो पुश्वगस्स भवे ॥१॥५८॥ सामण्णपुव्वगस्स तु. गाहा । सामण्णं पुव्वगं च दो पदाणि । समणभावो सामण्णं, भाव-भाविणो न विसेसे त्ति ॥१॥५८॥ समणस्स निक्खेवो इमो चउहा समणस्स उ णिक्खेवो चउब्विहो होइ आणुपुवीए । दव्वे सरीर भविओ भावेण उ संजओ समणो ॥ २॥ ५९॥ 10 समणस्स उ णिक्खेवो० अद्धगाहा । णाम-ठवणाओ गताओ । दव्वसमणे इमं गाहापच्छद्धं-दव्वे सरीर भविओं भावेण उ संजओ समणो । दव्वसमणो आगमतो नोआगमतो य । आगमतो जहा दुमो समणाभिलावेण । भावसमणो संजतविरतो भावविसेसणमेव ॥ २॥ ५९॥ जह मम ण पियं दुक्खं जाणिय एमेव सव्वजीवाणं । ण हणति ण हणावेति य सममणई तेण सो समणो ॥ ३ ॥ ६०॥ णत्थि य से कोति वेसो पिओ व सव्वेसु चेव जीवेसु। एएण होति समणो एसो अण्णो वि पवाओ॥ ४ ॥ ११ ॥ तो समणो जति सुमणो भावेण य जइ ण होति पावमणो । सयणे य जणे य समो समो य माणा-ऽवमाणेसु ॥५॥ ६२॥ जह मम ण पियं दुक्खं० गाहा ॥३॥६० ॥ बितिया-णत्थि य से कोति वेसो० 20॥४॥६१॥ ततिया-तो समणो जति० अक्खरत्येण गताओ॥५॥६२॥ स एव भावो सोदाहरणो भण्णतिउरंग १ गिरि २ जैलण ३ सागर ४ गगण ५ तरुगणसमो ६ य जो होइ। भमर ७ मिग ८ धरणि ९ जलरुह १० रवि ११ पवर्णसमो १२ यतो समणो॥६॥ ६३ ॥ विस १३ तिणिस १४ वाउ १५ वंजुल १६ केणवीरु १७ प्पलसमेण १८ समणेण । 25 भमरुं १९ र २० णड २१ कुकुड २२ अदागसमेण २३ भवितव्वं ॥७॥ ६४॥ उरगगिरि० गाहा । एगदेसेणोदाहरणं भवति-उरगादीणं सविस-रोसणादिदोसपरिवजिता इट्ठा गुणा घेप्पति । उरगे एगंतदिट्ठी, भावसाधुणा धम्मे एगंतदिट्ठिणा भवितव्वं, तहा उरग इव परेकडणिलएण, बिलमिव पण्णगभूतेण अप्पाणेण आहारवृत्तिः, जहा बिलं पण्णगं णाऽऽसाएति १ । एवं "गिरि विव निचलेण सीले भवितव्वं, ण पुण तहा खर-अचित्तत्तणेण य २। जलण इव तेयस्सिणा भवितव्वं, जह सो इंधणम्मि अवितित्तो तहा सुत्ते १चउक्कओ होइ बी० सा० ॥ २ भावे उण सं° वृद्धविवरणे ॥ ३ अनुयोगद्वारचूर्णिकृता उदग इति पाठ आहतोऽस्ति । ४ जलय इति पाठः अनुयोगद्वारसूत्रप्रत्यन्तरे ॥ ५°णभतल-तरु सर्वासु नियुक्तिप्रतिषु । हरिभद्रपादैरयमेव पाठः स्वीकृतोऽस्ति । किच्च-अनुयोगद्वारचूर्णिकृता गगण इत्येव पाठ आदतोऽस्ति ॥ ६ °समो अतो वी० । °समो जओ सा० । अत्र मूले य तो इत्यपि पदविच्छेदः स्यात् ॥ ७ "इयं किल गाथा मिन्नकर्तृकी, अतः पवनादिषु न पुनरुक्तदोष इति ।” इति हारि० वृत्तौ॥ ८ वात- खं. वी. सा. हाटी० ॥ ९ कणियारु खं० वी० सा• हाटी० ॥ १० दुरु-णड खं० वी० सा० हाटी० ॥११ होयव्वं खं० वी० सा०॥ १२ परकृतनिलयेन ॥ १३ गिरिरिउनिच्च मूलादॐ ॥ १४ अवितृप्तः ॥ Jain Education Intemational Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्तिगा० ५८-६६] दसकालियसुत्तं । अवितित्तेण, इह-पेच्चहितत्थे निव्विसेसो, एवं फासुएसणिजे मणुण्णा-ऽमणुण्णनिव्विसेसाहारक्रियेण ३ । सागर इव गंभीरेण नाण-दंसण-चरित्त-भावणअणेगगुणरयणनिहिणा भवितव्वं, ण तु तहा कडुगणिरुवहोजेण ४ । सव्वसंगनिरालंबणेण गगणमिव भवितव्वं ५। छेदणे पूयणे वा तरुरिव राग-दोसरहितेण ६ । अणियतवित्तिणा भमरेणेव ७। मिगेणेव संसारभउव्विग्गेण अप्पमादिणा ८ । धरणि व्व सव्वफासविसहेण ९ । जलरुहमिव पंक तोएहि तज्जातसंवुड्डेण निरुवलित्तेण, " जहा पुण्णस्स [कच्छति] तहा तुच्छस्स इध कच्छति" [ आचा० श्रु० १ अ० २ उ० ६ सू० ४ ] 5 त्ति वयणातो १० । सम्मत्तादिहितोवदेसवयणकिरणावभासिणा सूरेण व ११ । वाउरिव अपडिबद्धेण सव्वपदाभिसंबंधिणा भवितव्वं १२॥ ६॥ ६३॥ तहा विस-तिणिस० गाहा । सव्वरसाणुवादिणा विसेणेव १३ । भणितं चवयं मणुस्सा ण सेढा ण निहुरा, ण माणिणो णेव य अत्थगव्विता । जणं जणं पप्प तहा भवामहे, जहा विसं सव्वरसाणुवातिकं ॥१॥ [ कजे णमणं एति तिणिसेणेव १४। वाऊ भणितो १५। समीवोवगताण वंजुलेणेव विसोवसमणे कोहादिविसोवसमणसमत्थेण १६। सव्वत्थ पागडेण निव्विगंधेसीलेण य कणवीरेणेव १७ । सीलगंधेण उप्पलेणेव१८ । भमरेणेवाणुवरोधवित्तिणा १९ । उंदुरेणेव देस कालचारिणा माणा-ऽवमाणेसु पणताणुरूवरोसेण २० । णडेणेव रंगगतेणाणेगरूवेण २१ । कुकुडावकिण्णमण्णे वि तज्जातीता उपजीवंति तहावि[ह संविभागरुतिणा २२ । पागडभावेण अंदागपलिभा इव अणुरूवेण वा २३ । लाघवत्थमंते भणियं भवितव्वं सव्वपदेहिं संबज्झति ॥७॥ ६४ ॥15 समणस्स एगट्ठियाणि तं जहा पव्वइए १ अणगारे २ पासंडी ३ चरक ४ तावसे ५ भिक्खू ६ । परिवायए य ७ समणे ८ णिग्गंथे ९ संजए १० मुत्ते ११॥८॥ ६५ ॥ . तिण्णे १२ णेया १३ दविए १४ मुणी य १५ खंते य १६ दंत १७ विरए य १८। . लूहे १९ तीरडी वि य २० हवंति समणस्स णामाई ॥९॥६६॥ 20 पवइए अणगारे० गाहा । तत्थ पव्वइए इति प्रगतो गिहातो संसारातो वा १ । अणगारो अगारंगृहं तं जस्स नत्थि सो अणगारो २ । अविहकम्मपासादो घरपासादो वा डीणे पासंडी। तवं चाड त्ति चरको ४ । तवो से अस्थि तावसो ५ । भिक्खणसीलो भिक्खू ६ । पावाइं परिहरंतो पारिव्वातो ७। समणो भणितो ८। बाहिर-ऽब्भंतरातो गंथातो निग्गओ निग्गंथो ९ । एगीभावेण अहिंसादीहिं जतो संजतो १० । मुत्तो नेहादिबंधणेहिं ११॥ ८॥६५॥ तहा तिण्णे जाणे (णेया). गाहा । संसारसागरतरणा तिण्णो १२ । भवा सिद्धिमहापट्टणं निविग्घेणं 25 १°ण जह पञ्च मूलादर्श ॥ २ सहा ण पंडिया ण माणिणो वृद्धविवरणे ॥ ३ सर्वरसानुपातिकम् । ४ “वजुलो नाम-वेतसो, तस्स किल हट्ठा चिट्ठिया सप्पा निव्विसीभवंति, एरिसेण साहुणा भवितव्वं ।" इति वृद्धविवरणे । “वचुलः-वेतसः तत्समेन भवितव्यम्, क्रोधादिविषाभिभूतजीवानां तदपनयनेन, एवं हि श्रूयते-किल वेतसमवाप्य निर्विषा भवन्ति सर्पा इति।" इति हारिभद्यां वृत्तौ। ५ अशुचिगन्धापेक्षया निर्विगन्धमित्यर्थः ॥ ६ तीवा उपजवंति मूलादर्शे ॥ ७ आदर्शप्रतिबिम्बमिवेत्यर्थः ॥ ८ पासंडे खं० सा०॥ ९तिण्णे ताती दविए ख० सा० । एतत्पाठमेदानुसारेणैव हरिभद्रपादैर्व्याख्यातमस्ति । तथाहि-"तीर्णवांस्तीर्णः, संसारमिति गम्यते । त्रायत इति त्राता, धर्मकथादिना संसारदुःखेभ्यः इति भावः । रागादिभावरहितत्वाद् द्रव्यम् , द्रवति-गच्छति वा तांस्तान् ज्ञानादिप्रकारानिति द्रव्यम्" । वृद्धविवरणकृता पुनः तिण्णो ताती णेया दविए मुणी खंत दंत इति प्रत्यन्तरानुपलब्धपाठमेदानुसारेण विवृतं वर्तते । तथाहि-"तिण्णो ताती० गाहा । जम्हा य संसारसमुदं तरंति तरिस्संति वा तम्हा तिण्णो ताती य । जम्हा अण्णे वि भविए सिद्धिमहापट्टणं अविग्धपहेण नयइ तम्हा नेया । दविओ नाम राग-दोसविमुक्को भण्णइ ।" इति ॥ १० तीरढे सा० । चूर्णिद्वये वृत्तौ च "तीरटे" "तीरट्ठी" इति पाठभेदयुगलं व्याख्यातं वर्त्तते ॥११ अष्टविधकर्मपाशाद् गृहपाशाद् वा ॥ Jain Education Interational Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [बिइयं सामण्णपुव्वगझयणं णेतीति णेता १३ । जीवदव्वं राग-दोसविरहितमिति दवितो १४ । सावजं न भासति ति मुणी १५ । खमइ त्ति खंतो १६ । इंदिय-कसाए दमेति त्ति दंतो १७ । पाणातिवातातिणिवृत्तो विरतो १८ । पन्त-लूहे णिसेवी लूहे, णेधर्वज्जिते वा लूहे १९ । संसारतीरगमणे अत्थी तीरही तीरस्थो वा २० ॥९॥६६॥ ___ समणस्स एगद्विता गता । पुव्वतं तेरसविहं, तं जहा5 णामं १ ठवणा २ दविए ३ खेत्ते ४ काल ५ दिसि ६ तावखेत्ते य ७। पण्णवग ८ पुव्व ९ वत्थू १० पाहुड ११ अइपाहुडे १२ भावे १३ ॥१०॥६७॥ सुत्तं ॥ णामं ठवणा गाहा । णाम ठवणा तहेव श२ । दव्वपुव्वयं पुव्वमिति कारणं, जहा बीजपुवा अंकुरुप्पत्ती ३ । णायपुव्वयं (खेत्तपुव्वयं) पुल्विं सालिखेत्तं पच्छा जवखेत्तं ४ । कालपुव्वयं पुब्बिं वरिसारत्तो पच्छा सरदो एवमादि ५ । दिसापुव्वयं “जंबुद्दीवे दीवे मंदरपव्वयस्स बहुमज्झदेसभाए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए 10 उवरिम हेट्ठिमिलेसु खुड्डागपतरेसु एत्थ णं तिरियलोयस्स आयाममज्झे अट्ठपएसिए रुपए पण्णत्ते जतो पुव्वादियाओ दिसाओ पवत्तंति" [ स्थानाङ्ग स्था० १० सूत्र ७२० ] एयं दिसापुव्वगं ६ । तावखेत्तपुव्वगं जस्स जतो आदिच्चो उद्देति तस्स तं पुव्वं ७। पण्णवगपुव्वगं जो जत्थ जतोमुहो ठितो पण्णवेति तं तस्स पुव्वगं ८। पुष्वपुव्वयं चोइसण्हं पुव्वाणं जं पढमं पुव्वं तं पुव्वपुव्वगं ९ । वत्थुपुव्वगं तस्सेव जं पढमवत्थु तं वत्थुपुव्वगं १० । पाहुडपुव्वगं जहा सूरपण्णत्तीए पाहुडेसु जं पढमं तं पाहुडपुव्वगं ११ । पाहुडपाहुडपुव्वगं तस्सेव पुव्ववत्थु तं पाहुडपाहुडपुव्वगं 15१२ । भावपुव्वयं पंचण्हं भावाणं ओदतिओ भावो भावपुव्वगं १३ ॥१०॥ ६७॥ सामण्णं पुव्वं एतम्मि अज्झयणे तं एतं सामण्णपुव्वगं । नामनिप्फण्णो गतो । पुव्वाणुक्कमेण सुत्ताणुगमे सुत्तं उच्चारतव्वं अखलियं जहा अणुओगदारे । तं सुत्तं इमं ६. कहं णु कुज्जा सामण्णं जो कामे ण णिवारते ? । पदे पदे विसीयंतो संकप्पस्स वसंगतो ॥१॥ 20 ६. कहं ण (?णु) कुजा सामण्णं जो कामे ण निवारते । पदच्छेदाणंतरं पदत्यो-किंसद्दो क्खेवे पुच्छाए य वर्दृति, खेवो जिंदा, हसदो प्रकारवाचीति नियमेण पुच्छाए वट्टति । णुसद्दो वितक्के, प्रकारं वियक्केति, केण णु प्रकारेण सो सामण्णं कुज्जा ?। जो कामे ण निवारते जो कामेहिंतो इंदियाणि ण णिवारए । पाढंतरं-“कतिऽहं कुज्जा" 'कति' ति संखा, 'अहो' दिवसो, कति दिणाणि स कुज्जा ? अप्पाणि दिणाणि स सत्तो जो कामे० । अण्णेसिं "कयाऽहं कुजा” 'कदा' कम्मि काले, 'अहं' अप्पाणं निहिसति, आसंसा25 वयणमिदं सावगस्स उ जुजति, कदा पुण अहं सामण्णगुणे व धरेहामि जो कामे ण । अण्णेसिं "कहं स कुजा” एत्थ परनिद्देसो उदाहरणत्तेण, [सुत्तं] अणंतगमपज्जवमिति सव्वं सिद्धं ॥ कहं ण (णु) कुजा सामण्णमिति एतस्स सुत्तत्थो । ते कामा निक्खेवं प्रति णामं ठवणाकामा दव्वकामा य भावकामा य। एसो खलु कामाणं णिक्खेवो चउविहो होइ ॥ ११॥ ६८॥ १ स्नेहवर्जितो वा ॥ २ वत्थुय पाहुड वी० ॥ ३ सूत्रम् वी० ॥ ४ "तं च सुक्तं जहा-काऽहं कुजा सामण्णं जो कामे न निवारते, तत्थ कति त्ति संखा, अह इति दिवसो भण्णइ, कति पुण सो अहाणि कुज्जा सामण्णं जो कामे ण णिवारए ? । अण्णे पुण पढंति-कयाऽहं कुजा सामण्णं, कदा इति कम्मि काले, अहमिति अत्तनिद्देसे वट्टइ, कदाऽहं करेमि सामण्णं जो कामे न निवारए । केसि पि पुण एवं-कहं णु कुज्जा सामण्णं जो कामे न निवारए । तिन्नि एते विकप्पा अविरुद्धा । पाएण पुण एतं सुत्तं एवं पढिजइकहं णु कुजा सामण्ण" इति वृद्धविवरणकृतः । श्रीहरिभद्रपादास्त्वेवं निर्दिशन्ति स्म खवृत्तौ-"कत्यहम् , कदाऽहम् , कथमहम् इत्याद्यदृश्यपाठान्तरपरित्यागेन दृश्यं व्याख्यायते-कथं नु कुर्याच्यामण्यं यः कामान् न निवारयति" इति पत्र ८५-१॥ ५चउब्विहो होइ णिक्खेवो खं० ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ सुत्तगा० ६ णिज्जुत्तिगा० ६७-७४] दसकालियसुत्तं । सह-रस-रूव-गंधा-फासा उदयंकरा य जे दवा। दुविहा य भावकामा इच्छाकामा मयणकामा ॥ १२ ॥ ६९॥ णामं ठवणा० गाहा । णाम-ठवणाउ तहेव ॥ ११ ॥ ६८॥ दव्वकामा इमे सहरस० गाधाते पुव्वद्धं । इट्ठा सद्द-रस-रूव-गंध-फासा कंता विसतिणामिति कामा । जाणि य कामोदयकराणि किलिप्पंति तिगिच्छियदिट्ठाणि दव्वाणि ते दबकामा । भावकामा इति-दुविहा य भावकामा० गाहापच्छद्धं । भावकामा दुविहा-इच्छाकामा मयणकामा य ॥ १२ ॥ ६९ ॥ इच्छा पसत्यमपसत्थिका य मयणम्मि वेदमुवओगो। तेणऽहिगारो तस्स उ वदंति धीरा णिरुत्तमिणं ॥ १३ ॥ ७० ॥ इच्छा पसत्थमपसथिका य० गाहद्धं । दुविहा इच्छा-पसत्था अपसत्था य । तत्थ पसत्था इच्छा जहा धम्मकामो मोक्खकामो, अप्पसत्थिच्छा रजकामो जुद्धकामो, एवमादि इच्छाकामा । मदणकामो वेदोपओगो-10 जहा पुरिसो पुरिसवेदेण उदिण्णेण इत्थिं पत्थेति, इत्थी पुरिसं एवमादि । तेणेति तेण मदणकामेण अधिकारो, सेसा उच्चारितसरिस त्ति परूविता ॥ १३॥ ७० ॥ तेसिं मदणकामाण इमाओ दो णिरुत्तिगाहातो विसयसुहेसु पसत्तं अबुहजणं कामरागपडिबद्धं । उक्कामयंति 'जीवं धम्मातो तेण ते कामा ॥१४॥७१॥ अण्णं पि य सिं णाम कामा रोग त्ति पंडिया ३ति। कामे पत्थेमाणो रोगे पत्थेति खलु जंतू ॥१५॥७२॥ विसयसुहेसु पसत्तं० गाहा । अण्णं पि य सिं० गाहा । पाढसिद्धाओ ॥१४॥७१॥१५॥७२॥ कामा भणिया । एते मयणकामा इच्छाकामा य जो ण णिवारेति सो कहं सामण्णं करिस्सति ? । आहणणु सद्दादिविसतोवायाणे वि सीलधारणे सति सामण्णं ? उच्यते-तप्पसंगेण सो पदे पदे विसीयंतो संकप्पस्स वसंगतो, गम्मते इति पदं, तं पुण पादेण वा समकंतं सीहादिपदं, विक्खतं वा णहपदादि, ठाणं वा पदं 20 जहा-लद्धं पदं एतेण ॥ तं च पदं चउव्विहं णामपदं ठवणपदं दवपदं चेव होति भावपदं। एकेक पि य एत्तो णेगविहं होति णायव्वं ॥१६॥ ७३ ॥ णामपदं० गाहा । णाम-ठवणाओ गताओ ॥१६॥ ७३ ॥ दव्वपदं अणेगविहं, तं० आओडिम १ मुक्किणं २ ओणेनं ३ 'पीलियं च ४ रंगं च ५।। 'गंथिम ६ वेढिम ७ पूरिम ८ वातिम ९संघातिमं १० छेनं ११॥१७॥७४॥ आओडिममुक्किण्णं० गाहा। आओडिमं जहा रूवओ बिंबेण बिंबेओ ओवीलिजति १ । ओकिणं जहा सिलाए टंकण ओकिरिजति २। ओणेनं मदणविच्छित्तिविसेसा ३ । “संवेल्लियपोत्तरंगो (१ भंगो) पीलियं ४ । रंगपदं वद्धरत्तगं ५। गंथिमं मालाविसेसो ६ । वेढिमं कोति याऽऽकारो मालाहि वेढिजति ७। पुरिमं अंगुट्ठएहि पूरिज्जति ८ । वातिमं सिप्पिता तहारूवं वीणंति ९ । संघातिमं कंचुगाति १० । छेनं 30 अब्भपडलादिपत्तछेदो ११ । एतं दव्वपदं ॥१७॥ ७४ ॥ भावपदं पि अणेगहा, तं समासतो दुविहं 15 25 १ विषयिणामिति इत्यर्थः ॥ २ क्लृप्यन्ते इयर्थः ॥ ३ जम्हा धम्माहाटीपा० ॥ ४ य से णामं वी० सा०॥ ५ "कम्मति जेणं ति तं पदं भण्णइ" इति वृद्धविवरणे ॥ ६ आउट्टिम उक्किन्नं सा• हाटी० । आओडिम उक्किनं ख० वी० ॥ ७ पीलिमं च खं० वी. सा. हाटी.॥ ८ गंथिय वेढिय पूरिय वाइति संघा वी० ॥९ अवकीर्यते उत्कीर्यते इति वा ॥ १० "पीलिय नाम जहा पोतं संवेल्लेत्ता ठविजइ तत्थ भंगा उट्ठति तं पीलिय भण्णई" इति वृद्धविवरणे ॥ Jain Education Intemational Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [बिइयं सामण्णपुव्वगज्झयणं 15 भावपदं पि य दुविहं अवराहपदं च णो य अवराहं।। दुविहं णोअवराहं माउग णोमाउगं चेव ॥ १८॥ ७॥ भावपदं पि यदुविहं० गाहा । भावपदं दुविहं, तं०-अवराहपदं णोअवराहपदं च । णोअवराहपदं दुविहं, तं०-माउयापदं नोमाउयापदं च । माउयापदं मातियाअक्खराणि, अहवा इमाणि दिट्ठिवादियाणि मातुयापदाणि भवंति, 5०-उप्पण्णे ति वा धुए ति वा विगमे ति वा । णोमातुयापदं दुविहं, तं०-गंथितं पतिणं च । गंथितमिति बद्धं । पतिण्णतं जं अणेगपदं पमाणेण भण्णति ॥१८॥ ७५ ॥ जं गंथितं तं चउब्विहं-गजं पजं गेतं चुण्णपदं। एतं चउपगारमवि तिसमुट्ठाणं अत्थ-धम्म-कामेहितो । एत्थं निजुत्तीगाहा गजं पजं गेतं चुण्णं च चउब्विहं तु गहियपदं । तिसमुट्ठाणं सव्वं इति बेंति सलक्खणा कइणो ॥१९॥७६ ॥ 10 गजं पलं गेतं० ॥१९॥७६ ॥ तत्थ गजें मधुरं हेउनिउत्तं गहितमपादं विरामसंजुत्तं । अपरिमियं चऽवसाणे कव्वं गजं ति णायव्वं ॥२०॥ ७७॥ मधुरं हेउ० गाधा । मधुरं तिविहं सुत्त-अत्थ-अभिधाणविभागेण, हेउनिउत्तं जं सैकारणं, गहितं रतितं, अपादं जं ण पादबद्धं, अत्थविरमणविरामजुत्तं, एवमाति गजं ॥ २०॥ ७७॥ पज्जं पि' होति तिविहं सममद्धसमं च णाम विसमं च । __ पाएहिं अक्खरेहि य एव विहण्णू कई बिंति ॥२१॥७८॥ पजं पि होति तिविहं० गाहा । पजं तिविहं, तं०-समं अद्धसमं विसममिति । तत्थ च उसु वि पादेसु समक्खर-विराममत्तं समं । जस्स पढम-ततिया बितिय-चउत्था य पादा समक्खर-विराम-मत्ता तं अद्धसमं । जस्स चत्तारि वि [पादा] विसमा तं विसमं ॥ २१ ॥७८ ॥ अधुणा गेयं, गिज्जति गेयं, तं पंचविहं तंतिसमं १ वण्णसमं २ तालसमं ३ गहसमं ४ लयसमं च ५। ___ कव्वं तु होइ गेयं पंचविहं गेयसण्णाए ॥ २२ ॥ ७९ ॥ तंतिसमं० गाहा । वीणादितंतिच्छेदेण तुलं तंतिसमं १ । वण्णसमं गादवादतो वण्णा जं सममापातिजति २। सव्वाओजविहाणे तालेण तुलं तालसमं ३। आतोजगेयं पढमुक्खेवतुलं गहसमं ४ । कोणसमाहताण य तंतीए णहेणाणुमजणं लओ, तेण समाणं लयसमं ॥ २२ ॥ ७९ ॥ 25 चुण्णपदमिदाणी, तं बंभचेरादि । लक्खणे से इमा गाहा अत्थबहुलं महत्थं हेउ-निवाओवसग्गगंभीरं । बहुपयमव्वोच्छिन्नं गम-णयसुद्धं च चुण्णपदं ॥ २३ ॥ ८॥ अत्थबहुलं महत्थं० । अत्थबहुलं जस्स पदं पदमणेगत्थं । महत्थमिति ते य अत्था अणेगणयवादागमगंभीरतता महान्तः । हेउरवतेसो कारणं तेण जुत्तं कारणजुत्तं । णिवाया जहा-च वा अह एवमादयः । 30 उवसग्गा पुण तं०-प्र परा एवमादतो वीसं । बहुपदं अपरिमितपदं । अवोच्छिण्णं अविरामं । गमेहिं णएहि य परिसुद्धं गम-णयसुद्धं चुण्णपदं ॥ २३ ॥ ८० ॥ १ निजुत्तं वी० सा० ॥ २ सभारणं मूलादर्श ॥ ३ तु खं० वी० सा० हाटी० ॥ ४ तंतिसमं तालसमं वण्णसमं गहसमं खं० वी० सा० हाटी० ॥ ५गीयस वी० सा• हाटी० ॥ ६ बहुपायमवोच्छिण्णं खं० वी० सा० वृद्ध० हाटी० । “बहुपादं णाम जहा सिलोगो" वृद्ध । “बहुपादं अपरिमितपादम्" हाटी० ॥ ७ गम्भीरतया ॥ ८ हेतुः अपदेशः ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ६ णिज्जुत्तिगा० ७५-८२] दसकालियसुत्तं । गहितं च गयं । समत्तं च णोअवराहपदं । अवराहपदं तु इंदियविसयकसाया परीसहा वेयणां पमाता य । एए अवराहपया जत्थ विसीयंति दुम्मेहा ॥ २४ ॥ ८१ ॥ इंदियविस० गाहा । इंदियोणि सोतादीणि, तेसिं विसंता सद्दादतो, तेसु सद्दादिसु विसतेसु इट्ठा-ऽणिद्वेसु सोतादीहिं इंदिएहिं राग-दोसं गंतूण कोहादिसु कसादेसु वटुंतो। बावीसपरीसहेहिं उदिण्णेहिं । वेयणत्तो । पमाता मज्जादयो ॥ २४ ॥ ८१॥ एतेसु अवराहपदेसु एकेकम्मि सीदंतो विसायं गच्छंतो संकप्पस्स वसं गतो, संकप्पो अभिज्झा यतो संभवति, कारणे कब्जोवयारेण संकप्पो, स पुण कामः । अपि चकाम ! जानामि ते रूपं सङ्कल्पात् किल जायसे । न ते सङ्कल्पयिष्यामि ततो मे न भविष्यसि ॥१॥ ] 10 तस्स वसंगतो संतो । एत्थुदाहरणं__एको खंतो सपुत्तो पव्वइतो । सुट्ठ से इट्ठो चेलओ। सो सीतमाणो भणति-खंत ! ण सक्केमि अणुवाहणो हिंडिउं । अणुकंपाए दिण्णाओ । सो भणति-उवरितला मे फुटृति । खस्सिताओ से कताओ । पुणो वि 'सीसं मे तप्पति' सीसदुवारतो से अणुण्णातो । 'न सक्केमि हिंडिउं' ति अच्छंतस्स आणेति । भूमिसयण मंचकमुपहरति, लोयं खुरमुंडं करेति, अण्हाणए पाणककप्पकरणं, मधुरपाणक-कूर-कुसणं पयत्तेण गेण्हति । खंतो से वत्थु वत्थु समणु-16 जाणति । अण्णदा भणति-ण सकेमि खंतो! विणा अविरतिताए अच्छिउं । 'सढोऽतोऽजोगो' ति निच्छूढो करिसणादिकम्मं काउं अयाणंतो संखडिभोजे छणभत्ते अजिणं काउं मतो । विसयवसट्टमरणेण महिसो जातो वाहिज्जति । . खंतो वि कालगतो देवो जातो ओहिणा आभोइत्ता पुवणेहेण तेसिं हत्थाओ किणिउं वेउब्वियभंडीए वाहेति । गुरुयभरमचाएंतं वोढुं तुत्तएणाबर्बु भणति-ण तरामोखंतो! सक्खं हिंडिउं । एवं भूमिसयणं लोयं सव्वाणि उच्चारेति। एवंभणंतस्स 'कहिं एरिसमणुभूतं ? ति ईहा-पोहं करेंतस्स जातीसरणं समुप्पण्णं । भत्तं पञ्चक्खातं । देवलोगं गतो ॥ 20 एवं पदे पदे विसीदंतो संकप्पस्स वसं जाति ॥१॥ एते दोस ति अट्ठारसण्डं सीलंगसहस्साणं रक्खणनिमित्तं एते अवराहपदे वजेज । तेसिं पुण अत्थाणुगमो इमाए गाहाए, तं जहा * जोगे करणे सण्णा इंदिय भोमादि समणधम्मे य । __ सीलंगसहस्साणं अट्ठारसगस्स उप्पत्ती ॥२५॥८२॥ ॥सामण्णपुव्वगस्स णिज्जुत्ती सम्मत्ता॥ जोगो तिविहो-काओ वाया मणो । करणं तिविहं-कतं कारितं अणुमतं । सण्णातो चत्तारि-आहारसण्णा भयसण्णा मेहुण० परिग्गह० । इंदिया पंच-सोइंदियं चक्खुइंदियं पाणइंदियं जिन्मिदियं फासिंदियं । भोमादिपुढविकायसंजमो आउ० तेउ० वाउ० वणस्सति बे० ते० च० पंचिं० अजीवकायसंजमो । दसविहो समणधम्मो, तं०-खंती मोत्ती अजवं मद्दवं लाघवं सच्चे तवे संजमे आकिंचणियं बंभचेरवासे । एसा परूवणा । ___एत्ताहे-तिण्णि जोगा तिहिं करणेहिं गुणिता जाता णव । णव चउहि सण्णाहिं गुणिता जाता छत्तीसा । 30 छत्तीसा पंचेंदिएहिं गुणिता जातं सतमसीतं । असीतं सतं भोमादीहिं दसहिं गुणितं जाताइं अट्ठारस सताई । अट्ठारस सताणि दसविहो समणधम्मो ति दसएण गुणिताइं अट्ठारस सहस्साणि । एसा गुणणा । १कसाए परीसहे वी.॥ २°णा य उवसग्गा खं० सा. वृद्ध० हाटी । णा उवस्सग्गे वी० ॥ ३ "इन्द्रियाणिस्पर्शनारीनि, विषयाः-स्पर्शादयः, कषायाः-क्रोधादयः, इन्द्रियाणि चेत्यादि द्वन्द्वः । इति हरिभद्रपादाः ॥ ४ विषयाः शब्दादयः ॥ ५ विषयेषु ॥ ६ कषायेषु वर्तमानः॥ 25 दस.का.६ Jain Education Intemational Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ णिज्जुत्ति-चुणिसंजुयं [बिइयं सामण्णपुव्वगज्झयणं __ इमा उच्चारणा–कारण न करेमि आहारसण्णापडिविरतो सोइंदियसंवुडो पुढविकायसमारंभं खंतिसंपउत्तो, पढमो गमो। कायेण न करेमि आहारसण्णाविरओ सोइंदियसंवुडो पुढविसमारंभं मोत्तिसंपउत्तो वितितो । एतेण कमेण बंभचेरसंपउत्तो दसमो गमो । एते दस गमा पुढविकायसमारंभविरतीए, एवं आउकारण दस, तेउ० वाउ० वणसति० बे० ते० च० पं० अजीवकायसंजमे दस, एमेयं सतं गमा । एणं सोइंदियसंवुडं अमुंचमाणेण लद्धं, चक्खिदिए सतं, घाणे वि सतं, जिन्भाए सतं, फासे सतं । एयाणि पंच सताणि आहारसण्णापडिविरयं अमुंचमाणेण लद्धाणि, एवं भयसण्णाए वि पंच सताणि, मेहुणे पंच सताणि, परिग्गहे पंच सताणि । एताणि वीसं सताणि ण करेमि ति अमुंचमाणेण लद्धाणि, एवं ण कारवेमि त्ति वीसं सताणि, करेंत ण समणुजाणामि त्ति वीसं सताणि । एवमेताणि छ सहस्साणि कायं अमुंचमाणेण लद्धाइं, वायाए वि छ सहस्साइं, मणेण वि छ सहस्सातिं । एवमेताइं अट्ठारस सीलंगसहस्सातिं भवंति ॥ २५ ॥८२॥ 10 किं पुण कामभोगनिवारणमेव केवलं धम्मसाहणभावेणं उपयुज्यते ? अह को वि विसेसो अत्थि ? भण्णतिसवसस्स कामभोगपरिचाओ भवति साहणं, अवसस्स ण भवति । कथं तरहि ण भवति ? उच्यते ७. वत्थ-गंध-मलंकारं इत्थीतो सतणाणि य । अच्छंदा जे ण भुंजंति ण से चागि त्ति वुच्चति ॥ २॥ ७. वत्थगंधमलंकारं० सिलोगो । वत्थाणि खोम-दुगुल्लादीणि, गंधा कुंकुमा-ऽगरु-चंदणादतो, 15 अलंकारो केस-वत्था-ऽऽभरणादि । इत्थितो नारितो । सतणाणि पलंकमातीणि । चकारेण इट्ठसद्दातिविसयपरिग्गहो । एगे जहुद्दिट्ठा विसया अच्छंदा जे न भुंजंति, अच्छंदा अकामगा, जे इति उद्देसवयणं, ण मुंजंति ण उवजीवंति, ण से इति बहुवयणस्स त्याणे एगवयणमादि, चागी चयणसीलो इति, ते ण भण्णंति चागिणो जे ण भुंजंति अच्छंदा । एत्थ उदाहरणं सुबुद्धी . गंदे निच्छूढे दारेण णिग्गच्छंते चंदगुत्ते पविसंते णंदकण्णा चंदगुत्ते साहिलासं दिढि देति, चंदगुत्तो 20 वि तीए । णंदो भणति-किं पुत्ता ! अभिलससि एतं ? । आम, जदि अणुजाणह । णंदेण सा भण्णति-च्छ, जति ते एतम्मि अहिलासो। सा रहाओ ओरुहित्ता चंदगुत्तरहं विलग्गा। [रहं विलग्गंतीए] तीए रहस्स णव अरगा भग्गा । 'दुनिमित्त' ति चंदगुत्तस्स अद्धीती । चाणको भणति-मा अद्धितिं करेहि, णव पुरिसजुगे ते वंसो। चंदगुत्तं च विसेण भावेति । ‘मा विसकतो पमादो होही'ति तस्स विसकतं भोयणं वढितं । देवीए आवण्णसत्ताए कवलो गहितो । 'मा गम्भो विणस्सिहिति' चाणक्केण फालेत्ता गम्भो नीणितो । आहारबिंदु मत्थए पडितो तं थाणं 26 णीरोमं । बिंदुसारो से नामं कतं । चंदगुत्ते उवरते बिंदुसारो राया जातो । णंदामञ्चो सुबुद्धि त्ति तेण राया विण्णवितो-जइ वि भट्टारका णिव्वच्छला तहा वि हितमुपदिसितव्वं, तुम माता चाणक्केण मारिता । रण्णा धाती पुच्छिता 'होति' ति । अवियारियकारणो राया रुट्ठो आगयस्स दिट्ठी ण देति । चाणक्केण णातं-अहमवि गतायुसो । पुत्त-पोत्तादिकतधणसंविभागो चेतितायतणोवउत्तसव्वविभवो जोगगंधे चीरिंगं च समुग्गकगतं चउमंजूसासंयुतमोव्वरए पक्खिप्पति, सुट्टइयं काउं अडविं गतो गोब्बरे पादोवगतो । पुत्तादयो य से पव्वइता । राया विचारिए धातीए 30 कहितसम्भावो 'मम रक्खणत्थ मिति पसण्णचित्तो पुच्छति-कहिं चाणको ? । 'निग्गओ' त्ति सिटे गंतु पसाएति । सो महासत्तो निच्चलो । पडिनियत्तं तं सबद्धी विण्णवेति-एतस्स पूयणीयस्स पूयं करेमि. समाजाणह । 'तह' त्ति परिणिग्गते धूवलक्खेण इंगालं छुभति । तेण गोब्बराणुसरितण दड्डो चाणको । सुबुद्धी विण्णविए रायाणुमतो चाणक्कघरमणुप्पविट्ठो ओव्वरगं सुजड्डियं दटुं चिंतेति-एत्थ सव्वस्सं । विग्घाडिते लोहसंकलाणिबद्धं ओव्वरगमणोसारितमंजूसं तुट्ठो उग्घाडेति । तीसे मज्झे समुग्गकं वण्णगं च तत्थ दटुं परमसुरभिगंधं समुक्खिप्पमाणचित्तो १ चैत्यायतनोपयुक्तसर्वविभवः ॥ २ पादपोपगमनं नाम अनशनं कृतमित्यर्थः ॥ ३ अपवरकम् अनपसारितमजषम् ।। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ७-९] दसकालियसुत्तं । अविचारियगुण-दोसो समग्घाति, चीरिगं च पेच्छेति वातेति य, तं पुण इमेण अत्थेण लिहितं-जो एतं चुण्णमग्घाति सो जइ इत्थीसंपकमलंकारं विलेवणं च पहाणं गेयं मणुण्णं वा इत्थिं विसया वा सेवति तो मरति, केवलं कंजिय भोय]णो पव्वतियसमायारो जावेति । सो भीतो [अण्णं] पुरिसं तं चुण्णगं ओसिंघावेति, इडे कामभोगे भुंजावेति परिक्खणनिमित्तं । मते तम्मि समुश्विग्गो अकामओ साहुचरियं चरति । ण सो साधू भवति चाती वा ॥२॥ अकामस्स भोगपरिचातो जहा ण भवति धम्मसाहणं तं भणितं । जहा चाती भवति धम्मसाहओ य तं विसेसंतेहिं भण्णति ८. जे उँ कंते पिए भोए लद्धे विप्पिटुं कुवति । साधीणे चयति भोगी से हु चाति त्ति वुच्चति ॥ ३ ॥ ८. जे उ कंते पिए भोए० सिलोगो । जे इति उद्देसवयणं, पागते जे एगे भवति । तुसद्दो विसेसणे, अच्छंदपरिचातितो उत्तरं विसेसेति । कंता सोभणा, प्रिया अभिप्रेता, भोगा इंदियविसया । कंत-प्रियविसेसो-कंता 10 णाम एगे णो प्रिया चउभंगो, कंत इति सामण्णं सोभणत्तणं, प्रिय इति अभिप्रायकतं, किंचि अकंतमवि कस्सति सामिप्रायतो प्रियं । जैहा-"चतुहिं ठाणेहिं संते गुणे णासेजा, तं०-रोसेणं पडिणिवेसेणं अकतण्णताए मिच्छत्ताभिणिवेसेणं" [स्थानाङ्ग स्था० ४ उ० ४ सू०३७० पत्र २८४-१]लद्धा नाम संपत्ता । विप्पिदं कव्वति विविधं पच्छतो: अवजाणति । साधीणे अप्पाहीणे चयति वजयति भोगी भोगा जस्स "विजंति स भोगी। णणु जे लद्धा ते साहीणा एव, भण्णति-उप्पज्जमाणाणि पाण-भोयणादीणि सतंतितं भुंजंति, जे संप्पहाणा ते साहीणा, अहवा साधीणे समाधि- 15 तिदिए पुरिसे णिदिसति, अबद्ध-रुद्धो नीरोगो । बितियं वा भोगग्गहणं संपुण्णभोगनिगमणत्थं, णिदरिसणं भरहजंबुणामादतो, जहा ते समुदितं रिद्धिं परिचयंता चातिणो, एवं जो चयति सो चाती। ___किं पुण जे भरहादतो महाभोगा ते एव चाइणो ? ण मंदविभवपव्वतिया ?, भण्णति-जे वि दमगपव्वतिया ते वि तिण्णि कोडीओ परिचयंति अग्गि-तोय-महिलापरिचातेणं । निदरिसणं सुधम्मसामिणा रायगिहे एगो कट्टहारओ पवावितो । सो भिक्खं हिंडतो लोगेण भण्णति-एस 20 कट्टहारओ पवतितो । सो भणति-मैए अण्णत्थ णेह, ण सक्केमि अहियासेउं । आयरिएहिं अभओ पुच्छितो गमणस्स । भणति-मासकप्पपाओगं खेत्तं किण्ण एतं ? । ते भणंति-सेहनिमित्तं । अभतो भणति-अच्छह, अहं लोगं णिवारामि-त्ति ठिता । कलं तिण्णि कोडीओ ठावेत्ता 'दाणं दिनति' त्ति घोसावितं । लोगे आगते भणति-जो अग्गि पाणितं महिलं च ण सेवति तस्स देमि । लोगो भणति-एतेहिं विणा किं धणेण ? । अभओ भणति-किं भणह 'दमओ' त्ति ?, जो वि णिरस्थितो पव्वयति सो वि तिण्णि कोडीओ छड्डेति । लोगो ‘एवं सामि !' त्ति पत्तिओ॥ 25 तम्हा अत्थपरिहीणा वि धम्मे ठिता तिण्णि लोगसाराणि परिचयंता चाँतिणो लभंति ॥३॥ ___ तस्सेवं चातसत्तिजुत्तस्स धम्मसाहणपरस्स अपरिक्खीणरागासयत्तेण पहाणरागकारणइत्थीसु मणो सन्जेन तन्निवारणत्थमिदं भण्णति ९. समाए पेहाए परिवयंतो, सिता मणो नीसरती बहिडा । ण सा महं णो वि अहं पि तीसे, इच्चेव ताओ विणएज रागं ॥ ४ ॥ 30 स्त्रीसम्पर्कम् अलङ्कारम् ॥ २ घ्रापयति ॥ ३ विशेषयद्भिः॥४य खं १-२-३-४ जे० शु• वृद्ध० हाटी०॥ ५विप्पिद्रि-कु. खं १-२-३-४ जे. शु. वृद्ध• हाटी०॥ ६ भोए खं १-२-३-४ जे. शु. वृद्ध० हाटी ॥ ७ जहा य तहिं ठाणेहिं मूलादर्श ॥ ८ कोहेणं पडिनिवेसेणं अकयण्णुयाए इति स्थानाङ्गे पाठः ॥९ आत्माधीनान् ॥१. विजंति आभागी मूलादर्श ॥ ११ स्वतन्त्रतं खातव्येणेत्यर्थः ॥ १२ स्वप्रधानाः खः प्रधानो यत्र एवंविधा इत्यर्थः ॥ १३ समाहितेन्द्रियः ॥ १४ परिभयंता मूलादर्श ॥ १५ माम् ॥ १६ त्यागिनः ॥ १७ त्यागशक्तियुक्तस्य ॥ १८ अपरिक्षीणरागाशयत्वेन ॥ १९ समाय पे अचूपा०॥ Jain Education Intemational Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [ बिइयं सामण्णपुव्वगज्झयणं ९. समाए पेहाए परिव्वयंतो० सिलोगो । समा राग-दोसविरहिता, पेहा चिंता, समंतादसंजमातो णियत्तंतस्स समाए पेहाए परिवतो. वत्तभङ्गभयादलक्खणो अणस्सारो। अहवा "समाय" समो संजमो तदत्थं, पेहा प्रेक्षा, परिव्वयंतो तहेव । तस्सेवंविहारिणो सिता मणो नीसरई बहिद्धा । अहवा तदेव मणोऽभिसंबज्झति-समाए पेहाए परिव्वयंतो सिया मणो णीसरति बहिद्धा, सियासदो आसंका5वादी 'जति' एतम्मि अत्थे वट्टति, मणो चित्तं निस्सरति निग्गच्छति बहिद्धा ण अंतो संजमस्स अच्छति, भुत्ताऽभुत्तभोगाण सैरण-कोउहलाओ । तस्स नियत्तणे उदाहरणं __ एगस्स रायपुत्तस्स सँइरमभिरमंतस्स समीवेण दासी जलघडेण गच्छति । तेण से गोडीऍ घडो भिण्णो । अद्धितिलद्धं दटुं पुणरावत्ती जाता, चिंतेति रक्खंति अप्पमत्ता जति ण पमाणत्थिता पमाणाई । वयणाणि ताणि पच्छा काही को वा पमाणाई ? ॥१॥ 10 . तं पुणो चिक्खल्लगोलीए ठएति ॥ एवं मणोनिग्गमणं संजमोदगरक्खणटुं सुहसंकप्पेण ठएतव्वं । तं इमेण विवेगालंबणेण-ण सा महं णो वि अहं पि तीसे, णकारो पडिसेहे, सा इति जतो मणोणिस्सरणं ण सा इति, “णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमं पि तेसिं णालं ताणाए वा सरणाए वा" [आचाराङ्ग श्रु० १ अ० २ उ० १ सूत्र २] एत्थ उदाहरणं. एको वाणियदारतो लद्धं कण्णं मोत्तुं पव्वतिओ । सो ओहाणुप्पेहीभूतो इमं पढति-न सा महं 16 नो वि अहं पि तीसे । सो चिंतेति-सा मम अहमवि तीसे, उभयमिदमणुरत्तं परोप्परं, तं कहं छड्उहामि ? त्ति गिही या]यारभंड-णेवच्छेण गतो जत्थ सा णिवाणतडं संपत्ता । सा य पाणितस्स तहिं गतिता, साविगा य सा पव्वइउकामा । ताए णातो । सो ण याणइ । पुच्छिया सा-अमुगस्स धूता किं मैंता? सधरा। स] चिंतेतिजइ सधरा तो उप्पव्वतिस्सामि । ताए णातो अभिप्पातो । 'मा दो वि संसारे पडीहामो' ति चिंतेऊण भणति-सा अण्णस्स दिण्णा । सो चिंतेति-सचं गुरूहिं पाढितो हं-ण सा महं णो वि अहं पि तीसे । संवेगमावण्णो, 20 णियत्ता मती । तीए पुणो णाताभिप्पायाए अणुसासितो-जहा अणिचं जीवितं कामभोगा य । एवमणुसट्ठो जाणावितो पडिगतो गुरुसकासं, पव्वजाए थिरीभूतो॥ एवमप्पा वारेतव्वो-इच्चेव ताओ विणएज, इति एवं इच्चेवं, इति सद्दो प्रकारे वट्टति, एवमणेगेहिं प्रकारेहिं असदभिप्राये सम्भूते विणएज विविहेहिं प्रकारेहिं णीतं विणीतं वसीकतमिति ॥ ४ ॥ __अभितरकरणविणयमुपदिटुं । इदं तु अभितरएण चोदिता चेट्ठा पवत्तइ त्ति बाहिरकरणविणयमुपदिस्सति १०. आतावयाहि चय सोउमल्लं, कामे कमाहि कमियं खु दुक्खं । छिंदाहि रागं विणएहि दोसं, एवं सुही होहिसि संपराए ॥ ५॥ १०. आतावयाहि चय०, सिलोगो । गुरवो आणविंति-वच्छ ! जइ मणो 'बैंहिता णिस्सरति ततो इदमवि विणयणं-आतावयाहि, उड्डे बाहाओ 'पंगिज्झित सूराभिमुहो सरीरसंतावेण कम्माणि वि आयावयाहि । आयावणं कायक्केसो, बाहिरंगस्स तवस्स चरिमविहाणं, बारसविहस्स वि तवस्स मज्झं, मज्झोपादाणेणं डंड इव सव्वो तवो 30 घेप्पति, तवं संतितो करेहि । जहि णिण्णासेहि हण, सुकुमालभावो सोउमल्लं, सुकुमालो अभिलसति अभिलसिज्जति १ अत्रायमाशयः-'परिव्वयंतो' इति सानुखारः पाठोऽलाक्षणिकदछंदोभङ्गपरिहारार्थमेव । 'परिव्वयतो' परिव्रजत इत्यर्थः ॥ २ सियाशब्दः आशावाची 'यदि एतस्मिन् अर्थे वर्तते ॥ ३ स्मरण-कुतूहलाभ्याम् ॥ ४ खैरम् ॥ ५ मृगुटिकया इत्यर्थः, “गलोलो" इति लोक भाषायाम् ॥ ६ अवधावनानुप्रेक्षीभूतः-प्रव्रज्यो त्यक्तुकामः ॥ ७ गृहीताचारभाण्डनेपथ्येन ॥ ८ निपानतटम् ॥ ९ पानीयार्थ तत्र गता ॥ १० मृता संधूता ॥ ११ उत्प्रव्रजिष्यामि ॥ १२ अभिप्रायः ॥ १३ सोगुमल्लं खं ४ शु० । सोगमल्लं खं १-२-३ सं ४ वृद्ध० हाटी। सोयमल्लं जे०॥ १४ छिंदाहि दोसं विणएज रागं एवं खं १-२-३-४ जे. शु० वृद्ध० हाटी० ॥ १५ बहिः । बद्धिता मूलादर्शे ॥ १६ प्रगृह्य ॥ १७ मझे पादाणेणं डंडइपसत्थो तवो मूलादर्शे ॥ Jain Education Intemational Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० १०-१२] दसकालियसुत्तं । ४५ य । कामे कमाहि तपसा अप्पसत्थिच्छाकामा मयणकामा य कमाहि अतियाहि वोलेहि । ते कमितुं किं फलं ? भण्णति-कमियं खु दुक्खं, कामेहि अतिकंतेहिं संसारे दुक्खं वोलीणमेव भवति । खु इति अवधारणसद्दो, कमितमेव । एतेण अभितर-बाहिरकरणजएण छिंदाहि रागं विणएहि दोसं, इट्ठा-ऽणिट्ठविसयगता राग-दोसा संसारबीजामिति । उक्तंच रागो द्वेषश्च मोहश्च यथान्धमिह मानवम् । कामतो विप्रकर्षन्ति शब्दादिप्रविलोभितम् ॥१॥ राग-दोसजयफलमिदं-एवं सुही होहिसि संपराए, एवं एतेण विहिणा सुहं जस्स अस्थि सो सुही छिण्णसंसयं सव्वं सुवयणं होहिसि, संपराओ संसारो, जेण संपराइयं कम्म भण्णति, संपराए वि दुक्खबहुले देव-मणुस्सेसु सुही भविस्ससि, जुद्धं वा संपराओ बावीसपरीसहोवसग्गजुद्धलद्धविजतो परमसुही भविस्ससि । उद्देसगादीतो तिहं सिलोगाणं उवरि उपेन्द्रवज्रोपजातीन्द्रवज्रायुगलकम् , परतो सिलोगा एव ॥५॥ तं अभितर-बाहिरकरणविणयणं ण विणा ववसाएणं ति ववसायथिरीकरणत्यं भण्णति ११. पक्खंदे जलियं जोतिं धूमकेतुं दुरासदं । णेच्छंति वंतगं भोत्तुं कुले जाया अगंधणे ॥६॥ .११. पक्खंदे जलियं० सिलोगो । भिसं आदितो वा खंदे पक्खंदेयुरित्यर्थः, जलियं अतिप्पदित्तं जोति अग्गि धूमकेतुं धूमद्धयं । सव्वहा एस अग्गि त्ति कहं पुण ण पुणरुतं ? भण्णति-जलितमिति ण 15 मुम्मुरभूतं, जोतिमिति परासणसमत्थमवि ण हंतलोहपिंडादि, धूमकेतुमिति णक्खत्ताणि वि जोतीणि भण्णंति तेसिं विसेसणत्थं, उप्पादे वा आयुधातीणि णिभूमाणि जलंति तेसिं वा, अतो सव्वं भण्णति । दुरासयं डाहकत्तणेण दुक्खं समस्सतिजति तं दुरासदमवि पक्खंदेयुः । ण य वंतं पुणो [भोत्तुं] आपिबिउमिच्छंति कुले जाता अगंधणे, गंधणा अगंधणा य सप्पा, गंधणा हीणा, अगंधणा उत्तमा, ते डंकातो विसं न पिबंति मरंता वि । किंच-. सुलसागभप्पसवा कुलमाणसमुण्णता भुयंगमणाहा । रोसवसविप्पमुक्कं ण पिबंति विसं विसायवजितसीला ॥१॥ एत्थ दुमपुफियाभणितमुदाहरणं पंचवलोएतव्वं [ नि० गा० २५ पत्र २१-२२] । जहा एसो अग्गि पविट्ठो, ण य पीतं सेविसं, एवं साहुणा वि चिंतेतव्वं । जदि ताव ते अविदितविपाका माणावलंबिणो मरणं ववसंति ण य पिबंति, किं पुण साहुणा परिचत्तकामभोगविपागजाणएणं ? । तम्हा जीक्यिच्चए वि विवन्जिता कामा णाभिलसितव्वा 25 ॥६॥ किंचएक्कं पंडियमरणं छिंदइ जाईसयाई बहुयातिं । तं मरणं मरितव्वं जेण मतो सुम्मतो होति ॥ १॥ , [मरण गा० २४५] "ववसायसाहणो धम्मो" ति तस्स दृढीकरणत्थं भणितं-"णेच्छंति वंतगं भोचुं” अण्णावदेसोऽयम् , इदं तु सम्मुहं णिडुरमणुसासणं-धिरत्थु ते जसो० । अहवा “णेच्छंति वंतगं भोतुं” एत्थं वृत्तिगत-30 मुदाहरणं, इदं सुत्तगतमेव १२. धिरत्थु ते जसोकामी जो तं जीवितकारणा । वंतं इच्छसि आवेउ सेयं ते मरणं भवे ॥ ७ ॥ १ विशेषणार्थ विश्लेषणार्थमिति वा योऽर्थः ॥ २ समाश्रीयते ॥ ३ आपातुम् ॥ ४ प्रत्यवलोकयितव्यम् ॥ ५ स्वविषम् ॥ ६ जीवितात्ययेऽपि ॥ Jain Education Intemational Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [बिइयं सामण्णपुव्वगज्झयणं १२. धिरत्थु ते० सिलोगो । अरिट्टणेमिसामिणो भाया रहणेमी भट्टारे पव्वइते रायमति आराहेति 'जति इच्छेन्ज' । सा निविण्णकामभोगा तस्स विदिताभिप्पाया कलं मधु-घयसंजुत्तं पेजं पिबित आगते कुमारे मदणफलं मुहे पक्खिप्प पात्रीए छड्डेतुमुवणिमंतेति-पिबसि पेजं ? । तेण पडिवण्णे वंतमुवणयति । तेण 'किमिदं ?" इति भणिते भणति-इदमवि एवंप्रकारमेव, भावतो हं भगवता परिच्चत्त त्ति वन्ता, अतो तुज्झ मामभिल5 संतस्स धिरत्थु ते जसोकामी जसं कामयतीति जसोकामी खत्तिया एवंपहाणा, धिक् जिंदासद्दो, अत्थु भवतु, ते इति तव । अहवा "धिरत्थु ते अजसो०” “एदोत्पर" [कातघ्र० १. २. १७] इति अकारलोपः, एतेणं कम्मुणा अजसोकामी जो तं पुव्वेण सङ्गच्छावेति जीवितकारणा जीवितनिमित्तं कुसग्गजलचंचलस्स जीवितस्स कारणा माउणा परिचत्तं मए भोत्तुमिच्छसि, एवंगयस्स सेयं ते मरणं । एवं संबोहितो पव्वइतो। रायीमती वि पव्वतिया ॥७॥ 10 घितिपरूवणप्पकरणे कुलववदेसो परमं महग्यताकारणमिति सैव भगवती रीतीमती के पति कारणेण विसीयमाणं कमारमाह-अहंच भोगरातिस्साकयाति रहणेमीबारवतीतो भिक्खं हिंडिऊण सामिसगासमागच्छंतो वद्दलाहतो एगंगुहमणुपविट्ठो। रातीमती य भगवंतमभिवंदिऊण 'सं लयणं गच्छंती 'वासमुवातं' ति तामेव गुहामुवगता । तं पुव्वपविट्ठमपेक्खमाणी उदओल{परिवत्थं णिप्पिलेउं विसारेती विवसणोपरिसरीरा देट्ठा कुमारेण, वियलियधिती जातो । सा हु भगवती सुनिश्चलसत्ता तं दटुं तस्स सकित्तिकित्तणेण संजमे धीतिसमुप्पायणत्थमाह १३. अहं च भोगरीतिस्स तं च सि अंधगवण्हिणो । मा कुले गंधणा होमो संजमं णिहुओ चर ॥ ८॥ १३. अहं च भोगराति० सिलोगो। भोया इति हरिवंसे चेव गोत्तविसेसो, तेसिं भोयाणं राया भोयराया भोयउग्गसेणो तस्स अहं दहिया। तमं च अंधगवण्हिणो कलसमप्पण्णो महारायसमहविजयस्स पुत्तो सिवादेवीगम्भसंभवो । ते वयमगंधणे कुले जाता मा गंधणा भवामो । सा सप्पक्खाणयं 20 तस्स कहेति, भणति य-जहा वंतर्विसप्पाणं तहा सव्वभावपरिच्चत्ताण भोयाणं अभिलसणं । कुले गंधणा कुलपसूता असदाचारचरित्तेण मा कुलफंसणा भवामो । सव्वारतिनिवारणं संजमं निहुओ चर ॥८॥ अहुणा अप्पणो असंबंधमुद्भाविती दिटुंतेण य पुनमत्थमाविब्भाविती रातीमती भगवती भणति - १४. जति तं काहिसि भावं जा जा देच्छसि णारीतो। वाताइडो व्व हढो अद्वितप्पा भविस्ससि ॥९॥ 20 १४. जति तं काहिसि० सिलोगो । जदिसद्दो अणब्भुवगमे, तुममिति तस्स निदेसो, काहिसि करिस्ससि, भावो अभिसंगो, जा जा इति वीप्सा, दच्छसि पेच्छिहिसि, णारीतो इत्थितो, तो वाताइद्धो व्व हढो अद्वितप्पा भविस्ससि, जलरुहो वणस्सतिविसेसो अणाबद्धमूलो हढो, सो वाएरितो इतो ततो य जाति ण य पुप्फ-फलसमिद्धिं पावेति, तहा तुमं पि नारिदरिसणे जदि तासु भावं करिस्ससि ततो अप्पतिद्वितमह, व्वतमूलो केवलं लिंगधारी अणुवलद्धसामण्णफलो भविस्ससि ॥९॥ 30 धीतिसमालंबणमुपणेत्ता रातीमतीवयणसाफलं च दरिसता तीवयणसाफलं च दरिसेंता गुरवो आणविंति१५. तीसे सो वयणं सोच्चा संजताए सुभासितं । अंकुसेण जहा णागो धम्मे संपडिवातितो ॥ १० ॥ १ भट्टारके श्रीनेमिनाथभगवति ॥ २ पीत्वा ॥ ३ राजीमती ॥ ४ खं लयनम् ॥ ५ °मुपडिवित्थं मूलादर्शे । उदकामुपरिवस्त्रम् ॥ ६'राहस्स खं १-३-४ । 'रायस्स खं २ जे० शु० ॥ ७ सर्पाख्यानकम् ॥ ८ वान्तविषपानम् ॥ ९दच्छिसि खं १-२-३ शु०॥१० अभिष्वाः ॥११ वातेरितः-पवनप्रेरितः ॥१२ सहासियं खं २॥ Jain Education Intemational Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० १३-१५] दसकालियसुत्तं । ४७ १५. तीसे सो वयणं० सिलोगो । तस्सद्देण अणंतरपत्थुतं संवज्झति, तीसे रातीमतीते, स इति रहनेमी, वयणं जं तीए सोदाहरणमुपदिटुं, तं सोऊण संजताए त्ति जं सा अचंतमविकारा, सुभासितं सोभणं भासितं एतदेव, अहवा अण्णेहि वि सुभासितेहिं समुपंगूढं एतं सुहं सदिटुंतं घेपति त्ति भण्णति-अंकुसेण जहा णागो । उदाहरणं वसंतपुरे इब्भवहुया णदीए ण्हाति । तं ददृण एगो जुवाणगो भणतिसुण्हातं ते पुच्छति एस णदी पैवरवारणकरोरू ! । एते य णदीरुक्खा अहं च पाएसु ते पणतो ॥१॥ सा पडिभणतिसुभगा होंतु णदीओ चिरं च जीवन्तु जे णदीरुक्खा । सुण्हायपुच्छगाणं घत्तीहामो पियं काउं ॥१॥ सो तीसे घरमजाणतो बितिजगाणि से चेडरूवाणि पुप्फ-फलस्थीणि रुक्खे पलोएंति तेसिं ताणि दातुं णाम-संबंध-बार-साहीहिं पुच्छति । णाते विरहमलभमाणो परिव्वातियं आराहेऊण दूर्ति पेसेति । सा तीए रुट्ठाए 10 पैत्तुल्लकाणि धोतीए मसिलितेण हत्थेण पैट्ठ तहा हता जेण पंचंगुलयं जातं, अवद्दारेण निच्छूढा । जहावत्ते कहिते विडेण णातं-कालपंचमीए पविसितव्वं । तहा पविट्ठो । असोगवणियाए मिलिताणि पसुत्ताणि ससुरेण दिवाणि । णातं-परपुरिसो । तीसे पादाओ णेउरं हरितं । चेतितं तीए, सो भणितो-लहुं णस्साहि, सहायत्तं करेज्जासि । गंतुं पति भणति-घम्मो, असोगवणियं जामो । गताणि । सुत्तं पतिं उट्ठावेत्ता भणति-तुब्भं एयं कुलाणुरूवं ? पिया ते मम पायातो णेउरं एस णेति । सो भणति-किं कीरउ ? । पभाए थेरेण सिढे रुट्ठो भणति-विवरीओ सि ।15 थेरो भणति अण्णो मए दिट्ठो। विवाए सा भणति-अहं अप्पाणं सोहेमि त्ति । कतोववासा ण्हाता जक्खघरं जाति । सो णं धुत्तो पिसातो होऊणं अवयासेति जक्खस्स अंतरंतेण गम्मति । जो कारी सो लग्गति । सा तं पुरतो ठिता भणति-माता-पितीदिण्णं एतं च पिसायं मोत्तूण जहा परपुरिसं ण जाणेमि तहा पारं देज्जासि । ताहे जक्खो विलक्ख चिंतेति-पेच्छह. केरिसाइं मंतेति ? अहगं पि वंचितो एतीए, णत्थि सतित्तणं खु धुत्तीए । तावासा निग्गता । थेरो सव्वलोएण हीलितो। अद्धिईए से निद्दा नट्ठा । रण्णा कण्णं गते सहितो अंतेउरवालो कतो । 20 अभिसेक्कं हत्थिरयणं घरस्स हेट्ठा बद्धं । एगा देवी हत्थिमेंठेण सह, रत्तिं हत्थिणा करो गवक्खंतेण पसारितो, देवी ओयारिता । 'चिरस्स आगत' त्ति मेंठेण कुविएण हत्थिसंकलाए हता सा भणति-सो चिरस्स सुत्तो, मा रुस । तं थेरो पेच्छति, चिंतेति-जति एयाओ वि एरिसियाओ, ताओ अतिभद्दियाओ । सुत्तो । पभाए उठ्ठिए वि लोए ण उद्देति । रण्णो निवेदितं, भणति-सुवतु । चिरस्स उद्वितो । पुच्छिएण कहितं जहावत्तं, 'न जाणामि कतरा ?? ति । रण्णा भेंडमतो हत्थि कतो, अंतेउरियाओ भणियाओ-एयस्स अञ्चणियं करेंता ओलंडेह । सव्वाहिं कतं । सा 25 णेच्छति, भणति-बीहेमि । रण्णा उप्पलणालेण आहता मुच्छिता । णातं-एसा । भणिता य मत्तं गयमारुहंतिए !, भेंडमतस्स गतस्स भायसी। . ___ इह मुच्छित उप्पलाहता, तत्थ ण मुच्छित संकलाहता? ॥१॥ संकलापहारो दिट्ठो । सा मेंठो य हत्थिं विलएतुं छिण्णकडए पडणं प्रति मेंठो भणितो-हत्यिं वाहेहि । वेलुग्गाहाहिट्टितं चोदेति । जाव एगो पातो आगासे धरितो, तिहिं ठितो । 'चोदेहे'त्ति बितिओ वि । लोगो 30 भणति को एतस्स तिरियस्स दोसो ? एताणि मारेयवाणि । राया रोसं न मुयति । जाव तिण्णि पाया आगासे, एगेण ठितो । लोएण अकंदियं-किं एवं रयणं विणासेहि ? । 'पंडिआगते चित्ते भणति-तरसि णियत्तेउं ? । भणतिजदि दोण्ह वि अभयं देह । दिण्णो । अंकुसेण नियत्तितो जहा णागो, मेंठेण तं आवतिं पावितो एरिसे ठाणे अंकुसेण छित्तो जहा खिप्पामेव पादमवट्ठब्भ सरीरमुविहिऊण चतुहिं वि पाएहिं भूमीए ठितो ॥ १ पउरसोहियतरंगा वृद्ध०॥२ परिव्राजिकाम् ॥ ३ पात्राणि भाजनानीत्यर्थः ॥ ४ पृष्ठी ॥ ५ ज्ञातमित्यर्थः ॥ ६ आश्लिष्यति ॥ ७ भेंडमतो रूतमयः मृण्मयो वा ॥ ८ उल्लायत ॥ ९ बिमेषि ॥ १० प्रत्यागते वलिते शान्ते इत्यर्थः ॥ ११ पादमवष्टभ्य ॥ Jain Education Interational Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [तइयं खुडियायारकहज्जयणं एवं रहणेमी रायीमईए संसारुब्वेगकरणेहिं वयणेहिं तधाऽणुसासितो जहा सुगतिं संपावते, धम्मे सम्मं [पडिवातितो] संपडिवातितो ॥१०॥ धितिउपदेसप्रकरणस्स संहरितपतिण्णा -हेऊदाहरणोपणयस्स णिगमणमिदमुच्यते १६. एवं करेंति 'संपण्णा पंडिता पवियक्खणा। __विणियटॅति भोगेहिं जहा से पुरिसुत्तिमे ॥ ११ ॥ त्ति बेमि ॥ ॥ सामण्णपुव्वगज्झयणं सम्मत्तं ॥ १६. एवं करेंति संपण्णा सिलोगो । एवंसदो प्रकारवयणे । एवं करेंति एतेण प्रकारेण करेंति । पण्णा-बुद्धी, सह पण्णाए संपण्णा सद्बुद्धयः । पंडिता विदुसा । पवियक्खणा पटवः । संपण्णा पंडिता पवियक्खणा तुल्ल त्ति चोदणा । समाधिरयम्-संपण्णा इति कम्मण्णता दरिसिता, पंडिता इति सा बुद्धिपरिकम्मिता 10जेसिं ते, पवियक्खणा वायाए वि परिग्गाहणसमत्या । केति पढंति-"एवं करेंति संबुद्धा पंडिता" सोमणं बुद्धा, पंडिता पवियक्खणाऽभिहिता । विणियद्वंति भोगेहिं विसेसेण महव्वतधारणेण णियटृति भोगेहितो, एसा पंचमी । जहा से पुरिसुत्तिमे त्ति जेण प्रकारेण जहा, से इति अणंतरमुदाहरणत्तेण रहणेमी पत्थुओ सो जि संबज्झति, पुरिसाण उत्तिमो पुरिसोत्तिमो रायरिसी सो भगवं ॥ ११ ॥ इति सद्दो अणेगहा, इह तु परिसमत्तिविसओ, अहवा एवमत्थो, एवमिति बेमि ब्रवीमि । सेवभवस्स 16 वयणमिदं-भगवता सव्वविदा उपदिट्ठमहमवि बेमि ॥ णताणातम्मि० गाहा । सबेसि पि णयाणं । जहा सामातिए ॥ .. ॥सामण्णपुष्वगस्स अत्थलेसो समत्तो॥ अविसीदणोवदेसो सकामकामविणितत्तणं मणसो । राग-दोसविणयणं सोहताहरणउज्झयणे(१) ॥१॥ १संबुद्धा पं° ख १-२-३-४ जे० शु० हाटी• अचूपा । संपण्णा पं° वृद्ध० ॥ २ भोगेसु ख १-२-३-४ जे. शु०॥ ३ पुरिसोतिमे खं १-३-४ अचूपा० । पुरिसोत्तमो खं २ जे. शु०॥ ४ कहनु कुज्जा अज्झयणं सम्मत्तं खं । आदर्शान्तरेषु पुष्पिकैव न वर्तते ॥ Jain Education Intemational Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० १६ णिज्जुत्तिगा० ८३-८५] दसकालियसुत्तं । [तइयं खुड्डियायारकहज्झयणं] धम्मसाहणमुत्तमं धिति त्ति धम्मपसंसाणंतरं घितिपरूवणं कतं । इदाणिं तु विसेसो णियमिजति-सा धिती . आयारे करणीय ति खुड्डियायारकहाभिसंबंधो । एवमत्थसंबंधक्कमागतस्स खुडियायारगस्स चत्तारि अणिओगद्दारा जहा आवस्सए । नामनिप्फण्णो खुडियायारकह त्ति, तिपयं णाम । खुड़िय ति आवेक्खिकमिदं, महती अवेक्ख भवति, सा पुण आयारप्पणिही महती आयारकहा भणिहिति, तम्हा खुडगं निक्खिवितव्वं, आयारो निक्खिवितव्यो, कहा निक्खिवितव्या । खुडगस्स पढमं निक्खेवो, तं महंत पहुच संभवति चि महंतमेव परुवेतव्वं, तं महंतं अट्ठविहं णामं १ ठवणा २ दविए ३ खेत्ते ४ काले ५ पहाण ६ पइ७ भावे । एएसि महंताणं पडिवक्खे खुड़ता होति ॥१॥८३॥ णाम ठवणा० गाहा । णाम-ठवणातो गतातो १०२ । दव्वमहंतं अञ्चित्तमहाखंधो, सो सुहुमपरिणताणं 10 अणंताणं अणंतपदेसियाणं खंधाणं तन्भावपरिणामणं लोगं पूरेति । जहा केवलिसमुग्धातो डंडं कवाडं मंथु अंतराणि चउत्थे समये पूरेति, एवं सो वि चउत्थे समये सव्वं लोग पूरेत्ता पडिणियत्तति, एतं दव्वमहंतकं ३ । खेत्तमहंतं , सव्वागासं ४ । कालमहंतं सव्वद्धा ५ । पहाणमहंतं तिविहं-सचित्तं अचित्तं मीसकं । तत्थ सञ्चित्तं तिविहं-दुपदं चउप्पदं अपदं । दुपदाणं पहाणो तित्थकरो, चउप्पदाणं हत्थी, अपदाणं अरविंदं । अचित्ताणं वेरुलितो । मीसकाणं भगवं तित्थकरो सविभूसणो ६ । पडुच्चमहंतं आमलगं प्रति बिलं महंतं एवमादि ७ । भावमहंतं तिविहं-पाहण्णतो 15 कालतो आसयओ । पाहण्णओ खातितो भावो महंतो । कालतो परिणामितो, जं जीवदव्वमजीवदव्वं वा सता तहापरिणामि । आसयतो ओदतितो भावो, तम्मि भावे बहुतरा जीवा वटुंति ८ । महंतं गतं । ___ तस्स पडिपक्खे खुडुतं निक्खिवितव्वं, तं अट्ठविहमेव । णाम-द्ववणातो गतातो २दव्वखुइतं परमाणु ३ । खेत्तखुड्डयं आगासपदेसो ४ । कालखुड्डयं समतो ५ । पहाणखुड्यं तिविहं-सचित्तं अचिचं मीसगं । सञ्चित्तं तिविहं-दपतं चउप्पतं अपतं । दुपदाणं पंचण्ड सरीराणं आहारकं. चतुप्पदाणं सीहो, अपदाणं लवंग-20 कुसुमं । अचित्ताणं वरं । मीसगाणं तित्थकरो जम्माभिसेगालंकारसहितो ६ । पडुच्चखुडयं आमलगातो सरिसवो ७। मावखुइयं सव्वत्योवा जीवा उवसमिए भावे वटुंति ति ओवसमिओ मावो ॥१॥८॥ आयार इति दारं पैतिखुइएण पगतं आयारस्स तु चतुकणिक्खेवो। णामं १ ठवणा २ दविए ३ भावायारे य ४ बोद्धब्वे ॥२॥४॥ पतिखुइएण पगतं. गाहा । सो आयारो चउव्विहो । नाम-उवणातो गतातो । दवायारो जहा 25 दव्वमायरति परिणमति तं तं भावं ॥२॥ ८४ ॥ दवायारो इमाए गाहाए अणुगंतव्वो णामण १ होवेग २ वासण ३ सिक्खावण ४ सुकरणा ५ विरोहीणि ६। वाणि जाणि लोए दवायारं वियाणाहि ३ ॥३॥८५॥ . णामणहोवण० गाहा । णामणं पडुच्च दुविहं दव्वं-आयारमंतं अणायारमंतं च । णामणायारमंतं दवं १खडला खं० । खुड्गा पु० । खुड्या वी• सा० ॥ २९ति पु.॥ ३ पाखु सं० पु. सा.। पयतु बी.॥ ४"सत्य दवायारो णाम जहा दवं आयरइ, आयरइ णाम आयरयति ति वा तं तं भावं गच्छति ति वा मायरइ सिवा एगा।" इतिवृदविवरणे ॥ ५°धोवण खं० पु.वी. सा.॥ Jain Education Intemational Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [तइयं खुडियायारकहज्झय तिणिसो णामणेण ण भजति, अणायारमंतं एरंडो सो भन्जेज ण य णमेज्जा १ । धोवणे आयारमंतं हलिहारत्तं धोव्वंतं सज्झति ति. किमिरागमंतं ण सुज्झति त्ति अणायारमंतं २ । वासणे ति दारं-वासणे आयारमंतीतो कवेछुताओ पाडलादीहिं वासिजंति, अणायारमंतं वरं ण वासिन्जति ति ३ । सिक्खावण ति दारं-तत्य यारमंताणि सुक-सारिकादीणि, अणायारमंता काकादतो ४ । सुकरणे त्ति दारं-इच्छितरूवणिव्वैत्तकाति सुवण्णादीणि सुकरणायारवंति, घंटालोहादीणि अणायारमंति ५। अविरोधि ति दारं-तदाचारवंति खीर-सक्करादीणि समतुलितमधु-घतादीणि, [तेल्ल-दुद्धाणि] अणायारवंति ६ । एस दवायारो ३॥ ३॥ ८५ ॥ भावायारो दसण १ नाण २ चरिते ३ तवआयारे य ४ वीरियायारे ५। एसो भावायारो पंचविहो होइ नायव्यो॥४॥८६॥ वंसण नाण चरित्ते० गाहा । भावायारो पंचविहो, तं जहा-दसणायारो १ नाणायारो २ चरित्तायारो 1०३ तवायारो ४ वीरियायारो ५॥४॥८६॥ दंसणायारो अट्ठविहो, तं जहा निस्संकित १ णिकंखिय २ णिवितिगिच्छा ३ अमूढदिही य ४। उववूह ५ थिरीकरणे ६ वच्छल्ल ७ पभावणे ८ अट्ठ॥५॥८७॥ निस्संकित० गाहा । संका दुविहा-देससंका सव्वसंका य । देससंका जहा-समाणते जीवत्ते कहं ईमो मवितो इमो अमवितो?, ण मुणेति-दुविहा भावा, हेतुगेज्झा अहेतुगेज्झा य । हेतुगेज्झं जीवस्स सरीरत्यंतरभूतत्तं, 16 अहेतुवातो मविया-ऽमवियादतो भावा । सव्वसंका-सव्वमेतं पागतमासानिबद्धत्तणेण कुसलकप्पितं होजा । उमए इमं उदाहरणं-दो कप्पटगा, जहा आवस्सए [चूर्णी विभाग २ पत्र २७९, हाटी० पत्र ८४] तहा सव्वं विभासितव्वं १॥ कंखा इ दारं-सा दुविहा, देसे सव्वे य । देसकंखा एकं कंचि कुतित्थितमतं कंखति, सव्वकंखा सव्वाणि पावादितमताणि कंखति । दुविहाए वि कंखाए इदमुदाहरणं-अमचो राया य अस्सावधिया अडविं पविठ्ठा, 20जहा आवस्सए [चूर्णी विभाग २ पत्र २७९, हाटी० पत्र ८१ग] तहा माणितव्वं २॥ वितिकिंछ ति दारं-सा दुविहा, देसे सव्वे य । तत्थ देसे वितिकिंछा सव्वं लढें साधूणं, जदि जीवाकुलो लोको ण दिह्रो [होतो] सुंदरं होतं एवमादि । सव्ववितिगिंछा-जदि सव्वं सुकरं दिटुं होतं सुहं अम्हारिसा करिता । उदाहरणं-चोरो उज्जाणे जमलहियतत्तणं मोत्तॄणं जहा आवस्सए [चूर्णी विभाग २ पत्र २७९, हाटी० पत्र ८५]। विदुगुंछाए बितियमुदाहरणं-सावकधूता विदुगुंठं काउं दुच्चिक्खगंधा जाता, जहा आवस्सए [चूर्णी विभाग २ पत्र २८०, हाटी० पत्र ८१५] । एसा वितिगिच्छा ३॥ __ अमूढदिहि ति दारं-बालतवस्सीणं केती तव-विजातिसता पूयातो वा दट्टण दिट्ठीमोहो ण कातव्यो । उदाहरणं सुलसा साविया-भवियाणं थिरीकरणत्थं सामिणा आमडो रायगिहं गच्छंतो भणितो-सुलसं 'पुच्छेज्जासि । सो चिंतेति-पुण्णमंतिया जं अरहा पुच्छति । तेण परिक्खणनिमित्तं भत्तं मग्गिता । अलभमाणेण बहूणि रूवाणि काऊण मग्गिता । ण य दिहिमोहो सुलसाए जातो । एवं अमूढदिद्विणा भवितव्वं ४। 30 उवहण ति दारं-सम्मत्ते विसेसेण सीदमाणस्स असीदमाणस्स वि उववूहणं कातव्वं । दिटुंतोरायगिहे सेणिओ राया । तस्स देविंदो सम्मत्तं पसंसति । एको देवो असइहंतो णगरबाहिं सेणियस्स पुरतो चेल्लगरवेण अणिमिसए पडिग्गाहेति, तं णिवारेति । पुणो पहिडितियासंजतीवेसेण पुरतो ठितो, तं ओवरए १'रागतंण मूलादर्शे ॥ २ आचारवत्यः कवेडुकाः-मृण्मयानि भाजनादीनि ॥ ३ निर्वतकानि इत्यर्थः ॥ ४ अयं भव्यः अयं अभयः।। ५ अहेतुवादो भव्या-ऽभव्यादयः॥ ६ प्रावादुकमतानि ॥ ७ अश्वापती॥ ८ अणिमिसए मत्स्यानित्यर्थः॥ ९ पाहडिदिया गर्भिणीत्यर्थः॥ Jain Education Intemational Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्तिगा० ८६-८८] दसकालियसुत्तं । पवेसेऊणं णिक्केतिजंतीए अप्पसागारियनिमित्तं सयं चेट्ठति । सो गोमडगसरिसं गंधं विउव्वति तहा वि ण विप्परिणमति ति । देवो तुट्ठो दिव्वं देविढेि दाएंतो उववूहति । एवं उवहितव्वा साहम्मिया ५। थिरीकरणं ति दारं-धम्मे सीतमाणस्स थिरयरता कातव्वा । जहा-उज्जेणीए अन्नासाढो संजते कालं करेंता णिज्जावेति, अप्पाहेति य-मए संबोधेजाह । जहा उत्तरज्झयणेसु [अध्य० २ नि० गा० १२३-१ पाइयटीका पत्र १३३-३९] तहा सव्वं ६। वच्छल्लं ति दारं-तं सति सामत्थे पवयणस्स कातव्वं । दिद्रुतो अजवइरा, आवस्सगकमेण [चूर्णी विभाग १ पत्र ३९३, हाटी० पत्र २९५ ] सव्वमक्खाणगं ७। __ पभावणे ति दारं-जति [वि सभावतो जिणवयणं दिप्पति तहावि धम्मकहि-वादीमादीहि पभावेतव्वं । दिलुतो अज्जवइरेहि, अग्गिगिहसुहुमक्काइयाणयणं जहेव आवस्सए [चूर्णी विभाग 1 पत्र ३९१, बाटी. पत्र २९५] । एसा पभावणा ८॥५॥ ८७॥ भणितो दंसणायारो । नाणायारो दारं-नाणधम्मनिमित्तं चेहा जहो 10 वएसकरणं नाणायारो, सो अट्ठविहो, तं जहा काले १ विणये २ बहुमाणे ३ उवहाणे ४ तहा अनिण्हवणे ५। वंजण ६ अत्थ ७ तदुभए ८ अट्ठविहो नाणमायारो ॥६॥८८॥ काले विणये० गाहा । काले ति दारं-जो जस्स अंगपविट्ठस्स अंगबाहिरस्स वा अज्झयणकालो भणितो तम्मि काले पढतो णाणायारे वट्टति । लोगे वि दिट्ठ-करिसगाणं कालं कालं पप्पाणं नाणाविहाणं बीजाणं निप्पत्ती 15 भवति । लोगे वि अधीयाणा अणज्झाए सक्का ! किन्न निहंसि ते १ । मता सग्गं न गच्छंति णणु णारद ! ते हता ॥१॥ काले पढितव्वं । अकाले पढंतं पंडिणीता देवता छलेज्ज । उदाहरणं-एगो साधू पादोसियं कालमतिवंताए पोरुसीए कालियमणुपतोगेण पढति । 'मा पंताए छलिजिहिति' त्ति सम्मपिट्ठी देवता तक्ककुडं घेत्तूण तस्स पुरतो 20 'तकं विक्कायति' त्ति घोसेंती गता-ऽऽगताई करेति । तेण 'चिरस्स सज्झायस्स वाघायं करेति' ति भणिया को इमो तकविक्कयकालो ? । ताए भणितो-को इमो कालियसज्झायकालो ? । सूतीपदपमाणाणि परछिद्दाणि पस्ससि । अप्पणो बिल्लमेत्ताणि पसंतो वि ण पस्सति ॥१॥ [उत्तरा० नि० गा• १४०] साधू उवउत्तो, गाउं 'मिच्छा मि दुक्कडं' आउट्टो । देवता भणति-मा अकाले पढ, मा पन्ताए छलिबिहिसि ॥ अहवा इदमुदाहरणंधमे धमे णातिधमे अतिधन्तं ण सोभती । जं अजितं धमतेण हारितं तं अतिधमंतेण ॥१॥ एक्को सामाइतो छेत्ते सूयरतासणत्यं सिंग धमति । तेणोवासेण चोरा गावीओ हरति । तेण समावत्तीए पतं। चोरा 'कुढो आगतो' त्ति गावीओ छड्डेउं गता । तेण पभाए द8 नीया धरतेण । पए धमएण छेत्तं गावीओ य रक्खति । धमेंतो चोरेहिं परिमाणेतुं रुडेहिं पंतावितो, णीताओ य गावीओ । तम्हा काले चेव आयरियव्यो सज्यातो॥ १णिकेतिजंतीए प्रसुवत्याः ॥ २ सुहुमक्काइयाणि पुष्पाणीत्यर्थः ॥ ३ विणए खं० वी० पु. सा. ॥ ४ तह व भनि बी. सा.॥ ५ प्रत्यनीका विरोधिनी ॥ ६ कालिकमनुपयोगेन ॥ ७ राई-सरिसबमेत्ताणि पर° उत्त. नि. गा• १४. पाल। सूचीस्थानप्रमाणानीत्यर्थः॥ ८ श्यामायितः रात्र्यन्धक इत्यर्थः, सामाजिक इति वा योऽर्थः ॥ ९ तेनावकाशेन । १० ग्रहान्तेव। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [वइयं खुडियायारकहज्झयणं . अहवा इमो संखधमओ-रायाए निग्गमकाले एगेण समावत्तीए संखो पूरितो। रण्णा तुद्वेण 'यक्त पूरितो' ति सहस्सं दिण्णं । सो एवं धर्मतो अच्छति । अण्णया राया विरेयणं पीतो पंचैवनगमतीति । तेण संखो दिण्णो । परबलकोट्टरोहं वद्दति । राया संताववेगधारणेण ण तिण्णो उठेतुं । उहिएण सो डंडितो । तम्हा ण पढितव्वं ॥ .. अहवा इममुदाहरणं सिरीए मतिमं तुस्से अतिसिरिं तु ण पत्थए । अतिसिरिमिच्छंतीए थेरीए विणासिओ अप्पा ॥१॥ वाणमंतरमाराहितं, छाणाणि पल्हत्यंतीए रयणाणि जाताणि, इस्सरीभूता । चाउसालं घरं कारितं अणेगसयणा-सण-रयणमरितं । सैमोसितियाए थेरीए पुच्छंतीए सिद्धं । ताए वि आराहितो-किं देमि ? ति । मणितंसमोसीतियाथेरीए वरो सव्वो दुगुणो भवतु । तहा जं जं पढमा चिंतेति तं तं इयरीए दुगुणं । ताए सुतं-सव्वं मह वरातो दुगुणं । ताए चिंतितं-मम चाउस्सालं फिट्टउ, तणकुडिआ होउ । बितियाए दो चाउस्साला फिट्टा, दो तण10 कुडिताओ जाताओ । पढमाए चिंतितं-एगं अच्छि फुट्टउ । बितियाए दो वि फुट्टाई । एवं हत्थो पादो । सुतीय सुवति-एसो असंतोसस्स दोसो । तम्हा अतिरित्ते काले सज्झातो न कातव्यो, मा तहाविणासो होहिति १॥ विणए ति दारं-अविणीतो विजाफलं ण पावति ति विणएणं पढितव्वं । उदाहरणं-सेणिओ मज्जाए भण्णति-एगखमं जहा दुमपुफियाए [पत्र २२] २॥ बहुमाणे ति दारं-णाणमंतेसु मत्ती बहुमाणो य कातव्यो । को पुण भत्ति-बहुमाणगओ विसेसो ? एमावबो नाणमंतेसु णेहपडिबंधो बहुमाणो, भत्ती पुण अन्भुट्ठाणातिसेवा । एत्थ उभंगो-भत्ती णामेगस्स णो • बहमाणो ४ मत्ति-बहुमाणविसेसणत्थमिदमुदाहरणं-एगम्मि गिरिकंदरे सिवतो। तं बंभणो पुलिंदो य अचेति । बमणो उवलेवण-सम्मजण-पुप्फोवकराति कातुं पज्झयणं करेति भत्तीए । पुलिंदो पुण भावपडिबद्धो गलोदगेण व्हावेति । सिवतो तं ओणमिऊण पडिच्छति आलवती वि तेणेव समं । अण्णदा बंमणेण तेर्सि उल्लवितसदो सुतो । तेण पडियरिऊण 'पुलिंदेण सह उलावेसि?' ति उवालद्धो, तुम एरिसो चेव पाणसिवओ 20बो एतेण उच्चिद्वेण समं मन्तेसि । तेण सिटुं-एसो मे भावतो अणुरत्तो । अण्णदा अछि उक्खणिऊण अच्छति सिवओ। बमणो य आगतो रडिउमुवसंतो । पुलिंदो आगतो 'सिवस्स अच्छि नत्थि' ति अप्पणो अच्छि मलीए उक्खणिऊण सिवस्स लाएति । बंभणो पैत्तीओ । एवं च नाणमंतेसु भत्ती बहुमाणो य कातव्यो ३॥ उवहाणे ति दारं-जो जस्स अज्झयण[स्स] आगाढमणागाढो वा जोगो सो तहारूवो कातव्यो । दिढतो-एगो आयरिओ वायणापरिस्संतो सज्झाए वि असज्झायं घोसेति । कालगतो । नाणंतराइयं काऊणं देवलोगं गतो। ततो चुओ आभीरकुले पञ्चातातो भोगे भुंजति । धूया य से जाता अतीवरूविणी गोयरियाए हिंडंति । तस्स सगडं पुरतो वञ्चति । सा तस्स धूता सगडस्स धुरतुंडे ठिता । तीसे दरिसणत्यं तैरुणइत्तेहिं सगडाणि उप्पहेण खेडते भग्गाणि । तीसे लोगेण नाम कतं असगडा। तीसे पिता असगडपिता। तस्स तं चेव वेरग्गं जातं । दारियं एगस्स दातुं निक्खंतो, पढितो जाव चउरंगिन । असंखए उद्दिढे तं नाणावरणिज्नं कम्मं उदिण्णं, पढंतस्स न ठाति । 'छ?ण अणुण्णव्वतु' त्ति भणिते 'तस्स केरिसो जोगो ? । 50 मायरिया भणति-जाव ण ठाति ताव आयंबिलं । सो भणति-एवमेव पढामि । तेणें बारस सिलोगा पारसहिं बरिसेहिं निरंतरमायंबिलेण पढिता, तं कम्मं खीणं । एवं सम्मं जोगो अणुपालेतव्यो ४ ॥ १यके अवसरे ॥ २पंचवनगमतीति संज्ञा व्युत्सृजति, बेकिको यातीत्यर्थः ॥ ३ समोसितियाए थेरीए प्रातिवेश्मिक्या स्थविरया पृच्छन्त्यै ॥ ४ "एत्य चउभंगी-एगस्स भत्ती णो बहुमाणो १ एगस्स बहुमाणो णो भत्ती २ एगस्स बहुमाणो वि भत्ती वि ३ एगस्स णो बहुमाणो णो भत्ती ४।" इति वृद्धविवरणे ॥ ५पुष्पावकरादि कृत्वा प्राध्ययनम् ॥ ६ गतॊदकेन यद्वा मलिनोदकेन ॥ ७ पाणशिवः॥ रच्छिटेन। ९लगयति ॥ १० प्रत्ययितः ॥ ११ प्रत्यायातः ॥ १२ गोचार्य ॥ १३ तरुणैः॥ १४ उत्तराध्ययनेषु तृतीयमध्ययनम् ॥ १५ उत्तराध्ययनेषु चतुर्थमध्ययनम् ॥ १६ तेण पारसिसलोगा मूलादर्श ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्तिगा० ८९-९१] दसकालियसुत्तं। अणिण्हवे त्ति दारं-जं जस्स सगासे सिक्खितं तं तहेव माणितव्वं । वायणारियं णिण्हवंतस्स इहेव परलोए वा नत्थि कलाणं । उदाहरणं-एगस्स हावियस्स छुरघरगं विजाए आगासे अच्छति । तं परिव्वाओ बहूहिँ उस्सप्पणातीहि लद्धं विजं अण्णत्थ गंतुं तिदंडेण आगासगतेण लोएण तिजति । रण्णा पुच्छितो-किं विजातिसतो ? तवातिसतो? । भणति-विजातिसतो । कतो आगमो ? ति । 'हिमवंते महरिसीसगासातो' ति तिडंडं खडखडेंतं पडितं । एवं जो वि अप्पगासो आयरितो सो वि ण णिण्हवितव्यो ५॥ वंजणे ति दारं-वंजणमक्खरं, तेहिं वंजणेहिं निप्फण्णं सुत्तं तं सुत्तं पागतं सक्कयं करेति, जहा-"धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टम्" एवमादि । तस्सेव वा अत्थस्स अण्णाणि वंजणाणि करेति, जहा-"पुण्णं कल्लाणमुक्कोसं दया संवर-णिज्जरा ।” एवं ण कातव्वं । किं कारणं १ वंजणविसंवाते अत्यविसंवातो, अत्थविणासे चरणविणासो, चरणविणासे मोक्खाभावो, मोक्खाभावे णिरत्था दिक्खा, अतो वंजणमण्णहा ण कायव्वं ६॥ ___ अत्यो ति दार-तेसु चेव वंजणेसु अण्णं अत्थं विकप्पेति । जहा-"आवंती केया वंती लोगसि विप्पराम-10 सति" [भाचाराम भु० । १० ५० १ ० १] एतस्स अत्थं विसंवाएति-'आवंती' देसो तत्थ 'केया' रजू 'वंती' कूवे पडिता तं लोगो 'विप्परामसति' मग्गति, एरिसो अन्थविसंवातो ण कातव्वो ७॥ उभए ति दारं-जत्थ सुत्तं पि अत्यो वि विणस्सति तं उभयं । जहाधम्मो जंगलसुक्कम्हो अहिंसा पव्वतमस्तके । देवा वि तस्स णस्संति जस्स धम्मे सदा मती ॥१॥ अहाकडेहिं रंधेति कडेहिं रहकारिणो । 15 एवमादिसुत्तत्थविसंवातो ८॥ ६॥ ८८ ॥ चरित्तायारो ति दारं । सो अट्ठविहो । तं० पणिहाणजोगजुत्तो पंचहि समितीहिं तिहि य गुत्तीहिं । एस चरित्तायारो अट्टविहो होइ णायबो॥७॥८९॥ पणिहाणजोगजुत्तो० गाहा । पणिहाणं अज्झवसाणं, तेण अज्झवसाणजोगेण जुत्तो, यदुक्तं मनसा, अहवा तिविहेण वि करणेणं जुत्तो पणिहाणजोगजुत्तो। भणियं च गोविंदवायएहिं काए वि हु अज्झप्पं सरीर-वायासमन्नियं चेव । काय-मणसंपउत्तं अज्झप्पं किंचिदाइंसु ॥१॥ समितीतो रितादिता नो । गुत्तीओ मणगुत्तीयादियाओ तिण्णि । समिति-गुत्तिविसेसो-सम्मं पवत्तणं समिती, णिरोधो गुत्ती ॥ ७॥ ८९ ॥ तवायारो दारं पारसविहम्मि वि तवे सम्भितर बाहिरे कुसलदिटे। अगिलाए अणाजीवी णायव्वो सो तवायारो॥८॥९॥ बारसविहम्मि वि तवे० गाधा । तवो बारसविहो वि जहा दुमपुप्फिताए [पत्र १२]कुसलदिहो तित्थकरदिट्ठो । अगिलाए अद्दीणो । अणाजीवी ण तवमाजीवति लाभ-पूयणादीहिं ॥८॥९॥ ___वीरियायार इति दारं-अट्ठविहे दंसणायारे अट्ठविहे णाणायारे अट्ठविहे चरित्तायारे बारसविहे तवे, एतेसु छत्तीसाए कारणेसु जं असढमुज्जमति एस वीरियायारो।। अणिमूहितबल-विरिओ परक्कमति जो जहुत्तमाउत्तो। ___ झुंजइ जहाथामं णायव्वो वीरियायारो॥९॥९१ ॥ आयारो गओ॥ अणिग्रहित. गाधा । पाढोक्तार्था ॥ ९॥ ९१ ॥ एस वीरियायारो । आयारो समत्तो । कहादारं 25 ____30 १ उत्सर्पणादिभिः सत्कार-सेवादिभिरित्यर्थः ॥ २ पूज्यते ॥ ३ "अप्पागमो" इति ख• हाटी० च ॥ ४ इयर्यादिकाः॥ ५ना इति पञ्चसयाद्योतकोऽक्षराः॥ ६ अगिलाइ ख० वी० सा० । अगिलाय पु.॥ ७य भहा ख०॥ Jain Education Interational Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [तइयं खुड्डियायारकहरयणं अत्थकहा १ कामकहा २ धम्मकहा चेव ३ मीसिया य कहा ४। एत्तो एकेका वि य णेगविहा होइ नायव्वा ॥१०॥ ९२॥ अत्थकहा कामकहा० गाहा । कहा चउविहा–अत्थकहा १ कामकहा २ धम्मकहा ३ मीसिया ४ । एतासिं एकेका अणेगहा ॥१०॥९२॥ 5 अत्थकहा जा अत्थनिमित्तं कहिज्जति सा इमाए गाहाए अणुगंतव्वा । तं जहा विजा १ सिप्प २ मुवाओ ३ अणिवेओ४ संचओ य ५ दक्खत्तं ६ । सामं ७ दंडो ८ भेओ ९ उवप्पयाणं च १० अत्थकहा ॥ ११ ॥९३ ॥ विजा सिप्प गाहा । विज ति दारं-जो विजाए अत्थमुचिणति, जहा कोति लोहको जक्खो साहितो पंचकं पभायकं देति । जहा वा सचतिस्स विजाहरचक्कवट्टिस्स भोगोवणती । सच्चतिस्स उट्ठाण-पारि10 याणिया जहा जोगसंगहेसु [भाव० चूर्णी विभाग २ पत्र १७४ हाटी० पत्र ६८५] १। सिप्पे ति दारं-सिप्पेण अत्थो विढप्पति । उदाहरणं कोकासो, जहा आवस्सए [आव० चूर्णी विभाग : पत्र ५४१ हाटी० पत्र ४०९] २।उवाए त्ति दारं-दिटुंतो चाणको, जहा “बे मज्झ धातुरत्ताइं०" [भाव० चूर्णी विभाग १ पत्र ५६५ हाटी० पत्र ४३५] एवमादीहिं चाणकेण उवाएहिं धणोवजणं कतं ३ । अणिवेदे संचए य एकं चेव मम्मणवणियो निदरिसणं जहा आवस्सए [चूर्णी विभाग १ पत्र ५४३ हाटी० पत्र ४१३] ४।५॥११॥९३ ॥ दक्खत्तदारं । एत्थ दैक्खत्तणगं पुरिसस्स पंचगं १ सइकमाहु सुंदेरं २। बुद्धी पुण साहस्सा ३ सयसाहस्साइं पुण्णाई ४ ॥१२॥ ९४ ॥ दक्खत्तणगं पुरिस० गाहा । उदाहरणं-बंभदत्तकुमारो कुमारामच्चपुत्तो सेट्टिपुत्तो सत्यवाहपुत्तो [य] संतिमुल्लादिति-को भे केण जीवति ? त्ति । रायपुत्तो 'पुण्णेहिं' ति भणति । कुमारामच्चपुत्तो 'बुद्धीए। सेद्विपत्तो 'रूवेण' । सत्थवाहपुत्तो 'दक्खत्तणेण' । भणंति-अण्णत्थ गंतुं विण्णासेमो । गता णगरंतरं जत्थ ण णजंति । 20 उज्जाणे ठिता। दक्खस्स संदेसो दिण्णो अज ! परिव्वयमाणेहिं । सो वीहीए एगस्स थेरस्स गंधियावणे ठितो, उस्सवदिणे बहुते कइया, पुडका बंधतो न पहुपति । सत्थाहपुत्तेण खणेण बहुते बद्धा । लद्धलाभो जातो तुट्ठो भणतितुब्भे किमागंतुका? । आमं । तो इहं अज्ज देस-कालो । तेण भणियं-अस्थि मे सहाया तेहिं विणा न भुंजामि । सव्वे एह । आगता, भत्त-तंबोलादि पंचकं भुत्तं १। बितिए दिवसे रेवतित्तो भणितो-अज तव परिव्वयपरिवाडी । एव' मिति सो अप्पगं अलंकारेतुं वेसित्थिवाडगं गतो । तत्थेका गणिका पुरिसव्वेसिणी बहूहिं रायपुत्तादीहिं पत्थिता 25 णेच्छति, तीसे तस्स रूवे मणो गतो । दासीए से माऊए सिटुं-एगम्मि सुंदरजुवाणे भावो से । माताए सो भणितोइह अन्ज देसकालो [ मम गिह मणुवरोहेण करेह । तहेव आगता, सेतितो उवओगो कतो २। ततियदिवसे बुद्धितित्तो भणितो, तहेव गतो करणं, तत्थ ततिओ दिवसो ववहारस्स ण छिजंतस्स-दो सर्वत्तीतो मतपतियातो पुत्तस्स धणस्स य अत्थे विवदंति । पुत्तो लोको य समाणणेहाओ ण विभावेति । वरधणुणा भणितं-दुहा दारतो कीरतु धणं च । पुत्तइत्ती भणति-सव्वं एताए, जीवंतं पेच्छीहामो ति । तीसे दिण्णो करणपतिणा । तहेव सहस्सपरिणते 30 पूतिया ३ । चतुत्थे दिवसे रायपुत्तो तहेव पडिवण्णे तेसिं मूलातो निग्गंतुमुज्जाणे निवण्णो अच्छति । तम्मि य नयरे अपुत्तो राया मतो, आसो अहिवासितो, आसेण तस्स उवरिट्टितेण हिंसितं, रुक्खच्छाया वि ण परियत्तति, राया अहिसित्तो अणेगसतसहस्सपती ४।६॥ १ इत्तो इक्किक्का पु.॥ २ अत्थपयाणं खं०॥ ३ दक्खत्तणेण पुरि वी० ॥ ४ बुद्धीए पंच सया सय वी०॥ ५ सकृदुलपन्ति ॥ ६ आर्य ! परिव्ययमानय ॥ ७रूपवान् भणितः अद्य तव परिव्ययपरिपाटी॥ ८ पुरुषद्वेषिणी ॥ ९शतिकः ॥ १० बुद्धिमान् ॥ ११ वे सपन्यो मृतपतिके ॥ १२ पुत्रवती॥ Jain Education Intemational . Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्तिगा० ९२-९६] दसकालियसुत्तं । - साम-भेदोवप्पदाण-दंडेहिं जहा अत्यो विढप्पति एत्थ उदाहरणं सितालो-तेण हत्थी मैततो लद्धो, तुट्ठो 'कमेण खाहामि' ति । सीहो य आगतो पुच्छति-केण मारितो? । 'ऊणेण हतं ण खातिस्सति' त्ति सामवयणं भणति-वग्घेण । सो गतो । वग्यो आगतो तस्स कहितं-सीहेण मारितो, सो पाणितं पातुं ऐत्तिमेण एत्ति । वग्यो णट्ठो । एस भेदो । कातो आगतो-रोलेण मा बहव आगच्छंतु-त्ति तस्स किंचि देति । उवपदाणं गतं । सितालो आगतो, हेलं दाऊण धाडितो । एस दंडो। पणिवारण पहाणं भेदेण ततो पलावकिट्ठतरं । लिच्छाए पुण णीतं सरिसं तु परक्कमेण जतो ॥१॥ ] ७-१०॥१२॥ ९४ ॥ कामकह ति दारं रूवं १ वैतो व २ वेसो ३ दैक्खिण्णं ४ सिक्खियं च विसएमुं५। दिढे ६ सुय ७ मणुभूयं च ८ संथवो चेव ९ कामकहा ॥ १३ ॥ ९५॥ 10 रूवं वतो व वेसो० गाहा । रूवकहाए उदाहरणं वसुदेव-बंभदत्ता १। वतो ति दारं-तरुणे वये वट्टमाणो कामिज्जति २ । वेसो ति दारं-वत्था-ऽऽभरणादिसमलंकितो कमणीतो भवति । उदाहरणंराया पासायवरगतो ओलोएति । तेण महिला हरितसद्दले समरत्तकपाउया चंकम्मंती दिवा । चित्ते जाते आणाविया । दिट्ठा विरुवा । सो भणति सुमहग्यो वि कुसुंभो घेत्तव्वो पंडितेण पुरिसेण । जस्स गुणेण महिलिया होइ सुरूवा विरूवा वि ॥१॥३॥15 दक्खिण्णे ति दारं-चागातिसंपदाए विरूवो वि अवयत्थो वा वेसित्थियादीहिं कामिजति ४ । सिक्ख त्ति दारं-एत्य अयल-मूलदेवा उदाहरणं ते दो वि देवदत्ताए लग्गा । अयलो देति, मूलदेवो विण्णाणेण भुंजति । कुट्टणी मूलदेवाओ विस्सादेति । सा ण सुणेति । चड्डिजंतीए कुट्टणी भणिता-अयलं भण, उच्छूणि देहि । तेण सगडमरो पेसितो। किमहं हथिणी तो सगडमरो पेसितो? । मूलदेवस्स पेसियं । तेण उच्छुखंडियाओ 20 छोडेतुं चाउज्जातएणं वासेतुं सूर्ति लाएतुं पेसियातो । एवं पत्तियाविया ५ । दिडं ति दारं-जहा कोति कस्सति दिलु णारिं कहेति, णारय इव रुप्पिणिं वासुदेवस्स ६ । सुतं ति दारं, दिटुंतो-दोवतीणाते पउमरहो णारयस्स सोऊण पुवसंगतियं देवमाराधेउं तस्स परिकहेति जहाभूतं दोवतीए ७ । अणुभूते ति दारं-तं जहा तरंगवईए अप्पणो चरितं कहितं ८ । संथवो दारं, तत्थ इमा गाहासंदंसणेण पीती पीतीतो रती रतीओ वीसंभो । वीसंभातो पणतो पंचविहं वद्धती पेम्मं ॥१॥९। 25 ]॥ १३॥ ९५ ॥ एवं संथवो । समत्ता कामकहा । धम्मकह त्ति दारं धम्मकहा बोधव्वा चउबिहा धीरपुरिसपण्णत्ता। अक्खेवणि १ विक्खेवणि २ संवेगे चेव ३ निव्वेए ४॥१४॥ ९६ ॥ धम्मकहा बोधव्वा० गाहा । धम्मकहा चतुविहा, तं०-अक्खेवणि १ विक्खेवणि २ संवेदणि 30 ३ णिब्वेदणि ४ । जाए सोता रंजिज्जति सा. अक्खेवणी १ । विविहं विण्णाण-विसयादीहिं खिवति विक्खेवणी २। संवेगं संसारदुक्खेहितो जणेति संवेदणी ३ । भोगेहितो निव्वेदणी ४ ॥ १४ ॥ ९६ ॥ १भगालः ॥ २ मृतः ॥ ३ इदानीम् ॥ ४ चोय वेसो वी० पु० सा० । वयो य वेसो ख• ॥ ५दक्खत्तं सा० ॥ ६खियन्त्या इत्यर्थः ॥ ७त्वक् तमालपत्रं एला नागकेशरम् इति द्रव्यचतुष्कं चातुर्जतशोपलक्ष्यते ॥ ८ नारद इव रुक्मिणीम् ॥ ९निवेगे खं०॥ Jain Education Intemational Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [तइयं खुडियायारकहनयणं अक्खेवणी चतुम्विहा, तं०-आयारक्खेवणी १ ववहारक्खेवणी २ पण्णत्तिअक्खेवणी ३ दिद्विवायअक्खेवणी ४ । साधुणो अट्ठारससीलंगसहस्सधारका बारसविहतवोकम्मरता दुक्करकारक त्ति आयारक्खेवणी १ । अक्खित्तमतिसु सोतारेसु एवं परूविज्जति-दुरणुचरतवोजुत्ता वि साधुणो जदि किंचि अतिचरंति तो जहा अव्ववहारिस्स लोए डंडो कीरति तहा पायच्छित्तं ति ववहारक्खेवणी २ । संदेहसमुग्धाते णिव्वेदकर-मधुर-सउवायपण्णत्तिगतोउदाहरणेहिं पत्तियावणं पण्णत्तिअक्खेवणी ३ । दव्व-जीवातिचिंता णिपुणमतीसु सोतारेसु विविधभंग-णय-हेउवादसमुपगूढा दिविवादअक्खेवणी ४ । अहवा अयमक्खेवणीविकप्पो विजा १ परणं च २ ततो पुरिसकारो य ३ समिति ४ गुत्तीओ ५। उवइस्सइ खलु जहियं कहाइ अक्खेवणीइ रसो॥१५॥ ९७ ॥ विजा परणं च ततो० गाहा । विजा णाणं, नाणमाहप्पवण्णणं-जहा अंधकारे वट्टमाणा भावा चक्खुमं 10 पदीवेण पासति एवं नाणं पुरिसस्स दीवन्भूतं । किंच पेच्छति जहा सचक्खू पुरिसो दीवेण अंधकारे वि । जिणसासणदीवेण उ पासति एवं गरो मतिमं ॥१॥ एवमादीहिं नाणसामत्थं दरिसिजति ति विजाअक्खेवणी १ । एवं साहुणो सरीरे वि अप्पडिबद्धा भवंतीति चरणक्खेवणी २ । अणिमूहितबल चीरिएहिं संजमुज्जमणं पुरिसकारक्खेवणी ३ । समितीतो पंच ४ । गुत्तीओ 15 तिण्णि ५ । विजा-चरण-पुरिसकार-समिती-गुत्तीओ जाए कहाए उवदिस्संति सो कहाए अक्खेवणीए रसो मधुरता ॥१५॥९७ ॥ विक्खेवणी चतुम्विहा, तं जहा-ससमयं कहित्ता परसमयं कहेति, ससमयगुणे कहेति परसमयस्स दोसे दरिसेति पढमा विक्खेवणी १ । वितिया परसमयं कहित्ता तस्स दोसे ठावितो पुणो ससमयं कहेति गुणकहणेणं २ । ततिया मिच्छावादं कहतित्ता सम्मावादं कहयति, परसमए कहिते तम्मि जे भावा इह विरुद्धा असंता कप्पिता ते 20 कैहतित्ता दोसा य "सिं भर्णितो जे जिणप्पणीयभावसरिसा तिरिच्छाए घुणक्खरमिव सोभणा भणिता ते कहयति । अहवा नत्थित्तं मिच्छावादो, अत्थित्तं सम्मावादो, पुट्विं णाहितवादं कहतित्ता पच्छा अत्थित्तपक्खं कहयति ३ । चतुत्यी विक्खेवणी एवमेव, किंतु पुग्विं सोभणे कहयति पच्छा इयरे । एसा विक्खेवणी कहा । अण्णेण विकप्पण इमाहिं दोहिं गाहाहिं भण्णति जा ससमयबजा खलु होइ कहा लोग-वेयसंजुत्ता। परसमयाणं च कहा एसा विक्खेवणी नाम ॥ १६ ॥९८॥ जा ससमएण पुषिं अक्खाया तं छुभेज परसमए । परसासणवक्खेवा परस्स समयं परिकहेति ॥ १७ ॥ ९९ ॥ जा ससमयवजा० गाहा । जा ससमएण० गाहा । जाए कहाए ससमयं मोत्तूण लोतितं भारहादीणि सकादीण य समया कहेऊणं तेसिं दोसे परूवेति । पढमगाहाए अत्यो ॥१६॥९८॥ 30 बितियाए पुण १तयो३ परिसकारोय ४ समिति ५ गुत्तीओ६ ख. पु. वी. सा.। श्रीहरिमद्रपादेरयमेव पाठः स्ववृत्तावारतोऽस्ति । तथाहि-"विजा गाहा । 'विद्या' ज्ञानं अत्यन्तापकारिभावतमोभेदकम् । 'चरणं' चारित्रं समाविरतिरूपम् । 'तपः' अनशनादि । 'पुरुषकारब' कर्मशन प्रति खवीर्योत्कर्षलक्षणः । समिति-गुप्तयः' पूर्वोक्ता एव ।" [पत्र ११०] इति । वृद्धविवरणकृता तु श्रीअगस्त्यसिंहपादादृत एव नियुक्तिपाठः स्वीकृतोऽस्ति । तथाहि-"विज्जा-चरणाणि पुरिसकार-समिति-गुत्तिपज्जवसाणाणि पंच वि कारणाणि जाए कहाए उवदिस्सति" [पत्र १.७] इति । अस्मत्पार्श्ववर्त्तिषु समप्रेष्वपि नियुक्त्यादर्शेषु नोपलभ्यते चूर्णिकारसम्मतो नियुक्तिपाठ इत्यवधेय विद्वद्भिरिति ॥ २परिसायारो य वी०॥ ३ कथयित्वा ॥ ४ तेषाम् ॥ ५ यदृच्छया धुणाक्षरमिव । Jain Education Intemational Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्तिगा० ९७-१०१] दसकालियसुत्तं । ससमयं कहेत्ता परसमयं कहेति, अम्हं एवं तेसिं एवं, एवं ससमए त्थावेति परस्स दोसे देति । जति पुण वक्खेवो भवति तत्थ परसमयमेव कहयति । वक्खेवो वाकुलणा कहणाए, तो परसमय एव अवसरप्पत्तो भण्णति दोसा य से दाविनंति, तेण इमं गाहापच्छद्धं-परसासणवक्खेवा परस्स समयं परिकहेति ॥१७॥९९॥ ____संवेगणी चतुम्विहा, तं०-आतसरीरसंवेदणी परसरीरसंवेदणी [ इहलोगसंवेदणी] परलोकसंवेदणी । आयसरीरसंवेदणी-जं एतं अम्हं तुब्भ वा सरीरयं एवं सुक्क-सोणित-वसा-मेतसंघातनिष्फण्णं मुत्त-पुरीसभायणतणेण य. असुति त्ति कहेमाणो सोतारस्स संवेगमुप्पादयति १ । परसरीरसंवेदणीए वि परसरीरमेवमेवासुतिं, अहवा परतो मततो, तस्स सरीरं वण्णेमाणो संवेगमुप्पाएति २। इहलोकसंवेदणी जहा-सव्वमेव माणुस्समणिचं कदलीयंभनिस्सारं एवं संवेगमुप्पाएति ३ । परलोकसंवेदणी जहाइस्सा-विसाय-मय-कोह-लोह-दोसेहिं एवमादीहिं । देवा वि समभिभूया तेसु वि कत्तो सुहं अस्थि ?॥१॥ [ मरण० गा० ६१०] 10 जति देवेसु वि एरिसाणि दुक्खाणि णरग-तिरिएसु को विम्हतो? । अहवा सुभाणं कम्माणं विपाककहणेणं संवेगमुप्पाएति-जहा इहलोए चेव इनाओ लद्धीओ सुभकम्माणं भवंति । तं जहा वीरिय-विउत्पणिड्डी नाण-चरण-दसणस्स तह इड्डी। उवइस्सइ खलु जहियं कहाइ संवेयणीइ रसो॥१८॥ १००॥ वीरियविउच्च० गाहा । तवोजुत्तस्स साहुणो मेरुगिरेरुक्खेपणमेवमादि वीरियमुप्पजति विजालद्धी 15 विउव्वणिड्डी वा । णाणिड्डी इहलोए चेव, कहं ? "पभू णं चोइसपुव्वी घडाओ घडसहस्सं० पडाओ पडसहस्सं अभिणिव्वत्तेतुं?" [भग० श० ५ उ० ४ सू० २०० पत्र २२४-१] एवमादि । चरणिड्डी वि जहा"मणपजव आहारक." [ ] एवमादीणि । दंसणिड्डीसम्मदिट्ठी जीवो विमाणवजं ण बंधए आउं । जति वि ण सम्मत्तजढो अहव ण बद्धाउओ पुचि ॥१॥ [ ] एवमादि ॥ १८ ॥१०० ॥30 निव्वेदणीकहा चउव्विहा, तं०-इहलोए दुचिण्णा कम्मा इहलोगदुहविवागसंजुत्ता भवंति चउमंगो । पढमे भंगे चोर-पारदारियाणं पढमा निव्वेदणी १ । बितिया निव्वेदणी-इहलोए दुचिण्णा कम्मा परलोए दुहविवागसंजुत्ता भवन्ति, जहा रतियाणं इह मणुस्सभवे कतं कम्मं णिरयभवे फलति २ । ततिया निव्वेगणी-परलोए दुचिण्णा कम्मा इहलोकदुहविवागसंजुना भवंति, जहा बालत्तणे चेव दरिद्दकुलसंभूता खय-कुट्ठ-जलोयराभिभूता ३ । चतुत्थी निव्वेगणी-परलोए दुचिण्णा कम्मा परलोए चेव दुहविवागसंजुत्ता भवंति, जहा पुग्विं दुक्कएहिं कम्मेहिं 25 चंडालादिदुगुंछितजातीजाता एकंतणिद्धंधसा. णिरयसंवत्तणीयं पूरेऊणं णिरयभवे वेदंति ४ । इहलोक-परलोकता पण्णवकं पडुच्च भवति, तेण मणुस्सलोगो इहलोगो अण्णगतीतो परलोगो । इमा से निदरिसणगाहा पावाणं कम्माणं असुभविवागो कहिज्जए जत्य । - इह य परत्थ य लोए कहा उणिव्वेयणी णाम ॥ १९ ॥११॥ पावाणं कम्माणं० गाहा जहापाढं ॥ १९ ॥ १०१॥ अधुणा एक्काए चेव गाहाए ततिय-चउत्थीणं 30 कहाणं लक्खणं भण्णति १ मृतकः॥ २ दंसणाण तहहही सा. हाटी। दसणस्स जा इड्डी वी० ॥ ३ मेरुगि रेः उत्क्षेपणम् एवमादि । ४य खं०॥ दस० सु०८ Jain Education Intemational Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [तइयं खुड्डियायारकहज्झयणं सिद्धी य देवलोगो सुकुलुप्पत्ती य होइ संवेगो। नरगो तिरिक्खजोणी कुमाणुसत्तं च णिव्वेओ ॥ २० ॥ १०२॥ सिद्धी य देवलोगो० गाहा जहापाढेण ॥ २० ॥ १०२ ॥ एतासिं चतुण्हं कहाणं कस्स का पढमं कहेतव्वा ? भण्णति वेणतितस्स पढमया कहा उ अक्खेवणी कहेतवा। तो ससमयगहितत्थे कहेज विक्खेवणी पच्छा ॥ २१ ॥१०३ ॥ वेणतितस्स० गाहा । वेणइतो जो तप्पढमयाए सवणाभिमुहो तस्स अक्खेवणी कहेतवा । ससमयगहितत्थस्स पच्छा विक्खेवणीकहं ॥ २१ ॥ १०३ ॥ जम्हा अक्खेवणिअक्खित्ता जे जीवा ते लभंति सम्मत्तं । विक्खेवणीए भलं गाढतरागं व मिच्छत्तं ॥ २२ ॥ १०४॥ __ अक्खेवणिअक्खित्ता० गाहा । अक्खेवणीए अक्खित्ता सम्मत्तं लभेजा। विक्खेवणीए पुण भयणिजं गाढतरागं व मिच्छत्तं । आगाढमिच्छादिहिस्स ससमतो वण्णिजंतो रोयति, मिच्छत्तोवहतत्तेण तस्स दोसा ण सदहति, सुहुमत्तणेण य अबुज्झमाणो अदोसा मण्णेजा, अतो भण्णति-गाढतरागं व मिच्छत्तं - ॥२२॥१०४॥ एसा धम्मकहा मीसिता धम्मो अत्थो कामो उवइस्सइ जत्थ सुत्त-कन्वेसु। लोगे वेदे समए सा उ कहा मीसिया णामं ॥ २३ ॥ १०५॥ धम्मो अत्थो कामो० गाहा । लोग-वेत-समताविरोधेण जहितं धम्म-ऽत्थ-कामा तिण्णि वि कहिजंति सा मीसिता कथा । लोए भारहादि । वेदे जण्णकिरियादि । समए तरंगवतियादि । धम्म-ऽत्थ-कामकहाओ कहिजंति एसा मीसा ॥ २३ ॥ १०५॥ 20 कहापसंगेण विकहा भणंति । जहा विणट्ठसीला विसीला णारी एवं विणट्ठा कहा विकहा । सा पुण इत्थिकहा भत्तकहा रायकहा चोर-जणवयकहा य । नड-नट्ट-जल्ल-मुट्ठियकहा उ एसा भवे विकहा ॥ २४ ॥ १०६॥ इथिकहा० गाहा जहा आवस्सए ॥ २४ ॥ १०६॥ एताओ अक्खेवणिमादियाओ चत्तारि कहातो पुरिसं पप्प अकहातो विकहातो कहातो य भवंति । जहा एगारसं दुवालसंगं गणिपिडगं मिच्छादिहिस्स सुतअण्णाण2 भावेणं परिणमति, सम्मदिहिस्स सुतनाणभावेणं, एवं कहातो पण्णवगं गाहगं च पडुच्च तिहा भवंति । तं जहा एता चेव कहातो पण्णवगपरूवगं समासज्ज ।। अकहा कहा व विकहा व होज पुरिसंतरं पप्प ॥ २५ ॥१०७॥ एता चेव कहातो० गाहा उक्तार्था ॥ २५ ॥ १०७॥ अकहा ताव एवं भवति मिच्छत्तं वेदेंतो जं अण्णाणी कहं परिकहेइ । लिंगत्थो व गिही वा सा अकहा देसिया समए ॥ २६ ॥ १०८॥ मिच्छत्तं वेदेंतो० गाहा ॥ २६ ॥१०८॥ कहा पुण एवं तव-संजमगुणधारी जं चरणरया कहेंति सम्भावं । सधजगज्जीवहियं सा उ कहा देसिया समए ॥ २७ ॥ १०९ ॥ १य खं०॥ २ "प्रज्ञापयतीति प्रज्ञापकः, प्रज्ञापकश्चासौ प्ररूपकश्चेति विग्रहः ।...."अन्ये तु-'प्रज्ञापर्क-मूलकार प्ररूपकंतत्कृतस्याख्यातारम्' इति व्याचक्षते" । इति हारि० वृत्तौ ॥ ३ वेएंतो वी० । वेयंतो पु० सा० ॥ ४ चरणत्था सा.॥ 30 Jain Education Intemational Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० १७ णिज्जुत्तिगा० १०२-१४] दसकालियसुत्तं । तवसंजम० गाधा सिद्धा ॥ २७॥१०९॥ विकहा एवं भवति जो संजतो पमत्तो राग-दोसवसगो परिकहेह। सा उ विगहा पवयणे पण्णत्ता धीरपुरिसेहिं ॥ २८ ॥ ११० ।। जो संजतो पमत्तो० गाहा सिद्धा ॥ २८ ॥११० ॥ संजमगुणट्ठिएणं का कहा ण कहेतव्वा १ का । वा कहेतव्वा १ । इमा ण कहेतव्वा सिंगाररसुग्गुतिया मोहकुवितफुफुगा हसहसेंति । जं सुणमाणस्स कहं समणेण ण सा कहेयवा ॥ २९ ॥ १११ ॥ सिंगाररसुग्गुतिया० गाहा पाढसमा ॥ २९ ॥ १११ ॥ इमा पुण कहेतव्वा समणेण कहेतवा तव-णियमकहा विरागसंजुत्ता। जं सोऊण मणुस्सो वचइ संवेग-निव्वेगं ॥ ३० ॥ ११२॥ समणेण कहेतवा० गाहा सिद्धा ॥ ३० ॥ ११२ ॥ अस्थमहंती वि कहा अपरिकेसबहुला कहेतवा। हंदि महया चडगरत्तणेण अत्थं कहा हणइ ॥ ३१ ॥ ११३ ॥ अत्थमहंती० गाहा कमो ॥ ३१ ॥ ११३॥ 'देसं खेत्तं कालं सामत्थं चऽप्पणो वियाणेत्ता। समणेण उ अणवजा पगयम्मि कहा कहेयव्वा ॥ ३२॥ ११४ ॥ ॥ तइयखुडियायारकहाए णिज्जुत्ती सम्मत्ता ॥ देसं खेत्तं कालं० गाहा कमो ॥ ३२ ॥ ११४ ॥ कहा समत्ता । गतो नामणिप्फण्णो । सुत्ताणुगमे सुत्तं उच्चारतव्वं जहा अणुओगहारे । तमिमं सुत्तं १७. संजमे सुट्टितप्पाणं विप्पमुक्काण ताइणं ।। तेसिमेतमणाइण्णं णिग्गंथाणं महेसिणं ॥ १॥ १७. संजमे सुहितप्पाणं. सिलोगो । संजमो सत्तरसविहो दुमपुप्फिताए भणितो [पत्र १२ ], तम्मि संजमे सोभणं ठितो अप्पा जेसिं ते संजमे सुट्टितप्पाणो । विप्पमुक्काण अभितर-बाहिरगंथबंधणविविहप्पगारमुक्काणं विप्पमुक्काणं । ताइणं त्रायन्तीति त्रातारः तेसिं ताइणं । ते तिविहा-आयतातिणो १ परतातिणो २ उभयताइणो ३ । आयतातिणो पत्तेयबुद्धा १ संसारमहाभयातो भवियजणमुपदेसेण वायन्तीति परतातिणो 25 तित्थकरा । एत्थ चोदेति-अभव्वा वि सज्झातो(१ सम्भावो)वदेसेण कहयंति ते किं तातिणो [भवंति] ? भण्णति, ते[हिं] अंधप्पईवधारितुल्लेहिं णाहिकारो २ । उभयतातिणो थेरा ३ । तेसिमेतमणाइण्णं, तेसिं पुव्वभणिताणं बाहिर-ऽभंतरगंथबंधणविप्पमुक्काणं आय-परोभयतातिणं एतं जं उवरि एतम्मि अज्झयणे भणिहिति तं पच्चक्खं दरिसेति । एतं तेसिं अणाचिण्णं अकप्पं । अणाचिण्णमिति जं अतीतकालनिदेसं करेति तं आय-परोमयतातिणिदरिसणत्यं, जं पुव्वरिसीहिं अणातिण्णं तं कहमायरितव्वं ? । निग्गंथाणं ति विप्पमुक्ता निरूविजति 150 महेसिणं ति इसी-रिसी, महरिसी परमरिसिणो संबझंति, अहवा महानिति मोक्षो तं एसन्ति महेसिणो ॥१॥ _जं पुब्वभणितं तेसिमेयं अणातिण्णं ति तदुग्णयणं भण्णति १°सधमओ परि वी० ॥ २ सुत्तुइया खं० । सुत्तइया वी• पु० सा०॥ ३°गा सहासिति सा०॥ ४ मणूसो खं०॥ ५ संवेय-णिव्वेयं पु० ॥ ६ अपरिकिलेस सा०॥ ७ खेत्तं देसं कालं सामत्थं वृद्ध० । खेतं कालं पुरिसं सामत्थं खं० वी० पु० सा० हाटी.॥ Jain Education Intemational Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [तइयं खुड्डियायारकहज्झयणं १८. उद्देसियं १ कीयगडं २ णियाग ३ मभिहडं ति य ४ । राइभत्ते ५ सिणाणे य ६ गंध ७ मल्ले य ८ वीयणे ९ ॥२॥ १८. उद्देसियं कीयगडं० सिलोगो । उद्देसितं जं उद्दिस्स कजति, पिंडनिजुत्तीए से वित्थारो १। कीतकडं जं किणिऊण दिजति २ । णियागं प्रतिणियतं जं निब्बंधकरणं, ण तु जं अहासमावत्तीए दिणे दिणे 5 मिक्खागहणं ३ । अभिहडं जं अभिमुहमाणीतं उवस्सए आणेऊण दिणं । “अभिहडाणी"ति बहुवयणं णियागा-ऽभिहडाणीति समासे कते दुवयणमवि पागते बहुवयणमेवेति ण विरोधो । अहवा अभिहडभेदसंबंधणत्थं, "सग्गाम परग्गामे०" गाहा पिंडणिजुत्तिगता [गा० ३२९ पत्र १०२] ४ । चसद्देण ण केवलमेतदणातिणं किंतु उद्देसियवयणेण अविसोहिकोडी भणिता, सेसेहिं विसोहिकोडी । इदमवि अणातिण्णं-रातिभत्ते सिणाणे य, तं रातिभत्तं चतुव्विहं, तं जहा-दिवा घेत्तुं बितियदिवसे दिता भुंजति १ दिवा घेत्तुं रातिं भुंजति २ 10 रातिं घेत्तुं दिया भुंजति ३ रातिं घेत्तुं रातिं भुंजति ४।५। सिणाणं दुविहं-देसतो सव्वतो वा । देससिणाणं लेवाडं मोत्तूणं जं णेव त्ति, सव्वसिणाणं जं ससीसो ण्हाति ६ । गंध-मल्ले य वीयणे, गंधा कोट्ठपुडादतो ७ । मल्लं गंथिम-पूरिम-संघातिम ८ । वीयणं सरीरस्स भत्तातिणो वा उक्खेवादीहिं ९ ॥२॥ इदमपि अणाइण्णं१९. सण्णिही १० गिहिमत्ते य ११ रायपिंडे किमिच्छए १२ । संवाधण १३ दंतपहोयणा य १४ संपुच्छण १५ देहपलोयणा य १६ ॥३॥ 15 १९. सण्णिही गिहिमत्ते य० सिलोगो । सण्णिही सण्णिहाणं गुलादीणं १० । गिहिमत्तं गिहि भायणं कंसपत्तादि ११ । मुद्धाभिसित्तस्स रण्णो भिक्खा रायपिंडो, रायपिंडे किमिच्छए राया जो जं इच्छति तस्स तं देति एस रायपिंडो किमिच्छतो, तेहि णियत्तणत्थं एसणारक्खणाय एतेसिं अणातिण्णो १२ । इदमवि अणातिण्णं-संवाधण दंतपहोयणा य, संवाधणा अट्ठिसुहा मंससुहा तयासुहा [ रोमसुहा] १३॥ दंतपहोवणं दंताण कट्ठोदकादीहिं पक्खालणं १४।संपुच्छणजे अंगावयवा सयं न पेच्छति अच्छि-सिर-पिट्ठमादि 20 ते परं पुच्छति 'सोभति वा ण व? त्ति, अहवा गिहीण सावजारंभा कता पुच्छति । अहवा एवं पाढो-"संपुच्छगो" कहंचि अंगे रयं पडितं पुंछति-लूहेति १५। [देह ]पलोयणा अंगमंगाइं पलोएति 'सोभंति ण व ' त्ति १६ ॥३॥ अणातिण्णसेसासु पदिस्सति २०. अट्ठावए य १७ णालीया १८ छत्तस्स य धारऽणट्ठाए १९ । तेगिच्छं २० पाधणा पाए २१ समारंभं च जोतिणो २२ ॥४॥ 25 २०. अट्ठावए य णालीया० सिलोगो । अट्ठावयं जूयप्पकारो । रायारुहं णयजुतं गिहत्थाणं वा अट्ठावयं देति । केरिसो कालो ? ति पुच्छितो भणति–ण याणामि, आगमेस्स पुण सुणका वि सालिकूरं ण पणियागा-ऽभिहडाणि य इति णियागं अभिहडाणि य इति च पाठभेदयुगलं अगस्त्यचूर्णौ दृश्यते । णियागं अभिहडं ति य खं १-२-३-४ जे. शु. वृद्ध. हाटी०॥ २सणाणे जे. खं ३ ॥ ३ "अभिहडं णाम अभिमुखमानीतम् । कह? "सम्गाम परम्गामे निसिहाभिहडं च नोनिसीहं च ।" [पिण्डनि० गा० ३२९ पत्र १०२] । अभिहडं जहा उवस्सए एव ठियस्स गिहतराओ आणीय एतमादी । एत्थ सीसो आह-'अभिहडाणि यति एत्थ बहुवयणअभिधाणं विरुद्धं चेव [.....................] । अहवा 'अभिहडाणि' त्ति बहुवयणेण अभिहडमेदा दरिसिता भवंति, कहं ? “सम्गाम परग्गामे णिसिहामिहर्ड च णोणिसीहं च । णिसिहाभिहडं ठप्पं णो य णिसीहं तु वोच्छामि ॥१॥" एयाए गाहाए वक्खाणं जहा पिंडणिज्जुत्तीए" इति वृद्धविवरणे ॥ ४" देससिणाणं लेवाडय मोत्तूण सेसं अच्छिपम्हपक्खालणमेत्तमवि देससिणाणं भवइ।" इति वृद्धविवरणे ॥ ५ उत्क्षेपः व्यजनविशेषः ॥ ६संबाहण खं १-२.४ शु. हाटी•॥ ७ पहोवणा खं ४ जे०॥८संपुच्छगो अचूपा० ॥ ९णालीय छ° खं १-२२-४ जे. शु०। णालीए छ. शुपा०॥ Jain Education Intemational Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० १८-२३ ] दसकालियसुत्तं । भुंजंति १७ । णालिया जूयविसेसो, जत्थ ‘मा इच्छितं पाडेहिति' त्ति णालियाए पासका दिजंति १८ । छत्तं आतववारणं तस्स धारणमकारणे ण कप्पति धारणहाए १९ । इदमवि अणातिण्णं-तेगिच्छं पाधणा [पाए], तेगिच्छं रोगपडिकम्मं २० । उवाहणा पादत्राणं पाए । एतं किं भण्णति ? सामण्णे विसेसं ण (? विसेसणं) जुत्तं, निस्सामण्णं पाद एव उवाहणा भवति ण हत्थादौ, भण्णति-पद्यते येन गम्यते यदुक्तं नीरोगस्स नीरोगो वा पादो २१ । समारम्भं च जोतिणो, जोती अग्गी तस्स जं समारंभणं एतदणाचिण्णं २२॥४॥5 २१. सेजातरपिंडं च २३ आसंदी २४ पलियंकये २५ । गिहतरणिसेज्जा य २६ गायस्सुव्वट्टणाणि य २७ ॥ ५॥ २१. सेवातरपिंडं च० सिलोगो । सेना वसती, स पुण सेज्जादाणेण संसारं तरति सेज्जातरो, तस्स भिक्खा सेज्जातरपिंडो, २३ । आसंदी पलियंकये, आसंदी उपविसणं २४, पलियंको सयणिज्ज २५ । पाढविसेसो-“सेन्जातरपिंडं च आसण्णं परिवजए।” एतम्मि पाढे सेज्जातरपिंड इति भणिते किं पुणो 10 भण्णति "आसण्णं परिवजए" १ विसेसो दरिसिज्जति-जाणि वि तदासण्णाणि सेजातरतुल्लाणि ताणि सत्त वजेतव्वाणि । गिहतरणिसेज्जा य, गिहंतरं पडिस्सयातो बाहिं जं गिहं, गेण्हतीति गिहं, गिहं अंतरं च गिहतरं, गिहतरणिसेजा जं उवविठ्ठो अच्छति, चसद्देण वाडग-साहि-णिवेसणादीसु २६ । गातं सरीरं तस्स उबद्दणं अब्भंगणुव्वलणाईणि, एतं पि तेसिं अणाइण्णं २७॥५॥ इमं च अणातिण्णं२२. गिहिणो वेतावडियं २८ जा य आजीविवित्तिया २९ ॥ 10 तत्तअनि डभोती त ३० आउरे सरणाणि य ३१ ॥ ६ ॥ २२. गिहिणो वेतावडियं० सिलोगो । गिहीणं वेयावडितं जं तेसिं उवकारे वट्टति २८ । आजीविवित्तिया पंचविहा-"जाती कुल गण कम्मे सिप्पे आजीवणा उ पंचविहा।" जहा पिंडनिबुत्तीए [गा० ४३० पत्र १२८] २९ । तत्तअनिव्वुडभोती त जाव णातीवअगणिपरिणतं तं तत्तअपरिणिव्वुडं । अहवा तत्तं पाणितं पुणो सीतलीभूतं आउक्कायपरिणाम जाति तं अपरिणयं अणिव्वुडं, 'गिम्हे अहोरत्तेणं सच्चित्तीभवति, 20 हेमंत-वासासु पुव्वण्हे कतं अवरोहे । अहवा तत्तमवि तिन्नि वारे अणुव्वत्तं अणिव्वुडं, तं जो अपरिणतं भुंजति सो तत्तअणिव्वुडभोती ३० । आउरे सरणाणि य, छुहादीहिं परीसहेहिं आउरेणं सीतोदकादिपुव्वभुत्तसरणं, सत्तूहिं वा अभिभूतस्स सरणं भवति वारेति तोवीसं वा देति तत्थ अधिकरणदोसा, पदोस वा ते सत्तू जाएजा । अहवा सरणं आरोग्गसाला, तत्थ पवेसो गिलाणस्स, एतमणाइण्णं ३१ ॥ ६॥ इदं च २३. मूलए ३२ सिंगबेरे य ३३ उच्छुखंडे अणिव्वुडे ३४ । ___ कंदे ३५ मूले य ३६ सच्चित्ते फले ३७ बीए य आमए ३८ ॥ ७॥ 26 १ "तथा 'छत्रस्य च' लोकप्रसिद्धस्य धारणमात्मानं परं वा प्रति अनर्थायेति, आगादग्लानाद्यालम्बनं मुक्त्वाऽनाचरितम्। प्राकृतशैल्या चात्रानुस्वारलोपोऽकार-नकारलोपौ च द्रष्टव्यौ, तथाश्रुतिप्रामाण्यादिति।" इति हारि० वृत्ती पत्र ११७ ॥ २ “सीसो आह-पाहणागहणेण चेव नजइ-जातो पाहणाओ ताओ पाएसु भवंति, ण पुण ताओ गलए आबझंति, ता किमत्थं पायग्गहणं ? ति । आयरिओ भणइपायग्गहणेण अकलसरीरस्स गहणं कयं भवइ, दुब्बलपाओ चक्खुदुब्बलो वा उवाहणाओ आविधेजा, ण दोसो भवइ त्ति। किंच पादग्गहणेण एतं दंसेति-परिग्गहियव्वा उवाहणाओ असमत्थेण, पओयणे उप्पण्णे पाएसु कायवा, ण उग सेसकाल" इति वृद्धविवरणे ॥ ३ आसणं परिवज्जए अचूपा. वृद्धपा० ॥ ४ जा या आ खं ४ ॥ ५जीववित्तिया खं १-२-३-४ हाटी• वृद्ध० । जीववत्तिया शु० जे.॥ ६ तत्तानि खं २-४ शु०॥ ७°डभोइत्तं खं १-२-४ जे० शु० वृद्ध• हाटी० ॥ ८ आउरस्सरणा खं २-३-४ जे. शु० हाटी.॥ ९"तं च गिम्हे रत्तिं पज्जुसियं सचित्तीभवइ । हेमंत-वासासु पुटवण्हे कयं अवरण्हे सचित्तीमवइ ।" इति वृद्धविवरणे ॥ १० अवकाशम् ॥ Jain Education Intemational Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [तइयं खुड्डियायारकहज्मयणं ___२३. मूलए सिंगबेरे य० सिलोगो । मूलकं सारुजाति ३२ । सिंगबेरं अलग ३३ । उच्छुखंड . दोसु पोरेसु धरमाणेसु अणिव्वुडं । [अणिव्वुडं ति] मूलगादीहिं तिहिं वि संबज्झति, तं पुण जीवअविप्पजलं, निव्वुडो सांतो मतो ३४ । तहा कंदे मूले य सचित्ते फले बीए य आमए, कंदा चमकादतो ३५ मूला भिसादतो ३६, फला अंबादतो ३७, बीता धण्णविसेसो ३८, आमगं अपरिणतं । पढमसिलोगसंबंधो तहेव 5॥७॥ इदमवि अणाइण्णं २४. सोवच्चले ३९ सिंधवे लोणे ४० रूमालोणे य आमए ४१ । सामुद्दे ४२ पंसुखारे य ४३ कालालोणे य आमए ४४ ॥ ८ ॥ २४. सोवञ्चले. सिलोगो । सोवचलं उत्तरावहे पव्वतस्स लवणखाणीसु संभवति ३९ । सेंधवं सेंधवलोणपन्वते संभवति ४० । रूमालोणं रूमाए भवति ४१ । सांभरिलोणं सामुदं, समुद्दपाणीयं 10 रिणे केदारादिकतमावतॄतं लवणं भवति ४२ । पंसुखारो ऊसो कडिजंतो अहुप्पं भवति ४३ । कालालोणं तस्सेव सेंधवपवतस्स अंतरंतरेसु [कालालोण ]खाणीसु संभवति ४४ । आमगं सच्चित्तं एतदपि अणाइण्णं ॥८॥तहा २५. धूवणे त्ति ४५ वमणे य ४६ वत्थीकम्म ४७ विरेयणे ४८ । . अंजणे ४९ दंतवणे य ५० गाताभंग ५१ विभुसणे ५२ ॥ ९ ॥ 15 २५. धूवणे त्ति व सिलोगो । धूमं पिबति 'मा सिररोगातिणो भविस्संति' आरोगपडिकम्मं, अहवा "धूमणे" ति धूमपाणसलागा, धूवेति वा अप्पाणं वत्थाणि वा ४५ । वमणं छड्डणं ४६ । वत्थिकम्म वत्थी णिरोहादिदाणत्थं चम्ममयो णालियाउत्तो कीरति तेण कम्मं अपाणाणं सिणेहादिदाणं वत्थिकम्म ४७ । विरेयणं कसायादीहिं सोधणं ४८ । एताणि आरोग्गपडिकम्माणि रूव-बलत्थमणातिण्णं । अंजणे दंतवणे य गाताभंग विभूसणे, अंजणं णयणविभूसा ४९ दंतमणं दसणाणं ५० गायम्भंगो सरीरम्भंगण20 मद्दणाईणि ५१ विभूसणं अलंकरणं ५२ एतं च अणाइण्णं ॥९॥ "तेसिमेयमणातिण्णं" [सूत्रगा० १७] ति एकवयणनिदेसेण संदेहो भवेज-उद्देसितमेवमणातिण्णं, अतो संदहनियत्तणत्थं भण्णति-सव्वमेतं० । अहवा पढममणाइण्णग्गहणं पयत्येण संबंधाविनति, इदं तूवणयणमेव-सव्वमेतं० । अहवा अदीवते य दीवणत्थं भण्णति २६. सव्वमेतमणातिण्णं णिग्गंथाण महेसिणं । संजमम्मि उ जुत्ताणं लहुभूयविधारिणं ॥ १० ॥ २६. सबमेतं० [सिलोगो]। सवं असेसं । उद्देसियादि विभूसणंतं अणायरणकारणाणि-उद्देसिते सत्तवहो, कीतकडे गवादिअहिकरणं, णीताए तदट्ठमुपक्खडणं, आहडे छक्कायवहो, रातिभत्ते सत्तविराहणा, सिणाणे विभूसाउप्पीलावणादि, गंध-मल्ले सुहुमघाय-उड्डाहा, वीयणे संपादिमवायुवहो, सण्णिहीए पिपीलियादिवहो, गिहिमत्ते आउ कायवहो हिय-णढे य दवावणं, रायपिंडे संबाहेण विराहणा उक्कोसलंभे य एसणाघातो, संवाहणे सुत्त-उत्थपलिमंथो 30[अ]तब्भावणं च, [दंतपधोवणे ] दंतविभूसा, संपुच्छणे पावाणुमोदणं, संलोयणेण बंभपीडा, अट्ठावय-णालीयाए १ रोमालोणे खं १-२-३-४ जे• शु०॥ २" सोवच्चलं नाम सेंधवलोणपव्वयस्स अंतरंतरेसु लवणखाणीओ भवति" इति वृद्धविवरणे॥ ३ धूमणे अचूपा० ॥ ४ “धूपनमिति आत्म-वस्त्रादेरनाचरितम् । 'प्राकृतशैल्या अनागतव्याधिनिवृत्तये धूमपानम्' इत्यन्ये ।" इति हारि० वृत्तौ ॥ ५संजमं अणुपालेति लहुभूयविहारिणो वृद्ध० ॥ ६ य ख १-२-३-४ जे० शु० हाटी० ॥ Jain Education Intemational Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ ____10. सुत्तगा० २४-२९] दसकालियसुत्तं । गेण्हणादतो उड्डाहो य, छत्ते उड्डाहो गव्वो य, तेगिच्छे सुत्त-उत्थपलिमंथो, उवाहणाहिं गव्वादि, जोतिसमारंभे कायवहो, सेजातरपिंडे एसणादोसा, आसंदी-पलियंकेसु सुसिरदोसा, गिहतरणिसेज्जाए अगुत्ती बंभचेरस्स संकादतो य, [गाउव्वदृणाए गायविभूसा,] गिहिणो वेतावडिए अहिकरणं, आजीववित्ती अणिस्संगता, तत्तानिव्वुडभोइयत्ते सत्तवहो, आउरसरणे उप्पव्वावणादि, मूलादिग्गहणे वणस्सतिघातो, सोवचलादीणं पुढविकायवहो, धूवणादि विभूसा । एते दोसा इति सबमेतमणातिणं णिग्गंथाण महेसिणं ति । संजमम्मि उ जुत्ताणं संजमो सत्तरसविहो, 5 तुसद्दो हेतौ, जम्हा सव्वमेतमणातिण्णं अतो संजमे जुत्ताणं लहुभूतविधारिणं लहु जं ण गुरु, स पुण वायुः, लहुभूतो लहुसरिसो विहारो जेसिं ते लहुभूतविहारिणो ॥१०॥ तहा अपडिबद्धगामिणो ते जहुद्दिट्ठस्स दोसगणस्स अणायरणेण २७. पंचासवपरिण्णाता तिगुत्ता छसु संजता । ___ पंचनिग्गहणा वीरा निग्गंथा उजुदंसिणो ॥ ११॥ २७. पंचासवपरि० सिलोगो । पंच आसवा पाणातिवातादीणि पंच आसवदाराणि, परिण्णा दुविहाजाणणापरिण्णा पञ्चक्खाणपरिण्णा य, जे जाणणापरिणाए जाणिऊण पञ्चक्खाणपरिण्णाए ठिता ते पंचासवपरिण्णाता। ते एव तिगुत्ता मण-वयण-कायजोगनिग्गहपरा । छसु संजता छसु पुढविकायादिसु त्रिकरणएकभावेण जता संजता । पंचनिग्गहणापंच सोतादीणि इंदियाणि णिगिण्हंतीति । वीरा सूरा विक्रान्ताः । निग्गंथा इति जं पढमसिलोगभणितं तस्स निगमणमिदं, जम्हा तेसिं एवमणेगमणातिण्णं तिगुत्ता छसु संजता पंचणिग्गहणा 15 वीरा य अतो ते निग्गंथा । अत एव य उजुदंसिणो, उज्जु संजमो समया वा, उज्जू राग-दोसपक्खविरहिता अविग्गहगती वा, उज्जू मोक्खमग्गो, तं पस्संतीति उजुदंसिणो, एवं च ते भगवंतो गच्छविरहिता उज्जुदंसिणो॥११॥ जम्हा जम्मि काले जं दुक्खमभिभवति तमभिभवमाणा २८. आतावयंति गिम्हासु हेमंतेसु अवाउडा । वासासु पडिसंलीणा संजता सुसमाहिता ॥ १२ ॥ 20 २८. आतावयंति गिम्हासु० सिलोगो । गिम्हासु थाण-मोण-वीरासणादि अणेगविधं तवं करेंति, विसेसेणं तु सूराभिमुहा एगपादहिता उद्धभूता आतावेंति । हेमंते अग्गि-णिवातसरणविरहिता तहा तवो-वीरियसंपण्णा अवंगुता पडिमं ठायति । सदा इंदिय-नोइंदियपडिसमल्लीणा विसेसेण सिणेहसंघट्टपरिहरणत्थं णिवातलतणगता वासासु पडिसंलीणा ण गामाणुगामं दूतिजति । अतो जता एकीभावेण संजता सुसमाहिता नाण-दंसणचरित्तेसु सुट्ठ आहिता सुसमाहिता ॥१२॥ २९. परीसहरिदंता धुतमोहा जितिंदिता । ___ सव्वदुक्खपहीणट्ठा पेक्कमंति महेसिणो ॥१३॥ २९. [परीसहरिवूदंता. सिलोगो]। जम्हा उद्देसितादिभत्त-पाणपरिहरणेण आतावणाहि त छुहापिवासुण्ह-सीतसहा अतो ते पैरीसहरितुणो दंता । केई भणंति "परीसहा एव रितुणो"। तहेव धुतमोहा १धीरा खं १-२-३-४ जे० शु० वृद्ध. हाटी० ॥ २ उज्जुदं खं ३ जे० शु० वृद्ध० ॥ ३ गिम्हेसु ख १-२-३-४ जे० शु० वृद्ध० हाटी० ॥ ४ निवातलयनगता ॥ ५रिऊ खं १-२-३-४ जे० शु०॥ ६ ते वदंति सिवं गतिं ॥ १३॥ ति बेमि इति आचार्यान्तरमतेन पाठभेदोऽत्रैवाध्ययनपरिसमाप्तिश्च सूचिता श्रीअगस्त्यसिंहपारित्याचार्यान्तरमतेनाप्रेतनं दुक्करातिं करेंता पं० इति खवेत्तु पुब्वकम्माणि० इति च सूत्रगाथायुगलं प्राचीनवृत्तिमध्यगतं बोद्धव्यम् । निर्दिष्टं चैतदगस्त्यपादैरिति ॥ ७ परीषहाणां रिपव इत्यर्थः॥ Jain Education Interational Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [च उत्थं छज्जीवणियज्झयणं विक्किण्णमोहा । मोहो मोहणीयमण्णाणं वा । जिताणि सोतादीणि इंदियाणि जेहिं ते जितिंदिता । सबदुक्खपहीणट्ठा सारीर-माणसाणि अणेगागाराणि सव्वदुक्खाणि, सव्वदुक्खाणं पहीणो अट्ठो जेसिं ते सबदुक्खपहीणट्ठा । सव्वदुक्खाणं अट्ठो अट्ठविधं कम्मं, अट्ठसद्दो कारणाभिधाती, जहा-किमत्थं जाति ? कारणं पुच्छति । "ते वदंति सिवं गति" ते इति सव्वनामेण पत्थुतं संबज्झति, जेसिं तं अणेगमणाइण्णं जे पंचासवपरिण्णाता तिगुत्ता परीसहरिवूदता ते वदंति व्रजन्ति यान्ति शांतिं शिवं सुखमेव तं सुखं गतिं, तं पुण णेव्वाणं । केसिंचि "सिवं गतिं वदंती"ति एतेण फलोवदरिसणोवसंहारेण परिसमत्तमिममज्झतणं, इति बेमि त्ति सद्दो जं पुव्वभणितं तेसिं वृत्तिगतमिदमुक्त्तिणं सिलोकदुयं । केसिंचि सूत्रम् , जेसिं सूत्रं ते पढंतिसवदुक्खपहीणट्ठा पक्कमति महेसिणो, पक्कमति साधु कमंति महेसिणो महारिसतो ॥१३॥ ३०. दुक्करातिं करेंता णं दुस्सहाई सहेत्तु य । केइत्थ देवलोएसु केइ सिझंति णीरता ॥ १४ ॥ ३०. दुकराति करेन्ता गं० । दुक्खं कजति दुक्कराणि ताई करेंता, "आतावयंति गिम्हासु" [सूत्रगा० २८] एवमादीणि दुस्सहादीणि [ सहेत्तु य], केइत्थ देवलोएसु सोहम्मादिसु, केति पुण केवलनाणमुलभित सिझंति णीरता ॥ १४ ॥ जे देवलोगेसु तेसिं किं तदेव फलं सामण्णस्स ? न इत्युच्यते । कथं तर्हि ? कदाति अणंतरे उक्कोसेण 16 सत्त-ऽभवग्गहणेसु सुकुलपञ्चायाता बोधिमुवलमित्ता सेसाणि ३१. खेवेत्तु पुवकम्माणि संजमेण तवेण य । सिडिमग्गमणुप्पत्ता तायिणो परिणिव्वुत ॥ १५ ॥ त्ति बेमि ॥ ॥ खुड्डियायारकहाए तइयं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ ३१. खवेत्तु० सिलोगो । खवेत्तु पुव्वकम्माणि संजमेण तवेण य पुन्वभणितेण सिद्धिमग्ग20मणुप्पत्ता तायिणो सिद्धिमग्गं दरिसण-नाण-चरित्तमतं अणुप्पत्ता पच्छा ततो भवातो तातिणो पुव्वभणिता [सूत्रगा० १७ चूर्णी ] परिणिव्वुता समंता णिव्वुता सव्वप्पकारं घाति-भवधारणकम्मपरिक्खते ॥१५॥ धम्मे धितिमतो आयारसुद्वितस्स फलोवदरिसणोवसंहारे कते णता-नायम्मि गेण्हितव्वे० गाहा । सव्वेसि पि णयाणं० गाहा ॥ एसणदोसा तणुपूयणं च कायवह सण्णिही जीवा । सबमिदमणातिण्णं ततो फलं चेव तंतियत्था ॥१॥ ॥ खुड़ियायारकहावक्खाणलवो समत्तो। शतिसहो बेमित्ति जं मूलादर्श ॥२ करेत्ताणं खं २-३-४ शु० हाटी वृद्ध०॥ ३ केएत्थ खं १-२ शु०॥४ उपलभ्य ॥ ५खवित्ता पुवकम्माई खं १-२-३-४ जे० शु० वृद्ध० हाटी० ॥ ६ तृतीयाध्ययनगता अर्थाः-अर्थाधिकाराः विषया इत्यर्थः ॥ Jain Education Intemational Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ३०-३१ णिज्जुत्तिगा० ११५-२० ] दसकालियसुत्तं । ६५ [चउत्थं छज्जीवणियज्झयणं] धम्मे धितिमता जीवा [इ]परिणाणमायारसारक्खणत्थमवस्सकरणीतमिति धम्मपण्णत्तीअज्झयणं खुड्डियायारकहाणंतरं भण्णति । छज्जीवणिया चउत्थमज्झयणं । तस्स इमे अत्याधिकारा जीवा १ ऽजीवाहिगमो २ चरित्तधम्मो ३ तहेव जयणा य ४। उवएसो ५ धम्मफलं ६ छज्जीवणियाए अहिगारा ॥१॥ ११५ ॥ जीवा-ऽजीवाहिगमो० गाहा । पढमो जीवाहिगमो, अहिगमो परिण्णाणं १ ततो अजीवाधिगमो २ चरित्तधम्मो ३ जयणा ४ उवएसो ५ धम्मफलं ६ ॥१॥११५॥ तस्स चत्तारि अणिओगद्दारा जहा आवस्सए । नामनिप्फण्णो भण्णतिछज्जीवणियाए खलु णिक्खेवो होइ नामणिप्फण्णो। 10 एएसिं तिण्हं पि उ पत्तेय परूवणं वोच्छं ॥ २॥ ११६ ॥ दारगाहा ॥ छज्जीवणियाए खलु० गाहा । छज्जीवणियाए छ ति पदं जीव ति पदं निकाय इति पदं । तत्थ पढमं छ ति निक्खिवितव्वा । एक्ककस्स अभावे छह वि अभावो, तम्हा एक्ककं निक्खिविस्सामि ॥२॥११६॥ एक्कको सत्तविहो णामं १ ठवणा २ दविए ३ माउगपय ४ संगहेक्कए चेव ५। पज्जव ६ भावे य ७ तहा सत्तेए एकगा होति ॥ ३ ॥ ११७ ॥ णामं १ ठवणा २ दविए ३ खेत्ते ४ काले ५ तहेव भावे य ६। एसो उ छक्कगस्सा णिक्खेवो छविहो होइ ॥ ४॥ ११८ ॥ णामं ठवणा० गाहा जहा दुमपुप्फिताए [ नि० गा० १] । इह संगहेक्कएण अधिकारो ॥३॥११७॥ छसु परूवितेसु दुयादि तदंतग्गता परूविया एवेति छक्कको भण्णति-[णामं ठवणा० गाहा । ] तस्स 20 छविहो निक्खेवो । तं जहा-- णामछक्ककं ठवण० दव्व० खेत्त० काल० भावछक्ककं । णाम-ठवणातो गतातो १-२। दव्वछक्ककं तिविहं-सचित्तं अचित्तं मीसगं । सचित्तं जहा–छ म्मणूसा, अचित्तं काहावणा छ, मीसं छ मणूसा सालंकारा ३। खेत्ते छ आगासपदेसा ४ । काले छ स्समाओ उदुणो वा समया वा ५। भावे ओदयितोवसमित-खतितखयोवसमिय-परिणामिय-सण्णिवातियभावा छ ६ । इह पुण सचित्तदव्वछक्कएण अधिकारो ॥ ४ ॥११८॥ अहुणा जीव इति पदं, तस्स दारा इमाहिं दोहिं गाहाहिं भणिता-- जीवस्स उ निक्खेवो १ परूवणा २ लक्खणं च ३ अस्थित्तं ४। अन्ना ५ ऽमुत्तत्तं ६ णिच ७ कारगो ८ देहवावित्तं ९॥५॥ ११९ ॥ गुणि १० उड्डगतित्ते या ११ निम्मय १२ साफल्लता य १३ परिमाणे १४ । जीवस्स तिविहकालम्मि परिक्खा होइ कायवा ॥ ६॥ १२० ॥ जीवस्स उ निक्खेवो० गाहा ॥ ५॥११९ ॥ गुणि उड्डगतित्ते० गाहा ॥ ६ ॥१२० ॥ 30 पढमं दारं जीवस्स निक्खेवो । सो इमो१°गस्स उ णि° वी० ॥ २ कार्षापणाः ॥ ३णायव्वा वी० ॥ दस० सु०९ Jain Education Intemational Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [चउत्थं छज्जीवणियझयणं णामं १ ठवणाजीवो २ दवजीवो य ३ भावजीवो य ४। ओह १ भवग्गहणम्मि य २ तब्भवजीवे य ३ भावम्मि ॥ ७॥ १२१ ॥ णामं ठवणा० अद्धगाहा । णाम-ठवणातो गतातो १-२ । दव्वजीवो जं अजीवदव्वं जीवदव्वत्तेण परिणमिस्सति ति ओरालितातिसरीरपरिणामजोग्गं । तं कहं ? जीवो सरीरं च ण एगंतेण अत्यंतरं, जति अत्यंतरमेव 5 सरीरभावभेदेसु ण सुह-दुक्खाणुभवणं होज्जा ३ । भावजीवो जीवदव्वं पज्जवसहभूतं । अहवा भावजीवो तिविहोओह भवग्गहणम्मि य० गाहापच्छद्धं ॥७॥१२१ ॥ ओहजीवो संते आउयकम्मे धरती तस्सेव जीवती उदए। तस्सेव निजराए मओ त्ति सिद्धो नयमएणं १॥८॥ १२२॥ संते आउयकम्मे० गाहा । संते [आउयकम्मे] आउयकम्मदव्वे विजमाणे, जाव ते आउपोग्गला 10 सव्वहा न परिक्खीणा ताव कम्मसंताणाधिद्वितो धरति, ण उ छिज्जति । तस्सेव आउयकम्मस्स जदा उदतो तदा जीवति त्ति भण्णति । तस्स निस्सेसक्खए सिद्धो भवति । जदा य सिद्धत्तणं पत्तो तदा सव्वणताण ओहजीवितं पडुच्च मतो। एतेण कारणेणं सव्वजीवा आउसद्दव्वताए जीवंति एतं ओहजीवितं १॥८॥१२२॥ भवजीवितं तब्भवजीवितं च एक्काए गाहाए भण्णति जेण य धरति भवगतो जीवो जेण य भवाउ संकमई । 13 जाणाहि तं भवाउं चउविहं २ तब्भवे दुविहं ३ ॥१॥९॥ १२३ ॥ जेण य धरति भवगतो जीवो० गाहा । जस्स उदएण णरगादिभवग्गहणेसु जीवति जस्स य उदएण भवातो भवं गच्छति एतं भवजीवितं २ । तन्भवजीवितं दुविहं-तिरियाणं मणुयाण य । कहं पुण १ ते तिरिय-मणुया सट्ठाणतो उव्वट्टमाणा पुणो तत्थेव उववजंति, जाव तत्थेव उववजंति ताव तब्भवजीवितं जीवंति ३॥१॥९॥१२३॥ परूवण त्ति दारं दुविहा य होति जीवा सुहमा तह बायरा य लोगम्मि । सुहुमा य सबलोए दो चेव य वायरविहाणे २॥१०॥१२४ ॥ दुविहा य होति जीवा० गाहा । सुहुमा सव्वलोकपरियावण्णा । बादरा दुविहा-पजत्तका अपज्जत्तका य २॥१०॥१२४॥ लक्खणे ति दारं-पञ्चक्खमणुवलब्भमाणो (जीवो) जेणाणुमीयते 'अत्थि' त्ति तं लक्खणं । तं च इमाए निज्जुत्तीए भण्णति आयाणे १ परिभोगे २ जोगु ३ वओगे ४ कसाय ५ लेसा य ६। आणापाणू ७ इंदिय ८ बंधोदयनिजरा चेव ९॥११॥ १२५ ॥ चित्तं १० चेयण ११ सण्णा १२ विण्णाणं १३ धारणा य १४ बुद्धी य १५ । ईहा १६ मती १७ वितका १८ जीवस्स उ लक्खणा एए ३॥ १२॥ १२६ ॥ दारगाहाओ। आयाणे परिभोगे० गाहा । चित्तं चेयण० गाहा । आयाणे त्ति दारं-जहा अग्गिणो इंधणोवाताणं 30 लक्खणं एवं जीवस्स आयाणं लक्खणं । तं पुण गहणं । जहा लोहकारी तत्तमतोपिंडमण्णहाअसक्कं संडासएण गेण्हति, एवं जीवो संडासकत्थाणीएहिं सोतादीहिं पंचहिं इंदिएहिं लोहपिंडत्थाणीया अण्णहाअंगेज्झा सद्द-रूव-रस-गंधफासा गेण्हति १। आहे १ भवगह ख० वी० पु० ॥ २ जीवए खं०॥ ३ आयुःसद्रव्यतया ॥ ४ उद्वर्त्तमानाः ॥ ५ इन्धनोपादानम् ॥ ६ तप्तं अयःपिण्डं अन्यथाऽशक्यं सण्डासकेन गृह्णाति ॥ ७ श्रोत्रादिभिः॥ ८ अरोग्गा सह मूलादर्श ॥ 20 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 णिज्जुत्तिगा० १२१-२७] दसकालियसुत्तं परिभोगे त्ति दारं-अस्थि जीवो, परिभोगादिति हेतुः, 'दिलुतो-ओदेणवट्टिततं ण य अप्पाणमुपभ॑जति भुजती य, तत्थ अवस्समत्थंतरभूतेण भोत्तारेण भवितव्वं, सो य जीवो २। जोगे ति दारं-मण-वयण-कायजोगेहिं जीव एव जुज्जति ३ । उवओग इति दारं-सो य संवित्त(? तिरूवो संवेयणेण जीव एव उवजुज्जति ४ । कसाया इति दारं-अस्थि जीवो कसायाणुमितो, कसाया कोधादतो, जो कोधादीहिं संजुजति सो जीवो । । वैधम्मेण घडो निदरिसणं, ण कदाचि घडो कोधादीहिं संजुज्जति, अतो कोहसहभावादत्थि जीवो ५। लेसेति दारं-अंतग्गतो परिणामविसेसो लेस्सा । जहा सतिघातित्तणेण कोति अप्पाणं निंदतो घातेति, कोति कारणतो, कोति हरिसितो, एतं पि जीवस्स, न कुंभस्स ६ । आणापाणु ति दारं-णासिकागतस्स वातस्स अंतो अणुप्पवेसणमाणू, पाहिं निच्छुभणं, आणापाणू एतं जीवे, ण घडादाविति जीवलक्खणं ७। इंदिये ति दारं-इंदिएण सूर्तिजति जो अत्थो सो अत्थि, सो य जीवो । उक्तं च-"इन्द्रियमिन्द्रलिङ्गम्" ] एवमादि । तेण इन्द्रो जीवो, तस्स जं उवलिंगणं तं पुण सोतादि । चोदको भणति-आदाणमेव अत्थो? आयरिया भणंति-तत्थ दबिंदियगहणमिह भाविंदियस्स, अहवा तत्थ गेण्हितव्वं इह गाहगं ८। कम्मबंधोदयणिजरा समाणं दारं-जस्स एताणि स जीवो। आहारक्रिया णिदरिसिजति-जहा आहारो।। आहारितो सरीरेण संबंधं जाति, तेत्ति-'बलादीहि उदिजति, कालंतरेण निजिण्णो भवति; एवं जीवो सकसातो कम्मं बंधति, तस्सेव य वेदणोदयमणुभवति, तदाणंतरं च निजरेति ९॥ ११ ॥ १२५ ॥ वितियगाहाए अत्थो । तत्थ पढमं चित्तं ति दारं-चित्तमवि जीवलक्खणं । चित्तमतीता-ऽणागतविसयं १०। चेदणा वट्टमाणा, देवदत्त इति भणिते जं देवदत्तस्स अहमिति मती संजायति ११। 20 पुवदिट्ठमत्थमाहितसंस्कारादि एसा सण्णा, आहारादिसण्णा वा १२ । विविहेहिं ऊभा-ऽवोहादीहिं जेण उवलभति तं विण्णाणं १३। अतीतगंथधरणं धारणा १४ । समतीते सत्यत्थभावभासणं बुद्धी १५। खाणु-पुरिससन्देहे उभयलक्खणाणुचिंतणमीहा १६ । तदेकतरपरिच्छेदो मती १७। एगवत्थुगयमणेगत्थसंभावणं वितका १८ । एताणि जहुद्दिवाणि लक्खणाणि जम्मि एगम्मि अत्थे संभवंति सो जीव इति पदत्थो अस्थि ॥१२॥१२६॥25 अस्थि त्ति दारं जहा सिद्धं जीवस्स अस्थित्तं सहादेवाणुमीयते। णासतो भुवि भावस्स सद्दो भवति केवलो ॥ १३ ॥ १२७॥ सिद्धं जीवस्स अत्थितं. गाहापुव्वद्धं । जं जीवस्स अत्थित्तं तं जीवसद्दादेव सिज्झति । कहं ? असंते जीवदवे जीवसद्दो न होजा, पसिद्धो य जीवसद्दो लोगे, तम्हा अस्थि जीवदव्वं जस्स जीव इति निदेसो 130 चोदेति-खरविसाण-कुम्मरोमादिसद्दा लोके पयुजंति, ण य ताणि अस्थि, अतो गुरू इमं गाहापच्छद्धमाह-णासतो १“एत्य दिट्ठतो उदएण (? ओदण) वट्टिय जं-जहा उदएण (? ओदण) वट्टियाओ भोत्ता अण्णो अत्यंतरभूओ एवं सरीराओ अत्यंतरभूतेण अण्णेण भोत्तारेण भवितव्वं, सो य जीवो।" इति वृद्धविवरणे ॥ २ ओदनवर्तिका ॥ ३ सृच्यते ॥ ४ तृप्ति-चलादिमिरुदीयते ॥ ५ उहा-ऽपोहादिभिः ॥ ६ खमत्या शास्त्रार्थभावभाषणम् ॥ ७ अनेकार्थसम्भावनम् ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [चउत्थं छज्जीवणियज्झयणं भुवि भावस्स सद्दो भवति केवलो। ण किर सव्वहा असतो भावस्स लोके केवलो सद्दो पसिद्धो, उपपदसहितो पजुज्जति, खरविसाणसद्दादतो ण केवला उवलभंति, किं तर्हि ? खरसद्दो खरे वट्टति विसाणसद्दो गवादौ, तस्स गवि सण्णिहितस्स विसाणस्स खरपयत्थे समवातं पडिसेहेति, णत्थि खरविसाणं, एवं कुम्मरोमादि, जीवसद्दो पुण णिरुपपदो पसिद्धो, तम्हा इच्छा-वितक्कादिलक्खणमस्थि जीवदव्वं ॥ १३ ॥१२७ ॥ 5 सुण्णवादी भणति-जदि जीवसद्दो जीवअस्थित्तं साहति एवं सुण्णसद्दो सुण्णतावादसाहओ भविस्सति १ । एत्थ उत्तरं केणति दव्वेण विरहितं किंचि वत्थु सुण्णं भवति, देवदत्तविरहेणं घरं सुण्णं, उभयं च तदत्थि ॥ किंच मिच्छा भवेतु सवत्था जे केई पारलोइया । कत्ता चेवोपभोत्ता य जदि जीवो ण विजई ॥ १४ ॥१८॥ मिच्छा भवेतु सव्वत्था० गाहा । जदि णत्थि जीवो तो दाणमज्झयणादीणं णत्थि फलं, ण वि य 10 सैंकड-दुक्कडाणं कारओ वेदओ वा ॥ १४ ॥ १२८ ॥ इतो य अस्थि जीवोलोगसत्थाणि ....... ................. ॥ १५॥ १२९ ॥ लोगसत्थाणि० गाहा । लोके व्यासोक्तमिदम् “अच्छेद्योऽयं०" [ भगवद्गीता अ० २ श्लो० २४ ]। वेदे पत्तेयजण्णफलाणि भणिताणि, ताणि सति अत्थित्ते भवंति । परसमए बुद्धस्स पंच जातकसताणि वण्णिजंति । कापिला भणंतिजं इंदिएहिं दीसति तं सव्वमचेतणं तहा ताई । जो पेच्छति ण य दीसति भुंजति ण य भुज्जति अभोत्ता ॥१॥ काणादा वि "पृथिव्यापस्तेजो वायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याणि" [ वैशेषिकदर्शन अ० १ आ० १ सू० ५]। ते आत्मद्रव्यं तदर्थं च धर्मव्याख्यानमिच्छंति, अतो लोकसंपडिवत्तितो विजते अप्पा ॥१५॥१२९ ॥ इतो य फरिसेण जहा वाऊ गेज्झती कायसंसितो। नाणादीहिं तहा जीवो गेज्झती कायसंसितो॥ १६ ॥ १३० ॥ फरिसेण जहा वाऊ० गाहा । जहा वाऊ पच्चक्खओ मंसचक्खुणा अणुवलब्भमाणो वि किंपादीभि सूतिजति तहा जीवो पञ्चक्खमणुवलब्भमाणो वि बुद्धि-सुह-दुक्खादीहिं सूतिजति 'अत्थि' त्ति । तहाउवओग-जोग-इच्छा-वितक्क नाण-बल-चेट्ठितगुणेहिं । अणुमाणा णायन्वो पञ्चक्खमदीसमाणो वि ॥१॥ ]॥१६॥ १३०॥ एत्थ चोदणा-अणुमाणतो गहणमिति भणितं तदपि पञ्चक्खपुष्वकमणुमाणं, ण य [अप्पा]पञ्चक्खमुवलद्धपुल्वो त्ति नाणुमाणगेज्झो, उत्तरं अणिदियगुणं जीवं दुन्नेयं मंसचक्खुणा। सिद्धा पासंति सवण्णू नाणसिद्धा य साहुणो ४ ॥ १७ ॥ १३१ ॥ अणिदियगुणं० गाहा । णातमिंदियपच्चक्खो अप्पा पतिण्णा, अरूवित्तं हेतुः, दिटुंतो आकाशम् , जहा आकासमरूवी इंदियपच्चक्खं न भवति तहा। अरूविं जीवं सवण्णुणो सिद्धा नाणसिद्धा य साहणो पासंति, तम्हा अरूवित्तादाकासवदणिदियगेज्झो ४ ॥ १७ ॥ १३१ ॥ १ खरपत्थए सम मूलादर्शे। खरपदार्थे समवायं प्रतिषेधति ॥ २ भवेयुरित्यर्थः॥ ३ दाणमज्झयणादीणं इत्यत्र मकारोऽलाक्षणिकः, दाना-ऽध्ययनादीनामित्यर्थः ॥ ४ सुकर-दुक्कराणं मूलादर्शे ॥ ५ नेयं नियुक्तिगाथोपलब्धा कस्मिंश्चिदपि नियुक्त्यादर्शे ॥ ६ तत्कम्पादिभिः सूच्यते ॥ ७ पस्संति खं० वी० पु०॥ न अयं इन्द्रिय प्रत्यक्ष इत्यर्थः ॥ ९ अरूपित्वाद् आकाशवद् अनिन्द्रियप्रायः॥ 20 30 Jain Education Intemational Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्तिगा० १२८-३४ ] दसकालियसुत्तं । अण्णत्ता-ऽरूवित्त-सासतत्ताणि तिण्णि वि दाराणि समतमेताहिं दारगाहाहिं भण्णंति कारणविभाग १ कारणविणास २ बंधस्स पच्चयाभावा ३। विरुद्धस्स य अत्थस्साऽपादुभावा ४ ऽविणासा य ५॥१८॥१३२ ॥ निरामया-ऽऽमयभावा ६ बालकयाणुसरणा ७ दुवट्ठाणा ८। सोताईहिं अगहणा ९ जाईसरणा १० थणभिलासा ११॥१९॥१३३ ॥ सवण्णुवदित्ता १२ सम्मफलभोयणा १३ अमुत्तत्ता १४ । जीवस्स सिद्धमेवं णिच्चत्तममुत्तमण्णत्तं ५।६।७ ॥२०॥१३४॥ कारणविभाग० गाहा । निरामय गाहा। सवण्णुवदितृत्ता० गाहा । णिच्चो जीवो, कारणविभागस्स अभावात् , [जहा आगासस्स,] वैधम्मेण दिटुंतो पडो, पडकारणाणि तंतुणो, ते पत्त-पोत्तादीण विभजंति, सति विभागे पंडा सूवो भवति; जति एवं जीवस्स तंतुसरिसाणि कारणाणि भवेज ततो तेसिं विभागे 10 विणसेज्ज, तदभावे णिच्चो, जम्हा णिचो अतो अरूवी सरीरातो य अण्णो १।। विणासकारणअभावो त्ति दारं-णिचो जीवो, जम्हा तस्स विणासकारणस्स अभावो, दिलुतो घडो, जहा घडस्स मोग्गराभिघातादीणि विणासकारणाणि भवंति ण तहा जीवस्स विणासकारणमस्थि, तम्हा विणासकारणाभावा णिच्चो जीवो । एवं च अरूवी सरीरातो य अण्णो २।। बंधपच्चयअभावो त्ति दारं-णिच्चो जीवो, खणविणासे बंधाभावदोसापत्तेः, दिटुंतो घडो, जहा अविणट्ठो 15 घडो ज़लाहरण-धारणसमत्थो भवति तहा जदि जीवो ण भवति खणभंगुरो ततो तस्स बंधो मोक्खो वा घडति, तम्हा णिच्चो, अत एव अरूवी सरीरातो य अण्णो त्ति । एस बंधपच्चयअभावो ३। विरुद्धअत्थअप्पादुन्भाव इति दारं-णिचो जीवो, विरुद्धदव्वअप्पादुब्भावादिति हेतुः, दिट्ठतो सक्कुका, जहा धाणविणासे तविरुद्धा सत्तका पादुब्भवंति, ण एवं जीवदव्वविणासे किंचि विरुद्धदव्वं पादुब्भवति, तम्हा णिच्चो, अत एव अरूवी सरीरातो य अण्णो त्ति ४ । 20 ___अॅविणासो ति दारं-णिच्चो जीवो, विणासकारणस्स अभावा, दिटुंतो आगासं, जहा आगासस्स विणासकारणं नत्थि तं णिचं, एवं जीवस्स वि विणासकारणं नत्थि तम्हा निचो, अत एव य अरूवी सरीरत्थंतरभूतो य ५ । पढमगाहाए अत्थो॥१८॥१३२॥ बितियगाहत्थे पढमं दारं-णिच्चो जीवो, णिरामय-आमयभावेण, इह जीवो णिच्चत्ते सति गिरामतो सामतो य भवति, दिटुंतो परकतावराहे गहणाभावो, जदि खणे खणे उप्पजति विणस्सति य ततो तस्स 25 निरामय[-आमय भावो ण जुत्तो, अवस्थितो पुण निरामतो सामतो वा भवेज्जा, आमतो रोगो, तम्हा णिरामयआमयभावा णिच्चो, अत एव य अरूवी सरीरातो य अण्णो । एस निरामय-आमयभावो ६।। बालकताणुसरणं ति दारं-णिचो जीवो, पुव्वाणुभूतसरणं से हेऊ, दिर्सेतो देवदत्त-जण्णदत्ता सरणाऽसरणे, देवदत्ते कैतोति थाणातो अवगते जण्णदत्ते आगते जं तत्थ देवदत्तेण कतं तं जण्णदत्तो न सरति, न य तहा सतमणुभूतं ण सरति, कुमारभावे कतं जोव्वणत्थो सरति, तम्हा णिच्चो, बालाणुभूतसरणातो, एवं च अरूवी 30 सरीरातो य अण्णो ७। १ समकं युगपदित्यर्थः ॥ २ सोयाईहि वी० । सुत्ताईहि पु० सा० ॥ ३ पटात् सूत्रं भवति ॥ ४ सक्तुकाः ॥ ५ "अविणासी खलु जीवो विगारऽणुवलंभओ जहाऽऽगास।" इति दशवै० भाष्ये गा० ४७ पत्र १३१ । "अविनाशी आत्मा, विरोधिविकारासम्भवात् , आकाशवत् ।" इति वृद्धविवरणे ॥ ६ निरामयः सामयः ॥ ७ कुतश्चित् स्थानादपगते ॥ --- ------------ Jain Education Intemational Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [चउत्थं छज्जीवणियज्झयणं उवट्ठाणं ति दारं-णिचो जीवो, अण्णम्मि काले उवट्ठाणेण सूतिजति, इह भवे करिसकादी करिसणकाले कतस्स कम्मस्स उत्तरकालमुवट्ठाणं दिटुं, तहेव पुव्वसुकतकारिणो विपुलभोगसमाउत्ता दीसंति, केति पुण दुक्कयकारिणो दीणा-ऽणाह-विकला दीसंति, तम्हा सुभा-ऽसुभकम्मोवत्थाणसूतितो णिचो जीवो, अत एव अरूवी सरीरातो य अण्णो ८। सोतादिअग्गहणं ति दारं-णिचो जीवो, सोतादिअग्गहणेण कारणेणं, दिर्सेतो आगासं, जहा आकासममुत्तं इंदिएहिं अणुवलब्भमाणं निचं, एवं जीवो वि सोतादीहिं ण घेप्पति तम्हा निचो, अत एव अरूवी सरीरातो य अण्णो ९। ___ जातिसरणं ति दारं-णिच्चो जीवो, जातीसरणेण साहिज्जति, एत्थ लोकदिट्ठमवलंबिज्जति, गोवालादयो वि पडिवजंति-जहा जातीसरणमत्थि, अक्खाइतोवक्खातियासु य लोइया पडिवजंति-अमुको जातीसरो, तम्हा जाति10 सरणा णिच्चो अरूवी सरीरातो य अण्णो १० ।। थणाभिलासो ति दारं-णिच्चो जीवो, जातमेत्तत्थणाभिलासेण नजति, दिलुतो इह पुव्वाणुभूत चूता भिलासी देवदत्तो, जहा देवदत्तस्स परिपक्कं सुगंधमम्बफलमण्णेण खज्जमाणमवलोएंतस्स तग्गताभिलासेण मुहं पैजातलालापरिस्संदं भवति ण तहा भूमिघरसंठितस्साणुवलद्धचूतफैलासातस्स, तम्हा जम्माणंतरसमयथणाभिलाससूतियमिमस्स जीवियस्स निच्चत्तं, तहा य अरूवी सरीरप्पिहभूतो य ११ । बितियगाहत्थो गतो ॥ १९ ॥ १३३ ॥ 15 ततियगाहा पभण्णति-सवण्णुवदिट्ठत्ता [इति] दारं-णिचो जीवो, सव्वष्णुवदिट्ठ इति, ते हि भगवंतो ण मिच्छा पेच्छंति उवदिसंति वा। वीतरागो हि सव्वण्णू मिच्छं णेव पभासती । जम्हा [ तम्हा ] वती तस्स तच्चा भूतत्थदरिसणी ॥१॥ तम्हा णिच्चो जीवो अरूवी सरीरातो य अण्णो १२ । सकम्मफलभोयणेति दारं-सकम्मफलभोयणा णिच्चो जीवो, इह करिसगादतो सचेद्वितस्स सुद्धायारा 20 सुभफलमणभवंति, चोरादतो विपरीतं, तम्हा सकम्मफलभोयणतो साहिज्जति णिच्चो, तहा य सरीरातो य अण्णो अरूवी य १३। ___ अमुत्त त्ति दारं-णिच्चो जीवो, अरूवित्तणं णिचत्ते हेतू, दिट्ठतो आकासं, जहाऽऽकासममुत्तं णिचं एवं जीवो वि, अत एव अरूवी सरीरातो य अण्णो १४ । ततियगाहा गता। अण्णत्तं अरूवी णिञ्चत्तणं भणितं ५।६।७॥२०॥ १३४ ॥ 25 कारतो त्ति दारं-कारतो जीवो, सुभा-ऽसुभाणं कम्माणं सुभा-ऽसुभफलाणुभवणेणं सूतिजति, वैधम्मदिटुंतो आगासं, जहा आगासमकारगं ण सुभा-ऽसुभफलमणुभवति ण तहा जीवो ण संजुज्जति, तस्स सुहा-ऽसुहेण कम्मुणा सुभा-ऽसुभफलाणुभवणं भवति तम्हा कारओ ८। देहवावि ति दारं-देहवावी जीवो, देहे लिंगोवलद्धितो, दिलुतो अग्गी, जहा इंधणसमवातमारुतेरितो हुयासणो जम्मि पदेसे तम्मि डहण-पयण-पगासणाणि मवंति तथा जीवो वि चेतणाआकुंचण-पसारणादीणि 30 सरीरमेत्ते दरिसेति ण सव्वत्थ, तम्हा सरीर एव तलिंगोवलद्धितो साहिज्जति जहा देहवावी ९। मूलदारगाहा समत्ता ॥ बितियगाहोवदरिसणं । तत्थ पढमं दारं गुणि ति-गुणी जीवो पत्तेयविसेसामिसंबंधे सूतिजति, दिटुंतो घडो, जहा रूवादीहिं ण विरहिज्जति तहा जीवस्स चेतणत्तादीणि गुणा, तम्हा गुणसंबंधी जीवो १० । १ आख्यायिकोपाख्यायिकासु ॥ २ प्रजातलालापरिस्यन्दम् ॥ ३ फलावादस्य ॥ ४ इन्धनसमवायमारुतेरितः ।। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्तिगा० १३५-३८] दसकालियसुत्तं उड्डगति त्ति दारं-सभावतो उड्डगती जीवो, जतो अगरुलहू । किं पुण जाति ? कहं वा जाति ? एत्थ दिलुतो अलाबुकं-जहा अलाबुपत्तं कुसोवणिबद्धं अट्ठहिं मत्तियालेवेहिं लित्तं परिसुक्खमगाहे जले पक्खित्तमुर्वलेवतोरवेण जलतलमतिवतित्ता धरणितलपतिट्ठाणं भवति, लेवावगमे सभावप्रेरितं धरणितलातो सैमुप्पतितमंतज्जलमुलंघेऊण जलोपरितलसमस्सियं भवति; एवं जीवो वि अट्ठकम्मप्पगडिगुरुभराभिभूतो संसारपरिकिलेसजलतले विणिमजति, कम्मप्पगडिपरिक्खते णिव्वाघातलद्धस्सभावो संसारमंतज्जलत्थाणीयमतिवतित्ता मोक्खोपरितलपइट्ठो भवति, रतो (१ अधो) वि ण जाति, जहा उदगाभावे तुंबमेव, अत्थित्तसमत्थणायैवेदमवि ११ । निम्मय इति दारं-निम्मय इति न कस्सति विकारो अवयवो वा, जहा जैवमया सत्तुता, सीसवामतो मंचतो, जो य तहाभूतो सोऽवस्साविणासी, तहा य जीवो, तेण णिचो अस्थि य । कारणविणासविभागे कारणमुहेण, इह वत्थुपहाणं परूवणं । णिम्मय इति गतं १२ । साफल्ल इति दारं-एवं च अस्थि णिचो अण्णो कारतो अरूवी य जतो सफला, फलं पुण से सुहा-ऽसुह-10 कम्माणं सुह-दुक्खरूवं, सकम्मफलभोयणे काविलदिट्ठीणिवारणं-जहा गुणा करेंति अप्पा भुंजति, इह फलोववत्तिमत्तं जहा तरुम्मि । साफल्लय त्ति गतं १३ । परिमाणमिति दारं । तत्थ तं परिमाणं दुविहं, तं जहा-एगस्स य अणेगाण य । एगस्स ताव परिमाणं भण्णति जीवस्स उ परिमाणं वित्थरओ जाव लोगमेत्तं तु। ओगाहणा य सुहुमा तस्स पदेसा असंखेवा ॥ २१ ॥१३५॥ जीवस्स उ परिमाणं० गाहा । जदा केवली समुग्घायगतो भवति तदा लोग पूरेति जीवपदेसेहिं, एकेको जीवपदेसो पिहीभवति. एवं ओगाहणे सहमं । असमुग्घायगतस्स जीवपदेसा उपरि उपरि भवति । ते य पदेसा असंखेजा, जावतिया लोगागासपदेसा तावतिया जीवपदेसा वि एकजीवस्स परिमाणं भणितं ॥ २१ ॥ १३५ ॥ अणेगजीवाणं परिमाणं भण्णति ? केत्तिया पुण सव्वजीवा परिमाणतो ? पत्येण व कुलएण व जह कोई मिणेज सबधण्णाई। एवं मविजमाणा हवंति लोगा अणंता उ १४ ॥२२॥१३६॥ पत्थेण व कुलएण व० गाहाव्याख्या-जहा कोति सव्वधण्णाणि एगट्ठीकारेत्ता पत्थेण व कुलएण वा मवेज्जा । कुलतो धण्णमाणविसेसो, ते चत्तारि पत्थो । असब्भावपट्ठवणाए जति कोति लोग कुलवं पत्थं वा कातुं अजहण्णमणुक्कोसियाए ओगाहणाए लोगं पुणो पुणो पूरेत्ता अलोए पक्खिवेज्जा, ततो एगो दो तिण्णि एवं गणिजमाणा अणंता लोगा । अहवा लोगस्स एक्वेक्कम्मि पदेसे एक्केकं जीवं बुद्धीए ठावेत्ता जाव लोगो भरितो ताहे 25 अलोगे पक्खिवति, एगो दो तिण्णि, एवं मविजमाणा अणंता लोगा १४ । एतं परिमाणं ॥ २२ ॥ १३६ ॥ जीव इति पदं समत्तं । निकाय इति दारं णामं १ ठवण २ सरीरे ३ गती ४ णिकाय ५ ऽथिकाय ६ दविए य७। माउग ८ पजव ९संगह १० भारे ११ तह भावकाए १२ य ॥ २३ ॥१३७॥ एको कातो दुहा जातो, एगो चिट्ठति एगो मारितो। 30 जीवंतो मएण मारितो, तं लव माणव! केण हेउणा ? ॥२४॥१३८॥ १ अलाबुपात्रम् ॥ २ उपलेपगौरवेण जलतलमतिव्रज्य अतिपत्य वा ॥ ३ समुत्पतितमन्तजेलमुल्लवय जलोपरितलसमाश्रितं भवति ॥ ४ कर्मप्रकृतिपरिक्षये निर्व्याघातलब्धस्वभावः संसारमन्तर्जलस्थानीयमतिपत्य ॥ ५ यथा यवमयाः सक्तुकाः, शिंशपामयो मच्चकः ॥ ६ तत्थ-एगस्स अणेगाण व० गाहा। तं परिमाणं मूलादशैं। वृद्धविवरणेऽयमित्यरूपः पाठ उपलभ्यते, तथाहि-"प्रमाणनिर्धारणार्थमिदमुच्यते-एगस्स अणेगाण य, तं परिमाण दुविहं भवइ, तं जहा-एगस्स अणेगाण य। तत्थ एगस्स ताव परिमाणं भण्णइजीवत्थिकायमाणं० गाहा।" इति पत्र १२८, चिन्त्यश्चायं पाठः॥ Jain Education Interational Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [च उत्थं छज्जीवणियज्झयणं णाम ठवण सरीरे० गाहा । णाम-ठवणातो गतातो १।२। सरीरकातो सरीरमेव ३ । तेयग-कम्मगेहि भवंतरं गच्छति ताइं गतिकातो, जो वा जाए गतीए कातो भवति जं सरीरमिति, जहा नेरइयाणं वेउव्वियत्तेयाकम्मका तिण्णि सरीरा, एवं सेसाण वि गतीणं ४ । णिकायकातो छज्जीवणिकाया पुढविक्काइयादि ५ । अत्थिकायकातो धम्मादि पंच अस्थिकाया ६ । दवियणिकातो तिप्पभिति दव्वाणि एगतो मिलिताणि दव्वकातो, जहा तिदंडगं 6७ । मातुकातो तिप्पभिति मातुअक्खराणि ८ पन्जवकातो दुविहो. तं०-जीवपज्जवकाओ अज्जीवपज्जवकातो य । तिप्पमिती कालवण्णपजवादि अजीवपज्जवकातो । नाणादि तिप्पभिती जीवपजवनिकातो ९। संगहणिकातो जहा एगेण सतातिणा सद्देण बहूणं संगहो, अहवा जहा एक्को साली एवमादि १० । भारकातो एको कातो दुहा० गाहा । उदाहरणं-एको काहारो दो पाणियघडा वहति, सो एगो आउकातो घडविभागेण दुहा कतो। पक्खुलियस्स एगो घडो पुट्विं भग्गो सो आउक्कातो मतो, इयरो जीवति । तस्स अभावे 10 सो वि भग्गो, अतो तेण पुव्वमतेण अमतो मारितो ॥ अहवा आउक्कायघडस्स अद्धं तावितं तं मयं, इतरं जीवति, मिस्सिते तमवि मतं । एवं जीवंतो मएण मारितो । एस भारकातो ११ । तिप्पभितिओ ओदयियादिणो भावा भावकातो १२ ॥ २३ ॥१३७ ॥ २४ ॥१३८ ॥ एत्थं पुण अधिकारो णिकायकायेण होइ सुत्तम्मि। उच्चारितत्थसंदिसाण कित्तणं सेसगाणं पि ॥२५॥१३९ ॥ 16 एत्थं पुण अधिकारो० गाहा । एत्थ पुण अज्झयणे निकायकायेण अधिकारो। उच्चारितस्थसदिस त्ति सेसा परूविता ॥ २५ ॥ १३९ ॥ निकाय इति समत्तं । गतो नामनिप्फण्णो । सुत्ताणुगमे सुत्तं उच्चारेतव्वं अक्खलितं जहा अणुओगद्दारे । तं च इमं सुत्तं ३२. सुयं मे आउसं तेणे भगवता एवमक्खातं-इह खलु छज्जीवणिया नामऽज्झयणं समणेणं भगवता महावीरेणं कासवेणं पवेदिता सुयक्खाता सुपण्णत्ता सेयं मे अहिजिउं अज्झयणं धम्मपण्णत्ती॥१॥ ३३. कतरा खलु सा छज्जीणिया नामऽज्झयणं समणेणं भगवता महावीरेणं कासवेणं पवेदिता सुयक्खाता सुपण्णत्ता सेयं मे अहिजिउं अज्झयणं धम्मपण्णत्ती ? ॥२॥ ३४. इमा खलु सा छज्जीवणिया णामऽज्झयणं समणेणं भगवता महावीरेणं कासवेणं पवेदिता सुयक्खाता सुपण्णत्ता सेयं मे अहिजिउं अज्झयणं धम्मपण्णत्ती । तं जहा-पुढविक्काइया १ ऑउक्काइता २ तेउकाइया ३ वाउकाइया ४ वणस्सइकाइया ४ तसकाइया ६ ॥ ३ ॥ ३२. सुयं मे आउसं तेण भगवता एवमक्खातं । सुतं मया इति ऐतिह्यमिदम् । तं कस्स । वयणं १ को वा भणति 'सुतं मया' इति ? अतो भण्णति30 अत्थं भासति अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । सासणस्स हितहाए ततो सुत्तं पवत्तति ॥१॥ [आव० नि० गा० ९२] १ शतादिना ॥ २°सारिसाण खं० ॥३तेणं खं १-२-३-४ शु० वृद्ध०॥ ४ आयुक्का खं १॥ Jain Education Intemational Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्ताणि ३२-३४ णिज्जुत्तिगा० १३९] दसकालियसुत्तं । तं भगवतो सव्वातिसयसंपण्णं वयणं सोऊण गणहरा सुत्तीकतं पत्तेयमप्पणो सीसेहिं जिणवयणामतसवणपाणसमुस्सुएहिं सविणयं 'भगवं! किं जीवितव्व'मिति चोदिता भगवतो गौरवमुन्माता एवमुक्तवन्तः सुतं मे आउसं! तेण । अहवा सुधम्मसामी जंबुणामं पुच्छमाणं एवं भणति तया-सुतं मे आउसं! तेणं, सुतं मया आयुष्मन् !, तेण भगवता, [केण] सुतं तित्थगरवयणं १ तं दरिसेति-मया इति अप्पणो निदेसं करेति खंध-खणितवातपडिसेहणत्थं, जेण सुतं स एवाहं ण खंध-संताणातिमोहरूवमिदं । आयुष्मन् ! इति सीसस्स आह्वानम् , 5 आयुष्मद्रहणेन जाति-कुलादतो वि गुणाऽधिकृता भवंति, गुणवति अत्थं पडिवातियं सफलं भवति, तेण य[सासणस्स] अव्वोच्छित्ती कता भवति ति, आयुप्पहाणा गुणा अतो आयुष्मन् ! । तेणेति जेण एतं समुग्घातितं सव्वण्णुतापञ्चतं मगवंतं तित्थकरमाह । अहवाऽयं बितिओ सुत्तत्थो-सुतं मे आउसंतेण भगवता, सुतं मया आयुषि संतेण आउसंतेण भगवता अक्खायं । ततियतो सुत्तत्थो पाढविसेसेण भण्णति-सुतं मया आवसंतेण, गुरुकुलमिति वाक्यशेषः, भगवता० । चउत्थो सुत्तत्यो पाढविकप्पेणेव-सुयं मे आमुसंतेण, चरणजुयलमिति 10 वाक्यशेषः, आमुसंतेण छिवंतेण हत्थेहिं सिरसा य, एतम्मि सुत्तत्थे विणयपुव्वता गुरु-सिस्ससंबंधस्स दरिसिज्जति। भगवता इति भगो जस्स अत्थि स भगवान् । अत्थ-जस-लच्छि-धम्म-प्पयत्त-विभवाण छण्ह एतेसिं । भग इति णामं ते जस्स संति सो भण्णती भगवं ॥१॥ तेण भगवता एवमक्खातं, एवंसद्दो प्रकाराभिधायी, एतेण प्रकारेण, जोऽयं मण्णिहिइ जीवोवदेसवित्थरप्रकारो तं हितए काऊण भणति एवमक्खातं, अक्खातं कहितं । इह खल, इह आरुहते सासणे, खल-15 सद्दो विसेसणे, 'अण्णे वि तित्थगरा भगवंतो समाणा विण्णाणेणं ति तेहिं वि एवमेव छण्हं जीवस्स निकायस्स अत्यो जहा नामनिप्पण्णे [ नि० गा० १७ तः ३०]। अधीयते तदिति अज्झयणं । समणो जहा सामण्णपुव्वए [नि गा०५९-६६]। भगवता इति भणितं । पहाणो वीरो महावीरो । 'भगवता एवमक्खाय'मिति भणिए पुणो विसेसिज्जति-समणेण भगवता, समणभावो केवलिया य दरिसिज्जति त्ति, णाम-ट्ठवणा-दव्वसमणविसेसण पडिसेहणत्थं वा भावसमणेण । एवं भावभगवता भावमहावीरेण । कासवेण कासं-उच्छू तस्य विकारो काश्यः-रसः सो 20 जस्स पाणं सो कासवो उसभसामी, तस्स जे गोत्तजाता ते कासवा, तेण वद्धमाणसामी कासवो, तेण कासवेण पवेदिता, "विद ज्ञाने" साधु वेदिता पवेदिता, साधु विण्णाता । सुदु अक्खाता सुयक्खाता । सुपण्णत्ता जहाबुद्धि सिस्साणं प्रज्ञापिता । अतिसएण पसंसणीयं सेयं, मे इति मम, अहिजिउं अज्झातुं । अधीयते तदिति अझयणं । धम्मो पण्णविजए जाए सा धम्मपण्णत्ती अज्झयणविसेसो ॥१॥ तमजाणमाणो सिस्सो भणति३३. कतरा खलु सा छज्जीवणिया। एतेसिं पदाणं अत्थो तहेव ॥२॥ गणहरा गुरवो वा भणंति ३४. इमा खलु सा० । इमा इति जो मणिहिति पाढो तं आतिक्खति पञ्चक्खं दरिसेति । खल्वादीण पैतत्यो पढममणित एव । छण्डं जीवनिकायाणं वक्खाणं छज्जीवणिकायकं । अधुणा जेसिं तं जीवणिकायाणं वक्खाणं तेसिमुद्देसा आरम्भति-तं जहा-पुढविकाइया, पुढवी भूमी कातो जेसिं ते पुढविक्काता, 50 स्वार्थिक उनि पुढविक्काया एव पुढविक्काइका, एत्थ कायसद्दो सरीरामिधाणो । अहवा पुढविक्काय इति पुढवी चेव कातो पुढविक्कातो, एत्थ कायसद्दो समूहवाची, पुढविकाए भवः "बहचोऽन्तोदात्ता०" [पाणि० ४।३।६७] ठनि उपात्ते पुढविकाते भवः पुढविकायिकः । पुढवी इति "पृथु विस्तारे" विच्छिण्णा इति पुढवी । आउकाइता इति, साहणं जहा पुढविक्कातियाणं, "आप्ल, व्याप्तौ” इति आउ । एवं तेउ "तिज निशामने" । "वा गति-गन्ध नयोः" इति वायुः । “वन षण सम्भक्तौ” इति वनस्पतिः । “त्रसी उद्वेजने" त्रस्यन्तीति त्रसाः । काय इति जहा 35 १ स्कन्ध-क्षणिकवादप्रतिषेधनार्थम् ॥ २ स्कन्ध-सन्तानादिमोहरूपमिदम् ॥ ३ सर्वज्ञताप्रत्ययम् ॥ ४ पदार्थः ॥ द. सु. १० 25 Jain Education Intemational Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [चउत्थं छज्जीवणियज्झयण पुढवीए । उद्देसमेत्तमेतं । पुढविक्कायस्स पढममुद्देसो तदाधारा सेसा इति । तदणंतरं आऊ, पुढवीए आहारो घणोदधिरिति । तदणु पडिपक्खस्स तेजसः । तेय[ सह] चरित इति ततो वायस्स । तदणु जस्स कंपेण वातो सूतिजति तस्स वणस्सइस्स । सव्वेसिमंते फुडलिंगाणं तसाणं ॥३॥ उद्देसाणंतरं सलक्खणपरूवणवित्थरनिद्देसोऽयमारब्भते । तत्थ पढमुट्ठिाण पुढविक्कातियाण णिद्देसो पढममर्हति त्ति भण्णति ३५. पुढवि चित्तमंतमक्खाता अणेगजीवा पुढो सत्ता अण्णत्थ सत्थपरिणएणं ॥ ४॥ ___३५. पुढवि चित्तमंतमक्खाता। चित्तं चेतणा बुद्धी, तं जीवतत्त्वमेव, सा चित्तवती सजीवा इति णिदेसो । अहवा-"पुढवी चित्तमत्तमक्खाता" मत्तासद्दो थोवे परिमाणे य, थोवे जहा-किंचिम्मत्तं, परिमाणे जहा-"अलोए लोयप्पमाणमेत्ताई खंडाई" [नन्दी० सूत्र १६ पत्र ९७-२] । इह मत्तासदो थोवे, चित्तमत्तमेव तेसिं पुढविक्कातियाणं, ण णिमेसादीणि लिंगाणि । अहवा चित्तं मत्तमेतेसिं ते चित्तमत्ता, जहा पुरिसस्स मजपाण10विसोवयोग-सप्पावराह-हिप्पूरभक्खण मुच्छादीहिं चेतोविघातकारणेहिं जुगपदभिभूतस्स चित्तं मत्तं एवं पुढविक्कातियाणं, तस्स वा जा चित्तमंता ततो पुढविक्कातियाण पैरमगहणनाणावरणतमसामुदतेण हीणतरा । सव्वजहण्णं चित्तं एगिदियाणं. ततो विसद्धतरं बेइंदियाणं, ततो तेइंदियाणं. ततो चउरिंदियाणं, ततो असण्णिपंचिंदितिरिक्खजोणिताणं सम्मुच्छिममणूसाण य, ततो गम्भवकंतियतिरियाणं, ततो गम्भवकंतियमणूसाणं, ततो वाणमंतराणं, ततो भवणवासीणं, ततो जोतिसियाणं, ततो सोधम्मताणं जाव सव्वुक्कसं अणुत्तरोववातियाणं देवाणं । अभिविहिणा 15 वक्खाता अक्खाता । अणेगा जीवा जाए सा अणेगजीवा, ण पुण जहा वेदवादीण "आपो देवता, पृथिवी देवता"[ ] इति । किं पुण पाहाण-लेहुक-सिकतादतो संघाता पुरिससरीरमिव एकजीवसरीरपरिग्गहो ? अतो उत्तरमवि विसेसिजति–ण एक्कजीवपरिग्गहो, किं तर्हि १ पुढो सत्ता पिधप्पिधाँणि सरीराणि । ताणि पुण असंखेजाणि समुदिताणि चक्खुविसयमागच्छंति । एत्थ चोदयति-पुढविपतिद्वाणावतंसा तसजीव ति थाण गमणुचारातिविसग्गा कहमणुवरोहेण पुढवीए [ कीरंति ? ति] सचित्ता-ऽचित्तविसेसणावहारणत्थं 20 भण्णति-अण्णत्थ सत्थपरिणएणं, अण्णत्थसद्दो परिवजणे वट्टति । किं परिवजति ? सत्थपरिणतं मोतूण सेसा सञ्चित्ता ॥ तं सत्यं दुविहं-दव्वसत्थं भावसत्थं च । दव्वसत्थमिमं दवं सत्य-ऽग्गि-विसं नेहंबिल-खार-लोणमाईयं । भावो तु दुप्पउत्तो वाया काओ अविरई य ॥ २६ ॥१४॥ दवं सत्थऽग्गिविसं० गाहा । दव्वसत्थं सत्थमेव परसु-वासिमादि । अग्गी डहणो । विसं थावरजंगमं मारगं दव्वं । हसत्थं घतादि । अंबिलं प्रतीतम् । खारसत्यं खाररुक्खा पीलु-करीरादतो। लोणसत्थं सोवञ्चलाती । आदिग्गहणेण गोमतादि अणेगविहं । एतेहिं सत्थेहिं अचित्ततामेति । सेसकायाण वि एताणि सत्याणि । एतं दव्वसत्यं । मावसत्थं भावो तु दुप्पउत्तो संजमविणासणं ति तस्स सत्थं दुप्पउत्तो अकुसलमणउदीरणाति, वाया काओ वि, एवं अविरती असंजमो । दव्वसत्थेण अधिकारो ॥ २६ ॥ १४ ॥ तं तिविहं30 किंची सकायसत्थं किंची परकाय तदुभयं किंचि । - एतं तु ववसत्थं भावे अस्संजमो सत्थं ॥ २७॥१४१ ॥ कातिणा णिहेसो मूलादर्शे ॥ २चित्तमत्तमक्खा अचूपा. वृपा० हाटी । चित्तमंतऽक्खा जे० शु० । चित्तमंता अक्खा तथा चित्तमत्ता अक्खा वृपा० । एवमप्रेतनेषु चतुर्वपि सूत्रेषु पाठभेदो ज्ञेयः ॥ ३ अणेगे जीवा सं १-२-३-४ जेल। एवमप्रेतनेष चतुलपि सूत्रेषु पाठभेदो ज्ञेयः॥४ मद्यपान-विधोपयोग-सापराध-हृत्पूरभक्षग-मूर्छादिभिः ॥ ५ परमगहनज्ञानावरणतमसामुदयेन ॥ ६ पाहाणोलद्धकसिकनादतो मूलादर्शे । पाषाण-लेष्टुक-सिकतादयः॥ ७°धाणि ण सारीरवणस्सणिअरसरीराणि मूलादर्श ॥ ८ विसेसणत्थं हारण सभण्णति मूलादर्शे ॥ Jain Education Intemational Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्ताणि ३५-३९ णिज्जुत्तिगा० १४०-४१] दसकालियसुत्तं । किंची सकायसत्थं० गाहा। किंचि दव्वं सकायसत्थं, किंचि परकायसत्थं, किंचि उभयसत्थं ति । सकायसत्थं किण्हमत्तिया णीलाए सत्थं, णीला विकण्हाए, एवं च पंच वण्णा परोप्परस्स सत्थं । जहा य वण्णा एवं गंध-रस-फासा वि । परकायसत्थं पुढविकातो आउक्कायस्स, आऊ वि पुढवीए, एवं सव्वे वि परोप्परं सत्यं भवंति । उभयसत्थं जाहे किण्हमत्तियाए कलुसियमुदगं ताहे सा किण्हमत्तिया तस्स उदगस्स पंडुमत्तियाए त दोण्ह वि सत्थं जाव परिणता । ण य गोब्बराति परिणामगं दीसति, तत्थ केवलिपच्चक्खो भावो त्ति परिहरणमेव ।। एवं विसेस पाऊण जयंता अहिंसगा एव ॥ २७ ॥ १४१॥ चोदगो पञ्चक्खमेवावलंबिऊण भणति-अजीवा पुढवी, उस्सास-निस्सास-गमणातिविरहितत्वात् , घड इव । आयरिया उत्तरं भणंति च-से तवायं हेतू सव्वभिचारो, लोगपसिद्धा अंडगादयो जीवा, तेसिमुस्सासादीणि नस्थि, अथ च जीवा इति लोकपडिवत्ती । अह लोके पसिद्धा वि तव ण जीवा एवं उम्मत्तवयणमिव वयणमप्पमाणं तव । अह पुण मतिरियं ते-उत्तरकालमंडगादिसु गमणादिसंभव इति असममुत्तरं । एत्थ पञ्चवत्थाणमायरिया आणति-10 अपरिफंदणहेतौ अंडगापरिफंदणेण समीकते भवता विसेसो दरिसिजति 'उत्तरकालचेट्ठा' एवं तव णिग्गहत्थाणं । उक्तं च-"अविशेषोक्ते हेतौ प्रतिषिद्धे विशेषमिच्छतो हेत्वन्तरम्" [न्यायसू० ५।२६] तं च निग्गहत्थाणं । अह मण्णसि-सुहमुस्सासादि अंडगादिसु। पढममम्हं पक्खो सिद्धो, जतो भगवता परमगरुणा भणितं-"पढविक्काइया वेमाताए याऽऽणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा निस्ससंति वा [प्रज्ञा० पद ७ सूत्र १४६ पत्र २१९-१] ॥४॥ ३६. आउ चित्तमंतमक्खाता अणेगजीवा पुढो सत्ता अण्णत्थ सत्थपरिणएणं ॥ ५॥15 ३७. तेउ चित्तमंतमक्खाता अणेगजीवा पुढो सत्ता अण्णत्थ सत्थपरिणएणं ॥ ६॥ ३८. वाउ चित्तमंतमक्खाता अणेगजीवा पुढो सत्ता अण्णत्थ सत्थपरिणएणं ॥७॥ ३६-३८. आउ चित्तमंत । एवं सव्वे आलावगा अत्थविभासा य तेउ-वाऊण वि । वाऊ (१) सत्यपरिणते त्रपु-सीस-लोहादीणि ॥५॥६॥७॥ ३९. वणस्सति चित्तमंतमक्खाता अणेगजीवा पुढो सत्ता अण्णत्थ सत्थपरिणएणं । तं जहा-अग्गबीता मूलबीया पोरबीया खंधबीया बीयरुहा सम्मुच्छिमा तणलता वणस्सतिकातिया सबीया, वेणस्सती चित्तमंत अक्खाता अणेगजीवा पुढो सत्ता अण्णत्थ सत्थपरिणएणं ॥८॥ ३९. वणस्सति चित्तमंतमक्खाता । जेसिं कोरेंटेंगादीणं अग्गाणि रुप्पंति ते अग्गवीता। कंदलिकंदादी मूलबीया। इक्खुमादी पोरबीया। णिहूमादी खंधबीया । सालिमादी बीयरहा । पउमिणिमादी 25 उदग-पुढविसिणेहसम्मुच्छणा सम्मुच्छिमा। तणलतावयण तब्भेदपरूवणं । वणस्सतिकातिय ति पत्तेयसाधारण-बादर-सुहुमसव्वलोयपरियावण्णवणस्सतिप्पगारा भणिता । अंते दीवगमिदं-वणस्सतिभेदपरूवणेण सेसभेदपरूवणं-"पुढवी य सक्करा वालुगा य०"[ भाचा० नि० गा० ७३ ] एवमादि पुढविभेदा, आउभेदा "ओस्सुदय." ("सुद्धोदए") [भाचा० नि० गा० १०८ ] एवमादि, तेउभेदा "इंगाल" [माचा०नि० गा० ..] मादि, वातस्स "उक्कलिया" [ भाचा० नि० गा० १६६ ] आदि । सबीया इति बीयावसाणा देस वणस्सतिभेदा संगहतो दरिसिता 150 चोदगो भणति-अग्गबीयादिसु सच्चित्तं रोवितं तहाजातीएण सरीरेण वडइ ति तेण देहसंभवो, बीजं पुण 20 १ तव णाजीवा मूलादर्शे ॥ २ वणस्सती इति पदं अगस्त्यचूर्णावेव दृश्यते॥ ३ दश भेदास्त्विमे-“मूले १ कंदे २ बंधे ३ तया ४ य साले ५ तह प्पवाले ६ य । पत्ते ७ पुप्फे ८ य फले ९ बीए १० दसमे य नायव्वे ॥ १॥” इति [ Jain Education Intemational Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [चउत्थं छज्जीवणियज्मयणं विसरिसमंकुर णिव्वत्तेति, ते किं कुरील इव जोणिघातेण अंकुरो संभवति ? अह बीजजीव एव विक्रियमाणो तहारूवो मवति ? । गुरवो भणंति-सोम्म!, जोणिन्भूते बीए जीवो वैकमह सो वै अण्णो वा। जो वि य मूले जीवो सो वि य पत्ते पढमयाए ॥ २८॥ १४२॥ जोणिन्भूते० गाहा । तं बीयं जोणिन्भूतमजोणिन्भूतं च । अजोणिन्भूतं कालंतरेण दाहातिणा वा उपघातेण, तं पुण अचित्तं । जोणिब्भूतं अजीवं वा होज [सजीवं वा]। तम्मि जोणिभूते [बीए] सो वा बीजजीवो उव[व]जेज अण्णो वा । तत्थ अण्णे वि बहवे जीवा वक्कमंति । भणितं च सव्वो वि किसलओ खलु उप्पयमाणो अणंततो होइ । सो चेव वडमाणो होति अणंतो परित्तो वा ॥१॥ 10 जो वि य मूले जीवो सो वि य पत्ते पढमयाए। 'जो सो बीयजीवो विक्रियमाणो मूलमंकुरं च निरुद्धं निव्वत्तेति, ततो मूल-खंधनिव्वत्तणं पेच्छोववण्णेहिं ॥ २८ ॥ १४२ ॥ सेसं सुत्तप्फासं काए काए अहक्कम बूता। - अज्झयणत्था पंच य पगरण-पद-वंजणविसुद्धा ॥ २९ ॥ १४३ ॥ सेसं सुत्तप्फासं० गाहा । सेसं जं एतेसु छसु जीवनिकाएसु सुत्तफासियनिजुत्तीय भणितं तं सुत्तं 15काए काए अणुप्फुसंतेहिं अहकमं भणितव्वं । ण केवलं तदेव किंतु पंच य अज्झयणस्था ते वि सुत्तेण मणितव्वा । पगरण-पद-वंजणविसुद्धा, पगरणं अधिकारो उक्खेव-निक्खेवविसुद्धं, पदं सुप्-तिङन्तम् , वंजणं अक्खरं । ते इमे पंच अज्झयणत्या, तं जहा-जीवाभिगमो १ चरित्तधम्मो २ जयणा ३ उपदेसो ४ धम्मफलं ५ । कहं पुण छट्ठोऽजीवाभिगमो इमाए गाहाए ण भणितो ? णणु भणितं-काए काए अहकम बूता, एतेण छहो भणितो ॥ २९॥ १४३॥ 20 वणस्सती चित्तमंत अक्खाता अणेगा जीवा पुढो सत्ता अणत्थ सत्थपरिणएणं, एतेसिं - वक्खाणं जहा पुढवीए ॥८॥ ४०. "से जे पुण इमे अणेगे बहवे तसा पाणा। तं जहा-अंडया पोतया जराउया रसया संसेइया सम्मुच्छिमा उब्भिता उववातिया, जेसिं केसिंचि पाणाणं अभिक्तं पडिक्तं संकुचितं पसारितं रुतं भंतं तसितं पलाइतं, आगती-गतीविण्णाता, जे य कीड-पयंगा जा य कुंथु-पिवीलिता सव्वे देवा सव्वे असुरा सव्वे णेरतिता सव्वे तिरिक्खजोणिता सव्वे मणुस्सा सव्वे पाणा परमाहम्मिता, ऐसो छट्ठो जीवणिकातो तसकाओ त्ति पवुच्छति ॥ ९॥ १ बीए जोणिब्भूते जीवो खं० वी० पु० सा० हाटी० ॥ २ विक्कमइ पु० । वुक्कमह सा० ॥ ३ य वी. सा० ॥ ४ “जो सो बीयसरीरी जीवो सो जहा जहा वडइ कायो तहा तहा पत्तं निव्वत्तेइ, मूलं खंध साहाओ पुण अण्णे पच्छोववण्णगा निव्वत्तेति।" इति वृद्धविवरणे ॥ ५पच्छाविवण्णेहिं मूलादशैं ॥ ६ “अणुफासंतेहि" वृद्धविवरणे ॥ ७ एतत्सूत्रप्रारम्भे तसा चित्तमंता अक्खाया अणेगजीवा पुढो सत्ता अण्णत्थ सत्थपरिणएणं इति सूत्रांशोऽधिको वृद्धविवरणे दरीदृश्यते ॥ ८ उभिदया वृद्ध० ॥९ ओववाइया हाटी। ओववायया हाटीपा०॥ १० पिवीलिता, सब्वे बेइंदिया सवे तेइंदिया सव्वे चरिंदिया सब्वे पंचिंदिया सब्वे तिरिक्खजोणिया सव्वे नेरड्या सब्वे मणुया सव्वे देवा सब्वे पाणा परमाहम्मिया खं १-२-३-४ जे० शु० हाटी। 'पिवीलिता सब्वे नेपया सब्वे तिरिक्खणोणिया सब्वे मणुया सव्वे देवा सव्वे पाणा परमाहम्मिया वृद्धविवरणे ॥ ११ पारहम्मिता अचूपा. वृद्ध०॥ १२ एसोखलु छट्ठो खं १-२-३-४ जे. शु० हाटी० ॥ १३°चइ खं १.३ जे० । चईख २-४ शु०॥ - Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तं ४० णिज्जुत्तिगा० १४२-४३] दसकालियसुत्तं । ४०. से इति वयणोवण्णासे । जे इति सामण्णुद्देसवयणं । पुणसद्दो विसेसणे । इमे इति पञ्चक्खं दरिसिन्जति । अणेगा अणेगभेदा बेइंदियादतो । बहवे इति बहुभेदा जाति-कुलकोडी-जोणीपमुहसतसहस्सेहिं पुणरवि संखेजा । त्रस्यन्तीति त्रसाः। पाणा इति जीवाः प्राणन्ति वा-निःश्वसन्ति वा । जोणीभेदेणोपदरिसिजति-तं०, अण्डजाता अण्डजा मयूरादयः । पोतमिव सूयते पोतजा वल्गुलीमादयः । जराउवेदिता जायंति जराउजा गवादयः । रसजा रसा से भवंति तक्रादौ सुहुमसरीरा । संखेदजा यूगादतः । सम्मुच्छिमा करीसादिसु मच्छिकादतो भवन्ति । उम्भिता भूमिं भिंदिऊण निद्धावंति सलभादतो । उववातिया णारग-देवा । एते तसा । तेसिं च तसाणं एगिदिएहितो विसिट्ठाणि इमाणि लक्खणाणि भवंति, तं०-जेसिं केसिंचि पाणाणं, जेसिं केसिंचि ति अविसेसिताणं उद्देसवयणं । पाणा पुव्वभणिता । इमाणि जीवभावव्यक्तिकराणि, तं०-अभिकतं. आलावगा उच्चारतव्वा । अभिमुहक्वंतं अभिकतं. पण्णवगं पड़च्च अभिमुहमागमणं । प्रतीपं कंतं पडिकंतं । हत्थादीणं बाहिं विच्छूढाणं एगीभावेणं कुंचणं संकुचितं । तेसिं 10 चेव हत्थादीणं बाहिं विच्छोभो पसारितं । रुतं सद्दकरणं । भंतं अणेगाण तं चेट्टितं । तसितं उव्वेवगमणं । पलाइयं भैतादवक्कमणं । आगमणमागती। गमणं गती। णणु जं अभिक्कंतं सा आगतिः, पडिकंतं च गतिः, तेण पुणरुतं, चोयणेयं । समत्थणं भण्णति-रुक्खं प्रति अभिक्कमणं तुंबि-वलिमादीणं, पडिक्कमणमवि रुक्खग्गातो पंडितोयरणं । इहं पुण तस्सेव अत्थस्स विसेसणत्यं भण्णति-आगती-गतीविण्णाता, बुद्धिपुव्वमितो जाणावेति । पुणराह-विकलिंदियाण वि ऊहा-ऽपोहपुव्वं ण चेट्टितमिति ण णाम ते तसा । एतं समत्थिजति-जदी वि बेइंदियादीणं 15 ण सम्प्रधारणपुष्वं चेट्टितं, गुलातिसमुवसप्पणं तु पिपीलिगादीण विण्णाणपुव्वगं आगमण-गमणादि, ण तहा एगिदियाणं, तम्हा जे एतेहिं लक्खणेहिं लक्खिता ते तसा सिद्धा । जोणिलक्खणनिरूविताणं भेदाभिधाणत्थमिदं भण्णति-जे य कीड-पयंगा, जे उद्देसे, चसदो समुच्चए, कीडवयणेण तज्जातियगहणमिति सव्वे बेइंदिया घेप्पंति, पयंगवयणेण चउरिंदिया, कुंथु-पिवीलियाभिहाणेण तिंदिया । सवे देवा, 'पंचेंदिएसु पहाण' त्ति पढमं देवा पढिता । तदणु तेर्सि पडिपक्खभूता असुरा भवणवासीभेदा णाग-सुवण्णा । अहोनिवाससाहम्मेण तदणु णेरतिता तदणुभासदुक्खा इति तदणु पंचेंदितिरिक्खजोणिता । मणूसेसूपदेस इति सव्वेसिं अंते मणुस्सा। सव्ववयणमसेसवाची, सव्व एव तसा, ण जहा सामण्णतिरिक्खजोणियवयणेण तसा थावरा य । सधे पाणा परमाहम्मिया, परमं पहाणं तं च सुहं, अपरमं ऊणं तं पुण दुक्खं, धुम्मो सभावो, परमो धम्मो जेसिं ते परमधम्मिता, यदुक्तं सुखखभावाः। पाढविसेसो-“पारधम्मिता" परा जाति जातिं पडुच्च सेसा, जो त परेसिं धम्मो सो तेसिं, जहा एगस्स अभिलास-प्रीतिप्पमितीणि संभवंति तहा सेसाण वि अतो परधम्मिता। एसो छट्टो जीवणिकातो, एसो जस्स लक्खणं भणितं छट्ठो छण्डं पुढविक्कातियादीणं पूरणो जीवणिकातो समूहो तसकाओ त्ति, इति परिसमत्तिविसतो पवुञ्चति भगवद्भिः ॥९॥ भणितो जीवाहिगमो । अजीवाभिगमो भण्णति-अजीवा दुविहा-पोग्गला य णोपोग्गला य । पोग्गला . १“भंतं नाम जं देसाओ देसंतरं भमइ ।" वृद्ध०॥ २ दब्वे च गमणं मूलादर्शे ॥ ३ भयादपक्रमणम् ॥ ४ प्रत्यवतरणम् ॥ ५ गुडादिसमुपसर्पणम् ॥ ६ “परमाहम्मिया नाम अपरमं दुक्खं, परमं सुहं भण्णा, सव्वे पाणा परमाधम्मिया सुहाभिकखिणो त्ति वुत्तं भवइ । अहवा एयं सुतं एवं पढिजइ–'सव्वे पाणा परहम्मिया' इकिकस्स जीवस्स सेसा जीवभेदा परा, ते य सव्वे सुहाभिकंखिणो त्ति वुत्तं भवति । जो तेसिं एकस्स धम्मो सो सेसाणं पित्ति काऊण सव्वे पाणा परहम्मिया।" इति वृद्धविवरणे॥७धम्मो अभावो मूलादर्श ॥८"पोग्गला छबिहा, तं०-सुहुमसुहुमा १ सुहुमा २ सुहुमबादरा ३ बादरसुहुमा ४ बादरा ५ बादरबादरा । सुहुमसुहुमा परमाणुपोग्गला १ । सुहुमा दुपएसियाओ आढत्ता जाव सुहुमपरिणओ अणंतपएसिओ खंधो २ । सुहुमबादरा गंधपोग्गला ३ । बादरसुहमा बाउक्कायसरीरा । बादरा आउक्कायसरीरा उस्सादीणं ५। बादरबादरा तेउ-वणप्फइ-पुढवि-तससरीराणि ६ । अहवा चउविहा पोग्गला, तं०-खंधा १ खंधदेसा २" इत्यादि वृद्धविवरणे॥ Jain Education Intemational Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [चउत्थं छज्जीवणियज्झयणं चतुम्विहा, तं०-खंधा खंधदेसा खंधप्पदेसा परमाणुपोग्गला । णोपोग्गलत्थिकातो तिविहो, तं०-धम्मत्थिकातो अधम्मत्थिकातो आगासत्थिकातो, एते गति-हिति-अवगाहणालक्खणा जहासंखं । एस अजीवाधिगमो॥ जीवाजीवाधिगमो चरित्तरक्खणत्थं ति चरित्तधम्मो भण्णति४१. इच्चेतेहिं छहिं जीवनिकायेहिं णेव सयं डंडं समारभेजा णेवऽण्णेहिं डंडं समारभावेज्जा डंडं समारभंते वि अण्णे ण समणुजीणेज्जा, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं न करेमि ण कारवेमि करेंतं पि अण्णं न समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥१०॥ ४१. इच्चेतेहिं छहिं जीवनिकायेहिं । इतिसद्दो अणेगत्थो अत्थि, हेतौ-वरिसतीति धावति, एवमत्योइति ब्रह्मवादिनो वदंति, आद्यर्थे-इत्याह भगवां नास्तिकः, परिसमाप्तौ-अ अ इति, प्रकारे-इति बहुविहमुक्खा । 10 इह इतिसद्दो प्रकारे-पुढविक्कातियादिसु किण्हमट्टितादिप्रकारेसु, अहवा हेतौ-जम्हा परधम्मिया सुहसाया दुक्खपडिकूला । इचेतेसु, एतेसु अणंतराणुकंतं पञ्चक्खमुपदंसिज्जति । “एतेहिं" वा तदा हिंसद्दो सप्तम्यर्थ तेव, एतेहिं छहिं जीवनिकाएहिं, छ इति संखा, ते अणेगभेदा अपि छबिहत्तणं णातिवत्तंति, जीवाण निकाया समुदाया तेहिं, ण इति पडिसेहे, एवसद्दो अवधारणे, किमवधारेति ? सव्वावत्थं समारभणं, सयमिति अप्पणा डंडो सरीरादिनिग्गहो तण्ण समारभेजा। समारभणं पवत्तणं । णेवण्णेहिं डंडं समारभावेजा, णकारो एक्सद्दो 15य तहेव, इह तु परस्स पओगो निवारिज्जति । डंडं समारभंते वि अण्णे ण समणुजाणेजा, एतेण समारंमाणुमोयणमवि णिवारिजति । असमारंभकालावधारणमिदम्-जावज्जीवाए जाव पाणा धारंति । तिविहं ति मणो-वयण-कातो, 'तिविहेणं ति करण-कारावणा-ऽणुमोयणाणि । सुत्तेणेवायं विसेसो भण्णति-एक्ककं न करेमि ण कारवेमि करेंतं पि अण्णं न समणुजाणामि, मणेण दंडं करेति-सयं मारणं चिंतयति कहमहं मारेज्जामि, मणेण कारयति-जदि एसो मारेज्जा, मणसा अणुमोदति मारेंतस्स तुस्सति; वायाए पाणातिवातं करेति-तं 20 भणति जेण अद्धितीए मरति, वायाए कारेति-मारणं संदिसति, वायाए अणुमोदति-सुटु हतो; कातेण मारेति सयमाहणति, कारण कारयति-पाणिप्पहारादिणा, कारणाणुमोदति-मारेंत छोडिकादिणा पसंसति । एतेहि सव्वेहि पगारेहि ण करेमीति अन्भवगमं करेमि । तस्स भंते ! पडिकमामि, तस्स त्ति दंडसभारंभस्स, भंते ! इति भगवतो आमंतणं । गणहरा भगवतो सकासे अत्थं सोऊण वतपडिवत्तीए एवमाहु-तस्स भंते !, तहा जे वि इमम्मि काले ते पि वताइं पडिवजमाणा एवं भणंति-तस्स भंते ! पडिक्कमामि, प्रतीपं क्रमामि-णियत्तामि । जं 20 पुत्वमण्णाणेण कतं तस्स जिंदामि “णिदि कुत्सायाम्” इति कुत्सामि । गरहामि "गर्ह परिभाषणे" इति पगासीकरेमि । अप्पाणं सव्वसत्ताणं दरिसिज्जए, वोसिरामि विविहेहिं प्रकारेहिं सव्वावत्थं परिचयामि । दंडसमारंभपरिहरणं चरित्तधम्मप्पमुहमिदं ॥१०॥ अतो परं महव्वउच्चारणं सविसेसं, जो जस्स अरुहो तं तम्मि सो भण्णति त्ति, जोग्गताविचारो परममंगलं, संसारुत्तारगो चरित्तधम्मो, सो य सम्मदरिसणाधारो त्ति । केति सुत्तं केति वित्तिवयणमिमं भणंति तेसु छसु जीवनिकायेसु अचूपा । इञ्चसि छण्हं जीवनिकायाण नेव खं १-२-३-४ जे० शु० हाटी०॥२ दंडं समारंभेजा जेषऽण्णेहिं दंड समारंभावेजा दंडं समारंभंते अचू० विना ॥ ३°जाणामि खं १-२-४ जे० । 'जाणेमि खं ३॥ ४तिविहेणं मणेर्ण वायाए कारणं न करेमि अचू० विना ॥ ५ करतं खं १-२-४॥६"इएहिं छहिं जीवनिकाएहिं, इतिसहो अणेगेसु अत्थेसु वट्टइ, तं०-आमंतणे परिसमत्तीए उवप्पदरिसणे त । आमंतणे जहा-धम्मए ति वा उवएसए ति वा एवमादि, परिसमतीए जहा-इति खलु समणे भगवं महावीरे एवमादि । उपप्पदरिसणे जहा-इच्चेए पंचविहे ववहारे । एत्थ पुण इश्तेहिं एसो सहो उवप्पदरिसणे दट्ठव्वो, किं उवप्पदरिसयति ! जे एते जीवा अजीवाभिगमस्स हेट्ठा भणिया, इच्चेएहिं छहिं जीवणिकाएहिं ।" इति वृद्धविवरणे। "श्चेसि इत्यादि । सर्वे प्राणिनः परमधर्माण इत्यनेन हेतुना 'एतेषां पण्णां जीवनिकायानां' इति, "सुपा सुपो भवन्ति" इति सप्तम्यर्थे षष्ठी, एतेषु षट्सु जीवनिकायेषु अनन्तरोदितस्वरूपेषु" इति हारि० वृत्ती॥ ७ सप्तम्यर्थ एव, अत्र तेवशब्द एव इत्यर्थकः ॥ ८ कायेन ॥ ९ भाषणमिति मूलादर्श ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तं ४१] दसकालियसुत्तं । [ पुढविक्कातिए जीवे ण सद्दहति जो जिणेहि पण्णत्ते । अणभिगतपुण्ण - पावो ण सो उट्ठावणाजोग्गो ॥१॥ आउक्कातिए जीवे ण सद्दहति जो जिणेहि पण्णत्ते । अणभिगतपुण्ण - पावो ण सो उट्ठावणाजोग्गो ॥ २ ॥ तेउक्कातिए जीवे ण सद्दहति जो जिणेहि पण्णत्ते । अणभिगतपुण्ण - पावो ण सो उट्ठावणाजोग्गो ॥ ३ ॥ वाउकातिए जीवे ण सदहति जो जिणेहि पण्णत्ते । अणभिगतपुण्ण - पावो ण सो उट्ठावणाजोग्गो ॥ ४ ॥ वणस्सतिकातिए जीवे ण सदहति जो जिणेहि पण्णत्ते । अणभिगतपुण्ण-पावो ण सो उट्ठावणाजोग्गो ॥ ५॥ तसकातिए जीवे ण सद्दहति जो जिणेहि पण्णत्ते । अणभिगतपुण्ण - पावो ण सो उठावणाजोग्गो ॥ ६॥ * पुढविक्कातिए जीवे सद्दहती जो जिणेहि पण्णत्ते । अभिगतपुण्ण - पावो सो हु उट्ठावणे जोग्गो ॥ ७ ॥ आउक्कातिए जीवे सदहती जो जिणेहि पण्णत्ते । अभिगतपुण्ण - पावो सो हु उट्ठावणे जोग्गो ॥ ८ ॥ तेउक्कातिए जीवे सदहती जो जिणेहि पण्णत्ते । अभिगतपुण्ण - पावो सो हु उठावणे जोग्गो ॥ ९॥ वाउक्कातिए जीवे सहहती जो जिणेहि पण्णत्ते । अभिगतपुण्ण - पावो सो हु उट्ठावणे जोग्गो ॥ १० ॥ वणस्सतिकातिए जीवे सद्दहती जो जिणेहि पण्णत्ते। अभिगतपुण्ण - पावो सो हु उट्ठावणे जोग्गो॥ ११ ॥ तसकातिए जीवे सहहती जो जिणेहि पण्णत्ते। अभिगतपुण्ण - पावो सो हु उट्ठावणे जोग्गो ॥ १२ ॥ ] १ 'एतद् गाथाद्वादशकं केचिदाचार्याः सूत्रत्वेन मन्यन्ते, केचिच प्राचीनवृत्तिसत्कं मन्यन्ते' इत्यगस्त्यसिंहपादा आवेदयन्ति । "सीसो आह-जो एसो दंडनिक्खेत्रो एवं महन्वयारुहणं तं किं सव्वेसिं अविसेसियाणं महव्वयारुहर्ण कीरति ? उदाहो परिक्खिऊन ? । आयरिओ भणइ-जो इमाणि कारणाणि सद्दहइ तस्स महव्वयाणि समारुहिति। पुढविक्काइए जीवे ण सहहह जे जिणेहिं पण्णत्ते । अणभिगयपुण्ण-पावो ण सो उवद्रावणाजोग्गो॥१॥ एवं आउक्काइए जीवे० २ एवं जाव तसकाइए जीवे०६ । एयारिसस्स पुण समारुभिज्जति, तं० पुढविकाइए जीवे सद्दहई जो जिणेहिं पण्णत्ते । अभिगतपुण्ण-पावो ण सो उवटावणाजोग्गो ॥७॥ एवं आउक्काइए जीवे०८, एवं जावतसकाइए जीवे सइई जो जिणेहिं पण्णत्ते । अमिगतपुण्ण-पावो सो उवट्ठावणाजोगो ॥१२॥” इति वृद्ध०॥ . Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 10 णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं चिउत्थं छज्जीवणियज्झयणं पुढविक्कातिए जीवे ण सद्दहति जो जिणेहि पण्णत्ते । अणभिगतपुण्ण-पावो ण सो उट्ठावणाजोग्गो॥१॥ एवं आउकातिए० २ जाव तसकातिए० ६ एस अणरुहो । अयं पुण अरुहो पुढविक्कातिए जीवे सद्दहती जो जिणेहिं पण्णत्ते। अभिगतपुण्ण-पावो सो हु उट्ठावणे जोग्गो ॥७॥ ___ एवं आउकातिए० ८ जाव तसकातिए० १२॥ छज्जीवणियाए पढित-सुत-सद्दहियाए उवट्ठाविजति, तं महव्वउच्चारणमिमेण विहिणा ४२. पढमे भंते ! महव्वते उवद्वितो मि पाणातिवातातो वेरमणं, सव्वं भंते ! पाणातिवातं पच्चक्खामि, से सुहुमं वा वातरं वा तसं वा थावरं वा। [ से त पाणातिवाते चतुबिहे, तं०-दबतो खेत्ततो कालतो भावतो । दबतो छसु जीवनिकाएसु, खेत्ततो सबलोगे, कालतो दिया वा राओ वा, भावतो रागेण वा दोसेण वा । ] णे सतं पाणे अतिवातेमि, णेवऽण्णेहिं पाणे अतिवायावेमि, पाणे अतिवातंते वि अण्णे ण समणुजाणामि, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेण, मणसा वयसा कायसा ण करेमि ण कारवेमि करेंतं पि अण्णं ण __समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिक्कमामि जिंदामि गरहामि अप्पाणं वोसिरामि । पढमे भंते ! महत्वते पाणातिवातातो वेरमणं ॥ ११ ॥ ४२. पढमे भंते ! महत्वए। पढमे इति आवेक्खिगं, सेसाणि पडुच्च आदिलं, पढमे एसा सत्तमी, तम्मि उट्ठावणाधारविवक्खिगा। भंते ! इति पढमाविभत्तिगतमामंतणवयणं, तं पुण सिस्सो उवट्ठावणट्ठमुट्टितं गुरुमामतेंतो आह-हे कल्लाणसुखभागिन् भगवन् !, एवं भंते ! । सकले महति वते महव्वते तुन्भेहि जहो20 वदिवे उवेच्च ठितो उवहितो मीति अस्मि, यदुक्तमहम् । पाणातिवाता[तो] अतिवातो हिंसणं ततो, एसा पंचमी अपादाणे भयहेतुलक्खणा वा, भीतार्थानां भयहेतुरिति । वेरमणं नियत्तणं, जं वेरमणं एतं महव्वतमिति पढमाविभत्तिनिद्देसो । केति "उवहितो मि" ति अंते पढंति तेसिं पि समाणं वक्कमिणं, तत्थ वि तेणाभिसंबंधो । सवं ण विसेसेण, यथा लोके-न ब्राह्मणो हन्तव्यः । भंते ! इति पुल्वभणितं । पाणातिवातमिति च पञ्चक्खाणं, ततो नियत्तणं । पञ्चक्खाणविकप्पा-सीतालं भंगसतं० गाहा [ ]। सामण्णमिदं साधूणं 25 सावगाण य, अतो परवयणेण भण्णति __ ण करेति ण कारवेति करेंतं नाणुजाणति मणसा वायाए कारण, एसो पढमो भंगो साधूणं १; तिविहं दुविहेण न करेति ३ मणसा वायाए २, अहवा ण करेति ३ मणसा कारण ३, अहवा ण करेति ३ वायाए कारणे ४, १°महसह मूलादर्शे ॥ २ वर पाणा अचू० विना ॥ ३ बादरं अचू० विना ॥ ४[ ] एतत्कोष्ठकान्तवर्त्यय पाठः कतिचिदाचार्याभिप्रायेण सूत्रपाठः कतिचिदाचार्यान्तराभिप्रायेण च प्राचीनवृत्तिपाठ इत्यावेदितमगस्त्यसिंहपादैरस्यां चूर्णाविति । एवमप्रेऽपि महाव्रतालापकेषु सर्वत्र ज्ञेयमिति ॥ ५ नेव सयं पाणे अइवाएज्जा, नेवऽन्नेहिं पाणे अइवायावेज्जा, पाणे अहवायंते वि अने न समणुजाणामि, जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि अचू० विना । समणुजाणामि स्थाने समाजाणेज्जा शु०॥ ६ व्वए उवट्टिओ मि सव्वाओ पाणाहवायाओ अचू विना ॥ ७“सीयालं भंगसयं पञ्चक्खाणम्मि जस्स उवलद्धं । सो पञ्चखाणकुसलो सेसा सव्वे अकुसला उ ॥ १॥ ८ एतद्भङ्गसमूहावेदकं सूत्रं भगवतीसूत्रे श.८ उ०५ सूत्र ३२९ पत्रं ३६८॥ ९ "एते तिन्नि वि २.३-४ भंगा पायसो सुण्णा" इति वद्ध०॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तं ४२] दसकालियसुत्तं । तिविहं एक्कविहेणं-ण करेति ३ मणसा ५, अहवा ण करेति ३ वयसा ६, अहवा न करेति ३ कारणं ७, एते सत्त भंगा तिविहं अमुयंतेण लद्धा । दुविहं तिविहेण—ण करेति ण कारवेति मणसा वायाए कारण १, अहवा न करेति करेंतं नाणुजाणति मणसा ३-२, अहवा ण कारवेति करेंतं नाणुजाणति मणसा ३-३, एते तिण्णि भंगा दुविहं तिविहेण लद्धा । दुविहं दुविहेण न करेति न कारवेति मणसा वायाए १, अहवा ण करेति ण कारवेति मणसा कारण २, अहवा ण करेति न कारवेति वायाए कारण ३, अहवा ण करेति करतं नाणुजाणति मणसा वायाए ४, 5 अहवा ण करेति करतं नाणुजाणति मणसा काएण ५, अहवा ण करेति करतं नाणुजाणति वयसा काएण ६, अहवा ण कारवेति करंतं नाणुजाणति मणसा वायाए ७, अहवा ण कारवेति करतं नाणुजाणति मणसा काएण ८, अहवा न कारवेति करतं नाणुजाणति वायाए कारणं ९, एते नव भंगा दुविहं दुविहेण लद्धा । दुविहं एक्कविहेणं-ण करेति न कारवेति मणसा १, अहवा न करेति न कारवेति वायाए २, अहवा न करेति न कारवेति काएणं ३, अहवा ण करेति करतं ण समणुजाणति मणसा ४, अहवा ण करेति करेंत नाणुजाणति वायाए ५, अहवा ण करेति करेंतं नाणुजाणति 10 कारण ६, अहवाण कारवेति करेंतं नाणुजाणति मणसा ७, अहवाण कारवेति करेंतं नाणुजाणति वायाए ८, अहवा ण कारवेति करेंतं णाणुजाणति कारण ९, एते णव भंगा दुविहं एक्कविहेण लद्धा । एक्कविहं तिविहेण-ण करेति मणसा वायाए कारण १, अहवाण कारवेति मणसा ३-२, अहवा करतं नाणुजाणति मणसा ३-३, एते तिण्णि भंगा एक्कविहं तिविहेण लद्धा । एक्कविहं दुविहेणं-ण करेति मणसा वायाए १, अहवा ण करेति मणसा कारण २, अहवा ण करेति वायाए काएणं ३, अहवा ण कारवेति मणसा वायाए ४, अहवा ण कारवेति मणसा काएणं ५, अहवा ण 15 कारवेति वाताए काएणं ६, अहवा करेंतं नाणुजाणति मणसा वायाए ७, अहवा करेंतं नाणुजाणति मणसा काएणं ८, अहवा करेंतं नाणुजाणति वायाए काएणं ९, एते णव भंगा एक्कविहं दुविहेण लद्धा । एक्कविहं एक्कविहेण-ण करेति मणसा १, अहवा ण करेति वायाए २, अहवा ण करेति कारणं ३, अहवा ण कारवेति मणसा ४, अहवा न कारवेति वायाए ५, अहवा ण कारवेति काएणं ६, अहवा करेंतं नाणुजाणति मणसा ७, अहवा करेंतं नाणुजाणति वायाए ८, अहवा करेंतं नाणुजाणति कारणं ९, एते णव भंगा एक्कविहं एक्कविहेण लद्धा । 20 एते सव्वे वि संकलिजंति-तिविहं अमुयंतेहिं सत्त लद्धा, दुविहं तिविहेण तिण्णि, एते संकलिता जाता दस । दुविहं दुविहेण णव लद्धा, ते दससु पक्खित्ता जाता एकूणवीसं । दुविहं एक्कविहेण णव लद्धा, ते एगूणवीसाए पक्खित्ता जाता अट्ठावीसं । एक्कविहं तिविहेण तिण्णि अट्ठावीसाए पक्खित्ता जाता एक्कतीसा । एक्कविहं दुविहेण णव लद्धा एक्कतीसाए पक्खित्ता जाता चत्तालीसं । एक्कविहं एक्कविहेण णव चत्तालीसाए पक्खित्ता जाता एगूणपण्णा । एते पडुप्पण्णं संवरेति, एगूणपण्णा अतीतं जिंदति, एते चेव तहा अणागतं पञ्चक्खाति, तिण्णि एगूण-95 पण्णातो सत्तयत्तालं भंगसतं १४७॥ एत्थ पढमभंगो साधूण जुजति तेण अधिकारो, सेसा सावगाणं संभवतो उच्चारितसरूव ति परूवणं । पाणातिवातपञ्चक्खाणं सविकल्पं भणितं । अयं तु प्राणिविकल्पः-से सुहुमं वा वातरं वा तसं वा थावरं वा, से इति वयणाधारण अप्पणो निद्देसं करेति, सोऽहमेव अन्भुवगम्म कतपञ्चक्खाणो सुहुमं अतीव अप्पसरीरं तं वा, वातं रातीति वातरो महासरीरो तं वा । उभयं एतदेव पुणो विकप्पिजति-तसंवा "त्रसी उद्वेजने" त्रस्य-30 तीति त्रसः तं वा, थावरो जो थाणातो ण विचलति तं वा, वासद्दो विकप्पे, सव्वे पगारा ण हंतव्वा । वेदिका पुण "क्षुद्रजन्तुषु णत्थि पाणातिवातो" ति एतस्स विसेसणत्थं सुहुमातिवयणं । जीवस्स असंखेजपदेसत्ते सव्वे सुहुम-बायरविसेसा सरीरदव्वगता इति सुहुम-बायरसंसद्दणेण एगग्गहणे समाणजातीयसूतणमिति । केति सुत्तमिमं पढंति केति वृत्तिगतं विसेसिंति, जहा-सेत पाणातिवाते चतुविहे, तं०दव्वतोखेत्ततो कालतो भावतो। दव्वतो छक्कायसरीरदव्वोवरोहो संभवति अतो दव्वतो छसु जीवनिका-35 १ "एते तिन्नि वि ५-६-७ भंगा पायसो सुण्णा" इति वृद्धविवरणे ॥ दस० सु. ११ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [चउत्थं छज्जीवणियझयणं एसु । सव्वलोगगतो पाणातिवातसंभवो ति खेत्ततो सव्वलोगे। कालविकप्पो अयमेवेति कालओ दिया वा राओ वा । मंसादीगेहीए गेहाणुमारणं वा रागेण वेरियमारणं दोसेणं ति भण्णति-भावतो रागेण वा दोसेण वा । राग-दोसविरहितस्स सत्तोवघाते भावतो पाणातिवातो ण भवति, जेण दव्वतो नामेके पाणातिवाते णो भावतो, चतुभंगो सणिदरिसणो जहा दुमपुप्फिताए[ पत्र १२ ]। तं एवंप्रकारं पाणातिवातं ते वा सुहुमादिविकप्पे णेव सतं उपाणे अतिवातेमि,णेवण्णेहिं पाणे अतिवायावेमि, पाणे अतिवातंते वि अण्णे ण समणुजाणामि, जावजीवाए तिविहं तिविहेण, मणसा वयसा कायसा ण करेमिण कारवेमि करेंतं पि अण्णं ण समणुजाणामि, तस्स भंते पडिकमामि गिंदामि गरहामि अप्पाणं वोसिरामि । एतेर्सि पदाणं विवरणं जहा आदौ । फलं-पाणातिवाते पसत्ताणं इहैव गरहा पचवायजोगो परलोगे दोग्गतिगमणं, एतदुभतं पाणातिवातविरताणं न भवति । महव्वतादौ पाणातिवाताओ वेरमणं पहाणो मूलगुण इति, जेण अहिंसा परमो 10 धम्मो, सेसाणि महन्वताणि एतस्सेव अत्थविसेसगाणीति तदणंतरं । क्रमपडिनिग्गमणत्थं पहुच्चारणमुक्तार्थस्यपढमे भंते ! महवते पाणातिवातातो वेरमणं ॥११॥ कातोपरोहाणंतरं सेसदोससव्वाणुगामी मुसावातदोसा इति भण्णति४३. आहावरे दोचे भंते ! महन्वते उवद्वितो मि मुसादातातो वेरमणं, सव्वं भंते! मुसावातं पच्चक्खामि, से कोहा वा लोभा वा भता वा हासा वा। [से ये मुसावाते चउन्विहे, तं०-दव्वतो एक । दव्वतो सव्वदव्वेसु, खेत्ततो लोगे वा अलोगे वा, कालतो दिया वा रातो वा, भावतो कोहेण वा लोभेण वा भतेण वा हासेण वा । ] वे सतं मुसं वएमि, णेवऽण्णेहिं मुसं वायावेमि, मुसं वयंते वि अण्णे ण समणुजाणामि, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणसा वयसा कायसा ण करेमि ण कारवेमि करेंतं पि अण्णं ण समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिक्कमामि जिंदामि गरहामि अप्पाणं वोसिरामि । दोच्चे भंते ! महवते मुसावातातो वेरमणं ॥ १२ ॥ ४३. आहावरे दोचे भंते! महव्वते उवहितो मि मुसावातातो वेरमणं । अहसदो अणेगेसु अत्थेसु, इह अणंतरताए, पाणातिवातवेरमणाणंतरं, अवरसद्दो अण्णत्ते, पाणातिवाता पिहं, दोचे बितीए भंते !, सेसं जहा पाणातिवातवेरमणे । विसेसो-असावातो तिविहो, तं०-सन्भावपडिसेहो १ अभूतुब्भावणं २ अत्यंतरं ३ । 25 सम्भावपडिसेहो जहा 'नत्थि जीवे' एवमादि १ । अभूतुब्भावणं 'अस्थि, सव्वगतो पुण' २। अत्यंतरं गावं महिसिं भणति एवमादि ३ । मुसावातवेरमणे कारणाणीमाणि-से कोहा वा लोभा वा भता वा हासा वा, १°काएर्थस्य मूलादर्शे । प्रत्युञ्चारणं उक्तार्थस्य ॥ २ अहावरे अचू० विना । एवमग्रेऽपि महाव्रतालापकेषु क्षेयम् । ३ ध्वए मुसावायाओ अचू. विना ॥ ४ दृश्यतां पत्रं ८. टि. ४॥ ५ नेव सयं मुसं वएजा नेवऽन्नेहिं मुसं वायावेजा मुसं वयंते वि अनेन समणुजाणामि, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेण, मणेणं वायाए कारणं अचू. विना। समणुजाणामि स्थाने समणुजाणेजा शु०॥ ६ व्वए उवढिओ मि सव्वाओ मुसावायाओ अचू० विना ॥ ७ "तत्थ मुसावाओ चउबिहो, तं.-सब्भावपडिसेहो १ असन्भू युब्भावणं २ अत्यंतरं ३ गरहा ४ । तत्थ 'सम्भावपडिसेहो णाम' जहा णत्यि जीवो नत्थि पुण्णं नस्थि पावं नत्थि बंधो पत्थि मोक्खो एवमादी १ । 'असन्भूयुभावणं नाम' अत्थि जीवो [ सव्वगतो] सामागतंदुलमेत्तो वा एवमादी २। 'पयत्यंतरं नाम' जो गाविं भणइ ‘एसो आसो' त्ति ३ । 'गरहा णाम' "तहेव काणं काणि ति" [दश० अ० ७ गा० ११ ] एवमादि ४।" इति वृद्धविवरणे। श्रीहरिभद्रसूरिपादैरपि वृत्तौ "मृषावादश्चतुर्विधः" इत्यादिप्रन्थसन्दर्भेण वृद्धविवरणानुसार्येव व्याख्यातमस्ति । Jain Education Intemational Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तं ४३-४४] दसकालियसुत्तं । "दोसा विभागे समाणासता" इति कोहे माणो अंतग्गतो, एवं लोभे माता, भत-हस्सेसु पेज-कलहादतो सविसेसा। एते भावो त्ति दव्व-खेत्त-कालसूयणमवीति भण्णति-से य मुसावाते चउविहे, तं-दश्वतो ऐक । सव्वदव्वगतं विसंवादणं ति दवतो सव्वदव्वेसु, लोगमण्णहा थितमण्णहा पण्णवेज, अलोगे वा संति जीवादत इति एवं संभवो त्ति भण्णति-खेत्ततो लोगे वा अलोगे वा । अयमेव कालसंभव इति कालतो दिया वा रातो वा । भावतो कोहेण अब्भक्खाणं देज एवमादि । दबतो णाम एगे मुसावाते नो भावतो चउभंगो। संभवो । से मारणभएणं लिक्क दिट्ठमवि अदिहें भणति एस दव्वतो ण भावतो मुसावातो १। मुसावातववसितस्स खलिएण सब्भाववयणमागतं एस भावतो ण दव्वतो २ । मुसावातपरिणतो मुसं वदति एस दव्वतो भावतो य ३ । चउत्थो सुण्णो ४ । तस्स भासणे दोसा-अविस्सासो गरहा जिन्भच्छेदणाईया इह, परलोए य दोग्गती, अभासणे पुजता विस्सासो परलोगे सुगतिगमणं । दोचे भंते! महन्वते मुसावातातो वेरमणं ॥१२॥ ४४. आहावरे तच्चे भंते! महव्वते उवट्ठितो मि अदिण्णादाणातो वेरमणं, 10 सव्वं भंते ! अदिण्णादाणं पञ्चक्खामि, से अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अच्चित्तमंतं वा । [से त अदिण्णादाणे चतुव्विहे पण्णत्ते, तं० दव्वतो एक । दव्वतो अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अच्चित्तमंतं वा, खेत्ततो गामे वा णगरे वा अरण्णे वा, कालतो दिया वा रातो वा, भावतो अप्पग्घे वा महग्धे वा । ] णेवँ सतं अदिण्णं गेण्हेमि, 15 णेवऽण्णेहिं अदिण्णं गेण्हावेमि, अदिण्णं गेहंते वि अण्णे न समणुजाणामि, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेण, मणसा वयसा कायसा ण करेमि ण कारवेमि करेंतं पि अण्णं ण समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरहामि अप्पाणं वोसिरामि । तच्चे भंते ! महवते अदिण्णादाणातो वेरमणं॥१३॥ ४४. आहावरे तच्चे भंते! महत्वते उवद्वितो मि अदिण्णादाणातो वेरमणं । अदिण्णादाणं 30 परेहिं परिग्गहितस्स वा अपरिग्गहितस्स वा अणणुण्णातस्स गहण[म]दिण्णादाणं । सव्वं तहेव । दव्यतो-अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा [अच्चित्तमंतं वा] । अप्पं परिमाणतो मुलतो वा, परिमाणतो जहा एगा सुवण्णा गुंजा, मुलतो कवड्डितामुलं वत्थु । बहुं परिमाणतो मुलतो वा, परिमाणतो सहस्सपमाणं, मुलतो एक्कं वेरुलितं । अणुं तण-सुगादि, थूलं कोयवगादी । चित्तमंतं गवादि । अचित्तमंतं करिसावणादी। खेत्ततो गामे वा णगरे वा अरण्णे वा गेण्हेजा । कालतो दिया वा रातो वा। भावतो अप्पग्धं 25 १दोषा विभागे समानाशयाः, अयं भावः-विभागे कृते सति समानाशया दोषा अन्तर्भवन्त्येवेति ते गृह्यन्त इत्यर्थः ॥ २ क इति चतुःसंख्याद्योतकोऽक्षराङ्कः॥ ३'लिङ्क निलीनं यं कमपि मृगादिप्राणिनमित्यर्थः ॥ ४ व्यते अदिण्णादाणाओ अचू० विना ॥ ५ क्वामि, से गामे वा गरे वा रणे वा अप्पं वा अचू० विना ॥ ६ दृश्यता - पत्रं ८० टिप्पणी ४ ॥ ७ नेव सयं अदिन्नं गेण्हेज्जा, नेवऽन्नेहिं अदिन्नं गेण्हावेजा, अदिन्नं गेण्हते वि अन्ने न समणुजाणामि, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेण, मणेणं वायाए कारणं न करेमि अचू० विना । समणुजाणामि स्थाने समणुजाणेजा शु०॥ ८ व्वते उवढिओ मि सवाओ अदिनादाणाओ अचू० विना ॥ ९"अप्पं परिमाणओ मुलओ य। तत्थ परिमाणओ जहा एगं एरंडकट्ठ एवमादि, मुल्लओ जस्स एगो कवाओ पु(24)णो वा मुलं । वहुं नाम परिमाणओ मुल्लओ य, परिमाणओ जहा तिण्णि चत्तारि वि वइरा वेरुलिया, मुलओ एग मे(? ३)रुलियं महामोल्लं । अणं मूलगपत्तादी अहवा कटुं कलिंच वा एवमादि । थूलं सुत्रष्णखोडी वेरुलिया वा उवगरणं।" इति वृद्धविवरणे ॥ १० तृणसच्यादि ॥ ११ रूतपूर्णवस्त्रप्रावरणविशेषः ॥ १२ कार्षापणादि ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [चउत्थं छज्जीवणियज्झयणं वा पलालादिं महग्धं वा सुवण्णगादी । एत्थ दव्वतो नामेगे अदिण्णादाणं गेण्हिज्जा णो भावतो चउभंगो । संभवो से दबतो णो भावतो जहा-तण-सुगादी साधू अणाभोगेण अणणुण्णवितं गेण्हेज १ । चोरो खण्णमुहेण पविट्ठो न किंचि लद्धं एतं भावतो अदिण्णं ण दव्वतो २ । अण्णेण तहेव लद्धं एतं उभयहा ३ । चउत्थभंगो सुण्णो ४ । अदत्तस्स उपादाणे दोसा-इहलोगे गरहमादीणि परलोए दोग्गतीगमणं । विरतस्स एताणि ण भवंतीति ॐ गुणः । तच्चे० ॥१३॥ ४५. आहावरे चउत्थे भंते ! महब्वए उवद्वितो मि मेहुणातो वेरमणं, सव्वं भंते ! मेहुणं पञ्चक्खामि । से दिव्यं वा माणुसं वा तिरिक्खजोणितं वा । [से य मेहुणे चउबिहे पण्णत्ते, तं०-दन्वतो टू । दव्वतो रूवेसु वा रूवसहगतेसु वा दव्वेसु, खेत्ततो उड्डलोए वा अहोलोए वा तिरियलोए वा, कालतो दिया वा रातो वा, भावतो रागेण वा दोसेण वा । ] णे सतं मेहुणं सेवेमि, णेवऽण्णेहिं मेहुणं सेवावेमि, मेहुणं सेवंते वि अण्णे ण समणुजाणामि, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेण, मणसा वयसा कायसा ण करेमि ण कारवेमि करेंतं पि अण्णं ण समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिक्कमामि जिंदामि गरहामि अप्पाणं वोसिरामि । चउत्थे भंते ! मेहव्वते मेहुणातो वेरमणं ॥ १४ ॥ ४५. आहावरे चउत्थे भंते ! महत्वए उवहितो मि मेहुणातो वेरमणं । से दिवं वा माणुसं वा तिरिक्खजोणितं वा। तं पुण विभागेण चउहा-दश्चतो है। दवतो रुवेसु वा रूवसहगतेसु वा दबेसु, रूवं पडिमा मयसरीरादि, ख्वसहगतं सजीवं, अहवा रूवं आभरणविरहितं, रूवसहगतं आभरणसहितं । खेत्ततो उड्डलोए पचत-देवलोगादिसु अहोलोए गड्डादिसु तिरियलोए दीव-समुदेसु । कालतो दिया वा रातो वा । भावतो रागेण वा दोसेण वा, रागेण मयणुब्भवेण, दोसेण 20 जहा वेरियस्स भन्नं वा कुमारिं वा विणासेति, एत्थ दोसपुब्बे वि रागो भवति । तं पि दव्यतो सेवेजा नो भावतो एस सुण्णो, जतो भावं विणा ण संभवति । किंचकामं सव्वपदेसु वि उस्सग्ग-ऽववातधम्मता दिट्ठा । मोत्तुं मेहुणभावं ण विणेसो राग-दोसेहिं ॥१॥ कल्पभाष्ये गा० ४९४४] इत्थीए पुण बला सेविजमाणीए संभवति १ । जं पुण भावतो ण दव्वतो तं मेहुणसण्णापरिणतस्स असं25 पत्तीए २ । दव्वतो वि भावतो वि मेहुणसण्णापरिणतस्स संपत्तीए ३ । चउत्थो भंगो सुण्णो ४ । एतस्स णिसेवणे दोसा-इहभवे परदारगमणातिसु मारणादतो; राग-दोसा संसारकारणं, तेसिं कारणं मेहुणं, अतो परलोगे दोसाययणं परमं मेहुणं । चउत्थे भंते ! महत्वते मेहुणातो वेरमणं ॥१४॥ १ तृण-सूच्यादि ॥ २ व्वए मेहुणाओ अचू० विना ॥ ३ दृश्यतां पत्रं ८० टिप्पणी ४ ॥ ४ नेव सयं मेहुणं सेवेजा, नेवऽन्नेहिं मेहुणं सेवावेजा, मेहुणं सेवंते वि अन्ने न समणुजाणामि, जावजीवाए तिविहं तिमिहेणं, मणेणं वायाए कारणं न करेमि अचू० विना। समणुजाणामि स्थाने समणुजाणेजा शु०॥ ५°ब्बए उवढिओ मि सन्बाओ मेहुणाओ अचू० विना ॥ ६व इति चतुःसंख्याद्योतकोऽक्षराङ्कः ॥ Jain Education Intemational Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तं ४५-४७] इसकालियसुत्तं । ४६. आहावरे पंचमे भंते ! महव्वए उछितो मि परिग्गहातो वेरमणं, सव्वं भंते ! परिग्गरं पञ्चक्खोमि, से गामे वा णगरे वा अरण्णे वा । [से य परिग्गहे चउविहे पण्णत्ते, तं०-दव्वतो खेत्तो कालतो भावतो। दव्वतो सव्वदव्वेहिं, खेत्ततो सव्वलोए, कालतो दिया वा गयो वा, भावतो अप्पग्घे वा महग्घे वा । ] णेव सतं परिग्गहं परिगिण्हेमि, णेऽण्णेहिं परिग्गहं परिगेण्हावेमि, परिग्गहं परिगिण्हते वि अण्णे ण समणुजाणामि, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणसा वयसा कायसा ण करेमि ण कारवेमि करेंतं पि अण्णं ण समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरहामि अप्पाणं वोसिरामि । पंचमे भंते ! महवैए परिग्गहातो वेरमणं ॥ १५ ॥ ४६. आहावरे पंचमे भंते ! महत्वए उचट्टितो मि परिग्गहातो वेरमण०, से गामे वा णगरे 10 वा अरण्णेवा, सेसं तहेत्र । दश्चतो खेत्ततो कालतो भावतो। दवतो सन्बदन्वेहिं मुत्ता-ऽमुत्त[दव्य समुदतो लोगो त्ति तं अणियत्ततण्हो पत्थेति । खेत्ततो सवलोए सव्वं खेत्तमधिकरेति । कालनो दिया वा रायो वा। ममयादि भावतो अप्पग्धं वा महग्धं वा ममाएजा । दव्वतो णामेगे परिग्गहे णो भावतो चउभंगो । पढमो भंगो साहूणं मुच्छं अगच्छंताण दव्वतो णो भावतो, परिग्गहं उवरिंभण्णिहीति "ण सो परिग्गहो वुत्तो."[ अध्य० ६ गा० २०] १। बितियभंगो मुच्छित-गढितस्स असंपत्तीए २ । [ततिओ भंगो मुच्छित-गढितस्स संपत्तीए ३ । ] चउत्थो भंगो 15 सुण्णो ४ । एत्थ दोसो सपरिग्गहो तक्कणीतो सव्वतो य संकितो भवति, रक्खणादीहिं णेब्बुतिं ण लभति, परलोए तहाभूतस्स दोग्गतीगमणं । सर्वास्रवद्वारप्रत्यपायदर्शनार्थं भगवतोपास्वातिनाऽभिहितम्-"हिंसादिष्विहामुत्र चापायाऽवद्यदर्शनम्" [तत्त्वा० ७-४ ] “दुःखमेव वा” [तत्त्वा० ७-५] "व्याधिप्रतीकारत्वात् कण्ड्रपरिगतवच्चाब्रह्म." [तस्वा० ७-५ सूत्रभाष्ये] "परिग्रहेष्वप्राप्तनष्टेषु काङ्क्षा-शोको प्राप्तेषु च रक्षणं उपभोगे चाप्यतृप्तिः" [तत्वा० ७-५ सूत्रभाष्ये]। पंचमे भंते ! महव्वए परिग्गहातो वेरमणं ॥ १५ ॥ ४७. आहावरे छठे भंते! वते उवट्टितो मि रातीभोयणाओ वेरमणं, सव्वं भंते! रातीभोयणं पञ्चक्रवामि, से असणं वा पाणं वा खादिम वा सादिमं वा । [ से त रातीभोयणे चउव्विहे पण्णत्ते, तं०-दव्वतो खेत्ततो कालतो भावतो । दव्वतो असणे वा पाणे वा खादिमे वा सादिमे वा, खेत्ततो समयखेत्ते, कालतो राती, भावतो तित्ते वा कडुए वा कसाए वा अंबिले वा महुरे वा लवणे वा । ] णेवं 25 90 १०व्वए परिग्गहाओ अचू० विना ॥ २'क्खामि, से अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा नेव सयं परिग्गहं परिगिण्हेजा, नेवऽन्नेहिं परिग्गहं परिगिण्हावेजा, परिग्गहं परिगिण्हते वि अन्ने न समणुजाणामि, जावजीवाए तिविहं तिविहेण, मणेणं वायाए कारणं अचू० विना । समणुजाणामि स्थाने समणुजाणेजा शु० ॥ ३ दृश्यतां पत्रं ८० टिप्पणी ४ ॥ ४ व्वए उवढिओ मि सव्वाओ परिग्गहाओ अचू० विना ॥ ५ भंते! वए राईभो खं १-२-४ जे. शु० वृद्ध० हाटी• । भंते! महब्बते राईभो' खं ३ ॥ ६ दृश्यतां पत्रं ८० टिप्पणी ४ ॥ ७ नेव सयं राइं भुंजेजा, नेवऽन्नेहिं राई भुंजावेजा, राई भुंजते वि अन्ने न समणुजाणामि, जावजीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं न करेमि अचू० विना । समणुजाणामि स्थाने समणुजाणेजा शु० ॥ Jain Education Interational Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्जुित्ति-चुण्णिसंजुयं [चउत्थं छज्जीवणियज्झयणं सतं रातीभोयणं भुंजेमि णेवऽण्णेहिं रातीभोयणं मुंजावेमि रातीभोयणं भुजंते वि अण्णे ण समणुजाणामि, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेण, मणसा वयसा कायसा ण करेमि ण कारवेमि करेंतं पि अण्णं ण समणुजाणामि, तम्स भंते ! पडिक्कमामि जिंदामि गरहामि अप्पाणं वोसिरामि। छठे भंते ! वते रातीभोयणातो वेरमणं ॥ १६ ॥ ४७. आहावरे छटे० तहेव । तं चउन्विहं-दव्यतो खेत्ततो कालतो भावतो । दव्वतो असणं वा ४ । ओदणादि असणं, मुदितापाणगाती पाणं, मोदगादी खादिम, पिप्पलिमादि सादिमं । खेत्ततो समयखेत्ते समतो-कालो सो जम्मि तं समतखेत्तं, तं पुण अड्डाइजा दीव-समुद्दा, एत्थ असणादिसंभवो । रातीभोयणपडिसेहो त्ति कालतो राती। भावतो तित्ते वा कडए वा एवमादि । एत्थ वि दव्व-भावचउभंगो दव्वतो 10रातीभोयणं णो भावतो जहा-उग्गमितो सूरितो अणत्यमितो व त्ति अरत्तदुट्ठो साधू मुंजेजा आगाढे वा कारणे १। भावतो णो दब्बतो अणहियासस्स अणुग्गते भोतव्वववसियस्स मेघादिव्यवहिते उद्विते भुंजंतस्स २। दव्वतो भावतो वि आउत्तिताएं रातिं भुजंतस्स ३ । चउत्थभंगो सुण्णो ४ ॥१६॥ ४८. इच्चेताणि पंच महव्वताणि रातीभोयणवेरमणछट्ठाणि अत्तहियट्ठताए उवसंपज्जित्ताणं विहरामि ॥ १७ ॥ 15 ४८. इतिसद्दो परिसंमत्तिविसतो । एताणीति अणंतरोववण्णिताण पच्चक्खीकरणं । पंचेति वित्थरस्स नियमे ववत्थावणं । महव्वताणीति भणितं । रातीभोयणवेरमणछट्ठाई रातीभोयणवेरमणं छठें जेसिं ताणि महत्वताणि मूलगुणा, तेसु पढिजति त्ति मूलगुणो पंच महब्बताणि, “रातीभोयणवेरमणछट्ठाणी"ति पाढेण सूतिजति उत्तरगुणो, एतं संदेहकारणमुपादाय चोदगो भणति-किं रातीभोयणं मूलगुण उत्तरगुणः ?, गुरवो भणंति-उत्तरगुण एवायं, तहावि सव्वमूलगुणरक्खाहेतु त्ति मूलगुणसंभूतं पढिजति । रातीभोयणवेरमणछट्ठाणि य 20 पढिजंति महब्वताणि । अत्तहियट्ठताए अप्पणो हितं जो धम्मो मंगलमिति भणितो तदहें उवसंपजित्ताणं विहरामि "समानकर्तृकयोः पूर्वकाले" [पाणि० ३।४।२१] इति 'उपसंपद्य विहरामि' महव्यताणि पडिवजंतस्स वयणं, गणहराणं वा सूत्रीकरेंताणं ॥ १७ ॥ समारोपितमहन्वतस्स तेसिं पडिवालणट्ठा जयणा भण्णति---- ४९. से भिक्खू वा भिक्षुणी वा संजत-विरत-पडिहत-पच्चक्रवातपावकम्मे दिता वा राँतो वा सुत्ते वा जागरमाणे वा एगतो वा परिसागतो वा, से पुढविं 28 वा भित्तिं वा सिलं वा लेलुं वा ससरक्खं वा कायं ससरक्वं वा वत्थं हत्थेण वा १भंते! वए उवट्टिओ मि सव्वाओ राईभी अचू : विना। वए स्थाने महब्बए खं ३॥ २ मृदीका द्राक्षा ॥ ३०॥ ठाति मूलादर्श ॥ ४ एतत्सूत्रानन्तरं जे. आदर्श पंच महब्वया सम्मत्ता इति, ख १ आदर्श न महव्वयाणि समत्ताणि इति च पुष्पिका वर्तते ॥५ समिति" मूलादर्श ॥६“छट्टे भंते! वए उवट्रिओ मि सवाओ राइभोयणाओ वेरमणं । एत्य सीमो आहपंच महब्वयाणि जिगपवयणे पसिद्धाणि, तो किमेयं राईभोयणं महबएम वणिजमाणेम भणिय ? ति। आयरिओ आह-पुरिम-पच्छिमगाण जिणवराणं काले पुरिसविसेसं पप्प पट्टवियं, तत्थ पुरिमजिणकाले पुरिमा उजु-जडा, पच्छिमजिणकाले पुरिसा वंक-जडा, अतो निमित्तं महव्वयाग उरि ठवियं, जेण तं महव्वयमित्र मन्नता ण पिल्लेहिति; मज्झिमगाणं पुण एवं उत्तरगुणेसु कहियं, किं कारण ! जेण ते उजु-पण्णत्तणेण मुहं चेत्र परिहरंति।" इति वृद्धविवरणे ॥ ७ राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा, से पुढवि खं १.२-३-४ जे. शु० हाटी। वृद्धविवरणे तु अगस्त्यसिंहमान्य एव पाठोऽम्ति ॥ ८ हत्थेण वा पापण वा कटेण वा कलिंचेण वा अंगुलियाए वा सलागाए वा सलागहत्थेण वा न आलि सं १-२.३.४ जे० शु. हाटी । वृद्धविवरणे तु अगस्त्यचूर्णिसम एव कमो वर्तते । केवलं तत्र सलागहत्थेण वा इति पदं व्याख्यातं वर्तते ॥ Jain Education Intemational Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तं ४८-५०] दसकालियसुत्तं । पादेण वा अंगुलियाए वा सलागाए वा कट्टेण वा कलिंचेण वा णोऽऽलिहेजा ण विलिहेज्जा ण घट्टेजा ण भिंदेजा, अण्णं णोऽऽलिहावेज्जा ण विलिहावेजा ण घट्टावेज्जा ण भिंदावेज्जा, अण्णं पि आलिहंतं वा विलिहतं वा घटुंतं वा भिदंतं वा ण समणुजाणामि, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेण, मेणसा वयसा कायसा ण करेमि ण कारवेमि करेंतं पि अण्णं ण समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिक्कमामि जिंदामि गरहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥१८॥ ४९. से भिक्खू वा० सुत्तं । से इति पडिसमासवतणं, जस्स एताणि वताणि उद्दिवाणि से भिक्खू वा। जातिसद्देणं विकप्पणत्यं भण्णति -भिक्खुणी वा। संजतविरत०, संजतो एक्कीभावेण सत्तरसविहे संजमे ठितो, अत एव यः पावेहितो विरतो पडिनियत्तो, पडिहतं णासितं, पञ्चक्खातं णियत्तियं, पावकम्मसद्दो पत्तेयं परिसमप्पति, पडिहतं पावकम्मं पावं । सव्वकालितो णियमो ति कालविसेसणं-दिता वा रातो10 वा सव्वदा । चेट्ठाऽवत्यंतरविसेसणत्थमिदं-सुत्ते वा जहाभणितनिद्दामोक्खत्यसुत्ते जागरमाणे वा सेसं कालं । परनिमित्तमाकुलं रहो वा तं विसेसिज्जति–एगतो वा एगत्तणं गतो परिसागतो वा परिसा-जणसमु'दतो तग्गतो वा । तस्सेव विसेसितस्स जं न करणिजं तदिदमुपदिस्सति-से पुढविं वा० । से इति वयणोवण्णासे । पुढवी सक्करादीविकप्पा । भित्ती णदी-पव्वतादितडी, ततो वा जं अवदलितं । सिला सवित्यारो पाहणविसेसो । लेलू मट्टियापिंडो । सरक्खो पंसू, तेण अरण्णपंसुणा सहगतं ससरक्खं, तं ससरक्खं वा 15 कार्य, काय इति सरीरं । वत्थं खोमिकादि । पुढविकातियजयणा एवमिति भण्णति-हत्थेण वा । हत्थो पाणी । पादो चरणो । अंगुली हत्थेगदेसो । सलागा कट्ठमेव घडितगं । अघडितगं कहूँ । कलिंचं तं चेव सण्हं । एतेहिं करणभूतेहिं पुढवियादीणि णाऽऽलिहेजा, णगारो पडिसेहगो, तेसिं आलिहणादि पडिसेहेति । ईसिं लिहणमालिहणं । विविहं लिहणं [विलिहणं]। घट्टणं संचालणं । भिंदणं भेदकरणं । सयं तावदेवं । णो वि अण्णं आलिहावेजा वा० एतं कारवणं । अण्णं पि आलिहंतं ण समणुजाणामीति अणुमोदणं 20 पडिसिद्धं । जावज्जीवाए जाव वोसिरामि पुज्वभणितं ॥१८॥ एसा पुढविकातियजतणा । आउक्कातियजतणापरूवणत्थं भण्णति५०. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजत-विरत-पडिहत-पञ्चक्खातपावकम्मे दिता वा राँतो वा सुत्ते वा जागरमाणे वा एगतो वा परिसागतो वा, से उदगं वा तोरसं वा हिमं वा महितं वा करगं वा हरतणुगं वा सुद्धोदगं वा 25 उदओल्लं वा कातं उदओल्लं वा वत्थं ससणिद्धं वा कातं ससणिद्धं वा वत्थं ण आमुसेज्जा ण सम्मुसेज्जा ण आपीलेज्जा ण निप्पीलेज्जा ण अक्खोडेजा ण पक्खोडेजा ण आतावेज्जा ण पतावेज्जा, अण्णं ण आमुसावेज्जा ण १ किलिंचेण खं १-२-३ ॥ २-३ न आलि खं ४ जे० ॥ ४ जाणेजा खं ३ शु० वृद्ध० हाटी० ॥ ५मणेणं वायाए कापणं खं १-२-३-४ जे. शु०॥ ६ "विरओ णाम अणेगपगारेण बारसविहे तवे रओ" इति वृद्ध० ॥ ७ दृश्यता पत्र ८६ टिप्पणी ॥ ८ ओसं वा अचू० बिना ॥ ९ तणुं वा ख १-३ ॥ १०-११ उदउल्लं खं २-३-४ जे० ॥ १२ संफुसेजा न आवीलेजान पवीलेजाण अक्खो अचू० विना ।। Jain Education Interational Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [चउत्थं छज्जीवणियज्झयणं सम्मुसावेजा ण आपीलावेज्जा ण निप्पीलावेज्जा ण अक्खोडावेज्जा ण पक्खोडावेजा ण आतावेज्जा ण पतावेज्जा, अण्णं पि आमुसंतं वा सम्मुसंतं वा आपीलंतं वा निप्पीलंतं वा अक्खोडेतं वा पक्खोडेंतं वा आतावेंतं वा पतावेंतं वा ण समणुजाणेज्जा, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेण, मँणसा वयसा कायसा ण करेमि ण कारवेमि करेंतं पि अण्णं ण समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिक्कमामि जिंदामि गरहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ १९ ॥ ५०. से भिक्खू वा० । से उदगं वा नदी-तलागादिसंसितं पाणियमुदगं । सरयादौ णिसि मेघसंमवो सिणेहविसेसो तोस्सा । अतिसीतावत्थंभितमुदगमेव हिमं । पातो सिसिरे दिसामंधकारकारिणी महिता । वरिसोदगं कैढिणीभूतं करगो। "किंचि सणिद्धं भूमि भेत्तूण कहिंचि समस्सयति सफुसितो सिणेहवि10सेसो हरतणुतो । अंतरिक्खपाणितं सुद्धोदगं । एतेहिं उदगादीहि तोलं उदओल्लं वा कातं सरीरं, उद ओल्लं वा वत्थं, ओल्लं जं सबिंदुगं । ससणिद्ध[म] बिंदुगं ओलं ईसिं । तमेवंगतं कातं वत्यं वा ण आमुसेज्जा ईसि मुसणमामुसणं। समेच मुसणं सम्मुसणं। ईसिं पीलणमापीलणं । अधिकं पीलणं निप्पीलणं । एवं खोडणं अक्खोडणं । भिसं खोडणं पक्खोडणं । ईसिं तावणमातावणं । प्रगतं तावणं पतावणं । एताई सयं ण करेजा, परेण ण कारेजा, अण्णं पि नाणुजाणेज्जा, जाव वोसिरामि ॥ १९ ॥ 18 आउक्कायजयणाणंतरं तेउजयणत्थं भण्णति ५१. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजत-विरत-पडिहत-पच्चक्खातपावकम्मे दिता वा रौतो वा सुत्ते वा जागरमाणे वा एगतो वा परिसागतो वा, "से इंगालं वा मुम्मुरं वा अच्चिं वा अलातं वा जालं वा उक्कं वा सुडागणिं वा, ण उंजेज्जा ण 'घंटेजा ण उज्जालेजा ण निवावेज्जा, अण्णं ण उंजावेज्जा ण घट्टावेज्जा ण उज्जालावेज्जा ण निबावेजा, अण्णं पि उंजंतं वा घटुंतं वा उज्जालंतं वा निव्वावंतं वा ण समणुजाणेज्जा, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेण, मणसा वयसा कायसा ण करेमि ण कारवेमि करेंतं पि अण्णं ण समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिक्कमामि जिंदामि गरहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ २० ॥ १संफुसावेजा न आवीलावेजा न पवीलावेजा न अक्खों अचू० विना ॥ २ आयावावेजा न पयावावेजा खं ३ ॥ ३ अण्णं आमु° खं १.२-३-४ जे. शु० हाटी०॥ ४ संफुसंतं वा आवीलंतं वा पवीतं वा अक्खों अचू० विना ।। ५ आयावयंतं वा पयावयंतं खं ४॥ ६ जाणामि जाव खं १-२-४ जे०॥ ७मणेणं वायाए कापणं खं १.२-३-४ जे० शु०॥ ८ "उस्सा नाम निसि पडइ पुव्वण्हे अवरण्हे वा, सा य तेहो भण्णइ" इति वृद्धविवरणे॥ ९प्रायः ॥ १. कढणी मूलादर्श ॥ ११ “हरतणुओ भूमि मेत्तूण उट्टेइ, सो य उच्छुगाइसु तिताए भूमीए ठविएसु दीसति ।" इति वृद्ध विवरणे ॥ १२ तोलं माम् ॥ १३ दृश्यतां पत्रं ८६ टिप्पणी ७ ॥ १४ से अगणिं वा इंगालं अचू• विना ॥ १५षा जालं वा अलायं वा सुद्धागणि वा उक्कं वा न उजेजा खं १-३-४ जे० शु० हाटी । वा अलायं वा जालं वा सुद्धागणिं वा उक्कं वा न उंजेजा वृद्ध०॥ १६ घट्टेजा न भिंदेजा न उज्जालेजान पजालेजा न निघावेजा, अन्नं न उजावेजान घट्टावेजा न भिंदावेजा न उज्जालावेजा न पज्जालावेज्जा न निवावेजा, अण्णं उर्जतं वा घट्टेतं वा भिंदेंतं वा उज्जालंतं वा पज्जालंतं वा निव्वावंतं वा खं ४ ॥ १७ जाणामि जाव खं १-२-३-४ जे. शु०॥ १८ मणेणं वायाए कारणं खं १-२-३-४ जे. शु०॥ -- Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , 10 सुत्तं ५१-५३] दसकालियसुत्तं । ५१. से भिक्खू वा जाव परिसागतो वा । इमे तेउक्कायप्पगारे परिहरेजा-से इति पूर्ववत् । इंगालं वा खदिरादीण गिद्दड्डाण धूमविरहितो इंगालो । करिसगादीण किंचि सिट्ठो अग्गी मुम्मुरो। दीवसिहासिहरादि अच्ची । [अ]लातं उमुतं । उदित्तोपरि अविच्छिण्णा जाला। [उक्का] विजुतादि । एते विसेसे मोत्तूण सुद्धागणी। वासद्दो विकप्पे । सव्वे अगणिप्पगारा एवं परिहरेना-ण उंजेजा० अवसंतुयणं उंजणं, परोप्परमुमुताणं अण्णेण वा आहणणं घट्टणं, वीयणगादीहिं जालाकरणमुज्जालणं, विज्झवणं निवावणं। 5 एताणि सयं ण करेज्जा, परेण ण कारवेजा, करेंतं नाणुजाणेजा जाव वोसिरामि ॥२०॥ वाउक्कायविकप्पजयणुद्देसत्थमिदं भण्णति ५२. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजत-विरत-पडिहत-पच्चक्खातपावकम्मे दिता वा रोतो वा सुत्ते वा जागरमाणे वा एगतो वा परिसागतो वा, से सिएण वा विहेवणेण वा तौलवेंटेण वा पैत्तेण वा साहाए वा साहाभंगेण वा पेहुणेण वा पेहुणहत्थेण वा चेलेण वा चेलकण्णेण वा हत्थेण वा मुहेण वा अप्पणो कायं बाहिरं वाँ पोग्गलं ण फुमेज्जा ण वीएज्जा, अण्णं ण फुमावेज्जा ण वीयावेज्जा, अण्णं फुतं वा वीएतं वा ण समणुजाणेज्जा, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेण, मेणसा वयसा कायसा ण करेमि ण कारवेमि करेंत पि अण्णं ण समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिकमामि जिंदामि गरहामि अप्पाणं 15 वोसिरामि ॥२१॥ ५२. से भिक्खू वा० पञ्चक्खातपादकम्मे० । इमे वाउक्कायविसेसे एवं परिहरेज-"से [सि]एण वा.” चामरं सितं । वीयणं विहुवणं । तालवेंटमुक्खेवजाती । पउमिणिपण्णमादी पत्तं । रुक्खडालं साहा, तदेगदेसो साहाभंगतो। पेहुणं मोरंगं, तेसिं कलावो पेहणहत्थतो। वत्थं चेलं, तदेकदेसो चेलकण्णो। हत्यो पाणी । मुहं वयणं । एतेहिं करणभूतेहिं अप्पणो कार्य बाहिरं वा पोग्गलं 20 अप्पणो सरीरं सरीरवज्जो बाहिरो पोग्गलो । ण फुमेजा० फुमणं मुहेण वातप्रेरणम् , सेसेहि वीयणं । एतेसिं सयं करणं परेण कारावणं अणुमोयणं वा जाव वोसिरामि ॥ २१ ॥ वणस्सतिकातजतणत्थोऽयमुक्खेवो ५३. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजत-विरत-पडिहत-पच्चक्खातपावकम्मे दिता वा राँतो वा सुत्ते वा जागरमाणे एगतो वा परिसागतो वा, से बीएसु वा बीतपतिहितेसु वा रूढेसु वा रूढपतिट्टितेसु वा जातेसु वा जातपतिहितेसु 25 १“से त्ति निदेसे वट्टति, जो अगणिकाओ हेट्ठा भणिओ तस्स निद्देसो। अगणी नाम जो अयपिंडाणुगओ फरिसगिज्मो सो अयपिंडो भण्णइ । इंगालो नाम जालारहिओ। मुम्मुरो नाम जो छाराणुगओ अग्गी सो मुम्मुरो। अच्ची नाम आगासाणुगया परिच्छिण्णा अग्गिसिहा । अलायं नाम उम्मयाहियं पजलियं । जाला पसिद्धा चेव । इंधणरहिओ सुद्धागणी। उक्का विजुगादि ।" इति वृद्धविवरणे। " इह अयस्पिण्डानुगतोऽग्निः। ज्वालारहितोऽकारः। विरलामिक भस्म मुर्मुरः । मूलामिविच्छिन्ना ज्वाला अर्चिः । प्रतिबद्धा ज्वाला। अलातं उल्मुकम् । निरिन्धनः शुद्धाग्निः। उल्का गगनाग्निः" इति हारिमयां वृत्तौ॥२ दृश्यता पत्रं ८६ टिप्पणी ॥ ३ विद्यणेण खं १-२-३-४ जे. शु०॥४ तालियंटेण खं १-२-३-४ जे. शु० वृद्ध ॥ ५पत्तेण वा पत्तभंगेण वा साहाए खं १-२-३-४ जे. शु०॥ ६ अप्पणो वा कार्य अचू० विना ॥ ७वा वि पोखं १-२-३-४ जे० शु० वृद्ध०॥ ८°जाणामि जाव खं १-२-४ जे०॥ ९मणेणं पायाए कापणं खं १-२-३-४ जे. शु०॥ १० दृश्यतां पत्रं ८६ टिप्पणी ॥ दस सु. १२ Jain Education Intemational Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [चउत्थं छज्जीवणियज्झयणं वा हरितेसु वा हरितपतिहितेसु वा छिण्णेसु वा छिण्णपतिहितेसु वा सच्चित्त-कोलपेडिणिस्सितेसु वा ण गच्छेज्जा ण चिट्ठज्जा ण णिसीदेज्जा ण तुयटेजा, अण्णं ण गच्छावेज्जा ण चिट्ठावेजा ण णिसीदावेज्जा ण तुयट्टावेज्जा, अण्णं पि गच्छंतं वा चिटुंतं वा णिसीदंतं वा तुयटुंतं वा न समणुजाणेज्जा, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेण, मणसा वयसा कायसा ण करेमि ण कारवेमि करेंतं पि अण्णं ण समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिक्कमामि जिंदामि गरहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ २२ ॥ ५३. से भिक्खू वा० परिसागतो वा । तस्स इमे विकप्पा-से बीएसु वा० बीयं सालिमादीणं, तेसिमुपरि जं निक्खित्तं ते बीतपतिहितं। उभिजंतं रूढं, तदुपरि विण्णत्थं तं रूढपतिहितं। आबद्धमूलं जातं, 10 पतिट्रितं तहेव । हरियाणि हरितालिकादीणि, पतिट्रितं तहेव । छिण्णं पिहीकतं तं अपरिणतं. तत्थ पतिट्रितं छिण्णपतिहितं । सञ्चित्त-कोलपडिणिस्सितेसु वा, पडिणिस्सितसद्दो दोसु वि, सच्चित्तेसु पडिणिस्सिताणि अंडग-उद्देहिगादिसु, कोला घुणा ते जाणि अस्सिता ते कोलपडिणिस्सिता, तेसु सचित्त - कोलपडिणिस्सितेसु वा। ण गच्छेजा० गमणं चंकमणं, चिट्ठणं ठाणं, णिसीदणं उपविसणं, तुयदृणं निवजणं । एताणि सयं ण करेजा, परे ण कारेज्जा, करेंतं नाणुजाणेजा जाव वोसिरामि ॥ २२॥ ५४. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजत-विरत-पडिहत-पच्चक्खातपावकम्मे दिता वा रातो वा सुत्ते वा जागरमाणे वा एगतो वा परिसागतो वा, से कीडं वा पयंगं वा कुंथु वा पिवीलियं वा हत्थंसि वा पादंसि वा बाँहंसि वा उरंसि वा सीसंसि वा ऊरुंसि वा उदरंसि वा पातंसि वा रयहरणंसि वा गोच्छगंसि 15 १वा सश्चित्तेसुवा सच्चि खं १-२-३-४ जे० शु० ॥२पहणिस्सितेसु खं ३ । पइटेसु खं १॥३°जाणामि जाव खं १-२-४ जे.॥४मणेणं वायाए कारणं खं १-२-३-४ जे० शु० ॥ ५ दृश्यतां पत्रं ८६ टिप्पणी ॥ ६ हत्थे सितापादे सिता बाहे सिता उरे सिता सीसे सिता ऊरू सिता उदरे सिता पाते सिता रयहरणे सिता गोच्छगे सिता डंडगे सिता कंबले सिता उंदुए सिता पीढगे सिता फलगे सिता सेजगे सिता संथारगे सिता अण्णतरे सिता तं संजता' अचूपा॥ ७बासि वा ऊकसि वा सेजगंसि वा संथारगंसि वा अण्णतरंसि वा, तओ संजयामेव एर्गतमवणेजा, णोणं संघातमावजह एतत्पाठानुसारेण वृद्धविवरणकृता व्याख्यातं वर्तते । श्रीहरिभद्रपादस्तु-बाहुंसि वा ऊरुसि वा उदरंसि वा वत्थंसि वा रयहरणंसि वा गुच्छगंसि वा उंडगंसि वा दंडगंसि वा पीढगंसि वा फलगंसि वा सेज्जगंसि वा संथारगंसिवा अनयरंसि वा तहप्पगारे उवगरणजाए, तओ संजयामेव पडिलेहिय पडिलेहिय पमजिय पमज्जिय एगंतमवणेजा, नो ण संघायमावजेज्जा इति पाठानुसारेण व्याख्यातं ज्ञायते । बाहुंसि वा ऊरंसि वा उदरंसि वा सीसंसि वा वयसि वा पडिग्गहंसि वा कंबलंसि वा पायपुंछणसि वा रयहरणंसि चा गोच्छगंसि वा उंडुयंसि (अप्रे हरिभद्रसमः पाठः) ख शु.बाहुसि वा ऊरंसिवा उदरंसि वा सीसंसि वा पडिग्गहंसि वा वत्थंसि वा रयहरणंसि वा गोच्छंसि वा कंबलंसि वा पायपुंछणसि वा उंडुयंसि वा डंडंसि वा पीढंसि वा फलगंसि वा सेज्जंसि वा (अग्रे हरिभद्रसमः पाठः) जे। बाहुंसि वा ऊरुसि वा उदरंसि वा सीसंसि वा वत्थंसि वा पत्तंसि वा रयहरणंसि वा कंबलंसि वा गोच्छंसि वा उंडयंसि वा (अग्रे हरिभद्रसमः पाठः) खं २ शु। बाहंसि वा ऊरुसि वा उदरंसि वा सीसंसि वा वत्थंसि वा पडिग्गहंसिवा कंबलंसि वा पायपुंछणंसि वा रयहरणंसिवा उंडुयंसि वा दंडगंसि वा गोच्छगंसि वा पीढगंसि वा फलगंसि वा सेजंसि वा संथारगंसि वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि उवगरणजाए तं संजयामेव पडिलेहिय पडिलेहिय पमजिय पमन्जिय एगंतमधलमेजा नो णं संघायमावज्जेज्जा खं ३-४ ॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तं ५४-५७] दसकालियमुत्तं । वा डंडगंसि वा कंबलंसि वा उंदुयंसि वा पीढगंसि वा फलगंसि वा सेजंसि वा संथारगंसि वा अण्णतरंसि वा, तं संजतामेव एकंते अवणेजा णो णं संघायमावाएज्जा ॥ २३ ॥ ५४. से भिक्खू वा० । तसकायविकप्पणिद्देसोऽयं-से कीडं वा। से इति वयणावधारणत्थं । कीड-पयंग-कंथ-पिवीलियातो पुव्वभणितातो। एतेसिं अण्णयरो जदि होजा हत्थंसि वा०, अहवा। "हत्थे सिता" यदुक्तं स्यात् । पाद-बाह-उर-सीस-ऊरु-उदर-पात-रयहरण-गोच्छग-डंडग एते सिद्धा । कंबलो सामूली । उंदुयं जत्थ चिट्ठति तं ठाणं । पीढगं कट्ठमतं छाणमतं वा । फलगं जत्य सुप्पति चंपगपट्टादिपेढणं वा । सेजा सव्वंगिका । संथारगो यज्ड्वाइजहत्थाततो सचतुरंगुलं हत्थं वित्थिण्णो। अण्णतरवयणेण तोवैग्गहियमणेगागारं भणितं । एतेसु हत्यादिसु कीडादीणं अण्णतरो होज्जा तं संजतामेव जयणाए जहा ण परिताविजति एकंते जत्थ तस्स उवघातो ण भवति तहा अवणेजा। णो णं संघायमावाएजा 10 परोप्परं गत्तपीडणं संघातो । एत्थ आदिसहलोपो, संघट्टण-परितावणोद्दवणाणि सूतिजति । आवजणा तं . अवत्थं पावणं ॥ २३॥ पुंढवितादीणि पडुच्च पाणातिवायवेरमणअणुपालणत्थं जयणा, एस छन्जीवणियाए चउत्यो अधिकारो । उवदेसो, सो य इमो ५५. अजतं चराणस्स पाण-भूताणि हिंसतो । बेज्झति पावगं कम्मं तं से होति कडुयं फलं ॥ २४ ॥ ५५. अजतं चरमाणस्स० सिलोगो।अजयं अपयत्तेणं चरमाणस्स गच्छमाणस्स, रियासमितिविरहितो सत्तोपघातमातोवघातं वा करेजा। पाणाणि चेव भताणि पाणभताणि, अहवा पाणा तसा. भूता थावरा, अहवा फुडऊसास-नीसासा पाणा, सेसा भूता, ताणि हिंसतो मारेमाणस्स । तस्सेवंभूतस्स बमति पावगं कम्म, बझति एकेको जीवपदेसो अट्ठहिं कम्मपगडीहि आवेढिजति, पावगं कम्मं अस्सायवेयणिजाति । अजयणातो हिंसा, ततो पौवोवचतो, तस्स फलं तं से होति कडुयं फलं कडुगविवागं कुगति - अबोधिलाभनिव्वत्तगं ॥ २४ ॥ 20 ण केवलमजतं चरमाणस्स, किं तरिहि ? ५६. अजतं चिट्ठमाणस्स पाण-भूताणि हिंसतो। बझति पावगं कम्मं तं से होति कडुयं फलं ॥ २५ ॥ ५६. अजतं चिट्ठमाणस्स० । चिट्ठमाणो उद्धद्विततो। तस्स हत्थ - पादातिविच्छोमेण सत्तोवरोहो त्ति । सेसं तहेव ॥ २५ ॥ अण्णो वि चेट्ठाविसेसो णियमिजति ५७. अजतं आसमाणस्स पाण-भूताणि हिंसतो। बज्झति पावगं कम्मं तं से होति कडुयं फलं ॥ २६ ॥ 15 25 १पाद-पाह-उद-सीस मूलादर्शे ॥ २"उन्दकं स्थण्डिलम्" इति हारि• वृत्तौ ॥ ३ अर्द्धतृतीयहस्तायतः हस्तातत इति वा ॥ ४ औपाहिकमनेकाकारम् ॥ ५ पृथिव्यादीनि ॥ ६°माणो उपा अचू• विना। एवमग्रेऽपि॥ ७°भूयाइं खं १-३। भूयाई खं २-४ जे. भूयाइ शु० । एवमप्रेऽपि ॥ ८ हिंसह खं १-२-३ जे. शु० हाटी । हिंसर खं ४ । एवमग्रेऽपि ॥ ९बंधई अचू० विना । एवमप्रेऽपि ॥ १० ईर्यासमितिविरहितः सत्त्वोपघातमात्मोपघातं वा कुर्यात् ॥ ११ “ सत्ताणं विविहेहिं पगारेहिं हिंसमाणो बंधई पावर्ग कम्म, 'बंधइ नाम एकेक जीवप्पदेसं अट्टहिं कम्मपगडीहिं आवेढियपरिवेढियं करेति" इति वृद्धविवरणे॥ १२ पापोपचयः ॥ १३ कि तहि ॥ १४ भूयाई ख १-२-३-४ । भूयाई जे० । भूयाइ शु०॥ Jain Education Intemational Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [चउत्थं छज्जीवणियज्झयणं ५७. अजतं आसमाणस्स० । आसमाणो उवेट्टो सरीरकुरुकुतादि । सेसं तहेव ॥ २६ ॥ अयमवि णियमिजति५८. अजतं सुतमाणस्स पाण-भूताणि हिंसतो। बज्झति पावगं कम्मं तं से होति कडुयं फलं ॥ २७॥ 5 ५८. अजतं सुतमाणस्स० । आउंटण-पसारणादिसु पडिलेहण-पमजणमकरितस्स पकाम-णिकामं रत्तिं दिवा य सुयन्तस्स । सेसं तहेव ॥ २७॥ भोयणगतो वि चेट्ठाविसेसो नियमिजति ५९. अजतं भुंजमाणस्स पाण-भूताणि हिंसतो। बज्झति पावगं कम्मं तं से होति कडुयं फलं ॥२८॥ ५९. अजतं भुंजमाणस्स० । सुरुसुरादि काक-सियालभुत्तं एवमादि । सेसं तहेव ॥ २८ ॥ 10 वायानियमणत्थं भण्णति ६०. अजतं भासमाणस्स पाण-भूताणि हिंसतो। बज्झति पावगं कम्मं तं से होति कडुयं फलं ॥ २९ ॥ ६०. अजतं भासमा० सिलोगो । तं पुण सावजं वा ढडरमादीहिं वा । सेसं तहेव ॥ २९ ॥ अंतेवासी भणति-छक्कायसमाकुलो लोगो, गमण-थाणा-ऽऽसण-सुवण-भोयण-भासणविरहितस्स पत्थि सरीर15 धारणमिति सरीरधारणत्थं भगवन् ! ६१. कहं चरे ? कहं चिट्टे ? केहमासे ? कहं सुवे। कहं भुंजतो भासंतो पावं कम्मं ण बेज्झति ? ॥ ३० ॥ ६१. कह सिलोगो । कहमिति गमणादिउपायपरिपुच्छा । सिलोगत्थो फुड एव ॥ ३०॥ सूरिराह-छजीवणिकायसमाकुले वि लोगे गमणादिअंधीणे य सरीरधारणे तहा वि भगवता भव्वसत्तबंधुणा 20 उवातोऽयमुपदिट्ठो जतणा इति । भणितं च जलमज्झे जहा णावा सव्वतो णिपरिस्सवा । गच्छंती चिट्ठमाणी वा जलं ण परिगिण्हति ॥१॥ एवं जीवाकुले लोके साधू संवरियासवो । गच्छंतो चिट्ठमाणो वा पावं ण परिगिण्हति ॥२॥ सो य इमो उवातो ६२. जयं चरे जयं चिट्टे जयमासे जयं सुवे। __ जयं भुंजतो भासंतो पावं कम्मं ण बज्झति ॥ ३१ ॥ ६२. जयं चरे० सिलोगो। जयं चरे इरियासमितो दट्टण तसे पाणे "उदु पादं रीएज्जा." एवमादि । जयमेव कुम्मो इव गुत्तिंदितो चिठेजा । एवं आसेजा पहरमत्तं । सुवणा जयणाए सुवेजा । दोसवन्जितं भुंजेज । जहा वक्कसुद्धीए भण्णिहिति तहा भासेजा ॥ ३१॥ एवं सव्वावत्थं जयणापरस्स १सुयमाणो उ पा वृद्ध० । सयमाणो उ पा खं १-२-३-४ जे० शु० हाटी० ॥ २ कहं आसे शु०॥ ३ सए अचू० विना ॥ ४ अत्रागस्त्यपादपाठानुसारेण भुजतो भाषमाणस्य इति व्याख्येयम् , अनुस्वारस्त्वत्र छन्दोभङ्गनिवारणाय, अन्यत्र तु भुजानो भाषमाण इति सुस्थमेव व्याख्यानम् । एवमग्रेऽपि ॥ ५ बंधइ अचू० विना ॥ ६ °अवीणे य सचीर मूलादर्श ॥ ७°माणि वा मूलादर्श ॥ ८संवड़िया मूलादर्श ॥ ९ जयं आसे शु० ॥ १० सए अचू० विना ॥ ११ बंधई अचू० विना ॥ Jain Education Intemational Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तं ५८-६६] दसकालियसुत्तं । ६३. सबभूतऽप्पभूतस्स सम्मं भूताणि पासतो। पिहितासवस्स दंतस्स पावं कम्मं ण बज्झति ॥ ३२ ॥ ६३. सव्वभूतऽप्पभूतस्स० सिलोगो । सबभूता सव्वजीवा तेसु सव्वभूतेसु अप्पभूतस्स जहा अप्पाणं तहा सव्वजीवे पासति, 'जह मम दुक्खं अणिटुं एवं सव्वसत्ताणं' ति जाणिऊण ण हिंसति, एवं सम्मं दिवाणि भूताणि भवंति तस्स । पिहितासवस्म ठइताणि पाणवहादीणि आसवदाराणि जस्स तस्स 5 पिहितासवस्स । दंतस्स दंतो इंदिएहिं णोइंदिएहि य । इंदियदमो सोइंदियपयारणिरोधो वा सद्दातिराग-दोसणिग्गहो वा, एवं सेसेसु वि । णोइंदियदमो कोहोदयणिरोहो वा उदयप्पत्तस्स विफलीकरणं वा, एवं जाव लोभो । तहा अकुसलमणणिरोहो वा कुसलमणउदीरणं वा, एवं वाया कातो य । तस्स इंदिय-णोइंदियदंतस्स पावं कम्म ण बज्झति, पुव्वबद्धं च तवसा खीयति ॥ ३२ ॥ चोदगो भणति-“दंतस्स पावं कम्मं ण बज्झति” त्ति चरित्तपाहण्णं । गुरुराह-णाणपुव्वता चरणस्स 10 पहाणत त्ति भण्णति ६४. पढमं नाणं ततो दता एवं चिट्ठति सव्वसंजते । अण्णाणी किं करिस्सति ? किं वा गाहिति छेद पावगं ? ॥ ३३ ॥ ६४. पढमं नाणं. सिलोगो । पढमं जीवा-ऽजीवाहिगमो, ततो जीवेसु देता । एवं चिट्ठति एवंसद्दो प्रकाराभिधाती, एतेण जीवादिविण्णाणप्पगारेण चिट्ठति अवट्ठाणं करेति । सेसाण वि एवंधम्मतापरूवणत्थं 15 भण्णति-सव्वसंजते सव्वसद्दो अपरिसेसवादी, सव्वसंजता नाणपुव्वं चरित्तधम्म पडिवालेंति । अयमेव विसेसो नियमिजति-अण्णाणी किं करिस्सति ? किं वा णाहिति छेद-पावगं ?, अण्णाणी जीवो जीवविण्णाणविरहितो सो किं काहिति ? किंसद्दो खेववाती, किं विण्णाणं विणा करिस्सति?। किं वा णाहिति, वासद्दो समुच्चये, णाहिति जाणिहिति छेदं जं सुगतिगमणलक्खातो चिट्ठति, पावकं तविवरीतं । निदरिसणंजहा अंधो महानगरदाहे पलित्तमेव विसमं वा पविसति, एवं छेद-पावगमजाणंतो संसारमेवाणुपडति ॥ ३३॥ 30 इंदितातीतविण्णाणविरहिताण परोवदेसप्पहाणतं नाणस्स दरिसंतेहि भण्णति६५. सोच्चा जाणति कल्लाणं सोचा जाणति पावकं । उभयं पि जाणति सोच्चा जं छेदं तं समायरे ॥ ३४॥ ६५. सोचा जाणतिः। गणहरा तित्थगरातो, सेसो गुरुपरंपरेण सुणेऊणं । किं १ जाणति, कल्लाणं कलं-आरोग्गं तं आणेइ कल्लाणं संसारातो विमोक्खणं, सो य धम्मो । पावकं अकल्लाणं । उभयं एतदेव 25 कल्लाण-पावगं । परोप्परवितारेण सुवितारितगुण-दोसो जं छेदं तं समायरे सुगतिगमणअचुक्कलक्खं जं छेदं तमेव समेच्च आयरियव्वं ॥ ३४ ॥ 'सुपरिच्छितग्गाहिणा होतव्वं' ति निरूविजति ६६. जो जीवे वि ण योणति अंजीवे वि ण याणति । जीवा-ऽजीवे अजाणतो कह सो गोहिति संजमं ॥ ३५॥ १भूयाइं खं १-२-३-४ । भूयाई जे० । भूयाइ शु०॥ २बंधई अचू० विना ॥ ३ किं काहिति वृद्ध। किं काही खं १-२-३-४ जे० शु०॥ ४ नाहीइ ख १-२-३-४ । नाही जे.॥ ५ दया ॥ ६ जाणए खं ४॥ ७“उभयं नामा कलाण पावयं च दो वि सोचा जाणइ । केहपुण आयरिया कलाण-पावयं च देसविरयस्स पावयं इच्छंति तमवि सोऊण जाणति" इति वृद्धविवरणे॥ ८ परस्परविचारेण सुविचारितगुण-दोषः ॥ ९याणाइ शु०॥ १० अजीवे अचू० विना ॥ ११ कहं से वृद्ध०॥ १२ नाही उ संजमं खं २ शु० । नाही संजमं खं १-३ जे० ॥ Jain Education Intemational Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 ९४ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [चउत्थं छज्जीवणियज्झयणं ६६. जो जीवे वि ण याणति. सिलोगो । जो इति उद्देसवयणं । जीवंतीति जीवा आउप्पाणा धरेंति, ते सरीर-संठाण-संघयण-द्विति-पज्जत्तिविसेसादीहिं जो ण जाणति, अज्जीवे विरूव-रसादिप्पभवपरिणामेहिं ण जाणति । सो एवं जीवा-ऽजीवविसेसे अजाणतो कह केण प्रकारेण णाहिति सत्तरसविहं संजमं ॥३५॥ एतस्स चेव अत्थस्स पडिसमाणणं कजति६७. जो जीवे वि वितणति अजीवे वि विताणेति । जीवा-ऽजीवे वियाणंतो सो हु णोहिति संजमं ॥ ३६॥ ६७. जो जीवे वि विताणति० सिलोगो। जो इति उद्देसस्स उपरि णिहेसो भविस्सति । जीवा मणिता । ते जो पुव्वभणितेहिं विसेसेहिं विविहं जाणति विजाणति, तहाऽजीवे वि, अपिसहो संभावणे, सो संजमथिरत्ते संभाविजति । जीवा-जीवे वियाणंतो सो हु णाहिति [संजमं], पडिणिदेसवयणं । हुसद्दो 10 अवधारणे, णाहिति जाणिहिति सव्वपज्जाएहिं । कहं ? छेदं कूडगं च जाणंतो कूडगपरिहरणेण छेदस्स उपादाणं करेति, जीवगतमुपैरोहकतमसंजमं परिहरतो अजीवाण वि मज्ज-मंसादीण परिहरणेण संजमाणुपालणं करेति । जीवे नाऊण वह परिहरमाणो ण वड्डयति वेरं, वेरविकारविरहितो पावति निरुवद्दवं थाणं ॥३६॥ उवदेसो गतो । जीवाजीवाहिगम-चरित्त-जयणोवदेसप्पेताससफलतापडिवादणत्थं भण्णति६८. जता जीवे अजीवे य दो वि एते विजाणति ।। तदा गतिं बहुविहं सव्वजीवाण जाणति ॥ ३७ ॥ ६८. जता जीवे अजीवे० सिलोगो। जदा जम्मि काले । जीवा-ऽजीवा भणिता । ते जदा दो वि अणेगमेदभिण्णा अवि दो रासी एते इति जीवा-जीवाधिगमभणिता, विसेसेण जाणति विजाणति, तदा गति बहुविहं [सब]जीवाण, गतिं णैरगादितं अणेगभेदं जाणति, अहवा गतिः-प्राप्तिः तं बहुविहं ॥३७॥ इदमिदाणिं पुव्वुत्तरभावकरण-कज्जफलसंबंधोवदरिसणत्थं भण्णति___६९. जता गतिं बहुविहं सबजीवाण जाणति । तदा पुण्णं च पावं च बंधं मोक्खं पि जाणति ॥ ३८ ॥ ६९. जता गतिं बहुविहं० पुचद्धं भणितमेव । पडिउद्दिसति-तदा पुण्णं च० तेसिमेव जीवाणं आउ-बल-विभव-सुखातिसूतितं पुण्णं च पावं च अट्ठविहकम्मणिगलबंधण-मोक्खमवि ॥ ३८॥ पूर्ववदयमपि संबंधो25 ७०. जदा पुण्णं च पावं च बंधं मोक्खं पि जाणति । तदा "णिविंदती भोगे जे दिव्वे जे य माणुसे ॥ ३९ ॥ ७०. जदा पुण्णं० गाहा । पुव्वद्धं भणितं । तदा णिविंदती भोगे जे दिव्वे जे य माणुसे, भुजंतीति भोगा ते णिविंदति णिच्छितं विंदति-विजाणति, जहा एते वड्डकिलेसेहि उप्पादिया वि किंपागफलो १बियाणइ खं १-३-४ जे० । वियाणाइ शु०॥ २वियाणई अचू० विना ॥ ३ नाही संजमं खं १-२ जे० । नाही उसंजर्म शु०॥ ४ उपरोधः विराधना, हिंसेति यावत् ॥ ५ प्रयाससफलताप्रतिपादनार्थम् ॥ ६जीवमजीवे खं १-३-४ शु.॥ ७ नरकादिकाम् ॥ ८°क्खं च जा° अचू० विना ॥ ९°क्खं च जा' अचू० विना ॥ १० निविदए खं २-३ जे० शु० वृद्ध । निविदई खं १-४॥ Jain Education Intemational Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तं ६७-७५] दसकालियसुत्तं । ९५ वमा । जे दिव्वा दिवि भवा दिव्वा, मणूसेसु [भवा] माणुसा । ओरालियसारिस्सेण माणुसाभिधाणेण तिरिया वि भणिया भवंति । अहवा जो दिव्व-माणुसे परिजाणति तस्स तिरिएसु किं गहणं १ । जे य माणुसा इति चकारण वा भणितमिदं ॥ ३९ ॥ तदणंतरं पुण किं ? अतो भण्णति ७१. जता णिविंदेती भोगे जे दिव्वे जे य माणुसे । तदा जहती संजोगं सभितर - बाहिरं ॥ ४०॥ ____७१. जता णिविंदती० सिलोगो । पुव्वद्धं भणितं । तदा जहती सं० सिलोगळ् । परिचयति सभितरवाहिरं अभितरो कोहादि बाहिरो सुवण्णादि ॥ ४० ॥ संजोगपरिचागाणंतरं पडिपत्तिरुपदिस्सति ७२. जता जहती संजोगं सभितर - बाहिरं । तदा मुंडे भवित्ता णं पेव्वाति अणगारियं ॥ ४१ ॥ ७२. [ जता जहती० सिलोगो । पुव्वद्धं भणितं । ] तदा मुंडे भवित्ता णं तस्सिं काले मुंडे 10 • इंदिय-विसय-केसावणयणेण मुंडो भवित्ताणं पव्वाति अणगारियं प्रव्रजति प्रपद्यते अगारं-घरं तं जस्स नथि सो अणगारो तस्स भावो अणगारिता तं पवज्जति ॥ ४१॥ तदणंतरं क्रिया भण्णति७३. जदा मुंडे भवित्ता णं पैव्वाति अणगारियं । तदा संवरमुक्कटुं धम्म फासे अणुत्तरं ॥ ४२ ॥ ७३. जदा मुंडे भवित्तेति पुव्वद्धमणंतरं चेट्ठाभावणत्थं पडिउच्चारितं । तदा संवरं संवरो-पाणातिवातादीण आसवाण निवारणं, स एव संवरो उकट्ठो धम्मो तं फासे ति । सो य अणुत्तरो, ण तातो अण्णो उत्तरतरो। अधवा संवरेण उक्करिसियं धम्ममणुत्तरं "पासे” ति उक्किट्ठाणंतरं विसेसो उक्किट्ठो, जं णं देसविरती अणुत्तरो कुतित्थियधम्मेहितो पहाणो ॥ ४२ ॥ अतो उत्तरमपि ७४. जदा संवरमुक्कटुं धम्म फोसे अणुत्तरं । तदा धुणति कम्मरयं अबोहिकलुसं कडं ॥ ४३ ॥ ७४. जदा संवर० सिलोगो । तदा धुणति कम्मरयं, धुणति विद्धंसयति कम्ममेव रतो कम्मरतो । अबोहिकलुसं कडं अबोही-अण्णाणं, अबोहीकलुसेण कडं अबोहिणा वा कलुसं कतं ॥४३॥ अणंतरक्रियोपन्यासार्थ गतमपि पुव्वद्धमुच्चारिजति७५. जदा धुणति कम्मरयं अबोहिकलुसं कडं । तदा संवत्तगं णाणं दंसणं चाभिगच्छति ॥ ४४ ॥ ७५. जदा धुणति० सिलोगो। तदा सच्चत्तगं गाणं सव्वत्थ गच्छती सवत्तगं केवलनाणं केवलदंसणं च ॥४४॥ नाणुप्पत्तिसमणंतरभावी अत्थो विभाविज्जति १ औदारिकसादृश्येन ॥ २निविदए खं २-३ जे० शु० वृद्ध । निविदई खं १-४॥ ३-४ चयइ सं° अचू० वृद्ध. विना ॥५-६ पवइए अ° खं १ जे. शु० । पव्वएई अ° खं २ । पधए अखं ४ । पव्वयइ अखं ३ हाटी० ॥ ७-८ पासे अचूपा० ॥ ९ सव्वत्थगं वृद्ध ॥ १० गच्छह खं १-३-४ । गच्छई खं २ जे. शु०॥ Jain Education Intemational Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [चउत्थं छज्जीवणियज्झयणं ७६. जदा सव्वत्तगं णाणं दंसणं चाभिगेच्छति । ___ तदा लोगमलोगं च जिणो जाणति केवली ॥ ४५ ॥ ७६. जदा स० सिलोगो। पुव्वद्धं भणितं । तदा लोगमलोगं तस्सायं विसतो लोगा-ऽलोगविण्णाणं ॥४५॥ सो विदियलोगा-ऽलोगो किमारभते ? भण्णति ७७. जता लोगमलोगं चे जिणो जाणति केवली । ___ तदा जोगे निलंभित्ता सेलेसिं पडिवज्जति ॥ ४६ ॥ ७७. जता लो. सिलोगो । पुव्वद्धं भणितं । तदा जोगे निलंभित्ता भवधारणिज्जकम्मविसारणत्थं सीलस्स ईसति-वसयति सेलेसिं०॥४६ ॥ तदणंतरं ७८. जदा जोगे निरुभित्ता सेलेसिं पडिवजति । __ तदा कम्मं खवित्ताणं सिद्धिं गच्छति णीरतो ॥ ४७ ॥ ७८. जदा जोगे० सिलोगो । ततो सेलेसिप्पभावेण तदा कम्मं भवधारणिजं कम्मं सेसं खवित्ताणं सिद्धिं गच्छति णीरतो निकम्ममलो ॥ ४७ ॥ तदणंतरमिदमस्स संभवति ७९. जदा कम्मं खवित्ताणं सिद्धिं गच्छति णीरतो । तता लोगमत्थगत्थो सिद्धो भवति सासतो ॥ ४८ ॥ 15 ७९. जदा कम्म० सिलोगो । पुव्वद्धमुक्तं । पच्छद्धं । शान्तानलवदेतस्याणियत्तणत्थं पच्छद्धं । तता लोगमत्थगे लोगसिरसि ठितो सिद्धो कतत्थो [सासतो] सव्वकालं तहा भवति ॥४८॥ छट्ठो अधिकारो धम्मफलं भणितं । जीवा-ऽजीवपरिणाणमुत्तरुत्तरफललाभेण गाधिमोक्खपज्जवसाणमुवदिटुं। तं किं नियमेण संभवति ? अह कोति विसेसो अस्थि ? ति भण्णति-परिणाणेण वि अपमादनिमित्तं ८०. सुहसीलगस्स समणस्स साताकुलगस्स निकामसाइस्स । उच्छोलणार्पहोतिस्स दुलभा सुग्गती तारिसगस्स ॥ ४९ ॥ ८०. सुहसील० सुत्तं । सुहं-प्रतीतं तं सीलेति-अणुढेति सुहसीले । केति पढंति "सुहसातगस्स" तदा सुखं स्वादयति-चक्खति । समणस्सेति साहिक्खेवमिदं । साताकुलगस्स तेणेव सुहेण आउलस्स, आउलो-अणेक्कग्गो । जदा सुहसीलगस्स तदा साताकुलएण विसेसो-एगो सुहं कयाति अणुसीलेति, साताकुलो पुण सदा तदभिज्झाणो। निकामसाइस्स अँपच्छण्णे मउए सुइतुं सीलमस्स निकामसाती । उच्छोलणापहोती पभूतेण अजयणाए धोवति । एवंगुणस्स दुलभा सुग्गती ॥ ४९ ॥ केरिसस्स पुण सुलभा ? भण्णति ८१. तवोगुणपहाणस्स उज्जुमति-खंति-संजमरतस्स । परीसहे जिणंतस्स सुलभिता सोग्गैति तारिसगस्स ॥ ५० ॥ 90 १सब्वत्थगं वृद्ध०॥ २ गच्छइ खं १-३-४ । गच्छई खं २ जे० शु०॥ ३-४ च दो वि एते वियाणइ वृद्ध०॥ ५सुहसायगस्स खं १-२-३-४ जे० शु० वृद्ध० हाटी० अचूपा०॥ ६सायाउलग अचू० विना ॥ ७°सायस्स वृद्ध०॥ ८°पहोविस्स खं १-३ वृद्ध० हाटी०। पहोयस्स खं ४ ॥९ सोगइ २-३ जे० । सोग्गइ खं १-४ शु० ॥१० सुयछिण्णे मूलादर्श ॥ ११ सुलभा सो खं १-३ जे० वृद्ध । सुलहा सो खं १-४ शु०॥ १२ सोगह खं २-३ जे०॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ७६-८२ णिज्जुत्तिगा० १४४] दसकालियसुत्तं ८१. तवो-गुणपहाणस्स० सुत्तं । तवो बारसविहो, गुणा णाण-दसण-चरित्ताणि, तवो गुणा य पहाणा जस्स सो तव-गुणप्पहाणो तस्स । उज्जुमति० उज्जुया मती उज्जुमती-अमाती, खंति-अकोहणो, उज्जुमतीसमाणजातियसंसद्दणेण अरागी, खमाए अदोसो, संजमे सत्तरसविहे रतो संजमरतो तस्स । परीसहे बावीसं जिणंतस्स । जहुद्दिद्वगुणस्स सुलभिता सोग्गती तारिसगस्स ॥५०॥ छज्जीवणियज्झयणएगहिताणि, तं० जीवा-जीवाभिगमो आयारो चेव धम्मपण्णत्ती । तत्तो चरित्तधम्मो चरणे धम्मे य एगहा ॥३०॥ १४४॥ ॥छन्नीवणियाणिज्जुत्ती सम्मत्ता॥ जीवा-जीवाहिगमोर गाहा सिद्धा ॥ ३०॥ १४४ ॥ चउत्थं छज्जीवणियअज्झयणमुपदिटुं । उपसंहरणत्थं भण्णति८२. इच्चेयं छज्जीवणियं सम्मट्ठिी सदा जते। दुलभं लभित्तु सामण्णं कम्मणा ण विरोहेजा ॥ ५१ ॥ त्ति बेमि ॥ ॥ छज्जीवणिया सम्मत्ता॥ ८२. इच्चेयं० सिलोगो। इतिसद्दो प्रकारे । एयमिति अणंतरुद्दिष्टुं पञ्चक्खीकरेति, एवमणेगप्रकारं दरिसितं एतं छज्जीवणियं प्रति इति वाक्यशेषः, सम्मट्टिी सदा सव्वकालं जते जतेज्जा, अहवा जैते णिततप्पा 15 दुलभं भवसतेसु लभित्तु प्राप्य समणमावं सामण्णं असमणपातोग्गेणं कम्मुणा ण विराहेजा । अहवा दुल्लभं लभित्तु सामण्णं कम्मुणा छज्जीवणियजीवोवरोहकारकेण "ण विराहेजासि” मज्झिमपुरिसेण वपदेसो, एवं सोम्म ! ण विगणीया छक्कातो। इतिसद्दो परिसमत्तिविसते । बेमीति पारम्पर्यमाह ॥५१॥ णातम्मि गेण्हित० गाहा । सबेसि पि णताणं० गाहा । दो वि पुव्वमणितातो ॥ जीवा १ ऽजीवाहिगमो २ चरित्त ३ जयणो ४ वदेस ५ फललामा ६ । पढमं चिय उद्दिट्ठा छजीवणियापहाणत्था ॥१॥ ॥ छन्नीवणियाए चुण्णी समत्ता ॥४॥ 20 १ एतत्सूत्रगाथानन्तरं चूर्णिद्वये हारिभद्रीवृत्ती सुमतिसाधुवृत्तावपि चाव्याख्याता एका सूत्रगाथा सर्वेष्वपि सूत्रादर्शष्वधिका उपलभ्यते पच्छा वि ते पयाया खिप्पं गच्छंति अमरभवणाई । जेसि पिओ तवो संजमो य खंती य बंमचेरं च ॥ खं १-२-३-४ जे० शु०॥ २विराहेजासि ॥ त्ति खं १-२-३-४ जे. शु० वृद्ध. अचूपा०॥ ३ 'यतः' नियतात्मा ॥ दस० सु. १३ Jain Education Intemational Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पंचमं पिंडेसणझयणं पढमो उद्देसओ [पंचमं पिंडेसणज्झयणं] 15 [पढमो उद्देसओ] धम्मे धितिमतो विदितायार-धम्मपण्णत्तिसमारोपितमहव्वतमूलगुणस्स तदणंतरमुत्तरगुणोवदेसारुहस्स पढमो उत्तरगुणो उवदिस्सति पिंडेसणा । भणितं च पिंडस्स जा विसोही० [व्यव० भा० उ० 1 गा० २८९] गाहा । अहवा अयमभिसंबंधो-धम्मपण्णत्तिअज्झयणउवसंघरणमुपदिटुं "परीसहे जिणंतस्स." [ सूत्रगा. 1], ते य परीसहा भिक्खायरियाए विसेसेण समुदिजंति, तदधियासणनिमित्तं महव्वतभरहारिसरीरसंधारणत्थं च पिंडो एसियव्वो ति पिंडेसणज्झयणमागतं । तस्स चत्तारि अणुओगद्दारा जहा आवस्सए । नामनिप्पण्णो से भण्णइ णामं ठवणापिंडो दब्वे भावे य होति णातव्यो। 10 गुल-ओदणाइ दव्वे भावे कोहादिया चउरो ॥१॥ १४५ ॥ ___णामं ठवणा० गाहा ॥१॥१४५॥ नामनिप्फण्णे पिंडनिज्जुत्ती सव्वा । सो पुण पिंडनिजुत्तिवित्थारो गैवहिं कोडीहिं समोयरति, तं०-ण हणति ण हणावेति हणंतं नाणुजाणति ३ ण पयति ३ ण किणति ३॥ तत्थ निज्जुत्तिगाहा कोडीकरणं दुविहं उग्गमकोडी विसोधिकोडी य। उग्गमकोडी छकं विसोधिकोडी भवे सेसा ॥२॥१४६ ॥ __ कोडीकरणं० गाधा । एतातो णव कोडीतो संहयाओ विभज्जमाणीतो दो भवंति, तं०-उग्गमकोडी विसोहिकोडी य । उग्गमकोडी अविसोधिकोडी, सा छविहा, तं०-आहाकम्मितं पढमा १ उद्देसियं कडं कम्म पासंड-समण-निग्गंथाणं जं कतं एसा बितिया उग्गमकोडी २ भत्त पाणपूतियं ततिया ३ मीसज्जाए घरमीसं पासंडाण य ४ पादरपाहुडिया ५ अज्झोयरए ६ एसा अविसोधिकोडी । सेसा विसोहिकोडी । ज ण हणति ३ ण 20पयति ३, अविसोधिकोडिभेदा एतेसु समोतरंति । ण किणति ३ एत्थ विसोधिकोडी समोयरति ॥ २॥ १४६ ॥ णव चेवटारसँग सत्तावीसं तहेव चउपपणा | णउती दो चेव सता उ सत्तरा होति कोडीणं ॥ ३ ॥ १४७॥ ॥पिंडेसणाणिज्जुत्ती सम्मत्ता ॥ णव चेवटारसगं० गाहा । णव कोडीतो दोहिं राग-दोसेहिं गुणियातो अट्ठारस भवंति १८। एतातो 35ञ्चेव णव कोडीतो तिहिं मिच्छत्ता-ऽविरति-अण्णाणेहिं गुणियातो सत्तावीसं भवंति २७ । सत्तावीसा. दोहिं राग-दोसेहिं गुणिता चउप्पण्णा भवति ५४ । णव कोडीतो दसविधेण समणधम्मेण गुणितातो णउतिं भवंति ९० । एसा णउती तिहिं नाण-दसण-चरित्तेहिं गुणिता दो सता सत्तरा भवंति २७० ॥३॥ १४॥ गतो नामनिप्फण्णो । सुत्ताणुगमे सुत्तं उच्चारतव्वं अखलितं जहा अणुओगद्दारे । तं च इमं८३. संपत्ते भिक्खकालम्मि असंभंतो अमुच्छितो । इमेण कमजोएण भत्त-पाणं गवेसए ॥१॥ १ उपसंहरणम् ॥ २ नवसु कोटिषु । अत्र सप्तम्यर्थे तृतीया ॥ ३ यतरि, तं० मूलादर्श ॥ ४ श्रीहरिभद्रपादैरियं गाथा भाष्यगाथात्वेन निर्दिष्टाऽस्ति ॥ ५पादं पाहुडिया मूलादर्शे ॥ ६ सगा सत्तावीसा सहेष पु. सा० ॥ ७ भिक्खुका जे.॥ Jain Education Intemational Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९ सुत्तगा० ८३-८५ णिज्जुत्तिगा० १४५-४७] दसकालियसुत्तं । ८३. संपत्ते भिक्खकालम्मि० सिलोगो । उच्च-णीय-मज्झिमेसु कुलेसु एक्कीभावेण पत्ते संपत्ते, मिक्खाणं समूहो "भिक्षादिभ्योऽण् " [ पाणि० ४-२-३८] इति भैक्षम् , भेक्खस्स कालो तम्मि संपत्ते । किं करणीतं ? भण्णति-असंभंतो 'मा वेला फिट्टिहिति, विलुप्पिहिति वा भिक्खयरेहिं भेक्वं' एतेण अत्थेण असंभंतो । अमुच्छितो अमूढो भत्तगेहीए सद्दातिसु य । इमेण कमजोएण, इमेणेति जो इतो उत्तरं भण्णिहिति तमासणं ति पञ्चक्खं दरिसेति, क्रमो परिवाडी, क्रमस्स जोगो कमजोगो तेण । भत्त-पाणं भजति खुहिया तमिति भत्तं, 5 पीयत इति पाणं, भत्तपाणमिति समासो । एतं चोएति एकालंभो (१) अपजत्तं गवेसणं मम्गणं ॥१॥ एवं गवसणीयता भणिता । तस्स भेक्खस्स कत्थ संभवो ? त्ति, भण्णति८४. से गामे वा णगरे वा गोयरग्गगतो मुणी। चरे मंदमणुव्विग्गो अवक्खित्तेण चेतसा ॥ २॥ ८४. से गामे वा० सिलोगो । से इति वयणोवण्णासे । गामे वा असति बुद्धिमादिणो गुणा इति 10 गामो। ण णिगरति कराणीति गरं । खेडादतो वि समाणजातीतसंसद्दणेण सूतिता । गोरिव चरणं गोयरो, तहा सद्दादिसु अमुच्छितो जहा सो वच्छगो, गोयरं अग्गं गोतरस्स वा अग्गं गतो, अग्गं पहाणं । कहं पहाणं १ एसणादिगुणजुतं, ण उ चरगादीण अपरिक्खितेसणाणं । मुणी विण्णाणसंपण्णो, दव्वे हिरण्णादिमुणतो, भावमुणी विदितसंसारसभावो साधू । चरणं गमणं, एवं चरेति मंदं असिग्धं । असंभंत-मंदविसेसो-असंमंतो चेयसा, मंदो क्रियया । अणुविग्गो अभीतो गोयरगताण परीसहोवसग्गाण । वक्खित्तं अक्खणीतं, ण कहिंचि 15 अक्खणीएण चेतसा चित्तेण, जं भणितं अवक्खित्तेण चेतसा ॥२॥ तं कत्थ णियतेण ? इति भण्णतिसमितिसु । तत्थ भेक्खसमीवं गमणे सति पढमं रीयासमिती उपदिस्सति । तं० ८५. पुरतो जुगर्माताए पेहमाणो महिं चरे । वेजितो बीय-हरिताई पाणे य दग-मट्टियं ॥ ३ ॥ ८५. पुरतो जुगमाताए० सिलोगो । पुरतो अग्गतो जुगमिति बलिव।संदाणणं सरीरं वा तावम्मत्तं 20 पुरतो, अंतो संकुयाए बाहिं वित्थडाए दिट्ठीए, माताए मात्रासदो अवधारणे, अहवा "जुगमादाय” तावतियं परिगेण्हिऊण पेहमाणो निरिक्खमाणो, 'सुहुमसरीरे दूरतो ण पेच्छति' त्ति न परतो, 'आसण्णो न तरति सहसा वट्टावेतुं' ति ण आरतो । अहवा "पुरतो जुगमादाय” इति चक्खुसा तावतियं परिगिज्झ पेहमाण इति, एतेण अग्गत इक्खणेण, आसादिपतणरक्खणत्थं अंतरंतरे पासतो मग्गतो य इक्खमाणो । पाढंतरं वा “सवतो जुगमावाय" नातिअभंतरं णातिदूरं एवं पेहमाणो मही भूमी तं पेहमाणो चरे गच्छेदिति। जं "चरेमंदम-28 णुविग्गों" [सुत्तगा० ८५ ] इति सा प्रवृत्तिः इह नियमिजति, एवं चरेन्ज महिं पेहमाणो । कारणमिदं-वज्जिंतो बीय-हरिताई, एतेण वणस्सतिभेदा पभूय त्ति बीय-हरितवयणं, बीयवयणेण वा दस भेदा भणिता, "हरितग्गहणेण जे बीयरुहा ते भणिता । पाणा बेइंदियादितसा । ओसादिभेदं पाणितं दगं, मट्टिया वगणिवेसातिपुढविक्कातो । गमणे अग्गिस्स मंदो संभवो, दाहभएण य परिहरिजति, वायुराकाशव्यापीति ण सव्वहा परिहरणमिति न साक्षादभिधानमिति । प्रकारवयणेण वा सव्वजीवणिकायाभिहाणं, तावपि वज्जिंतो ॥३॥ 30 १“मिक्षा पसिद्धा चेव, भिक्खाए कालो भिक्खाकालो, तम्मि भिक्खाकाले संपत्ते अण्णस्स अट्ठाए गच्छेज्जा ।" इति वृद्धविवरणे । “भिक्षाकाले' भिक्षासमये” इति हारि० वृत्तौ॥ २ करणीयम् ॥ ३ अव्वक्खि अचू० विना ॥ ४ समानजातीयसंशब्दनेन सूचिताः ॥ ५ हिरण्यादिज्ञायकः ॥ ६ अक्षणिकम् ॥ ७सव्वतो अचूपा । सव्वत्तो वृद्धपा० ॥ ८°मादाय पे अचूपा०॥ ९ वजेतो ख ३ जे. । वजन्तो शु०॥ १० एतेण प्रगतइक्ख मूलादर्शे ॥ ११ हविरुग्गहणेण जेण बीय मूलादर्श ॥ १२ नवकनिवेशादिपृथिवीकायः॥ Jain Education Interational Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पंचमं पिंडेसणज्झयणं पढमो उद्देसओ संजमविराहणारक्खणत्थमेतं मणितं । इदं तु आय-संजमविराहणारक्खणत्यं भण्णति८६. ओवायं विसमं खाणुं विज्जलं परिवज्जए। संकमेण ण गच्छेज्जा विज्जमाणे परक्कमे ॥४॥ ८६. ओवायं विसमं० सिलोगो । अहो पतणमोवातो । खड्डा-कूव-झिरिंडाती णिण्णुरणयं विसमं । 5 णातिउच्चो उद्धट्ठियदारुविसेसो खाणू । विगयमानं जतो जलं तं विबलं [चिक्खल्लो] । एताणि समंततो वजए परिवजए । पाणिय-विसमत्थाणाति संकमणं कत्तिमसंकमो तेण न गच्छेना । विजमाणे सति अन्यस्मिन् पराक्रमन्ते णेण परकमो पंथो तम्मि विजमाणे । एवं असति संकमेणावि जयणाए गच्छेज्जा ॥४॥ संदरिसितपञ्चवाता सुहं परिहरंति दुस्समपुरिसा इति पञ्चवातो दरिसिज्जति । सो य इमो८७. पवडते व से तत्थ पक्खुलते व संजते ।। हिंसेज पाण-भूते य तसे अदुव थावरे ॥ ५॥ ८७. पवडते ५० सिलोगो । खड्डातीवियडतडीतो समे वा सरीरेण भूमीए फासणं पवडणं । पक्खुलणं उंडेतस्स गमणं । तस्स पवडेंतस्स पक्खुलंतस्स जं हत्थ-पादादिलूसणं खयकरणाति तं सव्वजणप्रतीतमिति ण सुत्ते, वृत्तीए विभासिन्जति । सूत्रं तु-हिंसेज पाणभूते [य] तसे अदुव थावरे । पाण-भूत-तस-यावरविसेसो भणितो ॥५॥ पुव्वभणितं पञ्चवायकारणं णियमेन्तेहिं भण्णति ८८. तम्हा तेण ण गच्छेज्जा संजते सुसमाहिते । सैति अण्णेण मग्गेण जतमेव परक्कमे ॥ ६ ॥ ८८. तम्हा तेण ण गच्छेज्ना० सिलोगो । जतो एते दोसा अतो ओवाय-विसमातिणा ण गच्छेजा । साहूण उवदेसो पत्थुतो तेण भण्णति-संजते सुसमाहिते । अहवा तेण ण गच्छति त्ति एवं संजते सुसमाहिते भवति । सति अण्णेण मग्गेण सतीति विजमाणे तेण जतं जतमोए, एवसद्दो अवधारणे, 20 सव्वावत्यं सव्विंदियसमाहिते । अहवा ["असति अण्णेण" असति जयमेव ओवातातिणा परकमे ॥ ६ ॥ पुव्वं “परकमे” इति क्रियोपदेशः-सति अण्णेण गमणं । असति पुण विसेसे परिहरेजा ८९. चलं कटुं सिलं वा वि इट्टालं वा वि संकमो। ण तेण भिक्खू गच्छेज्जा दिट्ठो तत्थ असंजमो ॥ ७ ॥ ८९. चलं कडं सिलं वा वि इद्यालं वा वि संकमो। ण तेण भिक्खू गच्छेन्ज । किं कारणं ? 25 दिट्ठो तत्थ [असंजमो], दिह्रो णाम पञ्चक्खमुवलद्धो यत्र इव पीसणं । अयं केसिंचि सिलोगो उवरिं मण्णिहिति ॥७॥ चलसंकमणे दिट्ठो आद-तसोवघातो विसेसेण, इह पुण सुहुमपुढविकायजयणे ति मण्णति ९०. इंगालं छारियं रासिं तुसरासिं च गोमयं । संसरक्खेण पाएण संजतो तं ण अक्कमे ॥ ८॥ १पक्खलंते खं २ शु०॥ २ भूयाइं तसे खं १-२-३-४ जे० शु०॥ ३ असति अं अचूपा० ॥ ४ अचू• विना सर्वाखपि सूत्रप्रतिषु हाटी. वृद्धविवरणे च अयं सूत्रश्लोकः पाठभेदेन १६४ सूत्रश्लोकानन्तरं वर्तते । दृश्यतां १६५ सूत्रश्लोकसत्का टिप्पणी ॥ ५.अप्-त्रसोपघातः ॥ ६ ससरक्खेहिं पाएहिं अचू० विना ॥ ७णऽइक्कमे खं ३-४ जे. शु० । ण अक्मे खं १-२ अचू• वृद्ध हाटी०॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुत्तगा० ८६-९३] दसकालियसुत्तं । १०१ ९०. इंगालं छारियं रासिं० सिलोगो । इंगालो खदिराईण दवणेव्वाणं तं इंगालं । छारियं छाणादिभस्मरासिपुंजो । रासिसद्दो पुण इंगाल-छारियाए वट्टति । तहा तुसरासी भुसं सण्हं गोधूमादिपलालं । गोमयं गोपुरीसं, एत्थ वि रासि त्ति उभए वर्तते । तं एगतरं पि रासिं ससरक्खेण सरक्खो-सुसण्हो छारसरिसो पुढविरतो, सह सरक्खेण ससरक्खो तेण पाएण, एगवयणं जातीए पयत्थो । संजतो तं ण अक्कमे, तं ससरक्खं, संभवो भक्खायरियाए गमणेण वा वासणेण वा सग्गामे, अतो मा पुढविक्कायविराहणा भविस्सति त्ति तं ण 5 अक्कमेजा ॥८॥ गोयरग्गगयस्स परिसण्हपुढविक्कायजयणा भणिता । तदणंतरुद्दिट्ठस्स आउक्कायस्स तहाजातियस्स जतणोवदेसणत्थं भण्णति ९१. ण चरेज वासे वासन्ते महिताए व पडंतीए । महावाते व वायंते तिरिच्छसंपातिमेसु वा ॥ ९॥ ९१. ण चरेज वासे० सिलोगो । ण इति पडिसेहसद्दो, चरणं गोचरस्स तं पडिसेहेति । वासं मेघो, 10 तम्मि पाणियं मुयते । महिता भणिता, ताए पडतीए । वाउक्कायजयणा पुण महावाते अतिसमुद्भुतो मारुतो महावातो, तेण समुद्धतो रतो वाउक्कातो य विराहिजति । तिरिच्छसंपातिमा पतंगादतो तसा, तेसु पभूतेसु संपर्यतेसु ण चरेज्जा इति वदृति ॥९॥ आय-पाणातिवायरक्खणत्थमुवदिहें गोयरविहाणं । इदं तु विसेसेण बंभव्वतरक्खणत्थमुपदिस्सति, जहा ९२. ण चरेज वेससामंते बंभचेरवसाणुगे । बंभचारिस्स दंतस्स होजा तत्थ विसोत्तिका ॥ १० ॥ ९२. ण चरेज वेस० सिलोगो । ण चरेज ण पवत्तेज वेससामन्ते पविसंति तं विसयत्थिणोति वेसा, पविसति वा जणमणेसु वेसो, स पुण णीयइत्थिसमवातो, तस्स ण चरेज सामंते समीवे वि, किमुत तम्मि चेव । बंभचेरवसाणुए, बंभचेरं मेहुणवजणव्रतं तस्स वसमणुगच्छति जं बंभचेरवसाणुगो साधू सोण चरेजा। पाढंतरं-बंभचारिणो गुरुणो तेर्सि वसमणुगच्छतीति "बंभचेर(१ चारि )वसाणुए"। तस्स बंभचेर-20 वसाणुगस्स बंभचारिस्स दंतस्स इंदिय-णोइंदियदमेण होजा भवे तत्थ तम्मि वेसे विस्रोतसा प्रवृत्तिः विस्रोतसिका विसोत्तिका । सा चउव्विहा–णाम-ढवणातो गतातो । दव्वविसोत्तिया कट्ठ कैलिंचेहिं सारणिणिरोहो अण्णतो गमणमुदगस्स । भावविसोत्तिता वेसिस्थिसविलासविपेक्खित-हसित-विन्भमेहिं रागावरुद्धमणोसमाहिसारणीकस्स नाणदंसण-चरित्तसस्सविणासो भवति ॥१०॥ जति पुण कोति भणेज्जा-'को एत्थ केणति वा विणासिजति ?” त्ति वेससामंतगमणे नत्थि दोसो, तत्थ सुचरित-दुच्चरितसंसग्गीनिमित्तं तं दरिसिन्ति भण्णति- 25 ९३. अणाययणे चरंतस्स संसग्गीएँ अभिक्खणं । होज वताणं पीला सामण्णम्मि य संसओ ॥ ११ ॥ ९३. अणाययणे चरंतस्स० सिलोगो । एत्य तस्मिन् यतति आयतणं थाणं आलयो, ण आयतणमणायतणं अस्थानम् , तं चरित्तादीण गुणाणं, तम्मि चरंतस्स गच्छंतस्स संसग्गी संपको, संसग्गीए अभिक्खणं पुणो पुणो । किंच संदसणेण पिती पीतीओ रती रतीतो वीसंभो । वीसंभातो पणतो पंचविहं वड्डई पेम्मं ॥१॥ 30 १ बंभचेरवसाणए वृद्ध० हाटी० । बंभचारिवसाणुए अचूपा०॥ २ कणिचेटुसारणि मूलादर्श ॥ ३ अणायणे सं १-२-३-४ जे० शु० हाटी०॥ ४°ग्गीय अखं ४ वृद्ध०॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ णिज्जुत्ति-चुणिसंजुयं [पंचमं पिंडेसणज्झयणं पढमो उहेसओ होज वताणं पीला, होज इति आसंसावयणमिदं, आसंसिजति भवेद् वताणं बंभव्वतपहाणाण पीला किंचिदेव विराहणमुच्छेदो वा समणभावे वा संदेहो अप्पणो परस्स वा । अप्पणो 'विसयविचालितचित्तो समणमा छड्डेमि मा वा ?" इति संदेहो, परस्स ‘एवंविहत्थाणविचारी किं पव्वतितो विडो वेसच्छण्णो ?' ति संसयो । सति संदेहे चागविचित्तीकतस्स सव्वमहव्वतपीला, अह उप्पव्वतति ततो वयच्छित्ती, अणुप्पव्वयंतस्स पीडा वयाण, 5 तासु गयचित्तो रियं ण सोहेति त्ति पाणातिवातो । पुच्छितो 'किं जोएसि १ त्ति अवलवति मुसावातो, अदत्तादाणमणणुण्णातो तित्थकरेहि, मेहुणे विगयभावो, मुच्छाए परिग्गहो वि ॥११॥ अणंतरोवदिढे दोससमुदयं कारणभावमुवणेतुं भणति९४. तम्हा ऐवं वियाणित्ता दोसं दुग्गतिवड्डणं । वजते वेससामन्तं मुणी एगन्तमस्सिए ॥ १२ ॥ 10 ९४. तम्हा एवं वियाणित्ता सिलोगो । तम्हा इति जतो एस दोसो सव्वदोसपभूतिकरो एवमिति अणतरुद्दिद्वेण प्रकारेण विजाणित्ता दोसं, दूसयतीति दोसो, कुच्छिता गती दुग्गती, तं वड्डेति दोग्गतिवहुणो । किं करेज्जा ? इति ब्रवीति-बजते वेससामन्तं मुणी एगंतमस्सिए, एगंतो णिरपवातो मोक्खगामी मग्गो णाणादि तं अस्सितो ॥१२॥ महव्वतसारक्खणत्थमणाययणगमणं पडिसिद्धं । इह तु महत्वताधारभूयसरीरपडिवालणत्थमुपदिस्सति ९५. साणं सूवियं गावि दित्तं गोणं हयं गयं । संडिब्भं कलहं जुडं दूरओ परिवज्जए ॥ १३ ॥ ९५. साणं सूवियं० सिलोगो । साँणं लक्खियं, अलक्खियं पुण विसेसेण । गाविमसूई पि किं पुण सूतियं । दित्तो दप्पितो कुवितो वा तं दित्तं, गोणं हयं गयं गोण-हय-गया प्रतीता । संडिन्भंडिमाणि चेडरूवाणि णाणाविहेहिं खेलणएहिं खेलंताणं तेसिं समागमो संडिब्भं । कलहो बाधा-समधिक्खेवादि । जुद्धं 20 आयुहादीहि हणाहणी । अपरिवजणे दोसो-साणो खाएज्जा, गावी मारेज्जा, गोण-हत-गता वि, चेडरूवाणि परिवारेतुं वंदताणि भाणं विराहेजा आहणेज वा इट्टालादिणा, कलहे अणहियासो किंचि हणेज भणेज वा अजुत्तं, जुद्धं उम्मत्तकंडादिणा हम्मेज । प्रकारवयणेण एते समाणदोसे महिसादिणो वि दूरतो परिवजए। __पातेण दुविणीतो अविणीयजणस्स जं च वसवत्ती । हत्थि मतो हत्थसतादालोकादेव वजेज्जा ॥१॥ [ ]॥१३॥ 25 परसमुत्थदोसपरिहरणं भणितं । इदं तु सरीर-चित्तगतदोसपरिहरणत्थमुपदिस्सति ९६. अणुण्णते णावणए अप्पहिढे अंणाविले। इंदियाइं जहाभागं दमइत्ता मुणी चरे ॥ १४ ॥ ९६. अणुण्णते णावणए० सिलोगो । अकारो पडिसेहगो उण्णतस्स । उण्णतो चउविहो । णाम-उवणातो गतातो । दव्वुण्णतो जो चण्णाडीतएण विणिहालिंतो जाति । भावुण्णतो हट्ठ-तु-विहसितमुहो जातिया30 दिमएहिं वा अट्ठहिं मत्तो । अवणतो चतुन्विहो-दव्वोणतो जो अवणयसरीरो गच्छति । भावोणतो 'कीस ण १ विकृतभावः ॥ २ एयं खं १-२-३-४ शु वृद्ध० हाटी० ॥ ३ दोग्ग ख १-३-४ जे० वृद्धः ॥ ४ सइयं खं १-३-४ जे० । सूर्य खं २ शु० ॥ ५संडिंभ हाटी.॥ ६ साणमणलक्खियं, अल मूलादर्श ॥ ७ अणुभए सं १-२-३ जे. शु० वृद्ध । अणुन्नये खं ४॥ ८ अणाउले खं १-२-३-४ शु० वृद्ध० हाटी । अणाइले जे०॥ Jain Education Intemational Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 सुत्तगा० ९४-९८] दसकालियसुत्तं । लमामि १ विरूवं वा लभामि १ अस्संजता पूतिजंति' इति दीणदूमणो । दव्वतो ताव उण्णता-ऽवणएसु दोसो-दव्वुण्णतो रियं ण सोहेति, 'उम्मत्ततो सविगारो' त्ति वा लोगो गरहति; दव्वावणतो 'अहो ! जीवरक्खणुजुत्तो, सव्वपासंडाण वा णीयमप्पाणं जाणति' ति जणो वएज्जा । भावतो उण्णतावणतं तु सुत्तेणेव विभासिजति-अपहिडे पहिट्ठो भावुण्णतो, ण पहिट्ठो अपहिट्ठो। पहिलृ हिंडमाणं लोगो संभावेज्ज-'सविकारो हिंडति, अस्थि से काति, विण्णाणादि-5 गवितो वा समणगो' एते चोआ (१ इति बूआ)। भावावणतो आविलो कलुसचित्तो । कोहादिवसट्टत्तणेण एत्थ दोसो-तं ओमंतुयं हिंडमाणं लोगो पवदति-गुणं काओ वि खंडितो, दीणो वरातो हीणजातीतो वा । सव्वेसिं अकारेण पडिसेहो, अणुण्णते णावणए अप्पहिहे अणातिले। इंदियाणि सोतादीणि, ताणि जहाभागं जहाविसतं, सोतस्स भागो सोतव्वं, तत्थ दमइत्ता विसयणिरोहादिणा, एवं सव्वाणि दम[इत्ता] वसं णेऊण मुणी चरे ॥ १४ ॥ जहा उण्णमण-णमणादिचेट्ठाविसेसपरिहरणं तहा इदमपि ९७. दवदवस्स णै चरेज्जा भासमाणो वि गोयरे । हसंतो णाभिगच्छेज्जा कुलमुच्चावयं सदा ॥ १५ ॥ ९७. दवदवस्स ण चरे० सिलोगो । दवदवस्स अतिसिग्धं । संभम-दवदवाण विसेसो जहा-पुव्वगामंतर-गिहंतेसु तत्थ संजमविराहणा, जं पुण दवद्दवस्स तं गिहतरेसु तेण संजमविराहणा पवयणोवघातो य जणसमक्खं । किंच-संभमो चित्तगतो विसेसो, दवद्दवस्सेति कायचेट्ठा, एस विसेसोति । इदमवि भणितव्वं-जहा 15 दवहवस्स ण चरे तहा भासमाणो विआलप्पालाणि बुव्वंतो सिलोगादि वा पढंतो । इदमवि-इरियं च ण सोहेति तेण हसंतो णाभिगच्छन्ना कुलमुच्चावयं सदा, कुलं संबंधिसमवातो तदालदो वा घर (१)। उच्चावचमणेगविहं हीण-मज्झिम-मुत्तमं । हीणे परिभवति त्ति, मज्झिमे का वि संभावणा, पहाणे अंतेपुरादिसु कडगमद्दणदोसो। जतो एते दोसा इति अविहिणा [ण] पविसितव्वं ॥१५॥ तुरित-मासित-हसितनिवारणेण वाक्कायनियमो कतो। चक्खुरातीण विणियमाय भण्णति९८. आलोगं थिग्गलं दारं संधिं दगभवणाणि य। चरंतो न विनिझाए संकट्ठाणं विवज्जए ॥ १६ ॥ ९८. आलोग थिग्गलं. सिलोगो । आलोगो गवक्खगो । थिग्गलं दारं निग्गम-पवेसमुहं । संघी जमलघराणं अंतरं । पाणियकम्मन्त-पाणियमंचिका-हाणमंडवादि दगभवणाणि । चकारो समुच्चये। एताणि समुदिताणि पत्तेयं वा चरंतो भणिओ न [वि ]निज्झाए, णकारो पडिसेहे, निझायणं णिरिक्खणं तं पडिसेहेति, विसद्देण विसेसदरिसणं वारिज्जति, ण सहसा, एतेसिमणालोक्कणेण संकट्ठाणं विवजए, ताणि 25 निज्झायमाणो 'किण्णु चोरो १ पारदारितो ? त्ति संकेजेजा, थाणं पदं, तमेवंविहं संकापदं विवज्जए ॥१६॥ विचरंतस्स घरंतराति वाकाय-चक्खुनियमणमुपदिटुं । जम्मि ठाणे ठितो भिक्खं गेण्हति तदिदमुपदिस्सति 20 १“अप्पहिट्टि त्ति अप्पसद्दो अभावे वट्टइ थोवे य, इहं पुण अप्पसद्दो अभावे दट्टव्वो, अहसंतो त्ति वुत्तं भवति, मज्झत्थभावमहिद्विऊण समुदाणस्स गच्छेबा" इति वृद्धविवरणे॥ २ काचित् ॥ ३ण गच्छेज्जा अचू० विना ॥ ४ व हाटी। य अचू० हाटी• विना ॥ ५°लं उच्चा खं १-२-३-४ शु• वृद्ध.॥ ६ “दवदवस्स नाम दुयं दुयं । सीसो आह-णणु “असंभंतो भमुच्छिो ' [सुतं ८३] एतेण एसो अत्यो गओ, किमत्थं पुणो गहणं? । आयरिओ भणइ-पुब्वभणियं तु जं भण्णति तत्थ कारणं अस्थि-जं तं हेट्ठा भणियं तं अविसेसियं पंथे वा गिहतरे वा, तत्थ संजमविराहणा पाहण्णेण भणिया, इह पुण गिहाओ गिहतरं गच्छमाणस्स भण्णइ; तत्य पायसो संजमविराहणा भणिया, इह पुण पवयणलाघव-संकणाइदोसा भवंति त्ति ण पुणरुत्तं ।” इति वृद्धविवरणे ॥ ७°निजाए खं ३-४ जे० ॥ ८ संकाठाणं वृद्ध०॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पंचमं पिंडेसणज्झयणं पढमो उसओ ९९. रण्णो गहवतीणं च रहस्सारक्खिताण य । __ संकिलेसकरं ठाणं दूरतो परिवज्जए ॥ १७ ॥ ९९. रणो गहवतीणं च० सिलोगो । रोया भूमीवती । गिहवइणो इन्भादतो । रहस्सारक्खिता रायंतेपुरवरा-ऽमात्यादयो । एतेसिं संकिलेसकरं ठाणं जत्थ इत्थीतो वा रातिं वा पतिरिक्कमच्छंति मंतंति वा 5 तत्थ जदि अच्छति तो तेसिं संकिलेसो भवति-किं एत्य समणयो अच्छति ? कत्तो त्ति वा ?, मन्त्रभेदादि संकेजा, अतो तं थाणं दूरतो परिवज्जए ॥ १७ ॥ भेक्खग्गाहिणो साधुस्स थाणमुपदिटुं । इदं तु मिक्खाए थाणमुवदिस्सति 'जतो मग्गियव्वा ? ण वा ?' एवमिदं सिलोगसुत्तमागतं१००. पडिकुट्ठ कुलं ण पविसे मामकं परिवजए। अँच्चियत्त कुलं ण पविसे चियत्तं पविसे कुलं ॥ १८ ॥ 10. १००. पडिकुट्ट कुलं ण पविसे० सिलोगो । पडिकुटुं निंदितं, तं दुविहं-इत्तिरियं आवकहियं च, इत्तिरियं मयगसूतगादि, आवकहितं चंडालादी, तं उचयमवि कुलं ण पविसे । कुलं उक्तं । मामकं परिवजए ‘मा मम घरं पविसंतु' त्ति मामकः, सो पुण पंतयाए इस्सालयताए वा । अच्चियत्त कुलं ण पविसे, अचियत्तं अप्पितं, अभिट्ठो पवेसो जस्स सो अचियत्तो, तस्स जं कुलं तं न पविसे, अहवा ण चागो जत्य पवत्तइ तं दाणपरिहीणं केवलं परिस्समकारी तं ण पविसे । चियत्तं इट्टणिक्खमण-पवेसं चागसंपण्णं वा तहाविधं 15 पविसे कुलं ॥१८॥ पडिकुट्ठ-मामका-ऽचियत्तवज्जणमुपदिटुं । इहावि ते दोसा संभवंतीति भण्णति १०१. साणी-पावारपिहितं अप्पणा ण अवंगुरे । कवाडं णो पणोलेज्जा ओग्गॅहं सिअ जाइया ॥ १९ ॥ १०१. साणीपावारपिहितं. सिलोगो । सणो वक्वं, पडी साणी । कप्पासितो पडो सरोमो पावारतो। पडिसिरातीहिं वा पिहितं ठइतं, तं संतं ण अवंगुरेज । किं कारणं ? तत्थ खाणे-पाण-सँइरालाव-मोहणा20 रंभेहिं अच्छंताणं अचियत्तं भवति, तत एव मामकं लोगोवयारविरहितमिति पडिकुट्ठमवि । तत्थ जणा भणंति-एते बइल्ला इव अग्गलाहिं रंभियव्वा । तहा कवाडं णो पणोलेजा, कवाडं दारप्पिहाणं तं ण पणोलेज्जा, तत्थ त एव दोसा यत्रे य सत्तवहो। होज कारणं पवेसे अतो ओग्गहं सिअ जाइया तविहे पओयणे अणुण्णविय अवंगुरेजा वा पणोलेजा वा ॥ १९ ॥ पडिकुट्ठादिविवजणत्थमिदमवि पवयणउवघातियं परिहरेतव्वमिति१०२. गोयरग्गपविठ्ठो उ वच्च-मुत्तं ण धारए । ओवीसं फासुयं णच्चा अणुण्णाते तु वोसिरे ॥२०॥ 25 १रहसाऽऽरक्खियाण य हाटी० । रहसाऽऽरक्खियाणि य खं १-२-४ शु। रहस्साऽऽरक्खियाणि य जे०॥ २“रण्णो रहस्सट्ठाणाणि गिहवईणं रहस्सट्ठाणाणि आरक्खियाणं रहस्सट्ठाणाणि, संकणादिदोसा भवति । चकारेण अण्णे वि पुरोहितादि गहिया । रहस्सट्राणाणि नाम गुज्झोवरगा, जत्थ वा राहस्सियं मंति । एताणि ठाणाणि संकिलेसकरराणि भवंति, सवणगो एत्थ, इत्थियाइए हिय-णटे संकणादिदोसा भवंति, तम्हा दूरतो परिवजए ।" इति वृद्ध विवरणे । वृद्धविवरणसंवादिन्येव हारिभद्री टीका वर्तते ॥ ३ मामगं अचू० विना ॥ ४ अचियत्त अचू० विना ॥ ५ अप्रियम् ॥ ६नावपंगुरे अचू० जे० विना। नाववंगुरे जे०॥ ७ ओग्गहसि अजाइया अचू० विना । ओग्गहं से अजातिया अचू० मुद्रितपत्र ६ पति ८॥ ८ खयम् ॥ ९ खान-पानखैरालाप-मोहनारम्भैः ॥ १० °सउराला मूलादर्श ॥ ११ “कवाडं लोगपसिद्धं, तमवि कवाडं साहुणा णो पणोल्लेयव्व, तत्थ पुन्वभणिया दोसा सविसेसयरा भवंति । एवं उग्गहं अजाइया पविसंतस्स एते दोसा भवन्ति । जाहे पुण अवस्सकजं भवति 'धम्मलाभों एत्य सावयाणं अत्थि जति अणुवरोधो तो पविसामो।" इति वृद्धविवरणे । श्रीहरिभद्रपादैरेतदनुसार्येव व्याख्यातमस्ति खवृत्तौ ॥ १२ ओगासं शु० ॥१३ अणुण्णायम्मि वो खं १-३-४ जे० । अणुन्नावेत्तु वो वृद्ध० हाटी । अणुनविय वो खं २ शु०॥ Jain Education Intemational Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ९९-१०५] दसकालियसुत्तं । १०२. गोयरग्गपविट्ठो उ. सिलोगो । पुव्वं चेव उच्चारातीउवओगो कातव्वो, मा गोयरग्गगतस्स भविस्सति । जदि पुण वावडताए अकओवओगो गोयरमुपगतो कतोवयोगस्स वा किह वि होज ततो वच-मुत्तं ण धारणीयं । भणितं चमुत्तनिरोहे चक्खं वञ्चनिरोहे य जीवियं चयति । उढनिरोहे कोढं सुक्कनिरोहे भवे अपुमं ॥१॥ [ओघनि० गा० १९७] अधारणे सति किं करणीयम् १ उच्यते-ओवासं फासुयं णच्चा सहायहत्थे भायणाणि दाऊण विहिणा पाणगमुपादाय अणावायमसंलोए वोसिरितव्वं । अणुण्णाते भगवता ओवासे भावासण्णे, जस्स पुरोहडादि तेण अणुण्णाते रायमग्गादौ वा ॥ २०॥ जहा गोयरग्गगतस्स मुत्त पुरीसधारणमात-संजमोवघातिकं एवमिदमपीति भण्णति१०३. णीयदुवौर-तमसं कोहगं परिवजए । ____ अचक्खुविसओ जत्थ पाणा दुप्पडिलेहगा ॥ २१ ॥ १०३. णीयदुवारतमसं० सिलोगो । णीयं दुवारं जस्स सो णीयदुवारो, तं पुण फलिहय वा कोट्टतो वा जओ भिक्खा नीणिजति, पलिहतदुवारे ओणतकस्स पडिमाए हिंडमाणस्स खद्धवेउब्वियाति उड्डाहो । णीयदुवारत्तणेण वा तमसो जो कोट्ठओ जत्थ पिपीलिकादयो पाणा चक्खुणा अविसयो ति दुप्पडिलेहगा दुरुवलक्खा इति दायगस्स उक्खेव-गमणाती ण सुज्झति, अतो तं कोढगं भिक्खगहणं प्रति समंततो वजए 15 परिवजए ॥ २१ ॥ नीयदुवार-तमसातो अचक्खुविसओ त्ति वज्जितं भिक्खगहणं । पगासातो वि नत्थि गहणं इमेहिं कारणेहिं१०४. जत्थ पुप्फाणि बीयाणि विप्पइण्णाणि कोट्ठगे। अधुणोवलित्तं ओल्लं दट्टणं परिवज्जए ॥ २२ ॥ १०४. जत्थ पुप्फाणि सिलोगो । जत्थ जम्मि पुप्फाणि उप्पलातीणि अभिणबुक्खयसच्चित्ताणि, 20 बीयाणि वा सालिमादीणि, विविहं पकिण्णाणि कोट्ठगदुवारपहेसु दुपरिहराणि दायगस्स, किं च अधुणोवलित्तं ओल्लं, उवलित्तमेत्ते आउक्कातो अपरिणतो निस्सरणं वा दायगस्स होजा अतो तं [परि वजए ॥ २२ ॥ सुहुमकायजयणाणंतरं बादरकायजयणोवदेस इति फुडमभिधीयते - १०५. एलगं दारगं साणं वच्छतं वा वि कोट्ठए । उल्लंधिया ण पविसे विऊहित्ताण वै संजए ॥ २३ ॥ ___25 १०५. एलगं दारगं साणं० सिलोगो । एलगो बक्करओ, दारओ चेडरूवं, साणतो सुणतो, वच्छतो गो-महिसतणयो, पहाणेण पुलिंगाभिधाणमितराओ चित्त (१ वि तू)। उल्लंघणं उप्परेण गमणं, विऊहणं उप्पीलणं । एत्थ पञ्चवाता-एलतो सिंगेण फेट्टाए वा आहणेजा । दारतो खलिएण दुक्खवेजा, सयणो वा से अप्पत्तिय-उप्फोसण-कोउयादीणि पडिलग्गे वा गेण्हणातिपसंगं करेजा । सुणतो खाएज्जा । वच्छतो वितत्थो बंधच्छेय-भायणातिमेदं करेजा । वियूहणे वि एते चेव सविसेसा ॥ २३ ॥ एलगादीण थूलाण परिहरणमुपदिढं । 30 अतो सण्हतरेहिं वि तु-असंसत्तं० । अहवा अजुत्तं उल्लंघणातिकायचेट्टापरिहरणं भणितं । दिट्ठीए वि १ गेलण्णं वा भवे तिस वि इति ओघनियुक्तौ पाठः॥ २ वारंत अचू० विना ॥ ३वि खं ४॥ द.सु. १४ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पंचमं पिंडेसणज्झयणं पढमो उहेसओ १०६. असंसत्तं पलोएज्जा णातिदूरा वलोयए। . उप्फुल्लं ण विणिज्झाए णियटेज अयंपुरो ॥ २४ ॥ १०६. असंसत्तं पलोएबा सिलोगो । संसत्तं तसपाणातीहि समुपचितं, न संसत्तं असंसत्तं, तं पलोएन्ज, जत्य ठितो भिक्खं गेण्हति दायगस्स वा आगमणातिसु । तं च णातिदूरा वलोयए अतिदूरत्थो पिपीलिकादीणि ण पेक्खति, अतो तिघरंतरा परेण घरंतरं भवति पाणजातियरक्खणं ण तीरति ति । अहवा असंसत्तं पलोएन्जा भव्वयरक्खणत्थं इत्थीए दिट्ठीए दिहिँ अंगपञ्चंगेसु वा ण संसत्तं अणुबंधेज्जा, ईसादोसपसंगा एवं संभवंति, णातिदूरगताए वत्तससणिद्धादीहत्थ-मत्तावलोयणमसंसत्ताए दिट्ठीए करणीयं । जता वि णातिदूरे अवलोकणं तं पि उप्फुल्लंण विणिज्झाए, उप्फुलं उद्भुराए दिट्ठीए, “फुल विकसणे" इति, हासविगसंततारिगं ण विणिज्झाए ण विविधं पेक्खेज्जा, दिट्ठीए विनियट्टणमिदं । वाताए वि णियद्वेज अयंपुरो 10 दिण्णे परियंदणेण अदिण्णे रोसवयणेहिं "दिट्ठा सि कसेरुमती०" [ ]एवमादीहिं अजंपणसीलो अयंपुरो एवंविधो णियट्टेज्जा ॥ २४ ॥ अणंतरमयंपुरस्स नियत्तणमुवदिटुं । इतो वि णियत्तियव्वं ति भण्णति १०७. अतिभूमि न गच्छेज्जा गोयरग्गगतो मुणी। __कुलस्स भूमि णाऊण मितं भूमि परक्कमे ॥ २५ ॥ १०७. अतिभूमि न गच्छेजा. सिलोगो । भिक्खयरभूमिअतिक्कमणमतिभूमी तं ण गच्छेजा । गोयरो 15 अग्गं मुणी य पुव्वभणियाणि । किं पुण भूमिपरिमाणं १ इति भण्णति-तं विभव-देसा-ऽऽयार-भद्दग-पंतगादीहिं कुलस्स भूमि णाऊण पुव्वपरिक्कमणेणं अण्णे वा भिक्खयरा जावतियं भूमिमुपसरंति एवं विण्णातं मितं भूमि परक्कमे बुद्धीए संपेहितं सव्वदोससुद्धं तावतियं पविसेज्जा ॥ २५ ॥ जम्मि य भूमिगमणमुद्दिट्ठमणंतरं तम्मि वि आय-पवयण-संजमोवरोहपरिहरणत्थं नियमिजति१०८. तत्थेव पडिलेहेजा भूमिभागं वियक्खणो । ओसिणाणस्स वच्चस्स संलोगं परिवज्जए ॥ २६ ॥ १०८. तत्थेव पडिलेहेज्जा सिलोगो। तत्थेति ताए मिताए भूमीए, एवसद्दो अवधारणे । किमवधारयति ? पुव्वुद्दिढें कुलाणुरूवं भूमिभागं पडिलेहेज्जा परिक्खेजा। भूमीए पदसो भूमिभागो। वियक्खणो पराभिप्पायजाणतो, कहिं चियत्तं ण वा १ । विसेसेण पवयणोवघातरक्खणत्थं आसिणाणस्स, आसिणाणं जत्थ सपडिच्छण्णं इत्थीओ पहायंति पुरिसा वा, तत्थ आय-परसमुत्था दोसा । असुतित्थाणमिति गरहितं च वच्चं 25 अमेझं तं जत्थ । पंचप(१पसु-पं)डगादिसमीवथाणादिसु त एव दोसा इति । संलोगो जत्थ एताणि आलोइजति तं परिवजए ॥ २६ ॥ तत्थेवेति भूमिभागपरक्कमेण भूमिपदेसपडिलेहणे इदमवि णियमिजति - १०९. दगमट्टितआताणे बितियाणि हरिताणि य । ___ परिवज्जेतो चिट्ठज्वा सबिंदियसमाहितो ॥ २७ ॥ १०९.दगमहितआताणे० सिलोगो।दगं पाणियं, महिया सचित्तपुढविक्कायो, सो जत्थ अधुणाऽऽणीयो, 30 जत्थ जेण वा थाणेण उदगमट्टियाओ गेण्हंति तं दगमट्टियायाणं, तत्थ त एव दोसा । वितियाणि १णियंटिज खं १०॥ २ अयंपिरो अचू० विना । अजंपिरो जे०॥ ३ वाचाऽपि ॥ ४ भूमि जाणिसा मियं वृद्ध. अचू० विना ॥ ५ सिणाणस्स य वञ्च खं २ शु० हाटी.॥ ६ मट्टियआयाणे खं १-२-३ जे० वृद्ध० । मट्टीआयाणे सं ४ शु०॥ ७बीयाणि अचू० विना ॥ ८ समाहिए अचू० विना ॥ Jain Education Intemational Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तं १०६-१३] दसकालियसुत्तं । १०७ सालिमादीणि हरिताणि दुव्वादीणि परिवजेतो समंततो वज्जेतो परिवजेतो चितुजा एताणि परिहरिऊण भिक्खाए थाएजा । सबिदियसमाहितो सव्वेहिं इंदिएहिं एएसि परिहरणे सम्म आहितो समाहितो ॥२७॥ एवं काले अपडिसिद्धकुलमियभूमिपदेसावत्थितस्स गवसणाजुत्तस्स गहणेसणाणियमणत्थमुपदिस्सति११०. तत्थ से चिट्ठमाणस्स आहरे पाण-भोयणं । अकप्पितं णे इच्छेज्ज पडिग्गाहेज कप्पितं ॥ २८ ॥ ११०. तत्थ से चिट्ठमाणस्स० सिलोगो। तत्थ तम्मि पडिलेहिते भूमिभाग से इति छट्ठीसव्वाएसो तत्थ तस्स, तत्थ से चिट्ठमाणस्स तम्मि ठाणे मिक्खत्थमुपस्थितस्स अमिमुहं हरे आहरे पीयते इति पाणं भुज्यते इति भोयणं तं आहरे पाण-भोयणं । तं पुण अकपिपतं ण इच्छेन्ज बायालीसाए अण्णतरेण एसणादोसेण दुहुँ । तेहिं चेव सुद्धं पडिग्गाहेज कल्पितं ॥२८॥ कप्पितं सेसेसणादोसपरिसुद्धमवि भायणदोसेण पक्खालणेण वा१११. आहरेती सिया तत्थ परिसाडेज भोयणं । दितियं पडियाइक्खे ण मे कप्पइ तारिसं ॥ २९ ॥ १११. आहाती सिया तत्थ० सिलोगो। आहरेंती आणेती सिता कदायि तत्थ तम्मि पुबुद्दिढे ठाणे ठितस्स परिसाडेज समंता साडेजा भोयणं पाण-भोयणाधिकारे भोयणपरिसाडणं महादोसमिति तस्स गहणं । दितियं पडियाइक्खे 'पाएणं इत्थीहिं भिक्खादाणं' ति इत्थीनिदेसो, पडियातिक्खे पडिसेहेज । इमेण 15 वयणेण-ण मे कप्पति तारिसं, न मम कप्पति, "एरिसं" इति भणितव्वे तारिसनिद्देसो तारिसं सोतारमासज्ज । परिसाडणपसंगदोसोदाहरणं वारत्तगनिदरिसणं [ पिण्डनि • गा० ६२८ ], सयं वा एतं जाणेजा ॥ २९॥ परिसाडणभोयणेण पाणजातिअक्कमणपसंग-विमद्ददोसा भवेजा यह पुण साक्षादुपघात एवातो भण्णति११२. सम्मदमाणी पाणाणि बीयाणि हरियाणि य । असंजमेकरी णच्चा तारिसं परिवजए ॥ ३० ॥ ११२. सम्मघमाणी० सिलोगो। सम्ममाणी एगीभावेण बहूण विमई करेंती पाणाणि पिपीलिकादीणि बीयाणि सालिमादीणि हरियाणि हरियालियादीणि, वासदेण सव्ववणस्सतिकायं पुढविक्कायादी य एगिंदिए । असंजमकरी एतं असंजमं साधुनिमित्तं करेति ति णातूण तारिसं पुन्वमधिकृतं पाण-भोयणं परिवजए ॥३०॥ परिसाडणे दातगस्स य गमणा-ऽऽगमण-सम्महणे दोसपरिहरणमुपदिटुं । इदं तु दाणीयदव्वसम्मदणदोसपरिहरणथं भण्णति 20 ११३. साह? निक्खिवित्ता णं सञ्चित्तं घेट्टिऊण य । तहेव समणट्ठाए उदगं संर्पणोल्लिया ॥ ३१ ॥ ११३. साहहु निक्खिवित्ताणं० सिलोगो । साहड्ड अण्णम्मि भायणे छोणं । एत्थ य फासुयं अफासुए साहरति चउभंगो । तत्य जं फासुयं फासुए साहरति तं सुक्खं सुक्खे साहरति एत्थ वि चउमंगो । मंगाण पिंडनिजुत्तीए विसेसत्यो [गा० ५६३ -६८ ]। निक्खिवित्ता ठवेत्ता छसु काएसु सचित्तं अमिलायपुप्फाति 50 .१ण गेण्हेज्जा ख १-२-३ शु० हाटी०॥ २°मकरिखं २-३-४ शु. । मकरं जे०॥ ३ घट्टियाणि य खं १२-३-४ जे. शु०॥ ४°पणुल्लि खं.२ ॥ 20 Jain Education Intemational Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पंचमं पिंडेसणज्झयणं पढमो उद्देसो घद्देऊण तहेव समणवाए तेणेव प्रकारेण सचित्तसंघट्टणाइणा इध समणद्वाए उदगं संपणोल्लिया विच्छता [दलेति] "तारिसं परिवजए"ति अणुवत्तति ॥ ३१ ॥ साहरण-निक्खिवण-पणोलणाणि भणिताणि । सव्वपगार संघट्टणातीध भण्णति११४. आगाहइत्ता चलइत्ता आहरे पाण-भोयणं । देतियं पडियायिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ ३२ ॥ ११४. आगाहइत्ता सिलोगो । आगाहणं अभिणवछड्डियस्स पाएण विमद्दणं आउकायस्स । चलणं अणंतर-परंपरगतस्स केणति सरीरावयवेण । देतियं पडियायिक्खे ण मे कप्पति तारिसं, एतेसिं पदाणं पुव्वभणितो अत्यो ॥ ३२ ॥ आउक्कायस्स आगाहणा-चलणाति निवारियं । हत्य-मत्तगतमिदं विसेसिज्जति ११५. पुरेकम्मकतेण हत्थेण दैव्वीए भायणेण वा । देंतियं पडियायिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ ३३ ॥ ११५. पुरेकम्मकतेण. सिलोगो । पुरेकम्मं जं साधुनिमित्तं धोवणं हत्यादीणं हत्थो सरीरावयवो। दव्वी वंजणादिआघट्टण-उद्धरणगं कंस-वंसादिभायणं । एतेसिं अण्णयरेण पुरेकम्मकतेण बेतियं पडियायिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ ३३॥ आउक्कायविराहणपरिहरणप्पगारो भणितो । इदमवि तस्स परिहरणे प्रकारान्तरं, तं जहा११६. उदेओल्लेण हत्थेण दव्वीए भायणेण वा । देतियं पडियायिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ ३४ ॥ ११६. उदओल्लेण सिलोगो । उदओल्लं जं णं साधु पुरतो काउं कतं उदगद्दत्तणेण गलति । पच्छद्धं तहेव ॥ ३४॥ ११७. ससिणिडेण हत्थेण दव्वीए भायणेण वा । देतियं पडियायिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ ३५ ॥ ११७. ससिणिद्धेण सिलोगो । ससिणिद्धं जं उदगेण किंचि सिद्धं, ण पुण गलति ॥ ३५ ॥ ११८. ससरक्खेण हत्येण दव्वीए भायणेण वा। देंतियं पडियायिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ ३६ ॥ १ भोगाहाता हाटी० ॥ २°हयित्ता चलयित्ता खं ३ वृद्ध । हएत्ता चलएता ख २॥ ३ पुरेकम्मेण . अचू• वृद्ध० विना ॥ ४ दब्धिए खं १-२-४ ॥ ५°याइक्खे अचू. विना ॥ ६ ११६ गाथातः १३२ पर्यन्तगाथास्थाने जे. प्रति विहाय सर्वास्वपि सूत्रप्रतिषु एतत् सङ्ग्रहणीगाथायुगलं दृश्यते एवं-उदओल्ले ससिणिद्धे ससरक्खे मट्टिया ऊसे । हरियाले हिंगुलुए मणोसिला अंजणे लोणे ॥ गेल्य वणिय सेडिय सोरट्टिय पिट्ट कुक्कुसकए य । उक्कटुमसंसदे संसट्टे चेव बोडब्वे॥ किश्व-अगस्त्यसिंहपादवद् वृद्धविवरणकृताऽपि खव्याख्यायां साक्षाद् गाथा एव व्याख्याता निर्दिष्टाव सन्ति । तथा हि "एवम्-उदउल्ले० सिलोगो। उदउल्लं नाम जलर्तितं उदउल्लं । सेसं कण्ठं ॥ एवम्-[ससणिखे० सिलोगो।] ससणि नाम न गलइ । सेसं कंठ ॥ ससरक्खेण [ सिलोगो] । ससरक्खं नाम पंसु-रजगुंडियं । सेसं कंठं ॥ महियाकए [सिलोगो]। मट्टिया चिक्खालो । सेस कंठं ॥ एतेग पगारेण सव्वत्थ भाणियव्वं-ऊसो णाम पंसुखारो । हरियाल-हिंगुल-मणोसिला-अंजणाणि पुढविमेदा।" इत्यादि वृद्धविवरणे । श्रीहरिभद्रपादैः पुनरुपर्युल्लिखिते सङ्कहणीगाये एव व्याख्याते स्तः ॥ ७ ससणिण सं २ Jain Education Interational Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ 10 सुत्तगा० ११४-३०] दसकालियसुत्तं। ११८. ससरक्खेण सिलोगो । ससरक्खं पंसु-रउग्गुंडितं । सेसं तहेव ॥ ३६ ॥ ११९. मट्टियागतेण हत्थेण दव्वीए भायणेण वा। __ देंतियं पडियायिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ ३७॥ ११९. महियागतेण सिलोगो । मट्टिया लेटुगो । सेसं भणितं ॥ ३७॥ एतेण विधिण १२०. ऊसगतेण हत्येण दव्वीए भायणेण वा । देतियं पडियायिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ ३८ ॥ १२१. हरितालगतेण हत्येण दव्वीए भायणेण वा । देंतियं पडियायिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ ३९ ॥ १२२. हिंगोलंयगतेण हत्थेण दवीए भायणेण वा । देंतियं पडियायिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥४॥ १२३. मणोसिलागतेण हत्येण दवीए भायणेण वा। देंतियं पडियायिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥४१॥ १२४. अंजणगतेण हत्येण दव्वीए भायणेण वा । दंतियं पडियायिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ ४२ ॥ १२५. लोणगतेण हत्येण दव्वीए भायणेण वा । देंतियं पडियायिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ ४३ ॥ १२६. गेरुयगतेण हत्थेण दव्वीए भायणेण वा । देंतियं पडियायिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ ४४ ॥ १२७. वणियगतेण हत्थेण दवीए भायणेण वा। देंतियं पडियायिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ ४५ ॥ १२८. सेडियगतेण हत्येण दव्वीए भायणेण वा। देंतियं पडियायिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ ६ ॥ १२९. सोरट्ठियगतेण हत्येण दव्वीए भायणेण वा। देतियं पडियायिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ ४७ ॥ १३०. पिट्ठगतेण हत्येण दव्वीए भायणेण वा । देंतियं पडियायिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥१८॥ १ मटियाकरण वृद्ध० ॥ २ हिंगुलुय सं २-३-४ वृद्ध० ॥ Jain Education Intemational Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पंचमं पिंडेसणज्झयणं पढमो उद्देसो १३१. कुक्कुसगतेण हत्येण दव्वीए भायणेण वा । देंतियं पडियायिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ ४९ ॥ १३२. उक्कुट्ठगतेण हत्थेण दवीए भायणेण वा । देंतियं पडियायिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ ५० ॥ १२०. ऊसो लवणपंसू ॥ ३८॥ १२१. हरितालं खाणिसु पुढविक्कायविसेसो ॥ ३९ ॥ १२२-२४. हिंगोलुयमवि मणोसिला वि अंजणमवि तहाजातीयं ॥४०॥४१॥४२॥ १२५. लोणं सामुद्दादि ॥ ४३॥ १२६. गेरुयं सुवण्णगेरुतादि ॥४४॥ १२७. वण्णिता पीतमट्टिया ॥४५॥ १२८. सेडिया महासेडाति ॥४६॥ १२९. सोरहिया तूवरिया सुवण्णस्स ओप्पकरणमट्टिया ॥४७॥ १३०. आमपिढे आमओ लोट्टो । सो अणिंधणो पोरुसीए परिणमति । बहुइंधणो आरतो चेव ॥४८॥ १३१. कुक्कसा चाउलत्तया ॥४९॥ १३२. उक्कुटुं थूरो सुरालोट्टो, तिल-गोधूम-जवपिटं वा । अंबिलियापीलुपण्णियातीणि वा उक्खलछुण्णादि ॥ ५० ॥ जहा पुरेकम्मादिआउक्कायोवघातो तहा तहा वि भण्णति १३३. असंसटेण हत्थेण दव्वीए भायणेण वा । दिजमाणं ण इच्छेज्जा पच्छाकम्मं जहिं भवे ॥ ५१ ॥ 15 १३३. असंसटेण सिलोगो । असंसट्ठो अण्णादीहिं अणुवलित्तो तत्थ पच्छेकम्मदोसो । सुक्कपोयलियमादि देंतीए घेप्पति ॥ ५१ ॥ जदि फासुएण वि न घेप्पति कथं तर्हि गहणं ? भण्णति १३४. संसद्रुण हत्येण दव्वीए भायणेण वा । दिजमाणं पडिच्छेज्जा जं तत्थेसणियं भवे ॥ ५२ ॥ १३४. संसट्टेण सिलोगो । एत्थ भंगा-संसट्ठो हत्यो संसट्ठो मत्तो सावसेसं दव्वं १ संसट्ठो हत्यो संसट्टो 20 मत्तो णिरवसेसं दव्वं २ एवं अट्ठ भंगा । एत्थ पढमो पसत्थो, सेसा कारणे जीव-सरीररक्खणत्यमणंतरमपदिहें ॥५२॥ चित्तगतपीडापरिहरणत्थं । भण्णति१३५. दोहं तु भुंजमाणाणं एगो तत्थ निमंतए । दिजमाणं ने इच्छेज्जा छंदं से पडिलेहए ॥ ५३ ॥ १३५. दोण्हं तु भुंजमाणाणं० सिलोगो । दोण्हं संखा । तुसदो विसेसणे । “भुज पालण-ऽन्मव28 हरणयोः" इति एवं विसेसेति-अब्भवहरमाणाण रक्खंताण वा विच्छपाताति अभोयणमवि सिया । एगो निमंतए कदायि एगो निमंतेजा, तं एगपक्खअन्भणुण्णातं दिजमाणं न इच्छेज्जा । ण तस्स मञ्चंतमग्गहणं किंतु छंद से पडिलेहए छंदो अहिप्पायो तं पडिलेहेज्जा, तस्स अंतग्गतस्स भावस्स पडिलेहणं ।। आगारिंगित-चेट्ठागुणेहिं भासाविसेस करणेहिं । मुहणयणविकारेहि य घेप्पति अंतग्गतो भावो ॥१॥ अन्भवहरणीयं जं दोण्हं उवणीयं ण ताव भुंजिउमारभंति, तं पि “वर्तमानसामीप्ये०" [पाणि ३-३-१३१] 30 इति वर्तमानमेव । णाताभिप्पातस्स जदि इतृ तो घेप्पति, ण अण्णहा ॥ ५३ ॥ १ उलट्ट अचू० विना ॥ २-३ देज खं २ ॥ ४ देण्हं खं २ ॥ ५न गिण्हेजा खं ३ ॥ ६ सोण्हं मूलाद” ॥ Jain Education Intemational Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुत्तगा० १३१-३९] दसकालियसुत्तं । १११ दोण्हं अवणीते भोयणे एगस्स निमंतणे बितियस्स अभिप्पायरक्खणत्थमुपदि8 । इदं तु फुडमेव१३६. दोण्हं तु मुंजमाणाणं दो वि तत्थ णिमंतए । दिज्जमाणं पडिच्छेज्जा जं तत्थेसणियं भवे ॥ ५४ ॥ १३६. दोण्हं तु मुंजमाणाणं० सिलोगो । दोण्हं, तुसद्दो तहेव, भुंजमाणाणं सम्म निमंतणे वयणोवलक्खियाभिप्पायाणं तं दिजमाणं पडिच्छेजा जं एसणादोसेहिं वजितं एसणिज्जं भवे ॥५४ ॥ । परचित्तपीडापरिहरणं सिलोगदुयएणावदिटुं । इध तदेव सुहुमतरमुपदिस्सति१३७. गुठ्विणीयमुवण्णत्थं विविधं पाण-भोयणं ।। भुजमाणं विवजेज्जा भुत्तसेसं पडिच्छए ॥ ५५ ॥ १३७. गुषिणीयमुवण्णत्थं० सिलोगो । गुग्विणी गम्भिणी तीए डोहलविणयणत्थं उपण्णत्थं उवणीयं विविधं अणेगागारं पाण-भोयणं, तं तीए अण्णण वा दिजमाणं भुजमाणं उवणीयं, ण ताव भ॑जति 10 तं, “वर्तमानसामीप्ये" [पाणि० ३-३-३१] इत्यति भुजमाणमेव, अहवा भुंजति अण्णो देति तं विवजणीयं । इमे दोसा-परिमितमुवणीतं, दिण्णे सेसमपज्जत्तं ति डोहलस्साविगमे मरणं गन्भपतणं वा होज्जा, तीसे तस्स वा गब्भस्स सण्णीभूतस्स अप्पत्तियं होज, तम्हा तं विवजेत्ता तेत्तीए से सोमणसं समुपजातं लक्खेऊण भुत्तसेसं उव्वरियं पडिच्छए गेण्हेजा ॥ ५५ ॥ गन्माभिघाय-पीडापरिहरणमुपदिटुं । इदं तु सरीरपीडापरिहरणत्थं भण्णति१३८. सिया य समणट्ठाए गुग्विणी कालमासिणी । 15 उट्ठिता वा णिसीएज्जा णिसण्णा वा पुणुट्ठए। 'देतियं पडियाइक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ ५६ ॥ .. - १३८. सिया य समणट्ठाए० सिलोगो । सिया कयायि गुम्विणी गुरुगमा प्रसूतिकालमासे कालमासिणी सुधणिसण्णा भिक्खं दाहामि किंचि वा गिण्हमाणी एवमुहिता वा णिसीएज्जा पढमणिसण्णा वा भिक्खदाणत्थं पुणुट्ठए पुणसद्देण चारेण वा जं दुक्खं णीति । एवमादिचेट्ठा [ए] तीसे विसेसेण गम-20 सरीरपीड त्ति । पुव्वपत्थुयं वयणमवहारिजति-देतियं पडियाइक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥५६॥ गन्भमणो-सरीरपीडापरिहरणत्थमुपदिढें । इदं तु जातस्स पीडापरिहरणत्थं भण्णति१३९. थणगं पज्जेमाणी दारगं वा कुमारियं । तं निक्खिवित्तु रोयंतं आहरे पाण-भोयणं "देंतिथं पडियातिक्खे न मे कप्पति तारिसं ॥ ५७ ॥ १३९. थणगं पजेमाणी सिलोगो । थणो पओहरो तं पाएंती दारगं वा कुमारियं । को पुण विसेसो दारगस्स कुमारियाए वा जं पिधं वयणं किंचि थिरयरो दारगो । तं उभयं निक्खिवित्तु रोयंतं आहरे १देण्हं खं २ ॥ २ देज खं २ ॥ ३°णीए उव अचू० विना ॥ ४ भुंजमाणं खं १-२-३-४ जे. ॥ ५व खं १॥ ६ एतदर्घश्लोकस्थाने सर्वाखपि सूत्रप्रतिषु हाटी. च तं भवे भत्त-पाणं तु संजयाण अकप्पियं । देतियं पडियाइक्खे ण मे कप्पह तारिसं॥ इति पूर्णः सूत्रश्लोको दृश्यते । श्रीअगस्त्यपादैः वृद्धविवरणकृता च अर्धसूत्रश्लोक एव पूर्वसूत्र लोकपञ्चमषष्ठपादतया निर्दिष्टोऽस्ति । ७ सुखनिषण्णा ॥ ८'चारेण' चलनादिना ॥ ९ “जा पुण कालमासिणी पुन्बुट्ठिया परिवेसेंती य थेरकप्पिया गेण्हंति । जिणकप्पिया पुण जदिवसमेव आवण्णसत्ता भवति तद्दिवसाओ आरद्धं परिहरति ।" इति वृद्धविवरणे ॥ १० दृश्यता टिप्पणी ६॥ Jain Education Interational Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पंचमं पिंडेसणजायणं पढमो उद्देसो पाण-भोयणमिति भणितं । गच्छवासीण थणजीवी थणं पियंती निक्खित्तो रोवतु वा मा वा अग्गहणं, अह अपिवंतो णिक्खित्तो रोवते [ अग्गहणं, अरोवंते ] गहणं, अह मत्तं पि आहारेति तं पिबते निक्खित्ते रोवंते अग्गहणं, अरोवंते गहणं । गच्छनिग्गताण थणजीविम्मि णिक्खित्ते पिबते [ अपिबते ] वा रोयंते [ अरोयंते ] वा अग्गहणं, भत्ताहारे पिवते निक्खित्ते रोयमाणे अरोयमाणे वा अग्गहणं, अपिबते रोवमाणे अग्गहणं, अरोवमाणे गहणं । । एत्थ दोसा-सुकुमालसरीरस्स खरेहिं हत्थेहिं सयणीए वा पीडा, मज्जाराती वा खाणावहरणं करेजा । पुव्वभणितं सुत्तसिलोगद्धं वित्तीए अणुसरिजति-दंतियं पडियातिक्खे न मे कप्पति तारिसं। अहवा दिवहसिलोगो अत्यनिगमणवसेणं ॥ ५७ ॥ उग्गमादिसुद्धो वि "दोण्हं तु भुंजमाणाणं”[सुतं १३६] एवमादि परचित्तावरक्खणत्थमुपदिटुं । अयं तु संचित्तगत एव गहणेसणाविधी पढमो भण्णति१४०. जं भवे भत्त-पाणं तु कप्पा-कप्पम्मि संकितं । देतियं पडियातिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ ५८ ॥ १४०. जं भवे भत्त-पाणं तु० सिलोगो। भत्त-पाणं वा जं गविस्समाणमवि उग्गम-उप्पायणासु संदेहमेव जणयति, तं कप्पा-कप्पम्मि संकितं देंतियं पडियातिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥५८॥ गहणेसणाविहाणे संकित-मक्खितमुदओल्लाति पुब्वभणितं, निक्खित्तमवि “साहट निक्खिवित्ता " 16 [सुतं ॥३]। पिधियाभिहाणत्थमिदं भण्णति-- १४१. दगवारएण पिहितं णीसाए पीढएण वा। लोढेण वा वि लेवेणे सिलेसेण व केणइ ॥ ५९॥ १४१. दगवारएण पिहितं. सिलोगो । दगवारओ पाणियघडुल्लओ, तेण पिहितं भायणं जत्य भत्तं वा पाणं वा। णीसा वा पीसणी। पीढयं कट्ठादिमयं । लोदो णींसापुत्तओ। लेवो मट्टियादि । सिलेसो जउ20 खउरादि । 'केणइ' त्ति प्रकारोपादाणं सिलेसादीहि ओलित्तं भवति ॥ ५९॥ पिहितसमाणजातीयं चेदमिति उभिण्णं भण्णति१४२. तं च उभिदियों देजा समणट्ठाएँ दायगे । देंतियं पडियातिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ ६ ॥ १४२. तं च उभिदिया देला सिलोगो । तं सिलेसादिहि ओलित्तं उभिदिया देज्जा। चसद्देण 25 दगवारगादीहि वा पिधितमुप्पिहेऊण समणट्ठाए। अध सट्टाए तो गहणमेव । वायगो दाता। पच्छिलिद्धंदेंतियं० पगतमेव ॥ ६०॥ पिधितसमाणजातितो त्ति उभिण्णमुग्गमदोसो भणितो। जावंतियमुग्गमदोसो तदग्गहणं मण्णति-- १"तत्य गच्छ सी जति थणजीवी [पियंतओ] णिक्खित्तो तो ण गेण्हंति, रोवतु वा मा वा, अह अब पि आहारेति तो जति न रोवइ तो गेण्हंति, [अह रोवइ ते ण गेण्हंति, ] । अह अपियंतओ णिक्खित्तो यणजीवी रोवइ तो ण गेण्हंति, अह न रोवइ तो गेण्हति । गच्छनिम्गया पुण जाव थणजीवी ताव रोवउ वा मा वा अपियंतओ पियंतओ वा न गेण्हंति, जाहे अनं पि आहारेउं पयत्तो भवति ताहे जइ पियंतओ तो रोवउ वा मा वा ण गेण्हंति, अह अपियंतओ तो जदि रोवइ तो परिहरंति, अरोवंते गेहँति । सीसो आह-को तत्य दोसो ? ति । आयरिओ माह-तस्स निक्खिप्पमाणस्स खरेहिं हत्थेहिं घेप्पमाणस्स य अपरित्तत्तणेण परितावणादोसो, मज्जाराइ वा अवधरेजा (अपहरेदित्यर्थः)।" इति वृद्धविवरणे ॥ २ खचित्तगतः ॥ ३°वारेण खं २॥ ४ णिस्साए वृद्ध०॥ ५°ण सेलेण व जे ॥ ६°दिउं दे खं १-२-३-४ जे० शु० ॥ ७°ए व दावए खं ४ जे० शु० । °ए व दायए खं २ । ए व दाइए खं १-३॥ Jain Education Intemational Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० १४०-४८] दसकालियसुत्तं । १४३. असणं पाणगं वा वि खादिम सादिमं तहा । जं जाणेज्ज सुणेजा वा दाणट्ठप्पगडं इमं ॥ ६१ ॥ १४३. असणं पाणगं वा. सिलोगो। असण-पाण-खादिम-सादिमविसेसो भणितो । सातिमाति वि ण कप्पति त्ति एस विसेसो । जं जाणेन सयं, सुणेन वा अण्णेसिं अंतियं । दाणट्ठप्पगडं कोति ईसरो पवासागतो साधुसद्देण सव्वस्स आगतस्स सक्कारणनिमित्तं दाणं देति, रायाणो वा मरहट्ठगा दाणकाले अविसेसेण । देंति ॥ ६१॥ 8 १४४. तौरिसं भत्त-पाणं तु संजताण अकप्पितं । देतियं पडियाइक्खे ण मे कप्पइ तारिसं ॥ ६२ ॥ १४४. पढमभणियत्थमेयं ॥ ६२ ॥ दाणट्ठपगडाणंतरमेव किंचि दातारविसेसं विसिलु भण्णति१४५. असणं पाणगं वा वि खादिम सादिमं तहा । 10 जं जाणेज सुणेज्जा वा पुणटुप्पगडं इमं ॥ ६३ ॥ १४५. असणं पाणगं० सिलोगो। जं तिहि-पव्वणीसु पुण्णमुद्दिस्स कीरति तं पुण्णटप्पगडं। सेसं भणितं ॥ ६३ ॥ तं पुण्णनिमित्तमेतेसि विसेसेणं भवति भण्णति १४६. असणं पाणगं वा वि खादिम सादिमं तहा । जं जाणेज सुणेज्जा वा वणिमट्ठप्पगडं इमं ॥ ६४ ॥ 15 १४६. असणं पाणगं० सिलोगो । वणिमट्टप्पगडं समणाति वणीमगा ॥ ६४ ॥ एवमेव केणति विसेसेण १४७. असणं पाणगं वा वि खादिम सादिमं तहा । जं जाणेज सुणेज्जा वा समगट्ठप्पगडं इमं ॥ ६५ ॥ १४७. असणं पाण सिलोगो। समणटप्पगडं समणा पंच वणीमगाति ॥६५॥ उप्पायणा-20 दोसा भणिता । उग्गमदोसपरूवणत्यं तु भण्णति १४८. उद्देसियं कीयगडं पूतीकम्मं च आहडं । अझोयर पामिच्चं मीसजायं च वज्जए ॥ ६६ ॥ १४८. उद्दे० सिलोगो । उद्देसियातिपरूवणत्थं जहा पिंडनिज्जुत्तीए ॥ ६६ ॥ गहणेसणाए संकितमपदि । तत्थ सति संकाकारणे ण संदेहावत्थेण अच्छितव्वं, किं तर्हि १ 25 १चेव खा खं ३-४ जे०। एमग्रेऽपि सर्वत्र ज्ञेयम् ॥ २°णट्ठा पग अचू० वृद्ध० विना ॥ ३ अयं सूत्रोको वृद्ध विवरणे नास्ति । हारि० वृत्तौ तु वर्तते ॥ ४ तं भवे भत्त खं १ जे. शु०॥ ५१४५-४६-४७ सूत्रानन्तरं प्रतिसूत्र तभवे (तारिसं खं २-३-४ पाठा.) भत्त-पाणं तु संजयाण अकप्पितं । देंतियं पडियाइक्खे न मे कप्पह तारिसं॥ इति सूत्रश्लोकः सर्वास्खपि सूत्रप्रतिषु हा. वृत्तौ च वर्तते ॥ ६°ण्णट्ठा पग° अचू० वृद्ध. विना ॥ ७ मा पग अचू• पद्ध. विना ॥ ८°णट्ठा पग' अचू० वृद्ध विना ॥ ९मीसज्जायं वं २-४॥ . दस० सु. १५ Jain Education Intemational Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पंचमं पिंडेसणज्झयणं पढमो उद्देसो १४९. उग्गमं 'से पुच्छेज्जा कस्सऽट्ठा ? केण वा केयं । सोच्चा नीसंकितं सुद्धं पडिग्गाहेज संजते ॥ ६७ ॥ १४९. उग्गमं से पुच्छेज्बा सिलोगो । उग्गमो समुप्पत्ती तं पुच्छेला, कस्सट्ठा कमुहिस्स केण वा कयमिति देतगं पुच्छति-किं तुमे कडं १ केणति संदिट्ठो सि १ । ततो तदभिप्पायेण जाणति । अहवा भणेज 5 'तुम्भऽढाए' तो फुडं णाऊण परिहरिजति । जदि पाहुणतादि ववदिसति तो सोचा नीसंकितं सुद्धं सव्वदोसविरहियं पडिग्गाहेजा । एवं संजते भवति ॥ ६७ ॥ __ गैहणेसणाए संकियस्स सोधणमुपदिलै । इदमवि उम्मिस्समिति गहणेसणाविसेस एव भण्णति. १५०. असणं पाणगं वा वि खादिम सादिमं तहा । घुप्फेहिं होज्ज उम्मिस्सं बीएहिं हरिएहिं वा ॥ ६८ ॥ 10 १५०. असणं पाणगं० सिलोगो। असण-पाण-खाइम-साइमाणि भणिताणि । तेर्सि किंचि पुप्फेहिं बलिकूरादि असणं उम्मिस्सं भवति, पाणं पाडलादीहिं कढितसीतलं वा किंचि वासितं, खादिम मोदगादी, सादिमं वडिकादि । बीएहिं अक्खतादीहि, हरिएहिं भूतणातीहिं जहासंभवं ॥६८॥ १५१. तारिसं भत्त-पाणं तु संजताण अकप्पितं । देतियं पडियातिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ ६९ ॥ 15 १५१. तारिस भत्त-पाणं० सिलोगो । दंतियं पडियातिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥६९ ॥ "साहट्ट निक्खिवित्ताणं" [सुत्तं ११३] एत्थ निक्खित्तमिति गहणेसणादोसो भणितो । इह स एव सविसेसो दंसिज्जतीति भण्णति१५२. असणं पाणगं वा वि खादिम सादिमं तहा । उदगम्मि होज निक्खित्तं उत्तिंग-पणएसु वा ॥ ७० ॥ 20 १५२. असणं० सिलोगो । पुव्वद्धं भणितत्थं । तत्थ उदगम्मि होज निक्खित्तं, निक्खित्तमणंतरं परंपरं च । अणंतरं णवणीय-पोयलियाति, परंपरनिक्खित्तमसणाति भायणत्थमुपरि जलकुंडस्स विण्णत्थं । उत्तिंगो कीडीयाणगरं । अणंतरं परंपरं तहेव । पणओ उल्ली, ओलियए कहिंचि अणंतरादिट्ठवितं ॥ ७० ॥ १५३. तारिसं भत्त-पाणं तु संजताण अकप्पितं । देतियं पडियाइक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ ७१ ॥ 35 १५३. तारिस भत्तपाणं० सिलोगो। विभासितत्थो ॥ ७१ ॥ उदगनिक्खित्तं भणितं अग्गिम्मि भण्णति १से य पु. वृद्ध०॥ २कडं अचू• विना ॥ ३ गहणेसणए वंकियस्स मूलादर्शे ॥ ४ पुप्फेसु होज उम्मीसं बीएस हरिपसु वा खं १-२-३- जे. शु०॥ ५तं भवे भत्त° शु० । अयं सत्र श्लोकः वृद्धविवरणे नास्ति ॥ ६वृद्धविवरणे तु एतत्सूत्रकस्थाने केवलं देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पह तारिसं इति अर्द्धश्लोक एव निर्दिष्टोऽस्ति । . Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 सुत्तगा० १४९-५९] दसकालियसुत्तं । ११५ १५४. असणं पाणगं वा वि खादिमं सादिमं तहा । अगणिम्मि होज निक्खित्तं तं च संघट्टिया दए ॥ ७२ ॥ १५४. असणं पाणगं० सिलोगो। अगणिम्मि अणंतरं परंपरं तहेव । 'जाव साधूणं भिक्खं देमि ताव मा डज्झिहिती उन्भुतिहिति वा' आहटेऊण देति, पूवलियं वा उत्थल्लेऊण, उम्मुयाणि वा हत्थ-पादेहिं संघहेत्ता । सेसं सिद्धं ॥ ७२ ॥ अगणिनिक्खित्ताधिगारे इदमवि भण्णति१५५. असणं पाणगं वा वि खादिम सादिमं तहा। अगणिम्मि होज निक्खित्तं तं च उस्सिक्किया दए ॥ ७३ ॥ १५५. असणं० सिलोगो । उस्सिक्किया अवसंतुइया । 'जाव भिक्खं देमि ताव मा विज्झाहिति' ति सअड्डाए तन्निमित्तं चेइहरालक्खे (१) वि परिहरितव्वं ॥७३॥ १५६. ते भवे भत्त-पाणं तु संजताण अकप्पितं । देतियं पडियाइक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ ७४ ॥ १५६. तं भवे० [सिलोगो] देतियं पडियाइक्खे० ॥ ७४ ॥ निक्खित्ताधिगारिंगमेव१५७. असणं पाणगं वा वि खादिम सादिमं तहा । अगणिम्मि होज णिक्खित्तं तं च ओसक्किया दए ॥ ७५ ॥ १५७. असणं० सिलोगो । ओसकिय उम्मुयाणि ओसारेऊण, मा ओदणो डज्झिहिति उवधुप्पिधिति 15 वा किंचि । तहेव सेसं ॥ ७५ ।। समाणाधिकारमेवेदमवि१५८. असणं पाणगं वा वि खादिम सादिमं तहा । अगणिम्मि होज निक्खित्तं तं च उज्जालिया दए ॥ ७६ ॥ १५८. असणं० सिलोगो। उन्नालिय कलिंच-कुतलगादीहि । उस्सिवणुजलणविसेसो-जलंताण चेव उम्मुयाणं विसेसुज्जालणट्ठमुप्पुंजणं उस्सिक्कणं, बहुविज्झातस्स तिणादीहिं उज्जालणं । सेसं जहा पुव्वं ॥ ७६ ॥20 तम्मि चेवाधिकारे भण्णति१५९. असणं पाणगं वा वि खादिम सादिमं तहा। अगणिम्मि होज निक्खित्तं तं चे विज्झविया दए ॥ ७७ ॥ १ जे. प्रतौ १५४ सूत्रश्लोकादारभ्य १६४ सूत्रश्लोकपर्यन्तं प्रतिसूत्रश्लोकानन्तरं तं भवे भत्त-पाणं तु संजताण अकप्पितं० इति सूत्रश्लोक आवर्तते ॥ २१५४ सूत्रश्लोकादारभ्य १६४ सूत्रश्लोकपर्यन्तं सर्वासु गाथासु अगणिम्मि स्थाने तेउम्मि इति पाठः खं २ जे. हाटी. वर्तते ॥ ३१५५ सूत्र लोकादारभ्य १६४ सूत्रश्लोकपर्यन्तसूत्रस्थाने जे. अचू० वृद्धविवरणं विना सर्वासु सूत्रप्रतिषु हाटी० च केवलं सूत्रसङ्ग्रहणीपदान्येव दृश्यन्ते । तथा हि-एवं उस्सक्किया १ ओसकिया २ उजालिया ३ पज्जालिया ४ निव्याविया ५ उस्सिचिया ६ निस्सिचिया ७ उव्वत्तिया ८ ओयारिया ९ खं १-२-३-४ शु० हाटी । उव्वत्तिया स्थाने खं १ हाटी• अचू. ओवत्तिया पाठो वर्तते । जे. प्रतौ एतन्नवसङ्ग्रहपदाङ्किताः साक्षाद् अष्टादश सूत्रश्लोका एव वर्तन्ते । वृद्धविवरणे तु उस्सिक्किया १ उज्जालिया २ णिव्वाविया ३ उस्सिचिया ४ निस्सिचिया ५ उव्वत्तिया ६ ओयारिया ७ इति सप्तपदाकिताः सप्त सत्रश्लोकाः दृश्यन्ते । अस्यामगस्त्यचूर्णी पुनः उस्सिक्किया १ ओसक्किया २ उज्जालिया ३ विज्झाविया ४ उस्सिचिया ५ उक्कडिया ६ णिस्सिचिया ७ ओवत्तिया ८ ओतारिता ९ इति नवपदाङ्किता नव सूत्रश्लोकाः वर्तन्ते ॥ ४ दृश्यता पत्रं ११४ टिप्पणी ६॥ ५ अयं सूत्रश्लोकः वृद्ध. नास्ति ॥ ६ च निव्वाविया दए पद । सं १-२-३-४ शु० हाटीच सङ्ग्रहणीपदेषु निव्वाविया पदमेव दृश्यते ॥ Jain Education Intemational Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पंचमं पिंडेसणज्झयणं पढमो उद्दसो १५९. असणं. सिलोगो । पाणगादिणा देयेण विज्झती देति । सेसमुक्तं ॥ ७७ ॥ इदमवि तदधिकारे १६०. असणं पाणगं वा वि खादिम सादिमं तहा। अगणिम्मि होज निक्खित्तं तं च उस्सिचिया दए ॥ ७८ ॥ 6 १६०. असणं पाणगं० सिलोगो । उसिंचिया कढंताओ ओकड्डिऊण उण्होदगादि देति । सेसं तहेव ॥७८॥ समाणसंबंधमेव भण्णति१६१. असणं पाणगं वा वि खादिमं सादिमं तहा। अगणिम्मि होज निक्खित्तं तं च उक्कड्डिया दए ॥ ७९ ॥ १६१. असणं० सिलोगो । अद्दहियगदव्वं अण्णत्थ उक्कड्डिऊण तेणेव भायणेण देति । तहेव सेसं 1०॥ ७९ ॥ तेणेव प्रकारेण १६२. असणं पाणगं वा वि खादिम सादिमं तहा । अगणिम्मि होज निक्खित्तं तं च णिरिसचिया दए ॥ ८ ॥ १६२. असणं० सिलोगो । जाव भिक्खं देमि ताव मा उभिहिति त्ति पाणिताति तत्थ णिस्सिंचति । सेसं भणितं तहेव ॥ ८०॥ 10 १६३. असणं पाणगं वा वि खादिमं सादिमं तहा। अगणिम्मि होज निक्खित्तं तं च ओवत्तिया दए ॥ ८१ ॥ १६३. असणं पाणगं० सिलोगो । अगणिनिक्खित्तमेव एक्कपस्सेण ओवत्तेतूण देति । पुव्वविधिणा सेसं ॥ ८१ ॥ तेणेवाभिसंबंधेण१६४. असणं पाणगं वा वि खादिम सादिमं तहा। अगणिम्मि होज निक्खित्तं तं च ओतारिता दए ॥ ८२ ॥ १६४. असणं पाणगं० सिलोगो । देयदव्वमेव ईसिमपत्तकालमोतारेतूण देति 'मा ण गेण्हिहिति ण वट्टति त्ति, अण्णदव्वं वा मा ताव डज्झिहिति जाव भिक्खं देमि' तो ओतारेति । सेसं भणितं । अधाभावेण ओतारेतूण देंतीए अण्णं दव्वं घेप्पति । तमेव अचुसिणमिति ण घेप्पति ॥ ८२॥ गहणेसणाविसेसो निक्खित्तमुपदिटुं । गवेसेसणाविसेसो फागडकरणमुपदिस्सति । जहा25 १६५. 'गंभीरं झुसिरं चेव सबिंदियसमाहिते। णिस्सेणी फलगं पीढं उस्सवेत्ताणे आरुहे ॥ ८३ ॥ ___......... १ अयं सूत्रश्लोको वृद्धविवरणे नास्ति ॥२ उव्वत्तिया वृद्ध० । ओयत्तिया जे० ॥ ३ १६५-६६-६७ इति सूत्रश्लोकत्रिकस्थाने अगस्त्यचणि विहाय सर्वावपि सूत्रप्रतिषु हाटी० वृद्धविवरणे च सूत्रश्लोकपञ्चकं वर्तते । तथा हि होज कट्टं सिलं वा वि इहालं वा वि एगया । ठवियं संकमट्टाए तं च होज चलाचलं ॥१॥ न तेण भिक्खु गच्छेजा दिट्ठो तत्थ असंजमो। गंभीरं झुसिरं चेव सविदियसमाहिए ॥२॥ निस्सेणि फलगं पीटं उस्स वित्ताणमारुहे। मंचं कीलं च पासायं समणटाए व दायए ॥३॥ दुरुहमाणी पवडेजा हत्थं पायं व लूसए । पुढविजीवे विहिंसेजा जे य तन्निस्सिया जगा॥४॥ एयारिसे महादोसे जाणिऊण महेसिणो। तम्हा मालोहडं मिक्खं न पडिगेण्हंति संजया ॥५॥ ४°णमारु' सं ३ अचू० विना ॥ - Jain Education Intemational Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 सुत्तगा० १६०-६९] दसकालियसुतं । १६५. गंभीरं मुसिरं० सिलोगो । गंभीरं अप्पगासं तमः । मुसिरमवि तहाजातीयमेव । सविंदियसमाहितो सविदिएहिं अव्वासंगेण एसणोवयुत्तो । एतं भूमिधरादिसु अहेमालोहडं । इदं तु उडमालोहडंणिस्सेणी फलगं पीढं, निस्सेणी मालादीण भारोहणकटुं । संघातिमं फलगं । पहुलं कट्ठमेव ण्हाणातिउपयोज्यं पीढं । एताणि उस्सवेत्ताण उद्धं ठवेऊण आरहे चडेज्ज ॥ ८३॥ समाणामिसंबंध एवायं१६६. मंचं खीलं च पासायं समणट्ठाए दायगे। दुरुहमोणे पवडेजा हत्थं पायं विलूसए ॥ ८४ ॥ १६६. मंचं खीलं च पासायं० सिलोगो । मंचो सयणीयं चडणमंचिगा वा । खीलो भूमिसमाकोट्टितं कहूँ । पासादो समालको घरविसेसो । एताणि समणट्ठाए दाया चडेजा तस्स इमे पचवाया सुत्तेण चेव निदिसंति-दुरुहमाणे पवडेजा, दुरुहमाणे आरुहमाणे णिस्सेणिमादिए भग्गे खलितो वा पवडेजा। पडितो हत्थं पायं विलूसेना विणासेज्जा ॥ ८४ ॥ एस दायगसरीरगतो पञ्चवायो । अयं तु सेसकायेसु १६७. पुढविक्कायं विहिंसेजा जे वा तण्णिस्सिया जगा।। तम्हा मालोहडं भिक्खं ण पंडिग्गाहेज संजते ॥ ८५ ॥ १६७. पुढविकायं विहिंसेज्जा सिलोगो । णवोवासणे सगडमालिगासु सञ्चित्तपुढविक्कायं वा केणति कारणेण आणियं एवं पुढविजीवे । जे वा तण्णिस्सिया जगा जे वा तं पुढविकायमस्सिता जगा जीवा यदुक्तम् । गंभीरादि सव्वं समाकरिसेतूण भण्णति-तम्हा मालोहडं भिक्खं ण पडिग्गाहेज संजते, तम्हा 15 इति कारणाभिधाणं, मालोहडं मालावतारियं भिक्खं ण पडिग्गाहेजा ण गिण्हेज, संजए एवं भवति ॥ ८५ ॥ गवेसेसणाभिधाणाणंतरं गहणेसणाविकप्पावसेसमपरिणतं भण्णति१६८. कंदं मूलं पलंबं वा आमं छिण्णं व सण्णिरं । तुंबागं सिंगबेरं च आमगं परिवज्जए ॥ ८६ ॥ १६८. कंदं मूलं पलंबं वा० सिलोगो । कंदं चमकादि । मूलं पिसाति । पलंबं फलं । सण्णिरं 20 सागं । सव्वमेयं सरसं आमं, छिण्णं तहेव अपरिणयं । तुंबागं जं तयाए मिलाणममिलाणं अंतो त्वम्लानम् । सिंगबेरं अलगं आमगं सचित्तं । समंतयो वजए परिवजए॥ ८६ ॥ इदमवि अपरिणयमेवेति भण्णति१६९. तहेव सत्तुचुण्णाई कोलचुण्णाइं आवणे । सक्कुलिं फाणियं बुध अण्णं वा वि तथाविधं ॥ ८७ ॥ १६९. तहेव सत्तु सिलोगो । सत्तुया जवातिधाणाविकारो, चुण्णाई अण्णे पिट्टविसेसा । कोला 25 बदरा तेसिं चुण्णाणि । आवणं कय-विकयत्थाणं तम्मि आवणे । सकुली तिलपप्पडिया। फाणियं छुद्दगुलो। बुधो तवगसिद्धो । अण्णं वा वि मोदगादि तधाविधं ॥ ७॥ १ मंचकीलं खं १-२-३-४ जे० ॥ २ माणी पव अचू० विना ॥ ३ व लू अचू० विना ॥ ४°विजीवे वि अचू० वृद्ध विना ॥ ५य अचू० विना ॥ ६ हंदि! मालों हाटीपा० ॥ ७पडिगेण्हति सं° खं १-२-३ शु० हाटी० ॥ ८ “मूलं पिडादि-विदारिकादिरूपम्" इति हारि० वृत्तौ ॥ ९ "तुंबागं नाम जं तयामिलाणं अभंतरओ अद्दयं" इति वृद्धविवरणे । “तुम्बाकं नाम त्वग्मिजान्तर्वति, आर्द्रा वा तुलसीमित्यन्ये” इति हारि० वृत्तौ ॥ १० पूर्य अखं २-३ जे. शु० वृद्ध० हाटी० । पूई में खं १-४ । “पूर्व कणिकादिमय" हाटी । “पूयओ पसिद्धो" वृद्ध०॥ Jain Education Intemational Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ११८ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पंचमं पिंडेसणज्झयणं पढमो उद्देसो एताणि सत्तुचुण्णादीणि आवणे यदवत्थाणि ण कप्पंति तं भण्णति१७०. विकायमाणं पसढं रयेण परिघासियं । देतियं पडियाइक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ ८८ ॥ १७०. विक्कायमाणं० सिलोगो । विक्रयत्थमावणे विण्णत्थं । पसढमिति पच्चक्खातं तदिवसं विक्कतं न 5 गतं । रयेण अरण्णातो वायुसमुद्धतेण सचित्तेण समंततो घत्थं परिघासियं । तं अपरिणतमिति देतियं पडियाइक्खे ण मे कप्पति तारिसमिति भणियमेव ॥ ८८॥ गहणेसणाविसेसो अपरिणयमुपदिटुं । तस्विसेस एव छड्डियं देंती परिसाडेज त्ति एत्थ भणितमवि विकप्तरेण भण्णति । मंसातीण अग्गहणे सति देस-काल-गिलाणावेक्खमिदमववातसुत्तं १७१. बहुअट्ठियं पोग्गलं अणिमिसं वा बहुकंटयं । ___अच्छियं तेंदुयं बिल्लं उच्छुखंडं च सेंबलिं ॥ ८९ ॥ १७१. बहुअट्ठियं पोग्गलं० सिलोगो । पोग्गलं प्राणिविकारो, तं बहुअद्वितं निवारिजति । अणिमिसो वा कंटकायितो । अच्छियं तेंदुयं बिल्लं फलानि प्रतीतान्येव । एतेसिं पलंबग्गहणेणं गहणे वि पुणो गहणं तं पुण अपरिणयपसंगेण । इमं फासुगमवि छड्डणदोसेणं भण्णति-उच्छु प्रतीतम् । णिप्फावादिसेंगा सेंबली ॥ ८९ ॥ दोसोववजण अणंतरसिलोगेण भण्णिहिति त्ति बहुअद्वितपोग्गलादीण दोसुभावण-गहण-पडि16 सेहणत्थमिदं भण्णति १७२. अप्पे सिता भोयणज्जाते बहुउज्झियधम्मए । देंतियं पडियाइक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ ९ ॥ १७२. अप्पे सिता भोयणजाते. सिलोगो । अप्पं थोवं सिया कयायि बहुतरमवि उज्झियव्वातो, जातसद्दो प्रकारे, भोयणपगार एव खादिमं एयं । बहुउज्झियधम्मिए धम्मसद्दो सभाववाची अ णिच्छितव्यो। 20 बहुउज्झियव्वसभावाणि एताणि अतो देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पति तारिसं ति ॥ ९०॥ 'एगालंभो अपजतंति पाण-भोयणेसणाओ पत्थुयाओ, तत्थ किंचि सामण्णमेव संभवति भोयणे पाणे य, जघा-"असणं पाणगं चेव खाइमं साइमं तहा। पुप्फेहिं होज उम्मिस्स”[सुत्त १५० ] एवमादि, अयं तु पाणग एव विसेसो संभवतीति भण्णति-- १७३. तहेवुच्चावयं पाणं अदुवा वोलधोवणं । संसेइमं चाउलोदगं अभिणवधोतं विवज्जए ॥ ९१ ॥ १७३. तहेवुच्चावयं पाणं० सिलोगो । तहेव इति वजणविगप्पतुलता । उच्चावयं अणेगविषं वण्णगंध-रस-फासेहिं हीण मज्झिमुत्तमं । अदुवा वालधोवणं, वालो वारगो, र-लयोरेकत्वमिति कृत्वा लकारो १परिफासियं खं १-२-४ शु० हाटी० ॥ २ विकृथथमावणे मूलादर्शे ॥ ३ अणमिसं खं २॥ ४ अत्थियं खं २-४ जे. शु०॥ ५सिंबलिं खं १-२ जे० । संबलिं शु०॥ ६ वारधोवणं खं १-३-४ हाटी. वृद्ध । वारधोयणं खं २ शु० । वालघोयणं जे० ॥ ७"उचं च अवचं च उच्चावचं । उच्चं नाम जं वण्ण-गंध-रस-फासेहिं उववेयं, तं च मुद्दियापाणगादि । चउत्थरसियं वा वि जं वण्णओ सोभणं, गंधओ अपूर्य, रसओ परिपक्करसं, फासओ अपिच्छिलं तं उच्च भण्णइ । अवयं णाम जमेतेहिं वण्ण-गंध-रस-फासेहिं विहीणं तं अवयं भण्णइ । एवं ताव सतीए घेप्पति । अहवा उच्चावयं णाम णाणापगार भन्नइ । वारयो नाम घडओ, रकार-लकाराणमेगत्तमिति काउं वारओ वालओ भन्नइ, सो य गुल-फाणियादिभायणं, तस्स धोवणं वारधोवणं" । इति वृद्धविवरणे ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० १७०-७७] दसकालियसुत्तं । ११९ भवति वालः, तेण वार एव वालः, तस्स धोवणं फाणितातीहिं लित्तस्स वालादिस्स । जम्मि किंचि सागादी संसेदेत्ता सित्तोसित्तादि कीरति तं संसेइमं । चाउलोदगं चाउलधोयणं । 'आउक्कायस्स चिरेण परिणामो' ति मुद्दियापाणगं पक्खित्तमत्तं, वालगे वा धोयमेत्ते, सागे वा पक्खित्तमत्ते, अभिणवधोतेसु चाउलेसु, सव्वेसु अभिणवकतं विवजए ॥ ९१ ॥ ण एतं अचंतविवजणं, परिणामे गहणमेवेति भण्णति-- १७४. जं जाणेज चिराधोतं मतीए दसणेण वा।। पैडिपुच्छिताण सोच्चाण जं च निस्संकियं भवे ॥ ९२ ॥ १७४. जं जाणेज चिराधोतं. सिलोगो । जमिति पाणगस्स उद्देसो । जाणेज अवधारेजा । तं कह १ मतीए दंसणेण वा, मतीए कारणेहिं दरिसणेणं जत्थ पञ्चक्खं वा जं चिरधोतं जाणेजा, उसिणोदगं तिण्णि वारे उन्वत्तं, चाउलोदगं आदेसतियं मोत्तूण बहु[प्प]सणं । जं मतीए दरिसणेण वा ण परिच्छिण्णं तस्थिमो परिक्षणविही-पडिपुच्छिताण पडिपुच्छति 'काए वेलाए कतं ?” तस्स पडिवयणं सोचाण । एतेहि 10 मति-दंसण-सवणेहिं जं च निस्संकियं भवे, चसद्देण वण्ण-गंध-रस-फासणपरिणामावधारियं ॥ ९२ ॥ एवं परिक्खितस्स किं करणीयं ? भण्णति१७५. अज्जीवं परिणयं णच्चा पडिग्गाहेज संजते । __ अह संकितं भवेज्जा आसाएत्ताण रोयए ॥ ९३ ॥ - १७५. अन्नीवं परिणयं णच्चा० सिलोगो । अजीवभावं गतं जाणित्ता पडिग्गाहेब संजते । 15 एवं पुब्वभणितं एतेहिं विधाणेहिं परिक्खिज्जमाणमवि अह संकितं भवेजा, अह इति जदिसहस्सऽत्थे, संकितं संदिद्धं चतुत्थरसिय-मुद्दियपाणगाती ततो तं आसाएत्ताण रोयए ॥ ९३ ॥ तं अण्णेहिं विधाणेहिं परिक्खियमासंकियमासाएऊण गेये(?गहे)यव्वं ति तं इमेण विधिणा-एवं साधू भणेजाहि १७६. थोवमासायणत्थाए हत्थगम्मि दलाहि मे। ___ मा मे अचंबिलं पूतिं णालं तेण्हं विणितए ॥ ९४ ॥ १७६. थोवमासायण सिलोगो । भावियकुलेसु एवं गोयरग्गगतेण साधुणा भणितव्वं, जधा-थोवं आसायणत्याए चक्खणत्थं हत्थगम्मि हत्थतले दलाहि मे ददाहि मम । कारणमवि कहयति-मा मे अचंबिलं पूर्ति, अचंबिलं अतिखट्टे पूर्ति कुधितं ण अलं ण पज्जत्तं तण्हाविणयणे, मा मम एतं अचंबिलं पूर्ति तण्हाविणयणे असमत्थं होजा ॥ ९४॥ तो किं एतेण १ तस्स एवमुपदरिसितगुणस्स पाणगस्स पडिसेहणत्थं भण्णति. १७७. तं च अचंबिलं पूर्ति णालं तण्हं विणितए । - देतियं पडियातिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ ९५ ॥ १७७. तं च अचंबिलं पूर्ति सिलोगो । तं पाणगं, चसद्दो चेवत्थे, जधा तेण साहुणा भणितं णालं 20 25 १दरिसणेण खं ३ जे. वृद्ध०॥ २ पडिपुच्छिऊण सोचा वा जं च निस्संकियं भवे जे. अचू० वृद्ध. विना। सोचा निस्संकियं सुद्धं पडिग्गाहेज संजए वृद्ध० ॥ ३ अजीवं जे. अचू० विना ॥ ४°साइत्ता' खं ४ शु० । 'सायत्ता ख १-२ जे०॥ ५-६ तह विणित्तए खं १-२-३-४ जे । तण्हं विणेत्तए शु०॥ Jain Education Intemational Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पंचमं पिंडेसणज्झयणं पढमो उद्देसो तण्हं विर्णितए । तविधमेव होजा अचंबिलं पूति, अतो तं देतियं पडियातिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ ९५॥ एतदुक्तमेव एवंपडिसेहणारिहमवि संतं१७८. तं च होज्ज अकामेण विमणेण पडिच्छियं । तं अप्पणो वि न पिबे नो वि अण्णस्स दावए ॥ ९६ ॥ 5 १७८. तं च होज अका सिलोगो । तमिति अचंबिलाति पाणगमभिसंबज्झति, चसद्दो जतिअत्थे, जदि होजा अकामेण अणिच्छता मुहभारिययाए बलाभिओगेण वा निप्फेडियं 'गेहाहि, किं वा पेच्छसि ?' विमणेण अणुवयुत्तेण पडिच्छियं लइयं, अतो तं अप्पणा वि न पिबे नो वि अण्णस्स दावए, जतो त णालं तण्डं विणिन्तए, दाहाति असमाही वा होजा ॥ ९६ ॥ तं [अ] काम-विमणगहितमपेयमदेयं च कथं तर्हि करणीयं १ भण्णति१७९. एगंतमवक्कमित्ता अँच्चित्तं पडिलेहिया । जयतं परिट्ठवेज्जा परिठ्ठप्प पडिक्कमे ॥ ९७ ॥ १७९. एगतमवक्कमित्ता० सिलोगो । एगंतं अणावातमसंलोयं अवक्कमित्ता तत्थ गंतूणं अञ्चित्तं झामथंडिल्लाति पडिलेहणाए तज्जाइया पमज्जणा वि सूइया, तत्थ चक्खुणा पडिलेहेऊण रयहरणपमज्जिते जयतं परिहवेज्जा, परिठ्ठावणाविधिणा परिवेऊण पञ्चागतो रियावहियाए पडिकमे ॥९७ ॥ 15 एतेण विधिणा भत्तं पाणगं च उपादाय भोतव्वमिति भोयणविधाणमुण्णीयते । अहवा गवेसण-गहणेसणासुद्धस्स घासेसणाविधाणत्यमिदं भण्णति १८०. सिया य गोयरग्गगतो इच्छेज्जा परिभोत्तयं । ___ कोट्टगं भित्तिमूलं वा पडिलेहेत्ताण फासुगं ॥ ९८ ॥ १८०. सिया य गोयरग्गगतो. सिलोगो । गोअरो अग्गं च भणितं । गोतरग्गगतस्स भोत्तव्वसंभवो 20 गामंतरं भिक्खायरियाए गतस्स काल-क्खमण-पुरिसे आसज पढमालियं इच्छेज्जा अभिलसेजा समंता भुंजिउं भत्तं पाणगं च परिभोत्तयं सॅमणुण्णातिउवस्सगासति कोट्टगं भित्तिमूलं वा, सुण्णधण्णकोट्टगादि कोहओ, दोण्हं घराणं अंतरं भित्तिमूलं वा, पडिलेहेत्ताणं चक्खुपडिलेहणाए ‘जोग्गो एस ओवासो' त्ति परिक्खितुं फासुगं अप्पपाणाति ॥ ९८ ॥ परिक्खितत्थाणगुणेण अदिण्णादाणपरिहरणत्थमिदमणंतरं कातव्वं१८१. अणुण्णवेत्तु मेधावी पडिच्छण्णम्मि संवुडो। हत्थगं संपमज्जित्ता तत्थ भुंजेज संजते ॥ ९९ ॥ १८१. अणुण्णवेत्तु० सिलोगो । धम्मलाभपुव्वं तस्स त्थाणस्स पभुमणुण्णवेति-जदि ण उवरोहो एत्थ मुहुत्तं वीसमामि, ण भणति 'समुद्दिसामि' मा कोतुहलेण एहिती । एवमणुण्णवेत्तु मेधावी जाणओ पडिच्छण्णे थाणे संवुडो सयं जधा सहसा ण दीसति सयमावयंतं पेच्छति । ससीसोवरियं हस्संतं हत्थगं संपमज्जित्ता तत्थ तम्मि ओवासे भुंजेज संजते । संजत इति असुरुसुराती ॥ ९९ ॥ . 30 एवं तस्स अणुण्णाते पडिच्छण्णे ओवासे भुंजमाणस्स किंचि परिहवेतव्वं पि संभवति ति भण्णति-- १°णा न पिये अचू० विना । णा न पवेसे खं ४ ॥ २ अञ्चित्ते बहुफासुए वृद्ध०॥ ३परिभोत्तुयं अचू० वृद्ध. विना । पढमालियं वृद्ध० ॥ ४ समनोज्ञाद्युपाश्रयासति ॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ सुत्तगा० १७८-८६] दसकालियसुत्तं । १८२. तत्थ से भुंजमाणस्स अद्वितं कंटेओ सिया। तण कट्ठ सक्करं वा वि अण्णं वा वि तहाविहं ॥ १० ॥ १८२. तत्थ से भुंजमाणस्स० सिलोगो । तत्थेति कोट्ठगातिपरिग्गहो, से इति तस्स मेधाविस्स भुंजमाणस्स अब्भवहरमाणस्स अहितं कारणगहितं अणाभोगेण वा, एवं अणिमिसं (१स) कंटओ इतरो वा, तण-कट्ठ-सकराओ पसिद्धाओ, अण्णं वा वि तहाविहं पाहाण-बदरद्विलाति तहाविधं तहाजातीयं । खरं ॥१०० ॥ तस्स अट्ठियाति भोयणे समावडितस्स विसोधणविधाणं भण्णति-- १८३. तं उक्खिवित्तु ण णिक्खिवे आसएण ण छड्डए । हत्थेण तं गहेऊण एकंतमवक्कमे ॥ १०१ ॥ १८३. तं उक्खि [वित्तु ण [णि]क्खिवे० सिलोगो । तमिति सव्वणामेण अधिकृतमट्टिताति संबज्झति. उक्खिवित्तु न निक्खिवे हत्थेण, आसयं मुखं तेण 'त्थु' ति ण छडेज्जा, मा पडतेण पाण-10 जातिविराहणं होजा, मुहेण छड्डणे वाउक्कायसंघट्टणमवि, परिसाडेतुं तस्स वल्लिकातिएसु समुद्दिसंतीति सागारियं । अतो हत्थेण अप्पसागारियं गहेऊण फासुयं थाणमेकंतमवकमज्जा ॥ १०१॥ अवकंतस्स उत्तरो करणीयविधी भण्णति, तं०१८४. एगंतमवक्कमित्ता अञ्चित्तं पडिलेहिया। जैयणाए परिट्ठवेज्जा परिट्ठप्प पडिक्कमे ॥ १०२ ॥ १८४. एगंतमवक्कमित्ता० सिलोगो । एवं तमुपादाय एगंतं अणाबाधं गंतूण पंडिलेहित पमज्जित कतदिसावलोगो जयणाए परिवेजा परिठ्ठप्प पडिक्कमे । किंच-परिट्ठवेऊण आगतेण हत्थसयभंतराओ वि पडिक्कमियव्वं ति अतो जदि विस्समितुकामो मुहुत्तं तो परिट्ठवेऊण रीयावहियं पडिक्कमे ॥१०२॥ भिक्खायरियागतस्म समुद्दिसणविधी भणितो, एस य अणियतो, अयं णियतो विधिरिति भण्णति१८५. सिया य भिक्खु इच्छेजा सेजमागम्म भोत्तयं । 20 सपिंडवायमागम उण्णयं ( उंडयं ) पडिलेहिया ॥ १०३ ॥ १८५. सिया य भिक्खु इच्छेन्जा. सिलोगो । सिया य इति कदायि कस्सति एवं चिंता होजा-'किं मे सागारियातिसंकडे बाहिं समुद्दिष्टेणं ? उवस्सए चेव भविस्सति' एवं इच्छेन्जा, एस नियतो विधिरिति एवं सियासहो । सेजा पडिस्सयो तं आगम्म भोत्तुयं भुंजितुं सपिंडवायमागम्म भिक्खापडिआगतो । पिंडवातो भिक्खं, तं बाहिं पडिलेहेति संसजिमं सत्तुयादि विधिणा, असंसजिममवि, उण्णयं 25 (उंडयं) थाणं जत्थ ठितो पडिलेहेति भत्त-पाणं तम्मि ठाणे पडिलेहिय-पमन्जिते निसण्णो जहाविधिं पडिलेहेन ॥१०३ ॥ एवमागम्म पडिलेहियविसुद्धभत्त-पाणस्स अयमणंतरो विधी१८६. विणएण पैविसित्ता सँगासं गुरुणो मुणी । रियविहियमायोय आगतो य पडिक्कमे ॥ १०४ ॥ १कंडूओ खं ४ ॥ २ हत्थएण जे०॥ ३ जयं परि° अचू. विना॥ ४ प्रतिलिख्य प्रमाय॑ ॥ ५°म्म वयं खं ४ ॥ ६पविस्सित्ता खं १ ॥ ७ सगासे अचू० विना ॥ ८ इरिया अचू० विना ॥ ९°याए आ जे.॥ 15 दस० स०१६ Jain Education Intemational Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पंचमं पिंडेसणज्झयणं पढमो उद्देसो १८६. विणएणपविसित्ता सिलोगो। “निसीहिया, णमो खमासमणाणं" जति ण ओलंबगवावडो तो दाहिणहत्थमाकुंचियंगुलिं णिडाले काऊण एतेण विणएण पविसित्ता सगासं अंतियं गुरू आयरियो तस्स समीवं पविसित्ता मुणी जस्सायमुवतेसो पत्थुतो, रियावहियमायाय आदायेति गुरुसमीवे विण्णत्थभायणो, अहवा आदिआलावगातो आरब्भ थिमितमणुपरिवाडीए आगतो य पडिक्कमे आगतमत्त एव ण विस्समितूण 5 पडिक्कमेजा ॥ १०४ ॥ जेहोतियाओ रीयावहियापडिक्कमणातो अयं विसेसविधि (? धी) भण्णति १८७. आभोएत्ताण 'निस्सेसं अतियारं जहक्कम । गमणा-ऽऽगमणे चेव भत्त-पाणे व संजते ॥ १०५ ॥ १८७. आभोएत्ताण सिलोगो । आभोएत्ता हियएण अवधारेतूण निस्सेसं सव्वं अतियारो अतिक्कमो तं जहकमं आलोयणाणुलोमं पडिसेवणाणुलोमं च । सो गमणा-ऽऽगमणे वा अतियारो होजा 10 भत्त-पाणे अविहिणा गहणे संजते णिहुयप्पा ॥१०५॥ समाणियपडिक्कमणेणावधारियायियारेण इदमणंतरं करणीयमिति भण्णति१८८. उज्जुप्पण्णो अणुव्विग्गो अवक्खित्तेण चेयसा । ___ आलोऐज गुरुसगासे जं जधा गहियं भवे ॥ १०६ ॥ १८८. उज्जुप्पण्णो अणुविग्गो० सिलोगो । अपलिउंचियमती उज्जुप्पण्णो। परीसहाण अभीतो 15 अतुरियो वा अणुविग्गो । केणति सह अणुलावेतो अण्णमण्णं वा अचिंतेंतो अतियारोवउत्तेण अवक्खित्तेण चेयसा आलोएज वयणेण गुरूप पञ्चक्खीकरेजा सगासे णातिविप्पगिट्ठो हत्थ-मत्तवावाराणं जं जेण पगारेण गहियं भवेजा । जधा गहियमिति वयणेणाऽऽलोइए ससीसोवरिपमजितपडिग्गहो कतदिसालोगो दाहिणहत्थतलनिवेसियपडिग्गहो अद्धावणतो दरिसणेणावि आलोएन्जा ॥१०६ ॥ आलोयणाणंतरं विधिमुपदिस्सति १८९. ण सम्ममालोइयं होज्जा पुट्विं पच्छा व जं कडं । 20 पुणो पडिक्कमे तस्स वोसट्ठो चिंतए इमं ॥ १०७ ॥ १८९. ण सम्ममालोइयं होजा० सिलोगो । जदि पुण विस्सरिएण असढताए ण सम्ममालोइयं होजा पुर्वि पच्छा व जं कडं पुरेकम्म-पच्छाकम्माति, तस्स अतिचारस्स पुल्विं पडिकंते वि पुणो पडिक्कमे । अयं तु विसेसो-काउस्सग्गं वोसट्टो इमं चिंतए जं अणंतरं भणीहामि ॥ १०७ ॥ जं पढमं पडिण्णायं 'इमं वोसट्ठो चिंतयेद्' इति तमुण्णीयति25 १९०. अहो ! "जिणेहिं असावजा वित्ती साधूण देसिया। मोक्खसाहणहेउस्स साहुदेहस्स धारणा ॥ १०८ ॥ १९०. अहो ! जिणेहिं० सिलोगो। अहोसद्दो विम्हए । को विम्हओ ? सत्तसमाकुले वि लोए अपीडाए जीवाण सरीरधारणं जिणेहिं तित्थगरेहिं भट्टारएहिं असावजा अगरहिता वित्ती आहारातिसरीरजत्ता साधूणं १"विणो नाम पविसंतो णिसीहियं काऊण 'नमो खमासमणाण' ति भगता जति से खणिओ हत्थो, एसो विणओ भण्णइ" वृद्धविवरणे ॥ २ यथोदिताद् ईयापथिकीप्रतिक्रमणात् ॥ ३ नीसेसं खं १-३ शु०॥ ४°पाणं च सं खं ४ । पाणे य सं' खं २॥ ५आलोए गुरु° खं १-२-३ जे. शु० । आलोर सगुरु' खं ॥ ६ वोसिट्रो शु०॥ ७जिणेहऽसाव खं १-२-३ वृद्ध०॥ Jain Education Intemational Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ 10 सुत्तगा० १८७-९४] दसकालियसुत्तं । धम्मसाहणपवित्ताण देसिया उपदिट्ठा । सा किमत्थं मोक्खसाहण[हेउ]स्स साहणत्थं, मोक्खसाहणं देहो तस्स साहणत्थं उग्गमुप्पादणासुद्धं भिक्खं ॥ १०८ ॥ अणेसणापडिक्कमणाणंतरं१९१. नमोक्कारेण पारेत्ता कैरेत्ता जिणसंथवं । सज्झायं पट्टवेत्ताणं विस्समेजा खणं मुणी ॥ १०९ ॥ १९१. नमोकारेण पारेत्ता सिलोगो । 'नमो अरहंताणं' ति एतेण वयणेण काउस्सग्गं पारेत्ता, जिणसंथवो लोगुज्जोवकरो तं करेत्ता, तदणु जदि पुचि न पट्टवियं तो सज्झायं पट्टवेत्ताणं सज्झायं करेत्ता परिसमुद्धताण देसाण सत्थाणगमणत्थं विस्समेजा खणं मुणी ॥ १०९॥ खमग-अत्तलाभिए पडुच्च विसेसेणायमुपदेसो१९२. विसमतो इमं चिंते हियमत्थं लाभमथिओ । जदि मे अणुग्गहं कुजा साधू ! होजामि तारियो ॥ ११ ॥ १९२. विस्समंतो इमं० सिलोगो । सो खेदविणोयनिमित्तं विस्समंतो इमं अत्थं विचिंतेज्जा हियं आयतीखमं अत्थं लाभेण पारलोइएणं अत्थी । कतरं अत्थं ? जदि मे अणुग्गहं भत्तगहणेण करेज्जा साधू अहं तारियो होजा ॥११० ॥ विस्समंतो एवंकतसंकप्पो१९३. साधवो तो चियत्तेण निमंतेज्जा जहक्कम । जदि तत्थ "केति इच्छेज्जा तेहिं सहिं तु भुंजए ॥ १११ ॥ १९३. साधवो तो चियत्तेण० सिलोगो । इमेण विधिणा खमासमणे पडिग्गहमुपादाय भणतिइच्छक्कारेण पाहुणगादीण देह । जदि दिण्णं साधू, अह भणंति 'निमंतेहि तुमं चेव' तो चियत्तेण तुट्ठीए साहवो जहकमं निमंतेजा पाहुणगादिअणुपुव्वीए इच्छक्कारं कातूण । एवं निमंतिएसु जदि केति इच्छेज्जा तेहिं सद्धिं तु भुंजए समलाए समरसं कातुं ॥१११ ॥ तेहिं कतोति कारणायो ण पडिग्गाहिते किं करणीयमिति १ भण्णति१९४. अहे केति ण इच्छेज्जा ततो भुंजेज एक्कओ। __ओलोगभायणे साधू जतं अपरिसॉडगं ॥ ११२ ॥ १९४. अह केति ण इच्छेजा सिलोगो । जदि ते कतपज्जत्तिया वा केणति वा कारणेण ण इच्छेन्जा ततो पच्छा एक्कओ भुंजेजा। तं पुण कंट-ऽट्ठि-मक्खितापरिहरणत्थं आलोगभायणे पगास-विउलमुहे वल्लिकाइए जतमिति घासेसणाविधिणा अपरिसाडगं लंबणातो मुहातो वा अपरिसाडगमेव वा ॥ ११२ ॥ 25 __ जतं गवेसण-गहणेसणासुद्धं घेत्तुमुवगतस्स आलोइय-पडिक्कंतस्स उवणिमंतियसाधम्मियस्स सोधूहि सहासह वा भुंजमाणस्स घासेसणोवदेसत्थमिदं भण्णति 20 णमोकारेण जे. ॥ २ करेंता खं १ जे०॥ ३ वीसमेज खं १-२-३-४ जे० शु० ॥ ४ वीसमतो अचू० विना ॥ ५°मट्टं लाभमट्टिओ खं १-२-३-४ जे० शु० ॥ ६ जइ अचू० विना ॥ ७ तारिओ अचू० विना ॥ ८चियत्रोण अचू. विना ॥ ९इत्थ जे०॥ १० कोई वृद्ध०॥ ११ ह कोई ण अचू० खं ३ विना ॥ १२ आलोए भाखं २ अचू० वृद्ध० विना ॥ १३ अप्परि' खं ३ ॥ १४ °साडियं अचू० हाटी• विना ॥ १५ साधूटिहि मूलादर्शे ॥ Jain Education Intemational Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पंचमं पिंडेसणज्मयणं बिइओ उद्देसो १९५. तित्तगं व कडुयं व कसायं, अंबिलें व मधुरं लवणं वा । __ ऐत लड अण्णट्ठपउत्तं, मधु घतं व मुंजेज संजते ॥ ११३ ॥ १९५. तित्तगं व कडुयं ५० वृत्तम् । तित्तगं कारवेलाति, कडुयं त्रिकडुकाति, कसायं आमलकसारियाति, अंबिलं तक्क-कंजियादि, मधुरं खीराति, लवणं सामुद्दलवणातिणा सुपडियुत्तमण्णं । छहि रसेहिं 5 उवचियं विपरीतं वा एत लद्ध अण्णट्ठपउत्तं एतमिति तित्ताति दरिसेति, लद्धमेसणासुद्धं अण्णहापउत्तं परकडं, अहवा भोयणत्थे पयोए एतं लद्धं अतो तं महु घतं व भुंजेज जहा मधु घतं कोति सुरसमिति सुमुहो भुंजति तहा तं सुमुहेण भुंजितव्वं, अहवा महु-धतमिव हणुयातो हणुयं असंचारतेण ॥ ११३ ॥ समाणाभिसंबंधमेवेदं भण्णति१९६. अरसं विरसं वा वि सूचितं वा असूचितं । ओल्लं वा जदि वा सुक्खं मंथु-कुम्मासभोयणं ॥ ११४ ॥ १९६. अरसं विरसं वा वि० सिलोगो । अरसं गुड-दाडिमादिविरहितं । विरसं कालंतरेण सभावविच्चतं उस्सिण्णोयणाति । सूचितं सव्वंजणं, असुचितं णिव्वंजणं । सूचियमेव विसेसिजति सुसूचियं ओल्लं । मंदसूचियं सुक्खं । बदरामहितचुण्णं मंथु, जंपुलिगादि कुम्मासा, एवमादि भोयणं ॥११४ ॥ तमेवमुपदरिसितविधाणमभिप्पायतो विसिटुं१९७. उप्पण्णं णातिहीलेज्जा अप्पं पि बहुफासुयं । मुधालडं मुधाजीवी भुंजेजा दोसवजितं ॥ ११५॥ १९७. उप्पणं णाति० सिलोगो । उप्पण्णं लद्धं ण अतिहीलेज्जा, हीलणं निंदणं, णकारो तं पडिसेहेति, ण निदेजा । किं कारणं ? अप्पं पि बहुफासुयं 'फासुएसणिजं दुल्लभ' ति अप्पमवि तं पभूतं । तमेव रसादिपरिहीणमवि अप्पमवि मुधालद्धं वेंटलादिउवगारवजितेण मुहालद्धं मुहाजीवी उप्पादणादोसपरिहारी 20 भुंजेला घासेसणादोसेहिं सइंगालदोसादिवज्जितं ॥ ११५॥ इमेण य आलंबणेण अरस-विरसाति अण्णं दायकं वा णातिहीलेजा । जधा१९८. दुल्लभा हुँ मुहादायी मुहाजीवी वि दुल्लभा । मुहादायी मुहाजीवी दो वि गच्छंति सोग्गतिं ॥ ११६ ॥ ति बेमि । ॥पिंडेसणाए पढमो उद्देसओ सम्मत्तो॥५-१॥ 25 १९८. दुल्लभा हु मुहादायी० सिलोगो । उपकारहरणीए लोए मुहादाती दुल्लभा । दायगचित्ताराहणपरेसु गेहंतएसु मुहाजीवी वि दुल्लहा। मुहादातिम्मि उदाहरणं-कोति परिव्वायगभत्तो परिव्वायएण 'मम जोग वहाहि' त्ति अत्थितो भणतिवहामि, जदि पुण मम जोगंण वहसि । परिव्वायएण ‘तह' त्ति अन्भुवगते सुवि(१व)हिते य से कते अण्णया भागवयस्स अस्सो चोरोहिं अतिप्पभाते अवहंतेहिं जालीए बद्धो । परिव्वायतो पाणियं गतो अस्सं दुटुमागंतुं भणति-अमुगम्मि १°बिलं मधुरं खं २-३-४ ॥ २ एय लद्धमन्नट्ठप अचू० विना ॥ ३ सूइयं वा असूइयं अच्० वृद्ध विना ॥ ४ उत्खिनोदनादि ॥ ५ "सूचियं तं पुण मंथु-कुम्मासा ओदणो वा होज्जा । मंथू नाम बोरचुन्न-जवचुन्नादि । कुम्मासा जहा गोल्लविसए जवमया करेंति । तेण तप्पगारं भोयण" वृद्धविवरणे । “मन्थु-कुल्माषभोजनं" मन्थु बदरचूर्णादि, कुल्माषाः सिद्धमाषाः, यवमाषा इत्यन्ये" हारि० वृत्तौ ॥ ६उ जे० शु०॥ ७सोग्गई खं २-३-४ । सोग्गई खं १ । सोगई जे०॥ Jain Education Interational Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 सुत्तगा० १९५-२००] दसकालियसुत्तं। १२५ पाणिततडे पोत्ती विस्सरिया । तदत्थं गतेण पुरिसेण अस्सो दिट्ठो आणीतो य । परिव्वायगभत्तेण 'सोवातमेतेण कहित' मिति परते 'ण देमि णिविटुं' ति वजितो । एरिसो मुहादायी दुल्लभो ॥ मुहाजीविम्मि उदाहरणं-कोतिराया निरुप्पकारी सुद्धधम्मपरिक्खत्थं मोदगभोयणमाघोसेतुं रायपुरिसे भणति-पुच्छह को केण खाति १, पडिवण्णे य ममं उवणेह । 'केण खाह ' त्ति पुच्छिता । कोति भणति-मुहेण, कोति-हत्थेहिं, अण्णो-पाएहिं, एवमणेगेहि पडिवजति । खुडओ भणति-ण केणति । उवणीयो रण्णा पुच्छितो 5 कहेति-जो जेण णिव्विसति सो तेण क्खाति, आयुहिता हत्थेहिं, दूतादयो पादेहिं, मंति-सूय-मागहादयो मुहेण, एवं जं जस्स आराहणमुहं सो तेण भुंजति, अहं पुण इहलोगोवगारं प्रति मुहागयाएसणियस्स । 'सोधम्मो' ति पव्वतियो । एरिसो मुहाजीवी ॥ उभयोरपि फलोवसंहरणमिदं-मुहादायी मुहाजीवी जहुद्दिद्वगुणा दो वि गच्छंति सोग्गतिं देवगतिं मोक्खं वा ॥ ११६ ॥ इति बेमि पुव्वभणितमेव ।। ॥ पिंडेसणाए पढमो उद्देसओ सम्मत्तो॥५॥१॥ [पिंडेसणाए बिइउद्देसओ] पिंडेसणाबितियुद्देसारंभो । घासेसणा पत्थुता, जहा-"अरसं विरसं वा वि." [सुत्तं १९६] एतं वीतिंगालं वीयधूम साहुदेहस्स धारणत्थं ति कारणं, मा उग्गमुप्पायणेसणासुद्धमवि राग-दोसेहि भुंजमाणो विराहेहिति । भणितं चबातालीसेसणसंकडेम्मि गेण्हंतो जीव ! ण सि छलितो । एण्हि जह ण छलिज्जसि भुंजतो राग-दोसेहिं ॥१॥ [पिण्डनियुक्तिः गाथा १३५] अतो इंगाल-धूमपरिहरणत्थमिदं भण्णति१९९. पडिग्गहं संलिहिताणं लेवमाताए संजते । दुग्गंधं वा सुगंधं वा सव्वं मुंजे ण छड्डुए ॥१॥ १९९. पडिग्गहं० सिलोगो । भत्तपडिग्गाहणभायणं पडिग्गहो, तं पडिग्गहं संलिहिताणं सामासेउं लेवमाताए जावतियं भो(१ भा)यणोवलित्त एवं लेवमात्रया, अधवा "लेवमादाय” लेवादारन्म अण्णगंधनिस्सेस जेण अलेवाडमिव भवति । संजते इति आमंतणमुवदेसो वा । एवं कडच्छेदेण भुंजमाणो दुग्गंधं वा सुगंधं वा कुत्सितगंधं दुग्गंध, गंधसंपण्णं सुगंधं, उभयहा । वासद्देण रसादयो विकप्पिजंति । भुत्तस्स संलेहणविहाणे भणितव्वे अणाणुपुव्वीकरणं कहिंचि आणुपुविनियमो कहिंचि पकिण्णकोपदेसो भवति त्ति एतस्स परूवणत्थं । 25 एवं च घासेसणाविधाणे भणिते वि पुणो वि गोयरग्गपविट्ठस्स उपदेसो अविरुद्धो। णग्ग-मुसितपयोग इव वा 'दुग्गंध'पयोगो उद्देसगादौ अप्पसत्थो ति ॥१॥ जहा करणं "विणएण पविसित्ता सगासे गुरुणो मुणि" [सुत्तं १८६ ] त्ति भणितं, ण पुण थाणविसेसो, तव्विसेसणत्थं भण्णति२००. सेज्जा-निसीहियाएँ समावण्णो य गोयरे । अयावेयटुं भोच्चा णं जति तेण ण संथरे ॥ २ ॥ 15 20 30 १पानीयतटे ॥ २ सोपायमेतेन ॥ ३ निरूप्यकारी दीर्घज्ञ इत्यर्थः ॥ ४ आयुधिकाः ॥ ५'डम्मि गहणम्मि जीव ! इति पिण्डनियुक्ती पाठः॥ ६ लेवमादाय अचूपा । लेवमायाय खं ३ ॥ ७°ए वा स ख १॥ ८व हाटी.॥ ९ वयदा खं १-२-३ शु० । वइट्ठा खं ४ जे.॥ Jain Education Intemational Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पंचमं पिंडेसणज्झयणं बिइओ उद्देसो २००. सेजा-निसीहियाए. सिलोगो । सेज्जा उवस्सओ, णिसीहिया सज्झायथाणं, जम्मि वा रुक्खमूलादौ सैव निसीहिया, सेन्जा एव वा णिसीहिया सेजानिसीहियाए [समावण्णो य गोयरे...... ..........] गोयरे वा जहा पढमं भणितं । एतेसु अयावयटुं भोचा णं जावदढे यावदभिप्रायं तविवरीय मतावयटुं भुंजित्ता जति तेण ण संथरे जति सद्दो अन्भुवगमे, तेण जं भुत्तं ण संथरे ण तरेज्जा ॥२॥ 5 जति ण संथरेज्जा तेणेव जं भुत्तं २०१. ततो कारणमुप्पण्णे भत्त-पाणं गवेसए। विधिणा पुर्ववुत्तेण इमेणं उत्तरेण य ॥ ३ ॥ २०१. ततो कारणमुप्पण्णे० सिलोगो । सो पुण खमओ वा जघा "विअट्ठभत्तियस्स कप्पंति सब्वे गोयरकाला" [ दशाश्रु० अ० ८ सूत्र २४४ ] छुधालू वा दोसीणाति पढमालियं काउं पाहुणएहिं वा उवउत्ते ततो 10 एवमातिम्मि कारणे उप्पण्णे भत्त पाणं गवेसेजा विधिणा पुचवुत्तेण पढमुद्देसगवण्णितेण, जं अणंतरं भणीहामि इमेणं ततो पुव्वभणियातो उत्तरेण । चसद्दो पुव्वुत्तविधिसमुच्चये ॥३॥ सो उत्तरो विधी अयमारब्भति, तं जधा२०२. कालेण निक्खमे भिक्खू कोलेणेव पडिक्कमे । __ अकालं च विवजेत्ता काले कालं समायरे ॥ ४ ॥ 15 २०२. कालेण निक्खमे भिक्खू० सिलोगो । गाम-णगरातिसु जहोचियभिक्खवेलाए कालेणेति तृतीया तेण सहायभूतेण णिक्खमे पडिस्सयातो गच्छेज्जा णातिवेलातिकंतं । कालेणेव पडिक्कमे पडिणियत्तेजा। एत्थ खेत्तं पहुप्पति कालो पहुप्पति भायणं च, एते अट्ठ भंगा जोएयत्वा । जैधोतियं विवरीयं अकालं च सति कालमवगतमणागतं वा एतं विवजेत्ता चतिऊण, ण केवलं भिक्खाए पडिलेहणातीणमवि होतिते काले कालं समायरे ॥ ४ ॥ भिक्खागहणकालोवदेसस्स विवरीयकरणदोसोवदरिसणत्थं परवेयणोववातणमेव । अकालचारी 20 अलभमाणो भिक्खमातुरीभूतो केणति 'लद्धं भिक्खं ?' ति पुच्छितो 'एस थंडिल्लग्गामो' जिंदतो भण्णति-- २०३. अकाले चरसि भिक्खो ! कालं ण पडिलेहसि ।। ____ अप्पाणं च किलामेसि सण्णिवेसं च गैरहसि ॥ ५॥ २०३. अकाले चरसि० सिलोगो। अकाले भिक्खस्स अदेस-काले चरसि भेक्खस्स हिंडसि भिक्खो! इति आमंतणं । पमाती कालं ण पडिलेहेसि, ततो अप्पाणं च किलामेसि विधापरिस्समेण । सण्णिवेसो 25 गामो तं गरहसि निंदसि । अहवा अफव्वितो परिदेवमाणो एतमेव अत्थं गुरूहि भण्णति सोवालंभं ॥५॥ एते अकालचरणे दोसा अतो२०४. सति काले घेरे भिक्खू कुज्जा पुरिसँगारियं । अलाभो त्ति ण सोएज्जा तवो त्ति अधियासते ॥ ६ ॥ २०४. सति काले चरे० सिलोगो । सति दोससमुच्चये काले चरे भिक्खू, सति वा भेक्खाकाले १व्वउत्तेणं खं २ जे० । 'व्वावुत्तेणं खं ३ । पुष्वभणिएणं वृद्ध० ॥ २ कालेण य प खं १-२-३-४ जे० शु.। कालेणेव 4 अचू० वृद्ध० हाटी०॥ ३ यथोदितम् ॥ ४ यथोदिते ॥ ५ परवचनोपपादनमेव ॥ ६चरसी वृद्ध० ॥ ७ भिक्खू! अचू० विना ॥ ८ गरिहसि खं २ शु० ॥ ९ वृथापरिश्रमेण ॥ १०चरं अचूपा ॥ ११'सकारियं खं १-२ जे० शु० वृद्ध०॥ Jain Education Intemational Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 सुत्तगा० २०१-८] दसकालियसुत्तं । १२७ चरंतो "सति काले चरं" एवं कुजा पुरिसगारियं । णावस्सं काले वि लाभो भवति त्ति तत्थ इमं आलंबणं-अलाभो त्ति ण सोएजा ण परिदेवेजा, तवो त्ति अधियासते तवोविधाणमोमोयरिया तदत्थमहियासए ॥ ६॥ काले जयणा भणिता । खेत्तजयणा पुण२०५. तहेवुच्चावया पाणा भत्तट्ठाए समागता । तो उज्जुयं न गच्छेज्जा जयमेव पंडिक्कमे ॥ ७ ॥ २०५. तहेवुच्चावया पाणा. सिलोगो । तेण प्रकारेण तव, जहा अकालवजणं एवमिदमविउच्चावया णाणाविधा जाति-रूव-वय-संठाणातीहिं भत्तहाए बलिपाहुडियादिसु समागता मिलिता, ‘मा तेसिं उत्त्रासाती होहिति' त्ति ततो उज्जुयं न गच्छेज्जा । ते घासेसिणो परिहरंतो जयमेव पडिक्कमे ॥७॥ जधा अंतराइयातिदोसभएण उच्चावयवित्तासणं ण करणीयं, एवं भिक्खागयस्स णिसीयणादौ आलावगपसंगण वा पाण-भोयणंतरायमिति भण्णति. २०६. गोयरग्गपविट्ठो तु ण "णिसिएज कत्थति । कहं वा ण पबंधेजा चिट्ठित्ताण व संजते ॥ ८॥ २०६. गोयरग्ग० सिलोगो । गोयरो अग्गं च भणितं, तं पविट्ठो। तुसद्दो दोसहेतुभावदरिसणत्थो । ण णिसिएज णो पविसेज कत्थति ति गिह-देवकुलादौ । उद्वितो वि कहं वा कहा धम्मकहाती ण पबंधेजा पबंधेण ण भणेजा, एगणातमेगवागरण वा भणेजा, चिट्ठितो वा एगत्थाणे चिरं, संजते त्ति 15 एसा साधुत्थिती ॥८॥ण केवलं णिसियणं, अवटुंभणमवि ण कप्पति, तण्णिवारणत्थमिदं भण्णति२०७. अग्गलं फलिहं दारं कवाडं वा वि संजते । अवलंबिया ण चिट्ठज्जा गोयरग्गगतो मुंणी ॥ ९॥ २०७. अग्गलं फलिहं दारं० सिलोगो । दुवारे तिरिच्छं खीलिकाकोडियं क8 अग्गला । णगरदारकवाडोवत्थंभणं फलिहं । दारं पवेसमुहं । कवाडं दारघट्टणं । एताणि अग्गलादीणि अवलंबिया ण 20 चिट्टेना, यदुक्तं अवटुंभिऊण । गोयरग्गगतो मुणी एतं भणितमेव ॥९॥ दोसकहणमवलंबणे संचरकुंथुद्देहियादि भत्ते वा पवडणं तस्स आय-संजमविराहणा । दव्वजयणाणंतरमिमा भावजयणा२०८. सेमणं माहणं वा वि किवणं वा वणीमगं । तमतिक्कम्म ण पविसे ण चिट्टे चक्खुफासयो ॥ १० ॥ २०८. समणं माहणं वा वि० सिलोगो । समणा पंच । माहणा धीयारा । किवणा पिंडोलगा। वणीमगा पंच । एतेसिं कोति भिक्खत्थं पविसमाणो पुव्वपविट्ठो वा जदि भवेज्जा तमतिकम्म ण पविसे ण वा चिट्ठज्जा चक्खुफासयो चक्खुदरिसणविसये ॥१०॥ १ तपोविधानमवमोदरिका ॥ २'ट्ठाय समा' शुपा० ॥ ३ तदुजुयं खं १-२ हाटी० । तउजुयं शु०॥ ४ परक्कमे अचू० विना ॥ ५ णिसीएज खं १-२-३ शु० ॥ ६ “संजए ! ति आमंतणं" इति वृद्ध विवरणे ॥ ७ साधुस्थितिः ॥ ८ "मुणिसद्दो आमंतणे वइ" इति वृद्धविवरणे ॥ ९२०८ सूत्रश्लोकस्थाने सर्वासु सूत्रप्रतिषु हाटी० च सूत्र लोकद्धयं वर्तते । तथाहि समणं माहणं वा वि किविणं वा वणीमगं । उवसंकमंतं भत्ता पाणट्टाए व संजए । तं आइक्कमित्तु न पविसे न चिढे चक्खुगोयरे । एगंतमवक्कमित्ता तत्थ चिढेज संजए ॥ अइक्कमित्तु स्थाने अक्कमित्तु जे । चक्खुगोयरे स्थाने चक्खुफासओ जे. अचू० वृद्ध० । चकावुफासए ख ४। अगस्त्यचूर्णी वृद्धविवरणे चोपरिनिर्दिष्ट एक एव सूत्रश्लोको व्याख्यातोऽस्ति ॥ १० किविणं खं ४ जे० शु०॥ Jain Education Intemational Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पंचमं पिंडेसणज्झयणं बिइओ उद्देसो अणंतरसिलोगोपदिट्ठपडिसेहकारणावधारणत्थमिदं भण्णति२०९, वणीमगस्स वा तस्स दायगस्सुभयस्स वा । ___ अप्पत्तियं सिया होज्जा लेहुत्तं पवयणस्स वा ॥ ११ ॥ २०९. वणीमगस्स वा तस्स सिलोगो । वणीमगस्स वा, समणादीण वा वासदेण विकप्पियाण । 5 तस्सेति जो भिक्खत्थं उवसंकेतो, दायगरस वा भिक्खादीण, उभयस्स वा दायग-गाहगाण, तदतिक्कमणे अप्पत्तियं अणिटुं सिया कयायि भवेज, 'एते परलाभोवजीवणत्थं संपयति वरागा' इति लहुत्तं पवयणस्स वा तस्स वा ॥११॥ जहा पडिकुट्ठकुलातीणि अचंतपरिहरणीयाणि ण तहेदमिति तदुवसंकमणोपायो भण्णति२१०. पडिसेहिते व दिण्णे वा ततो तम्मि णियत्तिते । उवसंकमेज भत्तट्ठा पाणट्ठाए व संजते ॥ १२ ॥ २१०. पडिसेहिते व दि० सिलोगो । जदा सो वणीमगादी अतिच्छति पडिसेधितो दिण्णं वा से, एवमदाणेण दाणेण वा ततो तम्मिणियत्तिते भिक्खातिलाभत्थाणातो समीवं संकमेजा उवसंकमेज भत्तहा भत्तनिमित्तं पाणट्ठाए वा ॥१२॥ संजते होऊण जधा मणोगतदुक्खपरिहरणत्थं वणीमगाइणो णातिकमियव्वा तहा सरीरपीडापरिहरणनिमित्तमिमाणि णातिक्कमेज २११. उप्पलं पउमं वा वि कुमुदं वा मगदंतिगं । अण्णं वा पुप्फ सचित्तं तं च संलुंचिया दए ॥ १३ ॥ २११. उप्पलं पउमं० सिलोगो । उप्पलं णीलं । पउमं णलिणं । वा अपीति तामरसातिपरिगहो। कुमुदं गद्दभगं । पुणो वासदेण थलयाणि वि काणियि विकप्पिजंति । मंगदंतिगा मेत्तिया । एतप्रकारोपदरिसणमेत्तमिदमिति भण्णति--अण्णं वा पुप्फ सचित्तं अव्वावादितं हिमादिणा तं च संलुंचिया दए तं अणंतरभणितं पुप्फाभिधाणसंबंधणं । च इति चेदत्थे । एतेसिं उज्जाणितागताणं सरतडनिवेसादौ समुक्ख20 णणं लुचणं करेंती जदि देज एवं दए। “सम्मदमाणी पाणाणि बीयाणि हरियाणि य।" [सुत्तं ११२] उप्पलादीण एत्थं हरियग्गहणेण गहणे वि कालविसेसेण एतेसिं परिणामभेदा इति इह सभेदोपादाणं ॥१३॥ अणंतरसिलोगत्थमसमाणितं समातेहिं भण्णति२१२. तं भवे भत्त-पाणं तु संजताण अकप्पितं । देतियं पडियाइक्खे ण मे कप्पति एरिसं ॥ १४ ॥ २१२. तं भवे भत्तपाणं तु० सिलोगो । तमिति अणंतरसिलोगभणिउप्पलादि संलुंचतीए दिण्णं भवे इति णियमेण भत्त-पाणं तु भयणीयं पायव्वं वा इति भत्त-पाणं, तुसद्देण वत्थादीयं पि अणागता-ऽतीतवट्टमाणसाधूणं तं अकप्पियं अणेसणिज्जमिति । देंतियं पडियाइक्खे पडिसेहए 'ण मम कप्पति एरिसं' इति एतेणं वयणेणं । 25 १ अपत्तियं खं ४ ॥ २ लहुयत्तं शुपा० ॥ ३ अप्रेतनसूत्रश्लोकचूर्ण्यनुसारेण अयं स्त्रश्लोकः आचार्यान्तरगतेन षट्चारणत्मको वर्तते इति एतत्सूत्रश्लोंकानन्तरं धेतियं पडियाइक्खे ण मे कप्पति परिसं इति पश्वार्द्धमधिकं ज्ञेयम् ॥ ४ सञ्चित्तं खं १२-३ शु०॥ ५ "मगदंतिया मेत्तिया, अण्णे भणंति-धियइल्लो मगदंतिया भण्णइ ।” इति वृद्धविवरणे। “मगदन्तिकां मेत्तिकाम् , मल्लिकामित्यन्ये ।" इति हारि० वृत्तौ ॥ Jain Education Interational Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 15 सुत्तगा० २०९-१६] दसकालियसुत्तं १२९ [केति तु] "तं भवे भत्तपाणं०” एतस्स सिलोगस्स प्रागेणं पच्छद्धं पढंति-दंतियं पडियाइक्खे । तं किं ? "संजताणं अकप्पियं" पुणो “ण मे कप्पति एरिस"मिति पुणरुतं, तप्परिहरणत्थं पच्छिमद्धेणेव समाणसंबंधमतीताणंतरसिलोगसंबंधतं समाणेति, तहा य दिवड्डसिलोगो भवति, लोगे य मुंग्गाहियत्थपडिसमाणणेण दिवड्डसिलोइया प्रयोगा उवलन्भंति । यथा दश धर्म न जानन्ति धृतराष्ट्र ! निबोधनात् । मत्तः प्रमत्त उन्मत्तो भ्रान्तः क्रुद्धः पिपासितः । त्वरमाणश्च भीरुश्च चोरः कामी च ते दश ॥१॥ [महाभारते ॥१४॥ समाणसंबंधो केणति अत्थेण विसिट्ठो पुणो अयं उच्चारतव्वो-- २१३. उप्पलं पउमं वा वि कुमुदं वा मगदंतिगं । अण्णं वा पुप्फ सच्चित्तं तं च सम्मदिया दए। *देतियं पडियातिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ १५॥ २१३. उप्पलं पउमं० सिलोगो । तहेव अत्थविभासणे कते अपच्छिमपादे तं च सम्मदिया दए, तमिति उप्पलादीणं किंचि पुव्वच्छिण्णमुवरवितं पुप्फावचायगातिसु । तं च सम्मद्दिया दए पुवच्छिण्णाणि मलिऊण अपरिणताणि, तेसिं ण समुक्खणणनिमित्तेणं किंतु जल-थलयवेंट-णालिबद्धविससेणं परिणामो भवतीति जाणितूणं, अतो तथा देंतियं पडियातिक्खे ण मे कप्पति तारिस"मिति समाणाभिसंबंधमेव ॥१५॥ २१४. सालुगं वा विरोलियं कुमुदुप्पलनालियं । ___ मुणालियं सासवणालियं उच्छुगंडमणिव्वुडं ॥ १६ ॥ २१४. सालुगं वा विरालियं० सिलोगो । सालुयं उप्पलकंदो। विरोलियं पलासकंदो, अहवा छीरविराली जीवंती गोवल्ली इति एसा । कुमुदुप्पलाणि भणिताणि, तेसिंणाला। पउमाण मूला मुणालिया। सासवणालिया सिद्धत्थगणाला । उच्छुगंडमणिव्वुडं सपव्व-ऽच्छियं ॥१६॥ एतेसिं ण केवलं संलुचणाति खंजती वि, तहाजातीयमिदमवि-- २१५. 'तहेव तरुणगं पवालं रुक्खस्स व तणस्स वा । 'हेरितस्स वा वि अण्णस्स आमगं परिवजए ॥ १७ ॥ ___ २१५. तहेव तरुणयं० सिलोगो । तहेव वजणीयं तरुणयं कोमलं पवालं पलवो रुक्खस्स चिंचादे तणस्स वा महुरतणातिकस्स हरितस्स वा भूतणकादे अण्णस्स वेति जीयंति-[गो]वलिमादीण आमगं अणुस्सिणं समंततो वजए परिवजए॥ १७॥ पत्थुताभिसंबंधणेव २१६. तरुणियं वा छिवीडिं आमिगं सतिभजितं । देतियं पडियातिक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ १८ ॥ १ २१२ सूत्रश्लोकस्थाने देंतियं पडियाइक्खे० इत्यर्धश्लोकसूत्रं अचूपा० वृद्धः । तारिस भत्त-पाणं खं १-२-३-४ जे. हाटी० ॥ २ अत्र मकारोऽलाक्षणिकः, तेन उद्घाहितार्थप्रतिसमाननेन इत्यर्थः ॥ ३ 'यश्लोककाः' अर्द्धद्वितीयश्लोकका इत्यर्थः ॥ ४ देंतियं० इत्यर्धसूत्रश्लोकस्थाने सर्वासु सूत्रप्रतिषु हाटी० च पूर्णश्लोकसूत्रं वर्तते-तं भवे भत्त-पाणं तु संजताण अकप्पितं । देतियं पडियाइक्खे ण मे कप्पति तारिसं॥ ५ पुप्फोवचारागतिसु मूलादर्शे ॥ ६ विरालीयं खं ३॥ ७ कुमुयं उप्प खं २-३-४ शु०॥ ८°च्छुक्खंड अचू० विना ॥ ९ "विरालिय नाम पलासकंदो भण्णइ, जहा बीए वल्ली जायति [ एवं ] तीसे पव्वे पव्वे कंदा जायति सा विरालिया भण्णइ ।" इति वृद्धविवरणे । “विरालिका" पलाशकन्दरूपाम् , पर्ववलि-प्रतिपर्ववल्लि-प्रतिपर्वकन्दम् इत्यन्ये ।" इति हारि० वृत्ती ॥ १० खजति वि तहाजातियमिदंसेवि मूलादर्श ॥ ११ तरुणगं वा पवालं अचू० विना ॥ १२ अन्नस्स वा वि हरियस्स आमग अचू. विना ॥१३ छेवाडि खं २ शु०॥ १४ आमियं भज्जियं सई अचू० पद्ध० विना ॥ दस० सु०१७ 25 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पंचमं पिंडेसणज्झयणं बिइओ उद्देसो २१६. तरुणियं वा छिवाडि सिलोगो । तरुणिया अणापक्का । छिवाडिया संबिलिया । आमिगा असिद्धपक्का तं वा । सतिभजिता एक्कसि भजिता । एतं देंतियं पडियातिक्खे०॥१८॥ सव्वाभिसंबंधेण समाणणत्यमितं भण्णति२१७. तहा कोलमणुस्सिण्णं वेलुयं कासवनालियं । तिलपप्पडगं नीवं आमयं परिवजए ॥ १९ ॥ २१७. तहा कोलमणुस्सिणं. सिलोगो। [तहा] तेणेव पगारेण कोलं बतरं, तं अणुस्सिणं जं ण उस्सेतियं तोगलि( १ तोय-ऽग्गि )निमित्तं । वेलयं बिलं वंसकरिलो वा । कासवनालियं सीवण्णीफलं कस्सारुकं । तिलपप्पडगो आमतिलेहि जो पप्पडो कतो । णीवफलं वा । एतेसिं जं अणुस्सिण्णं तं आमयं परिवजए ॥१९॥ 10 पुव्वाधिकारोवजीवणत्थं भण्णति २१८. तहेव चाउलं पिटुं वियर्ड वा तत्तनिव्वुडं । तिलपिट्ठ पूतिपिण्णागं आमगं परिवज्जए ॥ २० ॥ २१८. तहेव चाउलं पिटुं० सिलोगो । चाउलं पिढे लोट्टो, तं अभिणवमणिधणं सञ्चित्तं भवति । वियर्ड उण्होयगं तत्तनिव्वुडं सीतलं पडिसचित्तीभूतं अणुव्वत्तदंडं वा । तिलपिडं तिलउट्टो, तस्स वि णिरिं15धणस्स तहेव परिणामो अभिण्णो वा कोति होजा । पूतिपिण्णागो सरिस[व] पिटुं एतेसिं जं असत्थपरिणतं तं आमगं परिवजए ॥ २० ॥ तुल्लाधिकारोपपादितमिदं भण्णति२१९. कविटुं मातुलिंगं च मूलगं मूलँकत्तियं । आमगमसत्थपरिणयं मणसा वि ण पत्थए ॥ २१ ॥ २१९. कविढे मातुलिंगं० सिलोगो । कवित्थफलं कविठं । बीजपूरगं मातुलिंगं । समूलं (१ ल)20 पलासो मूलग एव । मूलगं( ? ग)कंदगचक्कलिया [मूलकत्तिया] । एतेसिं अण्णतरं आमगं अणुस्सिणं अण्णेण वा सत्थेण अणुवहतं मणसा किं पुण कम्मुणा ण पत्थए णाभिलसेज्जा ॥ २१॥ पुव्वपत्थुतप्रकाराभिसंबंधणत्थं भण्णति२२०. तहेव फलमंथूणि बीयमंथूणि जाणिया । । बिभेलगं पियालं च आमगं परिवज्जए ॥ २२ ॥ 28 २२०. तहेव फलमंथूणि सिलोगो । तेणेव प्रकारेण, एवसद्दो अवधारणे । मंथु चुण्णं, फलमणि बतरातिचुण्णाणि । बीयमंथूणि बहुबीयाणि उंबरादीणि । बिभेलगं भूतरुक्खफलं, तस्समाणजातीतं हरिडगाति वा । [पियालं ] पियालरुक्खफलं वा । सव्वेसि पि आमगं परिवजए ॥ २२ ॥ १'मणस्सि ख १ जे. शु० हाटी.॥ २नीम अचू० विना ॥ ३ "तथा 'कोलं' बदरम् , अखिन्न' वयुदकयोगेनानापादितविकारान्तरम् ।" हारि० वृत्तौ ॥ ४ "वेणुक' वंशकरिलं" इति हारि० वृत्तौ। ["वेलुयं बिलं, ] अण्णे पुण भणंति-वंसकरिलो बेलुयं" इति वृद्धविवरणे ॥ ५“चाउलं पिटु भटुं ( ? लोड ) भण्णइ, तमपरिणतधणं सचित्तं भवति । मुद्धमुदयं वियर्ड भण्णइ । तत्तनिव्वुडं नाम जं तत्तं समाण पुणो सीयलीभूयं तं कालंतरेण सचित्तीभवति त्ति न पडिगाहेयव्वं । अहवा तत्तनिव्वुडं जं तत्तं न ताव डंडो उववत्तइ तं तत्तनिव्वुडं भण्णइ ।" इति वृद्धविवरणे । 'तान्दुलं पिष्टं लोट्टमित्यर्थः । 'विकटं वा' शुद्धोदकम् । तथा 'तप्तनिवृतं' कथितं सत् शीतीभूतम् । 'तप्तानिवृतं वा अप्रवृत्तत्रिदण्डम् ।" इति हारि० वृत्ती॥ ६ माउलुंगं खं २ वृद्ध । माउलंगं खं ४ जे. शु०॥ ७°लगत्ति खं १-२-३-४ शु०॥ ८ आमं अस अचू० वृद्ध० विना ॥ ९ "मूलओ सपत्त-पलासो । मूलकत्तिया मूलकंदचित्तलिया भण्णइ।" इति वृद्धविवरणे । “मूलक' सपत्रजालकम् । 'मूलकर्तिकां' मूलकन्दचक्कलिम् ।" इति हारि० वृत्तौ ॥ Jain Education Intemational Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 सुत्तगा० २१७-२३] दसकालियसुत्तं । १३१ एगिदियजीवसरीरनिप्फण्ण एव पाएण आहारो, फलमथु-पिट्ठादीण य पडिसेहो कतो, किं पुण गेण्हियत्वं ? ति विधिमुहमिदमारब्भते२२१. समुयाणं चरे भिक्खू कुलमुच्चावयं सदा । णीयं कुलमतिक्कम्म उस्सडं णाभिधौरए ॥ २३ ॥ २२१. समुयाणं चरे भिक्खू० सिलोगो । समुयाणीयंति-समाहरिजंति तदत्थं चाउलसाकतो रसा- 5 दीणि तदुपसाधणाणीति अण्णमेव समुदाणं चरे गच्छेदिति । अहवा पुव्वभणितमुग्गमुप्पायणेसणासुद्धमण्णं समुदाणीयं चरे समुदाणं चरे, भिक्खू वण्णितो । कुलमुच्चावयं उच्चावयं अणेगविधं हीण-मज्झिमा ऽहिगमपडिकुट्ठाति, तं चरंतो णीयं कुलमतिकम्म उस्सडं णाभिधारए, णीयं ऊणं, उस्सडं उस्सितं । तं पुण जाति-सार-पक्ख समुस्सएहिं णीयमुस्सडं वा । जातितो नाम एगमुस्सडं णो सारयो, सारयो णाम नो जातितो चउभंगो, एवं सेसेसु वि । 'किं एतेहिं रंघडकुलेहिं ? इस्सरकुलेहिं मिट्ठ लहुं वा लभीहामि' त्ति एतेणाभिप्पायेण 10 णातिक्कमे ण पाहारणाणि करेन्ज । एत्थ दोसा-ते णीयकुले 'अभिभवति अम्हे' ति पदोसमावज्जेज्जा, एतेसिं 'जातिगन्वित' त्ति धीयारातिजातिवायोववूहणं । तम्हा णीयं अतिकम्म वोलेतुं उस्सियं णाभिधारए, ॥ २३ ॥ एवं णीतेसु अलाभेण अविसण्णो उस्सितेसु अलोलुओ२२२. अदीणो वित्तिमेसेज्जा ण विसीएज्ज पंडिते । अमुच्छितो भोयणेम्मि मातण्णो एसणारते ॥ २४ ॥ २२२. अदीणो वित्ति० सिलोगो । अदीणो अदुम्मणो वित्तिमेसेजा वित्तिं सरीरधारणं एसेन्जा मग्गेज्जा । ण विसीएन्ज विसायं ण गंतव्वं, एवं बहूणि घराणि अतिक्रम्म णत्थि भिक्खा, अहो ! किलेसो । पंडिते इति जो एतमधियासेति स पण्डितः । मुच्छित इव मुच्छितो, जधा मुच्छावसगतो णट्ठचित्तो एवं अण्णपाणगेहीते गडचित्तो, ण तहा भवियव्वं ति अमुच्छितो । भोयणम्मि मातण्णो मात्रा-परिमाणं तं जाणतीति मातण्णो, णातूणं ओमोयरियाकरणमा( ? णं नाऽऽ)णेति अधिगं वा जं उज्झितव्वं । एसणाए रते ण दीणो [ण] विसण्णो ण मुच्छितो एसणं पेलेति ॥ २४ ॥ दीणता-विसाय-मुच्छाओ इमेण आलंबणेण अलब्भमाणे वि ण कायव्वाओ । जहा२२३. बहं परघरे अस्थि विविधं खाइम-साइमं । ___ण तत्थ पंडितो कुप्पे इच्छा देज परो ण वा ॥ २५ ॥ २२३. बहुं परघरे अत्थि० सिलोगो । बहुं प्रभूतं परस्स घरेण मम अस्थि विजए विविधं अणेगागारं असणादि । एतं महग्यतरमिति विसेसिज्जति-खाइम-साइमं । ण तत्थ पंडितो कुप्पे, ण इति पडिसेहे, तत्थेति आधारसत्तमी, तम्मि खाइम-साइमे अलब्भमाण इति वाक्यशेषः, पंडितो एतस्स अत्थस्स विजाणओ, पंडिएणं तम्मि अलब्भमाणे ण कुप्पियव्वं । किं कारणं ? इच्छा अभिप्रायो कयाति तस्स अभिप्पायो 'देमि अणुग्गहत्थं' एताए इच्छाए देज, परो इति अप्पाणवतिरित्तो । सो 'किं एतेसिं दिण्णेणं ? ति एताए इच्छाए ण वा देज ॥ २५ ॥ण केवलं मासंसुल (१) महग्घदव्वस्स खाइम-साइमस्स अलामे ण कुप्पितव्वं, किं तर्हि १समुदाणं खं ३ वृद्ध०॥ २ऊसढं अचू० विना । उस्सियं अचूपा०॥ ३°धावए ख ३ हाटी० ॥ ४ नीचेषु ॥ ५°णम्मी मा खं १-३॥ ६ मायने खं १-२-३-४ जे. शु०॥ ७ अन्न-पानगृख्या ॥ ८ आत्मव्यतिरिक्तः ॥ 20 Jain Education Intemational Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पंचमं पिंडेसणज्झयणं बिइओ उद्देसो २२४. सयणाऽऽसण वत्थं वा भत्त-पाणं व संजते । अदेंतस्स ण कुप्पेज्जा पच्चक्खे वि' य दीसतो ॥ २६ ॥ २२४. सयणाऽऽसण वत्थं वा० सिलोगो । सयणं संथारगादि, आसणं पीढकादि, वत्थं अणेगागारमुवगरणं । वासद्दो अलाबुपात्रादिविकप्पणे । भत्त-पाणं व भत्तं ओदणादि पाणं मुद्दियापाणगादि । वा5 सदस्स हस्सता उक्ता । अत्थो पुण से अणंतरसिलोगे खाइम-साइममुपदिटुं, इह भत्तं पाणमवि चउन्विहाहारतदुपकारभेअंजोवसंगहे । वासद्दो अकोधो संजमसारो त्ति संजताभिधाणं, एवं संजते भवति । इच्छा देज परो ण वि त्ति अधिकृतं, अतो अदेंतस्स न कुप्पेज्जा सव्वं पि एतम्मि परिभुज्जमाणे त परिभुज्जमाणे परिभयिज्जमाणे पचक्खे वि य दीसतो अपिसद्द-चसद्दा पञ्चक्खकडुगपीडाकारितविसेसे, दीसओ दीसमाणस्स अदाणे दायगस्स न कुप्पेजा ॥ २६ ॥ “अदेंतस्स न कुप्पेज" ति कोहो निवारितो। इह तु लोभो कोहफलं च 10 परुसवयणं णिवारणीयमिति २२५. इत्थियं पुरिसं वा वि डहरं वा महल्लगं । वंदेमाणं ण जाएज्जा णो य णं फरुसं वदे ॥ २७ ॥ २२५. इत्थियं पुरिसं वा वि० सिलोगो । एते दायगविकप्पा इत्थी पुरिसो वा, एक्कक्को डहरगो महल्लो वा । एतेसिं विकप्पाणं अण्णयरं वंदमाणं ण जाएज्जा जहा अहं वंदितो एतेण, जायामि ण, भद्दो 15 अवस्स दाहिति । सो वंदियमत्तेण जातिओ चिंतेन भणेज वा-चोरते वंदिहि त्ति एणातियं(?)एवमादि दोसा । अवस्सपओयणे वंदितो अण्णत्थ गंतूण सवक्खेवमागतो जाएज्जा । एवं वंदिते वा जातिएण पडिसेहिओ अप्पे वा दिण्णे [णो य णं तं दायगं] 'हीणं ते वंदणगं, वंदणगसारओ' णो एवमादि फरुसं वदेजा। पाढविसेसो वा "वंदमाणो न जाएजा" वंदमाणो विव वंदमाणो सिरकंप-भटि-सामिएवमादिपरियंदणेहि ॥२७॥ इत्थि-पुरिस-डहर महल्लविकप्पे तरुणित्थीसु विसेसतो दोसा इति दरिसिजंति-वंदणे जायण-फरुसवयणं 20 णिवारियं । इदं तु अवंदणे वंदणे वा कोव-समुक्कसविणयणत्थं भण्णति २२६. जे ण वंदे ण से कुप्पे वंदितो ण समुक्कसे । एवमण्णेसमाणस्स सामण्णमणुचिट्ठति ॥ २८ ॥ २२६. जे ण वंदे ण से० सिलोगो । जो ण वंदति तस्सुवरि 'गन्वितो दुरप्प'त्ति ण कुप्पितव्वं । वंदितो वा रायमादीहिं 'को मए तुल्लो त्ति अप्पाणं ण समुक्कसेजा। एवमण्णेसमाणस्स, एवं अदेंतस्स 25 अकोवेण, वंदमाणे अजायणेण, [जातिएण पडिसेधिते] फरुसवयणपरिहरणेण, अवंदितस्स कोषेण, वंदितस्स असमुक्करिसेण, एतेण अणेगविहेण प्रकारेण पुव्वरिसीहि एसियं अणुएसमाणस्स सामण्णं समणभावो तं अणुचिट्ठति, जधा पुवरिसिसु तमविकलमवत्थितं तहा एवं अण्णेसमाणस्स चिठ्ठती ॥२८॥ वंदमाणातिजायणं अणणुण्णातमिति परपक्खतेणिया । सपक्खतेणियापडिसेहणत्थं भण्णति२२७. सिया ऐगतियो लड़े लोभेण विणिगृहती। __ मा मेतं दाइयं संतं दणं सयाइए ॥ २९ ॥ १वि वरीसओ खं ३ । वि य दीसते हाटी०॥ २ भेदज्ञ इत्यर्थः ॥ ३ वंदमाणो ण अचूपा. वृद्धपा० हाटीपा० ॥ ४ नोअण्णं फ खं ३-४ वृद्ध० । नो य णं फ जे०॥ ५ चिट्ठती जे० । चिट्ठए खं १ । चिट्ठइ खं ३-४ ॥ ६ एगईओ खं २-३ शु०। एगइओ खं १-४ जे० ॥ ७°हए जे० । हइ खं १-४ । हई खं २-३ शु०॥ ८ मायए खं १-२ जे. शु० । माइए सं ३-४ वृद्ध । माईए जे०॥ 30 Jain Education Intemational Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 सुत्तगा० २२४-३१] दसकालियसुत्तं । २२७. सिया एगतिओ लढुं० सिलोगो । सिया कयाति एगतिओ एगतरो कश्चिदेव मणुण्णं भोयणं लढुं लोभेण विणिगूहती तम्मि गिद्ध-मुच्छितो विविधं अहिकं [णिगृहति] संवरेति अप्पसागारियं करेति । किं कारण ? मा मेतं मएतं विसिटुं दाइयं दरिसियं संतं सोभणं दट्टण आयरियो अण्णो वि कोति सयमाइए अप्पणा आहारेजा, अधमेव एतं पढमालिआमिसेण मंडलीए वा ततो थाणातो उद्धरंतो आहारेहामि ॥ २९ ॥ तस्स एवं विणिगूहमाणस्स इमो लोभविपाको । तं जहा२२८. अत्तगुरुओ लुडो बहू पावं पकुव्वति । दुत्तोसतो ये भवति नेव्वाणं च ण लब्भति ॥ ३० ॥ २२८. अत्तगुरुओ लुद्धो० सिलोगो । अप्पणीयो अत्थो अत्तट्ठो, सो जस्स गुरुओ सो अत्तट्टगुरुओ । अत्यो प्रयोजणं । लुद्धो लोभाभिभूतो । सो एवंगतो सपक्खचणपरो बहुं पावं पभूतं पातयतीति पावं तं बहुं प्रकरिसेण कुव्वती प्रकुर्वती, एस परलोगावातो । इहलोए वि दुत्तोसतो य भवति मणुण्णा-10 हारसमुतियो जेण वा तेण वा भिक्खयरलाभेण दुत्तोसतो भवति, [नेव्वाणं च ण लब्भति] अपरितुट्ठस्स कओ नेवाणं?, अहवा परलोगपञ्चवातोऽयं सो अपरितुट्ठो धितिविरहितो सो मोक्खं ण लभति॥३०॥ एस दिट्ठो अदिट्ठमवहरति । अयमण्णो सपक्खतेणियाविसेसो जो अदिह्रो दिट्ठमपहरति तं पडुच्च भण्णति २२९. सिया एगतियो लडुं विविधं पाण-भोयणं । भदगं भदगं भोच्चा विवेण्णं विरसमाहरे ॥ ३१ ॥ २२९. सिया एगतियो लटुं० सिलोगो । सिया कयाइ कोति भिक्खायरियागत एव लभिऊण विविधं अणेगागारं पाण-भोयणं भद्दगं सोभणं तं भुंजिऊण । भद्दगं भगमिति वीप्सा । जं जं केणति गुणेण उववेतं तं सव्वं । अबक्खलगाति विवणं, दोसीण-णिलोणाति वा विरसं तमाहरति ॥३१॥ एवं पुण जो मंडलीतो सो लोभेण व सपक्खपायणत्थे, इतरो कोऽहं ?२३०. जाणंतु तो मए समणा आयतट्ठी अयं मुणी। संतुट्ठो सेवती पंतं लूहवित्ती सुतोसतो ॥ ३२ ॥ २३०. जाणंतु ता इमे (मए) समणा सिलोगो । जाणंतु ता मए समणा-जधा एस साधू [आयतट्ठी] आगामिणि काले हितमायतीहितं, आततिहितेण अत्थी आय[य त्याभिलासी । मुणी य जती भट्टारओ । संतुट्ठो जेण तेण चलति, अंतपंताणि सेवती, लूहवित्तीए जावेति सुतोसतो किंचि लभिऊणं अलभितूण वा तुस्सति ॥ ३२ ॥ आउट्टाविएसु जं फलं तदिदमुण्णीयते 25 २३१. पूँयणट्ठी जेसोगामी माण-सम्माणकामए। बहु पसवती पावं मायासल्लं च कुव्वती ॥ ३३ ॥ २३१. पूयणढी जसोगामी० सिलोगो । पूयणेण अत्थी पूयणत्थी।जसोगामी जसो गच्छति त्ति तदत्यं पवत्तती । माण-सम्माणकामए माणं सम्माणं च कामेति माण-सम्माणकामए । माणो अन्भुट्ठाणादीहिं गव्वकरणं, सम्माणो वत्थातीहिं, एगदेसेण वा माणो, सव्वगतो परिसंगो सम्माणो । सो एवमभिप्पायो बहुं 30 १ अहमेव ॥ २ अत्तट्ठागुरुओ खं २-३ शु० वृद्धः । अत्तट्ठागरुओ खं १-४॥ ३ य से होति अचू० पद्ध० हाटी. विना ॥ ४ण गच्छति अचू० विना ॥ ५विउण्णं खं ३॥ ६ ता इमे अचू० विना ॥ ७एतं जे०॥ ८पूयणट्टा अचू० वृद्ध० विना ॥ ९ जसोकामी अचू० विना ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ णिज्जुत्ति-चुणिसंजुयं [पंचमं पिंडेसणज्मयणं बिइओ उद्देसो पसवती पावं बहुं पभूतं पसवती जणयती [पावं], कम्मपसूईए मायासलं सल्लं आउधं देधलग्गं, चसद्दो दोससमुच्चये, मायैव तस्स सलं भवति, तं कुवती मायासलं करेति ॥ ३३ ॥ सपक्खे तेणिया भणिता । इमा पुण स-परपक्खगता२३२. सुरं वा मेरगं वा वि अण्णं वा मज्जगं रसं । ___ संसक्खो ण पिबे भिक्खू जसं सारक्खमप्पणो ॥ ३४ ॥ २३२. सुरं वामेरगं वा वि० सिलोगो।सुरा पिट्टकम्मसमाहारो । मेरगो पसण्णाविसेसो। पधाण इति सुरा-मेरगाभिधाणं । अण्णं वा मधु-सीधुविकप्पसेसं मजगं रसं मदणीयं । ससक्खो सक्खीभूतेण अप्पणा सचेतण इति, अहवा जया गिलाणकजे तता ससक्खो ण पिबे जणसक्खिगमित्यर्थः । किं पुण ससक्खं ? जसं सारक्खमप्पणो, जसो सकमोतं सारक्खेतो, लोगे वा जो जसो तं सारक्खतो अप्पणो अप्पणा वा जसं 10 सारखंतो ससक्खं ण पिबेति ॥ ३४ ॥ अप्पसागारियं मा विणा कन्जेण पिबेज त्ति भण्णति २३३. पियातेगतियो तेणो ण मे कोति वियोणति।। तस्सँ पस्सह दोसादि नियंडिं च सुणेह मे ॥ ३५॥ २३३. पियातेगतिओ तेणो० सिलोगो । पिबति आजीवति एगतिओ कोति रसगिद्धो तेणो चोरियं ण मे कोति विजाणति एवमहं णिगूढं करेमि जधा ण कोति मए जाणति । तस्स एवंविधस्स 15 तेणस्स गुरवो सीसे आमंतेऊण भति-पस्सह इहलोय-पारलोइयाई दोसादि । जहा य सो णियडिमायरति दुक्खं, नियडी माया तं सुणेह भण्णमाणिं ॥ ३५॥ "तस्स पस्सध दोसाई" ति जं भणितं तसिं दोसाणं पाउब्भावणत्थमिदं भण्णति२३४. वडती 'सोंडिया तस्स माया मोसं च भिक्खुणो । अजसो य अणेव्वाणी सततं च असाधुता ॥ ३६ ॥ 20 २३४. वडती सोंडिया तस्स० सिलोगो । सुरादिसु संगो सोंडिया सा वडती पाणवसणं । तस्स तेणियाए पिबंतस्स माया णिगूढं पावमिति मोसो पुच्छियस्स वऽवलावो भिक्खुणो पव्वतियस्स अजसो य सपक्ख-परपक्खे ‘एस वेयडितो' त्ति । अणेवाणी तं अलभमाणस्स अतुट्ठी, मोक्खाभावो वा अणेवाणी । सततं च सव्वकालं असाधुभावो असाधुता ॥ ३६॥ सव्वमवि एतं वङ्गतीति आदिदीवितं । सो तेण वसणेण इहलोए चेव२३५. णिचुव्विग्गो जधा तेणो अप्पकम्मेहिं दुम्मती । तारिसो मरणंते वि ण आराहेति संवरं ॥ ३७॥ २३५. णिच्चुबिग्गो जधा तेणो सिलोगो । णिचं उब्विग्गो भीतो, निदरिसणं-जहा तेणो रायपुरिसादीणं णिच्चभीतो, एवं सो वि [ अप्पकम्मेहिं ] अप्पणो दुचरितेहिं वसणाभिभूतो । कुच्छितमती दुम्मती । तारिसो अणेगग्गी मरणंते वि मरणमेव अंतो तम्मि वि ण आराहेति संवरं पञ्चक्खाणं णमोक्कारमवि ॥३७॥ 30 सयमवि तस्स दोसपसंगो १ देहलग्नम् ॥ २ ससक्खं अचू० विना ॥ ३ तदा ॥ ४ वकमोजः ॥ ५ को वि वि खं २॥ ६ विजाणयि वृद्ध० ॥ ७ तस्स सुणसु दो वृद्ध० ॥ ८ दोसाई अचू० विना ॥ ९नियर्ड खं ४॥ १० सुंडिया खं १-२-४ ॥ ११ अनिव्वाणं खं :-४ शु० हाटी० ॥ १२ अत्तक अचू० विना ॥ १३ दुम्मइ खं ३-४॥ १४ नाराहेइ अचू० विना ।। 25 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ सुत्तगा० २३२-३९] दसकालियसुत्तं । २३६. आयरिये नाऽऽराधेति समणे यावि तारिसो। गिहत्था विणं गरहंति जेणे जाणंति तारिसं ॥ ३८ ॥ ___२३६. आयरिये नाऽऽराधेति सिलोगो । आयरियाराधणं परलोगाराहणाए मूलं, सो एवंगुणो पमाती आयरिये णाराहेति, अण्णे वि समणे, तारिसो मत्तवालओ । ण केवलं गुरु साधूण अवमतो, गिहत्था वि णं गरहंति 'मजव्वसणी समणओ' ति णिदंति, जेण तहाभूतं जाणंति ॥ ३८ ॥ एवं दोसप्पसंगविरहितो पुर्ण२३७. तवं कुव्वति मेधावी पेणीए वजए रसे । मज्जप्पमातविरतो तवस्सी अतिउक्कसो ॥ ३९ ॥ २३७. तवं कुञ्चति मेधावी सिलोगो। तवो बारसविधोतं करेति । मेधावी दुविहो-[मेरामेधावी य] गहणमेधावी । मेराधावणेण य इह मेरामेधावी अधिकृतः। पणीए वजए रसे, पणीए पधाणे विगतीमा-10 दीते वजए । रसेसु जिब्भाडंडप्पसंगो केवलो, वियडे पुण सो य पमादत्थाणं च, अतो मज-पमातविरतो, सो य तवस्सी । मतेण य एवं पि संभवतीति भण्णति-अतिउक्कसो णं अहमिति गव्वेण तवस्सित्तणेण अत्तुक्कासियो ॥ ३९ ॥ पाणाभिलासे “वडती सोंडिय" [ सुत्तं २३४ ] त्ति एवमादी दोसपसंगो भणितो । तवस्सिणो गुणपरंपरपरूवणत्थमिदं भण्णति २३८. तस्स पस्सध कल्लाणं अणेगसाधुइँतियं । विपुलं अट्ठसंजुत्तं कित्तयिस्सं सुणेह मे ॥ ४० ॥ २३८. तस्स पस्सध कल्लाणं० सिलोगो । तस्सेति तस्स तवस्सिणो पणितरस-मज-पमादवजतस्स पस्सध त्ति गुरुवो आमंतेति । पस्सणं णयणगतो वावारो सव्वगतावधारणे वि पयुजति, मनसा पश्यति । तस्स पश्यतेति कल्लाणं वृद्धि अणेगेहिं साधूहिं पूतियं पसंसियं इह-परलोगहितं । विपुलं अट्ठसंजुत्तं विपुलेण वित्थिण्णेण अत्थेण संजुत्तं अक्खयेण णेव्वाणत्थेण । तमिदाणिं सवित्थरं कित्तयिस्सं सुणेह मे ॥ ४० ॥20 तकित्तणमिदमारब्भते२३९. एवं तु गुणप्पेधी अगुणोण विवजए । तारिसो मरणंते वि आराहेति संवरं ॥ ४१ ॥ २३९. एवं तु गुणप्पेधी० सिलोगो । एवं एतेण प्रकारेण मज्जपमायवेरमणातिणा, तुसद्दो हेतौ, पणीयरसपरिहरणातिहेतुणा गुणप्पेही गुणा सीलव्वयादयो ते पीहेति स्पृहयति सो गुणप्पेही । अगुणा [कु]-25 १ तारिसे ख ४॥ २व खं २॥ ३ जेणं खं ३॥ ४२३६ सूत्रश्लोकानन्तरं सर्वासु सूत्रप्रतिषु हाटी. च एकः सूत्रलोको. ऽधिको वर्तते एवं तु अगुणप्पेही गुणाणं च विवजए । तारिसो मरणते विणाऽऽराहेइ संवरं ॥ ५पणीय वजए रसं अचू० वृद्ध० विना ॥ ६ “मेधावी दुविहो, तं०-गंथमेधावी मेरामेधावी य । तत्थ जो महंत गंधं अहिजति सो गंथमेधावी । मेरामेधावी णाम मेरा मजाया भण्णति, तीए मेराए धावति त्ति मेरामेधावी।" इति वृद्धविवरणे ॥ ७ पासह कशुपा०॥ ८पूइयं खं १-२-३ जे. शु० । पूजियं वृद्ध० । पूयणं खं ४ ॥ ९विपुलं इत्यत्र अनुस्वारोऽलाक्षणिकः, सामासिकपदत्वात् । वृद्धविवरणकृताऽपि इत्थमेव व्याख्यातमस्ति । श्रीहरिभद्रपादैस्तु भिन्नपदत्वेन व्याख्यातमस्ति ॥ १० तु स गु° हाटी० ॥ ११°णाणं च वजओखं १ । °णाणं तु विवजओ खं ३ । णाणं च विवजओ खं २-४ शु० हाटी। अगुणाऽणविवजए अचूपा. वृपा. ( दृश्यतां पत्रं १३६ टि०१)॥ Jain Education Intemational Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पंचमं पिंडेसणयज्झयणं बिइओ उद्देसो सीलादयो तेसिं विवज्जए । अधवा-अगुणा एव [अणं] रिणं तं विवजेति "अगुणाऽणविवजए"। तारिसो मरणंते वि, तारिसो पणितरसगेहीविरहितो अप्पमाती आराहेति संवरं ॥४१॥ गुराहणाहीणं च संवराराहणं, आयरियाराहणेण तमणुमीयति त्ति भण्णति२४०. आयरिए आराहेति समणे यावि तारिसो । ___ गिहत्था वि णं यति जेणं जाणंति तारिसं ॥ ४२ ॥ २४०. आयरिए आराहेति० सिलोगो । आयरियव्वा सुस्सूसणातिणेति आयरिया, ते आराहेति पसादयति । सेसे समणे यावि तारिसो। गिहत्था विणं पूति अहो ! भट्टारओ अप्पमत्तो । जेणं जाणंति तारिसं ॥ ४२ ॥ भत्त-पाण-मज-तेणदोसजातमुपदिटुं । इदं पुण ततो कट्ठतरं तेणत्तणं ति भण्णति-- २४१. तवतेणे वतितेणे सेवतेणे य जे गरे । ___ आयार-भावतेणे य कुव्वती देवकिब्बिसं ॥ ४३ ॥ __ २४१. तवतेणे वइतेणे० सिलोगो । तवोतेणे जधा-कोति सब्भावदुब्बलसरीरो 'तुम सो खमओ ?' ति पुच्छितो पूयणत्थं भणति-आमं, तुसिणीओ वा अच्छति, अणुमतिनिमित्तं वा भणति-साधवो चेव खमगा भवंति । वतितेणो तधेव-कोति कस्सति धम्मकहिकस्स वातिणो वा सरिसो पुच्छितो जघा पढमो तहेव करेति । रूवतेणो-कोति कस्सति रायपुत्तपव्वतियस्स सरिसो 'तुमं सो ?' त्ति पुच्छिओ उवेक्खति, 15 'आम' ति वा भणति, को वा पुच्छति ? त्ति । आयारतेणे जधा आवस्सए मधुराकोंटइल्लगा। भावतेणो माणावलेवेण सुत्तमत्थं वा अब्भुवगमं न पुच्छति, वक्खाणेतस्स वा ववहितो गुणेतस्स वा गेण्हति, उवाएण वा पुच्छति । सो एवं तवादितेणो इहलोए धट्ठो त्ति अजसं, परलोए य पुणो कुवति देवकिब्बिसं ॥४३॥ "देवकिब्बिस"मिति देवसद्देण कस्सति तत्थ विस्सबुद्धी भवेजा अतो किब्बिसियदेवदगुंछणत्थमिदं भण्णति-- २४२. लडूण वि देवत्तं उववण्णो देवकिब्बिसे । तत्थावि से ण जाणाति किं मे किच्चा इमं फलं ? ॥ ४४ ॥ २४२. लद्धण वि देवत्तं सिलोगो । लभ्रूण वि देवत्तं सति वि देवभावे देवकिब्बिसे उववण्णो । तत्थावि से ण जाणाति, तत्थ सो किब्बिएसु देवेसु उववण्णो 'किं मे हुयं वा जटुं वा जं देवत्तणं लद्धं ? जति वा किं मे दुक्कडं कतं जं अहं सति देवभावे अंर्तत्थो जातो ? ॥४४॥ देवभावतो परतो वि अणस्सासदोसदरिसणत्थं भण्णति२४३. तत्तो वि से चइत्ताणं लंब्भिहिति एलमयतं । णरगं तिरिक्खजोणिं वा बोधी जत्थ सुदुल्लहा ॥ ४५ ॥ २४३. तत्तो वि से० सिलोगो । ततो वि अंतत्थदेवलोगातो से इति तवोतेणाति अभिसंबज्झति, चइत्ताणं देवभावचुतो लब्भिहिति अभिलिति (१) मणुस्सेसु वि एलमूयतं एलओ विव बोब्बडभासी, तस्स "नागजणिया तु एवं पढंति-"एवं तु गुणप्पेही अगुणाऽणविवज्जए" अगुणा एव अणं अगुणाण, अणं ति वा रिणं ति वा एगट्ठा, तं च अगुणरिणं अकुधंतो।" इति वृद्धविवरणे ॥ २ पूयंति खं २-४ शु०। पूएंति खं ३ । पूइंति खं १ जे० ॥ ३ रूयतेणे जे०॥ ४ तत्थ वि खं ३ ॥ ५याणाइ खं १-२-३-४ जे० शु०॥ ६ अन्तस्थः अन्त्यजः हीनजातीयः ॥ ७ ततो अचू० विना ॥ ८चयित्ता खं ३ । चतित्ता वृद्ध०॥ ९ लम्भिही खं २ जे० शु० । लब्भही खं १ । लब्भई खं ३-४॥ १०मूयगं खं १-२-३-४ जे. शु०॥ Jain Education Interational Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 सुत्तगा० २४०-२४५] दसकालियसुत्तं । अतिमूकत्तणेण कतो बोधिलाभो ?। अहवा जत्थ अच्चतमबोहिलाभो तं लभति णरगं तिरिक्खजोणिं वा ॥४५॥ दरिसितपञ्चवातस्स दुचरितनियत्तणमुपदिस्सति त्ति भण्णति२४४. एतं च दोसं दट्ठण जातपुत्तेण भासितं । अणुमायं पि मेधावी मौतामोसं विवज्जए ॥ ४६॥ २४४. एतं च दोसं० सिलोगो । एतमिति अणंतरामिहितं पञ्चक्खमुपदंसेति, चसद्देण एवंपधाणा अण्णे । य अबोहिलाभाति, दूसयतीति दोसो,[तं] दह्ण जाणित्ता णातपुत्तेण भगवता वद्धमाणसामिणा, एयं गौरवमुप्पादणत्थं भण्णति । भगवतो वयणमिति दोसविणियत्तणं सुहं करेहिति । भासितं भणितं । अतो अणुमायं पि अणुमात्रं थोवमवि अप्पं पि मेधावी जाणतो माता सढता मोसं अलियं तं विवज्जए ॥४६॥ मायामोसपञ्चवातविवजणमुपदिट्ठ । अधुणा समत्तमज्झयणमुपसंहरतेहिं भण्णति२४५. सिक्खिऊण भिक्खेसणसोधी, संजताण बुद्धाण सगासे ।। तत्थ भिक्खू सुप्पणिहितिदिए, तिव्वलेज गुणवं विहरेज्जासि ॥४॥ त्ति बेमि ॥ ॥ पिंडेसणाए बीओ उद्देसओ समत्तो । पिंडेसणझयणं सम्मत्तं ॥५॥ २४५. सिक्खिऊण भिक्खेसण वृत्तम् । सिक्खिऊण जाणित्ता, भेक्खस्स एसणा भेक्खेसणा, भेक्खेसणाए सोधी उग्गमुप्पायणेसणादीहिं भेक्खेसणसोधी, तं सिक्खिऊण सं एकीभावेण जताण संजताण, विसेसणमेव बुद्धाण, ते य संजता बुद्धा तित्थकरा एतेसिं सगासे समीवे, तदागमादित्युक्तं भवति ।15 तत्थ भिक्खू सुप्पणिहितिदिए, तत्थेति तीए भिक्खेसणासोधीए भिक्खू भिक्खणसीलो सुप्पणिहितेंदिए भेक्खेसणासोधीए सव्वेदिएहिं उवउत्ते । अवि य उवयुजिऊण पुग्विं तल्लेसो जति करेति परिणाई । सोतेण चक्खुणा घाणतो य जीहाए फासेण ॥१॥ तिघलज्जे तिवं अत्यर्थः लज्जा संजम एव जस्स स भवति तिवलज्जा । गुणा जस्स संति सो गुणवं। विदितभेक्खेसणसोधीओ तिव्वलज्जो गुणवं एवं विहरेन्जासि पवत्तेज्जासि ॥४७॥ त्ति बेमि सद्दो य जधा पुव्वं ॥णयाणायम्मि० गाथा । सवेसि पि० गाधा ॥ पिंडेसणायणे भेक्खाणिग्गमणविधी गवेस-गह-भोयणेसणविकप्पा । पिंडेसण पिंडत्या विरती पाणातिवाते य॥१॥ ॥पिंडेसणाचुण्णी समत्ता ॥ 20 25 १ नायपु° अचू० खं ४ विना । नाइ' ख ४ ॥ २मायामोसं अचू० विना ॥ ३°सोही खं १। सोहिं अचू. ख, विना ॥ ४ मिक्खु खं १-२ जे०॥ ५ लज्जु गु खं १-२॥ ६ एतदध्ययनसमाप्त्यनन्तरं खं ३ प्रती पिण्डेषणाध्ययनद्वितीयोदेशकप्रन्थानप्रतिपादिका एका गाथा वर्तते इय एसो पिंडेसणबीओडेसो चऽणुट्ठमाणेण । अडयालीसुत्तेहिं गंथग्गेणं परिसमत्तो ॥१॥ सु०१८ Jain Education Intemational Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [छद्रं धम्मत्थकामायणं [छटुं महइआयारकहज्झयणं अवरनाम धम्मत्थकामज्झयणं] धम्मे समाधितमायारगहितमहव्वयमडमाणं मिक्खनिमित्तं सुविधियं कोति कोऊहला धम्मसद्धाओ वा 5 वदेज-को तुन्भं धम्मो ? ति । तस्स पुण साधुणो पिंडेसणायणविधियैमिदमणुसरंतस्स “कधं वा ण पबंधेज्जासि"[सुत्तं २०६]त्ति जुत्तमभिधातुं-धम्मोवदेसकुसला अम्हं गुरवो उज्जाणे समोसरिया, अण्णत्थ वा जत्थ ते तमुवदिस्संति, सव्वमेव वा तमुज्जाणं जत्थ तब्विधा महाभागा सण्णिहिता । अह ते बिउणजणियकोऊहला गुरुसमीवमागच्छंति, पुच्छंति य धम्मं राया रायमत्तादयो । मज्जाया-'सबुद्धीको य जण' इति महतिमायारकधामुपदिसंति सूरय इति । एतेणाभिसंबंधेण महतिमायारकहजझयणमागतं । तस्स चत्तारि अणिओगद्दारा जधा 10 आवस्सए । नामनिप्फण्णो महतीआयारकहा, अतो महंतं निक्खिवितव्वं, आयारो निक्खिवितव्वो, कथा निक्खिवितव्वा । एताणि तिण्णि वि महंतालावेण जधा खुडियायारए । किंच पुव्वभणितं ? जंह चेव य उहिट्ठो आयारो सो अहीणमइरित्तो। सा चेव य होइ कहा आयारकहाए महईए ॥१॥१४८॥ जैह चेव य० गाधा । जधा पुव्वं ॥१॥१४८॥ सुत्ताणुगमे सुत्तं उच्चारतव्वं अणुओगदार10 विधिणा । तं इमं २४६. नाण-दसणसंपण्णं संजमे य तवे रयं । गणिमागमसंपण्णं उज्जाणम्मि समोसढं ॥१॥ २४६. नाण-दसणसंपण्णं. सिलोगो । नाणं पंचविहं मति-सुया-ऽवधि-मणपज्जव-केवलनामधेयं । तत्य तं दोहिं वा मति-सुतेहिं, तिहिं वा मति-सुता-ऽवहीहिं अहवा मति-सुय-मणपज्जवेहि, चतुहिं वा मति30सुता-ऽवहि-मणपज्जवेहिं, एक्केण वा केवलनाणेण संपण्णं, दंसणेणं खतिएण वा ३ । संजम-तवा पुव्वभणिता, तेसु रयं एवंगुणसंपण्णं । गणो-समुदायो संघातो, सो जस्स अत्थि सो गणी, तं गणिं आगमसंपण्णं आगमो सुतमेव अतो तं चोइसपुल्विं एकारसंगसुयधरं वा । अणुण्णविओग्गहमित्थि-पसु-पंडगविवजिते उजाणम्मि समोसरियं । “नाणदंसणसंपण्णं" "गणिं आगमसंपण्ण"मिति य कहं ण पुणरुत्तं १ ति चोयणा । सूरयो भणंति-"णाणदंसणसंपण्ण"मिति एतेण आतगतं विण्णाणमाहप्पं भण्णति, "गणी आगम25 संपणं" एतेण परग्गाहणसामत्थसंपण्णं । “संपण्णं" इति सद्दपुणरतमवि ण भवति, पढमे सयं संपण्णं, बितिए परसंघातगं, एयं समरूवता ॥१॥ तमेवमुववण्णितगुणं गणि उज्जाणमुवगतं साधुसगासातो जणपरंपरेण वा सोतूण२४७. रायाणो रायमत्ता य माहणा अदुव खत्तिया । पुच्छंति णिहुयप्पाणो केधं तुम्भं आयारगोयरो ? ॥ २॥ २४७. रायाणो राय सिलोगो । रायाणो बद्धमकुटा । रायमत्ता अमञ्च सेणावतिपभितयो। माहणा बंभणा । अदुव अहवा खत्तिया राइण्णादयो । जेण रायाइणो एते तं गणिं पुच्छंति तिविहाए पजुवासणाए १महल्लियायारकहरयणं इत्यप्यस्याध्ययनस्याभिधानान्तर वर्तते ॥ २ सुविहितम् ॥ ३ विहितम् ॥ ४ मिदमुसुस्सरंतस्स मूलादर्शे ॥ ५ द्विगुणजनितकुतूहलाः ॥ ६ जो पुवि उद्दिट्टो ख० पु. वी. हाटी० ॥ ७“जधा य० गाहा कण्ठ्या" इति वृद्धविवरणे ॥ ८°मचा य अचू० विना ॥ ९कहं मे आ अचू० वृद्ध विना ।। Jain Education Interational Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० २४६-२४९ णिज्जुत्तिगा० १४८-५०] दसकालियसुत्तं । १३९ पज्जुवासमाणा णिहुयप्पाणो-धं तुम्भं आयारगोयरो?, आयारस्स आयारे वा गोयरो आयारगोयरो। गोयरो पुण विसयो ॥ २॥ एवं सविणयचोयणाणतरमेव २४८. तेसि सो णिहुतो दंतो सत्रभूतसुहावहो । सिक्खाए सुसमाउत्तो आइक्खति वियक्खणो ॥ ३ ॥ २४८. तेसिं सो निहुओ० सिलोगो । तेसिं रायादीणं सो अधिकओ गणी णिहुतो सुसमाहित- पाणि-पादो, दंतो इंदिय-नोइंदिएहिं, भूताई-जीवा, सव्वभूताण सुहमावहति सव्वभूतसुहावहो, सिक्खाए दुविहाए वि [सुसमाउत्तो] सुटु समाउत्तो आइक्खति कहयति वियक्खणो पंडितो ॥३॥ ___ अह सो भगवं जहोववण्णियगुणो गणहरो ते रायायिगे धम्मस्सवणमुवगते निहुते तम्मुहाभिमुहे समामंतेमाणो भणति-सोम्ममुहा!, २४९. हंदि ! धम्मत्थकामाणं निग्गंथाण सुणेह मे । आयारगोयरं भीमं सगलं दुट्ठियं ॥ ४ ॥ २४९. हंदि ! धम्मत्थकामाणं० सिलोगो । हंदिसदो उवप्पदरिसणे । एवं उवप्पदरिसेति-जमहमितो परं आयारगोयरमुपदिसीहामि एतदुक्तं पडिवजह हियएण कम्मुणा योववादेध । धम्मस्स अत्थं कामयंतीति धम्मत्थकामा तेसिं निग्गंथाण सुणेह, आमंतणमिदं रायादीणं, मे इति मम । आयारगोयरो भणितो तं, भीममिति भयाणगं कातराणं, सगलं अखंडं, दुरहिट्टयं दुक्खं तमभिट्टइ ति ॥ 10 ____ अक्खरत्योववण्णणाणतरं “धम्मत्थकामाणं" ति एतस्स वित्थरत्थो भण्णति-धम्मो अत्यो काम इति तिण्णि वि परूविज्जति । धम्म इति दारं-तस्स चउव्विहो निक्खेवो जहा दुमपुफियाए । इह लोउत्तरो भण्णति । सो इमो धम्मो बाविसतिविहो अगारधम्मोऽणगारधम्मो य । पढमो य बारसविहो दसहा पुण 'बितियओ होइ ॥२॥१४९॥ धम्मो बाविसतिविहो० गाहा। लोउत्तरो भावधम्मो मुहेण पाविसतिविहो । सो विमजमाणो दुविहो भवति. तं०-अगारधम्मो अणगारधम्मो य । अगारधम्मो बारसविहो, अणगारधम्मो दसविहो । एसो दुविहो वि मेलिज्जमाणो बाविसतिविहो भवति ॥ २॥१४९॥ इमो बारसविहो अगारधम्मो पंच य अणुवयाइं गुणवयाइं च होंति तिण्णेव । सिक्खावया य चउरो गिहिधम्मो बारसविहो ॥३॥१५०॥ पंच य अणुवयाई० गाहा । थूलगपाणातिवात-मुसावात-अदत्तादाणवेरमणं सदारसंतोसो इच्छापरिमाणमिति अणुव्वताणि । दिसिव्वत-उवभोगपरिमाण-अणट्ठाडंडवेरमणाणीति तिण्णि गुणव्वताणि । सामायियदेसावकासिय-पोसहोववास-अतिहिसंविभाग-अपच्छिममारणंतियसंलेहणाझूसणा इति चत्तारि सिक्खावताणि जधा पचक्खाणनिनुत्तीए [भाव० नि० हाटी० पत्र ८११ तः ३९ गयनियुक्तिः ] ॥३॥१५॥ 20 १णिग्गओ दंतो खं ३ ॥ २ आइक्खिज वि ख ४॥ ३ सो धिकओ गणिं णितो सुस मूलादशैं ॥ ४ अधिकृतः प्रस्तुतः ॥ ५हंद! अचूपा० ॥ ६ दुरहिडियं खं १ जे० शु०॥ ७ कर्मणा चोपपादयत ॥ ८बावीसविहो ख• पु. वी. सा०॥ ९ बीयओ सा०॥ १० °याई च सा.॥ १अ सा०॥ १२ अहासंविभाग मूलादर्श । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [छटुं धम्मत्थकामज्झयणं इमो दसविधो समणधम्मो__खंती १ य मदव २ लव ३ मुत्ती ४ तव ५ संजमे ६ य बोद्धव्वे । सचं ७ सोयं ८ आकिंचणं ९ च बंभं १० च जइधम्मो ॥ ४ ॥ १५१ ॥ खंती य महवऽजव० गाधा । जहा दुमपुप्फिताए [ पत्रं १२] ॥ ४ ॥ १५१ ॥ धम्मो एसुवदिवो अत्थस्स चउविहो उ णिक्खेवो। ओहेण छबिहऽत्थो चउसटिविहो विभागेणं ॥५॥१५२॥ धम्मो एसुवदिट्ठो० गाहा । अत्थो भण्णति-सो चउव्विहो । नाम-ठवणातो गतातो । दव्वत्यो हिरण्णादी । भावत्थो दुविहो-पसत्थो अप्पसत्यो य । पसत्थो नाण-दसण-चरित्ताणि । अप्पसत्यो अण्णाण-अविरतिमिच्छत्ताणि । सो दव्वत्यो संखेवण छव्विहो, वित्थरतो चउसटिविहो ॥५॥१५२॥ छव्विहो धण्णाणि १ रयण २ थावर ३ दुपय ४ चउप्पय ५ तहेव कुवियं च । ओहेण छबिहऽथो एसो धीरेहिं पण्णत्तो॥ ६ ॥ १५३ ॥ दारगाहा ॥ धण्णाणि रयण गाधा । धण्णाणि १ रयणाणि २ थावरं ३ दुपयं ४ चउप्पयं ५ कुवियं ६ एसो ओहेण छव्विहो अत्थो ॥६॥१५३ ॥ छविहातो इमो चउसट्ठिविहो णिप्फजति चउवीसं चउवीसं तिग-दुग-दसहा य होयऽणेगविहो । 15 सव्वेसिं पि इमेसिं विभागमह संपवक्खामि ॥७॥१५४॥ चउवीसं चउवीसं० गाहा । चंउव्वीसं धण्णाणि । चउव्वीसं रयणाणि वि । थावरं ३ । दुपयं २। चउप्पयं दसविधं । कुवियं अणेगविधं, तं पुण एगमेव । एते भेदा संपिंडिया चतुसट्ठी भवंति ॥ ७॥१५४ ॥ धण्णाणि चउव्वीसं इमाहिं दोहिं गाहाहिं भण्णंतिधर्षणाणि चउव्वीसं जव १ गोधुम २ सालि ३ वीहि ४ सट्ठीया ५। कोदव ६ अणुया ७ कंगू ८रालग ९तिल १० मुग्ग ११ मासा य १२॥८॥१५५॥ अतसि १३ 'हिरिमिथ १४ तिउडग १५ निफार्वं १६ ऽलिसिंद १७ रायमासा य १८ । इक्खू १९ आसुरि २० सुवरी २१ कुलत्थ २२ तह धनग २३ कलाया २४ ॥९॥१५६॥ दारं। धण्णाणि चउब्बीसं० गाधा । अतसि हिरिमिंथ० गाधा । जवगोधूम-साली-विधी प्पसिद्धा । सट्टिका सालिभेदो। कोदव-अणुका पसिद्धा । कंगुंगहणेणं उड्कंगूए गहणं । जे पुण अवसेसा 25 कंगुमेदा सो रालओ। तिल-मुग्ग-मास-अयसीओ विदियाओ । हिरिमिंथा कालचणगा । तिपुडा चणगजाती । णिप्फावा वल्ला । अलिसिंदा चवलगा । रायमासा ते चेव बा(?पा)रसकुलादिसु । [इक्खू पसिद्धा । ] आसुरी रायिया । तूयरी आढती । कुलत्था पसिद्धा । धण्णातो कोथुभरीओ। कलाया वट्टचणगा । एताणि चउव्वीसं धण्णाणि ॥८॥९॥१५५ ॥१५६ ॥ 15 १धण्णाई पु० वी०॥ २चउवीसा चउवीसा वी. सा. ॥ ३ हा अणेगविह एव वी. सा.॥ ४ गमिह वी० ॥ ५ पच्छई धण्णाणि मूलार्दो॥ ६धण्णाई खं० पु. वी. सा० ॥ ७ हिलिमिथ खं० । हिरिमंथ पु० वी । हरिमंथ सा०॥ व १६ सिलिंदबं. पु. वी. सा. हाटी.॥९क्खू १९ मसूर २० ख० पु. वी. सा. हाटी• वृद्ध०॥ १० “काः उदकः" इति हारिमाची॥ ११ “तिपुडया लंगचनया। णिप्फावा वल्ला । मसूरा मालवविसयादिसु । चवलगा रायमासा । इक्सतुंडगादिसासियो राहयातो (!)। तुवरी आढगी।" इति वृद्धविवरणे ॥ १२ “शिलिन्दा मकुष्टाः । राजमाषाः चवलकाः।" हारि०वृत्ती॥ Jain Education Intemational Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्तिगा० १५१-१६३ ] दसकालियसुत्तं । १४१ रयणाई चउव्वीसं सुवण्ण १ तउ २ तंब ३ रयय ४ लोहाइं ५। सीसग ६ हिरण्ण ७ पासाण ८ वर ९ मणि १० मोत्तिय ११ पवालं १२ ॥१०॥१५७ ॥ संखो १३ तिणिसो १४ अर्गरु १५ चंदणाणि १६ वत्था १७ ऽऽमिलाणि १८ कहाणि १९ । तह चम्म २० दंत २१ वाला २२ गंधा २३ दवोसहाई च २४॥११॥१५८॥ दारं॥ रयणाई चउव्वीसं० गाधा । संखो तिणिसो अगलु० गाधा । सुवण्ण-तउय-तंवगा पसिद्धा । । तं रुप्पं । लोह-सीसगाणि सिद्धाणि । हिरणं रयतं चेव घडियरुवं । पासाणा माणिक्कविजाती। वैरं वज्रं । मणिणो जातिसुद्धा । मोत्तिय-पवाल-संखा सिद्धा । तिणिसो दारुरयणं । अगरु-चंदणा दारुते गंधरयणं । वत्थं सोत्तियादि । आमिलं सव्वरोमजाती । कटं सागाति । चम्मं माहिसादि । दंता हत्थीणं । वाला चमरादीणं । गंधा जुत्तिविसेसा । दयोसहियो मरियमादि । एते चतुव्वीसं रयणा ॥१०॥ ११ ॥१५७ ॥१५८ ॥ थावरं भूमी घरं तरुगणा तिविहं पुण थावरं मुणेयव्वं । दारं ।। चक्कारबद्ध माणुस दुविहं पुण होइ दुपयं तु ॥ १२ ॥ १५९ ॥ दारं । भूमी घरं० अद्धगाधा । तं थावरं तिविधं-भूमी घरं तरुगणा इति । भूमी खेत्तादि । घरं तिविहंखातं ऊसियं खातूसियं । खातं-भूमिघरादि, असियं-पासादादि, खातूसियं-भूमिघरोवरि पासातो। तरुगणा णालिकेरादि । थावरं गतं । दुपयं-चक्कारषद्ध माणुस० गाधापच्छद्धं । दुपयं दुविहं-चक्कारबद्धं 15 माणुसं च । चकारषद्धं सगडादि । माणुसं दास-भयगादि ॥१२॥ १५९ ॥ चतुप्पयं दसविधं गावी १ महिसी २ उट्टी ३ अय ४ एलग ५ आस ६ आसतरगा ७ य । घोडग ८ गद्दह ९ हत्थी १० चउप्पयं होति दसहा उ ॥ १३ ॥ १६० ॥ दारं । गावी महिसी उद्दी० गाधा । गावी-महिसी उद्दी-अय-एलियाओ सिद्धाओ। आसा पक्खलाति जच्चा । अस्सतरा वेसरा । अजचा घोडगा । तं एतं चउप्पदं ॥ १३ ॥१६० ॥ कुवियं- 20 णाणाविहोवकरणं णेगविहं कुप्पलक्खणं होइ। एसो अत्यो भणिओ छबिह-चउसट्ठिभेओ उ॥ १४ ॥ १६१॥ णाणाविहोवकरणं० गाहा । गिहोवक्खरो कुवियं । एसो अत्यो छविह-चउसद्विविहो समत्तो ॥१४ ॥१६१ ॥ कामे इमा सुत्तफासियनिजुत्ती । तत्थ कामो चडेविसतिविहो संपत्तो खलु तहा असंपत्तो।। संपत्तो चोद्दसहा दसहा पुण होअसंपत्तो ॥ १५॥१६२॥ कामो चउविसतिविहो० गाधा । सो चतुव्वीसतिविहो वि दुविहो भवति-संपत्तो असंपत्तो य। संपत्तो चोइसविधो असंपत्तो दसविधो, एते मेलिया चतुवीसतिविहो भवति ॥१५॥१६२॥ असंपत्तो थोवतरो इति पढम भण्णति इमाए दिवङगाहाए तत्थ असंपत्तोऽत्थी १ चिंता २ तह सद्ध ३ संभरणमेव ४। विकवय ५ लज्जनासो ६ पमाय ७ उम्माय ८ मरणं ९ च ॥ १६॥ १६३ ॥ १संखा १३ तिणिसा १४ पु०॥ २°गलु १५ वी०॥ ३ घरा तरुगणा खं० पु० वी० । 'घरा य तरुगण सा०॥ ४ य ख० बी०॥ ५चउवीसविहो खं० पु. वी. सा०॥ ६°ऽत्थो १ वी. सा. हाटी• ॥ ७य ८ तब्भावो ९॥ मरणं १०च होहदसमो खे० पु. वी. सा. हाटी०॥ 25 Jain Education Intemational Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [छटुं धम्मत्थकामायणं तब्भावणा य १० दसमो, संपत्तं पि य समासओ वोच्छं। तत्थ असंपत्तोऽत्थी चिंता० गाधा । तब्भावणा य दसमो० अद्धगाधा । असंपत्तो एवं दसविहो, तं०-अत्थी १ चिंता २ सद्धा ३ संभरणं ४ विक्कवता ५ लजणासो ६ पमादो ७ तुम्मातो ८ मरणं ९ तब्भावणा १० । अत्थी हियए गोरवनिवेसो, जहा कस्सइ इत्थिरूवं सोऊण वि अत्थो समुप्पजति १ । चिंता तत्थेव । अभिणिवेसो 'अहो ! गुणाः' इति २। सद्धा तेहिं रूवातीहिं अक्खित्तो तमेव कंखति ३ । संभरणं भुज्जो विप्पयोए अणुसरतो अच्छति ४ । विक्कवता जीसे य विप्पयोए भत्ताइ णाऽभिलसति विक्कवीभूतो ५ । लजाणासो जीय गुरूण वि पुरतो ससिंगारं णामग्गहणं करेमाणो ण लज्जति ६ । पमादो सव्वारंभपरिच्चायो सहातिसु य तविरहिएसु अपरितोसो ७ । उम्मातो कजा-ऽकज्ज-बच्चा-ऽवच्चअपरिण्णाणं ८ । उम्मातेण पाणपरिचातो मरणं ९॥१६॥१६३॥ तम्भावणा तामिति मण्णमाणो थंभाति उवगृहति आगासाति वा 10१० । एस असंपत्तो ॥ संपत्तो इमेण गाहापच्छद्धेण गाहाए य भण्णति दिट्ठीए संपातो १ दिट्ठीसेवा य२ संभासो ३ ॥१७॥ १६४॥ हसित ४ ललितो ५ ऽवगृहित ६ दंत ७ नहनिवाय८ चुंबणं होइ९। आलिंगण १० मायाणं ११ कर १२ ऽणंग १३ अणंगकिडा य १४ ॥१८॥१६५ ॥ दिट्ठीए संपातो. अद्धगाहा । हसित ललिताऽवगृहित. गाहा । चोदसविहो संपत्तो, तं०16 दिहिसंपातो १ दिह्रिसेवणा २ संभासो ३ हसितं ४ ललितं ५ परिस्संगो ६ दसणपातो ७ कररुहाणं वा ८ वयण जोगो ९ आलिंगणं १० आयाणं ११ करणं १२ अणंगो १३ अणंगकिड्डा १४ । इत्थीए सरीरे दिढि दातूण पडिसाहरति दिट्ठिसंपातो १। दिट्ठीए दिद्विणिवेसणं [ दिडिसेवणा] २। दिट्ठीयातीएहिं साणुरागं णातूण सविकारमालवणं संभासो ३ ॥ १७॥ १६४ ॥ ... कोव-पणय-पसातेसु हासो हसितं ४ । गीय-गंधव्व-पट्टाति ललितं ५ । अवगृहणं परिस्संगो ६ । 20 दसण-वसणातिसमालुंपणं दसणसण्णिवातो ७ । कररुहेहिं विक्खणणं कररुहाणं ८ वदणसमागमो वयणसंजोगो ९ । ईसिफरिसणमालिंगणं १० । हत्थातिगहणमाताणं ११ । तहावत्थाणं सिचयावहरणं वा करणं १२ । अणंगो पडिसेवणं १३ । उवत्थातीसु अणंगकीडा १४ । एस संपत्तो ॥१८॥ १६५॥ समत्तो य ततियो । एतेसिं सवत्तया असवत्तया य भण्णति, तं जहा धम्मो अत्थो कामो तिण्णेते पिंडिता पडिसवत्ता। जिणवयणं ओतिण्णा असवत्ता होंति णातव्वा ॥ १९॥१६॥ धम्मो अत्थो कामो० गाहा । धम्म-ऽत्थ-कामा एकतोऽवरुज्झमाणा विरुझंति । कथं - अत्थस्स मूलं णियडी खमा य, धम्मस्स दाणं च दमो दया य । कामस्स वित्तं च वपू वतो य, मोक्खस्स सव्वोवरमो क्रियासु ॥१॥ णियडी धम्मेण विरुज्झति, दमो कामेण, एवं वित्थरतो भाणितव्वं । एवं गिहत्थ-कुतित्थेसु विरुद्धा 30 धम्म-ऽत्थ-कामा जिणवयणं ओतिण्णा असवत्ता होंति णातवा ॥ १९ ॥ १६६ ॥ कधं पुण? धम्मस्स फलं मोक्खो सासयमउलं सिवं अणावाहं । तमभिप्पाया साहू तम्हा धम्मत्थकाम त्ति ॥ २०॥ १६७ ॥ १कर १२ सेवण १३ ऽणंग खं० पु. वी. हाटी• वृद्ध०॥ २ उत्तिण्णा वी० सा० । ओयत्ता (?मा) वृद्ध०॥ ३ हाटी वृद्धविवरणे चेदं वृत्तमित्थं वर्तते - "अर्थस्य मूलं निकृतिः क्षमा च, कामस्य वित्तं च वपुर्षयश्च । धर्मस्य दानं च दया दमच, मोक्षस्य सर्वोपरमः क्रियासु॥” इति ॥ ४'भिप्पेया खं० पु. सा. हाटी० ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० २५०-५१ णिज्जुत्तिगा० १६४-६८ ] दसकालियसुत्तं । धम्मस्स फलं मोक्खो० गाहा । [सो य सासतो अतुलो सिवो अणाबाधो, ] सो चेव अत्थो । तं अत्थं अभिप्पायेंति अभिलसंति कामेन्ति धम्मत्थकामा ॥२०॥१६७॥ लोकायतिकादिवयण परलोग मुत्तिमन्तो नत्थि हु मोक्खो त्ति बैंति अविहन्नू । ते अस्थि अवितहा जिणमयम्मि पवरा ण अण्णत्थ ॥ २१ ॥ १६८॥ परलोग मुत्तिमन्तो. गाधा । जं ते लोकायतिकातिणो भणंति-परलोग मोत्ति० परलोग मोक्खा पसिद्धा, मोत्तिमन्तो नाण-दसण-चरित्ताणि । ते अवितहा पवरा इहेव जिणप्पवयणे, णो कुप्पवयणेसु ॥ २१ ॥१६८॥ धम्म-ऽत्थ-कामगहणेण य जीवस्स अस्थित्तं साहिज्जति, जो धम्म-ऽत्थ-कामेहिं सूयिजति सो जीवो । अहवा पढमपदोववण्णितो भावधम्मो, अत्थो य से नेव्वाणपज्जवसाणं फलं, तग्गयपसत्थिच्छा कामो य, एते धम्मत्थकामा 10 आणेति-वसीकरेति । को पुण सो ? व्यवहितोऽभिसंबज्झति-आयारगोयरो । अधवा धम्मत्थकामा आणा जस्स, एवं आणाए धम्मत्थकामा जस्स आयारगोयरस्स सो धम्मत्थकामाणो आयारगोयरो, सो वा तेसिं आणाए वदृति अतो तं । हंद ! सोम्म ! णिग्गंथाण आयारगोयरं सुणेह । हंदि ! धम्मत्थकामाणं ति एतं गतं । णिग्गंथाणं अभिंतर-बाहिरगंयनिग्गयाणं सुणेह इति आमंतणं । आयारगोयरं आयारविसयं । दुक्करतणेण भयाणक इति भीमो तं सकलं संपुण्णं । दुक्खं तं अहिडेतीति दुरहिटओ तं दुरहिवयं ॥४॥ 15 जति पुण कोति भणेज-अण्णत्थ वि आयारगोयरोवतेसो विजति तं पति णिराकरणथमिह य अहिंसातिसकलविसेसोवदरिसणत्थं भण्णति २५०. णऽणत्थेरिसं वुत्तं जं लोए परमदुच्चरं । विउलट्ठाणभाविस्स ण भूतं ण भविस्सति ॥ ५॥ ___ २५०. णण्णत्थेरिसं वुत्तं० सिलोगो । ण इति पडिसेहे, अण्णत्थेति अण्णम्मि सासणे एरिसस्स 20 आयारोवदेसस्स पडिसेहे णकारो वदृति, एरिसं इमेण सरिसं वुत्तं उपदिलु सव्वकुतित्थियमतावकरिसणं । परमं प्रधानं दुच्चरत्तणेण । विउलं विसालं [ ठाणं] विउलट्ठाणं अणाबाधं, तं भावमाणस्स विउलट्ठाणभाविस्स। तमण्णत्थ एरिसं ण संभूतं अतीते काले, आगामिके वि ण भविस्सति, वट्टमाणे पुण काले णेव अस्थि जं अण्णत्थेरिसमिति ॥ ५॥ तं करेंतं चाविसेसं प्रति (१) सुगतिगमणाभिलासीहिं सव्वावत्थगतेहिं करणीयमिति तं भण्णति- 25 २५१. सखुडग-वियत्ताणं वाहियाणं च जे गुणा।। अखंड-फुल्ला कातव्वा तं सुणेह जहा तहा ॥ ६ ॥ २५१. सखुड़ग-वियत्ताणं० सिलोगो । खुडुगो बालो, वियत्तो व्यक्त इति, सखुड्डएहिं वियत्ता सखुड्ग-वियत्ता तेसिं । वाही जेसिं संजाता ते वाहिया तेसिं। सखुडग-वियत्त-वाधियाण साधूण जे गुणा भणीहामि ते अखंड-फुल्ला कातव्वा खंडा विकला, फुल्ला गट्ठा, अकारेण पडिसेहो उभयमणुसरति, 30 १मुत्तिमग्गो नत्थि खं० पु. सा. हाटी० वृद्ध० ॥ २ अविहिण्णू सा० हाटी० ॥ ३ आचारगोचरोपदेशो विद्यते ॥ ४°ण्णत्थ एरि अचू० विना ॥ ५° उलं ठाण खं ३-४ जे०॥ ६°भाइस्स अचू० वृद्ध• विना । “विपुलस्थानभाजिनः" इति हारि० वृत्तौ ॥ ७ फुडिया का खं १-४ शु० हाटी० ॥ Jain Education Intemational Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 १४४ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [छ{ धम्मत्थकामायणं अखंडफुल्ला कातवा । अहवाऽविकलमेव खंडफुलं, जहा इट्टगाति खंडफुल्लवितमितं एवं करणीया । तमिति एतं वत्थु सुणेह ति सिस्सामंतणं । जहा तहेति जहा ते अवत्थिता तेण प्रकारेण सुणेह ॥ ६॥ पावणियत्तिलक्खणा गुणा इति जतो णियत्तियव्वं तदुद्देसत्थमिदं भण्णति२५२. दस अट्ठ य ठाणाई जाइं बालोऽवरज्झति । तत्थ अण्णयरे ठाणे निग्गंथत्ताओ भस्सति ॥ ७ ॥ २५२. दस अट्ठ य ठाणाई० सिलोगो । दस अट्ठ य अट्ठारस, ठाणाणीति अवराधपदाणि अवराधकारणाणि, जाई ति उद्देसवयणं, पालो अपंडितो अवरज्झति अतिचरति । तत्थेति तेसु अट्ठारससु अण्णतरे [ठाणे] इति एगम्मि वि ण समुतिएसु ठाणेसु, वट्टमाण इति वयणसेसो, [निग्गंथत्ताओ] निग्गंथभावातो भस्सति ॥७॥ एतस्स चेव अत्थस्स वित्थारणे इमा निबत्ती अट्ठारस ठाणाई आयारकहाए जाई भणियाई।। तेसिं अण्णतरागं सेवंतो ण होइ सो समणो ॥२२॥१६९॥ अट्ठारस ठाणाइं० गाहा । कंठा ॥ २२ ॥ १६९ ॥ तेसिं विवरणत्थमिमा निजुत्ती वयछक्क ६ कायछक्कं ६ अकप्पो १ गिहिभायणं २। पलियं'को ३ गिहिणिसेज्जा य ४ सिणाणं ५ सोहवर्जणं ६ ॥२३॥१७० ॥ ॥ महल्लियायारकहज्झयणणिज्जुत्ती सम्मत्ता॥ वयछक्क कायछकं० गाहा । वयछकं रातीभोयणवेरमणछट्ठाइं पंच महव्वताणि । काया पुढविमाति छ । अकप्पो १ गिहिभायणं २ पलियंको ३ गिहिणिसेज्जा ४ सिणाणं ५ सोभवज्जणं ६। वजणसद्दो अकप्पादोहिं पत्तेयमभिसंबज्झति-अकप्पवजणं, एवं सव्वत्थ ॥ २३ ॥ १७ ॥ अट्ठारसट्ठाणुद्देसो कतो । एतेसिं विवजणेण जहा अखंडफुल्ला गुणा भवंति तव्विसेसणत्थमिदं भण्णति20 २५३. तत्थिमं पढमं ठाणं महावीरेण देसियं । अहिंसा निपुणा दिट्ठा सव्वजीवेसु संजमो ॥८॥ २५३. तत्थिमं पढ़मं ठाणं० सिलोगो । तत्थेति तम्मि अट्ठारसगे वतछक्क-कायादौ जं अणंतरं भणीहामि पढमं आधं तिष्ठति तम्मीति ठाणं महता वीरेण महावीरेण देसियं साधितं । अहिंसा अमारणं निपुणा सव्वप्पकारं सव्वसत्तगता इति सव्वजीवेसु संजमो हिंसोवरतिरेव ॥८॥ 25 कहमहिंसा णिउणा दिट्ठा १ भण्णति २५४. जावंति लोए पाणा तसा अदुवै थावरा । ते जाणमजाणं वा ण हणे णो वि घातए ॥ ९ ॥ २५४. जावंति लोए पाणा० सिलोगो । 'जावंति' जेत्तिया लोक एव सव्वपाणा प्राणिणो । तन्भेदो १ तत्थऽनय खं १-३॥ २ इयं नियुक्तिगाथा सर्वास्वपि सूत्रप्रतिषु सूत्रत्वेन दृश्यते । किञ्च श्रीअगस्त्यपाद-वृद्धविवरणकार-हरिभद्रपादैः नियुक्तिगाथात्वेनैवेयं गाथा निर्दिष्टा व्याख्याता च वर्तते इति ॥ ३ पलियंकणि खं० पु. वी. सा. हाटी० ॥ ४ जणा खं ॥ ५ धम्मत्थकामयणिज्जुत्ती समत्ता खं० । अत्थकामणिजुत्ती सम्मत्ता वी०॥ ६ सव्वभूएसु खं १-२ जे० शु० हाटी० । सव्वभूएहिं खं ३-४ ॥ ७ अदुय जे०॥ ८ णो व घायए ख १-२-३-४ शु०॥ Jain Education Intemational Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० २५२-५७ ] दसकालियसुत्तं । १४५ भण्णति-तसा अदुव थावरा । ते जाणमजाणं वा, जाणं संचिंतिऊण, अजाणं पमाएण, ण हणे सयं, णो वि घातए य परेण, अणुमोयणमिति मणसा परेण घातणमेव तभवि संबज्झति ॥ ९॥ किं पुण कारणं सव्वेसिं गुणाणं आदावहिंसा ? जम्हा२५५. सव्वजीवा वि इच्छंति जीवितुं ण मरिजितुं । तम्हा पाणवहं घोरं निग्गंथा वजयंति णं ॥ १० ॥ २५५. सधजीवा वि इच्छंति सिलोगो। सव्वजीवा अपरिसेसा, अपिसदो कार्यविसेसेणं अवधारणे वि दिट्ठत्थो, जधा एतदप्यस्य कार्य यदर्थमुपतिष्ठति, तेणेह अवधारणे । इच्छंति अभिलसंति जीवितुंण मरिजितुं । 'जीविउं ण मरिजिउं' ति कह ण पुणरुतं ? एत्थ "दुब्बद्धं सुबद्ध"मिति ण दोसो । भणियं च-"क्रिया हि द्रव्यं विनयति, नाद्रव्यम्" [ ]। ण केवलं मरणमेव ण इच्छंति, किंतु सारीरमाणसमप्पमवि उवप्पीडणं जाव लोमुक्खणणमात्रमवि । पुव्वद्धं हेतुभावमुवणेउं मण्णति-तम्हा पाणवहो 10 मारणं, घोरं भयाणगं तं निग्गंथा वजयंति णं १॥१०॥ एवमेया(१यम)विकप्पं पढमं ठाणं पाणातिवातविरती भणितं १ । बितियट्ठाणविकप्पणत्थं भण्णति२५६. अप्पणट्ठा परट्ठा वा कोधा वा जइ वा भया । हिंसगं ण मुसं बूता णो वि अण्णं वयावए ॥ ११ ॥ २५६. अप्पणट्ठा परहा वा० सिलोगो । अप्पणट्ठा जहा कोति 'गिलाणो अहमिति लजेति 15 'अगिलाणो' भासति । परट्ठा परं णिभं णातूण 'एस गिलाणो' अगिलाणस्स मग्गति किंचि । कोघेण अदासं 'दास'मिति भणति । वासद्दो विकप्पवयणे इति । माणेण असम्भूतमदट्ठाणपगासणं करेति, माताए मेक्खालसियो भणति-पादो मे दुक्खति, असन्भूयमेव । लोभेण अमुसितो 'मुसितो हामिति लढ़ेतो मग्गति । भयेण अदिट्ठमवि 'दिटुं मए पेतरूवं' ति भणति । जति वेति विकप्पेण कलहादि भणितमेव । हिंसगं ण मुसं बूता, हिंसगं जं सच्चमवि पीडाकारिं, मुसा वितहं, तमुभयं ण बूया ण वयेज्ज, अणाउत्तो वा सहसा, अयाणओ वा 20 अणाभोगेण ॥ ११ ॥ मुसावाद एव दोसकधणमुण्णीयते२५७. मुसावादो ये लोगम्मि सबसाधूहिं गरहितो । अविस्सासो य भूताणं तम्हा मोसं विवजए ॥ १२ ॥ २५७. मुसावादो य लोगम्मि० सिलोगो । मुसावादो य लोगम्मि लोगे वि गरहितो, तित्यंतरिएहि वि लोगे लत्तपडो गैरधितो, कूडसक्खेजातिसु डंडेजति वि, भिक्खुणो वि मुसावातमेवं विसेसेण 25 गरहितं ति । उदाहरणं __ केणति उवासगेण मुसावातवजाणि सिक्खावयाणि गहिताणि । ताणि विराहेंतो पुच्छितो भणति-सव्वाणि एताणि मुसावादरहिताणि ॥ संव्वसाधूहिं गणधरातीहिं वा गरहितो। अविस्सासो य भूताणं अविस्संभणीतो सव्वसत्ताणं भवति, संमएण वि ण पत्तियावेति । एताणि लोग-साहुगरहियत्तण-अविस्सासातीणि कारणाणीति तम्हा मोसं 30 विवजए २॥१२॥ मुसावायाणंतरमुवदिळं महव्वउद्देसे अदत्तादाणं, तदिह तदणंतरमेवंगुणमिति नियमिजति पाणिवह ख ३॥ २ काउविसेसेणं अविचारणे मूलादर्शे ॥ ३ द्विर्बद्धं सुबद्धम् ॥ ४हि हाटी.॥ ५ अवीसासो खं ३॥ ६ रक्तपटो गर्हितः ॥ ७ गडवितो मूलादर्शे ॥ ८दगहि मूलादर्शे ॥ ९ समव्वसासाधूहि मूलाद” ॥ १० खमतेन ॥ दस सु०१७ Jain Education Intemational Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [छटुं धम्मत्थकामज्झयणं २५८. चित्तमंतमचित्तं वा अप्पं वा जदि वा बहुं । दंतसोहणमत्तं पि ओग्गहं सि अजाइया ॥ १३ ॥ २५८. चित्तमंतमचित्तं वा० सिलोगो । चित्तं जस्स अत्थि तं चित्तमंतं, तव्विवरीयम[ चित्तं] । चित्तमंत दुपद-चतुप्पदा-ऽपदं, अचित्तं हिरण्णादि । तमवि अप्पं वा जदि वा बहुं, अप्पं थोवं, बहुं पभूतं । 5 निरुद्धमुपदिस्सति-दंतसोहणमेत्तं पितणसिलिगाति । ओग्गहंसि अजातिया ओग्गहमणणुण्णवेऊणं ॥१३॥ जं चित्तमन्तादिपकारं२५९. ते अप्पणा ण गेहंति णो विगेण्हावए परं । _ अण्णं वा गेण्हमाणं पि नाणुजाणेज संजते ॥ १४ ॥ २५९.२ अप्पणा न गेण्हंति सिलोगो । तमिति पुव्वसिलोगनिद्दिढे अप्पणा सयं ण गेण्हेज्जा, 10 णो वि गेण्हावए परं, अण्णं वा गेण्हमाणं पि नाणुजाणेज संजते ३ ॥ १४ ॥ अदत्तादाणाणंतरमबंभवेरमणगुणनियमणत्थं भण्णति२६०. अबंभचरियं घोरं पमातं दुरहिट्ठियं । णाऽऽयरंती मुणी लोगे भेदायतणवजिणो ॥ १५ ॥ २६०. अबंभचरियं घोरं० सिलोगो । अयंभं असील मेहुणं, एतदेव चरियं अबभचरियं, एतदेव 16घोरं भयाणगं, स एव [पमातो] इंदियप्पमातो, दुरहिटियं दुगुंछियाधिट्टितं दुक्खं वा पव्वजाधिट्टितेण अधिहिजति । एयं णाऽऽयरंति मुणी, जं मुणी णाऽऽयरंति तं णाऽऽयरणीयमिति लोगे इति सव्वसाधुचरियमिदं । भेदो विणासो, आययणं मूलं आश्रयोत्थाणं, चरित्तभेदस्स एतं थाणं, तं वजेतुं सीलं जेसिं ते भेदायतणवजिणो ॥ १५ ॥ किं पुण कारणं अबभभेदायतणवजिणो णाऽऽयरंति कतो २६१ मूलमेतमहम्मस्स महादोससमुस्सयं । ___ तम्हा मेहुणसंसैन्गि निग्गंथा वजयंति णं ॥ १६ ॥ २६१. मूलमेतमहम्मस्स० सिलोगो । मूलं पतिद्वा एतमिति अणंतरपत्थुतमब्बंभमभिसंबज्झति । महादोस इति महंता दोसा कलह-वेरादयो, समुस्सयो रासी समुदायो, तदेयं महादोससमुस्सयं । जतो ते अधम्ममूलदोसपरिहारिणो तम्हा मेहुणसंसग्गि तम्हादिति पढमभणितदोसगणकारणतो मेहुणसंसग्गी संपर्कः तेण ते भगवंतो णिग्गंथा बजेति ४ ॥ १६ ॥ तेहिं वजितं तं पयत्ततो वजणीयं' [ति वयणुहेसाणु25 पुव्विणियमितो मेहुणाणतरं परिग्गहो । सो य सुहुमाण वि वत्थूण ण वदृति, किमुत हिरण्णातीणं १ इति भण्णति २६२. विडमुम्भेइमं लोणं तेल्लं सप्पिं च फाणियं । ण ते सन्निहिमिच्छंति णायपुत्तवयोरया ॥ १७ ॥ २६२. विडमुन्भेइमं लोणं० सिलोगो । विडं जं पागजातं तं फासुगं उन्भेइमं सामुदाति । [लोणं] लवणागरेसु समुप्पजति तं अफासुगं, तदुभयमवि फासुगमफासुगं वा, प्रकारकहणमेतं । तेल्लं तिला30 तिविकारो । सप्पिं घतं । फाणितं उच्छविकारो, समाणजातीओवसंग्रहेण सव्वुच्छविकारो, मधुकाती ण य घेप्पंति, १ उग्गहं से अ जे० वृद्ध० ॥ २ व वृद्ध० ॥ ३ जाणंति संजया अचू० विना ॥ ४ दुरहिट्टयं खं ३-४ ॥ ५°समूसयं खं ४ ॥६°संसग्गं खं १-२ शु० हाटी० ॥ ७ सन्निहि कुवंति खं १-४ हाटी ॥ ८ णाइपुत्तवहरया जे०॥ 20 Jain Education Intemational Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० २५८-६६] दसकालियसुत्तं । १४७ एतदपि अविणासि ओसहदव्वं च, किं पुण भत्तादि । ण ते सण्णिहिमिच्छति, ण इति पडिसेहे, ते इति जे अणंतरे भणीहामि, सण्णिहाणं सपिणही पकरन्ति परिवसणमवि । कतरे ? भगवतो णायपुत्तस्स वयोरया साधवः ॥ १७॥ सण्णिधिकरणं पुण किं विरुद्धं १ भण्णति२६३. लोभस्सेसो अणुफासो मण्णे अन्नतरामवि । जो सिया सन्निधीकामो गिही पवइए ण से ॥ १८ ॥ २६३. लोभस्सेसो अणुफासो० सिलोगो । लोभो तण्डा, तस्स [एसो] इति जं सण्णिधिकरणं अणुसरणमणुगमो अणुफासो । मणगपिता गणहरो सयं चाअत्था अप्पणो अभिप्पायमाह-मण्णे एवं जाणामि अण्णतरामिति विडातीणं किंचि जहा अण्णं निहिजति । अविसद्दो थोवमवि घेरत्थतादोसे संभावेति । ॥ इति अविसेसिउद्देसवयणं, सियादिति भंवेज । मणिधी भणितो. तं कामयतीति सणिधीकामो। लोभाणुफासकरणफलं इमं-गिही पवइते ण से पव्वतियगरूवी वि न सो पव्वतियो भवति, अप्पे वि परिग्गहे 10 घरत्थतुलय ति महादोसोपपातणं ॥१८॥ कहं पुण वत्थातिपरिग्गह? इति, धम्मसाहणपरिग्गह इति धम्मसाहणपरिग्गहदोसपरिहरणत्यमिदं भण्णति २६४. जं पि वत्थं व पातं वा कंबलं पायपुंछणं ।। तं पि संजम-लज्जट्ठा धारेंति परिहरेंति य ॥ १९॥ २६४. जं पि वत्थं व पातं वा० सिलोगो । जं इति उद्देसवयणं । अविसदो वैक्खमाणकारणसमुक्क-15 रिसणे । वत्थं वा वत्थं खोमिकादि । पातं अलाबुकादि । कंबलं ओण्णियं रयतरण-कप्पाति । पायपुंछणं रयोहरणं। वासद्दा समाणजातीविकप्पगा। तमिति जस्सद्देण उद्दिद्वस्स पडिणिदेसो । अपिसद्दो कारणपडिसंहरणे । संजम-लजट्ठा तन्निमित्तं । वत्थे अपेप्पमाणे अग्गि-पलालसेवाति [अ]संजमो मे होहिति त्ति, पाते संसत्तपरिसाडाति, लज्जट्ठा चोलपट्टगाति समणा धारेंति । उत्तरकालं पयोयणत्थं परिहरेंति अणुरूवपरिभोगेण परिभुजंति ॥ १९॥ सो य पुण परिग्गहाभासो वि असारमुल्ला-ऽविभूसाति-विराहणपरिहरणोवायतो २६५. ण सो परिग्गहो वुत्तो णायपुत्तेण ताइणा । मुच्छा परिग्गहो वुत्तो ईइ वुत्तं महेसिणा ॥ २०॥ __२६५. ण सो परिग्गहो वुत्तो० सिलोगो। ण इति पडिसेहे, सो इति अणंतराभिहितं वत्थाति संबज्झति, घेप्पमाणमवि ण सो परिग्गहो वुत्तो भणितो [णायपुत्तेण] णायकुलप्पसूयसिद्धत्थखत्तियसुतेण अप्प-परत्राइणा । संपत्ति-असंपत्तीए वा परिग्गहस्स भावदोसपधाणीकरणत्थं भण्णति-मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, 25 मुच्छा गेही एस परिग्गहो वुत्तो। इति वुत्तं महेसिणा, इति उवप्पदरिसणे, एतं भणितं सेजंभववयणं । महेसिणा इति महता रिसिणा भगवता, ण केवलं संघयणहीणाणं, जिणकप्पियाण वि भगवतैवोपदिडं ॥ २०॥ २६६. सबत्थुवहिणा बुद्धा सौरक्षणपरिग्गहे। अवि अप्पणो वि देहम्मि नाऽऽयरंति ममाईयें ॥ २१ ॥ १°स्सेसऽणुप्फासो ख १-२-३ । °स्सेसऽणुफासे खं० ४ शु० । स्सेसऽणुफासो जे० वृद्ध०॥ २ जे सिया सन्निहीकामी खं १-३ जे. वृद्धः । जे सिया सन्निहिं कामे खं २-४ हाटी० ॥ ३ त्यागार्थ सनिधित्यागार्थमित्यर्थः ॥ ४ गृहस्थतादोषान् ॥ ५भवेत् भवेज मूलादर्शे ॥ ६ धारिति खं २ । धारंति खं १ । धारयति खं ४ ॥ ७ हरंति खं १-२-४ ॥ ८ वक्ष्यमाणकारणसमुत्कर्षणे ॥ ९जस्ससद्देण मूलादर्शे ॥ १०इई जे०॥ ११ सारक्खण परिग्गहे वृद्ध । “सारक्षण परिग्गहे नाम संजमरक्खणणिमित्तं परिगिण्हंति, ण दप्पविभूसणादिणिमित्तं ।" इति वृद्धविवरणे। संरक्षणपरिग्गहे खं १-२-३-४ जे. शु. हाटी.॥ १२इ खं १-३ जे.॥ 20 Jain Education Intemational Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति - चुण्णिसंजयं [ छडं धम्मत्थकामज्झयणं २६६. सम्वन्धुवधिणा बुद्धा० सिलोगो । सङ्घस्थ सव्वेसु खेत्तेसु कालेसु य उपदधाति समिि उवधी वत्थ-रोहरणाति, सव्वत्थ उवधिणा सह सोपकरणा बुद्धा जिणा, साभाविकमिदं जिणलिंगमिति सव्वे वि एगदूसेण निग्गता । पत्तेयबुद्ध- जिणकप्पियादयो वि रयहरण-मुहणंतगातिणा सह संजम सारक्खणत्थे परिग्गहेण मुच्छानिमित्तम्मि विजमाणे वि ते भगवंतो मुच्छं न गच्छंतीति अपरिग्गहा । कहं व ते भगवंतो उवकरणे मुच्छं कार्हिति 'जेहिं जयणत्थमुवकरणं धारिज्जति तम्मि १ । अवि अप्पणो वि देहम्मि णाऽऽयरंति ममाहतं, अपिसद्दो संभावणे, एतं संभाविज्जति - जे अप्पणो वि देहे अपडिबद्धा ते सेसेसु पढममप्पडिबद्धा, अप्पणो, ण परस्स, अपि देहे, किमुत बाहिरगे वत्युविसेसे ? । णाऽऽयरंति ण करेंति ममाइतं ममत्तं लोभ एव, तं सरीरे वि ssयरंति, किं पुण बाहिरे भावे १ ॥ २१ ॥ परिग्गहाणंतरमिदमवि ममयाजातीयमेवेति भण्णति— २६७. अहो ! निच्चं तवोकम्मं सबबुद्धेहि वणितं । 10 १४८ 25 २६७. अहो ! निच्चं तवोकम्मं० सिलोगो । अहोसदो दीण - विस्मयादिसु । दीणभावे जहा - अहो ! कट्ठे, विम्हये जहा - अहो ! विस्मयः, आमंतणे-अहो देवदत्त ! एवमादि । इह अहोसो विम्हए, अज्ज सेज्जं भवो गणहरा वा एवमाहंसु - अहो ! निचं तवोकम्मं, अहो ! विम्हये, निश्चं सततं तव एव कम्मं तवोकम्मं तवोकरणं सव्वे बुद्धा जाणका[ तेहिं ] वण्णितमक्खातं । तं पुण इमं जा य लज्जासमा वित्ती, जा इति वित्ती15 उद्देसवयणं, चकारो समुच्चये, लज्जा संजमो, लज्जासमा संजमाणुवरोहेण ऐगभत्तं च भोयणं एगवारं भोयणं, एगस्स वा राग - दोसरहियस्स भोयणं ॥ २२ ॥ रातीभोयणदोसकहणत्थमिदं भण्णति • जाय लज्जासमा वित्ती एगभत्तं च भोयणं ॥ २२ ॥ २६८. संतिमे सुहुमा पाणा तसा अदुव थावरा । २६८. संतिमे सुहुमा पाणा० सिलोगो । संति विजंते, इमे त्ति पञ्चक्खवयणं, सुडुमा सहा 20 [पाणा ] । ते पुण तसा कुंथुमादि, थावरा पणगादि । अहवेति वयणाद् बादरा वि मंडुक्का वणस्सतिमादिणो । जाणि राओ अपासंतो, जाणीति नपुंसकनिद्देसेण [बे] इंदियादयो णपुंसगा, ते पाएण संभवंति रायो चरंति । 'स(?अ)चक्खुविसये कधमिति एसणीयचरणप्रकारः संभवते ?' पुच्छति गुरू - कधमेसणीयं चरे ? ति ॥ २३ ॥ ग्राहकगतं प्रायो भणितं । दायगगहणेसणात्रयं तु भण्णति जाणि राओ अपासतो कधमेसणियं चरे ? ॥ २३ ॥ २६९. उदओल्लं बीयसंसतं पाणी सण्णिवयिया महिं । दिवा ताइं विवेज्जेज्जा रायो तत्थ कहं चरे ? ॥ २४ ॥ २६९. उदओल्लं बीयसंसत्तं० सिलोगो । उदओल्लं बिंदुसहितमिति उदओल्लं भणितं, ससणिद्धाती समाणजातीयाणीति संबज्झति । सालिमातीहिं बीएहिं संसत्तं, अहवा बीयाणि सयं संसत्तं च, बीयाणि याणि चेव, ताणि अक्कमंती वा देज्ज वा बीयाणि, संसतं वा सत्तु सोवीरगादी देज्ज, संसत्तं संसृष्टं, अधवा संसतं जे० ॥ १ जे जयत्थ मूलादर्शे ॥ २ " एगभतं च भोयणं, एगस्स राग-दोसर हियस्स भोयणं, अहवा एकवारं दिवसओ भोयणं ति " इति वृद्धविवरणे । " एकभकं च भोजनं' एक भक्तं द्रव्यतो भावतश्च यस्मिन् भोजने तत् तथा । द्रव्यत एकम् - एकसंख्यानुगतम्, भावत एकं - कर्मबन्धाद्वितीयम्, तद्दिवस एव रागादिरहितस्य, अन्यथा भावत एकत्वाभावात्” इति हारि० वृत्तौ ॥ ३ अदुय ४ 'णा निवडता महिं खं १-३ । 'णा निव्वडिता महिं खं २-४ जे० शु० । णा निवतिता महिं वृद्ध० ॥ ५ दिया अचू० विना ॥ ६ विवर्जितो खं १ ॥ For Private Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० २६७-७५] दसकालियसुत्तं। १४९ बीयादिमि सम्मिस्सं भत्तं पाणं च । पाणा वा जे सिरिसिवादयो महीए सण्णिवयिया समागता चक्खुसा पेक्खमाणो दिवा ताई विवजेजा परिहरेज्जा उदओल्लादीणि । अचक्खुविसए पुण रायो तत्थ तेसु बहुसु होतेसु जयणा असक्क त्ति कहं चरे? ॥ २४ ॥ पुव्वदोसभणितदोससमुक्करिसेण परिहरणमुपदिस्सति२७०. एतं च दोसं दटूण णायपुत्तेण भासितं । सबाहारं ण भुंजंति णिग्गंथा रातिभोयणं ॥ २५ ॥ २७०. एतं च दोसं दद्ण० सिलोगो । एतमिति जो अणुक्कतो सुहुमपाणातिपरिहरणअसक्कत्तणेण, दोसमिति एगवयणं जातिपयत्थताए, दद्ण पञ्चक्खं । एयं चेति चसद्देण आय-सत्त-पवयणोवघातिए य अण्णे वि णायपुत्तेण भासितं । अतो परमुक्तार्थम् ६ ॥ २५॥ वयछक्कमुपदिटुं । कायछक्कावसरे छजीवणियाउद्देसाणुपुवीए भण्णति२७१. पुढविकायं न हिंसंति मणसा वयस कायसा । तिविहेण करणजोएण संजता सुसमाहिता ॥ २६ ॥ __ २७१. पुढविकायं न हिंसंति सिलोगो । पुढविकायो पुव्वरूवितो, तं ण हिंसंति ण विराहेति तिहि वि जोगेहिं मणसा वयसा कायसा, तिविहेण करणजोएण करण-कारावणा-ऽणुमोयणेण । मणआतीण संजता साधुणो सुङ्गु समाहिता सुसमाहिता ॥ २६ ॥ संजमाधिकारे पुढविकायारंभदोसुण्णयणत्थमिदं भण्णति२७२. पुढविक्कायं विहिंसते हिंसति तु तदस्सिते । तसे य विविहे पाणे चक्खुसे य अचक्खुसे ॥ २७ ॥ २७२. पुढविकायं विहिंसंते० सिलोगो। पुढविकायविहिंसए तदतिरित्तमिममवि अवराधं करेति-हिंसति तु, हिंसति विद्धंसति । तुसद्दो छक्कायावधारणत्थं पुढवीए विसेसेति, अतो तदस्सिते अचित्तपुढवीए वि तसे बेइंदियाति विविहे अणेगागारे प्राणे जीवे चक्खुसे य सण्हयाए य अचक्खुसे ॥ २७॥ हिंसादोसस्स कारणतोवण्णासत्थं भण्णति२७३. तम्हा एयं विजाणित्ता दोसं दोग्गतिवडणं । पुढविकायसमारंभं जावज्जीवाए वज्जए ॥ २८ ॥ २७३. तम्हा एयं विजाणित्ता सिलोगो । पुव्ववण्णियत्यो १ ॥२८॥ पुढविकायजयणासमणंतरं धम्मपण्णत्तिआणुपुवीए आउजयणा भण्णति २७४. आउक्कायं ण हिंसंति मणसा वयस कायसा । तिविहेण करणजोएण संजता सुसमाहिता ॥ २९ ॥ २७५. आउक्कायं विहिंसंतो हिंसति तु तदस्सिते । तसे य विविहे पाणे चक्खुसे य अचक्खुसे ॥ ३०॥ 26 १रायभोयणं वृद्ध राईभोयणं खं ४॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [छटुं धम्मत्थकामज्झयणं २७६. तम्हा एतं विजाणित्ता दोसं दोग्गतिवडणं । आउक्कायसमारंभं जावज्जीवाए वज्जए ॥ ३१ ॥ २७४-७६. तत्थ आउक्कायाभिलावेण तिण्ह सिलोगाण प्रायो एस एव अत्थो २ ॥ २९ ॥ ३० ॥३१ ॥ आउक्कायाणंतरं तहेव तेउक्कायो भण्णति२७७. जायतेयं ण इच्छंति पावगं जलइत्तए । तिक्खमण्णतरा सत्था सव्वतो वि दुरासयं ॥ ३२ ॥ २७७. जायतेयं ण. सिलोगो । जात एव जम्मकाल एव तेजस्वी, ण जहा आदिच्चो उदये सोमो मज्झण्हे तिव्वो, तं जाततेयं ण इच्छंति णाभिलसंति रिसियो, जं तेहिं न इच्छितं तदणिच्छितव्वं । पावगं हव्वं, 'सुराणं पावयतीति पावकः' एवं लोइया भणंति, वयं पुण 'अविसेसेण डहण' इति पावकः, तं पावकमुज्जलइयु 10ण इच्छंति । तिक्खमण्णतरा सत्था, सत्थं आयुहं, अण्णतराओ त्ति पधाणायो तिक्खतरं, तं संस्थमेगधारं ईलिमादि, दुधारं करणयो, तिधारं तरवारी, चतुधारं चउक्कण्णओ, सव्वओधारं गहणविरहितं चक्कं, अग्गी समंततो सव्वतोधार, एवमण्णतरातो सत्थातो तिक्खयाए सव्वतोधारता । एतं सवतो वि दुरासयं, सबतो सव्वासु वि दिसासु अवि दुरासयं दुक्खमाश्रीयते दुरासतं, तं सव्वतो वि दुरासयमिति भणितं ॥ ३२ ॥ तदेव विसेसिज्जति२७८. 'पाईणं पडिणं वा वि उड़े अणुदिसामवि । अहे दाहिणओ वा वि दहे उत्तरतो वि य ॥ ३३ ॥ २७८. पाईणं पडिणं वा वि० सिलोगो । पातीणं पुव्वं, पलिणं अवरं, उई उवरिं, अणुदिसाओ अंतरदिसाओ जहा पुव्वदक्खिणा, अहे हेट्टतो, दाहिणओ जम्माओ दिसाओ । वासद्देण तदंतरालाणि वि भणिताणि । अपीति सव्वविकप्पो । एतासु सव्वासु दिसासु दहे उत्तरतो वि य । चसद्देण दहणीयं विसेसियं 20॥ ३३ ॥ जम्हा सव्वाहिं दिसाहितो आगतं डहति सव्वासु वा दिसासु थितं अतो २७९. भूताणं एसमाघातो हव्ववाहो ण संसयो । तं पैदीव-वियावट्ठा संजता किंचि णाऽऽरभे ॥ ३४ ॥ २७९. भूताणं पसमाघातो. सिलोगो । भूताणिं जीवा तेसिं, एस इति जायतेयोऽभिसंबज्झति, आघातो मारणत्थाणं आघायणं । हत्वाणि डहणीयाणि वहेति विद्धंसयति एवं हव्ववाहो, लोगे पुण हव्वं 25 देवाण वहति हव्ववाहो । ण संसयो असंदेहेण एस भूताण आघातो । तं पदीव-वियावट्ठा, तं हव्ववाह पदीवट्ठा पगासणनिमित्तं वितावणट्ठा वा सरीरातीण सिसिरे । एवमादिप्पयोगेहिं संजता किंचि णाऽऽरभे, संजता साधवो ते किंचि कारणमुद्दिस्स किंचि वा संघट्टणाति णाऽऽरभे इति ॥ ३४ ॥ जोग-करणत्तिएण भूताघातत्तणं कारणमुपादाय भण्णति 15 १'मन्नयरं सत्थं अचू० विना ॥ २“तत्थ एगधारं परमु, दुधारं कणयो, तिधार असि, चउधार तिपुडतो कणीयो, पंचधार अजणु(? अज्जुण)फलं, सव्वओधार अग्गी" इति वृद्धविवरणे ॥ ३पातीणं जे०॥ ४यावि हाटी० ॥ ५भूयाण एसमाघाओ खं १-२-४ जे० शु० वृद्ध । भूयाण एस वाघाओ खं ३॥ ६ पईव-पयावा अचू० विना ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० २७६-८६] दसकालियसुत्तं । १५१ २८०. तम्हा एयं वियाणित्ता दोसं दोग्गतिवडणं । तेउकायसमारंभं जावज्जीवाए वज्जए ॥ ३५ ॥ २८०. तम्हा एयं वियाणित्ता सिलोगो । जतो पातीणादिसु जीवविणासकारी अतो एतेण प्रकारेण विजाणित्ता दोसं दोग्गतिं वड्डेति तेउसमारंभं जावजीवं वजेज ३ ॥ ३५ ॥ तेउक्कायसमारंभवजणाणंतरं वाउक्कायवजणत्यमिदं भण्णति२८१. अणिलस्स समारंभ बुद्धा मण्णंति तारिसं । ___ सावज्जबहुलं चेतं तं तातीहिं सेवितं ॥ ३६ ॥ २८१. अणिलस्स समारंभं० सिलोगो । अणिलयणाद् अणिलो वातः, तस्स समारंभं उक्खेवादीहिं वुद्धा तित्थगरा मण्णंति जाणंति तारिसं अग्गिसमारंभसरिसं, जतो सो विरोधिज्जति संपादिमादि य विराहेति । सावजं बहुलं जम्मि तं सावजबहुलं । चकारो हेतौ । एतमिति अनिलसभारंभ वस्तु । जतो एतं तातीहिं ण10 सेवितं अतो ण सेवितव्वं ॥ ३६ ॥ वाउकायसमारंभविसेसणत्थं भण्णति२८२. तालियंटेण पत्तेण साहाविहुँवणेण वा । ण ते वीयितुमिच्छंति वीयावेऊण वा परं ॥ ३७ ॥ २८२. तालियंटेण पत्तेण सिलोगो।तालियंटातीणि छन्जीवणियामणिताणि[सुत्त ५२ पत्रं ८१] । एतेहिं ण ते [वी]यितुमिच्छंति, वीयावेतूण वा परं, अणुमोदणमवि भणितमेव ॥ ३७॥ 15 तालियंटादी उदीरणत्थमेव परिघेप्पंति अणुदीरणत्येणावि२८३. ॐ पि वत्थं व पायं वा कंबलं पायपुंछणं । ण ते वायमुदीरंति जतं परिहरंति णं ॥ ३८ ॥ २८३. जे पि वत्थं व पायं वा० सिलोगो। जं पि वत्थादि सरीरपालणत्थं धारिजति तेणावि अजतऽक्खेव-पप्फोडणातीहि ण ते वायमुदीरंति । परिभोग-धारणापरिहारेण जतं परिहरंति णं ॥ ३८ ॥ 20 जतो तातीहिं सावजबहुलमिति ण सेवितं२८४. तम्हा एयं वियाणित्ता दोसं दोग्गतिवड्डणं । __ वाउक्कायसमारंभं जावज्जीवाए वजए ॥ ३९ ॥ २८४. तम्हा एयं वियाणित्ता सिलोगो । हेट्ठा पुढविकायादिक्रमेण भणितो ४ ॥ ३९ ॥ वाउसमारंभपरिहाराणंतर वणस्सतिसमारंभपरिहारोवदेसत्थमिदं भण्णति २८५. वर्णसतिं ण हिंसंति मणसा वयस कायसा । तिविहेण करणजोएण संजता सुसमाहिता ॥ ४० ॥ २८६. वणसतिं विहिंसंतो हिंसति तु तदस्सिते । तसे य विविहे पाणे चक्खुसे य अचक्खुसे ॥ ४१॥ १ अगणिकाय खं २-४ ॥ २ " निलओ जस्स नत्थि सो अणिलो" इति वृद्धविवरणे ॥ ३ विधिराविजति मूलादर्श ॥ ४ इयणे अचू. विना ॥ ५°ति नो वि वीयावर परं खं २ हाटी०॥ ६जं च वत्थं खं ४॥ ७वाउमुखं ४ जे. वृद्ध॥ ८य अचू. विना ॥ ९-१० °स्सतिकार्य जे० । स्सइकायं खं १-४ । स्सयकाय खं३॥ 25 Jain Education Intemational Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [छटुं धम्मत्थकामायणं २८७. तम्हा एयं वियाणित्ता दोसं दोग्गतिवडणं । वणस्सतिसमारंभं जावजीवाए वजए ॥ ४२ ॥ २८५-८७. वणस्सति ण हिंसंतिक सिलोगो । वणस्सति विहिंसंतो० सिलोगो। तम्हा एयं · वियाणित्ता सिलोगो । वणस्सतिअभिलावेण तिण्ह वि जहा पुढविकाये अत्थो ५॥ ४० ॥४१॥ ४२ ॥ __ २८८. तसकायं ण हिंसंति मणसा वयस कायसा । तिविहेण करणजोएण संजता सुसमाहिता ॥ ४३ ॥ २८९. तसकायं विहिंसंतो हिंसति तु तदस्सिते । तसे य विविहे पाणे चक्खुसे य अचक्खुसे ॥ १४ ॥ २९०. तम्हा एयं वियाणित्ता दोसं दोग्गतिवड़णं । 10 तसकायसमारंभं जावज्जीवाए वजए ॥ ४५ ॥ २८८-९०. एवं तसकाये वि तिण्ह सिलोगाण ६॥४३॥४४॥४५॥ एतं कायछकं । गता मूलगुणा । मूलगुणोवदेसाणंतरं तेसिमेव सारक्खणत्थमुत्तरगुणोवदेसो, महन्वतसारक्खणत्यमिव भावणातो। पढमोत्तरगुणो अकप्पो । सो दुविहो, तं०-सेहठवणाकप्पो अकप्पठवणाकप्पो य । पिंड-सेज-वत्थ-पत्ताणि अप्पप्पणो अकप्पितेण उप्पायियाणि ण कप्पति, वासासु सव्वे ण पव्वाविजंति, उडुबद्धे अणला । अकप्पठवणाकप्पो इमो२९१. जाणि चत्तारिऽभोजाइं इसिणाऽऽहारमाईणि । ताइं तु विवेज्जेत्ता संजमं अणुपालए ॥ ४६ ॥ २९१. जाणि चत्तारिऽभोजाणि० सिलोगो । जाणीति वक्ष्यमाणउद्देसो, चत्तारि संखा, अभीजाणि अकप्पिताणि, इसिणा साधुणा आहारमादीणि आहारो आदी जेसिं ताणि आहारादीणि । ताणि तुसद्देण अणणुण्णातं सेजाती विवजेत्ता परिहरेत्ता सत्तरसविधं संजमं अणुपालए ॥ ४६॥ 20 समाणसत्थभणितमातिसद्देणातिकट्ठ गतमेव भवति, जघा "भूवादयो धातवः" [पाणिः ।।३।] इति । इमाणि पुण तहा ण सिद्धाणीति भण्णति२९२. पिंडं सेजं च वत्थं च चउत्थं पादमेव य । अकप्पितं ण इच्छंति पडिग्गाहिंति कल्पितं ॥ १७ ॥ २९२. पिंडं सेनं च वत्थं च सिलोगो । पिंडो असणादि । सेना आवसहो । वत्थं रयोहरणादि । 25 पादं पडिग्गहादि । एतं अकप्पितं ण इच्छति । पडिग्गाहिंति सव्वेसणासुद्धं कप्पितं ॥४७॥ पिंडादीणमेव२९३. जे णियागं ममायंति कीयमुद्देसियाऽऽहडं। वह ते अणुजाणंति ईंति वुत्तं महेसिणा ॥ ४८ ॥ १स्सयकायसमा जे० । स्सइकायसमाखं १-३-४ ॥ २वियत्ता णं दो खं ४ ॥ ३त्तारऽभो खं २ ॥ ४ ताई तु जे० ॥ ५ विवजेतो खं १-३ । विवर्जितो खं २ । विवजंतो शु० वृद्ध० ॥ ६ इच्छेजा पडिग्गाहेज कप्पियं अचू. विना ॥ ७ ते समणु अचू० हाटी० विना ॥ ८इई जे० । इय खं ४ । इइ खं १-२-३ शु०॥ Jain Education Intemational Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 सुत्तगा० २८७-९७] दसकालियसुत्तं १५३ २९३. जे णियागं ममायं० सिलोगो। णियाग-कीय-मुदेसिया[-ऽऽहडा]णि जधा खुडियायारए । सुतं १८ पत्रं ६०] । जे ताणि ममायंति ममीकरेंति गेण्हंति वहं ते अणुजाणंति अणुमोतंति इति वृत्तं एयं महेसिणा तित्थगरेण ॥४८॥ जम्हा वहदोसदूसियमिदं२९४. तम्हा असण-पाणाती कीयमुद्देसियाऽऽहडं । वजयंति ठितप्पाणो निग्गथा धम्मजीविणो ॥ ४९ ॥ २९४. तम्हा असण-पाणाती० सिलोगो । तम्हादिति पुन्बुद्दिटुं वहदोसं कारणीकरेति, एतेण कारणेण असण-पाणादि, आदिग्गहणं प्रकारवयणं, कीयमुद्देसियाऽऽहडं पुव्वभणितं वजयंति परिहरंति ठितप्पाणो निग्गंथा धम्मजीविणो, ठियप्पाणो संजमे भगवतामुपदेसे वा, निग्गतगंथा निग्गंथा, धम्मजीविणो धम्माविरोहवित्तिणो॥४९॥ अकप्पपरिहरणमुपदिलृ १ । गिहिभायणवजणत्थमिदं भण्णति-- २९५. कसेसु कंसपातीसु कुंडमोएसु वा पुणो । भुंज॑ति असण-पाणाती आयारात् परिभस्सई ॥ ५० ॥ २९५. कंसेसु कंसपाते?ती)सु० सिलोगो । कंसस्स विकारो कांसं, तेसु वट्टगातिसु लीलापाणेसु, कंसपाती कंसपात्री, ताण उपभोगो प्रायस इति विसेसग्गहणं । 'कुंडमोयं कच्छातिसु कुंडसंथियं कंसमायणमेव महंत । पुणो इति विसेसणे, रुप्पतलिकातिसु वा । जे पहुँति-"कोंड-कोसेसु वा" तत्थ कोंडगं तिलपीलणगं, कोसो सरावाती। एतेसु भुजति असणपाणाति जति ततो आयारात् परिभस्सति।। परिपडति ॥ ५० ॥ कंसपत्तातिपरिभोगे असंजमोवदरिसणत्थं भण्णति-- २९६. सीतोदगसमारंभे मत्तधोवणछड्डुणे। जाणि छण्णंति भूताणि सो तत्थ दिट्ठो असंजमो ॥ ५१ ॥ __२९६. सीतोदगसमारंभे० सिलोगो । सीतं उदगं सीतोदगं असत्थपरिणतं, 'एते उदएण न करेंति' त्ति संजतेसु समुद्दिद्वेसु पक्खालणत्थमुदगं समारभंति, तम्मी सीतोदगसमारंभे। मत्तं भायणं तम्मि धोये 20 धोवणछडणे सति, जाणीति छण्णमाणुद्देसो, छण्णंति "क्षणु हिंसायामिति" हिंसिजंति भूताणीति जीवा. सो इति निदेसवयणं, छणणसंभवो-पुढविक्कायो जत्थ छड्डिजति, आऊ जेण धोव्वति, तेऊ चुलिमादि सण्णिकरिसे, वाऊ तत्थेव वेगेण वावडंतस्स, वणस्सति हरिताति, तसा पूतरग-पिपीलिकादि । एवं संभवतो सो तत्थ दिट्ठो केवलनाणेण भगवता, अधवा दिट्ठ इति उवदेसितो, पञ्चक्ख इति वा दिट्ठो असंजमो अजयणा ॥५१॥ एतं दुगुंछापत्तियं । इदं पुण विणा वि दुगुंछाए२९७. पेच्छेकम्मं पुरेकम्मं सिया तत्थ ण कप्पई। एतदटुं ण भुंजंति णिग्गंथा गिहिभायणे ॥ ५२ ॥ 25 १°पाणाइं खं १-२-४ जे० ॥ २ कंसपातेसु अचू० विना । "कंसपाएसु नाम कंसपत्तीओ भण्णति, जं वा किंचि अन्नं तारिसं कसमयं तं कंसपाएण गहियं ति" इति वृद्धविवरणे ॥ ३ कोंडकोसेसु अचूपा० । कुंडकोसेसु वृपा० ॥ ४ तो असण अचू० वृद्ध० विना ॥ ५ आयारा परि अचू० विना ॥ ६"कुंडमोयो नाम हस्थिपदसंठियं तं कुंडमोयं । 'पुणो'सहो विसेसणे वति। किं विसेसयति ? जहा अनेसु सुवन्नादिभायणेसु त्ति। अन्ने पुण एवं पढंति-'कुंड-कोलेसु वा पुणो' तत्य कुंड पुढविमयं भवति, कोसग्गहणेण सरावादीणि गहियाणि" इति वृद्धविवरणे ॥ ७ धोयण खं २ अचू० वृद्ध विना ॥ ८ भूयाई दिट्टो तत्थ असं खं १-२-३-४ जे० शु०। भूयाई सोऽत्थ दिट्ठो असं हाटी। भूयाई एसो दिवो असं वृद्धः॥ ९ पच्छाकम्मं जे. अचू० विना ॥ १० एयमढें अचू० विना ॥ दस सु. २० Jain Education Intemational Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [छटै धम्मत्थकामज्झयणं ___ २९७. पच्छेकम्मं पुरेकम्मं० सिलोगो । पच्छेकम्म पडियाणिते संजतेहिं । पुरेकम्मं संजताणं दातव्वमिति धोतुं ठावेति । अधवा 'भुत्तेसु पच्छा भुंजीहामो, तुरियं वा पुरतो भुंजंति, वरं ते भुंजता' एवमोसक्कगुस्सकणेण पुरेकम्म-पच्छेकम्मया सिया इति संभवो भण्णति । होज एतं गिहिभायणग्गहणे अतो न कप्पड़, एस सिस्सउवदेसो । ऐवंधम्मियादरिसणत्थमुपपातिजति-एतद8 ण भुंजंति, एते पच्छेकम्मादयो दोसा इति ण 5 जंति अतो ण भुजितव्वं २ ॥ ५२ ॥ [१ पलियंक]गिहिणिसेजवजणं ति दारं । जहा गिहिभायणे पच्छेकम्मादिदोसा तधा गिहिणिसेजाए वीति भण्णति२९८. आसंदी-पलियंकेसु मंच-मासालएसु वा । अणायरियमज्जाणं आसइत्तु सइत्तु वा ॥ ५३ ॥ २९८. आसंदी-पलियंकेसु० सिलोगो। आसंदी आसणं, पलियंको पलंकओ, मंचो मंचको जो 10वा पेक्खणएसु विरइज्जति, आसालओ सावटुंभमासणं । एतेसु अणायरियमजाणं, अणायरणीयं अकरणीयमिदं, अज्जा साधव एव, तेसिं आसइत्तु उवेसिउं सइत्तु णिवजिउं ॥ ५३॥ २९९, णाऽऽसंदी-पलियंकेसु ण णिसेज्जा ण पीढए । णिग्गंथाऽपडिलेहाए बुडवुत्तमहिठ्ठगा ॥ ५४ ॥ २९९. णाऽऽसंदी-पलियंकेसु० एस सिलोगो केसिंचि णेव अत्थि । जेसिं अत्थि तेसिं "तिण्हमण्ण15 तरागस्स" (सुतं० ३०४) पत्तिए, अहवा तस्स जयणा एसा । जे ण पदति ते सामण्णमेव जयणोवदेसमंगीकरेंति, जता कारणं तदा पडिलेहाए, ण अपडिलेहिय ॥ ५४ ॥ आसंदादिदोसोववायणत्थमिदं भण्णति३००. गंभीरविजया एते पाणा दुप्पडिलेहगा। आसंदी-पलियंका य एतमटुं विर्वजिता ॥ ५५ ॥ ३००. गंभीरविजया एते. सिलोगो। गंभीरं अप्पगासं, विजयो विभागो, गंभीरो विजयो 20 जेसिं ते गंभीरविजया, एते इति आसंदादयो । अतो तेसु पाणा दुप्पडिलेहगा दुविसोहगा, वद्ध-सुंबातिविवरगता कुंथु-मंकुणादयो दुरवणेया, उवविसंतेहिं जंते इव पीलिजति । आसंदी-पलियंका य, चसद्देण मंचादयो वि, एतमढे एतेणं कारणेणं 'मा पाणोवघातो भविस्सति' ति विवजिता ॥५५॥ आसंदी-पलियंकवजणे इदमवि भूयो कारणमुपदिस्सति३०१. गोयरग्गपविट्ठस्स निसेज्जा जस्स कप्पति । इमेरिसमणायारं आवजति अबोहिकं ॥ ५६ ॥ ३०१. गोयरग्गपविट्ठस्स० सिलोगो । णिसीयणं निसेजा। से गोयरग्गपविठ्ठस्स जस्स साधुणो कप्पति वट्टति सो इमं वक्ष्यमाणं एरिसं एवंप्रकारं अणायारो अमज्जाया तं आवजति पावति अबोधिकारि अबोहिकं ॥ ५६ ॥ तस्स अणायारस्स विसेसेण उवदरिसणत्थमिदं भण्णति १एवमवध्वष्कणोत्ष्वकणेन ॥ २ एवंधर्मितादर्शनार्थमुपपाद्यते॥ ३ आसयित्तु सयित्तु खं ३॥ ४ आचार्यान्तरमतेनायं सूत्रश्लोको नास्ति । वृद्धविवरणकृता तु आसंदी-पलियंकेसु इति पूर्वसूत्रश्लोकपाठभेदरूपेणायं सूत्रश्लोको निर्दिष्टो व्याख्यातश्च दृश्यते । । सूत्रप्रतिषु पुनः सर्वास्वप्ययं श्लोको विद्यत एवेति ॥ ५ आसंदी पलियंको य खं २ हाटी० ॥ ६ विवजए खं ४॥ Jain Education Intemational Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० २९८-३०५] दसकालियसुत्तं । ३०२. विवत्ती बंभचेरस पाणाणं अवहे वहो । वणीमगपैडिग्घातो पलिकोधो अगारिणं ॥ ५७ ॥ ___३०२. विवत्ती बंभचेरस्स. सिलोगो । अभिक्खणदरिसण-णिसेजोवगतस्स संभासणेहि बंभचेरविवत्ती संभवति । पाणाणं अवधे वधो, अवहत्थाणे ओरतो । कहं ? अविरतियाए सहाऽऽलवेंतस्स जीवंते तित्तिरए विक्केणुए उवणीए, 'कहं जीवंतमेतस्स पुरतो गेण्हामि त्ति वत्थऽद्धंतवलणसण्णाए गीवं वलावेति, एवमवहवधोछ संभवति, पाणाणं अवधे वधो। वणीमगपडिग्यातो, 'कहमालतसमीवातो उडेमि ?' ति भिक्खयरा अतिच्छावेति, एवमंतराइयदोसो। ते य अवणं वदंति-समणएण सह उल्लावेति । पलिकोधो अंगारिणं, परिकोध एव पलिकोधो, “पडिकोधों" वा समंता कोधो, “डकार-लकार-रेफाणामेकत्तं" इति कातुं । तीसे पति-दियरातीणं भवति चेतसि-अहो ! पव्वतियएण मधुराऽऽराधिता ण किंचि घरकरणीयमवेक्खति, अम्हे वा तिसिय-भुक्खिते आगए य ण गणेति । अहवा विरूवभावपलिकोधो संभवति-इमं च एरिसमणायारं 10 आवजति अबोधितं [सुतं ३०१] ॥ ५७॥ ३०३. अगुत्ती बंभचेरस्स इत्थीओ यावि संकणं । कुसीलवद्धणं थाणं दूरतो परिवज्जए ॥ ५८ ॥ ३०३. अगुत्ती बंभचेरस्स० सिलोगो । इत्थीणं इंदियाइं मणोहराई णिज्झायमाणस्स, ताण य सयणा-ऽऽसणाई निसेवमाणस्स बंभव्वतस्स अगुत्ती भवति । इत्थीओ वा सो संकिजेज-आयरेणोवदिसति, 15 मुहं च से पुलएति, ण एतं सोहणं । सा व सविलासावलोकिणी संकिजेज । चसद्देण उभयमवि आदरवदिति संकामुप्पादेजा । एवं दोसपसूती अतो कुसीलवद्धणं थाणं कुच्छितं सीलं जं ठाणं वड्डेति तं दूरतो परिवजए ॥५८॥ सुत्तेण चेव गिहतरणिसेजाववातत्थमिदं भण्णति ३०४. तिण्हमण्णतरोतस्स निसेजा जस्स कप्पति । __जराए अभिभूतस्स १ वाहितस्स २ तवस्सिणो ३ ॥ ५९॥ ३०४. तिण्हमण्णतरातस्स० सिलोगो। तिण्हं संखाणं, उवरिं जे भणिहिंति, अण्णतरातस्स एतेसिं कस्सइ निसेजा भणिता जस्स सा कप्पति सो एतेसिं कोति होज, ण पुण अण्णो । तिण्ह उद्देसो-जराए अभिभूतस्स १ वाहितस्स २ तवस्सिणो ३, अभिभूत इति अतिप्रपीडितो, एवं वाहितो वि, तवस्सी पक्ख मासातिखमणकिलंतो, एतेसिं णेव गोयरावतरणं । जस्स य पुण सहायासतीए अत्तलाभिए वा हिंडेज तता एतेसिं निसेज्जा अणुण्णाता । एतेसिं बंभविवत्ति-वणीमगपडिघाताति जयणाए परिहरंताणं णिसेज्जा ३।४॥ ५९॥25 एतेसं णिसेना। सिणाणमिति दारं-जराभिभूतादीण णिसेजा अणुण्णाता, पसंगेण धम्मसापरिगताण सिणाणं। अतिप्पसंगनिवारणत्थमिदं भण्णति ३०५. वोहितो वा अरोगो वा सिणाणं जो तु पत्थए । वोकंतो होति आयारो जढो हवति संजमो ॥६॥ १अगुत्ती सूत्रकृ० सूत्र ४५५ चूर्णी ॥ २ पाणाणं च वहे वहो अचू० वृद्ध० विना। सूत्रकृताङ्ग ४५५ सूत्रचूर्णावप्ययमेव पाठो दृश्यते ॥ ३ पडीघाओ खं ३ शु०॥ ४ पडिकोहो य अगा' खं १-२-३-४ जे० वृद्ध । पडिकोहो यऽगा शु.। पडिकोघो अगा अचूपा० ॥ ५ ओरतो आरतः, 'ओरो' इति सौराष्ट्रगूर्जरभाषायां प्रसिद्धः प्रयोगः ॥ ६ आगारिसम्मिस्सणं परि° मूलाद” ॥ ७ मधुरावाचिंता ण मूलादर्श ॥ ८वा वि २ख १-३-४॥ ९ रागस्स खं १-२-३-४ शु० वृद्धः । 'रागस्सा जे०॥ १०जराय अ° ख ४॥ ११ असंखाणं तिण्हं उरि मूलादर्शे ॥ १२ वाहीओ वा ख २-४ ॥ १३ अरोगी वा अचू० वृद्ध विना ॥ १४ तु इच्छए वृद्ध०॥ 20 Jain Education Intemational Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ 15 णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [छटुं धम्मत्थकामज्झयणं ३०५. वाहितो वा अरोगो वा० सिलोगो । वाही पुव्वभणितो, सो जस्स संजातो सो वाहितो। अरोग इति वाहियजातीय एव । जराभिभूत-तवस्सीण कोति सरीरस्स पाणितेणामिसेयणं सिणाणं, जो इति उद्देसवयणं, पत्थणं अभिलसणं, तं जो वाहितो अरोगो वा सिणाणं पत्थए । तेण वोकंतो होति आयारो, वोकंतो वोलीणो यदुक्तम् । संजमो सत्तरसविहो, सो जढो परिच्चत्तो । आयार-संजमविसेसो5आयारो चक्कवालसामायारी, तेण सत्तरसविधस्स [ संजमस्स ] अणुपालणं ॥ ६॥ सिणाणगतअसंजमदोससमुन्भावणत्थमिदं भण्णति३०६. संतिमे सुहुमा पाणा घसीसु भिलुहासु य । जे तु भिक्खू सिणायन्तो वियडेणुप्पीलावए ॥ ६१ ॥ ३०६. संतिमे सुहमा पाणा सिलोगो। संति विजंति, इमे इति चक्खुगेज्झा, पगरिसेण सण्हा 10 सुहुमा, पाणा जीवा, ते तसा कुंथुमादि, थावरा पिथियाँति । तेसिं विसेसेण झुसिरहाणेसु घसीसु भिलुहा सु य गसति सुहुमसरीरजीवविसेसा इति घसी अंतोसाणो भूमिपदेसो पुराणभुसातिरासी वा, कण्हभूमिदली भिलुहा । जे इति सुहुमसत्तुद्देसो, तुसद्देण न केवलं घसि-भिलुधासु समभूमीए वि । भिक्खणसीलो भिक्खू सिणायन्तो पहाणारंभं करेंतो विगडेण फासुपाणिएणावि उप्पीलावए उप्पीलेजा। तेसिं तं अत्यग्धमतरणीयमिति विणासमुपगच्छंति, एस दोस इति ॥ ६१॥ ३०७. तम्हा ते ण सिणायंति सीतेण उसिणेण वा । जावजीवं वयं घोरं असिणाणमेहिट्ठए ॥ ६२ ॥ ३०७. तम्हा ते ण सिणायंति० सिलोगो । तम्हा इति पुव्वभणितं कारणं पडिनिदिसति । ते इति 'पुवरिसिचरितमणुचरितव्वं' ति तेसिं गहणं, जहा तेहिं वजियं सिणाणमेवं वजणीयं । सीतेण वा सुहफरिसेण उसिणेण वा आउविणासकारिणा । बंभचेरगुत्तिनिमित्तं कायकिलेसो प्पमा(धम्मा)तिसु एवं । अतो 20 जावज्जीवं वयं घोरं, जावजीवमिति जाव प्राणा धरंति वयं अण्हाणगं घोरं दुच्चरं असिणाणं अण्हाणगं तं अधिटेज इति ॥६२॥ ___ सउव्वदृणं ण्हाणं भवति, हायस्स वा सरीरसुगंधिकरणे इमाणि 'पतुज्जंतीति भण्णति ३०८. सिणाणं अधवा ककं लोडं पउमगाणि य। ___ गायस्सुव्वट्टणट्ठाए णाऽऽयरंति कयायि वि ॥ ६३ ॥ 25 ३०८. सिणाणं अदुवा कक० सिलोगो । सिणाणं सामइगं उवण्हाणं । अधवा गंधवट्टओ कर्क व्हाणसंजोगो वा । लोद्धं कसायादि अपंडुरच्छविकरणत्थं दिज्जति । पउमं पउमकेसरं कुंकुमं वा । चसद्देण जं एवंजातीयं तं घेप्पति । जधुट्ठिाई गायस्सुव्वदृणट्ठाए, गातं सरीरं तस्स उन्वट्टणानिमित्तं णाऽयरंति भगवंतो साधवो कयायि कहिंच धम्माभिघातावत्यंतरे ५॥६३॥ सोभवजणमिति दारं-तस्साभिसंबंधो, जति कोति वयेज-सिणाणे उप्पीलावणदोसो, पउमादिसु को 30 दोसो ?, भण्णति-विभूसाइ वा वि विभूसादोस एवेति नियमिजति १ घसाहि मिलगाहि य वृद्ध । घसासु भिलुगासु य ख १-२-३-४ शु• हाटी। घसासु भिलुघासु य जे । घसीसु मिलुधासु य अचू०॥ २जे य भिक्खू सिणायंति खं ४ ॥ ३°णुप्पलाख १ शु• हाटी.॥ ४ पृथ्व्यादि । ५ महिट्रगा खं १-२-३-४ जे० शु• हाटी० ॥ ६पभुज मूलादर्शे ॥ ७ अदुवा ' खं १ अचू० विना ॥ Jain Education Intemational Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ 16 सुत्तगा० ३०६-१२] दसकालियसुत्तं । ३०९. 'णिगिणस्स वा वि मुंडस्स दीहरोम-णेहस्सियो । ___ मेहुणा उवसंतस्स किं विभूसाए कारियं ? ॥ ६४ ॥ ३०९. णिगिणस्स वा. सिलोगो। णिगिणो णग्गो । मुंडो चउन्विहो । णाम-द्ववणाओ गताओ। दव्वमुंडो आदिच्चमुंडादि । इंदिय-णोइंदियाइदमेण भावमुंडो । दीहाणि रोमाणि कक्खादिसु जस्स सो दीहरोमो, आश्री कोटी, णहाणं आश्रीयो णहस्सीयो, णहा जदि वि पडिणहादीहि अतिदीहा कप्पिजंति तह वि असंठ- 6 विताओ णहथूराओ दीहाओ भवंति । दीहसदो पत्तेयं भवति, दीहाणि रोमाणि णहस्सीयो य जस्स सो दीहरोमणहस्सी तस्स । तस्सेवंरूवस्स मेहुणा उवसंतस्स ततो णियत्तस्स कामिणो जोग्गाए किं विभूसाए मंडणेण कारियं प्रयोजनम् १ ॥ ६४॥ सोभवजणत्थं पत्थुतं, तत्थ "किं विभूसाए कारिय"मिति भणितं । विभूसादोसुन्भावणत्थमिदं भण्णति३१०. विभूसावत्तियं भिक्खू कम्मं बंधति चिक्कणं । 10 संसारसागरे घोरे जेणें भमति दुरुत्तरे ॥ ६५ ॥ ३१०. विभूसावत्तियं भिक्खू० सिलोगो। विभूसावत्तियं विभूसणं विभूसा, विभूसावत्तियं विभूसापच्चयं तन्निमित्तं भिक्खू कम्मं बंधति चिक्कणं चिप्फिलं अविसदं । तं च एवंफलं-संसारसागरे घोरे जेणं भमति दुरुत्तरे, सागर इव सागरो, संसार एव सागरो संसारसागरो घोरो भयाणगो, तम्मि जेण कम्मुणा सुचिरं भमति । दुक्खमुत्तरिज्जतीति दुरुत्तरो॥६५॥ भट्टारगाओ केवलणाणविदियत्थातो आगम इति आगमगोरवावधारणत्थं सेनं भवसामी भणति३११. विभूसावत्तियं चेतं बुद्धा मण्णंति तारिसं । साँवजबहुलं चेतं णेयं तादीहिं सेवितं ॥ ६६ ॥ ३११. विभूसावत्तियं० सिलोगो । विभूसावत्तियं पूर्ववत् । चसद्दो काकुणा चिक्कणताविसेसं दरिसेति । एतमिति जमणंतरसिलोगभणितं । बुद्धा इति भट्टारगे परमगुरौ गौरवेण बहुवयणं, सव्व एव वा 20 तित्थयरा एवं मण्णंति जाणंति तारिसमिति जहोववण्णितदोसावधारणं । सव्वधा सावजषहुलं चेतं उदगोवण्हाणाति गवेसण-पीसणादीहि सावजबहुलमिति अतो गेयं तादीहि सेवितं ६॥ ६६ ॥ सोहवजणं गतं उत्तरगुणा य । समत्ताणि अट्ठारस ठाणाणि । अट्ठारसठाणफलोवसंहरणणिदरिसणत्थमिदं भण्णति__३१२. खति अप्पाणममोहदंसिणो, तवे रया संजैम अजवे गुणे। धुणंति पावाइं पुरेकडाई, नवाई पावाइं ण ते करेंति ॥ ६७ ॥ ३१२. खवेंति अप्पाणममोह० वृत्तम् । खवेंति कृशीकुर्वन्ति अप्पाणं अप्पा इति एस सद्दो जीवे सरीरे य दिट्ठप्रयोगो, जीवे जधा मतसरीरं भण्णति-गतो सो अप्पा जस्सिमं सरीरं, सरीरे-थूलप्पा किसप्पा, इह पुण तं खविजति त्ति अप्पवयणं सरीरे ओरालियसरीरखवणेण, कम्मणं वा सरीरखवणमिति, उभयेणाधिकारो । मोहं १नगिण शु० हाटी• वृद्ध। निगण खं १-२ जे० ॥ २ नहंसिणो अचू० विना ॥ ३ जेणं पडा दु जे. अचू० विना ॥ ४ सावजाबहुलं शु०। सावजं बहुलं खं ४ जे०॥ ५संजमे जे० ॥ ६“आह-किं ताव अप्पाणं खवेंति ? उदाहु सरीर ! ति । आयरिओ भणइ-अप्पसद्दो दोहि वि दीसइ-सरीरे जीवे य। तत्थ सरीरे ताव जधा-एसो संतो (? सत्तो ) दीसइ, मा गं हिंसिहिसि । जीवे जहा-गओ सो जीवो जस्सेयं सरीरं । तेण भणितं 'खवेंति अप्पाणं' ति, तत्थ सरीरं ओदारिकं कम्मगं च, तत्थ कम्मएण अधिगारो, तस्स य तवसा खए कीरमाणे ओदारियमवि खिज्जइ" इति वृद्धविवरणे॥ Jain Education Intemational Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [सत्तमं वक्कसुद्धिअज्झयणं विवरीयं, ण मोहममोहं, अमोहं पसंति अमोहदंसिणो। बारसविहे तवे रता, सत्तरसविहे संजमे रता इति वदृति । उजुभावो अजवं तम्मि वि रता इति । गुणे इति एतम्मि चेव संजमगुणे । ते एवं गुणसुत्थिता धुणंति पावाइं पुरेकडाई, धुणंति जीवातो विकप्पेंति, पायंतीति पावाणि, अणंतभवोवातियाणि पुरेकडाई, तवसा गुत्ति समितिसमवत्थिता णवाणि एत्ताहे उवणीयमाणाणि पावाणि ण ते करेंति, एवंगुणा भगवंतः 5॥६७॥ णिदरिसणभूतं रिसिसमुक्त्त्तिणं । अट्ठारसठाणफलनिगमणत्थं भण्णति ३१३. सतोवसंता अममा अकिंचणा, सविजविजाणुगता जसंसिणो । उडुप्पसण्णे विमले व चंदिमा, सिद्धि विमाणाणि वे जंति ताइणो ॥ ६८ ॥ त्ति बेमि॥ ॥ धम्मत्थकामज्झयणं छठं सम्मत्तं ॥ 10 ३१३. सतोवसंता० वृत्तम् । सव्वकालं सता, उवसंता अक्कोवणा, अममा लोभविरहिता, एवं राग-दोसविप्पमुक्का। अकिंचणा. किंचणं चतुविधं, नाम-ट्ठवणातो गतातो, दव्वकिंचणं सुवण्णादि, भावे अण्णाण-अविरइ-मिच्छत्ताणि, तं जेसिं दव्व-भावकिंचणं णत्थि ते अकिंचणा। सविजविजाणुगता, ख इति अप्पा, विजा विण्णाणं, आत्मनि विद्या सविना अज्झप्पविज्जा, विजागा(१ ग)णातो [वि सेसिजति, अज्झप्पविजा जा विजा ताए अणुगता सविजविजाणुगता । जसो जेसिं ते जसंसिणो । ते विजापभावेण उडुप्पसण्णे विमले व चंदिमा, उँडू छ, तेसु पसण्णो उडुप्पसण्णो, सो पुण सरदो, अहवा उडू एव पसण्णो तम्मि विमले व चन्द्रमा चन्द्र इत्यर्थः, जंधा मेघ-रतोविरहिते सरये अधिकं निम्मलो चंदो भवति, एवं अट्ठविधकम्ममलुम्मुक्का सिद्धिं परिणेव्वाणं गच्छंति, विमलभूतप्राया विमाणाणि उक्कोसेण अणुत्तरादीणि । एवं सिद्धिं वा विमाणाणि वा । वासदस्स रहस्सता पागते, जहा-- हे जं व तं व आसिय ! जत्थ व तत्थ व सुहोवगतणिद्द!। जेण व तेण व संतुट्ठ ! वीर ! मुणितो हु ते अप्पा ॥१॥ जंति गच्छंति ताइणो अट्ठारससु ठाणेसु ठिता । एस फलं मयं ॥ ६८॥ इति बेमि पूर्ववत् ॥ णयाणायम्मि गेण्हियव्वे० गाधा ॥ सव्वेसिं पि० गाहा ॥ दो वि भणितातो ॥ धम्म-ऽस्थ-कामकधणा अट्ठारसदोसवण्णणं विधिणा। एतेसु ठितस्स य फलमज्झयणस्सेस संखेवो ॥१॥ ॥ धम्मत्थकामपयविभागविवरणलेसो समत्तो॥ ६ ॥ 20 १ उति खं १-३-४ शु० हाटी. वृद्ध । वयंति खं २ जे०॥ २त्ति बेमि ॥ आयारकहा एसा महई गंथग्गओ मुणेयव्या। अट्टाहियाए सट्टीए संखिया परिसमत्ता ॥खं ३ ॥ ३ धम्मत्थकाम समत्ता जे०। धम्मत्थकाम नामज्झयणं सम्मत्तं खं ४॥ ४ ऋतवः षट् ॥ ५ यथा मेघ-रजोविरहिते शरदि।। ६हखता प्राकृते । Jain Education Intemational Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ३१३ णिज्जुत्तिगा० १७१-७४] दसकालियसुत्तं । १५९ [सत्तमं वक्कसुद्धिअज्झयणं ] ॥ नमो सुयदेवयाए भगवतीए ॥ धम्मट्ठितस्साणुक्कमेण विदितायारवित्थरस्स परोवदेससामत्थोववण्णणमुपदिस्सति, सव्ववयणदोसपरिहरणत्थमणवजा वक्कसद्धी. एतेणाणक्कमेण आगतस्स वकसद्धीअज्झयणस्स चत्तारि अणिओगद्दारा जहा आवस्सए। नामनिप्फण्णो से वक्कसुद्धी, अतो वक्कं निक्खिवितव्यं, सुद्धी निक्खिवितव्वा । पढमं वकं निक्खिप्पति निक्खेवो तु चउको वक्को दवं तु भासदवाई। भावे भासासद्दो तस्स ये एगट्ठिया इणमो॥१॥१७१ ॥ ' निक्खेवो तु चउक्को गाधा । नाम-ठवणातो गतातो। दव्ववक्कं वक्कजोग्गा दव्वा । ताणि चेव वक्कभावपरिणामिताणि निगिरिजमाणाणि तं भावं भावयंतीति भाववक्कं । वक्कएगहिताणि ॥१॥ १७१॥ 10 वकं वयणं च गिरा सरस्सती भारती य गो वाणी। भासा पण्णवणी देसणी य वैइजोग जोगे य ॥ २॥ १७२॥ वकं वयणं च गिरा० गाधा । वयियव्वं वकं । वयंति तेण अत्यमिति वयणं । णिगिरंति तामिति गिरा। सरो से अस्थि ति सरस्सती। अत्थभारं धरेतीति भारती। णिसिरिया लोगंतं गच्छतीति गो। वणयतीति वाणी। भासणेण भासा। पण्णविजति तीए इति पण्णवणी। अत्थनिदिसणे निदेसणी। 15 जीवस्स वायाकम्मं वइजोगो। सुहा- सुहजोयणं जोगो॥२॥१७२ ॥ दव्वभासा पुण इमा दव्वे तिविधा गहणे य णिसिरणे तह भवे पराघाते। भावे दवे य सुते चरित्तमाराहणी चेव ॥ ३ ॥ १७३ ॥ दारगाहा ॥ दवे तिविधा गहणे य णिसिरणे० गाधापुव्वद्धं । दव्वभासा तिविधा, तं०-गहणं णिसिरणं पराघातो य । वइजोगपरिणतस्स अप्पणो गहणसमए भासादव्योपादाणं गहणं । तेसिं चेव उर-कंठ-सिर-जिन्भा-20 मूल तालु-णासिका-दसणोडेसु जहाथाणसम्मुच्छिताणं विसज्जणं निसिरणं । निसिडेहिं विघट्टिताणं तप्पाजोग्गाण दव्वाण भासापरिणती पराघातो। एसा दबभासा।[भावभासा] इमेण गाहापच्छद्धेण भण्णति-भावे दव्वे य सुते. अद्धगाधा । परावबोधायिकयाभिप्पायस्स सयमवधारितत्थस्स वेदणादिव परं गर्म अप्पसवित्तिरूवं वयणपणिधाणं भावभासा। सा तिविधा, तं जधा-दव्वभावभासा सुतभावभासा चरित्तभावभासा। दव्वविभावणं दवभावभासा, जधा घडग्राहकघडविण्णाणं ॥३॥१७३॥ सा आराहणाति चतुविधा आराहणी यु दव्वे सचा मोसा विराहणी होति । सच्चामोसा मीसा असचमोसा य पडिसेधो ॥४॥ १७४ ॥ आराहणी यु० गाधा । जधत्थं दव्वं आराधेति दव्वाराधणी सचा। तन्विवरीया दवविराधणी मोसा । तथा अण्णहा य पडिवायेति आराहणी-विराहणी सचामोसा । आराधण-विराधणविरहितं [ पडिसे 30 धनिमित्तं अत्थसमूहमसच्चामोसा ॥४॥ १७४ ॥ तं सच्चं दसविधं १ उ वी० सा• हाटी ॥ २ भारही सा• वृद्ध० ॥ ३ वयजोग सा०॥ ४ संपुच्छिताणं मूलादर्शे ॥ ५ परावबोधादिकृताभिप्रायस्य ॥ ६उ खं० पु. वी. सा. हाटी। Jain Education Intemational Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [सत्तमं वक्कसुद्धिअज्झयणं जणवत १ समुति २ दृवणा ३ णामे ४ रूवे ५ पडुच्चसच्चे ६ य । ववहार ७ भाव ८ जोगे ९ दसमे ओवम्मसच्चे १० य ॥५॥१७॥ दारं । जणवत समुति. गाधा । भिण्णदेसिभासेसु जणवदेसु एगम्मि अत्थे संदेण-वंजण-कुसण-जेमणाति भिण्णमत्थपञ्चायणसमत्थमविप्पडिवत्तिरूवेणेति जणवदस १। कुमुद-कुवलय-तामरसा-अरविन्दादीण समाणे 5 पंकसंभवे गोपाल-बालातिसम्मतमरविंदं पंकजमिति समुतिसचं २। गणितोवतेसट्ठाणसंभवेण सयक्खनिक्खेवाति ट्ठवणासचं ३। जीवैस्स अजीवस्स वा तदत्थसंबोधगं संविक्करण (? बोधगसन्निधिकरणेण) सच्चं इति नामसच्चं ४ । अतग्गुणस्स तधारूवधारणं जधा उप्पट्टणपव्वतिस(? स्स) रूवसचं ५। समयपतिद्वितरूवं परापेक्खं, जधा अणामिगाए काणंगुलिं मज्झिमंगुलिं च प्रति दिग्धता हस्सता य एवमादि पडुचसचं ६ । 'पव्वओ डज्झति, गलति भायण'मिति पव्वयत्थं तणं डज्झति ण पाधाणणिचयायि, भायणातो 10 उदगं गलति, 'भवति एवं लोकव्यवहारो' त्ति ववहारसच्चं ७ । अँधाभिप्पायवदणंतरालावो-घडविवक्खाया पडाभिधानं, भावो तहावस्थित इति भावसचं ८। परसंजोगेण तदभिलावो जधा-छत्रजोगेण छत्री, एवमाति जोगसञ्चं ९। गुणेक्कदेसेण सारिक्खोववातणं-जहा चन्द्रमुही देवदत्ता इति ओवम्मसचं १०॥५॥१७॥ मोसा वि दसविधा, तं० कोघे १माणे २ माया ३ लोभे ४ पेजे ५ तहेव दोसे ६ य । हास ७ भये ८ अक्खाइय ९ उवघाते णिस्सिता १० दसमा ॥ ६॥१७६ ।। दारं। __ कोधे माणे० गाधा । जं कोधाभिभूतो विसंवातणाबुद्धीए किंचि सच्चेण परं पत्तियावेंतो सच्चमसचं वा वदति तस्स आसयविवत्तियो तं घुणकतक्खरपडिरूवगमिवाणक्खरसच्चं मुसा, जधा-कोति धीयाराती साधुणा पंथेमापुच्छितो विसंवादेति, अवणं वा वदति, एवं माणातिविभासा, एसा कोधणिस्सिता १। जं अत्तुक्कोसेण अभूतमवि पभूतं तवाति पगासेति एसा माणनिस्सिता २ । मायाकारगचक्खुमोहणसगडगिलाणाति मायाणिस्सिता ३ । 20 वणिजातिकूडमाणं समयकरणं वा लोभणिस्सिता ४ । अतिपेम्मेण 'दासो धं तव एवमादि चाडुकरणं पेजनिस्सिता ५। पडिनिविट्ठस्स तित्थकरादीण वि अपवातकरणं दोसनिस्सिता ६ । परिहासपुव्वं पिता वि एतारिसेण वाधिणा विणट्ठ इति हासनिस्सिता ७। भये णाणाविधचाडुवयणे पलवतीति भयनिस्सिता ८ । अक्खाइयासु अप[चक्खवत्थुगतमणेगकुच्च( १ च्छ- )सोभावयणमुण्णीयते अक्खातियानिस्सिता ९ । अभक्खाणवयणमुपघातनिस्सिता १० ॥ ६॥ १७६ ॥ मोसा गता । सच्चामोसा इमा दसविधा, तं० उप्पण्ण १ विगत २ मीसग ३ जीव ४ मजीवे ५ य जीवअज्जीये ६। तहणंतमीसिया ७ खलु परित्त ८ अद्धा ९य अद्धद्धा १० ॥७॥१७७ ॥ दारं । उप्पण्ण विगत मीसग० गाधा । उद्दिस्स गामं णगरं वा दसण्हं दारगाणं जम्मं पगासेंतस्स ऊणेसु अधिएसु य एवमादि उप्पण्णमीसिया १। एवमेव मरणकधणे विगतमीसिया २। जम्मणस्स मरणस्स य १ सम्मय २ खं० पु० वी० सा• हाटी० । सम्मुयि २ वृद्ध०॥ २ "तत्थ जणवयसचं नाम जहा एगम्मि चेव अभिधेये अत्थे अणेयाणं जणबयाणं विप्पडिवत्ती भवति, ण च तं असचं भवति, तं०-पुव्वदेसयाणं पुग्गलि ओदणो भण्णइ, लाड-मरहट्ठाणं कूरो, द्रविडाणां चोरो, अन्ध्राणां कनायु, एवमादि जणषयसचं भवति ।" इति वृद्धविवरणे ॥ ३ विन्दुघणसमाणे मूलादर्श ॥ ४"ठवणासचं नाम जहा असं निक्खिबइ, एसो चेव मम समयो एवमादि।" इति वृद्धविवरणे । “स्थापनासत्यं नाम अक्षरमुद्राविन्यासादिषु, यथा-माषकोऽयम् , कार्षापणोऽयम् , शतमिदम् , सहस्रमिदमिति ।" इति हारि० वृत्तौ। गणितोपदेशस्थानसम्भवेन शताक्षनिक्षेपादि स्थापनासत्यम् ॥ ५"नामसचं नाम जं जीवस्स अजीवस्स वा 'सर्च' इति नाम कीरइ, जहा-सचो नाम कोइ साहू एवमादि ।। रूबसचं णाम जो असाधु साहुरूवधारिणं दहुँ भणइ दीसइ वा ५।" इति वृद्धविवरणे ॥ ६ कनिष्ठिकाझुलिमित्यर्थः ।। ७ पाषाणनिचयादि ॥ ८ यथाभिप्रायवचनान्तरालापः ॥ ९पंथवापुच्छिओ मूलादर्शे ॥ १० दासोऽहं तव ॥ ११ अप्रत्यक्षवस्तुगतमनेककुत्स्य-शोभावचतमुनीयते ॥ १२ तहऽणतमीसगा खलु परि पु० वी० सा• हाटी । तह मीसिया अर्णता परि वीसं० ॥ 20 Jain Education Intemational Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजुत्तिगा० १७५-८१] दसकालियसुत्तं । १६१ कतपरिमाणस्सोभयकधणे विसंवायणे य उप्पण्णविगतमिस्सिता ३। जीवंत-मतयसंख-संखणतायिरासिदरिसणे 'अहो ! जीवरासि' त्ति भणंतस्स 'जीवंतेमु सचं, मतेसु मोसं' ति जीवमीसिया ४ । एत्थ चेव बहुसु मतेसु 'अहो ! अजीवरासि' त्ति भणंतस्स [ 'मतेसु सचं, ] जीवंतेसु मुसा' इति अजीवमीसिया५। सव्वं मतममतं वा मीसमवधारेंतस्स रासी जीव[अ]जीवमीसिया ६। मूलगाति अणंतकायं तस्सेव परिपंडुरपत्तेहिं अण्णेण वा वणस्सतीकायिएण मिस्सं दट्टण 'एस अणंतकायो' ति भणंतस्स अणंतमीसिया ७ । तमेव समुक्खातमेतं परिमिलाण-5 ममिलाणमज्झे रासीकतं 'परित्त' इति भणंतस्स परित्तमीसिया ८ । अद्धा कालो, सो दिवसो रायी वा, जो तं मिस्सीकरेति, परं तुरावेतो दिवसतो भणति-'उटेह, रत्ती जायति' एसा अद्धमीसिया ९। तस्सेव दिवसस्स रातीए वा एगदेसो अद्धद्धा, तं पढमपोरिसिकाले तहेव तुरितं 'मज्झण्हीभूतं' ति भणंतस्स अद्धद्धमीसिया १०॥७॥१७७॥ असच्चमोसावसरो । सा दुवालसविधा, तं०-इमाहिं दोहिं गाहाहिं अणुगंतव्वा । तंजहा आमंतणि १ आणमणी २ जायणि ३ तह पुच्छणी ४ य पण्णवणी ५। 10 पञ्चक्खाणी भासा ६ भासा इच्छाणुलोमा य ७॥८॥ १७८ ॥ अणभिग्गहिता भासा ८ भासा य अभिग्गहम्मि बोधव्वा ९। संसयकरणी भासा १० वोकड ११ अव्वोकडा १२ चेव ॥९॥ १७९॥ आमंतणि आणमणी० गाहा । अणभिग्गहिता भासा. गाधा । हे देवदत्त ! इति आमंतणी १। कजे परस्स पवत्तणं, जधा 'इमं करेध' ति आणमणी २ । कस्सति वत्थुविसेसस्स 'देहि' 15 त्ति मग्गणं जायणी ३ । अविण्णातस्स संदिद्धस्स वा अत्थस्स जाणणत्थं तदभियुत्तचोयणं पुच्छणी ४। विणेयस्सोवदेसो, जधा-"पाणवधातो नियत्ता भवंति दीहादया अरोगा.य ।" [ एवमादि पण्णवणी] ५ । जातमाणस्स पडिसेधणं पञ्चक्खाणी। कजे पँडिवातितस्स 'तहा भवतु, ममावि पढममभिप्पेयं' ति इच्छाणुलोमा ७। अत्थाणभिग्गहेण बालुम्मत्तप्पलाव-हसियायि अणभिग्गहिया ८। घडातिअत्थपडिवातणाभिग्गहेण अभिग्गहिता ९ । एका वाणी अणेगाभिधेया, सेंधवादिसद्द इव पुरिस-वत्थ-लवण-वाजिसु पवत्तमाणा 20 संसयकरणी १० । घडातिलोगप्पसिद्धसद्दत्था वोकडा ११ । अंतिगभीरसद्दत्था ललक्खरपयुत्ता य अवि. भावितत्था अव्वोकडा १२ ॥ ८ ॥ १७८॥९॥ १७९ ॥ उक्ता असच्चमोसा । पुणो सबा वि य सा दुविधा पज्जत्ता खलु तहा अपजत्ता। पढमा दो पजत्ता उवरिल्ला दो अपजत्ता ॥ १० ॥ १८० ॥ दारं । सव्वा वि य सा दुविधा गाहा । चतुविधा एसा भासा दुविहा संभवति, तं०-पज्जत्तिगा25 अपजत्तिगा य । अत्थावधारणसमत्था पजत्तिगा, तविवक्खिया अपजत्तिगा। सच्चा मोसा य आराहणविराहणरूवेण पञ्जत्तियाओ । उवरिला दो अणवधारियाराहण-विराधणरूवातो त्ति अपज्जत्तियाओ ॥१०॥ ॥१८० ।। एसा दव्वभावभासा । इमा सुतभावभासा सुतधम्मे पुण तिविधा सच्चा मोसा असचमोसा य। सम्मदिट्ठी तुं सुते उवयुत्तो भासए सचं ॥ ११ ॥ १८१॥ 30 सुतधम्मे पुण तिविधा० अद्धगाधा । सुतं पढंतस्स तिविधा भासा संभवति-सचा मोसा असच्चमोसा । तत्थ सच्चाए इमं गाहापच्छद्धं-सम्मदिट्टी तु सुते उवयुत्तो भासए सचं ॥ ११ ॥ १८१ ॥ १ जीवन्मृतकशङ्ख-शङ्खनकादिराशिदर्शने ॥ २ समुत्खातमात्रम् ॥ ३ तुवावेंतो मूलादर्श ॥ ४ आणवणी पु० वी० सा० ॥ ५वोयड ११ अब्बोयडा पु० वी० सा• वृद्ध०॥ ६ दीर्वायुष्काः ॥ ७ याचमानस्य ॥ ८ प्रतिपादितस्य ॥ ९ अतिराभी मूलादर्श ॥ १० उ सुओवउत्तो जं भासई सञ्चं पु० वी० । उ सुओवउत्तो सो भासई सच खं० सा. हाटी.॥ ११ सञ्चामोसाए इमं मूलाद* ॥ दस० सु. २१ Jain Education Interational Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [सत्तमं वकसुद्धिअज्झयणं मोसा पुण___सम्मद्दिट्टी तु सुतम्मि अणुवयुत्तो अहेतुगं चेव । जं भासति सा मोसा मिच्छादिही वि य तहेव ॥ १२ ॥ १८२ ॥ सम्मट्ठिी तु सुतम्मि० गाधा । जया तु सम्मट्टिी सुते अणुवयुत्तो अहेतुं भासति तता 5 मोसा । तं जहा-तंतवो घडकारणं, वीरणा पडस्स, एवमादि सम्मदिट्ठिणो वि भवति मोसा। मिच्छादिट्ठी पुण पयत्थविवरीयावधारणेण उवयुत्तो अणुवउत्तो वा मोसं भासति ॥ १२ ॥ १८२ ॥ भवति तु असच्चमोसा सुतम्मि उवरिल्लए तिणाणम्मि। जं उवउत्तो भासति, एत्तो वोच्छं चरित्तम्मि ॥ १३ ॥ १८३ ॥ दारं । भवति तु असचमोसा गाधा । सुतनाणमामंतणि-पण्णवणीमातिनिययमिति सुतणाणोवयुत्तस्स 10 वायणाति असच्चामोसा, ओहि-मणपजव-केवलणाणिवयणं व, एस सुतभावभासा ॥ १३ ॥ १८३ ॥ चरित्तभावभासा पुण तं० पढम-वितिया चरित्ते भासा दो चेव होंति णायचा । सचरित्तस्स तु भासा सच्चा, मोसा तु इयरस्स ॥ १४ ॥ १८४ ॥ दारं । पढम-बितिया चरित्ते. गाहा । सच्चा मोसा य चरित्ते भवंति । जं सचं मोसं वा भासंतस्स चरित्तं 15 सुज्झति सा सच्चा, जाए ण सुज्झति सा मोसा । जं वा भासं भासंतो चरित्तीभवति सा सच्चा, जमचरित्ती सा मोमा ॥ १४ ॥ १८४ ॥ वक्कं भणितं । सुद्धी भण्णति णाम ढवणासुद्धी दवसुद्धी य भावसुद्धी य। एतेसिं पत्तेयं परूवणा होति कायव्वा ॥ १५ ॥ १८ ॥ णामढवणा० गाहा ॥ १५ ॥ १८५ ॥ णाम-ठवणाणंतरमिमा दव्वसुद्धी, तं०20 तिविधा य दव्वसुद्धी तद्दव्वा-ऽऽदेसतो पहाणे य। तेहव्वं आदेसो अणण्णमीसा हवति सुद्धी ॥ १६ ॥ १८६ ॥ तिविधा य दवसुद्धी० गाहापुव्वद्धं । तं०-तद्दव्वसुद्धी आदेससुद्धी पहाणसुद्धी । तत्थ तदव्वसुद्धी आदेससुद्धी य इमेण गाधापच्छद्धेण भण्णति तद्दव्वं आदेसो० अद्धगाधा । सुवण्णाति सुद्धमसंजुत्तं दव्वंतरेण तहव्वसुद्धी। आदेसदव्वसुद्धी दुविधा-अण्णत्ते अणण्णत्ते य । तत्थ अण्णत्ते अमलिणवसणो भण्णति सुद्धवत्थो । अणण्णत्ते सुद्धदंतो ॥ १६ ॥ १८६ ॥ पधाणदव्वसुद्धी वण्ण-रस-गंध-फासे समणुण्णा सा पहाणओ सुद्धी। तत्थ तु सुकिल मधुरा तु सम्मया चेव उक्कोसा ॥ १७॥१८७ ॥ वण्णरसगंधफासे. गाधा । वण्ण-रस-गंध-फासेसु समणुण्णा य, समाणजातीयसमुक्करिसो यदुक्तम् । तत्थ वण्णे सुक्किलो पधाणो, गंधेसु सुरभी, रसेसु मधुरो, फासेसु मउय-लहुय-णिभुण्हा । पुरिसा30 भिप्पायतो वा जो जस्स सम्मतो इति पधाणदवसुद्धी । एसा दव्वसुद्धी ॥ १७ ॥ १८७॥ १ सम्मद्दिट्टी सुतं तु० गाधा मूलादर्श ॥ २ हवइ उ खं० पु. वी. सा. वृद्ध० ॥ ३ णामं ठव खं० वी० पु. सा०॥ ४ उख० पु. वी. सा. हाटी. वृद्ध० ॥ ५ तद्दव्वगमाएसो वी० सा० । तद्दयगमादेसे खं० । तद्दविगमाएसो पु० । तहब्विय आदेसो वृद्ध०॥ ६ फासेसु मणुण्णा ख० हाटी०॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ णिज्जुत्तिगा० १८२-९२ ] दसकालियसुत्तं । एमेव भावसुद्धी तम्भावा-ऽऽदेसतो पधाणे य। तब्भावगमाएसो अणण्णमीसा हवति सुद्धी ॥ १८ ॥१८८ ॥ एमेव भावसुद्धी० गाधापुव्वद्धं । एवमिति प्रकारवयणं, जधा दव्वसुद्धी तिविधा तथा भावसुद्धी वि, तं०-तब्भावसुद्धी आदेसभावसुद्धी पधाणभावसुद्धी य । तत्थ तब्भावसुद्धीए आदेसभावसुद्धीए य इमा तन्भावगमाएसो अद्धगाहा-जस्स जम्मि तिव्वो अणुगतो भावो, जधा-तिसियस्स पाणियम्मि, सा तब्भावसुद्धी । । आदेस एव सुद्धी दुविहा-अण्णत्ते अणण्णत्ते य । अण्णत्ते जहा सुद्धो भावो एतस्स साहुणो, अणण्णत्ते जधा कोधादीहिं अणाउलचित्तो सुद्धो एस साधू ॥ १८ ॥ १८८ ॥ पहाणभावसुद्धी दसण-नाण-चरित्ते तवोविसुद्धी पधाणमातेसो। जम्हा तु विसुद्धमलो तेण विसुद्धो भवति सुद्धो ॥ १९॥ १८९ ॥ दंसणनाणचरित्ते. गाहा । दंसणादीणि सव्वपहाणाणि पहाणभावसुद्धी । दंसण-नाणप्पहाणभावसुद्धी1 खाइगं दंसणं नाणं च । चरित्तप्पहाणभावसुद्धी अहक्खातं चरित्तं । अब्भंतरतवे सम्ममाराधणा तवप्पहाणभावसुद्धी पधाणमातेसो, जतो दंसणादीहि परमसुद्धेहिं विमुद्धकम्ममलो भवति सुद्धो । एत्थ भावसुद्धीए अहिगारो, सेसा उच्चारिततुल्ल त्ति परूविता ॥ १९ ॥ १८९ ॥ भणिता सुद्धी। अधिकारो वक्कस्स । वक्कस्स वक्केण वा सुद्धी वक्कसुद्धी, तीसे निरुत्तगाहा जं वकं वदमाणस्स संजमो सुज्झई, ण पुण हिंसा। ण य अत्तकलुसभावो, तेण इहं वक्कसुद्धि त्ति ॥ २०॥ १९ ॥ जं वकं वदमाणस्स० [गाहा] । जं जधाभूतमजहाभूतं वा वदमाणस्स संजमो सुद्धो भवति, ण पुण हिंसा, ण य दुभणित-पच्छातावाति तेण वकसुद्धी । एवं सद्भयो हितं सत्यमिति ॥ २० ॥ १९ ॥ वतछक्कातिणियमितकायचेगुस्स वायिकदोसपरिहरणत्थं विसेसिजति वयणविभत्तीकुसलस्स संजर्मम्मी उवडियमतिस्स । दुभासितेण होज्ज हु विराधणा तत्थ जतितवं ॥ २१ ॥ १९१ ॥ वयणविभत्तीकुसल० गाधा । सच्चा-ऽसच्चवयणविभागे कुसलस्स तस्सेवंगुणस्स संजमम्मि उवडियमतिस्स थितचेतसो वि तत्थ तध वि दुभासितेण भवे विराधणा इति वक्कसुद्धीए सुद्ध जतितव्वं ॥ २१ ॥ १.१ ॥ 'वयणं नियमेणमणेगविधं दुरहिगम' ति कोति भणेज-वरं मोणं, मोणमवि जधा अणुवाययो दोसकारी भवति तमुण्णीयते वयणविभत्तिअकुसलो वयोगतं बहुविधं अजाणतो। जति वि ण भासति किंची ण चेव वैतिगुत्तयं पत्तो॥ २२ ॥ १९२ ॥ वयणविभत्तिअकुसलो. गाधा । वयणविवेगे अणिउणो वयोगतं असच्चामोसाति वक्ष्यमाणं [ बहुविधं ] बहुप्पगारं अयाणंतो, जतिसद्दो अणभुवगमे, अविसद्दो तं विसेसेति, सो जति वि ण भासति तहअक्खिणिकोय-पाणिविहारातीहिं विकारहिं अत्थं पञ्चायेंतो ण भवति वतिगुत्तो ।। २२ ॥ १९२ ॥20 15 20 25 १ सिद्धोखं• हाटी.॥ २ मम्मि य उवद्विय पु. वृद्ध० । मम्मी समुजय हाटी.॥ ३°जा वि. वृद्ध०॥ ४ किंचीतह विण वयि वृद्ध० ॥ ५वयिगु वृद्ध । वइगु खं० । वयगु पु. वी. सा.॥ Jain Education Intemational Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [ सत्तमं वक्कसुद्धिअज्झयणं तत्थ वियाणगस्स तु एस गुणो जधा वयणविभत्तीकुसलो वयोगतं बहुविधं वियाणंतो। दिवसमवि भासमाणो अभासमाणो व वइगुत्तो ॥ २३ ॥ १९३ ॥ वयणविभत्तीकुसलो. गाधा । वयणविभागनिउणो पुण बहुविध वयोगतं विसेसेण जाणतो, 5 अतिवृत्तवयणमिदं । दिवसं अवि भासमाणो अभासमाणो वा आतारेहि उवरोधमदाएंतो भवति वइगुत्तो ॥ २३ ॥ १९३ ॥ तस्स कुसलस्स विणेयमतिणो जधाविधीमुपदेसं दातुमाणवेति गुरवो-वच्छ ! भणितं च वक्ष्यमाणं च सिद्धान्तोवदेसं पुचि बुद्धीएँ पासित्ता ततो वक्कमुदाहरे । अचक्खुओ व णेतारं बुद्धिमण्णेउ ते गिरा ॥ २४ ॥ १९४ ॥ ॥ वकसुद्धिनिजुत्ती समत्ता ॥ पुल्विं वुद्धीए पासित्ता० सिलोगो । पुब्बिं पढम बुद्धीए मतीए पासित्ता आलोएउं ततो तदणंतरं वकमुदाहरे वंदणमेयं वदेज्जा । "उदाहरणेण सुगममत्थो पडिवजिज्जइ" त्ति सिलोगपच्छिमद्धेण तं भण्णति-अचक्खुओ व णेतारं जधा अंधो पडिकड्डगंतप्पणीयस्स खेममिति गच्छंतमणुगच्छति एवं तव समिक्खभाविणो णिरवातं बुद्धिमणुगच्छतु गिरा ॥ २४ ॥ १९४ ॥ णामनिप्फण्णो समत्तो । इदाणिं 15 सुत्तालावगनिष्फण्ण-सुत्तफासियनिजुत्तीपडिसमाणणत्थं सुत्तमुच्चारेतव्वं । तं पुण इमं___३१४. चतुण्हं खलु भासाणं परिसंखाय पण्णवं ।। दोण्हं तु विजयं सिक्खे दो ण भासेज सबसो ॥ १॥ ३१४. चतुण्हं खलु भासाणं० सिलोगो । चतुण्हं ति संखासद्दो छट्ठीबहुवयणंतो, सा य णिद्धार[णलट्ठी। भासासमुदायायो जासिं विजयो सिक्खितव्यो, पुणो जोतो ण भासितव्वाओ । खलुसद्दोऽवधारणे, 20 सव्वो णिसमुदायो चतुविधत्तणं णातिवत्ततीति अवधारिजति । अत्थं वंजयतीति भासा, तासिं भासाणं समंततो जाणिऊण परिसंखाय पण्णवं बुद्धिमं । स एवंगुणो दोण्हं तु एवंपरिसंखाताण, तुसद्दो पिसणातिविसेसणे. विजयो समाणजातियाओ णिकरिसणं, जथा बितियो समिणयो. तत्थ वयणीया-ऽवयणीयत्तण विजयं सिक्खे । केसिंचि आलावओ-"विणयं सिक्खे" तेसिं विसेसेण जो णयो भाणितव्वो तं सिक्खे । दो बिय-ततियाओ ण भासेज सव्वसो सव्वावत्थं ॥१॥ 25 अधुणा सच्चाए विजयो सच्चामोसाए य सव्वहा निसिद्धाए विसेसो अववातो समयमारभते - ३१५. जा य सच्चा अवत्तव्वा सच्चामोसा य जा मुसा ।। जो जा बुद्धेहिऽणाइण्णा ण तं भासेज पण्णवं ॥ २ ॥ १ दिवसं पि भासमाणो तहा वि वयगुत्तयं पत्तो खं० पु. वी. सा. हाटी० वृद्ध० ॥ २ आचारेषु उपरोधमदर्शयन् ॥ ३ अयं नियुक्तिश्लोको वृद्धविवरणे नास्ति ॥ ४°ए पेहित्ता पु० सा• हाटी० ॥ ५ पच्छा वक्क खं० पु० वी० सा० हाटी० ॥ ६ वचनमेवं वदेत् ॥ ७विणयं अचू० विना। विणयं अचूपा० ॥ ८ भाषासमुदायाद् यासां विजयः शिक्षितव्यः, पुनर्या न भाषितव्याः ॥ ९ जावो ण मूलादर्श ॥ १० ध्वनिसमुदायः॥ ११ "द्वाभ्या' सत्या-ऽसत्यामृषाभ्याम् , 'तुः' अवधारणे, द्वाभ्यामेवाऽऽभ्यां 'विनयं' शुद्ध प्रयोग विनीयतेऽनेन कमति कृत्वा 'शिक्षेत' जानीयात् । 'द्वे' असत्या-सत्यामृषे न भाषेत 'सर्वशः सर्वः प्रकार रिति ।" इति हारि० वृत्ती। १२ णवत्तवा जे०॥ १३ जा इ बु° खं ४ जे० । जा य वु खं १-२३ शु० वृद्ध० ॥ १४ बुद्धेहऽणाइण्णा खं १। बुद्धहिं नाऽऽइण्णा खं ४ जे०॥ Jain Education Intemational Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ३१४-१८ णिज्जुत्तिगा० १९३-९४ ] दसकालियसुत्तं ३१५. जा य सच्चा अवत्तव्वा० सिलोगो।जा इति उद्देसवयणं, चसद्दो समुच्चये, सच्चा अवत्तवा समुद्देसादिनिगृहणं । सच्चामोसा य एसा सच्चामोसा तत्थ जो विभागो मोसं तं एवं एयं (? पयं पयं) सच्चाए अवत्तव्वं सच्चामोसाए य जो विभागो मोसा । समासतो चतुम्विहाए भासाए जा जा बुद्धेहिं जाणएहिं अणाइण्णा अणायरिया ण तं भासेज पण्णवं पुव्वभणितं ॥२॥ __णिसेहो भणितो । विधिमुहेण सेसनिसेहणत्थमिदं भण्णति३१६. असच्चमोसं सच्चं च अणवजमकक्कसं । समुप्पेहितऽसंदिद्धं गिरं भासेज पण्णवं ॥ ३ ॥ ३१६. असच्चमोसं सच्चं च० सिलोगो। असच्चमोसा आमंतणादी, सच्चा आराहणी, तं असच्चमोसं सच्चं चेति । चसदेण दो वि समुच्चिऊण तत्थ अणवजं अमम्म-दुम्मणाति अकक्कसं भणितिविसेसेण अणिडुरं, प्रत्यग्रं वा कक्कसं जं अपुल्वमिव निद्दुत्त्तणेण, तमुभयमवि समुप्पेहित अभिसमिक्ख एवं समिक्खित-10 मसंदिद्धं गिरं भासेज पण्णवं ॥ ३ ॥ सावज-सकिरियातिविसेसणत्थं पुणो भण्णति३१७. एतं च अटुं अण्णं वा जं तु णामेति सासयं । सभासं सच्चमोसं पि तं पि धीरो विवजए ॥ ४ ॥ ३१७. एतं च अटुं अण्णं वा जं तु णामेति सासयं० सिलोगो । एतमिति सावजं कक्कसं च, अण्णं सकिरियं “अण्हयकरी छेदकरी"[ ] एवमादिअत्थाधारं वयणमिति इहमत्थग्गहणं । 15 जमिति उद्देसवयणं, तुसद्दो विसेसणे, कारणे जयणाए किंचि भासेन्ज, सासतो मोक्खो तं णामेति भजति । जं मोक्खसाहणविग्धभूतत्तणेण भासा जा अप्पणो भासा सा पुण साधुणो अब्भणुण्णात त्ति सच्चा, तं सभासामसच्चामोसामपि तं पढममन्भणुण्णातामवि 'मोक्खविग्धभूत' त्ति तं पि धीरो विवजए॥४॥ अप्पदुद्रुणावि भावेण वितहपरिहरणत्थमिदं भण्णति३१८. वितहं पि तहामुत्तिं जं गिरं भासते णरो । तम्हा से पुट्ठो पावेणं किं पुणो जो मुसं वदे ? ॥ ५ ॥ ३१८. वितहं पि तहामुत्तिं० सिलोगो । अतथा वितहं अण्णहावत्थितं, अविसद्देण केणति भावेण तधाभूतमवि मोत्तिं सरीरं तम्विहणेवच्छाति, जहा पुरिसमित्थिनेवच्छं भणति 'सोभणे इत्थी' एवमादि "पुरिसादीया धम्मा" [ ] इति णरवयणं । तम्हा ततो वयणातो स इति भासमाणनिद्देसो, पुट्ठो १“[जा य सचा अवत्तब्वा० सिलोगो]। जाय इति अणिहिट्ठा, अवत्तव्या पुश्वभणिया, ण वत्तव्वा अवत्तव्वा, सावज ति वुत्तं भवइ । तं अवत्तव्यं १ मोसं २ सच्चामोसं च ३ एयाओ तिणि वि, चउत्थी वि 'जा य बुद्धेहिऽणाइण्णा 'गहणे असच्चामोसा वि गहिता, उक्कमकरणे मोसा वि गहिता, एवं बंधाणुलोमत्थं, इतरहा सच्चाए उवरि मोसा भाणियब्वा। "गंथाणुलोमताए विभत्तिमेदो व वयणभेदो वा । थी-पुंसलिंगभेदो व होज्ज अत्थं अमुचंतो ॥१॥" जा य बुद्धहऽणाइण्णा ण तं भासेज पण्णवं । तो तासिं चउण्हं भासाणं वितिय ततियाओ नियमान वत्तव्वाओ, पढम-चउत्थीओ जा य बुद्धे हऽणाइण्ण ति, तत्थ वुद्धा तित्थकर-गणधरादी तेहिं णो आइण्णा अणाइण्णा । अणाचिण्णा णाम नोवदिट्ठा भासिया वा। बुद्धा हि भगवंतो ण सर्व सच्चमायरंति, जधा-अस्थि केइ गाहा पक्खी वा दिट्ठा!, तत्थ भणंति-णस्थि । असच्चामोसाए य जाओ सावजाओ आमंतणादिणीओ ताओ अणाचिन्नाओ बुद्धाणं ति, उच्चेण वा सद्देण परियट्टणं रातीए, एवमादि जं सावजं ण तं बुद्धिमता भासियव ति ॥” इति वृद्धविवरणे ॥ २ असावज हाटी.॥ ३ समुप्पेहमसं खं १-२-३-४ जे० शु०। समुपेहिय असं बृद्ध । संपेहियमसं हाटी० ॥ ४ च खं ३-४ ॥ ५ तहामोत्ति खं २-४ जे. शु०॥ ६ सो अचू० विना ॥ ७ पुण खं १-४ शु० हाटी० वृद्ध० । पुणं खं २-३ ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ णिज्जुत्ति- चुणिसंजयं इति सव्वपदेसेसु अणुगतो, पात्रं पुण्णविवरीतं तेण । किं पुणो इति विसंदेहत्थं वदति तत्थ किं भाणितव्वं ? जतो एवं नेवच्छादीण य संदिद्धे वि दोसो ॥ ५ ॥ ३१९. तम्हा गच्छामो वक्खामो अमुगं वा णे भविस्सति । अहं वाणं करिस्सामि एसो वा णं करिस्सति ॥ ६ ॥ ]त्ति ३१९. तम्हा गच्छामो वक्खामो० सिलोगो । तम्हा इति पुव्वभणितो अत्थो कारणत्तेण निद्दिसति । गच्छामो त्तिणातं वट्टमाणकालो किंतु क्रियासमीवो । भणितं च - " वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा " [ पाणि० ३ । ३ । १३१ ] । बहुवयणमवि गुरुसु निचं, कयायि अप्पाणे वि, “बहूण या विहारो” [ जातिपरिग्गहेण वा कीरति । वक्खामो ति अणागतकालमेव इमं वैदणं 'वक्खामो' इति ण भाणितव्वं, जतो बहुविग्घा परिमला (?), अमुगं वा गमणाति वत्थु अम्हं भविस्सति । अहमिति अप्पाणं निद्दिसति, किंचि 10 संर्ज माहि (१दि) कारियं करिस्सामि । एसो वा तहेव परं कहयति ॥ ६ ॥ गंतव्व वयणीय - भाविकरणीयाणि अणताणीति अक्काणि समुच्चारयितुम्, अतो तेसिं सव्वेसिं साहणत्थमिदमादिग्गहणमारभ्यते— ३२० एवमादि तु जा भासा एसकालम्मि संकिता । संपतोऽतीतमट्टे वा तं पि धीरो विवज्जए ॥ ७ ॥ 5 ३२०. एवमादि तु जा भासा० सिलोगो । एवं सद्दो प्रकारवयणे । आदिग्गहणेण सर्वक्रियाविसेसा 15 सूयिया, पढण थाणा -ऽऽसणादयो । एसे अणागते काले 'समए असंववहारो' त्ति खणाती तम्मि संकिता संदिद्धा तधा अण्णा वा समाणमिति । ण केवलमेस्से काले किं तु संपते वि । संपत इति वट्टमाणो, जधा - 'वट्टमाणो मासो संवच्छरो वा एरिसो, दिय- सप्पनिप्पत्तीहिं निप्फण्णं वा एसमं ति बहुवाघाते' ण वत्तव्वं । अतीते वि एवं ण वत्तव्वं, 'अतीते एतेण गहातिविकारेण अमुकसंवच्छरो एरिसो आसि' त्ति संकिते सति ण वत्तव्वं । एवं तं पि धीरो बुद्धिमं विवज्जए ण भणेजा ॥ ७ ॥ पुर्व कालपाहणं, इदाणिं कियापाहण्णं । अथवा एतस्स चैव अत्थस्स निरूवणत्थं भण्णति 20 [ सत्तमं वक्कसुद्धिअज्झयणं भण्णति - जो सक्खं मुसं ३२१. तैहेवाणागतं अट्टं जं वऽण्णऽणुवधारितं । संकितं पडुपण्णं वा एवमेयं ति णो वदे ॥ ८ ॥ ३२१. तहेवाणागतं अहं सिलोगो । तहा तेण पगारेण पुव्वभणितेण अणागतं अहं । एसस्स अणागतस्स य विसेसो - एसो आसण्णो, अणागतो विकिट्ठो । अणागतमहं ण निद्धारेज - जधा कक्की अमुको वा 25 एवंगुणो राया भविस्सति । जं वऽण्णं अण्णं अणागतातो अतीतं, तत्थ वि जं अणुवधारितं, जहा - दिलीपादयो एवंविधा आसी । अणुवधारितं अविण्णातं । संकितं संदिद्धं । पप्पण्णं वट्टमाणं । वट्टमाणमवि संकितं ‘एवमिदं’ इति अवधारणेण णो वदे - जधा अमुको राया अण्णो वा सुता-सुतीहिं एरिसो त्ति सराग दोसवय १ अमुगं मे भ° १ ॥ २ न अयम् ॥ ३ वचनम् ॥ ४ संयमादि कार्यम् ॥ ५ 'पयाऽदीतम' जे० ॥ सूत्र टोकयोः स्थाने सर्वासु सूत्रप्रतिषु हाटी० च निम्नोद्धृतं सूत्रश्लोकत्रयं वर्तते । तथाहि अईयम्मिय कालम्मी पप्पण्णमणागए। जमङ्कं तु न जागेज्जा एवमेयं ति नो वए ॥ १ ॥ अम्मिय कालम्मि पच्चुप्पण्णमण गए । जत्थ संका भवे तं तु एवमेयं ति नो वए ॥ २ ॥ आयम्मिय कालम्मि पशुप्पण्णमणागए । निस्संकियं भवे जं तु एवमेयं ति निद्दिसे ॥ ३ ॥ कालम्म स्थाने अट्टम्म जे०, कालम्मिं खं २, कालम्मी शु० । पशुप्पण्णमणा' स्थाने पचपन्ने अणा २, पपणे मणा खं ३ | निस्संकियं स्थाने नीसंकियं खं ३ जे० । एवमेयं स्थाने थोवथोवं हाटीपा० ॥ For Private Personal Use Only ६ अष्टम नवम Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ३१९-२५] दसकालियसुत्तं । णाणि जतो विसंवादीणि । एवं रूव-रस-गंध-फासेसु अतीत-वट्टमाणा-ऽणागतकालसहचरितमासंकितं ण वते इति । सव्वत्थ 'ण सरामि, ण याणामि वा' पुच्छतस्स पडिवयणं ॥ ८॥ अतीत-वट्टमाणा-ऽणागतेसु कालेसु अणुवधारितं संकितं वा ण भासितव्वं । इमं पुण भासितव्वं--- ३२२. तहेवाणागतं अटुं जं होति उवधारितं । नीसंकितं पडुप्पण्णं थावथावाए णिदिसे ॥ ९॥ ___३२२. तहेवाणागतं अटुं० सिलोगो । तहेव तेणेव प्पगारेण अणागतं कालेणं दूरत्थं वा अत्थं जो तम्मि अत्थो वट्टति जं वा अतीतकालं उवधारितं सुणातं पडुप्पण्णकालं वा नीसंकितं । एतं वा थावथावाए णिदिसे हियए थावेउं वयणेण वा बाधिज्जमाणं पुणो पुणो थावेतुं । उवधारित-नीसंकिताण विसेसो-उवधारितं वत्थुमत्तं, नीसंकितं सव्वप्पगारं ॥९॥ ... "दोहं तु विजयं सिक्खे" [सूत्र ३१५ ] त्ति तस्स विजयस्साणेगागारपदरिसणत्थमिमं भण्णति- 10 ३२३. तहेव फरुसा भासा गुरुभूतोवघातिणी । सच्चा वि सा न वत्तवा जतो पावस्स आगमो ॥ १० ॥ ३२३. तहेव फरुसा सिलोगो। तहेवेति पढमोववण्णितप्पगारावधारणं, फरुसं लुक्खं जं णेहविरहितं वय [ण]मविसंवायणं तं फरुसमिव फरुसं, अतो सा फरुसा भासा सच्चा वि सा न वत्तव्वा इति उवरि दीविजिहिति । विद्धादीण गुरूण सध्वभूताण वा उवघातिणी, अहवा गुरूणि जाणि भूताणि महंति 15 तेसिं कुलपुत्त-बंभणत्तभावितं विदेसागतं तहाजातीयकतसंबंध दासादि वदति जतो से उवघातो भवति, गुरुं वा भूतोवघातं जा करेति रायंतेउरादिअभिद्रोहातिणा मारणंतियं, सच्चा वि सा ण वत्तव्वा किमुत अलिया? । जतो इति जम्हा एतातो भासातो पावस्स आगमो इहलोइतो अयसादि, पारलोइयो दुग्गतिगमणाति, आगमो आवातो ॥१०॥"गुरुभूतोवघातिणी सच्चा वि सा ण वत्तव्य" त्ति भणितमितं । अवि य उवघातिणी भण्णति३२४. तहेव काणं काणे त्ति पंडगं पंडगे त्ति वा। वाहियं वा वि रोगि त्ति तेणं चोरो त्ति णो वए ॥ ११ ॥ ३२४. तहेव काणं काणे त्ति सिलोगो । एगक्खिविकलो काणो, सो भिण्ण-पुष्फित-केकर-विणाडो तहा ण वत्तव्यो, तस्स अपत्तियादिदोसा मा होजा । पंडओ अपुमं, सो वि 'तुमं एरिसो' त्ति ण वत्तव्यो, त एव दोसा । कोढातिवाधितमवि ण रोगिणं भणेजा, तत्थ दोसा त एव, अधिकमणस्सासो क्रियारंभो वा । तेणो; परस्सावहारी, तमवि 'चोरो सि' त्ति ण भणेजा, तत्थ ते चेय दोसा, विणासेज वा आसुकारी भणंतर्ग, सो गेण्हणाती पावेजा । अतो न भासितव्वमेतं ॥११॥ काणातिप्रकारोपदरिसणत्थं वयणोवसंहरणणियमणत्थं च भण्णति३२५. ऐतेणऽण्णेण वऽट्टेण परो जेणुवहम्मैति । ___ आयारभावदोसेण ण तं भासेज पण्णवं ॥ १२ ॥ 20 30 १°ण वा विबज्झमाणं मूलादर्श ॥ २ भणितमिदम् ॥ ३ अयं सूत्र लोको वृद्ध विवरणे नाम्ति ॥ ४°ण अट्रेण खं १-२-३ जे० शु० । णमटेण खं ४ ॥ ५ हम्मए खं २॥ ६ दोसण खं १-२-३-४ जे० शु० हाटी.॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [सत्तमं वकसुद्धिअज्मयणं ३२५. एतेणऽण्णेण वऽ?ण सिलोगो । एतेण काणातिणा अण्णेण वा एवंजातीएण विसमणयण-वंकचिप्पिडणासा-तूपरड-किडिभिल्ल-पारदारिकादिणा, 'अत्थाधारं वयणं' इति अत्यनिदेसो । परो अप्पाणवतिरित्तो सो जेण उवहम्मति । परोवघाते अप्पोवघातो कयाति, अतो आयारभावदोसेण एतं वयणनियमणमायारो, एतम्मि आयारे सति भावदोसो पदुटुं चित्तं तेण भावदोसेण ण भासेन्ज । जति पुण 5 काण चोराति कस्सति णामं ततो भासेन्जा वि । अहवा आयारे भावदोसो पमातो, पमातेण ण भासेज पण्णवं पुव्वमुववण्णितो ॥१२॥"दोहं तु विजयं सिक्खे" ति [ मुत्तं ३१४ ] विजयाधिकारे अभाणितव्वत्तेण विणयणं । इदमवि जहा वण्णातो अवदव्वाण (?) ३२६. तहेव होले गोले त्ति साणे वा वसुले त्ति य । ____ दमए दूहए वा वि ण तं भासेज पण्णवं ॥ १३ ॥ 10 ३२६. तहेव होले गोले त्ति० सिलोगो। होले ति निट्टरमामंतणं देसीए भविलवेदणमिव । एवं गोले इति । दुच्चेद्वितातो सुणएणोवमाणदणं । वसुलो सुद्दपरिभववयणं । भोयणनिमित्तं घरे घरे द्रमति गच्छतीति दमओ रंको । दूभगो अणिट्ठो । एताणि वि अणिट्ठवयणाणि ण भासेज पण्णवं ॥ १३ ॥ ___ थी-पुरिसाणं अविसेसेण आमंतणाति भणितं । 'भत्तादिजातणासित्थीसु विसेसेण संभवति' त्ति तग्गतं विसेसर्वदणं पढममारब्भते ३२७. अजिते पज्जिते यावि अम्मो मातुस्सिय त्ति य । पितुस्सिए भागिणेजि त्ति धूते णत्तुणिए त्ति य ॥ १४ ॥ ३२७. अजिते पज्जिते यावि० सिलोगो । पितामही वा मातामही वा अज्जिता । तीसे माता पजिया। माताअभिधाणं अम्मो त्ति । मातुभगिणी मातुस्सिया। पितुभगिणी पितुस्सिया। भगिणीधूता भागिणेजी। अवञ्चमित्थी धूता । पोत्ती दोहित्ती वा णतुणी । एताणि आमंतणाणि अभिधाणाणि, "णेधाभि20 संबंधासंकादयो दोस ति। जं उवरि भण्णिहिति “इत्थियं णेव आलवे" [सुत्तं ३२८] तदिहापीति णेवं वत्तव्वं ॥१४॥ पुन्वाणंतरसिलोगतुलत्थोऽयमिति तदेवोववायणं ति भण्णति३२८. हले हले त्ति अण्णे त्ति भट्टे सामिणि गोमिणि । होले गोले वसुले त्ति इत्थियं णे आलवे ॥१५॥ ३२८. हले हले ति सिलोगो । हले अण्णे ति मरहट्टेसु तरुणित्थीसाऽऽमंतणं । हले 25 त्ति लाडेसु । भट्टे त्ति अन्भरहितवयणं पायो लाडेसु । सामिणि त्ति सव्वदेसेसु । गोमिणी गोल्लविसए। १विणयं मूलादर्शे ॥ २ विणया मूलादर्शे ॥ ३ यावि खं २-३ हाटी ॥ ४ णेवं भा' खं १-२-३-४ जे. हाटी । न तं भा शु.. अचू० वृद्ध०॥ ५-६-७ वचनम् ॥ ८ वा वि खं १ अचू. विना ॥ ९माउसिए खं ३ । माउसिय खं १-४ जे. वृद्ध । माउसिउ खं २ शु० ॥ १०पिओसिए खं ४ ॥ ११ धूया णतुणिए त्ति या जे. खं २ । धूए णत्तुणिय त्ति य खं१-३-४ । धूया णत्तुगिय त्ति य वृद्ध०॥ १२ स्नेहाभिसम्बन्धाशङ्कादयः॥ १३ णेवमाल ख १-२-३-४ शु०॥ २४"हले हलि त्ति अण्णे त्ति एयाणि वि देसं पप्प आमंतणाणि। तत्थ वरदातडे हले त्ति आमंतणं । लाडविसए समाणवयमण्णं वा आमनणं जहा हलि त्ति । अण्णे ति मरहट्रविसए आमंतणं। दोमूलक्खरगाण चाटुवयणं अण्णे त्ति। भद्रेति लाडाणं पतिभगिणी भण्णइ । सामिगी-गोमिणीओ चाटुवयणं, होले त्ति आमंतणं । जहा-'होल ! वणिओ ते पुच्छइ सयकऊ पागसासणो इंदो । अण्णं पि किर बरेसी इंदमहसतं समतिरेकं ॥ १ ॥' एवं गोल-वसुला वि महुरं सप्पिवासं आमंतणं । एतेहिं हले-हलादीहिं इत्थीतो न आलवेजा। किं कारणं? जम्हा तत्थ चाटुमादिदोसा भवंति । उक्तं च-'अतिसुतमतीवर्जुमल्पमात्रमपि प्रियम् । नैतत् प्राज्ञेन वक्तव्यं बुद्धिस्तेषां विशारदा ॥१॥” इति वृद्धविवरणे ॥ १५ तरुणस्त्रीवामन्त्रणम् ॥ Jain Education Intemational Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 सुत्तगा० ३२६-३३] दसकालियसुत्तं । १६९ होले गोले वसुले ति देसीए लालणगत्थाणीयाणि प्रियवयणामंतणाणि । एतेहि 'माधुज्जहरणीयो थीजणो' ति सव्वेहिं इत्थियं णेव आलवे ॥ १५ ॥ सति पुण कारणे अवस्सभणितव्वे इमो पयत्तो जधा___३२९. णामहेजेण णं बूया इत्थीगोत्तेण वा पुणो। जहारिहमभिगिज्झ आलवेज लवेज वा ॥ १६ ॥ ३२९. णामहेजेण णं० सिलोगो । णामं चेव णामधेनं तेण बूया, यदुक्तं भणेज । विदितगोत्ता वा गोत्तेणं गोतमातिणा । पुणो इति णाम-गोत्तयो जं अविरुद्धतरं । जहारिहं पहुत्तण-वयोविसेस-ईसरत्तादीहि जा जं अरिहति लोगे, जधा वा ण विरुज्झति तहा अभिगिज्झ संचिंतेऊण आलवेज [लवेज वा, ईसि लवणमालवणं, अभिक्खं भासणं लवणं ॥ १६ ॥ इत्थिआमंतणातिसमणंतरं पुरिसवयणं तधेव ३३०, अज्जए पज्जए वा वि बप्पो चुल्लपितु त्ति य । ___ माउला भाइणेज त्ति पुत्ता णत्तुणिय त्ति य ॥ १७ ॥ ३३०. अजए पज्जए वा वि० सिलोगो । अजग-पजगो तहेव । बप्पो जणेता । चुल्लपिता पिउकणीयसो । मातुलादयो लोगविदिता । एतेसु वि बहवे दोस त्ति तेण णो एवमालवे ॥१७॥ जहा एताणि वयणाणि वजणिज्जाणि तहा३३१. हे भो हरे त्ति अण्ण त्ति भैट्टि सामिय गोमिय । हाल गोल वसुल त्ति पुरिसं णेवमालवे ॥ १८ ॥ ३३१. हे भो हरे त्ति० सिलोगो। हे भो हरे त्ति सामण्णमामंतणवयणं । अण्ण इति मरहट्ठाणं। भट्टि-सामिय-गोमिया पूयावयणाणि निद्देसातिसु सव्वविभत्तिसु । हाल इति पहुवयणं जहा परियंदति सुण्हा गहवतिस्स पुत्ता ! तुमं सि मे राया ।। चागणडियस्स पुत्तय ! हालस्स व किं घरे अत्थि १ ॥१॥ गोल वसुल [त्ति ] जुवाणप्रियवयणं । एतेसु वि दोससंभवो त्ति पुरिसं णो एवमालवे ॥ १८ ॥३० अवस्समालवेतव्वे पुण सति३३२. णामधेजेण णं बूया पुरिसगोत्तेण वा पुणो । जहारिहमभिगिज्झ आलवेज लवेज वा ॥ १९ ॥ ३३२. णामधे ण णं० सिलोगो । पुव्ववण्णितत्थो । णवरं पुरिसाभिधाणमिह जहारिहमभिगिज्ज्ञ जो जहा मणुस्सातिगो । अयमवि विजयविसेसो ॥ १९ ॥ मणुस्सेसु लिंगविसिट्ठमामंतणाति भणितं । णेवच्छाति-25 विसेसरहितेसु तिरिएसु दुक्खं लिंगावधारणं, विसिझलिंगता य पंचेंदिएसु, ण सेसेसु ति भण्णति ३३३. पंचेंदियाण पाणाण एस इत्थी अयं पुमं । जाव णं ण विजाणेज्जा ताव जाति त्ति आलवे ॥ २० ॥ ३३३. पंचेंदियाण पाणाण. सिलोगो। सोतातिसमग्गकरणा पंचेंदिया, पाणा इति जीवा, तेसिं दूरालोए लिंगविसेसाविभासणे सति चाभिधाणकारणे ण लोक इवाविसेसितं भणेज्जा । जहा-महिसीओ चरंति 30 १माधुर्यहरणीयः ॥ २ भायणे खं २-४ ॥ ३ पुत्ते खं १-२ शु०॥ ४ हे हो हले त्ति अण्णे तिखं १-२-३-१ जे. शु० ॥ ५भट्टा जे० शु०॥ ६ वसुले त्ति खं १-२-३-४ जे० ॥ दस. सु. २२ Jain Education Intemational Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० णिज्जुत्ति- चुणिसंयं [ सत्तमं वसुद्धिअयणं अस्सा आगच्छंति, एवमविसेसाभिधाणे कयायि मिस्साणि वि भवतीति मुसा । अतो जाव णं ण विजाणेजा ताव जाति ति आलवे, जहा गोणजातीयादीणि दीसंति । एत्थ चोदेति - णणु ए[ गिंदिय - ]विगलिंदिए सु पुढविमादिसु पासाण- तुसारंगार - वायु-णग्गोह संख - कुंथु भमरातिसु पुल्लिंगप्पओगो, तहा महिया - ओस्सा - जाला- वातोलीचिंचा- सिप्पि - पिपीलि-मक्खिगातिसु य इत्थिलिंगणिद्देसो, सति णपुंसगत्तणे ण य जातिप्पयोगो पासाणजातियाति 5 तत्थ कहं ण मुसा ? | आयरिया भणति - लोगप्पसिद्धीए जणपदसच्चमिति ण दोसो | पंचिंदिएसु पुण विचित्तलिंगेसु लोगे वि नियमो अस्थि - जहा ग्राम्यपश्यसङ्गेष्वतरुणेषु स्त्री इति, तत्थ 'अयाणगा एते' त्ति परिभवदोसो संभवतीति अविजाणितूण जातिवयणं, णाते विसेसो वत्तव्वो ॥ २० ॥ थी - पुरिसतिरियाण चतुवयाण मुसापरहरणत्थमेकेकसो जहासंभवं वयणमुपदिङ्कं । समुदिताण चेवोवघातपरिहरणत्थमिदमुच्यते 10 20 ३३४. तहेव मणुस्सं पसुं० सिलोगो । तहेवेति जहा पढमं अवयणीयमिदमुद्दि मणुस्स -[ पसु - ] पक्खि-सिरिसिवेसु जातिसद्दादेगवयणं थी- पुरिस-णपुंसगाविसेसो य, जतो सव्वेसु जतणा कातव्वा । मणुस्सा विदिता । पसू गो-महिस- अविकादयो । पक्खिणो हंसादयो । सिरीसिवा सप्पादयो । एतेसु थूलोऽयमिति, धूलो पुण विपुलसरीरो । पमेदिलो पगाढमेतो, अत्थूलो वि सुक्क - मेदभरितो त्ति भण्णति । वज्झो वारिहो । 15 तत्थ मणुस्सो पुरिसमेधादिसु, पक्खि-सिरीसिवा पक्खत्थं । पायिमो पाकारिहो, एत्थ वि जहासंभवं मणुस्सादयो । एताणि उवघातजणगाणि अवयणाणीति णो वदे ॥ २१ ॥ जता पुण थूलातिसु जातणादि तदुपलक्खणेण वा अवस्साभिधाणं संभवति त्ति तदा - ३३५. पैरिवृढे त्तिणं बूया बूया उवचिते त्तिय । ३३४. तहेव मणुस्सं पसुं पक्खि वा वि सिरीसिवं । 25 थूले पमेदिले वज्झे पायिमेत्ति य णो वदे ॥ २१ ॥ ३३५. परिवूढे त्तिणं बूया० सिलोगो । “दृह दृहि वृह वृहि वृद्धौ” इति, परिवृढो मक्खणा दि परिगृहीतो । उवचितो मंसोवचएण । संजातो समत्तजोव्वणो । पीणितो आहारातितित्तो । महाकायो महासरीरो । सति अवस्सप्पयोयणे एवमालवे ॥ २२ ॥ पुवं मारणन्तियदोसभययो ण भण्णति जधा तहा परितावणादिदोसभयादिहापि — संजाते पीणिते व व महाकाए त्ति आलवे ॥ २२ ॥ ३३६. तहेव गाओ दोज्झाओ दम्मा गोरहग त्ति य । वाहिमा रहजोगे त्तिणेवं भासेज्ज पण्णवं ॥ २३ ॥ ३३६. तहेव गाओ दोझाओ ० सिलोगो । तहेवेति पढमेण अवयणीएण समाणया । गाओ दोझाओ त्ति आदिसद्दलोवो एत्थ, तेण महिसिमातीतो दोज्झाओ दुहणपत्तकालाओ । दम्मा दमणपत्तकाला, ते य अस्सादयो वि । गोजोग्गा रहा गोरहजोगत्तणेण गच्छंति गोरहगा, पंडुमधुरादीसु किसोरसरिसा गोपोतलगा अण्णत्थ वा तरुणतरुणारोहा जे रहम्मि वाहिनंति, अमदप्पत्ता खुलगवसभा वा ते वि । वाहिमा १ माणुसं पक्खि पसुं वा वृद्ध० ॥ २ सरीसिवं खं २ ० । सरीसवं खं ३ ॥ ४ ३३५-३६ सूत्रश्लोकयुग्मं वृद्धविवरणे पूर्वापर विपर्यासेन वर्त्तते ॥ ५ यावि खं १-२-३ ॥ • जोगि प्ति खं ४ ॥ ३ पाइने यत्ति नो जे० ॥ ६ जोग ति खं १-२-३ । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ lo सुत्तगा० ३३४-४०] दसकालियसुत्तं। १७१ णंगलादिसव्वसमत्था । सिग्घगतयो सदप्पा जुग्गादिवधा रहजोग्गा। इतिसद्दो प्रकारवयणे । एवमादिअधिकरणभासं दोह-वाहातिसमारंभदोस इति णेवं भासेज पण्णवं ॥ २३ ॥ सति पुणोऽवस्सं कारणे गोवयणे३३७. जुगंगवे त्ति वा बूया घेणुं रसगवे त्ति । रहस्से मेहब्बए वा वि वए संवहणे त्ति य ॥ २४ ॥ ३३७. जुगंगवे त्तिणं बूया. सिलोगो । दम्म जुगंगवं भणेज्जा, जुगं जोवणत्यो । घेणुमवि 5 रसगवि त्ति भणेजा । गो रहस्सो गोपोत्तलओ ति भणेजा । वाहिममवि महव्वयमालवे । रहजोग्गं च संवहणमिति । कमे पयोयणं नत्थि, सिलोगबंधाणुलोमं चेति । अणंतरसिलोगे गाओ दोज्झाओ पढमं, इह जुगंगववदणमादौ ॥२४॥ पंचेंदिएसु भासाविसयो भणितो । एगिदिएसु वणस्सतिकार्य प्रति भण्णति३३८. तहेव गंतुमुज्जाणं पव्वताणि वणाणि य ।। रुक्ख महल्ले पेहाय णेवं भासेज्ज पण्णवं ॥ २५ ॥ ३३८. तहेव गंतुमुज्जाणं० सिलोगो । तहेवेति पूर्ववत् । क्रीडानिमित्तं वावियो रुक्खसमुदायो उजाणं । उस्सितो सिलासमुदायो पवतो । अडवीसु सयं जातं रुक्खगहणं वणं । एताणि उज्जाणादीणि जेतिच्छयो पयोयणतो वा गंतूणं तत्थ य रुक्खे अज्जुणादयो महल्ले पेहाय पेखिऊण णेवं भासेज जमणंतरं भणिहि ॥ २५ ॥ कहं ण भासेज ? त्ति भण्णति-एवं ण भासेन्ज । जधा३३९. अलं पासायखंभाणं तोरणाणं गिहाण य ।। फलिह-ऽग्गल नावौणं अलं उदगदोणिणं ॥ २६ ॥ २३९. अलं पासायखंभाणं० सिलोगो । अलंसद्दो भूसण-पजत्ती-वारणेसु वदृति । भूसणे जधा-अलंकितो देवदत्तो। पजत्तीए-अलं मल्लो मल्लाय, पजत्तो जुद्धदाणे। वारणे-अलमतिप्रसङ्गेन । इह पजत्तिअत्थे सुदीहं उज्जु रमणि निव्वरं रुक्खं दहृण णेवं भासेज-अलमयं एगो वि एगखंभपासायकरणे, पौसादखंभो वा होज । पसीदंति जम्मि जणस्स मणो-णयणाणि सो पासादो। अलं वा एए रुक्खा पासादाणं नाणाविधकट्टकम्मकरणेसु, १0 जहा-सयकुलंगविभूसणाण तोरणाणं, चातुस्सालादीण वा गिहाण फलिहं कवाडणिरुंभणं तेसिं वा, उभयोपासपडिबंधि गिहादीकवाडनिरोधकट्ठमग्गला तेसिं वा, अणेगकट्ठसंघातकतमुदकजाणं वा णावा तेसिं वा अलं, एगकट्ठमुदगजाणमेव, जेण वा अरहट्टादीण उदकं संचरति सा दोणी तासिं वा अलं ॥२६॥ अणुवदरिसितनिदरिसणसंगहत्थमिदं भण्णति.. ३४०. पीढए चंगैबेरे य गंगेलं मैंइयं सिया । जंतलट्ठी व णाभी वा 'गंडिगा वो अलं सिया ॥ २७ ॥ १ युम्यादिवहाः॥ २ जुवंगवे अचू० वृद्ध. विना ॥ ३ रसदय ति खं २-३ शु• हाटी० बुद्धः॥ ४ य । हस्सिए म खं ४ ॥ ५ हल्लए अचू० वृद्ध० विना ॥ ६ यावि खं १-४ ॥ ७वा खं १ ॥ ८ रुक्खा महल्ल पेहाप अचू० विना ॥ ९ यदृच्छातः प्रयोजनतो वा ॥ १०°णाणि गिहाणि य खं १-४ जे० शुपा०॥ ११°वाई अखं ४॥ १२°णियं सं॥ १३ पासादचुओ वा मूलादर्शे ॥ १४ 'अलं तोरणकट्ठाणं एते रुक्खा, अलं पुरवरफलिहाणमेते रुक्खा, अलं दारयकट्ठाणमेते रुक्खा, अलं णावाकट्ठाणमेते रुक्खा, अलं उदगदोणीणमेते रुक्खा, उदगदोणी अरहस्स भवति, जीए उवरिं वंडीओ पाणिय पाडेंति, अहवा उदगदोणी घरंगणए कट्ठमयी अप्पोदएसु देसेसु कीरइ, तत्थ मणुस्सा व्हातति आयमंति वा, तयो दोसा भवंति ति।" इति वृद्यविषरणे। "तथा 'तोरणान' नगरतोरणादीनां 'गृहाणां च कुटीरकादीनाम् , अलमिति योगः । तथा 'परिघार्गलानावा वा' तत्र नगरद्वारे परिघा, गोपाटादिषु अर्गला, नौ प्रतीतेति, आसामलमेते वृक्षाः । तथा उदकद्रोणीनामलम् । उदकद्रोण्य:-अरहट्टजलधारिका इति" इति हारि० वृत्तौ॥ १५चंगबेरा य हाटी.॥ १६ णंगले खं १-२-३-४ जे. शु. हाटी०॥ १७ मइए सिया जे. शु.। मायसि वा खं ३-४ । मइयं सि-या खं १-२॥ १८दंडिगा शुपा०॥ १९ वज्जलंसियं खं ४॥ Jain Education Intemational Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ णिज्जुन-चुण्णिसंजुयं [सत्तमं वक्कसुद्धि अज्झयणं ३४०. पीढए चंगबेरे य. सिलोगो । भिसिगा-पंगुलिगा-पट्टण्हाण-पायपीढादिउवविसणगं पीढगं, एतेसिं वा अलं । कट्ठमयं समितातितिम्मणमलणं चंगेरिगासंठितं चंगबेरं । णंगलं 'सीरोवकरणं । वाहितच्छेतोवरि समीकरण-बीयसारणत्थं समं कद्रं महयं । जंतोप्पीडणं जंतलट्री। सगडादीण रहंगसण्णिबंधणकटं णाभी । 'गंडिगा चम्मारादीणं दीहं चउरस्सं कट्टगं ॥२७॥ संमाणनिद्देसमितमिति अणुप्पबंधेणेव भण्णति३४१. आसणं सयणं जाणं होजाऽलं किंचुवस्सए । भूतोवघातिणिं भासं णेवं भासेज पण्णवं ॥ २८ ॥ ३४१. आसणं सयणं० सिलोगो। आसणं पीढिकादि । सयणं पलंकादि । जाणं जुग्गादि । उवस्सयो साधुणिलयणं तत्थ बलहरणादि । आसणावत्थंभो वा “अवस्सयो” तस्स किंचि । एतेसिं अलमिति अलंसद्दो सव्वेसिं जुज्जति । तत्थ दोसा-'दंडादिलक्खणपाढओ एस साधु' त्ति वणस्सतिकायच्छेदणं, 10वणसंडाहिपती तन्निवासिणी वा देवता कुप्पेजा, अतो एवं भूतोवघातिथि भासं जीवोवघातकरिः । एवमादीहिं समाणपयत्तणमुवेति ॥ २८ ॥ छाया-पंथोवदेसादिकारणे अवस्साभिहाणे सति जतणत्थमतमुपदेसो३४२. तहेव गंतुमुज्जाणं पव्वताणि वणाणि ये । रुक्खा महल्ल पेहाए एवं भासेज्ज पण्णवं ॥ २९ ॥ ३४२. तहेव गंतुमुनाणं सिलोगो । तहेवेति जहा पुव्वं । कारणतो तिच्छाए वा गंतुमुनाणं, 15 उन्नाण-पव्वत-वणाणि तधेव पुव्ववण्णिताणि [सुतं ३३८] । रुक्खा महल्ल पेहाए त्ति पूर्ववत् । णवरं [पुचि ] पडिसेधो, इह विधाणं । एवं भासेज त्ति जयणत्थमुपदेसो ति ॥ २९ ॥ सा इमा जतणा३४३. जाइमंता इमे रुक्खा दीहा वट्टा महालया। पयायसाला विडिमा वदे 'देरिसणिय ति य ॥३०॥ ३४३. जाइमंता इमे रुक्खा० सिलोगो। विसिट्ठजातिया बकुलादयो विविधजातिया वा जातिमंता। 20 इमे इति पञ्चक्खोवदरिसणं । रुक्खा दुमपुस्फिताए [ पत्रं ७ नि. गा. १४] वण्णिता । दीहा णालिएरियादयो । वहा पूयफलिमादयो। महंता बहूण वा पक्खिमादीण आलया महालया। खंधविणिग्गता डालमूला साला जेसिं पकरिसेण जाता ते पयायसाला । महतीओ साहा विडिमा जेसिं संति ते विडिमा । पतायसदेण वा उभयं संबज्झति-पयायसाला-विडिमा । दरिसणिय त्ति य साधूण विस्समण-पंथोवदेसादिकारणे सति एवं वदे, अण्णहाँऽसव्वाधारो ॥ ३० ॥ रुक्खेसु पडिसेहो जयणा य भणिता । तप्फलेसु पडिसेहत्थमिमं३४४. तहा फलाणि पक्काणि यखंजाणि णो वदे। वेलोईमाणि टालाणि वेहिम वेति णो वदे ॥ ३१ ॥ ३४४. तहा फलाणि पक्काणि सिलोगो । तहेति पुव्वपडिसेहतुलता । पाकविसारीणि फलाणि पणसादीणि, तेसिं दरिसणे णो एवं वदेजा-पक्काणिमाणि, पलालातिपक्कं वा कातूण खातियव्वाणि किंचिदपक्काणि, सिरोव मूलादर्शे ॥ २जंतोप्फीड मूलादर्श ॥ ३“गंडिया णाम सुवण्णगारस्स भण्णइ जत्थ सुवण्णगं कुदृइ" इति वृद्ध० । “गण्डिका सुवर्णकाराणामधिकरणी स्थापनी भवति" हाटी०॥ ४ चर्मकरादीनाम् ॥ ५ समाननिर्देशमिदमिति ॥ ६ जा वा किं अचू. विना ॥ ७किंचऽवस्सए अचूपा० । किंतुवस्सए खं ४ शुपा०॥ ८ यतनार्थमयमुपदेशः ॥ ९ वा खं १॥ १० यदृच्छया ॥ ११ दीह-वट्टा अचू० वृद्ध० विना ॥ १२दंसणिय त्ति खं १। दरिसणे त्ति खं २-४ जे । दरिसणि त्ति खं ३ शु०॥ १३ हासव्वावारो मूलादर्श । अन्यथाऽसयाहारः ॥ १४ पाइख० वृद्ध०॥ १५°खज्जत्तिणो खं ४॥ १६ वेलोइयाई टाखं २ शु० हाटी•॥ १७ वेहिमाई ति खं २ शु० । वेहिमा व त्ति खं ४ ॥ Jain Education Intemational Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ सुत्तगा० ३४१-४८ ] दसकालियसुतं । जधा कलादीणि । कालतो वा पताणओतेउं वेलोइमाणि अतिपागाउलं ति बंधणतो । टालाणि जहा कवि - ट्ठादीणि अबद्धगाणि विभातसंधीणि सक्कंति पेसीकाउं, ताणि पुण टालियंबायिसु पजुज्जति । णवीकरणीयाणि अंबाण तो हिमं वेति । देवताऽधिपतिपओसा - Sऽरंभकरणदोसा इति णो एवं वदे ॥ ३१ ॥ सति पुण तदुपलक्खितपधोपदेसादिपयोयणे एवं वदेज्ज - ३४५. असंथडा इमे अंबा बहुनिवतियाफला । वएज्ज बहुसंभूता भूतरूवे त्ति वा पुणो ॥ ३२ ॥ ३४५. असंथडा इमे अंबा० सिलोगो । फलादिभरेण [ण] संथरंति वोदुमिति असंथडा, इमे इति पच्चक्खवयणं, अंबा 'फलेसु पहाण' त्ति अंबवयणं । भणितं च वररुचिणा - " अंब फलाणं मम दालिमं प्रियं" [ ]। एत्थ अंबादयोति आदिसलोपो दट्ठव्वो । बहूणि निव्वत्तियाणि फलाणि जेहिं ते बहुनि - व्वतियफला सुफलिता । बहुसंभूताणि बहूणि फलाणि ण दुव्वायहताणि तव्विहा बहुसंभूता । सुणिष्फत्तीए 10 फल- रसादिसंपण्णा भूतरूवा । पुणोसदो णिरुवघाती - अणवज्जवयणसूयणत्थं ॥ ३२ ॥ फलेसु वयणपडिसेहविधाणमुपदि । वणस्सतिविसेस एवोसहीसु इमं - ३४६. तैहेवोसहिओ पक्काओ नीलिताओ छवीतिया । 5 लाइमा भजिमाओ त्ति पिहुखज्ज ति णो वदे ॥ ३३ ॥ ३४६. तहेवोसहिओ पक्काओ ० सिलोगो । तहेवेति जहा फलादिसु तेणेव प्रकारेणं ओसहीओ 15 फलपाकपज्जन्ताओ सालिमादि [ या ]ओ ताओ पाकपत्ताओ, ण वा पाकपत्ता णीलियाओ चेव, एवं णो वदेख त्ति सिलोगपज्जन्ते भण्णिहिति तं पत्तेयं परिसमप्पति । छवीओ संबलीभो णिष्फावादीण, ताओ वि पक्काओ नीलिताओ वा णो वदेज्जा । लुणणजोग्गा लाइमा । भुंजणजोग्गा अपक्कचणगादि भज्जिमा । कुंभेलसालिमाति पहुखज्जा । एत्थ वि लुणणा-ऽऽरंभ - थालिपाकादयो दोस त्ति णो एवं वदे ॥ ३३ ॥ सति पुण निरूवणादिप्पओयणे एवं वदेज्ज ३४७. विरूढा बहुसंभूता थिरा उस्सडा ति य । गणाओ सूताओ ससाराओ ति आलवे ॥ ३४ ॥ ३४७. विरूढा बहुसंभूता० सिलोगो । विरूढा अंकुरिता । बहुसंभूता सुफलिता | जोग्गादिउवघातातीताओ थिरा । सुसंवड्ढिता उस्सडा । इति एवं वा वते । अणिनिसूणाओ गम्भिणाओ । व्विसूताओ सूताओ । सव्वोवघातविरहिताओ सुणिप्फण्णाओ ससाराओ त्ति आलवे ॥ ३४ ॥ वणस्स तिणिसेधविहाणमुपदिट्ठे आलावं प्रति । आउक्कायजयणत्थमिदमारभते३४८. तेहा नदीओ पुण्णाओ काकपेज्ज त्ति णो वदे । णावाहि तारिमाओ ति पाणिपेज्ज त्ति णो वदे ॥ ३५ ॥ २ रुवे ति इय खं १-३ । १ निव्वडियाफला वृद्ध० हाटी । 'निव्वट्टिमाफला खं १-२-३-४ शु० । निम्बट्टिमाफला जे० ॥ खं १ जे० । 'रूवित्ति खं २ ॥ ३ तहोसहीओ खं २ अचू० हाटी० विना ॥ ४ छवीई यखं २-४ । छवी छवीति वा हाटी० ॥ ५ रूढा अचू" वृद्ध० विना ॥ ६ ऊसढा इय खं ४ । ऊसढा वि य खं १-२-३ शु० य जे० । उस्सिया ति य वृद्ध० ॥ ७ गब्भियाओ अचू० विना ॥ ८ एवं बाधते । अणि मूलादर्शे ॥ चतस्रो गाथाः अचू॰ विना सर्वेष्वपि सूत्रादर्शेषु हाटी• वृद्धविवरणे च तहेव संखर्डि० संखर्डि संखडिं० तहा नईओ० बहुवाहडा० इत्येवं क्रमभेदेन वर्तन्ते ॥ १० कायतेज ति जे० खं १ वृद्ध० अचूपा० । कायपेज ति वृद्धपा० ॥ । उस्सढा वि ९ इत आरभ्य 20 25 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [सत्तमं वकसुद्धिअन्झयणं _____३४८. तहा नदीओ सिलोगो। तहेवेति पुब्वभणितं । णदीओ गंगा-जमुणादीओ [पुण्णाओ] मरिताओ । तडत्थितेहिं काकेहिं पिजंति काकपेजा तहा णो वदे । केसिंचि "कायतेज त्ति” ताओ पुण णातिदूरतारिमाओ । दूरतारिमाओ णावाहि तारिमाओ । तंडत्थेहिं हत्थेहिं पेजा पाणिपेजा । काकपेज्जा-पाणिपेज्जाण विसेसो-तडत्थकाकपेजाओ सुभरिताओ, बाहाहिं दूरं पाविनंति त्ति पाणिपेजा किंचिदूणा । 5 तत्थ नियत्तणा वा दोणिपक्खेवादयो दोस त्ति । तेण जधुद्दिट्ठवयणाणि णो वदे ॥ ३५ ॥ जदा पुण अद्धाणगता संतरणाभिमुहा साधू पुच्छेन्ज, कहंचि वा अवस्सभणितव्वं तदा एवं भणेज३४९. बहुपाहडा अगाहा बहुसलिलुप्पीलोदगा। बहुवित्थडोदगा यावि एवं भासेज पण्णवं ॥ ३६ ॥ ३४९. बहुपाहडा अगाहा. सिलोगो । बहुभरिता बहुपाहडा । अगाहा अत्यग्घा, 'थग्घा अस्थि 10ण वाण विभासेज त्ति । बहयं पण पाणियं जास ता बहसलिला। जासिं समदृण अण्णाए वा णदीए उप्पीलियमुदगं ण णिव्वहति ता उप्पीलोदगा। णदीओ विकिट्टप्पधाणि विरलेतीओ बहुवित्थडोदगा। जहोवदिट्ठमेव भासेज पण्णवं ति सागारियादिसु जा जा जयणा ताए भासेज ॥ ३६ ॥ आउक्कायोवरोहपरिहरणत्थमुपदिट्ठा जयणा । सव्वेगेंदिय-वियलिंदिय-पंचेंदियोवरोहपरिहरणत्थमिदं भण्णति ३५०. तहेव संखडिं णेच्चा किच्चं कजं ति णो वदे । 15 पणीतत्थं च वज्झो त्ति सुतित्थ ति य आपका ॥ ३७ ॥ __३५०. तहेव संखडि णच्चा० सिलोगो । तहेवेति तेणेव जतणाप्रकारेण । छज्जीवकायायुसमत्थखंडणं संखडी, केणति निमित्तेण पकरणं णचा जाणिऊण किच्चमेव घरत्येण देव-पीति-मणुस्सकजमिति एवं णो वदे। पणीयो परभवं जस्स जीवितत्थो सो पणीतत्थो, सो वि णेवं वत्तव्यो-वधारिहो चोरादि वज्झो, तमवि पणिजमाणं दट्टण वज्झो त्ति ण भणितव्वं, तस्स अणस्सासो लोकस्स वा 'पत्तकारणो' त्ति मा होजा। सोभणतित्था 20 सुतित्था आपका णदी, तत्थ पुच्छितेण अपुच्छितेण वाऽधिकरणपवत्तणभया णेवं वत्तव्वं सुतित्थ त्ति ॥३७॥ सति पुण अचाइण्णासु साधुनिवारणत्थमितरासु वा उवग्गहत्थमुवदेसे इमा जतणा३५१. संखडि संखडि बेता पणियढे त्ति तेणगं। बहुसमाणि तित्थाणि आवगाणं वियागरे ॥ ३८ ॥ ३५१. संखडिं संखडि बूता सिलोगो । संखडी पुव्वभणिता, तं सणियं संजयपासाए अच्चातिण्ण25 कहणातिसु संखडिमेव बूया । तेणकमपि अणुकंपापुव्वं सेहातिथिरीकरणत्थं 'एवं पावकम्मिणं विपाक इह, परत्थ य अणेगगुण' ति सणियमुवदिसेज्जा । णदीतित्थाण वि साधूसु समुत्तरणत्यं पुच्छमाणेसु को जाणइ अंतजले ? मणि पुण बहुसमाणि । घरत्थपुच्छाओ पुण 'बहूणि से समाणि विसमाणि य, को जाणति ? ति एवं संचिंतित वियागरे ॥ ३८ ॥ संखडी-पणियट्ठवयणजयणोवदिट्ठा । सव्वगतस्समारंभजयणट्ठमिदं भण्णति १ "कारण तरिति त्ति कायतेजाओ। अण्णे पुण एवं पढंति, जहा-"कायपेज ति नो वदे" काया तडत्या पिबतीति कायपेजा।" इति वृद्धविवरणे । “कायतरणीयाः शरीरतरणयोग्याः" हाटी०॥ २"प्राणिपेयाः' तटस्थप्राणिपेयां इति नो वदेत्" हाटी। "तडस्थिएहिं पाणीहि पेजंतीति पाणिपेजाओ" वृद्ध०॥ ३ नियत्थणा वा दोण्णिपक्केवादयो मूलादर्शे ॥ ४ बहुवाहडा अचू० हाटी० विना ॥ ५णचा करणीयं ति नो वए खं ४ हाटी । णचा किश्चमेयं ति नो वए वृद्ध० । किञ्चं कुव्वं तिनो वए खं १॥ ६ तेणगं वा वि वझे अचू. वृद्ध० विना ॥ ७सुतित्थे त्ति अचू० विना ॥ ८आवगा अचू० विना ॥ ९ बूया पणियटुं ति खं २ शु०॥ १० तेणगा खं ३ ॥ Jain Education Intemational Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ३४९-५५] दसकालियसुत्तं । ३५२. तहेव सावजं जोगं परस्सऽट्ठाए णिट्ठितं । ___ कीरमाणं ति वा णच्चा सावजं णे लवे मुणी ॥ ३९ ॥ ३५२. तहेव सावलं जोगं० सिलोगो। तहेवेति भणितं । अवजं-गरहितं, सह तेण सावज्जो, जोगो वावारो, तं सावजं, साधूण ण चेव सावज्जो जोगो त्ति परस्सष्टाए णिहितं परिसमत्तं कीरमाणमिति वा अणवसितक्रियं, णिट्ठिते कीरमाणे वा ण साधुवयणेण समारंभो तहा वि णिवारणं, किमंग पुण करिस्समाणं ?। 5 एवं जाणिऊण तं सावजं ण लवे मुणी ॥ ३९॥ केरिसं पुण सावज ण भणितव्वं ? ति सावज्जवयणसमासोपदरिसणत्थमिदं भण्णति३५३. सुकडे त्ति सुपक्के त्ति सुच्छिण्णे सुहडे-मैते । सुणिट्टिते सुलटे त्ति सावजे ण लवे मुणी ॥ ४० ॥ ३५३. सुकडे त्ति सुपक्के त्ति० सिलोगो । सुदु कतं सुकडं, एतं पसंसावयणं अब्भणुमोदणं च, एतं 10 सावज वजए । सकडे त्ति सर्वक्रियापसंसणं । सपके त्ति पागस्स. तं पण मिदमसणादिस । सच्छिणे रुक्खादिसु । सुहडे गामादिघातादिसु । सुमते सुमारियवयणं, तं कतोयि अणुवसंतादि । सुणिहिते बहुवेसणसंपण्णं निट्ठाणकादि । सुलट्टे पासादादि । एवंजातीयमण्णं पि सावजं ण लवे मुणी। अणवजं पुण लोयकरण-बंभचर[ फल ]पाक-सिणेहपासच्छेद-सेहहरण-पंडितमरण-अट्ठविहकम्मनिट्ठवण-सुलट्ठधम्मकहादि-सिलोग-जहासंखेण लवे ॥४०॥ जदा पुण गिलाणादिनिमित्तं पयोयणतो वा अवस्सभणितव्वं भवति तदा इमा जतणा । जहा३५४. पयत्तपैक्के त्ति ण पक्कमालवे, पयत्तछिण्णे तिं ण छिण्णमालवे । पयत्तलटे त्ति में कम्महेउयं, गौढप्पधारं ति ण गाढमालवे ॥ ४१ ॥ ३५४. पयत्तपक्के त्ति वृत्तम् । गिलाणातिनिमित्तमेवं वदेजा-पयत्तपक्के, ण पक्कमिति । रुक्खं खंभादि वा पयत्त[छिण्णे,] पछिण्णमिति आलवे । वाणमंतरातिघरेसु पयत्तकतेसु पयत्तलट्ठमेव, ण 20 पुण लट्ठमिति कम्मपसंसणहेतुकमेवं वदे । पयत्तलढे त्ति व कम्महेउयं, अहवा तक्कम्मभासणलटुं ति कम्महेतुकं । गाढप्पधारं तदप्पत्तियपरिहरणथं पधारंगाढमालवे । सुकडातिसु वि अवस्सवयणे पयत्तकडाति आलवे ॥ ४१ ॥ कय-विक्कया-ऽहिकरणपरिहरणत्थमिदमवि वत्तव्वं३५५. सव्वुक्कसं पैरग्धं वा अतुलं णत्थि एरिसं । अचक्कियमवत्तन्वं अँचिंतं चेव णो वए ॥ ४२ ॥ ३५५. सबुक्कस्सं परग्धं वा० सिलोगो । पणियणियोगे सबुक्कस्समिदमिति णो एवं वदे, 'अणंतरतणा पुढवी'ति सैइरसंकहाए वि णो एवं वदे। परमो जस्स अग्यो तं परग्धं, जं सुमहग्धं माणिक्काति एतस्स वा एस परमो अग्यो । अहवा “परार्द्ध" प्रधानम् । तुलाए समितं तुलं, अतुलमिदं ससारतया, किं 10 25 १ ट्राय णि ख १॥ २णाऽऽलवे खं २-३ शु० वृद्ध० हाटी० ॥ ३ सुकडे खं २-४ ॥ ४ मडे सर्वेषु सूत्रादर्शेषु ।। ५°जं वजए मुणी अचू० विना ॥ ६ पक्कित्ति खं २ ॥ ७त्ति व प अचू० विना ॥ ८°छिण्ण त्ति जे. शु० ॥ ९त्ति वछि अचू० विना ॥ १०°लट्र त्ति शु. ११ तिवक अचू० विना॥ १२ पहारगाढे त्ति व गा अचू० विना ॥ १३ पजमिति मूलादर्श ॥ १४ गाढप्रहारम् ॥ १५ रवालमा मूलादर्शे । प्रहारगाढं गाढप्रहारमित्यर्थः ॥ १६ कसं प अचू० विना ॥ १७ परद्धं वा अचूपा० ॥ १८ अचियत्तं चेव अचू० वृद्ध० विना ॥ १९ खैरसङ्कथायाम् ॥ Jain Education Intemational Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [सत्तमं वकसुद्धिअज्झयणं बहुणा ? [ण] अत्थि एरिसं अण्णं । अचक्कियं असकं, जहा "एवं चक्किया एवं से कप्पति" [दशा० अ० ८ सू० २३३ ] । अवत्तवं भणितुं ण तीरति । अचिंतितं चिंतेतुं पि ण तीरति वइरादि, किं पुण उवमेउं गाउं वा ? । सव्वविसेसेहि एताणि णिव्वण्णणादिसयवयणाणि णो वदे ॥ ४२ ॥ जहाभणितं परेणं पढ़िवातेउमसक्कं अतो अतिसयवयणसरिसमिदमिति भण्णति6 ३५६. सव्वमेदं वदिस्सामि सव्वमेतं ति णो वदे । ___ अणुवीयि सव्वं सव्वत्थ एवं भासेज पैण्णवं ॥ ४३ ॥ ३५६. सबमेदं वदिस्सामि० सिलोगो । असंजतऽप्पाहितपावणं नस्थि । जता वि संजतो अप्पाहेज बहुविहं 'सचित्तादिसंववहारगयं सव्वमेतं भणाहि' ति संदिट्ठो जो भणेज्ज-सव्वमेतं वदिस्सामि ति तस्स दणवयं सव्वमेतं 'जहाभणियवणं पडिवादेहामि' इति णो वदे। अणवीयि वयणीया-ऽवयणीयत्तेण 10 विभज्ज सव्वमिति सव्वं पुव्वभणितं वयणविणिओगं सव्वत्थ सव्वेसु परिपुच्छादिथाणेसु, एवमिति जहाजहोवदिहें भासेन पण्णवं ति भणितं ॥४३॥ सामण्णेण पसंसावयणविहाणमुवदिहूँ । विसेसेण पणितपसंसापडिसेहत्थमिदं भण्णति३५७. सुक्कीयं वा सुविक्कीयं अक्केजं केजमेव वा। इमं गेण्ह इमं मुंच पणितं णो वियागरे ॥ ४४ ॥ ३५७. सुकीयं वा सुविक्कीयं० सिलोगो । क्रायकेण विक्रायकेण वा पुवगहितदिण्णे पुच्छितो णो एवं वियागरे-एत्तिएण जदि गहितं सुक्कीयमिदं सुविक्कीयं वा, एत्तिएण अणा (१) पुण इमं एतेण मोलेण अकेलं एत्तिएण वा केजं, अहवा इमं अग्धेहिति एतं गेण्ह, इमं वा ण पडिअग्घिहि त्ति मुंच पणितं । एवं णो वियागरे कत-विक्तगतं ॥४४॥ किमेतेण ? एवमादिसु बहुसावजवयणमिति समासेणेव दिस्सति ३५८. अप्पग्घे वा महग्घे वा कये वा विक्कये यि वा । __ पणितढे समुप्पण्णे अणवजं वियागरे ॥ ४५ ॥ - ३५८. अप्पग्घे वा० सिलोगो । अप्पग्धं महर्ष, महर्ष बहुमोलं, तं पुण सुहि-संबंधिजातीओ कोति किणेज विक्किणेज वा, तम्मि कये [वा ] विक्कये यि वा एवं पणितगते अढे समुप्पण्णे चिरमुक्कपणितवावरा वयं इह वा काएसि त्ति ण याणामो, एवमादि अणवजं वियागरे ॥४५॥ कयविक्कयाधिकरणपरिहरणमुपदिटुं । अणंतरं सर्वक्रियागताधिकरणपरिहरणत्थमिदं भण्णति३५९. तेहेवासंजतं धीरो आस एंहि केरेहि वा । सय चिट्ठ वयाहि त्ति णेवं भासेज पण्णवं ॥ ४६ ॥ __३५९. तहेवासंजतं धीरो० सिलोगो । तहेवेति सावजवजणप्रकारावधारणं । समिति-गुत्तीहिं अणियमितप्पा अस्संजतो, तमस्संजतं । धी:-बुद्धिः सा जस्स अस्थि सो धीरो । आस उपविस, एहि इतो आगच्छ, १ निवर्णनातिशयवचनानि ॥ २ प्रतिपादयितुमशक्यम् अतः । पडिवातेऊणमसक्षमतो मूलादर्श ॥ ३ वीई स ख १ जे। वीइस खं ४ शु०। वीईय स ख २॥ ४पण्णवे खं १॥ ५इ वा ख १-३-४ जे। विधा खं २ शु०॥ ६ तम्हाऽसं खं ४॥ ७वीरो जे. ॥ ८ एहिं खं ३॥ ९ करेहिं ख १ जे०॥ १० सय ख १-३-४ जे०॥ 18 Jain Education Interational Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ सुत्तगा० ३५६-६३ ] दसकालियसुत्तं । करेहि वा किंचि वावारं, सय वा सुवाहि, चिट्ठ उट्ठउ, वयाहि गच्छ, 'तत्तायगोलो इव सो समंततो सत्ताण डहणरूवो' ति तं णेवं भासेज पण्णवं । अस्संजतस्स वेट्ठावणादि पडिसिद्धं, ण पुण संजतस्स ॥ ४६॥ ___ असंजता य साहवो, साधुसद्दो य लोगे सज्जणेसु पयुजति–साधुपुरिसो अयमिति, तित्यंतरीएसु य, अतो विसेसणमिदं भण्णति ३६०. बहवे इमे असाधू लोए वुच्चंति साधवो । ण लवे असाधु साधु ति साधु साधु ति आलवे ॥ ४७ ॥ ३६०. बहवे इमे असाधू० सिलोगो । बहवे अणेगे इमे इति पञ्चक्खाभिधाणं असाहवो मोक्खसाहगाणं जोगाणं णाम-ठवणा-दव्वसाधुत्तेण गुणैकदेसजोगेण वा लोए वुचंति साधवो । तं तित्यंतरियाई ण लवे असाहुं संतं साधुमिति । निव्वाणसाहगजोगसाधणपरसाहुं साधुमिति आलवे ॥४७॥ तस्स साहुणो अजधाभूतलोगभणितमत्तसाधूहितो गुणकतमिमं विसेसंतरमारभते३६१. णाण-दसणसंपण्णं संजमे य तवे रतं । एतग्गुणसमाउत्तं संजतं साधुमालवे ॥ ४८ ॥ ३६१. णाणदसण सिलोगो । नाणं पंचविहं, दसणं सम्मत्तं, तेहिं संपण्णं समुदितं । संजमो सत्तरसविधो, तवोबारसधा, एत्थरतं पसत्तं । एतेहि गुणेहि समाउत्तं संजतं] सम्मं जतं,तं साधुमालवे॥४८॥ सव्वक्रियासु असंजयप्पयोगकरणं पडिसिद्धं । इमं पुण विसेसेण रागप्पहाणं बहुप्पगं चेति भण्णति- 1 ३६२. देवाणं मणुयाणं च तिरियाणं च वुग्गहे । अमुगाणं जतो होतु मा वा होतु त्ति णो वदे ॥ ४९ ॥ ३६२. देवाणं मणुयाणं० सिलोगो । देवाणं देवा-ऽसुरसंगामकधादिसु वि णरकवधादिसु, मणुस्साणं रायसंधि-विग्गहादिसु, तिरियाणं वसभातीणं जुद्धेसु अमुगाणं देवाणं असुराण वा, मणुयाणं इमस्स इमस्स वा रण्णो, तिरियाणं इमस्स इमस्स वा वसभस्स जतो होतु, मा वा एतस्स होतु । तप्प-20 क्खिता देवता पदुस्सेज, मणुस्सेसु वा सज्जं कलहादयो त्ति नो एवं वदे ॥४९॥ देवादिबुग्गहेसु जय-पराजयवयणं निवारितं । इदमवि देवताकतमेव होज त्ति भण्णति३६३. वाओ वुटुं व सीउण्हं खेमं धातं सिवं ति वा । ___ कया णु होज एताणि ? मा वा होर्तुं त्ति णो वदे ॥ ५० ॥ ३६३. वाओ वुटुं व सीउण्हं० सिलोगो। वात वुट्ठ-सीउण्हाणि लोगप्पसिद्धाणि । खेमं परचक्कातिणिरुवद्दवं । धातं सुभिक्खं । कुलरोग मारिविरहितं सिवं । तत्थ धम्मत्तो 'उत्तरवातो वाससहितो' ति वातं, आसारा(?ढा)तिसु वा वुटुं, जव-निप्फावादिनिप्फत्तीनिमित्तं सीतं, हिमेण विणस्समाणेसु निप्फावातिसु सतं वा सीताभिभूतो उण्हं, परचक्के व पीडिये वा खेमं, मधुरण्णे सुभिक्खं, छेववो (१) वा सिवं । एताणि सरीरसुहहेउं पयाणं वा पुणो पुणो आसंसमाणो कया णु कम्हि पुण काले होज? इति । वात-वुट्ठ-सीउण्हेहिं वा अप्पणो पयाणं वा पीडणमसहमाणो पंतजणवयरोसेण वा खेम-वाय-सिवाणि रुक्खप्पभंजण-सत्तुप्पिलावण-हिमडहण-सत्त-30 परितावण-जणवदडहण-लूडण-छुधामरण-भयादयो दोसा इति एताणि कया होज ? त्ति णो वदे। तदभावे १ साहुणो अचू. वृद्ध० विना ॥ २ असाहजे.॥ ३साहु त्ति साहुं साहु त्ति खं १-३-४ शु०॥ ४ एवंगुण अचू, विना ॥ ५रतं एगत्तं मूलाद” ॥ ६ माणुसाणं खं १॥ ७-८ होज त्ति खं ३ ॥ दस० सु. २३ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ णिज्जुत्ति-चुणिसंजुयं [सत्तमं वक्कसुद्धिअज्झयणं पुण अतिघम्म-तणभंग - जवानिप्फत्ति- सत्तुपरितावणा-मंतिचारभडवित्तिपरिच्छेद-भिक्खाभाव-मसाणोवजीविपाणातिवित्तिच्छेदा[दी] दोसा इति णो वदे। ण वा कस्सति वयणेण भवंति वा ण वा, केवलमधिकरणाणुमोदणं ॥५०॥ भणितमधिकरणपरिहरणं । इमं पुण अजहाभूतवदणपरिहरणत्थं भण्णति३६४. तहेव मेहं व णहं व माणवं, ण देव देव त्ति गिरं वदेज्जा। सम्मुच्छिते उण्णते वा पयोदे, वदेज वा वुढे बलाहगे त्ति ॥ ५१॥ ३६४. तहेव मेहं व णहं व० वृत्तम् । तहेवेति भणितं । मेघो तोयदो । णहं आगासं । माणवो मणुस्सो। एतेसिं किंचि वासद्देण अण्णस्स वा जणस्स पसंसावयणत्थं भण्णति-तं अदेवं संतं णो एवं वदेजउण्णतो देवो, वरिसति वा आगासं वा देवसहो त्ति, रायाणं वा देवमिति, मिच्छत्तथिरीकरणादयो दोसा इति । सति पुणावस्सवयणे जतणावयणमिमं मेधे-सम्मुच्छितो पयोदो, णिवतियो वा पयोदो, वुटुं वा पडितं, बलाहगो 10वा सम्मुच्छितो ॥५१॥ मेघजयणावयणमुपदिटुं । णभ-माणवजयणावयणोवदेसत्थमिमं भण्णति ३६५. अंतलिक्खे त्ति णं बूया गुज्झाणुचरितं ति य । रिद्धिमंतं णरं दिस्स रिद्धिमंतं ति आलवे ॥ ५२ ॥ ३६५. अंतलिक्खे त्ति णं बूया० सिलोगो । णभमंतलिक्खं भणेज्जा, निम्मलमंतलिक्खं गुज्झाणुचरितं वा, अहवा मेघं अंतलिक्खं गुज्झगाणुचरितं वा बूया । तहा रिद्धिमंतं रायादिगं दगुण रिद्धिमंतमेव 15 वदे,ण देवं ॥ ५२ ॥ अवयणीयणिसेधो वयणीयजयणा य भणिता । 'अपरिमितो वयणगोयरो' ति सेससंगहत्थं संखेववयणमुपदिस्सति । जहा३६६. तहेव सावजऽणुमोयणी गिरा, ओहारिणी जा य परोवघातिणी । से कोह लोह भयसा व माणवा!, ण हासमाणो वि गिरं वदेजा ॥ ५३ ॥ ३६६. तहेव सावजऽणुमोयणी गिरा. वृत्तम् । तहेवेति पुत्वनिरूवितं । सावजणुमोदणी 20 'छेत्ताई कसह, ववह' एवमादि । संदिद्धेसु 'एवमिदं'इति निच्छयवयणमवधारणं। जा त परस्स सक्का उवग्यातं करेति चोंकण-णत्थण-वाहण-मारणातिगं । से इति वयणोवायणत्थं । कोहो कोवो, लोभो लोलिता, आद्यन्तवयणं तम्मज्झपतितोवसंगहनिमित्तं, अतो माण-माताए वा । भयसा वा इति सकारांतं लिंगं, एत्थ आदिसहलोपेण पेन्जातिवयणं, एतेसिं निमित्तोपादाणत्थं च वयणं । माणवा! इति मणुस्सामंतणं 'मणुस्सेसु धम्मोवदेस' इति । ण हासमाणो वि गिरं वदेजा परं हासयमाणो वि किमु कोधादीहिं एवंविहं गिरं वदेज्जा सावजणुमोयणाति ? ॥ ५३॥ वक्कसुद्धीए इहभव एव संसिद्धिकफलपदरिसणत्थमिदं भण्णति ३६७. से-वक्कसुद्धी समुपेहिता सिया, गिरं च दुटुं परिवजए सदा । मितं अदुटुं अणुवीतिभासए, स-ताण मज्झे लभती पसंसणं ॥ ५४ ॥ १देवेत्ति खं २-३॥ २ वुटु खं १-२-३ जे० ॥ ३ अवणीयोणिसेवो वयं मूलादर्शे ॥ ४ भय हास माणवो खं ३-४ । भय हास माणवा! वृद्ध । “से कोह लोह भय हास माणवा! न हासमाणो, तत्थ से त्ति साहुस्स णिद्देसो । तत्थ कोहो आदीए, लोभो अंते, आइ-अंतग्गहणेण मज्झे वट्टमाणा माण-माया गहिया, भय-हासम्गहणेणं पेजादिदोसा गहिता। माणवा! इति 'मणुस्सजातीए एस साधुधम्मो' त्ति काऊण मणुरसाऽऽमंतणं कयं, जहा-हे माणवा ! अवि हसंतो वि मा अभासं भासिजा, किं पुण कोहादीहिं ? ति" इति वृद्धविवरणम्। 'से' इति तामेवम्भूतां क्रोधाद् लोभाद् भयाद् हासाद् वा (प्रत्यन्तरे हासाद् इति नास्ति), मान-प्रेमादीनामुपलक्षणमेतत्।" इति हारि०वृत्तौ ॥ ५ "स-वक्कसुद्धिं ति स इति साधुणो णिद्देसो, जहा कोइ स भिक्खू एवंविधं वक्कसुद्धि सम्म उवेहिया समुवेहिया; अहवा सकारो सोहणअत्थे वट्टइ, सोहणं वक्कसुद्धि सम्म उवेहिया; अह्वा सगारो अत्तणो णिद्देसे वट्टइ, जहा अत्तणो वक्कसुद्धि सम्म उवेधिया समुपेहिया" इति वृद्धविवरणे। “सवक्क त्ति सूत्रम् । व्याख्या-सद्वाक्यशुद्धिं वा खवाक्यशुद्धि वा स वाक्यशुद्धिं वा, सतीं-शोभनाम् , खाम्-आत्मीयान् , स इति वक्ता, वाक्यशुद्धिं 'सम्प्रेक्ष्य' सम्यग् दृष्ट्वा" इति हरिभद्रवृत्तौ ॥ ६.हिया मुणी, गिरं अचू० विना ॥ ७ तु खं १-२-३-४ जे० हाटी०॥ तय कोहो आवीए, लामए एस साधुधम्मो' ति काम इति तामेवम्भूतां क्रोधानस इति साधुणो णि सोवा सगारो अत्तणो णिसे Jain Education Intemational Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ३६४-६९] दसकालियसुत्तं । ३६७. स-वक्कसुद्धी समुपेहिता० वृत्तम् । स इति जो पढमज्झयणातिवण्णितो विणेयो सोभणं वक्कसुद्धिं अप्पणो वा वक्कसुद्धिं समुपेहिया सम्ममुपेक्खिता सिया इति निच्छय-संदेहवयणो, संदेहे-यथा स्थाद्वादः, इतरम्मि-"सिया य केलाससमा अणंतका" [उत्त० अ०९ गा०४८] इह णिच्छयवयणो । स एवं समुपेहिय णिच्छएण गिरं च दुटुं परिदुट्ठा जा हेडा दूसिता तं परिवजए इति परिवजकः सदा सव्वकालं । कन्जपडिवायणमत्तं अणुचं च मितं । अदुढे जयणापुव्वं जहा-इदमुपदिटुं, एवं भासेज पण्णवमिति । । अणुवीति[भासए] पुव्वभणितभासकः स-ताण मज्झे संतो सोभणा सजणा जे तेसिं मझे, अधवा ससद्दो बहुवयणो (१), बहुसु अवत्थितेसु ताण मज्झे स एवंगुणो लभते 'सुसिक्खितो वयणविणियोग' ति एवं पसंसणं स्तुतिमित्यर्थः ॥ ५४ ॥ जतो इहैव एते गुणा तम्हा३६८. भासाय दोसे य गुणे य जाणए, तीसे य ढुट्ठाए विवज्जगो सता। छसु संजते सामणिए सया जते, वतेज बुद्धे हितमाणुलोमितं ॥ ५५ ॥ 10 ३६८. भासाय दोसे य० वृत्तम् । भासा पुव्वभणिता, तीसे दोसे य परोवघातादयो गुणे य परोपकारादयो, ते दोसे य गुणे य जाणए विण्णाणेणं सव्वं जाणिऊण तेसिं जा दुट्ठा ताए विवज्जगो सता छसु जीवनिकायेसु सेमणभावे सामण्णे सया जते वतेज बुद्धे जो एवं गुण-दोसजाणतो स एव बुद्धः, हितमाणुलोमितं हितं सत्ताणुवरोधि आणुलोमितं मधुरं सामपुव्वं ॥ ५५ ॥ इहलोइयफलमुपदिटुं । सुपुक्खलपारलोइयफलोवदंसणथमिमं भण्णति ३६९, परिक्खभासी सुसमाहितिदिए, चउक्कसायावगते अणिस्सिते । ___ स णिडुणे धुण्णमलं पुरेकडं, आराहए लोगमिणं तधा परं ॥ ५६ ॥ ति बेमि ॥ ॥ सवक्कसुद्धी नामऽज्झयणं सत्तमं संम्मत्तं ॥ ३६९. परिक्खभासी० वृत्तम् । परिक्ख सुपरिक्खितं, तधा भासितुं सीलं यस्य सो परिचभासी। सुट्ठ समाहिताणि सोतादीणि इंदियाणि जस्स सो सुसमाहितिंदियो। कोहादयो कसाया अवगता जस्स सो 20 चउकसायावगतो। सव्वपडिबंधविरहादणिस्सिए। स एवं परिच्चभासी सन् निडुणे निद्धणेज असंसयं धुणयति कंपयति धुण्णं पावमेव तमेव मलो पुरेकर्ड अणेगभवोवचितं । स एवं धुणिऊणं आराहए लोगमिणं जवा "सताण मज्झे लभती पसंसणं" [सुत्तं ३६७] । तधा परं पञ्चक्खेण परोक्खसाहणमिति जहा इमं तेणेव प्रकारेण परं, तं पुण देवलोगगमण-सुकुलसंभव-मोक्खगमणपज्जवसाणमाराहणं ॥५६॥ बेमीति भणितं ॥णया तहेव ॥ भासं चउव्विहं विभतिऊण दो सव्वहा निसिद्धाओ। दोण्ह उ विययविसेसो अणेगहा वक्कसुद्धीए ॥१॥ ॥ वक्कसुद्धीए चुण्णी दिसामत्तप्पदरिसणं समत्तं ॥७॥ १ सतासहोमूलादशैं॥ २ भासाए खं १-२-४ शु० हाटी०॥ ३ जाणिया अचू० विना॥ ४ दुट्टाय विवज्जए सया खं ४ । दुटुं परिवजए सया हाटी। दुट्टे परिवजए सया खं १-२-३ जे. शु०॥ ५ "समणभावे अवस्थिए सामणिए" इति वृद्धविवरणे ॥ ६ परिजभासी वृद्ध । “परिजभासी नाम परिजभासि त्ति वा परिक्खभासि त्ति वा एगट्ठा" वृद्ध विवरणे। परिश्वभासी अचूपा० ॥ ७णिद्धये खं १॥ ८ धुत्तमलं खं १-२-४ शु०॥ ९परे॥ त्ति खं४॥ १० एसा उ वकसुखी गंथग्गेणं हवंति सुत्ताई । सत्तावणं जाणसु उद्देसेणेत्थ लिहियाई ॥ खं ३॥ Jain Education Intemational Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [अट्ठमं आयारप्पणिहिअज्झयणं [अट्टमं आयारप्पणिहिअज्झयणं ] धम्मे धितिमतो सेसऽज्झयणणियमितकायचेट्ठस्स वायाणियमणत्थमुपदिट्ठा वक्कसुद्धी । ततियं पुण करणं माणसं, तस्स विसोधणत्थमुपपातिजति आयारप्पणिधी । पणिहाणं अभिप्पायो चित्तमिति समाणं । परोवदेसनिमित्ते वा वयणप्रेरणे थुति-माण-लाभाभिप्पायविरहियाभिसंधिणा सुद्धपराणुग्गहत्थमुपदिसियव्वं । अणेणाभिसंबंधेbणाऽऽगतस्साऽऽयारप्पणिधिअज्झयणस्स चत्तारि अणिओगद्दारा आवस्सगाणुक्कमेणं । णामणिप्फण्णे आयारप्पणिधी । आयारो पणिधी य । आयारे ताव इमा निजुत्ती जो पुव्वं उवदिट्ठो आयारो सो अहीणमतिरित्तो। दुविधो य होति पणिधी दवे भावे य णायबो॥१॥ १९५ ॥ जो पुव्वं उवदिह्रो० [गाधापुव्वद्धं । ] जो खुडियायारए उवदिट्ठो सो विभावणीयो । पणिधी 10 नामादि चतुधा । नाम-ट्ठवणातो गतातो । दव्व-भावपणिधीपरूवणथमिमं गाहापच्छद्धं-दुविधो य होति पणिधी० ॥१ ॥१९५ ॥ तत्थ पुण इमो दवे दधे णिधाणमादी मायपयुत्ताणि चेव दव्वाणि । भाविंदिय णोइंदिय दैविहो उ पसत्थमपसत्यो ॥२॥ १९६ ॥ दवे णिधाणमादी० गाधापुव्वद्धं । णिधाणं णिधी । दव्वणिधी जाणि चाणकादीहि णिहि16 ताणि सुवण्णप्पभितीणि निहाणाणि । मायाकारातीहि वा सञ्चित्ताणि ऑसातीणि अचित्ताणि वा सुवण्णादीणि मायापयुत्ताणि, वेसेण वा पडिच्छादणं पुरिसित्थीण, एवमादीणि दन्वप्पणिधी । भावे पुण-भाविंदिय णोइंदिय० गाहापच्छद्धं । भावप्पणिधी दुविहो-इंदियप्पणिधी णोइंदियप्पणिधी । इंदियप्पणिधी दुविहो-पसत्थो अप्पसत्यो य । णोइंदियो वि दुहा-पसत्थो अप्पसत्यो य ॥२॥१९६॥ तत्थ भावपसत्थइंदियपणिधी इमो सहेसु य रूवेसु य गंघेसु रसेसु तह य फासेसु। ___ण वि रजति ण वि दुस्सति एसो खलु इंदियप्पणिधी ॥ ३ ॥१९७ ॥ सद्देसु य रूवेसु य० गाधा । सोय-चक्खु-घाण-जिब्भा-फासाणं विसएसु सदातिसु मणुण्णेसु न रज्जति, अमणुण्णेसु पयोसं ण जाति, एसो पसत्थो इंदियप्पणिधी । अप्पसत्थो पुण मणुण्णा-ऽमणुण्णेसु राग-दोसगमणं ॥३॥ १९७ ॥ किं पुण से पणिहित्तणं १ जं इंदियाणि तत्थ परिट्टिते अप्पसत्थेदियप्पणिधिदोसोपदरिसणत्थमिदं भण्णति सोइंदियरस्सीयुम्मुक्काहिं सदमुच्छितो जीवो। आदियति अणाउत्तो सहगुणसमुत्थिते दोसे ॥ ४॥ १९८॥ सोइंदियरस्सीउ० गाहा । सोइंदियस्स चक्खुसरिसा रस्सिकप्पणा नत्थि, उवयारमत्तं पुण, जम्हा संघपोग्गलोपाताणं करेति अतो सोइंदियरस्सीयुम्मुकाहिं समंततो पकिण्णाहिं सद्देसु मणुण्णेसु मुच्छितो अणुरत्तो जीवो इति जीवसामत्थमिदं, न पोग्गलाणं, आदियति आदत्ते । एतं अविसेसेणं । विसेसो पुण १ जायणणियमितकायचेट्टस्स वायानियमितकायचे?स्स वायाणियमतित्थमुपदिट्ठा मूलादर्शे ॥ २ पुब्धि उद्दिट्टो ख• वी० पु. सा. वृद्ध० हाटी०॥ ३ दुषिहा उ पसत्थमपसत्था खं०॥ ४ अश्वादीनि ॥ ५°स्सीहि ३ मुक्का 'ख० वी० पु०सा• हाटी• वृद्ध० ॥ ६ शब्दपुद्गलोपादानं करोति, अतः शब्दरश्म्युन्मुक्ताभिः ॥ 25 Jain Education Intemational Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 णिज्जत्तिगा० १९५-२०३] दसकालियसुत्तं। १८१ अणाउत्तो सहगुणसमुत्थिते दोसे गुणसद्दो पज्जववयणो, तेण सद्दो चेव गुणो सद्दगुणो ततो समुत्थिता, सहो वा गुणो जेसिं ते सद्दगुणा-पोग्गला तेहिंतो वा समुत्थिता। ते उवलद्धिकारणमिति दोसे दोसा इति रागहोसा, तप्पभावा मरणादयो दोसा, ए कारणकारणे कारणोपयार इति सहगुणसमुत्थिते दोसे कम्मत्ताए गेण्हति ॥ ४ ॥ १९८ ॥ सोतेण तुलत्थमिति भण्णति जह एसो सद्देसुं एसेव कमो तु सेसएहिं पि। चउहिं पि इंदिएहिं रूवे गंधे रसे फासे ॥५॥ १९९॥ जह एसो सद्देसुं० गाधा । जति प्रकारे । जधा सोइंदियरहिं उम्मुक्काहिं पावमादियति एवं सेसेहिं वि चउहिं दोसोपादाणं करेति ॥ ५॥ १९९ ॥ णियमेण सद्दातीणं उपादाणमिंदियाइं करेंति तत्थ विसेसो जैस्स पुण दुप्पणिहिताणि इंदियाइं तवं चरंतस्स। सो हीरति असहीणेहिं सारही वा तुरंगेहिं ॥ ६ ॥२०॥ जस्स पुण दुप्प० गाधा । जस्स पुण तवं पि चरंतस्स दुप्पणिहिताणि इंदियाणि भवंति सो तेहिं मोक्खमग्गातो उप्पहं णिजति । णिदरिसणं-असहीणेहि अणायत्तेहि सारही वा तुरंगेहिं ॥ ६ ॥२०॥ णोइंदियप्पणिधी पुण कोहं माणं मायं लोहं च महन्भयाणि चत्तारि । जो रंभह सुद्धप्पा एसो णोइंदियप्पणिधी ॥७॥ २०१॥ कोहं माणं० गाधा । कोहादयो महाभयाणि चत्तारि, जतो “पढमिल्याण उदए" [भाव. नि. गा० १०८ एवमादि जो रंभइ। कहं रुंभइ ? कोधोदयनिरोधो वा उदयपत्तस्स वा विफलीकरणं, एवं सेसेसु वि । सुद्धप्पा सुद्धप्पणिधाणो एसो णोइंदियप्पणिधी ॥७॥ २०१॥ दुप्पणिहाणफलमिदंजस्स वि त दुप्पणिहिता होंति कसाया तैवं करेंतस्स। 20 सो बालतवस्सी विव गंतण्हातपरिस्समं कुणति ॥ ८॥ २०२॥ __ जस्स वि त दुप्पणिहिता० गाधा । जो कोहेण सावदाणत्थं, 'अहं पधाणो तवस्सि' ति वा माणेण, अप्पे वि तवे कते 'महातवं कतं' ति माताए, पूया-लाभार्थ लोभेण, एवं जस्स तवं करेंतस्स कसाया दुप्पणिधिता भवंति । णिदरिसणं-सो बालतवस्सी विव पारण-पूयादिसु बहूणं सत्ताणं उवरोहेणं गतण्हातपरिस्समं कुणति, ण्हातुत्तिण्णो गतो पंसुहरणेणं अप्पाणमुग्गुंडेति जधा तहा दुप्पणिहियकसायो फँसादेहिं ॥ ८॥२०२॥ 25 कहं व सामण्णमणुचरंतस्स कसाया जस्स उक्कडा होति । मण्णामि उच्छुफुल्लमिव निष्फलं तस्स सामण्णं ॥९॥२०३ ॥ सामण्णमणु० गाहा । समणभावो सामण्णं तमणुचरंतस्स कसाया जस्स उक्कडा उदयप्पत्ता होंति, एवमहं मण्णामि उच्छुफुल्लमिव जहा उच्छूण फुल्लाई णिप्फलाणि भवंति एवं तेसिं कसायुकडाणं 30 सामण्णं ॥९॥२०३ ॥ पसत्थप्पणिधिप्पवत्तणत्थमिमं भण्णति १जस्स खल दुखं.पु. सा. हाटी.॥ २ एतद्गाथानन्तरं खं० आदर्शे-अहवा वि दुप्पणिहिदियो उ मजारबगसमो होइ । अप्पणिहिदियो पुण भवइ उ अस्संजओ चेव ॥ इत्येषा गाथा अधिका वर्तते । नास्त्येषा गाथा व्याख्याता सर्वैरपि व्याख्याकृद्भिः॥ ३ लोभं खं०॥ ४ तवं चरंतस्स खं० वी० पु. सा. हाटी..॥ ५गयण्हाणपरि° खं० वी.पु. सा• हाटी.॥ ६ कृतम्' इति मायया ॥ ७सातोत्तीर्णो गजः ॥ ८ कषायैः ॥९°च्छुपुष्पं व खं० वी० पु. । च्छफलं वसा Jain Education Interational Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [अट्ठमं आयारप्पणिहिअज्झयणं ऐसो दुविहो पणिधी सुद्धो जदि दोसु तस्स तेसिं च । एत्तो पसत्थमपसत्थलक्खणज्झत्थणिफण्णं ॥ १० ॥ २०४॥ ऐसो दुविहो पणिधी० अद्धगाधा । एसो इति जो अणंतरमुद्दिठ्ठो दुविहो [ पणिधी ] इंदिय-णोइंदियभेदेण सुद्धो निद्दोसो, जदिसद्दो नियमणे, दोसु अज्झप्प-बाहिरेसु इंदिय-णोइंदियगतो, जतिसद्दो सुति5 समाहितो सुद्धो तस्स इंदिय-कसायवयो, तेसिं इंदिय-नोइंदियाणं, चसद्देण उभयमभिसंबज्झति, उभतस्स वि एतस्स । एत्तो पसत्थमपसत्थ० गाधापच्छद्धं । एतातो चेव पुव्वपदरिसियाओ पसत्था-ऽपसत्थलक्षणमज्झत्थनिप्फण्णं सुभज्झवसाणस्स [पसत्थो, असुभज्झवसाणस्स ] अप्पसत्थो ॥१०॥ २०४॥ एवमज्झत्थनिप्फणं पसत्थ-ऽप्पसत्थलक्षणमज्झत्थनिप्फण्णमुपदिटुं । तत्थ अप्पसत्थं ताव माया-गारवसहितो इंदिय-णोइंदिएहिं अपसस्थो। धम्माए पसत्थो इंदिय-णोइंदियप्पणिधी ॥ ११ ॥ २०५ ॥ मायागारव० गाहा । मायाए पूयापत्तिहेतुं गारवेणं जितिंदियत्तणेणं परं परिभवमाणो भुत्त-भावितत्तं वा दाएंतो । एवं माया-गारवसहितो इढे सद्दे सुणेमाणो वि ण सुणेति एवमधियासेति; रूवाणि सविलासाणि पेक्खणकादीणि णावलोकेति; गंधे विलेवणाति णाऽऽरभते ण वा अँग्धातति; रसं सुरससंपण्णं ण भुंजति त्ति, पक्खा लिताणि सित्थाणि कणिकायो वा अब्भवहरति; फासेसु फरिसितो वि वेसिस्थिकादीहि णिब्वियारलिंगो अच्छति, 15 तेसु रागं ण भावेति, अणिढेसु क्रंदण-रोयण-हणण-विणासणातिसद्देसु विक्खोभं ण जाति । परमबीभच्छेसु विरूवेसु गंधेसु मड-कुधियादिसु ण णासिगावरोहं करेति, कडुगरसेसु ण मुहं विकूणेति, सीउण्ह-कसा-लउडादीहिं ण क्खोमं जाति, एवं तु पओसं ण जाति, एस इंदियप्पणिधी । णोइंदिएसु वि माया गारवसहित एव कुद्धो वि कोलिंग ण दरिसेति, माणमवि अप्पमाणं करेति, गारवेणेव तहाणिगूढभावो वि उज्जयमप्पाणं दरिसेति, लुद्धो वि बहुतरागमत्थपञ्चतमुप्पाएंतो लोभनिग्गहं कुणति । एवं सुप्पणिहितस्स वि भावदोसेण अप्पसत्थो भावप्पणिधी 20 संसारहेतुरेव । एस अप्पसत्थो भावप्पणिधी । पसत्थो पुण इमेण गाहापच्छद्धेण भण्णति-धम्मत्थाए पसत्थो० अद्धगाधा । जो धम्मनिमित्तं इंदिय-णोइंदियाण पणिधाणं करेति । जधा-सोइंदियप्पयारणिरोधो वा तप्पत्तेसुं वा राग-दोसविणिग्गहो, कोधोदयनिरोधो उदयप्पत्तस्स वा विफलीकरणं वा, एस पसत्यो पणिधी । अप्पणिधिरपणिधिजातीओ। धम्मत्थाए भवति पसत्थो, जधा-तित्थकराणं भगवंताणं तूर-णाडगातीपूयासदं सोऊण, उवणचणं वा विलासवतीहिं सुवण्णवत्थ-चामरादीहिं वा दट्टण, धूव-विलेवण-फुल्लेहिं वासाणि अग्घातिऊण, रसे फासोऽणुगतो, १ एसा दुविधा पणिही सुद्धा जदि वृद्ध०॥ २ पत्तोय पसत्थ-ऽपसत्थल वृद्ध०॥ ३ "एसा दुविहा पणिही० अद्धगाधा । एसा इति इदाणिं जा भणिया। दुविधा णाम इंदियपणिधी णोइंदियपणिधी य। सुद्धा णाम अदोससंजुत्ता । जइसहो असंकिते अत्थे वट्टइ । जहा-जइ एवं भणेजा तो पसत्था पणिधी भवेज ति । दोसु नाम अभितरओ बाहिरओ य, इंदिय० णोइंदियपणिधी य व त्ति । तस्स नाम इंदियमंतस्स कसायमंतस्स य । तेसिं इंदियाणं । च त्ति चकारो समुच्चये । किं समुच्चिणइ ? जहा–'बाहिर-ऽभंतराहिं चिट्ठाहिं इंदिय-कसायमंतेण इंदिय-कसायाणं णिग्गहो पसत्थपणिही भण्णई' एवं समुच्चिणइ । इदाणिं पसत्यं अप्पसत्थं च लक्खणं अज्झत्थनिप्पन्न भवइ, तत्थ इमं गाहापच्छद्रं, तं जहा-एसोय पसत्थ-ऽपसत्थ० अद्धगाहा–दुविहं तित्थकरेहि भणियं, तं०-बाहिरं अभितरं च । जं अभितर एत्तो पणिधीए पसत्थं अप्पसत्थं च लक्खणनिष्कन्नं ति, निष्फर्ण णाम अज्झवसाणपं भवति, तं जहा-अपसत्थं पसत्थं च लक्खणं अज्झत्थनिष्फणं भवइ ॥” इति वृद्ध विवरणम् । “एसो० गाहा । व्याख्या--'एषः' अनन्तरोदितः 'द्विविधः प्रणिधिः इन्द्रिय-नोइन्द्रियलक्षणः 'शुद्धः' इति निर्दोषो भवति । यदि 'द्वयोः' बाह्या-ऽभ्यन्तरचेष्टयोः 'तस्य च' प्रणिधिमत इन्द्रियाणां कष याणी च निग्रहो भवति ततः शुद्धः प्रणिधिः, इतरथा त्वशुद्धः । एवमपि तत्वनी याऽभ्यन्तरैव चेटेह गरीयसीत्याह । अत एवमपि तत्त्वे 'प्रशस्तं' चारु तथा 'अप्रशस्तं' अचारु लक्षणं प्रणिधेः 'अध्यात्मनिष्पन्न अध्यवसानोद्गतमिति गाथार्थः ॥” इति हारि०वृत्तिः॥ ४ कषायवतः॥ ५वि पयस्स वि एतस्स मूलादर्श ॥ ६त्थाय प° वृद्ध० सा०॥ ७विकरण सुमूलादर्शे ॥ ८ आजिघ्रति ।। ९ अल्पमानम् ॥ १० भवति समत्थो मूलादर्श ॥ ११ वाताणि मूलादर्श ॥ Jain Education Intemational Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्तिगा० २०४-९] दसकालियसुत्तं । १८३ अधवा रसवद्दव्वेहिं फासुएसणिज्जेहिं साधुपडिलाभणमणुमोदमाणो, फरिसे वि मणिभूमिका-पउमकोट्टिमादिसु वेदेमाणो, एताणि परमेण भत्तिवादेण पहरिसितोऽणुभवमाणो वि पणिधितेंदियो । नोइंदिएसु वि सासणपडिणीयेसु कोध भावेमाणो, परवादिपरिभवणे माणं, अभिमाणेण वा संजमे सम्ममुजुत्तो, परवादिसु वा छल-हेतुवादे मायं, सुयनाणअसंतोसे वा लोभं । अवि य अरहंतेसु य रागो रागो साधूसु वीतरागेसु । एस पसत्थो रागो अज सरागाण साधूण ॥१॥ 5 एवं एस पसत्थो इंदिय-णोइंदियप्पणिधी ॥ ११ ॥ २०५॥ अप्पसत्थो पसत्थो य भावप्पणिधी भणितो । एतस्स पुण दुविहस्स वि जहासंखं फलुद्देसत्थमिमा निज्जुत्तिगाहा __ अट्ठविधं कम्मरयं बंधति अपसत्थपणिहिमाउत्तो। ... तं चेव खवेति पुणो पसत्थपणिहीसमायुत्तो ॥ १२॥ २०६॥ अट्ठविधं कम्मरयं० गाहा । अट्ट विहा प्रकारा जस्स सो अहविहो, नाणावरणाति कम्ममेव 10 रयो कम्मरयो, तं कम्मरयं बंधति णिकाययति अप्पसत्थे पुव्वभणिते पणिहिम्मि आउत्तो। तं चेव खवेति तं अट्ठविधं कम्मरयं खवेति विणासयति पुणो इति सततोवओगेण पसत्थे पुव्वभणिते पणिहिम्मि समायुत्तो ॥ १२ ॥ २०६॥ पणिधिफलमुपदिटुं । तं चेव पुणो कारणत्तेण णियोंतेहिं भण्णति, जहा वा दुपउत्तो खवेतिदमण नाण चरित्तं च संजमो तस्स साधणहाए। 16 पणिधी पयुंजितंव्वोऽणाततणाई च वजाणि ॥ १३ ॥ २०७॥ दसण नाण चरितं० गाहा। दंसणं नाणं चरित्तं च एस चेव संजमो। तस्स संजमस्स साधणट्ठाए साहणनिमित्तं पसत्थभावपणिधी पयुंजितको । तस्स संजमाधारभूतस्स पणिधिस्स रक्खणत्थं अणाततणाई वजाई, आययणं थाणं, तत्थ अणाययगं अजोग्गं थाणं, जहा-"खरिया तिरिक्खजोणी." [ओघनि० गा० ७६७ ] एवमादि। किंच-"खणमवि ण खमं गंतुं अणाययणसेवणा सुविहिताणं।" [ ओघनि० गा० ७६८ ] 20 वजणीयाणि वजाणि ॥ १३ ॥ २०७॥ अणाययणसेवणे पुण पसत्थपणिधिट्ठाणमसक्कं, तहा य सो दुप्पणिधियजोगी पुण लंछिजति संजमं अयाणंतो।। वीसत्थणिसटुंगो व कंटइल्ले जह पडतो ॥ १४ ॥ २०८ ॥ [दुप्पणिधियजोगी० गाहा] । दुप्पणिधियो जस्स जोगो-काय-वति-माणसिगो सो दुप्पणिधियजोगी। पुणसद्देण दोसावमरिसणं । एवमट्ठविधं सो कम्मरयं बंधति जतो लंछिजति संजमं अयाणंतो, 25 जधा कोति सव्रणो कीरति एवं जतणमविजाणंतो संजमक्खतं पावति । णिदरिसणं-वीसत्थणिसटुंगो व, वीसत्यो पमातविरहितो. णिस, मक्कं. वीसत्थं णिसद्राणि अंगाणि जेण सो वीसत्थणिसटुंगो। इवसद्दो उवमाए। जहा वीसत्थनिसटुंगो कंटकावचिते देसे पवडतो व लंछिज्जति तहा दुप्पणिधियजोगी थी-पसु-पंडगादीहि कंटगेहिं लंछिजति ॥ १४ ॥ २०८ ॥ पणिधाणगुणो इमो सुप्पणिधितजोगी पुण ण लिप्पती पुब्वभणितदोसेहिं । णिद्दहति य कम्माई सुक्खमिव तणं जहा अग्गी ॥ १५ ॥ २०९॥ १दसण-नाण-चरित्ताणि संजमो खं० वी० पु. सा. वृद्ध० ॥ २ जियव्वा अणायणा वी० । जियवो अणायणापु० सा०। जियव्वोऽणाययणा खं०॥ ३णि सिटुंखं ॥ ४ सुक्कतणाईजहा खं० वी० पु० साहाटी॥ Jain Education Intemational Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [अट्ठमं आयारप्पणिहिअज्झयणं सुप्पणिधितजोगी पुण० गाहा । सुप्पणिधिया जस्स कायादयो जोगा सो सुप्पणिहितजोगी। सो पुण ण लिप्पति जहा अप्पसत्यपणिधिजुत्तो पुव्वभणितदोसेहिं । पुव्वोवचियाणि वि णिहहति कम्माइं नाणावरणादीणि । णिदरिसणं-सुक्खमिव तणं जहा अग्गी ॥ १५ ॥ २०९ ॥ जतो एवमप्पणिधाणे दोसा, गुणा य सुप्पणिधाणे तम्हा तु अप्पसत्थं पणिधाणं उज्झिऊण समणेणं ।। पणिधाणम्मि पसत्थे भणितं आयारपणिधाणं ॥ १६ ॥ २१०॥ ॥ आयारपणिहिणिज्जुत्ती सम्मत्ता॥ तम्हा तु अप्पसत्थं पणि० गाधा । तम्हा इति पुव्वभणितकारणावमरिसणं । अतो अप्पसत्थं पणिधाणमुजिमऊण पसत्थे पणिधाणे भगवता भणितमायारपणिधाणमिति ॥ १६ ॥ २१०॥ 10 एस णामणिप्फण्णो । सुत्तालावगनिप्पण्णे सुत्तमणुओगहाराणुक्कमेणं । तं पुण इमं ३७० आयारप्पणिधिं लडं जहा कातव्व भिक्खुणा । तं भे उदाहरिस्सामि आणुपुग्वि सुणेह मे ॥ १ ॥ ३७०. आयारप्पणिधिं लढुं० सिलोगो । आयारो पणिधी य पुब्वभणितमुभय, आयारे पणिधी आयारप्पणिधी आयारे सव्वप्पणा अज्झवसातो तं लड़े पाविऊण जहा कातवं जमायरणीयं तं भे 15 उदाहरिस्सामि, तमायरणीयं भगवतो सयमुवलम्भ सव्वं आगमतो वा, गणहरादीणिवयणमिणमंतेवासिचोदणे, तं मे उदाहरिस्सामि कहयिस्सामि । आणुपुर्दिव जहापरिवाडिं सुणेह मे ॥१॥ आयारपणिधीए सुत्ते पुव्वं चरित्तायारो भण्णति, दंसण-नाणायारा जतो तम्मि सण्णिधिता, कहं ? "नादंसणिस्स नाणं." [उत्त० भ० २८ गा० ३०] गाहा, चरित्तं च जीवातिवातवेरमणाति, जीवा पुढविमादयो त्ति तदुईसत्थं भण्णति ३७१. पुढवि दग अगणि वाऊ तण रुक्ख सबीयगा । 20 __ तसा य पाणा जीव ति इइ वुत्तं महेसिणा ॥ २ ॥ ३७१. पुढवि दग० सिलोगो । पुढविदगा-ऽगणि-वातवो सव्वप्पभेदभिण्णा सूतिया । तृण अप्पकाया वि वणस्सति त्ति जुत्तं भण्णति, रुक्खवयणेण दुवालसविधाण सूयणं, सबीयका इति मूलादिवणस्सतिविकाराण । एते पढविमादिणो पंच तसा य बेंदियादयो जीवा। इतिसद्दो परिसमत्तीए, एते एव, ण पुण एतव्वतिरित्ता केयि । बितियो इतिसद्दो प्रकारार्थे सर्वभेदोपसङ्ग्रहाय । वुत्तमुपदिटुं महेसिणा गौरवविधाणत्यं सव्वण्णुणा, 26 ण प्पिधज्जणेण केणति ॥ २॥ परूविएसु छसु जीवणिकायेसु तदुपरोधपरिहरणत्थमिदं भण्णति ३७२. तेसिं अच्छणजोगेण णिच्चं भवियवयं सिया । मणसा काय वक्केणं एवं भवति संजते ॥ ३ ॥ १भणिओ आयारपणिहि त्ति खं० पु० सा० । भणिया आयारपणिहि त्ति वी० ॥ २ एतद्गाथानन्तरं नियुक्त्यादर्शेषुछक्काया समितीओ तिणि य गुत्तीओ पणिहि दुविहा उ । आयारप्पणिहीए अहिगारा होति चउरेते ॥ इत्येषा गाथाऽधिका उपलभ्यते। नास्तीय गाथा चूर्णा-वृत्तिकृद्भिर्व्याख्याता ॥ ३ निर्वचनम् ॥ ४ अगणि मारुय तण खं ३-४ जे. शु० । अगणि वाऊ तण खं १-२ अचू० हाटी०॥ ५ वायवः॥ ६ अल्पकायाः॥ ७ द्वादश मेदाः प्रज्ञापनासूत्रप्रथमपदे २२ सूत्रे यथा-"रुक्खा १ गुच्छा २ गुम्मा ३ लता ४ य वल्ली य ५ पव्वगा ६ चेव । तण ७ वलय ८ हरिय ९ ओसहि १० जलरुह ११ कुहणा १२ य बोद्धव्वा ॥” इति ॥ ८ होयव्वयं खं १-२-४ जे० शु० वृद्ध० । भोयव्वयं खं ३ ॥ Jain Education Intemational Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 णिज्जुत्तिगा० २१० सुनगा० ३७०-७६] - देसकालियसुत्तं । १८५ ____ ३७२. तेसिं अच्छणजोगेण सिलोगो । तेसिं पुढविमादीण जहुद्दिवाणं छणणं छणः, "क्षणु हिंसायामिति" एतस्स रूवं, छ(क्ष)कारस्स य छगारता पोकते, जधा अक्षीणि अच्छीणि, अकारो पडिसेधे, ण छणः अछणः अहिंसणमित्यर्थः, जोगो संबंधो सो अहिंसणेण, अच्छणो जोगो जस्स सो अच्छणजोगो, तहाविहेण अच्छणजोगेण णिचं भवियव्वं सदा सिया इति नियमोऽयं । सो छण(? अच्छण)जोगो तिविसुद्धो करणीयो त्ति भण्णति-मणसा काय वकेणं तिविहेणं करण-कारणा-ऽणुमोदणविसुद्धण छणजोगविरहिए । एवं भवति संजतो एवं समं जतो भवति ॥३॥ पभेदोपदरिसणेण पुढविक्कायछणजोगनिवारणथमिमं भण्णति३७३. पृढविं भित्ति सिलं लेलुं व भिंदे ण संलिहे। तिविहेण करणजोगेण संजते सुसमाहिते ॥ ४॥ ३७३. पुढविं भित्ति सिलोगो । पुढवी इति विकप्पविरहिता । भित्ती तडी । सिला सुविच्छिण्णो 10 पासाणो । लेलू लेट्दुओ। एताणि जधुट्ठिाणि णेव भिंदे दुधा तिधा णेकधा, णेव अंगुलि-सलागादीहि संलिहे । पुढवि-तदस्सियपाणसारक्खणत्थं तिविहेण करणजोगेण संजते सुसमाहिते सन् ॥ ४ ॥ पुव्वं कामकारकतनिवारणं । इमं तु साभाविककायचेट्टानियमणत्थं भण्णति.. ३७४. सुडपुढेवीए ण णिसिए ससरक्खम्मि आसणे । पमज्जित्तु णिसीएजा जाणित्तु जाइयोग्गहं ॥५॥ ३७४. सुद्धपुढवीए० सिलोगो । असत्थोवहता सुद्धपुढवी, सत्थोवहता वि कंबलिमातीहि अणंतरिया, ताए ण णिसिए। “एगग्गहणे विगहणं तज्जातियाण"मिति थाणा-ऽऽसणातिनिवारणं । समुद्धतपढविरयुग्गुंडितं ससरक्खं, तत्थ सचित्तपुढवीरक्खणत्यं ण णिसिए । अचित्ताए पुण पमजिऊण निसिएज्जा संडासए पुढवि च । जाणित्तु सत्योवहता इति लिंगतो पंचविहं वा ओग्गहं जाणित्तु तं जाइय अणुण्णवित ॥५॥ पुढविक्कायाणंतरुद्दिट्ठस्स आउक्कायस्स छणनियोगनिवारणथमिमं भण्णति३७५. सीतोदगं ण सेवेजा सिला बुलु हिमाणि य ।। उसुणोदगं तत्तफासुयं पडिग्गाहेज संजते ॥ ६ ॥ ३७५. सीतोदगं ण सेवेजा सिलोगो । सीतोदगं तलागादिसु भौमं पाणितं । सिला करगवरिसं। [ वुटुं] वुवंतकालवरिसोदगं । हिमं हिमवति सीतकाले भवति । एतं सव्वमवि ण सेवेन्ज । चसद्देण तुसारादयो वि । णिसेवणे इमा जतणा-उसुणोदगं तत्तफासुयं, तत्तफासुयमिति विसेसेणं, ण तावण-25 मेतेण फासुयं भवति, जता पुण उव्वत्तो डंडो तता फासुगं, इतरहा मिस्सं, तं पडिग्गाहेन । एतेण प्पगारेण संजतो भवति एवं विसेसणं संभवति ॥६॥ इहावि पुव्वं अन्भुवेच्च णिसेधणमाउक्कायस्स ।संभवतो पुण भेक्खादिणिग्गतस्स वरिसोदगतिम्मणं उत्तरणेण वा णदीमादीण तत्थ जतणत्थमिमं भण्णति३७६. उदओल्लं अप्पणो कायं णेव पुंछे ण संलिहे । समुप्पेहे तहाभूतं णो णं संघट्टए मुणी ॥ ७॥ - 30 १प्राकृते ॥ २ पुढवि खं २-३-४॥ ३°ढविं न खं १॥ ४ रक्खे य आ° खं १ वृद्धः । रक्खे व आ हाटी ॥ ५जा जाइत्ता जस्स ओग्गहं अचू. वृद्ध. हाटी• विना ॥ ६सिल खं ४॥ ७उसिणों अचू• विना ॥ ८ समुप्पेह अचू. वृद्ध विना ॥ दस.सु. २४ 20 Jain Education Intemational Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [अट्ठमं आयारप्पणिहिमायणं ____३७६. उदओल्लं अप्पणो कार्य सिलोगो। उदयेण ओलं उदओल्लं, तं पुण बिंदुसहितं तधाजातीतं ससणिद्धमवि अप्पणो कायमवि, किमुत बाहिरवत्थु । तं णेव पुंछे ण संलिहे, पुंछणं वत्यादीहिं लूहणं, संलिहणमंगुलिमादीहिं णिच्छोडणं । समुप्पेहे उवेक्खेज्जा परिधारेज्जा तहाभूतमिति उदओल्लसरिसं । ससणिद्धादि परोप्परेणावि गातं गाँएण णो णं संघटए मुणी। तं आउक्कायजीवभावं मुणतीति मुणी ॥७॥ ___आउक्कायाणंतरुद्दिद्वतेउकायोपरोधपरिहरणथमिमं भण्णति३७७. इंगालं अगणिं अच्चिं अलातं वा सजोतियं । ण उंजेज्जा ण घट्टेजा णो णं णिव्वावए मुणी ॥ ८॥ ३७७. इंगालं अगणिं० सिलोगो । परिदई कहादि जालाविरहितमिंगालो। सव्वावत्थो अगणी। दीवादिसिहा अपरिच्छिण्णा अची। उम्मकमलातं। सव्वं पगासणसमत्थं जोती। सव्वे एते अगणिभेदा 10 ण उंजेजा ण घट्टेवा णो णं णिव्वावए, उंजणमवसंतुयणं, घट्टणं परोप्पेरणं अप्फोडणं, णिव्वावणं विझवणं, एताणि न कुजा मुणी करण-कारणा-ऽणुमोदणभावणं ॥८॥ अगणिक्कायाणंतरुद्दिट्ठवायुसमारंभपरिहरणत्यमिदं भण्णति३७८. तालियंटेण पत्तेण सौधाविधूणणेण वा । ण वीये अप्पणो कायं बाहिरं वा वि पोग्गलं ॥९॥ 18 ३७८. तालियंटेण पत्तेण. सिलोगो । तालियंटो उक्लेवो । पत्तं पला[सादीणं । साधा ___रुक्खडालं, विधूणणं वीयणं । एतेसिं केणयि ण वीये अप्पणो कायं सरीरं, सरीरवतिरित्तं वा बाहिरं पोग्गलं । सयंकरणपडिसेहेण कारणा-ऽणुमोदणमवि पडिसिद्धमेव ॥९॥ वायुसमणंतरं वणस्सतिकायजतणा इति भण्णति३७९. तण-क्खे ण छिदेजा फलं मूलं व कस्सति ।। आमगं विविधं बीयं मणसा वि ण पत्थए ॥ १० ॥ ३७९. तण-रुक्खे ण छिंदेजा. सिलोगो। तणं सेडिकादि, रुक्खा सालादयो । समाणे वणस्संतिकातत्ते पिधं तणग्गहणं तण-वलत-हरित-ओसहि-जलरुह-कुहणाण अप्पकायाण उपादाणत्थं । रुक्खग्गहणं रुक्ख-गुच्छ-गुम्म-लता-वलि-पव्वगाणं महासरीराणं । फल-मूलवयणं कंदातिसव्ववणस्सतिकायावयवप्रसिद्धये । कस्सति त्ति जधाभणितवणस्सतिकायस्स । आमग जं ण पाकादिपरिणामियं, तं मणसा वि ण 25 पत्थए, किं पुण कारण वायाए वा ॥१०॥ एगिदियाण पंचण्ह वि कायाणं जतणत्थं पत्तेयं उवदसो भणितो । छह वि कायाण जतणत्यमिम भण्णति३८०. गहणम्मि ण चिट्ठज्जा बीएसु हरितेसु वा । उदगम्मि तहा णिच्चं उत्तिंग-पणगेसु वा ॥ ११ ॥ १भायं ण गो मूलादर्श ॥ २साहाविहुयण अचू० विना ॥ ३ विएज अप्प ख २-४ जे. शु. वृद्ध । विएजऽप्प ख १-३॥ ४ रुक्ख ण अचू० विना । "तृण-वृक्षमित्येकवद्भावः, तृणानि दर्भादीनि, वृक्षाः कदम्बादयः, एतान् न छिन्द्यात्" इति हारि० वृत्तौ ॥ ५वनस्पतिका यत्वे ॥ ६ काए य वा मूलादर्श ॥ ७गहणेसुण अचू• विना ॥ Jain Education Intemational Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुतगा० ३७७-८३ ] दसकालियसुत्तं । १८७ ३८०. गहणम्मि ण चिट्ठेज्जा ० सिलोगो । गंहणं घणं गंभीरं, एतम्मि ण चिट्ठे [ज्या] णिसीदणादि सव्वं ण एज्जा । गहणं विसेसणं पुण वणस्सतीए, बीत-हरितं, तत्थ बीय- हरितस्स तयालयाणं च तसातीण उपरोधो संभवति । उदगं सभावेणेव गहणं, अंतज्जले बहुसत्तसंभव इति तस्स उदगस्स तैदालताण य बहूण वणस्सति-तसादीण उपरोध एव । उत्तिंगो पिपीलिकाघरं तत्थ वि पुढवीत बीयाण, तहेव पणओ उल्ली तत्थ कुथुमादयो बहवे इति तस - वणस्सतिविराहणं । पुढवी - आउ-वणस्सतीसु चैव चिट्टणाति संभवति, तत्थ एताणि गणाणि परिहरियव्वाणि ॥ ११ ॥ पसंगतो तसकायजयणा भणिता । पाहण्णेण पुण उपदेसत्थमिमं भण्णति३८१. सपाणे ण हिंसेज्जा वाया अदुव कम्मुणा । उवरतो सबभूतेसु पासेज विविधं जगं ॥ १२ ॥ ३८९. तसपाणे ण हिंसेज्जा ० सिलोगो । तसा बेइंदियादयो ते ण हिंसेज्जा, वाया अदुव कम्मुणा, अहवासद्देण मणो वि उवसंगहितं । उवरतो सव्वभूतेसु, उवरतो निवृत्तो सव्वभूताणि 10 तसकायाधिकारो त्ति सव्वतसा । तेहिंतो वधं प्रति उवरतो पासेज्ज विविधं अणेगागारं हीण- मज्झाऽधिकभावेण जगं लोगो तं, एवं वहोवरतीए पासेज्ज, तथा च दृष्टं भवति । अपि च मातृवत् परदाराणि परद्रव्याणि लेष्ठुवत् । आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति स पश्यति ॥ १ ॥ ॥ १२ ॥ अविसेसेण तसपाणवधवेरमणमुपदिट्ठे । सदयो लोगो वि थूरसरीरेसु हिंसं परिहरति । सुहुमा वि जाणिऊण 15 हिंसितव्वति तेसिं जाणणत्थमिदं भण्णति ३८२. अट्ठ सुहुमईं मेधावी पडिले हेतु संजते । दयाधिकारी भूतेसु आस चिट्ठ सय त्ति वा ॥ १३॥ ३८२. अट्ठ मुहुमाइं• सिलोगो । अट्ठेति संखा सुहुमाणि सण्हाणि, सुहुमाणीति नपुंसकनिद्देसो जीवत्थाणाणि अहवा सरीराणि, ताणि गहण -धारणमेराधावणमेधावी पडिलेहेत्तु उवलभिऊण संजते इति 20 उवलभणतग्गतमाणसो, दया घिणा, अधिकारो तदभिज्झा, दयाए अधिकारो जस्स सो दयाधिकारी, भूतेसु जीवेसु । एवंगते आस उवविस, चिट्ठ उट्ठितउ, सय सुवाहि । आसण त्याण - सयणक्रियासु सव्वावत्थं दयाधिकारी भवेज्जा ॥ १३ ॥ अट्ठ त्ति उद्दिट्ठपइण्णपडिणामं विसेसियाणि । तव्विसेसणत्थं चोदणामुहमुत्थापयंति गुरवो । जधा३८३. कर्तमाणि अट्ठ सुहुमाणि ? जणि पुच्छेज्जे णं परो । इमाई ताई मेधावी औदिक्खेज्ज वियैक्खणो ॥ १४ ॥ १ “ तत्थ गहणं गुविलं भण्णइ, तत्थ उव्वत्तमाणो परियत्तमाणो वा साहादीणि घट्टेइ तं गहणं" इति वृद्धविवरणे । " गहनेषु वननिकुजषु न तिष्ठेत् सङ्घट्टनादिदोषप्रसङ्गात् " इति हारि० वृत्तौ ॥ २ " तत्थ उदगं णाम अनंतवणप्फई, से भणियं च - "उदए अवए पणए सेवाले " [ ] एवमादि | अहवा उदगग्गहणेण उदगस्स गहणं करेंति, कम्हा ? जेण उदए वणफइकाओ अस्थि ।” इति वृद्धविवरणे । " अत्र उदकम् अनन्तवनस्पतिविशेषः । यथोक्तम् — “ उदए भवए पणए" इत्यादि । उदकमेवाऽन्ये, तत्र नियमतो वनस्पतिभावात् । " इति हारि० वृत्तौ ॥ ३ तदालयानाम् ॥ ४ तसे पाणे खं १-३ शु० वृद्ध० ॥ ५ अदुय खं १ जे० ॥ ६° माई पेहाए जाई जाणितु संजय अचू० विना ॥ ७ सएहि वा अचू० वृद्ध ९ हाटी० विना ॥ ८ नास्त्ययं सूत्रश्लोकः वृद्धविवरणे ॥ ९ कयराई अ° अचू• विना ॥ • १० जाई पुखं १-२-३ जे० ११ 'ज संजय | इमाई अचू० बिना ॥ १२ आइक्यो खं १-२-३ जे० शु० । आयक्खे खं ४ ॥ शु० । जायं पु° खं ४ ॥ १३ विचक्खणे जे० ॥ For Private Personal Use Only 25 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ णिज्जुत्ति-वुण्णिसंजुयं [अट्ठमं आयारप्पणिहिअल्झायणं ३८३. कतमाणि अट्ठ सहुमाणि० सिलोगो । कतमाणीति पडिपुच्छावयणं । अद्वेति जाणि पढममुट्टिाणि । सहमाणीति भणितं । जाणि पुच्छलणं परोति सिस्सवयणं. परेण चोतितेण कतराणि य मया कहयियव्वाणि १ । आयरिया आणवेंति-इमाइं ताई मेधावी आइक्खेज वियक्खणो, इमाणीति ज़ाणि अणंतरं भणीहामि ताणीति जाणि पुच्छसि मेधावी जधामणितावधारणक्खमो आदिक्खेज पुच्छ5माणाण कहेज वियक्खणो सयमवि लिंगतो वियारणक्खमो ॥१४॥ जमुद्दिष्टुं इमाणि” इति तप्पडिसमाणणत्यं मण्णति३८४. सिणेहं १ पुष्फसुहुमं २ च पाणुत्तिंगं ४ तहेव य । पणगं ५ बीय ६ हरितं ७ च अंडसुहुमं ८ च अट्ठमं ॥ १५ ॥ ३८४. सिणेहं पुप्फसुहुमं० सिलोगो । सिलोगेणेव उदिवाण विभागो-सिणेहसुहुमं पंचप्पगारं, 10०-ओस्सा हिमए महिया करए हरतणुए १ । पुप्फसुहुमं च उदुंबरादीणि पुप्फाणि, तस्समाणवण्णाणि सव्वाणि वा सुहुमकायियाणि पुप्फसुहुमं २ । अणुंधरी कुंथू चलमाणा विभाविज्जति, णेतरहा, एतं पाणसुहुमं ३ । उत्तिंगमुहुमं कीडियाघरगं, जे वा जत्थ पाणिणो दुन्विभावणिज्जा ४ । पंचवण्णो तहव्वसमतावण्णगो पणगो पणगसुहुमं ५ । सरिसवादि सव्वबीयाण वा मिजाथाणं वितियसुहुमं ६ । अंकुरो हरितसुहुमं ७ । पंचविधमंडसुहुमं तं०-उदंसंडे पिपीलियंडे उक्कलियंडे हलियंडे हलोहलियंडे । उइंसंडं महुमच्छिगादीण । 15 कीडियाअंडगं पिपीलियाअंडं । उक्कलियंडं लूयापडगस्स । हलियंडं बंभणियाअंडगं । सरडिअंडगं हलोहलिअंडं ८॥१५॥ कधियाणि अट्ठ सुहुमाणि । तप्पडिसमाणणत्थमिदं भण्णति३८५. एवमेताणि जाणित्ता सबभावेण संजते । अप्पमत्ते जए णिच्चं सम्विदियसमाहिते ॥ १६ ॥ 20 ३८५. एवमेताणि० सिलोगो । एवमिति पुव्वभणितेण प्रकारेण एताणीति अणंतरभणिताणि जाणित्ता उवलभिऊणं सव्वभावेणं लिंग-लक्खण-भेदविकप्पेणं, अहवा सवभावेण अप्पमत्ते इंदियादिपमादविरधिते संजते इति ण अण्णत्थ अप्पमादो विजति, एवं वा संजते भवति, निचं सता सविदियसमाहिते सदातिसु अरज्जमाणे ॥ १६ ॥ तसाण विसेसेण अण्णेसि पि संभवतो अहिंसणमिदं भण्णति___३८६. धुवं च पडिलेहेज्जा जोगसा पाय-कंबलं । सेजमुच्चारभूमिं च संथारं अदुवाऽऽसणं ॥ १७ ॥ ३८६ धुवं च पडिलेहेजा सिलोगो । धुवं नियतमप्पणो पडिलेहणकाले पडिलेहेज त्ति पडिलेहणपप्फोडण-पमजणमुपदिटुं। जोगसा जोगसामत्थे सति । अहवा “उवउजिऊण पुवि" [मोघनि० गा.२८८] ति जोगेण जोगसा ऊंणा-ऽतिरित्तपडिलेहणवजित वा, जोगसा जोगरत्ता कसायी । तहा पायं लाबु-दारु30 मट्टियामयं, कंबलोपदेसेण तज्जातीयं वत्यादि सव्वमुपदिढे । पडिस्सओ सेना, तमवि सदाकालं पडिलेहेज्जा । १ मत्तो जए खं १-२-३-४ जे.॥ २'ब्यसभा मूलादर्शे ॥ ३ विरहितः ॥ ४ प्रभावं च खं ४॥ ५“महवा जोगसा णाम जे पमाणं भणितं ततो पमाणाओ ण हीणमहितं वा पडिलेहेजा, जहा जोगरत्ता साडिया पमाणरत्त ति वुक्तं भवति, तहा पमाणपडिलेहा जोगसा भण्णइ" इति वृद्धविवरणे॥ Jain Education Interational Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुलगा० ३८४-८९ ] दसकालियसुतं । १८९ उच्चारो सरीरमलो तस्स भूमी उच्चारभूमी, तमवि अणावातमसंलोगादिविहिणा पडिलेहेज्जा, पडिले हितमज्जिते वा आयरेज्ज । संथारभूमिमवि पडिलेहित अंत्थुणेज्जा । आसणमवि उवविसमाणो पडिलेहेज्जा ॥ १७ ॥ छवि जीवणिकायाण समासतो हिंसापरिहरणत्थमिमं भण्णति ३८७. उच्चारं पासवणं खेलं सिंघाण जल्लियं । फासुयं पडिलेहित्तु परिट्ठावेज्ज संजते ॥ १८ ॥ ३८७. उच्चारं पासवणं० सिलोगो । उच्चारो वच्चं ! परसवणं परसावो । खेलो ससमयाभिधाणेण हिओ । सिंघाणओ सिंघा । जल्लिया मलो, तस्स य जाव सरीरमेदाए नत्थि उव्वट्टणं । दा पस्सेदेण गलति गिलाणाति कज्ने वा अवकरिसणं तदा । एवं उच्चार पासवण - खेल - सिंघाणाति जल्लियं फासूयं भूमिप्पदेसं पडिलेहिन्तु परिद्वावेज संजते, एवं परिद्ववेमाणो वि संजतो भवति ॥ १८ ॥ अडवीए पडिस्सए वा छञ्जीवणिकायजतणा भणिता । भिक्खातिगतो पुण३८८. पविसित्तु परागारं पाणत्था भोयणस्स वा । तं चिट्ठे मितं भासे णो रूवेसु मणं करे ॥ १९ ॥ ३८८. पविसित्तु परागारं० सिलोगो । अगारं गिहं, परस्स अगारं परागारं, तदंगणाति सव्वमगारं । केण पुण कारणेण ? इति भण्णति - पाणत्था भोयणस्स वा, पाणं आयामादि भोयणं असणाति तदहं । वासरेण वत्थादिकज्जेण वा । पवेसे कारणं भणितं । तत्थ किं करणीयं ? जतं चिट्ठे, जतो पवयण-संजमो- 15 वघातियं ठाणं वज्जेऊण । उक्खेव निक्खेवसोधणङ्कं अणेसणापडिसेहं पुच्छितो वा किंचि चोदणाए अणवज्जमेगं दो वा मितं भासेज्जा । भेक्खादिप्पदाणं पायो इत्थीसु ततो तार्सि सिंगारादीसु णो रूवेसु मणं करे, वणियवच्छक निदरिसणेण । " एगग्गहणे गहणं समाणजातीयाणं " ति सद्द-रस-गंध-फासेसु वि ॥ १९ ॥ सो एवं भेक्खादिगतो तिकरणोवयुत्तो वि अवगुतदुवारेहि उम्मिलितेहि य-बहुं सुणेति० सिलोगो । पुच्छितो वा वट्टमाणिं एवमियं भासेज वा अम्हं एसणोवउत्ताणं णत्थि परवावारो, इमो य सिद्धतोवदेसो 20 ३८९. बहुं सुणेति कण्णेहिं बहु अच्छी हिं पासति । यदिट्ठे सुयं सव्वं साधू मक्खातुमरुहति ॥ २० ॥ ३८९. बहुं सुणेति एवं सिलोगो । बहुं पभूतं पसत्थाऽप पत्थसद्दजातं बहुं सुणेति कण्णेहिं । तथा रुवगतं अच्छीहिं पासति । तत्थ न दिडं सुतं वा सव्वमक्खातुमरुहति साधू । दिट्ठे ताव जति कोति भणेज्जा - अत्थि ते एतेण ठाणेण पुरिसो णस्समाणो दिट्ठो ? सो य वज्झो वा डंडणीयो वा । जीवंतइ - 25 तित्तिरहत्थगतं वा मेतं मंसत्थी पुच्छेजा । सुतं वा भवता को एतस्स पडहगस्स अत्थो ? सो य ं कस्सति उग्गोवत्थो वा प्रदाणाती वा जणवतोवघातिए ? । एवमादिए सुते तत्थ ण य दिहं सुयं सव्वं० । णांतं सव्वसद्दो निस्सेसवाची किंतु विसेसे, तेण भगवतो तित्थगरस्स पूया - महिमादि, वादे वा परवादिं परायियं दिनं, अण्णं वा पवयणुब्भावणकारि सुतं, अवि भगवतो सुसाधुस्स वा कस्सति आगमणाति, एवंविदं पुच्छितो अपुच्छितो वा अक्खातुमहति ॥ १ आस्तृणुयात् ॥ २ लेखा प° अ० जे० विना ॥ ५ पेकछह सं २-३-४ । पेच्छई शु० जे० । पेच्छ सं १ ॥ 10 ३ पाणट्ठा अचू० विना ॥ ४ ण य रूवे अचू• बिना ॥ ६ मिक्खू मक्खाउमरिहर अजू० बिना ॥ ७ न अयं सर्वशब्दः ॥ For Private Personal Use Only 30 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजयं [अट्ठमं आयारप्पणिहिअझयण एत्य उदाहरणं-धिज्जाइतो साधुणा उभामगमादरमाणो दिट्ठो । तेण ‘मा कस्सति कहेति' ति साधुमारणत्यं पंथो बद्धो। पुच्छिओ य णेण-किं ते दिटुं ?। साधुणा भणियं-सावग! एस सिद्धंतोवदेसो"बहुं सुणेति कण्णेहिं०" । धिज्जातितो मारणवावारातो नियत्तो, धम्म सुणेऊण निक्खंतो॥ ___एवं ण दिळं सुतं वा सव्वमक्खातुमरुहति ॥२०॥ पुव्वभणितस्स अत्थस्स पडिसमाणणत्थमिमं भण्णति ३९०. सुतं वा जदि वा दिटुं ण लवेजोवघातितं । __ण य केणति उवादेण गिहिजोगं समायरे ॥ २१ ॥ ३९०. सुतं वा जदि वा दिटुं० सिलोगो । सुतं चोर-पारदारिकादि णो एवं लवेज-किंमए ण सुतो सि जधा एरिसो ? दिट्ठपुव्वो वा सि एरिसमायरंतो, एवं ण लवेजोवघातितं । ण य केणति उवादेण 10 केणति प्रकारेण गिहिजोगं गिहिसंसग्गि गिहिवावारं वा गिहिजोगं इमं वा कम्मं करेह ति तदुपदेसं ॥ २१ ॥ गोयरगतस्स सोय-चक्खु-वयणनियमणमुद्दिढं । इमं तु विसेसेण रसनियमणनिमित्तं भण्णति३९१. निट्ठाणं रसनिजूढं भहगं पावगं ति वा । पुट्ठो वा वि.अपुट्ठो वा लाभा-ऽलाभं ण णिदिसे ॥ २२ ॥ ३९१. निट्ठाणं रसनिजूढं० सिलोगो । सव्वसंभारसंभियं सुपागं सुगंधं सुरसतया णिहं गतं भोयणं 16 णिहाणं । अरसविरसमलवणकंजिकादि निग्गतरसं रसनिज्जूढं । तत्थ निहाणे पुच्छितो वा 'किं ते लद्धं ?? अपुच्छितो वा पहरिसितो 'पेक्खह मिमं लद्ध'मिति लाभं ण णिहिसे, विरसे वा 'किमेतेण करेमी'ति अलाभं ण निद्दिसे, 'विरसेण वा किमेतेण करेमी'ति अलाभं ण निदिसे ॥ २२ ॥ वयणेण लाभा-ऽलाभनिदिसणनिवारणं कतं । चेतसा पुण ३९२. ण य भोयणम्मि गिद्धो चरे उंछं अयंपुरो। 20 __अफासुयं ण भुंजेज्जा कीतमुद्देसिया-ऽऽहडं ॥ २३ ॥ ३९२. ण य भोयणम्मि गिद्धो० सिलोगो। ति पडिसेहसदो । भोयणं अण्णं, तम्मि ण गिद्धो ण अतिकखापरो चरे गच्छे उंछं चउव्विहं । णाम-ठवणातो गतातो। दव्बुंछं उछवित्तीणं । भावूछे अण्णातमेसणासुद्धमुपपातियं भावुछ, तं चरे। चडुकम्मादिअजंपणसीलो अयंपुरो। तं उंछं विसेसिजति अफासुयं न भुजेल । तं पुण कीतमुद्देसिया-ऽऽहडं कीतुइसिया-ऽऽहडातीणि पिंडणिज्जुत्तीए 25 भणिताणि, तेहिं सेसुग्गमदोससूयणं, एवं उग्गमदोसमसुद्धमवि ॥ २३ ॥ ___३९३. सण्णिहिं च ण कुवेजा अणुमायमवि संजते । मुधाजीवी असंबद्ध हैवेज जगणिस्सिते ॥ २४ ॥ ३९३. सपिणहिं च ण. सिलोगो । सण्णिधाणं सण्णिधी 'उत्तरकालं भुंजीहामि' त्ति सण्णिचयकरणमणेगदेवसियं तं ण कुवेज। ण केवलं पभूतमेव णिचयं अणुमायमवि थोवमात्रमवि । मुधा अमुल्लेण 30 तथा जीवति मुधाजीवी जहा पढमपिंडेसणाए [सुत्तं १९८] । असंबद्धो रसादिपडिबंधेहि जगणिस्सितो इति ण एवं कुलं गामं वा णिस्सितो जणपदमेव ॥ २४ ॥ १ अयंपिरो खं १-४ अचू० विना ॥ २'मायं पिसं अचू० विना ॥ ३ भवेज जे० ॥ Jain Education Intemational Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१ 16 सुत्तगा० ३९०-९६] दसकालियसुतं । सणिधिकरणमणंतरं निवारितं । इह तु तद्दिवसियमवि३९४. लूहवित्ती सुसंतुट्ठो अप्पिच्छे सुभरे सिया। आसुरत्तं ण गच्छेज्जा सोचौण जिणसासणं ॥ २५ ॥ ३९४. लहवित्ती सुसंतुट्ठो. सिलोगो । लूहं संजमो तस्स अणुवरोहेण वित्ती जस्स सो लूहवित्ती, अहवा लूहदव्वाणि चणग-निप्फाव-कोद्दवादीणि वित्ती जस्स, ण पुण वइयाइसु खीरादि मग्गंतो हिंडति, जेण: तेण लद्धेण संथरति एवं सुसंतुहो । सुसंतुट्ठो वि आहारविसेसोवगरणादिसु वि ण महिच्छो, एवं लूहवित्ती सुसंतुट्ठो। अप्पिच्छो य जो सुहं तस्स भरणं पोसणमिति तथा सिया एवं भवेदित्यर्थः । विसेसेण गोयरगतस्स आमिसत्थिपिंडोलगादीहिंतो अणिट्ठसद्दादिसवणं लाभालाभगतं च कोधकारणमणेगमिति भण्णतिआसुरत्तं ण गच्छेज्जा असुराणं एस विसेसेणं ति आसुरो कोहो, तब्भावो आसुरत्तं, तं ण गच्छेजा। सोचाण जिणसासणं ति जधा जिणसासणे क्रोधविपाकस्स मंडुकलियाखमगादीण वण्णणा, जधा य 10 सति कोधकारणे भगवता आलंबणाणि उपदिट्ठाणि, तं०अक्कोस-हणण-मारण-धम्मभंसाण बालसुलभाण । लाभं मण्णति धीरो जहुत्तराणं अभावम्मि ॥१॥ ]॥२५॥ जहा कोधकारणाति विसेसेण गोयरे संभवति तहा इंदियविसयसुहनिरंतरे लोगे तदणुरत्तेण जणेण समुदीरिताण एतेसि पि संभवो त्ति मण्णति३९५. कण्णसोखेसु सहेसु 'पेमं णाभिनिवेसए । दारुणं कक्कसं फासं काएणं अधियासए ॥ २६ ॥ ३९५. कण्णसोक्खेसु० सिलोगो । कण्णा सोइंदिय, कण्णाण सुधा कण्णसोक्खा, तेसु गेय-हास-विलासातिसु पेमं णाभिनिवेसए प्रीतिं णाभिनिवेसेज, बलादवि सुणणं संभवति । दारुणः कष्टः तीव्रः, सीउण्हातितं ककसो, वयत्थो वयत्याए जो फासो सो वि वयत्यो, तं पुण रच्छादिसंकडेसु 20 विपणिमग्गेसु वा फरिसितो तमवि कारणं अधियासए सहे, ण तत्थ दोस रागं वा भयेजा । अहवा अतीवं कक्कसो दारुणो कसा-लकुलादिसु तमवि अहियासए । एवमेते पंचण्डं सोतादीणं इट्ठा-णिट्ठभेदेण राग-दोसकारणभा विसया, तत्थ जधा "आदिरंतेण सह" इति एवमिहापि आद्यंतवयणेण सव्वेसिमभिधाणं ति सव्वविसए अधियासए ॥ २६ ॥ गोतरगतस्सेव असति लाभे केणति वा बाहिजमाणस्स इमं पि संभवति ति तदहियासणत्थं भण्णति ३९६. खुहं पिपासं दुस्सेजं सीउण्डं अरती भयं । ___ अधिसिए अव्वहितो देहे दुक्खं महाफलं ॥ २७ ॥ ३९६. खुहं पिपासं दुस्सेज्जं० सिलोगो । बुभुक्खा खुधा। पातुमिच्छा पिपासा। विसमादिभूमिसु दुक्खसयणं दुस्सेजा। सीतमुहं वा रितुविकारकतं । अरती अधिती । भयं उब्वेगो सीह-सप्पातीतो । १सुहरे खं १-३ जे. शु० । सुभरे खं २ अचू० वृद्ध० हाटी । सुहडे सुया वं ४॥ २ आसुरुतं सं १-३॥ ३ सोचाणं अचू० ख १ विना ॥ ४ सोक्खेहि सद्देहिं खं १-२-३-४ जे• शु० वृद्ध०॥ ५पेम्म ख ३-४॥ ६ ताद विमूलादर्श ॥ ७ गोचरगतस्यैव ॥ ८ अहियासे ख ४ अ. विना ॥ Jain Education Intemational Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [अट्ठमं आयास्प्पणिहिअज्झयणं एताणि अधियासए सहेज अव्वहितो अविक्कवो होऊण । देहो सरीरं तम्मि उप्पण्णं दुक्खं एवं सहिजमाणं मोक्खपज्जवसाणफलत्तेण महाफलं, भवतीति वयणसेसो ॥ २७॥ एतं गोयरग्गगतस्स लाभादिसु अधियासणं । कालनियमेण पुण३९७. अत्थंगतम्मि आइच्चे पुरत्या वा अणुग्गते । आहारमतियं सव्वं मणसा वि ण पत्थए ॥ २८॥ ३९७. अत्थंगतम्मि आइचे० सिलोगो । आइञ्चादितिरोभावकरणपञ्चयो अत्थो, खेतविपकरिसभावेण वा अदरिसणमत्थो, तं गते, पुरत्था वा पुव्वाए दिसाए अणुग्गते अणुट्ठिए दिणकरे, आहारमतियं सव्वं, आहारमइयं चउविधमाहारं सव्वं असेसं 'कहं कतो वा लभीहामि ?? ति एवं मणसा वि, किमु वाताए ‘देही' ति मग्गणं ?, 'उदिते वा भुंजीहामि' त्ति उपादाणं ण पत्थए णामिलसेज ॥ २८॥ 10 अकाले आहारोपादाणं पडिसिद्धं । सति पुण उपादाणकाले- ३९८. अतिन्तिणे अचवले अप्पवादी मियासणे । असंभवे पभूतस्स थोवं लडु ण खिसए ॥ २९ ॥ ___ ३९८. अतिन्तिणे अचवले. सिलोगो । तेंबुरुविकट्ठडहणमिव तिणित्तिणणं तितिणं, तहा अरसादि ण हिलिमित्थति ति अतिंतिणे। चवलो तरसकारी, तन्निवारणमचवल इति । अप्पवादी जो कारणमत्तं 16 जायणाति भासति । मियासणो मितमाधारयति, एवं जहाभणितोवदेसकारी भवेज । असंभवे पभूतस्स थोवं लड़े दायारं सण्णिवेसं वा ण खिंसए, खिंसणं किलेसणमेव ॥ २९ ॥ गोयरे सव्वावत्यं वा चावलणिवारणाणंतरं गव्वनिवारणमिमं भण्णति३९९. ण बाहिरं परिभवे अप्पाणं ण समुक्कसे । सुतेण लाभेण लज्जाए जच्चा तवस बुद्धिए ॥ ३० ॥ 20 ३९९. ण बाहिरं परिभवे. सिलोगो । णेति पडिसेहसदो । अप्पाणवतिरित्तो बाहिरो तं ण बाहिरं परिभवे । ण वा अप्पाणं समुपसणं उक्करिसणं । तं पुण इमेहि-सुतेण अहमेव बहुस्सुतो, किमेते वरागा जाणंति ? । लामेण अहमेव लद्धिसंपण्णो, अण्णे निष्फिडिताऽगता । लज्जा संजमो तेण वा, अहं उग्गविहारो, अण्णे जहा तधा वा । जच्चा जातीए, अहं उग्गजातीतो, ण सेसा । तवसा वा को मम तुल्लो? ति । बुद्धीए जहा अहं परियच्छामि णेवं कोति । अहवा बाहिरो जो सुतादीहिं असंपुण्णो ण पुण अवतिरित्तो चेव तं 25ण परिभवे ॥ ३० ॥ जता पुण सरागतया पुव्वभणिताण समायट्ठाणाण संभवो तदा खलितपडिसंधणस्थमिदं भण्णति४००. से जाणमजाणं वा कटु आहम्मितं पदं । संवरे खिप्पमप्पाणं 'बितियं तं ण समायरे ॥ ३१ ॥ १त्थाय अ° अचू० विना ॥ २ अप्पभासी मियासणे। हवेज उयरे दंते थोवं अचू० विना। अप्पवादी वृद्धा भवेज्ज उदरे खं ४॥ ३ मितमाहारयति ॥ ४ अताणं अचू० विना ।। ५ सुय-लामे ण मजेजा जया तवस्सि बुद्धिए अचू. वृद्ध विना ॥ ६ जाया त खं ॥ ७ जाणं अजाणं खं ४ जे. शु.॥ ८बीयं खं १-२-४ शु.॥ Jain Education Intemational Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुतगा० ३९०-४०४ ] दसकालियसुत्तं । १९३ ४००. से जाणमजाणं वा० सिलोगो । से इति वयणोवण्णासे । जाणं जाणंतो कामकारेण । अजाणं अणाभोगेण । वासहो एवमेवं वा कद्दु आहम्मितं करेतूण आधम्मितं अधम्मेण चरति जं, पयसो अत्थवयणो, जधा - उच्चारपदेण पत्थितो । तमाधम्मियमत्थं काऊण अहम्मागमनिवारणत्थं संवरे विप्पमप्पाणं संवरणं पिधणं विप्पं सिग्धं । बितियं पुण तं अत्यं ण समायरे ॥ ३१ ॥ संवरणं पायच्छित्तादि गुरुवदेसेण भवति त्ति तं भण्णति ४०१. अणायारं परकम्म णे गूहे ण व निहवे । सूती सदा विगडभावो असंसत्तो जितिंदिओ ॥ ३२ ॥ ४०१. अणायारं परकम्म० सिलोगो । अणायारो अकरणीयं वत्युं तं परकम्म पडिसेविऊण तमालोए गुरुसगासे । आलोएमाणो सयं लजादीहिं ण गूहे ण किंचि पडिच्छाएज्या, ण वा पुच्छितो निण्हवे, सूती ण " आकंपतित्ता अणुमाणतित्ता०” [ स्थाना० स्था० १० सू० ७३३ पत्रं ४८४ - १]। सदा विगडभावो 10 सव्वावत्थं जधा बालो जंपतो तहेव विगडभावो । असंसत्तो दोसेहिं गिहत्थकज्जेहिं वा । जितसोता दिदिओ, [ अ ]तहाकारी, एवं संदरिसितसव्वसन्भावो ॥ ३२ ॥ अणायारविसोधणत्थं जं आणवेंति गुरवो तं— ४०२. अमोहं वयणं कुज्जा आयरियाणं महप्पणो । तं परिगिज्झ वायाए कम्मुणा उववातए ॥ ३३ ॥ ४०२. अमोहं वयणं कुज्जा ० सिलोगो । अमोहं अवंशं वयणं जं ते आणवेंति कुज्जा एवं करणीयं । 15 औयरिया आयारोवदेसगा नाणादीहि संपण्णा । महं अप्पा जेसिं ते महप्पाणो तेसि महत्वणो, तं 'इच्छामि खमासमणो !' त्ति वायाए परिगेण्हिऊण, ण वायामत्तेण, कम्मुणा वि जहा आणवेन्ति तहा उववातए । उववातणं तहाणुड्डाणं ॥ ३३ ॥ अणायाणविणियत्तणं जमादिसंति गुरवो तं ण रायवेट्ठिमिव मण्णमाणो किंतु अप्पणो एवमुपकारबुद्धी ४०३. अधुवं जीवितं णच्चा सिद्धिमग्गं वियाणिया । "विणिब्विज्जेज्ज भोगेसु आउं परिमितमप्पणो ॥ ३४ ॥ ४०३. अधुवं जीवितं णच्चा० सिलोगो । अधुवं असासतं जीवितं प्राणधारणं णच्चा जाणिऊण, नाणदंसण- चरिताणि सिद्धिमग्गं विविधं जाणिऊण विद्याणिया, सिद्धिमग्गस्स अविराहणत्थं विणिग्विजेज भोगे सु सह-फरिस - रस- रूव-गंधेहिंतो भोगेहिं । जतो आउं परिमितमप्पणो कतिपदाणि दिणाणि विघातबहुलं च ॥ ३४ ॥ इमेण य आलंबणेण विणिविज्ञेज भोगेसु जधा ४०४. जरा जाव ण पीलेति वाधी जाव ण वढती । जाविंदिया ण हायंति ताव धम्मं समायरे ॥ ३५ ॥ १ णेव गृहेण निं अचू० वृद्ध० विना ॥ २ आयरियस्स मह अचू० वृद्ध० हाटी० विना ॥ ३ " आयरिया पसिद्धा, महम्णो नाम महंतो अप्पा मुयादीहिं जेसि ते महत्वणो, तेसिं महप्पगो" इति वृद्धविवरणे। "आचार्याणां महात्मनां श्रुतादिभिर्गुणैः” इति हारि० वृत्तौ ॥ ४ विणियट्टेज अचू• विना । विणिध्विसेजा वृद्ध० ॥ ५ एतत्सूत्र लोकानन्तरं सर्वेष्वपि सूत्रादर्शेषु अवचूर्यां च एकः सूत्रश्लोकोऽधिको दृश्यते, तथाहि वलं थामं च पेहाए सन्द्धामा रोग्गमपणो । खेत्तं कालं च विष्णाय तहडप्पाणं निकुंज ॥ इति । निजोज‍ खं ३-४ जे० ॥ ६ कतिपयानि ॥ ७ जाव जरा न वृद्ध ॥ ८ जावेंदि° ३ ॥ दस० सु० २५ 5 20 25 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [अट्ठमं आयारप्पणिहिअब्झयणं ४०४. जरा जाव ण पीलेति. सिलोगो। जाव इति कालावधारणं, जावंतं कालं जरा ण पीलेति, दुक्खं जराभिभूताण संजमकरणमिति । जाव य वात-पित्त-सिंभ-सण्णिवातसमुत्थो वाधी ण वहुती, जातिपयत्थिकमेकवयणं । जाविंदिया सोतादी ण हायंति ताव धम्मं समायरे ॥ ३५॥ ___ तस्स य धम्मस्स विग्धभूता दुजिण्णाहारविसत्थाणीया पढमं णीहरितव्वा कसाया इति भण्णति ४०५. कोधं माणं च मायं च लोभं च पाववडणं ।। ___ वमे चत्तारि 'दोसे तु इच्छंतो हितमप्पणो ॥ ३६ ॥ ४०५. कोधं माणं च मायं च० सिलोगो । पदविभा[गा]णंतरमत्थविवरणं । असमासकरणं पव्वतरायिप्पमितीण उदाहरणाणोपादाणाय। तिण्णि चसद्दा पत्तेयं गतिमादिनिदरिसणाय । एते चत्तारि कोधादयो वयणेणेव उद्दिट्ठा, किं पुणो चयुग्गहणं? ति भण्णति-एगेगस्स चतुधा अणताणुबंधादिभेदत्थं । ते वमे तधा10 आरोग्गस्थिणेव दोसा ॥ ३६ ॥ एतेसिं च अणिग्गहे इहेवामी दोसा ४०६. कोधो पीतिं पणासेति माणो विणयणासणो। - माया मित्ताणि णासेति लोभो सबविणासणो ॥ ३७ ॥ ४०६. कोधो पीतिं पणासेति. सिलोगो । कोधो रोसो, सो य दाणादीहि सुबद्धामवि पीर्ति पणासेति । माणो वि गव्वाभिभूतस्स माणारिहे अप्पडिमाणितस्स विणयणासणो भवति । माया वि 15 कवडसमायरणेण कुलपरंपरागताणि वि मित्ताणि णासेति । लोभो पुण एतेसिं पीति-विणय-मित्ताणं कुलसंथितिप्पभितीण य गुणाणं सव्वेसिं विणासणो ॥३७॥ जतो इहभवे एते दोसा धम्मचरणविग्घत्तणेण य परभवे दुक्खपरंपरकारिणो अतो४०७. उवसमेण हणे कोहं माणं मद्दवता जिणे । मायं चऽज्जवभावेण लोभं संतुट्ठिए जिणे ॥ ३८ ॥ ४०७. उवसमेण सिलोगो । खमा उवसमो, तेण कोधोदयनिरोधादिक्कमेण हणे कोहं । अगव्वो मद्दवता, ताए गवितेसु वि अगवितो माणं जिणे। रिजुता अजवं, तेण उज्जुभावेण मायं जिणे इति वति । संतोसो संतुट्ठी, तीए उदयप्पत्तविफलीकरणोदयनिरोधेण लोभं जिणे ॥ ३८॥ एवमेते परभवे दुक्खपरंपरमारभते । जहा ४०८. कोहो य माणो य अणिग्गिहीता, माया य लोभो य विवड्डमाणा । 25 चत्तारि एते कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाणि पुणब्भवस्स ॥ ३९ ॥ ४०८. कोहो य माणो य० वृत्तम् । कोहो य माणो य अणिग्गिहीता अणिवारिता, माया य लोभो य विवड्डमाणा अप्पणो कारणेहि समुन्नलिता विविधं वड्डमाणा । दोण्हं पिर्धणिद्देसो कोहो माणो य दोसो, माया लोभो य रागो, एतस्सोवदरिसणत्थं । ते एवं राग-दोसाभिभूतस्स जीवस्स चत्तारि वि एते कसिणा पडिपुण्णा पुणब्भवो संसारो तस्स पुणभवरुक्खस्स परमकडुफलविवागस्स ते कोधादयो 30 मूलाणि सिंचंति । एवं सो समप्पाइयमूलो विवहति ॥ ३९॥ १दोसाई इच्छं खं १-३ ॥ २ चतुर्ग्रहणम् ॥ ३ संतोसओ जिणे खं १-२-४ शु० हाटी ॥ ४ अणिग्गहीं खं १ जे. अचू० विना ॥ ५कसिणे खं १-२-३-४॥ ६ पृथग्निर्दशः ॥ ७समाप्यायितमूलः ।। Jain Education Intemational Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ४०५ - ४१२] दसकालियसुतं । उवसमादीहि कोधादिविजयं करेमाणो तज्जयोवदेसकेसु तज्जयपरेसु ४०९. राइणिएसु विणयं पयुंजे, धुवसीलयं सततं णे हावएज्जा । कैम्मेव अल्लीण-पलीणगुत्ते, पैर कमेज्जा तव-संजमम्मि ॥ ४० ॥ ४०९. राइणिएस विणयं० वृत्तम् । रातिणिया पुव्वदिक्खिता, तेसु अन्भुडाणादिकं विणयं पयुंजे । इमं च धुवसीलयं सततं ण हावएजा धुवं सततं सीलं अट्ठारससहस्सभेदं, धुवसीलस्स 5 [ भावो ] ध्रुवसीलता तैमवि न परिभवेज्ज । सततं सीलजुत्ते कुम्मेव अल्लीण-पलीणगुत्ते, कुम्मो कच्छमो, जधा सो सजीवितपरिपालणत्थमंगाणि कभल्ले संहरति, गमणातिकारणे य सणियं पसारेति; तहा साधू वि संजम - कडाहे इंदियप्पयारं कायचेट्टं निरंभिऊण अल्लीणगुत्तो, कारणे जतणाए ताणि चेव पवत्तयंतो पलीणगुत्तो, गुत्तो पत्तेयं परिसमप्पति । एतेण विधिणा परक्कमेना परा कोधादयो अकमेज तव-संजमम्मि थितो ॥ ४० ॥ इंदियपमादविरहितेण अल्लीण-पलीणगुत्तेण अण्णाणि वि पमादट्ठाणाणि परिहरितव्वाणीति भण्णति - 10 ४१०. णिदं च ण बहुमण्णेज्जा संपहासं विवज्जए । मधुकाहि ण रमे सेज्झायम्मि रओ सदा ॥ ४१ ॥ ४१०. हिं च ण बहुमण्णेज्जा ० सिलोगो । णिद्दा प्रतीता, तं ण बहुमण्णेज्ञा बहुमतं प्रियं, ण तत्थ प्रीतिमाधरेज्ज । समेच्च समुदियाणं पहसणं सैंतिरालावपुव्वं संपहासो तं विवज्जए । विधा- पमादपरिवज्जणत्थं मिधुकहाहि ण रमे मिधुकहाओ रहस्सकधाओ इत्थीसंबद्धाओ तहाभूतातो वा तयो वज्जेत्ता 15 सज्झायम पंचविहे रओ तच्चित्तो सदा सव्वकालं ॥ ४१ ॥ विकहाविरहितो सज्झायादिकमणेगविधं — ४११. जोगं च समणधम्मैस्स जुंजे अर्णेलसो धुवं । जुत्य समणधम्मम्मि अत्थं लभति अणुत्तरं ॥ ४२ ॥ ४११. जोगं च समणधम्मस्स० सिलोगो । जोगो तिविहो । समणधम्मस्स अत्थे जधाजोगं मणो-वयण-कायमयअणुप्पेहण-सज्झाय - पडिलेहणादिसु पत्तेयं समुच्चयेण वा चसद्देण नियमेण भंगितसुते तिविध - 20 मवि जुंजे अणलसो सउज्जमो अप्पणी काले अण्णोष्णमवाहंतं धुवं । समणधम्मजोगसकलफलोवद रिसणत्थमिमं भणति - जुत्तो य समणधम्म० सिलोगो [पच्छद्धं ]। जुंजे इति उपदिद्वं, जुत्तो पुण दसविधे समणधम्मम्मि अत्थसदो इह फलवाची तं लभति । णत्थि जतो उत्तरतरो विसिद्वतरो सो अणुत्तरो ॥ ४२ ॥ कमणुत्तरं - ४१२. इहलोग - पारहितं जेणं गच्छति सोग्गतिं । १९५ बहुस्सुतं पज्जुवासेज्ज पुच्छेज्जऽत्थविणिच्छयं ॥ ४३ ॥ ४१२ इहलोग पारतहितं० [सिलोगो ] | इहलोगे धम्मेण समणधम्मे एगदिवसदिक्खितो वि विणएणं । वंदिज्जते य पूतिज्जए य अवि रायरायीहिं ॥ [ 1 १ समयं भाव वृद्ध० ॥ २ णो जे० ॥ ३ कुम्मो व्व अखं १ अचू० विना ॥ ४ परक्क अचू० विना ॥ ५ तं सचितं परि° मूलादर्श ॥ ६ण हुमण्णे खं ४ ॥ ७ सप्पहासं अचू• विना ॥ ८ मिधोक अचू० वृद्ध० विना ॥ ९ अज्झयणम्मि जे० वृद्ध० । सञ्झाणनिरए खं ३ ॥ १० खैराला पूर्वम् ॥ १२ विवाप मूलादर्शे । विकथा - प्रमादपरिवर्जनार्थम् ॥ १२ ताः ॥ १३ 'म्मम्मि जुं° अचू० विना ॥ १४ जलसे खं १ ॥ १५ अत्थो सद्दों मूलादर्शे ॥ 25 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [अट्ठमं आयारप्पणिहिमायणं परलोए सुकुलसंभवादि । जेणं धम्मेण गच्छति [सोग्गतिं] । सव्वस्सेयस्स उवलभणत्वं बहुस्सुतं पज्जुवासेज । पजुवासमाणो पुच्छेज्जत्थविणिच्छयं अत्यविनिच्छयो तन्भावनिण्णयो तं पुच्छेज वियारेज ॥ ४३ ॥ पज्जुवासणे अयं विधी ४१३. हत्थं पायं च कायं च पणिहाय जितिंदिए । अल्लीणगुत्तो 'णिसीएं सगासे गुरुणो मुणी ॥ ४४ ॥ ४१३. हत्थं पायं च कायं च० सिलोगो । हत्थ-पाय-काया कर-चरण-सरीराणि ताणि पणिहाय हत्थणट्ट-पादकुहडि-सरीरमोडणाति परिहरंतो, कायाभिधाणे हत्थ-पादवयणं तप्पहाणा चेट्ट ति । जिताणि इंदियाणि जेण सो जितेंदियो, अल्लीणो णाइदूरमणासण्णे [गुत्तो] मणसा गुरुवयणे उवयुत्तो वायाए कजचोदणपरो णिसीए उवविसे सकासे समीवे गुरू आयरियादि तस्स । मुणी इति एवं नाणी भवति ॥४४॥ 10 सुप्पणिहित[हत्य-पादेण जितिंदियेण गुरुसुस्सूसणपरेण कतरे पदे से छातियव्वं ? ति तस्स थाणनियमणमिमं ४१४. णे पक्खतो ण पुरतो व किच्चाण पिट्ठतो । ____ण य ऊरुं समासज्ज चिठेजा गुरुणंतिए ॥ ४५ ॥ ४१४. न पक्खतो न पुरतो. सिलोगो । समप्पहप्पेरिया सहपोग्गला कण्णबिलमणुपविसंतीति 16 कण्णसमसेढी पक्खो , ततो ण चिठे गुरुणमंतिए, तथा अणेगग्गता भवति । अविणतो वंदमाणाण विधातो त्ति सममग्गतो पुरतो ण चिढेजा। अविणयदोस इति समं पच्छतो पिट्ठतो ण चिढे । तथा ऊरुगमूरुगेण संघट्टेऊण एवमवि ण चिहे। अंतियं अन्भासं ॥ ४५ ॥ सरीरेण एताणि त्थाणाणि परिहरंतेण वायाए इमं परिहरितव्वं ४१५. अपुच्छितो ण भासेज्जा भासमाणसं वऽन्तरा । 20 पिट्ठीमंसं ण खाएजा मायामोसं विवज्जए ॥ ४६ ॥ ४१५. अपुच्छितो ण भासे० सिलोगो । आयरिएहि अणिउत्तो ण भासेन्ज । भासमाणस्स वा गुरुणो वदमाणस्स य मज्झे, जहा-खमासमणो! ण भवति एतं एवं जहा तुम्भे वदह, जघा हं मणामि तदा । . अवण्णवयणं जमसरीरमंसभक्खणं तं परम्मुहस्स पिट्ठीमंसं ण खाएजा । मायासहितं मोसं मायामोसंतं विवज्जए । जं पुण लुद्धगमादीहि पुच्छिताण मृगादीण अकहणं ण तं मातासहितं, धम्मसहितमिति अतो वदेज 25॥ ४६ ॥ असमक्खमवण्णवयणं निवारितं । समक्खमवि ४१६. अप्पत्तियं जेण सिया आसु कुप्पेज वा परो । सव्वसो तं ण भासेज्जा भासं अधितगामिणी ॥४७॥ ४१६. अप्पत्तिय जेण सिया० सिलोगो। अपत्तियं अप्रीतिः णातिफुडलिंग कालंतरावत्थातिकोवकरणं तं जेण भवति तं ण भासेन्ज । आसु सिग्धं कुप्पेज वा जेण तक्खणं मारणाति समारभेजा परो १णिसिए अचू० वृद्ध० विना ॥ २ए वा स ख ४ ॥ ३ न पक्खओ न पुरओ नेव किचाण पिट्टओ। न जुंजे ऊरुणा ऊरु सयणे नो पडिस्सुणे। इत्युत्तराध्ययनसूत्रे अ० १ गा.१८॥ ४°स्त यंत हाटी। स्स अंत सर्वासु सूत्रप्रतिषु ॥ ५ पिट्टिमंसं अचू० विना ॥ ६गुरुणवदणस्तधणस्स य मूलाद” ॥ ७मायासहितम् ॥ ८अहियगा अचू० विना ॥ ९ गामिणिं खं २ जे० शु० वृद्ध० ॥ Jain Education Intemational Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ४१३-४२०] दसकालियसुत्तं । सत्तू सव्वो वा अप्पाणवइरित्तो, सव्वसो सव्वप्पगारं तं ण भासेज्जा । अधितो संसारो तं गमयति अधितगामिणी ॥४७॥ एवं ताव अणंतरमणितं ण भासेन्ज । इमे पुण भासेज ४१७. दिट्ठ मितं असंदिद्धं पडिपुण्णं विर्य जितं । ____अयंपुरमणुम्विग्गं भासं "णिसिरे अत्तवं ॥ ४८ ॥ ____४१७. दिटें मितं० सिलोगो । सयं चक्खुणा उवलद्धं दिलु । अणुचं कज्जमत्तं च मितं । असंकितं । असंदिद्धं । सर-वंजण-घोसेण अहीणं पडिपुण्णं । विभौविजमाणमत्थतो वियं व्यक्तं । जितं ण वामोहकरमणेकाकारं । अजंपणसीलो अयंपुरो, तहासभावमयंपुरं । अभीतमणुग्विग्गं । एतेण विधिण भासा पुव्वभणिता तं णिसिरे विसज्जते । नाण-दसण-चरित्तमयो जस्स आया अस्थि सो अत्तवं, एवं वा भासमाणो अत्तवं भवति ॥४८॥ परपरिभवाद्यनेकदोसं हासमिति तस्सहितं दिवादिगुणोवेतमवि णिवारयंतेहिं भण्णति 10 ४१८. आयार-पण्णत्तिधरं दिढिवादमधिज्जगं । वयिविक्खलितं णच्चा ण तं अवधसे मुणी ॥ ४९ ॥ ४१८. आयार-पण्णत्तिधरं० सिलोगो। आयारधरो भासेज्जा तेसु विणीयभासाविणयो, विसेसेण पण्णत्तिधरो, तं वयिविक्खलितं [णचा] ण अवहसे। दिद्विवादमधिज्जगं दिद्विवादमज्झयणपरं, [तम्मि] अधीते सव्ववतोगतविसारदस्स नत्थि खलितं, एतं वयण-लिंग-वण्णविवजासे ण अवधसे । 'जति तेसिं पि खलितं 15 भवति किं पुण सेसाणं ? ति सेसे वि णावहसे मुणी इति भणितं ॥४९॥ परिहासादि जघा वायिगो दोसो परिहरियव्वो तथा अयमवि । जहा४१९. णक्खत्तं सुमिणं जोगं णिमित्तं मंत भेसजं । "गेहीण तं ण आतिक्खे भूताधिकरणं पदं ॥ ५० ॥ ४१९. णक्खत्तं सुमिणं० सिलोगो । णक्खत्ताणि कित्तिकादीणि, तेसिं अज अमुकं णक्खत्तं ति एवं 20 णाऽऽतिक्खे । तहा सुमिणमवि 'एतस्स इमं फलं' ति । एवं जोगो ओसहसमवादो तमपि । णिमित्तं वा रठ्ठपधाति । तहा विच्छिकोमजगाति मंतमसाधणं, एवंजातीयं वा विनाविसेस । भेस ओसहं वातातिसमणं । सव्वमपि एतं गेहीण णाऽऽतिखे। भूताधिकरणं भूताणि उपरोधक्रियाए अधिकयते जम्मि तं भूता- . धिकरणं पदं थाणं ॥५०॥ वतिगुत्तिसमणंतरं मगगुत्ती, सा य थाणगुगतो भवति ति सुणिलयणोवदेसे इम-अण्णट्ट । अधवा 25 पदसद्दो थाणवाची, “भूताहिकरणं पद"मिति वत्थुमत्तं, इमं तु थाणमेव, अतो भण्णति__४२०. अण्णे?प्पगडं लेणं भयेज्ज सयणा-ऽऽसणं । उच्चारभूमिसंपण्णं इत्थी-पसुविवज्जितं ॥ ५१ ॥ १पडप्पन्नं वृद्ध०॥ २वियं जितं वृद्ध०॥ ३ अयंपिर ख २-३ शु०॥ ४निसिर सर्वेषु सूत्रादर्शेषु॥ ५ “वियंजितं णाम वियंजितं ति वा तत्थं ति वा एगट्ठा" इत्येकादत्वेन व्याख्यानं वृद्धविवरणे ॥ ६ आया नस्थि मूलादर्श ॥ ७ वहवि खं १-२-३ शु० । धयवि खं ४ जे०॥ ८णेवं उर्च जे०॥ ९उवहसे अचू. वृद्ध विना ॥ १० सर्ववचोगतविशारदस्य ॥ ११ गिहिणोतं अचू० वृद्ध• हाटी• विना ॥ १२ समवायः॥ १३ वृश्चिकापमार्जनादि॥ १३ अधिक्रियन्ते ॥ १५ अण्णटुं पग खं १ अचू० विना ॥१६ लयणं खं २ शु०॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 १९८ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [अट्ठमं आयारप्पणिहिअज्झयणं ४२०. अण्णट्ठप्पगडं० सिलोगो । अण्णटुप्पगडं अण्णस्स ण साधुणो परिनिमित्तं, पकरिसकतं पगतं परिनिहितमेव, लीयंते जम्मि तं लेणं णिलयणमाश्रयः, तं अण्णहप्पगडं लेणं भयेन सेवेज । सयणं संथारो. आसणं कद्रपीढकादि. सयणासणमवि तहाविधमेव भयेज । उच्चारभूमीए संपण्णं सा जत्थ सुलभा, सव्वं जमुच्चरति पासवणादि [त]मुच्चारः। इत्थीहिं विवज्जितं, ण तासिं समीवे, विसेसवजितमिति तज्जातीएहिं 5 णपुंसकेहिं विवजिय, पसूहि अमिलादीहि विवजितं, तं भयेज इति वदृति ॥ ५१ ॥ थी-पसु-पंडगविवजिते लयणे संदसणादिदोसकारणविवजणथमिमं परिहरेजा४२१. विवित्ता य भवे सेज्जा णारीणं णे कधे कहं । . गिहिसंथवं न कुज्जा कुजा साधूहिं संथवं ॥ ५२ ॥ ४२१. विवित्ता य भवे सेजा सिलोगो । इत्थिमादीहि वियुता विवित्ता । एवंगुणा जदि भवे सेजा। 10 लयणमेव सेजा। तत्थ जैतिच्छोवगताण वि णारीणं सिंगारातिगं विसेसेण [ण] कधे कहं । तहा गिहिसंधवं न कुज्जा तेहिं संसग्गि परिहरे, आयरियादि-चरित्तसारक्खणत्थं कुज्जा साधूहिं संथवं ॥५२॥ को पुण निब्बंधो जं विवित्तलयणत्थितेणावि कहंचि उपगताण नारीण कहा ण कथणीया ? भण्णतिवत्स !, नणु चरित्तवतो महाभयमिदं इत्थीणाम कहं४२२. जहा कुक्कुडपोतस्स निच्चं कुललयो भयं । एवं खु बंभचारिस्स इत्थीविग्गहतो भयं ॥ ५३ ॥ ४२२. जहा कुकुडपोतस्स० सिलोगो। कुक्कुडो पक्खिविसेसो, तत्थ वि पोतो अजातपक्खो, तस्स जहा निचं सव्वकालं कुललयो मज्जारातो भयं पमादो । एवं एतेण प्रकारण खु इति भयनिरूवणे बंभवतचारिस्स इत्थीविग्गहतो विग्गहो सरीरं ततो, रूव-रूवसहगताणेगविकप्पं ति विग्गहग्गहणं, भयं ॥५॥ णिचं जतो इथिविग्गहतो सव्वावत्थं भयं तम्हा४२३. चित्तभित्तिं ण णिज्झाए णारिं वा सुतलंकितं । भक्खरं पिर्वं दट्ठणं दिट्टि पडिसमाहरे ॥ ५४ ॥ ४२३. चित्तभित्ति ण णिज्झाए. सिलोगो। चित्तभित्तिं ण णिज्झाए “इथिविग्गहतो भय"मिति अधिकारो तेण जत्थ इत्थी लिहिता तहाविधं चित्तभित्तिं ण णिज्झाए ण जोएज्जा । णारिं वा सुतलंकितं आभरणेहि सुविभूसितं । जता पुण चक्खुपहमागच्छति तदा भक्खरं पिव तं दट्टणं दिडिं पडिसमाहरे । जहा तिव्वकिरणजालेणमादिचं दट्टण तेयसा विकुंचिता दिट्ठी साहरिजति तथा चित्तभित्तिगतं सुयलंकितं वा णारिं दट्टण दिट्ठिपडिसमाहरणं करणीयं ॥ ५४॥ चित्तभित्तिगतमलंकितं वा ण णिज्झाए त्ति भणितं । सेसासु कहं ? भण्णति-एतमवत्थं पि४२४. हत्थ-पातपलिच्छिण्णं कण्ण-णासविकप्पितं । अवि वाससतिं णारिं बंभयारी विवजए ॥ ५५ ॥ १न लवे कहं सर्वेषु सूत्रादर्शपु ॥ २ यदृच्छोपगतानामपि ॥ ३ सुअलं सर्वेषु सूत्रादर्शेषु । सुयलं वृद्ध० । सुवलं. शुपा०॥ ४ पिय खं ३॥ ५°विगप्पियं खं १-२ शु० । 'वियप्पियं खं ३-४ । विगत्तियं जे. हाटी. भव०॥ ६ सई णा ख १-२ जे० शु० वृद्ध० । सयं णा खं ३-४ ॥• Jain Education Intemational Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ४२१-४२७] दसकालियसुत्तं । १९९ ४२४. हत्थपातपलि. सिलोगो। हत्था पादा परिच्छिण्णा जीसे सा हत्थ-पादपरिच्छिण्णा, तमवि वजए । कण्ण-णासविकप्पितं, जीसे सोहउडं समुक्वंतं तं पि कण्ण-णासविकप्पितं । वयसा हि अवि वाससतिं णारि बंभयारी विवजए, अपिसद्दा एवं संभावयति-तहागतामपि किं पुणमविगलं तरुणिं वा ॥ ५५ ॥ " णारिं [वा] सुअलंकितं ण णिज्झाए" [सुत्त ४२३] त्ति भणितं । सरीरविभूसाए इत्थिसंसग्गादिसु य कारणेसु पैचवातोपदरिसणत्थं भण्णति४२५. विभूसा इत्थिसंसँग्गी पेणीतरसभोयणं । णरस्सऽत्तगवेसिस्स विसं तालउडं जधा ॥ ५६ ॥ ४२५. विभूसा इत्थिसंसग्गी० [सिलोगो]। अलंकरणं विभूसा । वडकहातिकहणमित्थिसंसग्गिं । णेह-लवणसंभारातीहि प्रकरिसेण सुरसत्तं णीतं पणीतरसं, पणीतरसस्स भोगो पणीयरसभोयणं । णरस्सऽत्तगवेसिस्स अप्पणो हितगवेसिस्स, अप्पहितगवेसणेण अप्पा गविट्ठो भवति । तस्स अत्तगवेसिस्स 10 विभूसादीणि विसं तालउडं जधा तालपुडसमयेण मारयतीति तालउडं, जधा जीवितहिस्स तं अधितं एवमेताणि अत्तगवेसिणो अधियाणि ॥ ५६ ॥ जधा विभूसादीणि विसत्याणीयाणि तहा इदमपीति भण्णति ४२६. अंग-पञ्चंग-संठाणं चारु लवित-पेहितं । इत्थीणं तं ण णिज्झाए कामरागविवड्डणं ॥ ५७ ॥ ४२६. अंग-पच्चंग सिलोगो । अंगाणि हत्यादीणि, [पञ्चंगाणि] णयण-दसणादीणि, संठाणं 15 समचतुरंसादिसरीररूवं । अहवा अंग-पच्चंगाणि संठाणं अंग-पचंगसंठाणं, चारु दरिसणीयं । चारुसद्दो मज्झे ठितो उभयमवेक्खये, अंगादि पुव्वभणितं, वक्ष्यमाणं च लवितं भासितं समंजुलादि, पेहितं साँवंग णिरिक्खणं । एतं सव्वं पि इत्थीणं ण णिज्झाए । जतो कामरागविवडणं कामम्मि राग वड्डेति ति कामरागविवडणं ॥ ५७॥ण केवलं चक्खुगतेसु । सविदिएसु चेव४२७. विसएसु मणुण्णेसु पेम णाभिणिवेसए । अणिञ्चं तेसि विण्णांतं परिणामं पोग्गलाण ॥ ५८ ॥ ४२७. विसएसु मणुण्णेसु० सिलोगो । सद्दादिसु विसएसु मणाभिरामेसु पेमं णाभिणिवेसए। तधा अमणुण्णेसु वि दोसं । किं पुण हियएण अत्थं वलंबिऊणं? इम-अणिचं तेसि विण्णातं तेर्सि इंदियविसयाण मणुण्णो अमणुण्णो वा परिणामो जतो अणिचो भणितो-“ते चेव सुन्भिसद्दा पोग्गला दुन्भिसहत्ताए परिणमंति, एवं दुब्भिसद्दा वि सुन्भिसद्दत्ताए परिणमंति, एवं रूवादयो" [ज्ञाताधर्म० श्रु० ११० १२ सू० ९२ पत्रं १७५ ] 125 अहवा ग्राहकविसेसेण परिणमंति, जधा-मणुण्णों वि अमणुण्णा,[अमणुण्णा] वि य मणुण्णा अधितिसमावण्णस्स । जं कण्णसोक्खेसु सद्देसु पेमं [सुत्तं ३९५] ति तं लेसाभिधाणमादिरंतेण सहेति । जं विसएसु मणुण्णेसु पेमं ति दुम्मेहपडिबोहणत्थं फुडतरमिदं, तहिं च सोइंदियावसरो, इह चक्टुंदियावसरेण सल्विंदिगतं अतो ण पुणरुत्तं एवमिति ॥ ५८॥ 20 १ वयमादि अवि मूलादर्शे ॥ २ सत्ता एवं मूलादर्श ॥ ३ प्रत्यपायोपदर्शनार्थम् ॥ ४ संसग्गो हाटी.॥ ५पणीयं रसखे १-२-३-४ जे. ॥ ६ चारुल्लवित सर्वामु सूत्रप्रतिषु ॥ ७ सापाङ्गम् ॥ ८पेम्मं खं ३-४॥ ९विण्णाय अचू० विना ॥ १०उ खं ४ शु• वृद्ध• हाटी.॥ ११ वलिपिऊणं मूलादर्श । अबलम्ब्य ॥ Jain Education Intemational Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० 15. णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [अट्ठमं आयारप्पणिहिअज्झयणं ४२८. पोग्गलाणं परिणाम तेसिं णच्चा जधा तधा । विणीयतण्हो विहरे सीतभूतेण अप्पणा ॥ ५९ ॥ ४२८. पोग्गलाणं परिणामं० सिलोगो । रूव-रस-गंध-फरिस सद्दमंतो अत्था पोग्गला, तेसिं परिणामो परिणती भावंतरगमणं । तेसिं पुव्वुद्दिट्ठाणं णच्चा जाणिऊणं जधा तथा सर्वप्रकारं विणीयतण्हो सदातिविगतविसयतिसो एवं विहरति । सीतभूतेण सीतो उवसंतो, जधा निसण्णो देवो, अतो सीतभूतेण उवसंतेण अप्पणा ॥ ५९॥जधा णवे सद्धासमुत्थाणे विणीयतण्हो आयारप्पणिहिं पडिवजति तथा अपडिपडितसद्धेण सव्वकालं भवितव्वमिति भण्णति ४२९. जाए सडाए णिक्खंतो परियोयत्थाणमुत्तमं । तमेव अणुपालेजा गुणे आयरियसैम्मते ॥ ६ ॥ 10 ४२९. जाए सद्धाए निक्खंतो० सिलोगो । जाए ति निक्खमणसमकालं भण्णति, सद्धा धम्मे आयरो, निक्खंतो धम्म पुरतो काऊणं जं घरातो निग्गतो । परियाओ पव्वज्जा एव मोक्खसाहणभावण थाणमुत्तमं । तेमेवेति तं सद्धं पव्वजासमकालिणिं अणुपालेजा, पच्छादपि, सा य मूलगुण-उत्तरगुणाणुपालणण पालिता भवति अतो गुणे आयरियसम्मते गणे अणपालेजा [आयरिया सामिणो तित्थकरगणधरादयो तेसिं सम्मता इट्ठा ॥ ६०॥ तस्स मूलुत्तरगुणाणुपालणलक्खणस्स आयारप्पणिधिस्सेमं फलं ४३०. तेवं चिमं संजमजोगयं च, सज्झायजोगं च सदा अधिट्ठए । सूरो व सेणाए समत्तमायुधी, अलमप्पणो होति अलं परेसिं ॥ ६१ ॥ ४३०. तवं चिमं संजम० वृत्तम् । तवं अणसणादिकं बारसभेदं, इमम्मि ति इमम्मि सासणे उपदिलु, ण बालतवं, सत्तरसविधं संजमजोगं च सज्झायजोगं च सदा अधिट्ठए । बारसविहे तवे अंतग्गतो वि सज्झायजोगो पुणो विसेसेण भण्णति पाधण्णातो, जधा-साधुणो आगता सयं खमासमणा य, 20 साधुभावे समाणे वि पाधण्णेण खमासमणाण विसेसेणं संभवति । अवि य बारसविधम्मि वि तवे सन्भितर-बाहिरे कुसलदिवे ।। ण वि अत्थि ण वि य होही सज्झायसमं तवोकम्मं ॥१॥ [कल्पभाष्ये गा० ११६९] निदरिसणं भण्णति-स एवमधिट्ठयं सूरो व सेणाए समत्तमायुधी, सूरो विक्रान्तः, इवसद्दो उवमाए, सूरे इव सेणाए सेणा वाहिणी, तीए परिवुडो पंच वि आउधाणि सुविदिताणि जस्स सो समत्तमा25 युधी । एवं सो सेणाए मज्झे समत्तमायुधी होतो अलमप्पणो पजत्तो रक्खणातिसु । एवंगुणो अलं परेसिमवि रक्खणादावेव । अहवा अलं परेसिं, परसद्दो एत्थ सत्तूसु वदृति, अलंसदो विधारणे, सो अलं परेसिं धारणसमत्थो सत्तूण ॥ ६१ ॥ तस्सेवं तव-संजम-सज्झायजोगमधिट्ठमाणस्स १ सीईभू खं २ शु० वृद्ध० हाटी । सीयभू खं १-२-४ जे०॥ २ यायट्ठाण शु० वृद्ध ।याए ट्ठाण खं १-२-३-४ जे०॥ ३°सम्मतं हारि० वृत्ती पाठान्तरम् ॥ ४ स हव मूलादर्श ॥ ५"तमेव परियायट्ठाणमणुपालेज्जा, तं च परियायट्ठाणं मूलगुणा उत्तरगुणा य, ते गुणे अणुपालेजा आयरियसम्मओ त्ति आयरिया नाम तिस्थकर-गणधराई, तेसिं सम्मए नाम सम्मओ त्ति वा अणुमओ त्ति वा एगट्ठा ॥” इति वृद्धविवरणे । “तामेव' श्रद्धामप्रतिपतिततया प्रवर्द्धमानामनुपालयेद् यत्नेन । क्व ? इत्याह-गुणेषु' मूलगुणादिलक्षणेषु 'आचार्यसम्मतेषु तीर्थकररादिबहुमतेषु । अन्ये तु श्रद्धाविशेषणमेतदिति व्याचक्षते-'तामेव' श्रद्धामनुपालयेद् गुणेषु, किम्भूताम् ? आचार्यसम्मताम् , न तु स्वाग्रहकलङ्कितामिति सूत्रार्थः ।" इति हारि- वृत्तौ॥ ६तवं तिमं खं ४॥ ७°माउहे, अ खं १-२-३-४ जे० शु• हाटी। मायुधे, अ° वृद्ध०॥ Jain Education Intemational Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुतगा० ४२८-३२] दसकालियसुत्तं । ४३१. सज्झाय-सज्झाणरतम्स तातिणो, अपावभावस्स तवे रयरस | विसुज्झती जं से रयं पुरेकडं, समीरियं रुप्पमलं व जोतिणा ॥ ६२ ॥ ४३१. सझाय-सज्झाणरयस्स० वृत्तम् । सज्झाये पंचविहे सज्झाणे धम्म-सुक्के रतस्स सज्झाथसज्झाणरतस्स । तातिणो पुव्वभणितस्स । पाबो दुडो भावो, अपावो भावो जस्स सो अपावभावो, तस्स अपाव भावस्स, तवे रयस्स । तस्सेवंविधस्स सतो विसुज्झती जं से रयं पुरेकडं, विसुज्झती- 5 ति विगच्छति, रयो मलो पावमुच्यते, तं तस्स रयो पुरेकडं तव- सज्झायजोगेण विसुज्झति, संजमतो णवं ण बज्झति । कहं विसुज्झति? एत्थ दिŚतो - समीरियं रुप्पमलं व जोतिणा, सं ईरियं समीरियं खित्तं, रुप्पं सुवण्णं रययं वा, तस्स मलो रुप्पमलो। जधा रुप्पमलो धम्ममाणमग्गिणा समुदीरियं विगच्छति एवं तस्स भगवतो अपावभावस्स पुकडं जो विसुज्झति ॥ ६२ ॥ तस्सेवं पुव्ववण्णियायारपणिधिसमाधिजोगजुत्तस्स रजसि विसुद्धे किमवत्थंतरं संभवति १ इति, भण्णति - ४३२. से तारिसे दुक्खसहे जितिंदिए, सुतेण जुत्ते अममें अकिंचणे । विज्झती पुव्वकडेण कम्मुणा, कसिणब्भपुडावगमे व चंदिम ॥ ६३ ॥ त्ति बेमिं ॥ २०१ || औयारपणिही नामऽज्झयणं अट्ठमं समत्तं ॥ ८ ॥ ४३२. से तारिसे दुक्खसहे जितिंदिए० वृत्तम् । से इति जस्स तं विसुज्झति जं से रतं पुरेकर्ड 15 तारिसे इति जहोववण्णितगुणो दुक्खं सारीर - माणसं सहतीति दुक्खसहो । जितसोतादिइंदियो जितिंदियो । दुवालसंगेण सुतनाणेण सुतेणं । णिम्ममते अममे । दव्वकिंचणं हिरण्यादि, भाव किंचणं तग्गतो लोभो, तं किंचणं जस्स णत्थि सो अकिंचणो । विसुज्झती पुव्वकडेण कम्मुणा, विसुज्झति विमुञ्चति पुत्र्वकडेण पुत्रनिबद्धेण अट्ठविहेण णाणावरणादिणा कम्मुणा । जं पुव्वभणितं "विसुज्झती जं से रयं पुरेकर्ड " [सुतं ४३१] इमस्स य एस विसेसो-तत्थ दव्वकम्मस्स रजसो, विसेस (से) णं तं अवगच्छति विसुज्झति, इह पु ( ? ) विरहितस्स तस्स 20 भगवतो पुव्त्रकतकम्मविरहितो परम विसुद्धप्पा एवं सोभते - कसिणन्भपुडावगमे व चंदिमा, कसिणं असे सं अन्भस्स पुढं वलाइतादि, कसिणस्स अन्भपुडस्स अवगमो कसिणन्भपुडावगमो हिम- रजो- तुसार- धूमिगादीण विवगम, एवं कसिण भपुडावगमे व चंदिमा चन्द्रमा, जधा सरदि विगतघणे णभसि संपुण्णमंडलो ससी शोभते तथा सो भगवं ॥ ६३ ॥ बेमि त्ति तव । णता य ॥ आयारे पणिधाणं करणीयं सो य वण्णितो बहुधा । आयारप्पणिधीये अज्झयणत्थो समासेण ॥ १ ॥ ॥ अत्थसमासतो आयारप्पणिधी समत्ता ॥ ८ ॥ १ जं सि मलं पुरे अचू० विना । से शु० ॥ २ विमुञ्चती पुव्वकडेण कम्मुणा, कसिण' वृद्ध० । विरायई कम्मघणम्मि अवगर, कसिण सर्वासु सूत्रप्रतिषु हाटी० अव० च ॥ ३ एतदनन्तरम् - तेवट्टि सुताई गाथामाणेण संखियं । आयारम्पाणिही नाम अट्ठमऽज्झयणं तु सम्मतं ॥ १ ॥ इति खं ३ | ४ धम्मत्थकामा सम्मन्ता ॥ इति पुष्पिका जे० ॥ ५ अधिगमो मूलादर्शे ॥ दस० सु० २६ For Private Personal Use Only 10 25 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ णिन्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [णवमं विणयसमाहिअझयणं पढमो उद्देसो [णवमं विणयसमाहिअज्झयणं] [पढमो उहेसओ] आयारप्पणिधाणवता उवदेसोवलंभहेतुभूतो सव्वपयत्तेण विणएव ताव जाणितव्यो, णातूण य विणयारुहेसु पउंजियव्वो-त्ति एतेणाभिसंबंधेणाऽऽततस्स अज्झयणस्स चत्तारि अणिओगद्दारा जधा आवस्सए। णवरं णामणिप्फण्णे विणयसमाधी । विणयो समाधी य दो पदा। तं० विणयस्स समाधीय य दोण्ह वि निक्खेवतो चउक्को य। दव्वविणयम्मि तिणिसो सुवण्णमिचादिदव्वाणि ॥१॥२१०॥ 10 विणयस्स समाधीय य दोण्ह वि निक्खेवतो चउको य। तत्थ विणयस्स ताव चउक्कनिक्खेवो भण्णति-णाम-ट्ठवणा-दव्व-भावविणयो त्ति । णाम-ठ्ठवणातो गतातो । दवे दवविणयम्मि तिणिसो, दव्वस्स . इच्छितपरिणामजोग्गता दव्वविणयो, जधा तिणिसस्स इच्छितरहंगपरिणामणं, सुवण्णादीण वा कुण्डलादिपरिणतिखमया दव्वविणयो ॥१॥२१०॥ भावविणयो पंचविहो इमाए गाहाए भण्णति । तं० लोगोवयारविणयो १ अत्थणिमित्तं २ च कामहेउं ३ च। भयविणय ४ मोक्खविणयो ५ विणयो खलु पंचहा होइ ॥२॥२११॥ लोगोवयारविणयो० गाथा । भावविणयो पंचविहो, तं०-लोगोवयारविणयो १ अत्थविणयो २ कामविणयो ३ भयविणयो ४ मोक्खविणयो ५ ॥ २॥ २११॥ तत्थायं लोगोवयारविणयो । तं० __ अब्भुट्ठाणं अंजलि आसणदाणं च अतिधिपूया य।। लोगोवयारविणयो देवतपूया य विभवेणं ॥३॥२१२॥ 20 अब्भुट्ठाणं अंजलि० गाहा। अब्भुट्ठाणारिहस्साऽऽगतस्साभिमुहमुट्ठाणमन्भुट्ठाणं। उद्वितेणाणुट्टितेण वा __ अंजलिकरणं । जधारहमासणस्स दाणमासणदाणं। अतिधिस्स एगाधिकाति सत्तितो पूयणमतिधिपूया। इह . देवताविसेसस्स बलि-वैसदेवादि[स्स] विभवाणुरूवं पूयणं देवतपूया। एस लोगोवयारविणयो॥३॥ २१२॥ अत्यविणयो पुण अन्भासवित्ति छंदाणुवतणं देस-कालदाणं च। अब्भुट्ठाणं अंजलि आसणदाणं च अत्थकते ॥४॥२१३ ॥ अन्भासवित्ति छंदाणुवत्तणं० गाहा। अंत्यनिमित्तं रायादीण विणयकरणं अत्यविणयो। अन्भासं आसण्णं, तम्मि वत्तणमन्भासवित्ती, जधा रायादीण अत्थत्थं किंकरा आणत्तियापडिच्छणत्थमच्छंति । अभिप्पायो छंदो, तस्साणुवत्तणं छंदाणुवत्तणं । १ माहीए णिक्षेवो होइ दोण्ह वि चउक्को। दव्य खं० वी० पु० सा० । माहीएस्थाने 'माहीय य खं० ॥ २ मिश्चेवमाईणि सा०॥ ३ वा जुण्हला मूलादर्श ॥ ४ मुक्ख वी० पु. सा० ॥ ५ त्तणा दे खं० वी० पु०॥ ६ अत्थनिवत्तं मूलादर्श ॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 णिजुत्तिगा० २१०-१७] दसकालियसुत्तं । २०३ छंदाणुवत्तिणो समक्खं रण्णा भणितं-अवदव्वं वातिंगणाति । तेण भणितं-छड्डणत्यमेतसिं वेंटातिं । अण्णदा केणति कहापसंगेण रण्णाऽभिधितं-विसिटुं सालणगं वार्तिगणं । छंदाणुवत्तिणा भणितं-रायं! एते अहड्डा लावगा एवमादि। देसकाल-दाणं जं सुठ्ठ अत्थित्ते सति। जं पि ओलग्गगादीसरादीण अब्भुट्ठाणं करेंति । एवमंजलिकम्ममवि जो देव० ति करेंति। आसणदाणं पि उवविसणकाले। एताणि अब्भासवत्तियादीणि अत्थनिमित्तं जं करेंति एस अत्यविणयो ॥ ४ ॥ २१३ ॥ कामविणओ भयविणओ य इमेण गाहापुवर्तण भण्णति __ एमेव कामविणयो भये य णेयव्वो आणुपुठवीए। एमेव कामविणयो० अद्धगाहा। जधा अत्यनिमित्तमभासवत्तिमादीणि करेंति तहा कामनिमित्तं भयनिमित्तं च। तत्थ कामनिमित्तमित्थीणं अव्भासवत्तणं करेंति, जतो वल्लिसमागधम्माओ इत्थीओ आसष्णमणुगच्छंति। तधा "माधुज्जेण हीरति महिलाजणो"ति छंदाणुवतणं । देस-कालदाणमवि वेसादिसु । अब्भुट्ठाण-अंजलिपग्गह-आसणदाणेहिं उवयारहरणीयो गणिकाजणो हीरति । तथा भयविणएण दासप्पभितयो अब्भासवत्तिमाति करेंति। कामविणयो 10 भयविणओ य भणितो । मोक्खविणयो इमो। तं० मोक्खम्मि वि पंचविधो परूवणा तस्सिमा होति ॥५॥ २१४ ॥ मोक्खम्मि वि पंचविधो० गाहापच्छद्धं । पंचविहो मोक्खविणयो। तस्स इमा परूवणा ॥५॥ २१४ ॥ तं०दसण १ नाण २ चरित्ते ३ तवे ४ य तह ओवयारिए ५ चेव । 15 एसो उ मोक्खविणयो पंचविहो होइ णायब्बो ॥६॥२१५ ॥ दसण नाण चरित्ते. गाधा। पंचविहो मोक्खविणयो, तं०-नाणविणयो १ दंसणविणयो २ चरितविणयो ३ तबविणयो ४ ओवयारियविणयो ५ ति ॥ ६॥ २१५॥ ‘णादंसणिस्स गाणं चरितं च भवति' इति दंसणविणयो पुव्वं भण्णति दव्वाण सवभावा उवदिट्ठा जे जहा जिणवरेहिं। ते तह सद्दहति णरो दंसणविणयो भवति तम्हा ॥ ७॥ २१६॥ दव्वाण सव्वभावा० गाहा। दब्बा दुविहा-जीवदव्वा अजीवदव्वा य। तेसिं दवाण सव्वभावा, सबभावा पुण सव्वपञ्जाया, ते दबतो खेत्ततो कालतो भावतो जे [जहा] जेण प्रकारेण जिणवरेहिं उवदिट्ठा ते तह सद्दहति जम्हा णरो दंसणविणयो भवति तम्हा ॥ ७॥ २१६॥ नाणविणयो इमो नाणं सिक्खति नाणं गुणेति णाणेण कुणति किचाणि। नाणी णवं ण बंधति नाणविणीयो भवति तम्हा ॥ ८॥२१७॥ नाणं सिक्खति० गाधा। जं नाणं पुब्बमधीते एवं णाणं सिक्खति। नाणं गुणेति जं सिक्खियमभसति । णाणेण कुणति किच्चाणि संजमाधिकारिकाणि । नाणी नाणोवउत्तो अट्टविधं कम्मं णवं ण बंधति, जतो पोराणं च णाणप्पभावेण निजरेति । नाणविणीयो भवति तम्हा ॥ ८॥ २१७ ॥ चरित्तविणओ पुण १ णेयव्यमाणु' वी० ॥ २ "महासयत्ति मूलादर्शे ॥ ३ पंचविधो विणओ खलु होइ नायव्यो खं० ॥ 25 Jain Education Intemational Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ णिज्जृत्ति-चुण्णिसंजुयं णयमं विणयसमाहिअझयणं पढमो उद्देसो अविधं कम्मचयं जम्हा रित करेति जयमाणो। णवमण्णं च ण बंधति चरित्तविणयो भवति तम्हा ॥९॥२१८॥ __ अट्ठविधं कम्मचयं० गाधा । अठ्ठप्रकारमट्ठविधं, कम्मस्स चयो कम्मचयो, तं जम्हा रित्तं करेति । कहं व रितं करेति ? णणु जीवं तदपकरिसेण रितं करेति ? भण्णति-उभतगतं रेयणं, आधारगतमाधेयगतं च, जधा घडं 5 रेचयति पाणियं रेयेति। चरित्ते जयमाणो णवं च अण्णं ण बंधति। चरित्तमेव [चरित्तविणयो] भवति तम्हा ॥९॥२१८॥ इमो तवविणयो । तं० __अवणेति तवेण तमं उवणेति य मोक्खमग्गमप्पाणं। तव-णियमणिच्छितमती तवोविणीयो भवति तम्हा ॥१०॥२१॥ अवणेति० गाहा। अवणेति जीवातो फेडेति तवेण बारसविधेण तमं अविण्णाणं । उवणेति य 10 समीवणं णेति य मोक्खमग्गमप्पाणं। तव-णियमणिच्छितमती, एस तवोविणीयो भवति तम्हा ॥१० ॥ २१९ ॥ उवयारविणयो भण्णति-. अंध ओवगारिओ पुण दुविधो विणओ समासतो होति । पडिरूवजोगजुंजणओऽणच्चासातणाविणओ॥११॥२२०॥ अध ओवगारिओ पुण. गाधा। अधसद्दो अणंतरे, तबविणयातो अणंतरं ओवयारियो। सो य 15 दुविहो-पडिरूवजोगजुंजणाविणयो अंणचासातणाविणओ य ॥११॥ २२० ॥ तत्थ पडिरूवजोगजुंजणाविणयो, तं० पडिरूवो खलु विणयो कायियजोगे १ य वाय २ माणसिओ । अट्ठ नउठिवह दुविहो परूवणा तस्सिमा होति ॥१२॥२२१॥ पडिरूवो खलु विणयो० [गाधा]। पडिरूवविणयो तिविहो, तं०-कायियो १ वायियो २ माणसियो ३। 20 तत्थ कायियो अट्ठविधो, वायियो चतुम्बिहो, माणसिओ दुविहो । एतस्स तिविहस्स वि परूवणा इमा होति ॥१२॥ २२१ ॥ काइयस्स ताव परूवणा इमा अब्भुट्टाणं १ अंजलि २ आसणदाणं ३ अभिग्गह ४ किती ५ य। सुस्सूसण ६ मणुगच्छण ७ संसाधण ८ काय अट्टविहो ॥१३॥ २२२॥ अब्भुट्ठाणं अंजलि• गाहा। सो इमो अट्टविहो कायियविणयो, तं०-अब्भुट्ठाणं १ अंजलि २ आसण25 दाणं ३ अभिग्गहो ४ कितिकम्मं ५ सुस्सूसणा ६ अणुगच्छणा ७ संसाहण ८ त्ति । अभिमुहमागच्छंतस्स उट्टाण मन्भुट्ठाणं१। हत्थुस्सेहकरणमंजली २। कट्ठ-पीढ-कप्पातिदाणमासणदाणं ३। आयरियादीण भत्ताणयणातिवत्थुस्स नियमग्गहणमभिग्गहो ४ । वंदणं कितिकम्मं ५। ठितस्स णातिदूरे ठितणं पज्जुवासणं सुस्सूसणा ६ । आगच्छंतस्स पञ्चुग्गच्छणमणुगच्छणं ७। गच्छमाणस्साणुव्वयणं संसाधणा ८। एस कायिगो ॥१३ ॥ २२२॥ वायिगो पुण रित्तीकरेति खं० ॥ २णवमं(?गं) चेव ण खं०॥ ३ य सग्ग-मोक्खमप्पाणं खं० वी० मु. पु. हाटी ।। . ४ मणिच्छयम वी० मु. हाटी० ॥ ५ अह ओवयारिओ खं० वी० पु० मु०॥ ६ “ण तह य अगासायणा खं० मुः। __ण तहेव अणसायणा वी० ॥ ७ अण ओवरियायो। सो मूलादर्शे ॥ ८ अणिच्चा मूलादर्श ॥ ९ अणुग' वी० ॥ . १० सुस्लणा मूलादर्श ॥ ११ सुस्सा। आग मूलादर्श ॥ Jain Education Intemational Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 15 णिज्जुत्तिगा० २१८-२७] दसकालियसुत्तं। २०५ हित १ मित २ अफरुसंभासी ३ अणुवीतीभासि ४ वायियो विणओ। हित-मित. अद्धगाहा। हितभासी १ मितभासी २ अफरुसभासी ३ अणुवीतिभासी ४ । जं आयरियादि अपच्छभोजणादिनिवारणं करेंति ऐतं इहलोगहितं, सीतंतरस चोयणा परलोगहितं १ । तं चेव परिमितमणुचसई च मितं २। तं चेव सामपुव्वं 'वरं सि मया गिद्धेण भणितो, ण परेण' इति सिणेहपुत्रमुल्लावितो अफरुसवायी ३। देस-कालादिमणुचिंतिय भासमाणो अणुवीतिभासी ४ । एस वायिको । मणविणयो पुण ___ अकुसलमणोनिरोहो १ कुसलमणउदीरणा २ चेव ॥१४॥२२३॥ अकुसल० गाहापच्छद्धं । अकुसलमणनिरोह। १ कुसलमणउदीरणं २ च । दुविहो माणसियो॥१४॥२२३॥ सव्वो वि एस पडिरूवो खलु विणयो पराणुवत्तीपरो मुणेयव्यो। अप्पडिरूवो विणयो णायब्बो केवलीणं तु ॥१५॥२२४ ॥ पडिस्वो० गाधा। जधावत्थुअणुरूवो पडिरूवविणयो अब्भुट्ठाणादि पराणुवत्तीपरो छदुमत्थाण । पराणुवत्तिविरहिताण अप्पडिरूवो विणयो केवलीणं । पराणुवत्ती पुण पुवपवत्तं अणाभिण्णा ण हाति, णाता पुण ण करेंति ॥१५॥ २२४ ॥ अतिक्कंतपञ्चवमरिसणेण पुणो उवदंसिजति एसो भे परिकहितो विणयो पडिरूवलक्षणो तिविधो। यावण्णविधिविधाणं बेतऽणचासातणाविणयं ॥१६॥२२५॥ एसो भे परि० गाहा। एसो जोऽणुक्तो परिकहितो पडिरूवलक्षणो [तिविधो] विणयो। अणचासातणाविणयं पुण बावण्णविधिविधाणं तित्थगरा भगवंतो बावणं(?ण्णविहं) बैंति कहयंति ॥१६॥२२५॥ ते बावण्णभेदा इमेहिं तेरसहिं [पदेहिं]तित्थकर १ सिद्ध २ कुल ३ गण ४ संघ ५ किरिय ६ धम्म ७ नाण ८ नाणीणं। 20 आयरिय १० थेरु ११ वज्झाय १२ गणीणं १३ तेरस पदाणि ॥१७॥२२६॥ तित्थकर-सिद्ध-कुल० गाहा। तित्थकरा १ सिद्धा २ कुलं ३ गणो ४ संघो ५, किरिया-अत्थित्तं, तं० 'अस्थि जीवा' एवमादि ६. धम्मो ७ नाणं ८ नाणी ९ आयरिया १० थेग ११ उवज्झाया १२ गणी १३ । एतेसिं तित्थकरादीगं गणिपजवसाणाणं तेरसण्डं पदाणं [अणासातणा-भत्तिमादीणि चत्तारि कारणाणि अणच्चासातणाविणयो बावण्णविहो भवति ॥ १७॥ २२६ ॥ ते य [अणासातणा-] भत्तिमादी इमे 25 अणसातणा १ य भत्ती २ बहुमाणो ३ तह य वण्णसंजलणा ४। तित्थगरादी तेरस चतुग्गुणा होति बावण्णा ॥१८॥२२७॥ अणसातणा य भत्ती. गाधा। अणासातणा १ भत्ती २ बहुमाणो ३ वष्णसंजलणा ४ । एतेहिं चउहि कारणेहिं बावण्णा भवति । तं०-तित्थगराणं अणासातणा जाव गणीणं, एको तेरसतो अणचासातणाए गतो १ । भत्ती भण्णति तं०-तित्थकराणं भत्ती जाव गणीणं वितिओ तेरसओ, दो वि मिलिता छब्बीसा २ । 30 वहुमाणे वि तेरस चेव, तं०-तित्थगरेसु बहुमाणो जाव गणीसु ततियो तेरसतो, छव्वीसार मेलितो जाता एगूण १ सवाई अणु खं० वी० पु० मु० हाटी० ॥ २ एतं हितलोग मूलादर्श ॥ ३ लचित्तनि वी० मु०॥ ४°णुवित्तीमओ मु खं० । गुवत्तिमइओ मुवी। "गुअत्तिमइओ मुमु० ॥५ वेति अणासात खं० वी० पु. मु०॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ णिजृत्ति-चुण्णिसंजुयं [णवमं विणयसमाहिअझयणं पढमो उद्देसो चत्तालीसा ३ । वाणसंजलणाए वि तेरस चेव, वण्णसंजलणा गुणुक्त्तिणा, तित्थकराण वण्णसंजलणा जाव गणीणं, पुन्विल्ला एगूणचत्तालीसा एते य तेरस, एसा बाचण्णा ४ ॥१८॥ २२७॥ अणचासातणाविणयो समत्तो, ओवयारियविणओ य समत्तो, मोक्खविणयो य समतो, समत्तो विणयो। समाधी भण्णति—सा चउबिधा। णाम-टुवणातो गतातो । दबसमाही पुण-- दवं जेण व दव्वेण समाधी आधितं च जं दव्वं । दव्वं जेण व दवेण० अद्धगाथा। दव्वसमाधी समाधिमत्तादि, जेण दवेण भुत्तेण समाधी भवति, आधियव्यं जं दवं आधितं समारोवितं, जेण व्वेण तुलारोवितेण [ण] कतो वि णमति समतुलं भवति सा दव्वसमाधी। भावसमाधी पुण इमेण गाधापच्छद्धेण भण्णति भावसमाधि चउविध सण १ नाणे २ तव ३ चरित्ते ४॥१९॥२२८ ॥ ॥विणयसमाहीए णिज्जुत्ती सम्मत्ता॥ .. भावसमाधि० अद्धगाहा। चतुम्विहा भावसमाधी, तं०-दसणसमाधी १ नाणसमाधी २ तवसमाधी ३ चरित्तसमाधि ४ ति ॥१९॥२२८ ॥ नामनिप्फग्णो गतो। सुत्तालावगनिष्फण्णे सुत्तमुच्चारेतव्यं, जहा अणुओगद्दारे । तं च सुत्तं इमं, तं ४३३. थंभा व कोषा व मय प्पमादा, गुरूण सगासे विणयं ण चिढ़े। ___ सो चेव तू तस्स अभूतिभावो, फलं व कीयस्स वहाय होति ॥१॥ ४३३. थंभा व कोधा व० वृत्तम् । थंभणं थंभो अभिमाणो गव्वो, सो य जातियातीहिं संभवति, ततो थंभातो उत्तमजातीओ ह'मिति जो गुरूणं सकासे विणयं न चिठे। कोहा वा रोसेण वा विणयं ण चिद्वेज । मय इति मायातो, एत्थ आयारस्स इस्सता, सरहस्सता य लक्खणविजए(?विचए) अस्थि, जधा “इस्त्रो नपुंसके प्रातिपदिकस्य" [पा० १२४७], पागते विसेसेण, जधा एत्थैव वासद्दस्स, एवं मायाए वि गिलाणलक्खेण 20 अब्भुट्ठाणाति गुरूण ण करेति । पमायादिति सबप्पमादमूलमिति लोभ एवाभिसंबज्झति, अप्पणो लाभमाकंखमाणो गुरूण सगासे विणयं ण चिढ़े, इंदिय-निद्दा-मन्नादिप्पमादेण वा । वासदो विकप्प-समुच्चयार्थः, एतेसिमेगतरेण दोहिं समुदिएहिं वा गुरूणं सगासे विणये ण चिट्टे विणए ण हाति दुविहे आसेवण-सिक्खाविणए । सो चेव तू तस्स अभूतिभावो, सो इति सो अविणयो, भूतिभावो रिद्धी, भूतीए अभावो अभूतिभावो, तस्स अविणीयस्स स एवाविणयो अभूतिभावो । अभूतिभावो अभूतिभवणं । जघा कस्स किमभूतिभावः ? इति, दिद्रुतो भण्णति25 फलं व कीयस्स वहाय होति, कीयो वंसो, सो य फलेण सुक्खति । उक्तं चपक्षाः पिपीलिकानां, फलानि तल-कदलि-वंशपत्राणाम् । ऐश्वर्यं चाविदुषामुत्पद्यन्ते विनाशाय ॥१॥ . जधा कीयस्स फलमेव[म]विणयो तस्स अविणीयस्स अभूतिभाव इति ॥१॥ एवमातगतेहिं समुक्करिसकारणे[हिं] अविणीयो भवति । जवा पुण परगतेहिं परिभवकारणेहिं गुरुसगासे विणए ण चिट्टे तथा भण्णति-- 15 १ वुत्तेण मूलादर्श ॥ २ गुरुस्सगासे खं० १-२.३-४ जे० शु० ॥ ३ विणए अगपा० वृद्ध० ॥ ण सिक्खे खं १.२.३.४ जे० शु० हाटी अव० । ण चिट्ठे हाटी० अवपा० ॥ ५ ऊ खं १-२.३। ओ तस्स खं ४ जे० शु०।६ पराते मलादर्श ।। Jain Education Interational Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ णिज्जुत्तिगा० २२८ सुत्तगा० ४३३-३६] दसकालियसुत्तं । ४३४. जे यावि मंदे त्ति गुरुं विदित्ता, डहरे इमे अप्पसुते त्ति णच्चा। ___ हीलेंति मिच्छं पडिवजमाणा, करेंति आसातण ते गुरूणं ॥२॥ ४३४. जे यावि मंदे त्ति गुरुं० वृत्तम् । जे इति सामण्णवयणं । चसद्दो पुव्वभणिताणुकरिसणे। अविसद्दो संभावणे। जति ताव अत्तुक्करिसणमत्तमभूतिभावो परपरिभवो सुठुतरमभूतिभावो। मंदो चतुम्विहो। [दव्वमंदो दुविहो-] उवचर [अवचर] य । तत्थ उवचये जधा मरट्ठाण थूलसरीरो मंदो, अवचये पुण तणुयसरीरो मंदो। भावमंदो वि 5 दुविहो-उवचये अवचए य । अवचये जस्स थूला बुद्धी सो मंदबुद्धी, उवचये गुण सण्हा बुद्धी । एत्थ [दव्ब-]भावेहि अधिकारी, सेसा उच्चारितसरिस त्ति परूविता। 'आयरियलक्खणोववेयो' ति गुरुपदे थावितो मंद [?दो] बुद्धीए कहंचि वा सरीरेण तं हीलेंति ड्रेपयंति अहियालेंति मिच्छं असचं उवदेसादण्णधा पडिवजंता सूताए-अवदेसेण जधा-जति अम्हे वि एवंबुद्धिसंपण्णा होता तो भणंता, असूताए-फुडमेव-किंतुभ मंदबुद्धीण उल्लावितेण १ । डहरं वयसोपकमेव सूताए-किं अम्हं चेडरूवाण भणितेणं १, असूताए वि-बालो ताव तुम, किं ते भणितेणं १ । एवऽप्पसुतमवि ते हीलेंता करेंति 10 आसातण। आसातणं पुण गुरुतस्स निजराआयस्स सातणं अधिक्खिवणं गुरुगुणसातणं तं करेंति ॥२॥ मिच्छं पडिवजमाणा करेंति आसातणमिति भणितं । को पुण गुरूण [विणए] गुणो आसातणे वा दोसो जतो तदासातणं परिहरितव्वमिति १ भण्णति ४३५. पगतीए मंदा वि भवंति एगे, डहरा वि य जे सुत-बुद्धोववेता। __ आयारमंता गुणसुट्टितप्पा, जे हीलिता सिहिरिव भास कुज्जा ॥३॥ ४३५. पगतीए मंदा० वृत्तम् । स्वभावो पगती, तीए मंदा वि णातिवायाला उवसंता एगे केति । तथा डहरा वि [जे] सुत-बुद्धोववेता, जति वि डहरा वयसा तहावि बहुसुता पंडिता। एवं आयारमंता णाणातिणा आयारेण संगहोवग्गहादिगुणसुट्टितप्पाणो। निदरिसणं-जे हीलिता सिहिरिव भास कुजा, सिही अग्गी तेण तुला, जधा सो समुज्जलितो महंतमवि तण-कट्ठरासी छारीकरेति एवं ते हीलिता भासं कातुं समत्था, अतो ण हीलेजा ॥३॥ भणितो आसातणपञ्चवातो । तमेव पुणो वतीविसेसेण दिद्वंतंगं दरिसंतेहिं भण्णति ४३६. जे यावि णागं डहरे ति णच्चा, आँसादए सो अहिताय होति । ___ एवाऽऽयरियं पि हु हीलयंतो, णिगच्छती जाति-वधं खु मंदे ॥ ४ ॥ ४३६. जे यावि णागं [डहरे] ति० वृत्तम् । जे इति अनिद्दिढुस्स वयणं । चसदो पुब्वभणितसमुच्चये । अपिसदो 'किमुत महलं ?' इति संभावणे । गोगो सप्पो तं आसादए परिभवंतो अंगुलिविघट्टणाहिं। सो णागो तस्सेवमासादेंतस्स समुदीरितरोसविसो डसंतो मारणातिअहिताय संभवति। जधा तं एवाऽऽयरियं पि हु25 हीलयंतोणिगच्छति जाति-वधं जाती-समुप्पत्ती वधो-मरणं, जम्म-मरणाणि णिगच्छति, अधवा "जातिपर्ध" जातिमग्गं-संसारं । खु इति अवधारणे, जधा एतं खु ते अवत्थं एवमयं पञ्चवातावधारणे, एवमायरियं पि हु अयमवि खु मंद इति बुद्धिहीणो ॥ ४ ॥ डहरणागासातणातो इमं गुरुतरं गुरूणमासातणं ति दरिसंतेहिं भण्णति 20 १मंद त्ति जे. शु०॥ २ सूचया इत्यर्थः ।। ३ असूचया इत्यर्थः।। ४ गुरुकस्य निर्जराऽऽयस्य ।। ५पगतीय जे० पद्ध० ।। ६ वयोविशेषेण ।। ७ डहरं ति ण खं ३ शु० ।। ८ आसायए से अ अचू० विना ।। ९नियच्छई अचू० विना॥ १० जातिपहं अचू० विना। जातिपधं अचूपा०॥ ११ अद्वेसिवयणं मूलादर्श ॥ १२णागो अप्पेतं मूलादर्श ॥ १३ गुरुसमा मूलादर्श ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [णवमं विणयसमाहिअझयणं पढमो उद्देसो ४३७. आसीविसो यावि परं सुरुट्ठो, किं जीतणासातो परं नु कुज्जा ?। __ आयरियपादा पुण अप्पसण्णा, अबोधि आसातण नस्थि मोक्खो ॥५॥ ४३७. आसीविसो यावि० वृत्तम् । आसीविससप्पस्स दाढा आसी, तीए विसं जस्स सो आसीविसो, स चावि पधाणं रोसत्थाणं सुठु गतो परं सुरुट्ठो किं जीतणासातो परं नु कुजा ? जीतणासातो 5 अण्णं ण किंचि वि काउं समत्थो। आयरियपादा पुण अप्पसण्णा अयोधिआसातणे सति, अबोहितो य नत्थि मोक्खो, दिक्खाविफलता य एवं ॥५॥ ‘णागासायणातो आयरियासातणं पावं' ति समत्थितं । सिहिणिदरिसणातो वि पावतरमिति समत्थयंतेहिं भण्णति ४३८. जो पावकं जलितमवक्कमेजा, आसीविसं वा वि हु कोवएजा। ____जो वा विसं खातति जीवितट्ठी, एसोवमाऽऽसातणता गुरूणं ॥ ६॥ 10 ४३८. जो पावक० वृत्तम् । जो इति अणिद्दिदुग्गहणं। पुणाति आणारंभकुयातो (?) पावको अग्गी, तं जो जलितमवक्कमेज्ज । आसीविसं वा अकुवितं कोवएज्जा। जो वा [जीवितट्टी] जीविताभिकंखी विसं पभूतं खातति । अवि ताव हेतुत्तणेण पावगसमक्कमणातितुला एसोवमाऽऽसातणता गुरूणं ॥६॥ पावकाऽऽसीविससंजोगेहितो गुरुहीलणं नियमेण विणासकतरमिति दरिसंतेहिं भण्णति-- ४३९. सियोय से पावत णो डहेज्जा, आसीविसो वा कुवितो ण भक्खे । 15 सिया विसं हालहलं ण मारे, ण यावि मोक्खो गुरुहीलणाए ॥ ७ ॥ ४३९. सियाय से पाव. वृत्तम् । सियायसद्दो आसंकावाची। से इति जलितमिति जो भणितो पावतो मंत-तव-सच्च-देवतापरिग्गहेण णो डहेन । आसीविसो बंधादीहिं ण खाएज। मंतादीहिं वा विसं हालहलं ण मारे। हालहलमिति जातिविसेसो, तं विसेसेण मारगं । सितात एताणि अविणासगाणि, ण यावि मोक्खो गुरुहीलणाए आसातणाए, गुरूणं आसातणादोसेहि ण मुञ्चति [त्ति] ॥ ७॥ इमाणि वि पावकक्कम20 णातितुल्लाणि, यथा य एतेहिंतो वि पंचवतरा गुरुहीलणा तं भण्णति ४४०. जो पव्वतं सिरसा भेत्तुमिच्छे, सुत्तं व सीहं पडिबोहएजा। - जो वा दए सत्तिअग्गे पहारं, एसोवमाऽऽसातणता गुरूणं ॥ ८॥ ४४०. जो पञ्चतं० वृत्तम् । जो इति तहेव, पव्वतं सिरसा भेत्तुमिच्छे। जो वा सीहं सुहप्पसुत्तं पडियोहएज्ज । सत्ती आयुधं तस्स परमतिक्खे [अग्गे] जो वा पाणितलेण पहारं देना। जधा पव्वत25 भेदणादि विणासगमेगंतेण एतेहिं तुला एसोवमाऽऽसातणता गुरूणं ॥ ८॥ अवि य पवतभेदणातीण सुकरता, तेहिंतो वा णिरवायता संभवति, ण य हीलणातो गुरूणं सुहमत्थि त्ति भण्णति-- ४४१. सियाय सीसेण गिरिं पि भिंदे, सिया व सीहो कुवितो ण भक्खे । सिया ण भिंदेज व सत्तिअग्गं, ण यावि मोक्खो गुरुहीलणाए ॥९॥ १ आवि खं ३ । वा वि खं २ ।। २ जीवणा' अचू० वृद्ध० विना । जीयणा वृद्ध० ॥ ३-४ जीवनाशात् ॥ . ५ सिया हु से खं १ खं २ शु० हाटी० वृद्ध० ।। ६ प्रत्यपकरा ।। ७-८ सिया हु सी अचू० विना ।। Jain Education Interational Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ४३७-४४ ] दसका लियसुतं । २०९ ४४१. सियाय० वृत्तम् । कयायि विज्ञादिबलेण पव्वतं 'सिरसा भिंदेना । पडिवोहितो वा सीहो थं भणि-मोहणातिपभावेण ण भक्खेन । सत्यबंधणादीहिं वा ण भिंदेज सत्तिअग्गं । ण यावि गुरुहीलणोवतियस्स कम्मबंधस्स मोक्खो ॥ ९ ॥ एवं च पावककमणादीहिंतो आयरियासातणा पावतरी समासेणोवदंसिजति । जधा- ४४२. आयरियपादा पुण अप्पसण्णा, अबोधि आसायण णत्थि मोक्खो । तम्हा अणाबाहसुहाभिकंखी, गुरुप्पसादाहिमुहो रमेज्जा ॥ १० ॥ ४४२. आयरि ० वृत्तम् । आयरियपादा पुण अविणर्यविराहिता अप्पसण्णा । सैव अबोधी । तेसिमेवाऽऽसायणाओ णत्थि मोक्खो । जतो एवं तम्हा अणाबाहसुहाभिकखी गुरुप्पसादाहिमुहो रमेज्जा, अणाबाहो मोक्खो, तत्थ जं सुहं तं अणाबाहसुदं, तं अभिमुहमाकंखितुं सीलं जस्स सो अणाबाधसुहाभिकखी । सो अणाबाहसुद्दनिमित्तं गुरुप्पसादाभिमुो रमेजा ॥ १० ॥ जा परमेणादरेण गुरुप्पसादाभिमुहेण भवितव्वं तं सणिदरिसणं भण्णति ४४३. जहाऽऽहिअग्गी जलणं णमंसे, णाणाहुती- मंतपदाभिसित्तं । एवाऽऽयरियं उवचिट्ठएज्जा, अनंतनाणोवगतो वि संतो ॥ ११ ॥ ४४३. जहाऽऽहि० वृत्तम् । जेण प्रकारेण आहिअग्गी, एस वेदवादो जधा - " हव्ववाहो सव्वदेवाण हव्वं पावेति” अतो ते तं परमादरेण हुणंति, तेणेदं निदरिसणं । जलणं णमंसं (से) ति अभिथुणं (णे ) ति । 15 णाणाहुती • णाणा अणेगविधं घतादयो आहुतिविसेसा मंतपदेहिं अभिमुहं सित्तं जो जस्स देवताविसेसरस मंतो तेण । नाणासद्दो उभयाणुसारी - णाणाहुतीहिं नाणामंतपदेहिं । एवं एतेण प्रकारेण आयरियं उवचिट्ठएजा उवचरेज्या महतीमवि विभूर्ति पप्पा । कथं १ अनंतनाणोवगतो वि संतो अनंतं जेण णज्जति तं अनंतनाणं, तमवि उवगतो सुस्सूसेज्ज गुरुं ॥ ११ ॥ एवाऽऽयरियं उवचिट्ठएज ति दिक्खागुरूण विणतो भणितो । नाणो वदेत्थ पाहणेण इमं भण्णति, न केवलं जेण दिक्खितो, किंतु 20 ४४४. जैस्संतियं धम्मपदाणि सिक्खे, तस्संतियं वेणइयं पैतुंजे । सक्कारए सिरसा पंजलीतो, काय ग्गिरा भो ! मणसा य णिच्चं ॥ १२ ॥ १ 'यविरहिता मूलादर्श ॥ २ जस्संतिए अचू० वृद्ध० विना ॥ ३ तस्संतिए अचू० वृद्ध० विना ॥ ४ पउंजे अचू० विना ॥ ५ पञ्चाङ्गस्य ॥ ६ तान् धर्मपदोपदेशकान ॥ ७ पाणिततणदुतं मूलादर्शे || २७ 5 ४४४. जस्संतियं धम्म० वृत्तम् । जस्सेति उवज्झायादीण कस्सति अंतिए धम्मोवदेसपदाणि सिक्वे तस्संतियं विणयस्स भावो वेणइयं तं पतुंजे । तमेवं पजुज्ज सक्कारए सिरसा पंजलीतो । सिरसा पंजलितो त्ति एतेण पंचंगितस्स बंदण [स्स] गहणं । "ते धम्मपतोत्रदेस पुत्रभणितेण अन्भुट्ठाणादिणा 25 विणण सकारए, इमेण य पंचंगितेण वंदणएण जाणुजुवलं पाणितलदुतं सिरं च भूमीए णिमेऊण, एवं कारण । गिराए 'मत्थरण वंदामि' त्ति भणमाणो । भो इति सीसामंतणं, मणसा एगग्गेण, निचं एव सव्वं कालं ॥ १२ ॥ " 10 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० णिन्जुति-चुण्णिसंजुयं [णवमं विणयसमाहिअज्झयणं पढमो उद्देसो धम्मपयप्पविभागोवदरिसणत्थं भण्णति ४४५. लज्जा दया संजम बंभचेरं, कल्लाणभागिरस विसोधिठाणं । जे मे गुरू संततमणुसासयंति, ते हं गुरू संतयं पूययामि ॥ १३ ॥ ४४५. लज्जा दया० वृत्तम् । अकरणिज्जासंकणं लज्जा। सत्ताणुकंपा दया। सत्तरसविहो संजमो। 5 मेहुणोवरती बंभचेरं। “एगग्गहणे समाणजातीयग्गहण"मिति बंभचेरग्गहणेण मूलगुणुत्तरगुणग्गहणं । एतं समुदितं कल्लाणं मोक्खो तस्स आभागी, तस्स कल्लाणभागिस्स विसोधिटाणं । एतेसु सीतमाण जे मे गुरू सततमणुसासयंति जधा एतेसु न सीतितव्वं, ते हं गुरू तमुपकारमुदिस्स [स]तयं णिचं पूययामि। जस्संतिए धम्मपदाणि सिक्खे ति उपकारमुदिस्स विणयप्पयोगो भणितो ॥१३॥ ४४६. जहा णिसंते तवतऽच्चिमाली, पभासती भारहं केवलं तु। एवाऽऽयरियो सुत-सील-बुद्धिए, विरायती सुरमज्झे व इंदो ॥ १४ ॥ 10 ४४६. जहा णिसंते. वृत्तम् । जेण प्रकारेण जधा। णिसा रत्ती, तीसे अंते णिसापरिसमत्तिकाले दिवसो तवति पदीपयति । रस्सीओ-अच्चीओ, तासिं माला अच्चिमाला, सा जस्स अत्थि सो अचिमाली, तवंतो य पभासती भारहं केवलं तु, पभासति उज्जोवेति भारहं सव्वदक्खिणं जंबुद्दीववरिसं तं पभासति केवलं असेसं । तुसद्दो विसेसेति, कमेण सव्वं जंबुद्दीवं । एवमिति ओवमितो अत्यो भण्णति-आयरियो 15 पुव्ववण्णितो सुतेण सीलेण बुद्धीए अचिमालात्थाणीएहिं विरायति सोभती। सुरमझे व हुंदो जधा सामाणियातीण देवाण मज्झगतो इंदो शोभते एवमायरियो गणपरिवुडो शोभते ॥१४॥ विराजते सुरमझे व इंदो इति परोक्खेणोवमाणं कतं । इमं तु पञ्चक्खेण४४७. जधा ससी कोमुदिजोगजुत्तो, णक्खत्त-तारागणपरिवुडप्पा । खे सोभते विमले अब्भमुक्के, एवं गणी सोभति भिक्खुमझे ॥ १५ ॥ 20 ४४७. जधा ससी० वृत्तम् । जेण प्रकारेण जधा। ससी चंदो। कुमुदाणि-उप्पलविसेसो, कुमुदेहि प्रहरणभूतेहिं क्रीडणं जीए सा कोमुदी, कुमुयाणि वा संति, सा पुण कत्तियपुण्णिमा, कोमुदीए जोगो कोमुदीजोगो, तेण जुत्तो कोमुदिजोगजुत्तो। णक्खत्तेहिं-कत्तियादीहिं तारागणेहि य परिवुडो अप्पा [जस्स] सो णक्खत्ततारागणपरिवुडप्पा। खं आकासं तम्मि विमले धूमिकादिविरहिते अन्भेहि बलाहकादीहि मुके। जधा सो ससी कोमुदिजोगजुत्तो णक्खत्त-तारा[गण परिवृतो खे विमले अन्भमुक्के सोभते एवं गणी . 25 सोभति भिक्खुमज्झे ॥१५॥ एवमाइतेहिं सोभाविसेसेहिं जुत्ता १ भाइस्स खं ४ ॥ २ सयय अणु' शुपा० ॥ ३ सययं अचू० विना ॥ ४ "वअचि खं २.३.४ । 'वणऽश्चि खं १ जे० शु० हाटी० अव० ॥ ५ केवल भारहं तु अचू० वृद्ध० विना ॥ ६ विराजते अचूपा० ॥ ७ सीसमझे वृद्धः॥ ८ एवमादिकैः ॥ Jain Education Interational Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ४४५-५०] दसकालियसुत्तं । २११ ४४८. महागरा आयरिया महेसी, समाधिजोगाण सुत-सील-बुद्धिए। संपावितुकामो अणुत्तराणि, उवट्ठितो तोसए धम्मकामी ॥ १६ ॥ ४४८. महागरा आय० वृत्तम् । महतामाकरा ते महाकरा चतुम्विहा। णाम-ट्टवणातो गतातो। दव्वमहाकरा रयणागरा समुद्दा। भावमहाकरा णाणादिरयणागरा आयरिया। तेहि त इधाधिकारो। महेसी महरिसतो। ते य महागरा समाधिजोगाणं सुतस्स त बारसंगस्स सीलस्स य वृद्धीए य, अधवा सुत-सील-बुद्धीए समाधिजो-5 गाणं महागरा। ते एवंगुणे आयरिए अणुत्तराणि अतिसयमादीणि संपावितुकामो कामो इच्छा, संपाविउ कामो जस्स सो संपावितुकामो। उवहितो उवणयो। सो एवं अणुत्तराणि संपाविउकामो उवद्वितो ते आयरिये तदटुं तोसेजा धम्मकामी, ण वृत्तिहेतुं ॥१६॥ जाणि आयरियगुणोववण्णणं प्रति एतम्मि उद्देसए भणिताणि एयाणि___४४९. सोच्चाण मेधावि सुभासिताणि, सुस्सूसए आयरियऽप्पमत्तो। 10 आराधयित्ताण गुणे अणेगे, से पावती सिद्धिमणुत्तरं ति ॥ १७ ॥ बेमि ॥ ॥ विणयसमाधीए पढमुद्देसओ सम्मत्तो ॥९-१॥ ४४९. सोचाण मेधा. वृत्तम् । सुणेऊण सोचाण। मेधावी पुब्बभणितो। सोभणाणि भासिताणि [सुभासिताणि]। एताणि सोऊण मेधावी सुस्सूसणं जधाभणिताणुट्ठाणेण सोतुमिच्छात सुस्सूसए आयरियं पुव्वभणितं। णिद्दादिपमादविरहितो अप्पमत्तो। सो एवं अप्पमादी सुस्सूसमाणो आराधयित्ताण गुणे अणेगे 15 जधाभणिते से पावति सिद्धिमणुत्तरं ति सो य मोक्खो तं पावति तम्मि वा भवे, सावसेसेण वा कम्मुणा सुहपरंपरेण अट्ठभवंतरे पावति सिद्धिमणुत्तरं ॥ १७॥ इति बेमि तित्थगरोवदेसेण ॥ ॥ विणयसमाधीए पढमुद्देसो ॥२-१॥ [विणयसमाहीए विइउद्देसओ।] पढमुद्देसे विणयनिमित्तमाराधणमिति पसाधिते भवेदयं सीसस्साभिप्पायो, जधा-धम्मो मंगलप्पभिति धम्मसंसाधणे 20 पत्थुए किमप्पणो उपकारनिमित्तमायरिया विसेसेण विणयं वण्णयंति? उत तित्थगरवयणमेव ? एवमासंकामुहेण भगवंतो आणति-धम्माधारभूत एव विणयो । जतो भण्णति ४५०. मूलातो खंधो पभवो दुमस्स, खंधातो पच्छा समुति साला। साह-प्पसाहा विरुहंति पत्ता, ततो से पुष्पं च फलं रसो य ॥१॥ १राणि, आराहए तोस अचू० वृद्ध० विना ॥ २ सुहासियाई, सुखं २.४॥ ३ 'रिएऽप्प खं २.४ ॥ ४ राहहत्ता अचू० विना ॥ ५ श्रोतुमिच्छया ॥ ६ खंधप्पभवो अचू० वृद्ध० विना ॥ ७ साहा खं २-३-४ शु० हाटी०॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं णवमं विणयसमाहिअज्झयणं बिइओ उद्देसो ४५०. मूलातो खंधो० वृत्तम् । मूलं पतिट्ठा ततो लद्धपतिट्ठस्स मूलातो सुउव्विद्धो खंधो, एस पभवो दुमस्स। खंधातो पच्छा तदणंतरं समुवेंति जायंति साहापतिट्ठाणा साला। ततो य साह-प्पसाहा। अणुक्कमेण विरुहंति पत्ता। समुजातपत्तस्स ततो पुप्फं। चसद्देण तदणंतरं फलं । ततो तित्तादिअणेगविधो रसो ॥१॥ जहा एसो मूलादिरसपजवसाणो दुमो५१. एवं धम्मस्स विणओ मूलं, परमो सो' मोक्खो । जेण 'कित्तिं सुतं संग्छ, निरंसेसमधिगच्छति ॥२॥ ४५१. एवं धम्मस्स० वृत्तम् । आदिप्पभिति उववण्णितस्स जिणोवदिट्ठस्स एतेण प्रकारेण एवं धम्मदुमस्स विणयो मूलं, परमो सो मोक्खो परमो पधाणो, मोक्खप्पधाणो धम्मो, अपरमो देवलोगादिफलादि । स एव धम्मो अपरमेण वि धम्मफलेण दरिसिज्जति-जेण कित्तिं सुतं सग्धं निस्सेसमधिगच्छति, जेण धम्मेण 10 कित्तिमधिगच्छति, तजातीयं जसमवि। तत्थ पंडितेहिं संसद्दिजमाणा वित्थरति जा सा कित्ती, विभवादिसमुत्थितं विदियत्तणं जसो। सुतं च संग्छ साघणीयमधिगच्छति। णिस्सेयसं च मोक्खमधिगच्छति ॥२॥ विणयगुणा उवदिट्ठा। अविणयदोसकतमिमं । उभए कहिते सुहं दोसभीरू अविणयं परिहरति, गुणाकंखी य विणए उज्जमिही, ते इमे दोसा ४५२. जे य चंडे मिते थडे ढुव्वाती णियडीसढे । बुज्झति से अविणीयप्पा कटुं सोतगतं जहा ॥ ३ ॥ ४५२. जे य चंडे० सिलोगो। जे इति [अनिद्दिट्टग्गहणे]। चसद्दो चंडातिकारणसमुच्चये । चंडो रोसणो, सो किंचि भणितो रोसेण अविणीतो भवति । मंदबुद्धी मितो, सो उपदेसमपडिवजमाणो भवति अविणीयप्पा । जातिमदादीहि गन्वितो थद्वो कोति तधा अविणीयो भवति । दुब्वाती अकारणे वि फरुसाभिधाती एवमविणीयो भिवति । नियडी माता तीए सढो णियडीसढो, गिलाणलक्खादिमायाए अविणीयो भवति, सव्वेहिं वा 20 चंडादीहिं सढो। एवमविणयबहुलो बुज्झति से अविणीयप्पा। कथमिव १ कटं सोतगतं जहा, जहा कटं णदीसोतगतं महासमुदं पाविजति एवं सोऽविणीयो सोतसा संसारमहासमुद्दमुवणिन्नति ॥३॥ चंडादीहिं अविणयकारणेहि समधिट्टितो४५३. विणयं पि से" उवाएंण चौदितो कुप्पती णरो। दिव्वं से" सिरिमेजती दंडेण पडिसेधए ॥ ४ ॥ १से खं ४ अचू० विना ॥ २ कित्ती खं १ जे०॥ ३ सिग्धं खं ४ शुपा० ॥ ४ निस्सेसं चाभिग खं १-३-४ जे. शु० । नीसेसं चाहिग खं २। निस्सेसमभिग वृद्ध०॥ ५ श्लाघ्यं श्लाघनीयम् ॥ ६ दुब्वायी णि जे० वृद्धः ॥ ७ वुज्झई से खं १ जे. शु०। धुम्भई से खं २। वुम्भई अखं ३-४ वृद्ध० ॥ ८ सेऽविणी खं १॥ ९ सोयं गयं खं १। सोयगयं खं २-३.४ शु० । सेयगयं जे० ॥ १०सो वृद्ध० । जो खं १-२-३-४ जे० शु० हाटी०॥ ११ एणं खं १-२॥ १२ चोइओ अचू० वृद्ध० विना ॥ १३ सो खं १-२ जे० शु• वृद्धः ॥ १४ सिरिगेज्जंतिं खं १-२ शु०। सिरीमेज्जंती खं ४ । सिरिमेजंती खं३ । सिरिमेयंति जे०॥ १५ डंडेहि पखं ४ ॥ Jain Education Intemational Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ सुत्तगा० ४५१-५६] दसकालियसुत्तं। ४५३. विणयं पि० सिलोगो। विणयो पुव्ववण्णितो, तं विणयं पि से इति जो एतेहिं दोसेहिमभिभूतो उवाएण देस-कालोववण्णं हितं मितं च, एवमवि चोदितो कुप्पति णरो इति पुरिसकाराभिमाणी। एवमविणीयो दिव्वं से सिरिमेजंती दिव्वं लच्छि आगच्छंती दंडेण पडिसेधए । एत्थ उदाहरणं दसारप्पमुहे सूरे सुधम्मागते परिणय[व]तिस्थिवेसा सिरी उवगंतूण 'तवाहं रूवुम्मादियाऽऽगता, इच्छ मए' ति एगमेगं भणति। सवेहिं दंडेण निवारिता। वासुदेवेण 'ण एसा पागत 'त्ति, उत्तमपगती वा सो सव्वं 5 ण निच्छोभेति, अतो तेण अभिलसिता, दिव्वरूवा तमणुपविट्ठा ॥ जधा ते भोज्जा सिरिं अविण्णाणेण चुक्का, एवमविणीया इह-परलोए सिरिं ण पावेंति । विणीया पुण जधा वासुदेवो तहा पावंति ॥४॥ पञ्चक्खमवि जधा तिसु वि गतीसु अविणीयस्स अणिट्ठफलविपाकदोसा, विणयगुणा य कलाणफलविपाका, तदिदं भण्णति ४५४. तहेव अविणीयप्पा उर्ववन्झा हता गता। दीसंति दुहमेहंता अभिओगमुवागता ॥५॥ ४५४. तहेव अवि० सिलोगो। तेण प्रकारेण तहा, दंडेण पडिसेहिता। एवसद्दो प्रकारावधारणे, एवं अविणीयो अप्पा जेसिं ते अविणीयप्पा। उप्पेध (? उवेच्च) सव्वावत्थं वाहणीया उववज्झा, हता अस्सा, गता हत्थी, ते अंकुस-कसा-लता-रज्जुमादीहिं ताडिता पञ्चक्खं दीसंति दुहमेहंता दुक्खमणुभवमाणा अभिओगमुवागता। जधा एते तिरिक्खजोणिगा सत्ता [तधा] परभवकतस्स अविणयस्स फलसूयगं दुक्खमणुभवमाणा 15 इहावि दुस्सीलादयो अविणीया भवंति, अविणयफलं च कसवातादीहिं सविसेसमणुभवंति ॥५॥ ४५५. तधेव सुविणीयप्पा उववज्झा हता गता। दीसंति सुहमेहंता इंडिप्पत्ता महाजसा ॥ ६॥ ४५५. तधेव सु० सिलोगो। तथा इति जधा अणंतरुद्दिढे अविणयस्स फलमणुभवंति तथा जे भण्णि(?वि)हिंति सुविणीयप्पा ते विणयस्स कल्लाणफलमणुभवंति । एवसद्दो पूर्ववत् । सुदु विणीयो अप्पा जेसिं ते 20 सुविणीयप्पा। रायादीण गमणकाले सुहजाणतणेण संगामितत्तणेण य उववज्झा हत-गतादयो इट्टजवस-जोग्गासणातिभोगेण दीसंति सुहमेहंता, विभूसणातिभोगेहिं इडिप्पत्ता, लोगविदिता 'अमुगो आसो हत्थी वा सव्यपधाणो' त्ति महाजसा ॥६॥ एवं ता तिरिएसु अविणय-विणयफलमुपदिडं। मणुएसु वि जं परिचयणीयं तं पुवमविणयफलमुवदिस्सति । तं च इमं ४५६. तधेव अविणीयप्पा लोगंसि णर-णारिओ। दीसंति दुहमेधंता ते छायाविगलिंदिया ॥७॥ १ तिसृष्वपि गतिषु' तिर्यग्-मनुष्य-देवरूपासु। नारकाणां परवशत्वेनात्रागमनाभावाद् लोकेऽसंव्यवहार्यत्वात् , तत्र भूम्ना सर्वभावानाम. शुभत्वाच नात्राधिकारः ॥ २४५४.५५ गाये वृद्ध० हाटी. क्रमव्यत्यासेन व्याख्याते स्तः, सूत्रप्रतिषु अवचूर्या च अगस्त्यव्याख्यात. क्रमेणैव वर्तेते ॥ ३ ओववज्झा जे० हाटी० ॥ ४ हया गया अचू० विना ॥ ५ आभिओग अचू० विना ॥ ६ ओववज्झा जे० हाटी०॥ ७ इडीपत्ता खं ४ ॥ ८ लोगम्मि खं २.४ ॥ ९ता छाया विगलितेंदिया अचूपा० हाटी• अव०॥ तिदिया अचूपा० । 'ता छाया ते विगलिंदिया सर्वासु सूत्रप्रतिषु वृद्ध० ॥ Jain Education Intemational Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ णिज्जुत्ति-चुणिसंजुयं [णवमं विणयसमाहिअझयणं बिइओ उद्देसो ४५३. तधेव सिलोगो। तधेति जधा तिरियाणं पञ्चक्खमवि सिद्धमविणयफलं भणितं तहा मणुएसु, एक्सद्दो तथैव, अविणीयो जेसिं अप्पा. ते अविणीयप्पा। लोगंसि इति मणुस्ससमुदाये चेव णर-णारीओ पुव्वमविणयभावे पेसतमुवगता, इह य वंकभावेण अणिट्ठा । ते दीसंति [दुहमेचंता] दुक्खाणि-सारीर-माणसाणि अणुभवमाणा छायाविगलिंदिया छाया शोभा, सा पुण सरूवता सविसयगइणसामत्थं वा, छायातो विगलिंदियाणि 5 जेसिं ते छायाविगलिंदिया काणंध-बधिरादयो भट्ठच्छायेंदिया। अहवा-छाया छुहाभिभूता, “विगलितिदिया" विरंगितिंदिया । एवं दीसंति दुहमेहंता ॥७॥ ४५७. दंड-सत्थपरिजूणा असम्भवयणेहि य। कलुणा विवण्णछंदा खू-पिवासाए परिगता ॥ ८ ॥ ४५७. दंडसत्थ० सिलोगो । दंडेहिं लकुल-लता-कप्पडादीहिं, असि-परसु-पट्टसादीहि य सत्थेहिं, एतेहिं 10 ताडिन्जमाणा वि परिजूणा परिगिलाण-दीणप्पा। अक्कोसादीहि य असन्भवयणेहिं परिजूणा। कलुणा घिणाकारिणो। छंदो इच्छा, विषण्णो छंदो जेसिं ते विवण्णछंदा परायत्ता। खु-पिवासाए परिगता वेरियादीहि सव्वधा वा निरुद्धा[हारा] परिमितभत्त-पाणा वा। एवमविणयफलमणुभवंति । पुवसिलोगे छाया, ते पुण अप्प-लूहाहारा; इह पुण परिगता इति समंततो खु-प्पिवासाणुगता, यदुक्तं णिरुद्धाहारा । तत्थ य पाढविकप्पेण, इह मूलपाढत्थ एवेति ॥ ८॥ इमं पुण विणयफलं ४५८. तहेव सुविणीयप्पा लोगंसि णर-णारिओ। दीसंति सुहमेहंता रिडिपत्ता महाजसा ॥ ९॥ ४५८. तहेव सुवि० सिलोगो। तहेवेति पुव्वभणितसारिस्सं । सुदु विणीयप्पा सुविीयप्पा। लोए पुव्वभणिते। णर-णारीओ पुव्वभवविणएण [दीसंती सुहमेधंता] रायाइभावमुवगता। पेसत्तणे वि सेवासु विणीया भोगाभागसुविभत्ता रिद्धिपत्ता, कम्मण्णयाए लोए पंडिता महाजसा ॥९॥ 20 मणुस्सेसु विणयफलमुपदिदं । देवेसु वि पुव्वमविणयफलं भण्णति ४५९. तधेव आविणीयप्पा देवा जक्खा य गुज्झगा। ____दीसंति दुहमेहंता अभियोगमुवत्थिता ॥ १०॥ .. ४५९. तधेव. सिलोगो। तहा एव त्ति भणितं, अविणीयप्पा य। जोतिस-वेमाणिया य देवा, वाणमंतरा जक्खा , भवणवासी गुज्झगा, अहवा देवाण एते पञ्चाया। एते तित्थकरकाले एरावणादयो पञ्चक्खमेव 25 दीसंति० अभियोगमुवत्थिता दुक्खाणि पावमाणा, विजातीहि वि अभिउत्ता दीसंति ॥१०॥ अविणयफलमुवदिटुं । विणयफलं तु देवेसु भण्णति १ परिजुण्णा खं २-३-४ जे० शु० वृद्ध० । परिज्जुण्णा खं १॥ २ ‘पणछाया खु खं १॥ ३ खु-प्पिवा अचू० वृद्ध० विना॥ ४°ता इडिं पत्ता खं १-२-३ जे० शु० वृद्ध० हाटी। ता इडी पत्ता खं ४ ॥ ५ कर्मण्यतया ॥ ६ आभिओग अचू० विना ॥ Jain Education Intemational Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ४५७-६३] दसकालियसुतं । ४६०. तहेव सुविणीयप्पा देवा जक्खा य गुज्झगा। दीसंति सुहमेहंता इड्डिप्पत्ता महाजसा ॥ ११ ॥ ४६०. तहेव सुवि० सिलोगो। तहेव सुविणीयप्पा देवा जक्खा य गुज्झगा इति भणितं । दीसंति. तित्थकरकालमधिकरेऊण भणितं, इंद-सामाणिकादयो तम्मि काले पञ्चक्खं दीसंति ॥ ११॥ तिरिय-मणुयदेवेसु अविणय[-विणय]फलं भणितं । णरएसु पुण सव्वमसुभमेव, ण य पञ्चक्खा, उवदेसतो छउमत्थेहिं उवलम्भंति, अतो ण संववहारो तेहिं । एवं ता लोगे। लोउत्तरे पुण जस्स विणओ मूलं तस्स फलमिमं इहलोए ४६१. जे आयरिय-उवज्झायाण सुस्सूसा-वयणंकरा । तेसिं सिक्खा विवर्धृति जलसित्ता व पादवा ॥ १२ ॥ ४३१. जे आयरिय-उवज्झायाण सिलोगो। जे इति उद्देसो । आयरिय-उवज्झाया ससिद्धंतप्पसिद्धा, तेसिं जे सुस्सूसा-वयणंकरा सोतुमिच्छा सुस्सूसा, तं करेंति सुस्सूसकरा, वेयावचादिविणय(१ वयणं) करा 10 य, तेसिं आसेवण-गहणसिक्खा विवडुति। णिदरिसणं-जलसित्ता व पादवा जधा जलसित्ता पादवा आसु विवइंति पुप्फ-फलप्पदा य भवंति तहा सुस्सूसा-वयणकरणजलसित्ता तेसिं सिक्खापादवा वडेंति । सिक्खादिगस्स महतो फलस्स लाभहेतुं धम्मायरिया सुस्सूसणीया ॥१२॥ जति ताव लोगिगा अप्पस्स फललाभस्स कारणा सुस्सूसंति, ते य-- ४६२. अप्पणट्ठा परट्ठा वा सिप्पा णेपुंणिताणि य। गिहिणो उवभोगट्ठा इहलोगस्स कारणा ॥ १३ ॥ ४३२. अप्पणट्ठा. सिलोगो। अप्पणट्ठा अप्पणो जीविगाणिमित्तं परहा 'सयण-परिजणोपकारिणो भविस्सामो' ति सिप्पाणि सुवण्णकारादीणि णेपुणिताणि ईसत्थसिक्खाकोसलादीणि गिहिणो असंजता भोयण-ऽच्छादणनिमितं उवभोगट्ठा तुच्छकालीणस्स इहलोगस्स कारणा ॥१३॥ ते य इहलोगोपभोगसुहत्थिणो वि सिक्खणकाले फलमिहलोगसुहं उज्झति । जधा४६३. जेण बंधं वधं घोरं पंरितावण दारुणं । सिक्खमाणा नियच्छंति जुत्ता ते ललितेंदिया ॥ १४ ॥ ४३३. जेण बंध० सिलोगो । जेण त्ति जेण गुरुणा सिक्खाविजमाणो बंधं णिगलादीहिं वधं लकुलादीहिं घोरं पासत्थियाण भयाणगं परितावणं अंगभंगादीहिं दारुणं तीव्र सिक्खमाणा आदावेव एयाणि नियच्छति उवणमंति। एवंणियोगमुवगता जुत्ता, ते इति सिक्खगसमुक्करिसवयणं । ललिताणि नाडगातिसुक्खसमुदिताणि 25 जेसिं रायपुत्तप्पभितीणं ते ललितेंदिया। लालितेंदिया वा सुहेहि, लाकारस्स इस्सादेसो ॥१४॥ इहलोगसुहाभिलासिणो जेण सिक्खाविजमाणा बंधादी णिगच्छंति १ "क्खा पव अचू. वृद्ध. विना ॥ २त्ता इव पा अचू० प्रद० विना ॥ ३ नेउणियाणि सर्वास सूत्रप्रतिषु ॥ ५ परियावं च दा सर्वानु सूत्रप्रतिषु हाटी० अव० । परितावं सुदा वृद्ध० ॥ ५ ललिइंदि सर्वासु सूत्रप्रतिषु ।। Jain Education Intemational Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [णवमं विणयसमाहिअज्झयणं बिइओ उद्देसो ४६४. ते वि तं गुरु पूति तस्स सिप्पस्स कारणा। ___ सक्कारेंति समाणेति तुट्ठा णिद्देसवत्तिणो ॥ १५ ॥ ४६४. ते वितं गुरु० सिलोगो। ते इति ते तहाललितेंदिया, अविसदा किं पुण जे तदूणा ?, तं बंधादिकारणं गुरुं पूति अत्थसंविभाग-दाणादीहिं तस्स सिप्पस्स कारणा तं सिक्खोवदेसं बहुमण्णमाणा, 5 न केवलं वृत्तिदाणेण भोयण-ऽच्छादण-गंध-मलेण य सकारेंति, थुतिवयण-पादोवफरिस-समयक्करणादीहि य समाणेति तुट्ठा होतूण, ण आ(? अ)कामं दायव्वमिति सव्वमाणत्तियं करेमाणा णिद्देसवत्तिणो ॥१५॥ जदि ताव ते इहलोगोवकारिविण्णाणत्थमेवं करेंति४६५. किं पुण जे सुतग्गाही अणंतसुहकामए। आयरिया जं वदे भिक्खू तम्हा तं णातिवत्तए ॥ १६ ॥ 10 ४६५. किं पुण जे० सिलोगो। 'किं पुण'सदो इहलोगोपकारातो इमस्सोपकारस्स अणेगेहिं गुणेहिं समुक्करिसणत्यो। किं पुण जे सुतग्गाही सुतग्गाहगा अणंतमोक्खसुहं तं कामयंतीति अणंतसुहकामए ? । से एवं अणंतसुहकामए होतूग भिक्खू जतो तं बंधादीणि अकरेंता [आयरिया जं वदे] इह-परलोगहितमुपदिसंति तम्हा तं गुरुं विणएण णातिवत्तए णातिकमेज । जं वदे तं णातिवत्तए ति गुरूण वयणं कातव्वं ॥१६॥ अभणितमवि विणयोवगतेणमणेगविधं करणीयमतो भण्णति. ४६६. णीयं सेजं गतिं ठाणं णीयं च आसणं तहा। ___णीयं च पादे वंदेजा णीयं कुजा य अंजलिं ॥ १७ ॥ ४६६. णीयं सेनं० सिलोगो। सेजा संथारयो तं णीयतरमायरियसंथारगाओ कुजा । गतिमवि ण आयरियाण पुरतो गच्छेजा, एवं णीता भवति । ठाणमवि जं "ण पक्खतो ण पुरतो." [उत्तरा०म० गा० १८] एवमादि अविरुद्धं तं णीतं तहा कुना। एवं पीढ-फलगादिकमवि आसणं । तहा णीयं च पादे वंदेजा। अंजलि20 मवि ओणओ होऊण णीयं कुजा ॥ १७ ॥ कायिको विणयो उवदिट्ठो। अयं तु वायिको। अधवा णीयमवि पादवंदणादि करेंतस्स जति तग्गतो कोति अइयारो भवेज्जा तस्स नियमणत्थं भण्णति ४६७. संघट्टइत्ता काएण तधा उवधिणा अवि। खमेह अवराधं मे वदेज ण पुणो ति य ॥१८॥ ४६७. संघदृइत्ता० सिलोगो । संघदृइत्ता छिविऊण हत्थादिकाएण, वासकप्पादिणा वा उवधिणा। 25 अविसदेण अचासण्णगमणवायुणा वा । इमेण उवाएण [अवराध] खामेज पादपडितो-मिच्छा मि दुक्कडं, अवरद्धो हं, ण पुण एवं करेहामि ॥ १८॥ विणये चेट्ठागतमणेगमुपदिटुं । असक्कं सव्वं भणितुं ति उदाहरणमत्तमेतं, अतोऽपरमवि बुद्धिमता लोग-लोगुत्तराविरुद्धं समतिवियारेण वट्टितव्वं । मंतिविधूणो पुण 15 १ पूएंति खं ३ । पूइति खं १ जे०। पूर्यति खं २-४ शु०॥ २ नमसंति सर्वासु सूत्रप्रतिषु वृद्ध० हाटी० अय० ॥ ३ तहितका अचू० विना ॥ ४ आसणाणि य अचू० वृद्ध० विना ॥ ५ अंजली खं ४ ॥ ६ दृयित्ता खं ३ ॥ ७ वहिणा मवि सर्वासु सूत्रप्रतिषु ॥ ८ मतिविहीनः॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ सुत्तंगा० ४६४-७०] दसकालियसुत्तं । ४६८. इंग्गवो व पतोदेण चोदितो वहति रथं । एवं दुब्बुद्धि किच्चाणं वुत्तो वुत्तो पैयुंजति ॥ १९॥ ४६८. दुग्गवो व० सिलोगो । कुत्सितो गौः दुग्गवो गलिबलेदो, स इव पतोदेण पतोदो तुत्ततो, तेण चोदितो तुत्तियो, ततो रघाती वहति जधा, एवं सो दुब्बुद्धी आयरियकरणीयाणि वयणप्पयोगेण वुत्तो कुत्तो पयुंजति तथा मतिमता ण कायव्वं, अचोदिएणेव पवत्तियव्वं ॥ १९ ॥ दुब्बुद्धी वयणेण करणीयाणि पडिवजति त्ति 5 भणितं । वयणमंतरेण पुण कधं पडिवजितव्वाणि ? इति भण्णति ४६९. कालं छंदोवयारं च पडिलेहेत्ताण हेतुहिं । "तेहिं तेहिं उवाएहिं तं तं संपडिवातए ॥२०॥ ४६९. कालं छंदोवयारं च० सिलोगो। कालं कालं प्रति वैरिसा-सीतुन्भेसु कालेसु तिसु, सरतादिसु वा रितुसु जधाकालं जोग्गं भोयण-सयणा-ऽऽसणादि उवणेयं । छंदो अभिप्पायो, ततो वि कस्सयि किंचि इ8 10 भवति । जधा अण्णस्स पिता छासी, मासी (१सासी) अण्णस्स आसुरी किसरा । अण्णस्स घारिया पूरिता य बहुलोहलो लोगो ॥१॥ [ उवयारो आणा, कोति आणतियाए तूसति। ते एतेहिं काल-छंदोवयारादीहिं पडिलेहेत्ताण हेतूहिं कार[णु]ववत्तितो णातूण तेहिं तेहिं उवाएहिं जो जस्स वत्थुस्स संपादणे उवायो तेण तेण तं तं संपडिवातए 15 ॥ २० ॥ अविणयस्स अकुसलं विणयस्स कुसलं फलमणेगधा वणितं । तस्सोवसंहरणत्थं भण्णति४७०. विवत्ती अविणीयस्स संपत्ती विणियस्स ये। जस्सेयं दुहतो णातं सिक्खं से अभिगच्छति ॥ २१ ॥ ४७०. विवत्ती अवि० सिलोगो। विवत्ती कजणासो। संपत्ती कजलाभो। विवत्ती अविणीयस्स जधा हेट्ठा भणितं-तहेव अविणीयप्पा० [सुत्तं ४५४ आदि] एवमादि। संपत्ती जधा-दीसंति सुधमेहंता 20 [सुत्तं ४५५ भादि] एवमादि । जस्सेयं दुहतो णातं जस्स विणयवतो दुहतो उभयमवि विणयाऽविणयफलं णातं, आसेवणा-गहणसिक्खं से अभिगच्छति पावति । सिक्खाए य परमं सिक्खाफलमधिगच्छति मोक्खं ॥ २१॥ उभतो णातमिति विणयपरिणाणसफलता भणिता । अविण्णाणदोसो पुण १ दुग्गओ वा प° अचू० हाटी विना ॥ २पओपण खं १ जे. शु०। पयोएण वृद्ध। पोगेण खं २-३-४॥ ३ दुबुद्धि खं २। दुवुद्धि खं -३-४ जे. शु०॥ ४ पकुम्बई अचू० विना ॥ ५ तोत्रकः ॥ ६ तोत्रितः॥ ७°कणणीसाणि मूलादर्शे ॥ ८ एतत्सूत्रश्लोकात् प्राक् खं २ प्रति विहाय सर्वास्वपि सूत्रप्रतिषु अयं सूत्रश्लोकोऽधिक उपलभ्यते-आलवंते लवंते वान निसेजाए पडिसुणे। मोत्तणं आसणं धीरो सुस्सूसार पडिस्सुणे ॥ नायं सूत्रलोकः अगस्त्यचूर्णी वृद्धविवरणे हारि० वृत्ती अवचूयर्या च व्याख्यातोऽस्तीति प्रक्षिप्त एव सम्भाव्यते ॥ ९ तेण तेण उवारणं खं १-२-३ वृद्ध० हाटी. अव० । तेणं तेणं उवापहि शु०। तेहिं तेहिं उवापहि पाठः खं ४ जे. प्रत्योरपि वर्तते ॥ १० वर्षा-शीत-उष्मसु ॥ ११ प्रिया ॥ १२ बहुडोहलो वृद्ध.॥ १३ उ जे०॥ २८ Jain Education Intemational Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [णवमं विणयसमाहिअज्झयणं बितिओ उद्देसो ४७१. जे यावि चंडे भतिइढिगारवे, पिसुणे णरे साधस हीणपेसणे । अदिट्ठधम्मे विणए अकोविए, असंविभागी ण हु तस्स मोक्खो ॥ २२ ॥ ४७१. जे यावि० वृत्तम् । जे इति तधेव । चसद्दो समुच्चये। अपिसदो एवं संभावयति-दुलभमवि लभिऊण धम्मं एवं करेति चंडो कोधणो । मतिइड्ढिगारवे जो मतीए इड्ढिगारवमुबहति । पीतिसुण्णकारी 5 पिसुणो। रभसेणाकिच्चकारी साधसो। पेसणं जधाकालमुपपादयितुमसत्तो हीणपेसणो। अजाणतो अदिधम्मो। विणये जहोवदिटे अकोवितो अपंडितो । असंविभयणसीलो असंविभागी। एतस्स जहोववण्णितस्स ण हु तस्स मोक्खो ॥ २२ ॥ एवमविणयो मोक्खसाधणं ण भवतीति भणितं । जधा पुण विणयो मोक्खसाधणं भवति तमुपदिस्सति ४७२. निदेसवत्ती पुण जे गुरूणं, सुतऽत्थधम्मा विणए य कोविता। तरित्तु तोओधमिणं दुरुत्तरं, खवेत्तु कम्मं गतिमुत्तमं गत ॥ २३ ॥ त्ति बेमि ॥ ॥ विणयसमाधीए बितिओ उद्देसओ सम्मत्तो॥ ४७२. निद्देसवत्ती पुण० वृत्तम् । निद्देसो आणा तम्मि वèति निद्देसवत्तिणो। पुणसद्दो विसेसणे । गुरूणं भणितं उवज्झायादीण वि अणुरूवो करणीयो । जे इति उद्देसो । गुरुणो आयरिया । सुतो अत्थधम्मो जेहि ते सुतत्थधम्मा, ते पुण गीतत्था । कोवितो पंडितो। विणये जधारिहप्पयोगे कोविता विणीतविणया। विणय15 फलेण तरित्तु तोओघमिणं दुरुत्तरं दवतरणेणं तियमभिसंबज्झति-तरओ तरणं तरितव्वं, तरतो पुरिसो, तरणं णावादि, तरियव्वं समुद्दादि । एवं भावे वि तरओ साधू, तरणं नाण-दसण-चरित्ताणि, तरियव्वो संसारसमुद्दो। अतो तरित्तु तोओघो संसार एव चातुरंतो तं । विणएणेव खवेत्तु नाणावरणादि कम्मं गतिमुत्तमं गता मोक्खगतिं । पुव्वं तरित्तु कधं पच्छा खवेत्तु कम्मं ? भण्णति-राग-दोस-मोहणीयसलिलसंपुण्णं बंधवादिसिणेहजातआसपाससमाचितं दुरुत्तरमविणीय-कातरपुरिसेहिं घरावासकिलेससमुदं निक्खमंता तरित्तु, ततो खवेत्तु 20 कम्ममिति ण विरुज्झति । गता इति कधमतीतकालो ? भण्णति-जधा गता तथा विदेहादिसु भण्णति । गमिस्संति य कम्मभूमिसु सावसेसकम्माणो सुहपरंपरएण तहेव । अहवा ण एत्थ संदेहो जे एवं विणीयविणी(ण)या गता एव ते ॥ २३ ॥ मि सद्दो जधा पुव्वं ॥ ॥ विणयसमाधीए बितियो उद्देसओ समत्तो ॥१-२॥ १ मयाइढि"ख १॥२दीण जे०॥३ सुत्तऽत्थखं १-४॥४विणए अफो खं ४ । विणयम्मि को खं ४ अचू० वृद्ध० विना ॥ ५तरितु तोओधमिणं इति तरितु तोओघमिणं इति च पाठद्वयं अचू० । तरितु ते भोघमिणं खं २। तरितु ते ओहमिणं खं २ विना सर्वासु सूत्रप्रतिषु। तरंति (? तरित्तु) ते ओघमिणं वृद्ध०॥ ६ गयमुत्त खं ४॥ ७ “आह-पुब्धि खवित्त कम्ममिति वत्तब्वे कहं तरितु ते ओहमिणं दुरुत्तरं ति पुव्वं भणिय। आयरिओ आह-'पच्छादीवगो णाम एस तबंधो' त्ति काऊण न दोसो भवइ ।" इति वृद्धविवरणे पृ. ३१७॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ४७१-७५] २१९ दसकालियसुत्तं । [विणयसमाधीए तइओ उद्देसओ] - - पढम-बितिउद्देसभणितविणयसावसेसपडिवादणत्यमुद्देसो ततियो वि भण्णति, जतो [पढमुद्देसे] विणयविहाणं बहुविहं, बितिए विसेसेण विणयफलमुवदिहूँ, इह तु “स पूज्यः" इति इमम्मि चेव लोगे कित्तिमयं फलं परभवे बहुतरगुणमिति ततियुद्देससंबंधो। तस्स इमं आदिसुतं ४७३. आयरियऽग्गिमिवाऽऽहिअग्गी, सुस्सूसमाणो पडिजागरेज्जा। 'आलोई इंगितमेव णच्चा, जो छंदमाराधयती स पुज्जो ॥१॥ ४७३. आयरियऽग्गिमिवाऽहिअग्गी० वृत्तम् । सुत्त-ऽत्थ-तदुभयादिगुणसंपण्णो अप्पणी गुरूहिं गुरुपदे त्यावितो आयरियो, तं अग्गिमिवाऽऽहिअग्गी जधा आधितग्गी परमेण आदरेण सुस्सुसमाणो मंताऽऽहुतिविसेसेहि ‘मा विज्झाहिति'ति पडिजग्गति एवमायरियं पडिजागरेजा । इमेण पुण विधिणा-आलोइतं इंगितमेव णचा, आलोइयं इसि ति निरिक्खितं, जं आलोइयं वत्थु, जधा सीतवेलाए पाउरणं, तेण 10 छंदमाराधयति, छंदो इच्छा तामाराधयति । अभिप्पायसूयकमाकारितर्मिगितं । यथा इङ्गिताकारितैश्चैव क्रियाभिर्भाषितेन च। . नेत्र-वक्त्रविकाराभ्यां गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः ॥१॥ [.. एतेण विधिणा जो छंदमाराधयति स पूयारुहो सपक्ख-परपक्खातो ति स पुज्जो। चोदगो भणति–किमुदाहरणसमुच्छेदो वट्टति ? जतो जधाऽऽहिअग्गी [सुतं ४४३] इति भणिते पुणो आयरिय अग्गिमिवाहिअग्गी 15 इति १ । आयरिया भणंति-जधाऽऽहिअग्गी जलणं णमंसे [सुत्तं ४४३] एत्थ आदरपडिवत्ती, आयरियं अग्गिमिवाऽऽहितग्गी एत्थ आलोइत-इंगितादीतस्सावज्झापतन्त इव (१) सततपडियरणीयता, एस विसेसो ॥१॥ विणयप्पओगे कारणमुवदिसंतेहि भण्णति४७४. आयारमट्ठा विणयं पउंजे, सुस्सूसमाणो परिगिज्झ वकं । जहोवदिठं अविकंपमाणो, जो छंदमाराधयती स पुज्जो ॥ २ ॥ 20 ४७४. आयारमट्ठा. वृत्तम् । पंचविधस्स नाणातिआयारस्स अट्ठाए एवं विणयं पउंजे। तमुपदेसं सुस्सूसा सोतुमिच्छा । एवं विणयक्कमेण परि] समंता गेण्डितुं वकं गुरूणं जहोवदिढ अणूणमधितं एवं वक्कपरिग्गरं काऊणं, वकं पुण वयणसमुदायो, तदुपदेसातो अविचलमाणो अविकंपमाणो तेसिं गुरूणं छंदं अभिप्पायं जो आराधयति संसाहयति स भवति पुज्जो ॥२॥ विण्णाणं विणयकारणमुद्दिस्स भणित । इदं पुण चरित्तपडिवत्तिप्पधाणमुपदिस्सति, जधा ४७५. रॉइणिएसु विणयं पयुंजे, डहरा वि य जे परियायजेट्ठा। __णियत्तणे वट्टति सच्चवादी, ओवायवं वक्ककरे स पुज्जो ॥ ३ ॥ - . १ इय इंगि खं १-२-४ जे० ॥ २ पडिगिज्झ जे० ॥ ३ अभिकंखमाणो गुरुं तु नासाययइ स अचू• वृद्ध० विना ।। ४ रातिणि वृद्धः । रायणी खं ४॥ ५'यागजे खं ३॥ ६ नीयत्तणे खं १.३.४ ॥ Jain Education Intemational Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुय [णवमं विणयसमाहिअज्झयणं तइओ उद्देसो ... ४७५. राइणिएसु विणयं पयुंजे० वृत्तम् । आयरियोवज्झायादिसु सव्वसाधुसु वा अप्पाणातो पढमपव्वतियेसु जाति-सुतथेरभूमीहितो परियागथेरभूमीमुक्करिसेंतेहि विसेसिजति--डहरा वि जे वयसा परियायजेट्ठा पव्वज्जामहल्ला णीयं सेज्जं गती० [सुतं० ४६६] एवमादि जधाभणितणियत्तणे बद्दति, जधाभणितविणयपडिवत्तीए सच्चवादी, आयरियआणाकारी ओवायवं, वयणे वयणे 'इच्छामो' 'तध त्ति' वकं करेमाणो 5 वककरे, एस य पुज्जो ॥३॥ विणयविसेस एव गुरूणं इच्छितभत्तादिसमुपणयणं वेयावच्चं, तं इमेण विधिणा करणीयं ४७६. अण्णायउंछं चरती विसुद्ध, जवणट्टता समुदाणं चे निच्छं । ___ अलहुयं णो परिदेवएजा, लहुं णे विकंथयई स पुज्जो ॥ ४ ॥ ४७६. अण्णायउंछं० वृत्तम् । अण्णातं जंण मित्त-सयणादि[णातं] । दव्बुंछं तावसादीणं । भावुछ 10 जहासंभवमप्पे प्रभूते वा लाभे संतुट्ठस्स । चरति तं गच्छति भक्खयति वा । उग्गमादिदोसवजितं विसुद्धं । संजमभरुव्वहण-सरीरधारणत्थं जवणता, समेच्च उवादीयते समुदाणं, निश्चमिति सदा। भक्खवित्ती तमुंछं चरमाणो अलद्धयं वा असति लाभे पुण 'किं करेमि मंदभम्गो ? अलद्धिगो अहमिति एवं णो परिदेवेज्ज । लद्धण वा _ 'इमं मया विसिटुं दव्वं लद्धं, एवमहं सलद्धिग' इति ण विकंथय[ति] । जो एवं भवति स एव पुज्जो ॥ ४॥ लाभे सति जधा अविकंथणेण तथा अमहिच्छेणावि भवितव्यमिति भण्णति15 ४७७. संथारसेज्जा-ऽऽसण भत्त-पाणे, अप्पिच्छता अवि लाभे वि संते । जो एवमप्पाणऽभितोसएज्जा, संतोसपाहण्णरतो स पुज्जो ॥५॥ ४७७. संथारसेज्जा० वृत्तम् । अड्ढाइज्जहत्थाऽऽयतो सचउरंगुलहत्थवित्थिण्णो संथारो, सवंगिका . सेज्जा, संथार एव वा सेज्जा संथारसेज्जा, आसणं पीढकादि, एतम्मि संथारसेज्जा-ऽऽसणे। तधा भत्त-पाणे अप्पिच्छता लभमाणेसु वि ण महिच्छो भवति । अविसद्देण लाभे जधा अप्पिच्छता तथा अलाभे वि अविसातो । 20 जो एवं अप्पाणं अभितोसएज्जा जेण व तेण व संतूसेज्जा। संतोसे पाहण्णेण रतो संतोसपाहण्णरतो स पुज्जो ॥ ५॥ अण्णातउंछं चरमाणस्स जहा अलाभो दुरहियासो, अप्पिच्छया य सति लाभे दुक्करा, तहेदमवि दुक्करकरणीयमुपदिस्सति ४७८. सक्का सहितुं आसाए कंटगा, अतोमता उच्छहता नरेण । __ अणासए जो उ सहेज्ज कंटए, वयीमए कण्णसरे स पुज्जो ॥ ६ ॥ ४७८. सक्का सहितुं० वृत्तम् । सक्कणीया सक्का सहितुं मरिसेतुं लोभो आसा ताए कंटगा बब्बूलपभितीणं । जधा केति तित्थादित्थाणेसु लोभेण 'अवस्समम्हे धम्ममुद्दिस्स कोति उत्थावेहिति 'त्ति कंटकसयणमारूढा ताए धणासाए सक्का सहितुं । तधा अतोमता वि पहरणविसेसा संगामादिसु सामियाण पुरतो धणासाए चेव उच्छहता 'मणुस्सेसु उच्छाहसामत्थ 'मिति नरेण । एताओ इमं दुक्करं ति भण्णति-अणासए जो उ इहभवधणासामणुतिस्स अणासता(तो) जो उ जो इति उद्देसवयणं, पुव्वक्रियातो दूरेणातिदुस्सहविसेसणे तुसद्दो, १तु खं १॥ २ण विकत्थय खं ३-४ वृद्ध०॥ ३ अइलामे खं २-३ हाटी. अव०॥४°णममि खं ४ वृद्ध० ॥ ५ सहेउं खं २ शु० । सहिउं खं १-३-४ जे०. वृद्ध० ॥ ६ आसाय खं १ ।। ७ अओमया अचू० विना ॥ ८ ततया-विस्तृतया ॥ Jain Education Interational Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ४७६ -८१] दसकालियसुतं । सहेज कंटए । किम्मए पुण ? वयीमए अक्कोस - फरुस - कडुगवयणमए, कण्णं सरंति पावंति कण्णसरा, अधवा जधा सरीरस्स दुस्सहमायुधं सरो तहा ते कण्णस्स, एवं कण्णसरा ते । वायामए कष्णाण सरभूते धणासामणुदिस्स जो सहेज स पुज्जो ॥ ६ ॥ एवं च सक्का ते सहितुं कंटगा, वायाकंटगा पुण असक्का, जतो ४७९. मुहुत्तदुक्खा हु भवंति कंटगा, अंतोमता ते धि तओ सुउद्धरा । वायादुरुत्ताणि दुरुद्धराणि, वेराणुबंधीणि महब्भयाणि ॥ ७ ॥ ४७९. मुहुत्तदुक्खा हु० वृत्तम् । मुहुत्तं दुक्खं जेसिं संजोगेण ते मुहुत्तदुक्खा | हुसद्दो वयणादिसए, अप्पकालदुक्खा इति मुहुत्तदुक्खा हु भवंति कंटगा, अतोमता दृढा इति । ते धि तओ ते हि साहाकंटकेहितो ततो वा वणदेसायो सुहुम(? सुहमप) यत्तेण उद्धरिज्जंतीति सुउद्धरा, वणपरिकम्मणादीहि दुरुद्धरणदोसातो वि सुउद्धरा। वायादुरुताणि पुण सुसहाणि हिदयाणुसारीणि दुरुद्धराणि वेराणुबंधीणि, अओ महब्भयाणि ॥ ७ ॥ कण्णसरे इति भणितं, ण पुण कण्णे खता समुपलब्भंतीति कस्सति बुद्धी हवेज, तत्थ ण एते कण्णद्दारम - 10 भिताडयंति, कण्णद्दारमतिगता पुण हिदयभेदिणो भवतीति विसेसणत्थमिदं भण्णति २२१ - ४८०. समावयंता वयणाभिघाता, कण्णं गता र्दुम्मणियं जँर्णेता । धम्मो त्ति किच्चा परमग्गसूरे, जितिंदिए जो सहती स पुज्जो ॥ ८ ॥ ४८०. समावयंता • वृत्तम् । एकीभावेण आवयंता समावयंता । समावयंता वयणेहि अभिहणणाणि हिदयरस वयणाभिघाता कण्णं गता कण्णमणुपविट्ठा दुम्मणस्समुप्पाएंति दुम्मणियं जणेंता [. ॥ ८ ॥ जधा वयणाभिघाता ] परप्पयुत्ता अम्हमादीण दुस्सधा तहा अम्हेहि पउनमाणा अण्णेसिं ति णाऊण-४८१. अवण्णवायं च परम्मुहस्स, पच्चक्खतो पंडिणीयं च भासं । ओर्धारिणी अप्पिय करिणि च, भासं ण भासेज्ज सता स पुज्जो ॥ ९ ॥ १ उ खं २ शु० ॥ २ हवंति खं २-३ शु० । भवेज सं १ ॥ ३ अओमया ते वि ततो अचू० विना । अयोमया वृद्ध० ॥ ४ महाभया खं १ ॥ ५ दुद्धवणदोसावोवि मूलादर्शे ॥ ६ दुम्मणयं जे० ॥ ७ जणंति अचू० विना ॥ ८ मूलादर्शेऽत्राऽगस्त्यचूर्णिपाठो गलित इति स्थानपूर्त्त्यर्थमत्र वृद्धविवरण व्याख्यापाठ उद्ध्रियते । तथाहि – “समावयंता० वृत्तम्। समावयंता नाम अभिमुहमानयंताणि वयणाणि कडुग-फरुसाणि णेहक्विज्जियाणि अभिघाता वयणाभिघाता । कन्नं गया दुम्मणियं जणंति त्ति । दुम्मणियं नाम दोमणस्सं तिवादुम्मणि तिवा एगट्ठा । वयणाभिघाए कोयि असत्तिओ सहइ कोइ धम्मो त्ति । जो पुण धम्मो ति काऊण सहइ सो य परमग्गसूरे भवइ । परमग्गसूरे णाम जुद्धसूर- तवसूर- दाणसूरादीणं सूराणं सो धम्मसद्धाए सहमाणो परमग्गं भवइ, सव्वसूराणं पाहण्णयाए उबरिं वह ति वृत्तं भवति । जिदिए ति साहुस्स गहणं । जो एवं ते वयणाभिघाए सहइ सो पूयणिज्जो भवइ त्ति ।। ८ ।। एते वयणदोसे णाऊण raणवाद० वृत्तम्।" [ पत्र ३२१] ।। ९ पडणीयं खं १-३-४ ॥। १० भासी खं ४ ।। ११ ओहारणी जे० ॥ १२ काराणं खं २-३ ।। 5 ४८१. अवण्णवायं च० वृत्तम् । अकित्तिपगासणं अवण्णवायो, तं परम्मुहस्स, पञ्चखतो चोरपारदारियवायाति पडिणीयं च भासं ओधारिणि असंदिद्धरुवं संदिद्धे वि । भणितं च - " से णूणं भंते ! मण्णा - 20 मीति ओधारिणी भासा० " [ प्रज्ञापना, पद ११, सूत्र १६१, पत्र २४६ ] आलावतो । अदेस-कालप्पयोगेण करणतो वा अप्पियमुप्पादेति अप्पियकारिणी । एतं जहुद्दि भासं ण भासेज्ज सता स पुज्जो ॥ ९ ॥ अवण्णवायादि ण भासेज्न त्ति भासाविणयणमुपदि । इमं तु मणोविणयणं 15 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुणिसंजुयं [णवमं विणयसमाहिअझयणं तइओ उद्देसो ४८२. अलोलुए अकुहए अमादी, अपिसुणे यावि अदीणवित्ती। णो भावदे णो वि य भावितप्पा, अकोउहल्ले य सदा स पुज्जो ॥१०॥ ४८२. अलोलुए. वृत्तम् । आहार-देहादिसु अपडिबद्धे अलोलुए। इंदजाल-कुहेडगादीहिं ण कुहावेति ण वि कुहाविजति अकुहए। अजवजुत्ते अमादी। अवेदकारए अपिसुणे। आहारोवहिमादीसु विरूवेसु लब्भमाणेसु 5 अलब्भमाणेसु वा ण दीणं वत्तए अदीणवित्ती। घरत्येण अण्णतित्थिएण वा मए लोगमज्झे गुणमंतं भावेजासि त्ति एवं णो भावदे, तेसिं वा कंचि अप्पणा णो भावए। अहमेवंगुण इति अप्पणा वि ण भावितप्पा। णड-गट्टकादिसु अकोउहल्ले य। चसद्दो पुव्वभणितपुजताकारणसमुच्चयत्थो । एवंगुणो य सदा स पुज्जो ॥१०॥ जे एते उद्देसादावारम्भ भणिता पुजताकारिणो एतेहिं ४८३. गुणेहिं साधू अगुणेहिऽसाधू, गेण्हाहि साधूगुण मुंचऽसाधू । 10 वियाणिया अप्पगमप्पएण, जे राग-दोसेहिं समे स पुज्जो ॥११॥ ४८३. गुणेहिं साधू० वृत्तम् । छंदोसमाराधणादीहिं हेट्ठा य भणितेहि बहुविहेहिं गुणेहिं जुत्तो साधू भवति, तविवरीयो पुण जे य चंडे मिए थद्धे० [सुत्तं ४५२] एवमादीहिं अगुणेहिं जुत्तो असार । सिस्सो भण्णति-वत्स ! एवं जाणिऊण गेण्हाहि साधुभावसाधगा जे गुणा साधव एव ते गुणा, ते गेण्हाहि। मुंचा साधू, गुणा इति वयणसेसो, मुंच असाधुगुणा इति, एत्थ ण समाणदिग्धता किं तु पररूवं कतं, तवदिति । एत्थ य 15 गुणसद्दो पज्जववादी, अण्णे वा असाधुदोसा इति भणेज्ज । वियाणिया अप्पगमप्पएणं जाणिऊण अप्पगं अप्पएणेव जे राग-दोसेहि समे सम इति ण राग-दोसेहिं वट्टति स पुज्जो । वियाणिया अप्पगं अप्पएणेति भण्णति तं गुणाण अणण्णभावणत्थं, ण जधा वेसेसियातीण गुणा अत्यंतरभूता ॥ ११ ॥ जे राग-दोसेहिं समे इति भणितं, सा पुण समया इमा ___४८४. तहेव डहरं व महल्लगं वा, इत्थी पुमं पव्वइयं गिहिं वा । 20 __णो हीलए णो वि य खिसएज्जा, थंभं च कोहं च चए स पुज्जो ॥१२॥ ४८४. तहेव डहरं० वृत्तम् । तहेवेति अवण्णवायादितुलता । तरुणो डहरो, थेरो महल्लो, वासदेण मज्झिममवि सव्वमवि । इत्थी पुमं, एत्य विचासद्दो उवयुज्जति । तमवि पव्वइयं गिहिं वा। पुव्वदुचरितादिलज्जावणं हीलणं । अंबाडणातिकिलेसणं खिंसणं । तं णो हीलए णो वि य खिसएज्ज। सव्वधा हीलणखिसणाण कारणभूतं थंभं च कोहं च चए स पुज्जो ॥१२॥ 25 इत्थी-पुरिस-पव्वइय-गिहिसु अविसेसेण थंभ-कोधपरिच्चागो भणितो। इमं पुण गुरूसु ४८५. जे माणिया सततं माणयंति, जत्तेण कण्णं व निवेसयंति। ते माणए माणरुहे तवस्सी, जितिदिए सच्चरते स पुजो ॥१३॥ १ अक्कुहए अचू० वृद्ध० विना ॥ २ अमाई अचू० विना ॥ ३ भावए अचू० विना ॥ ४ अगुणेहऽसा खं १-२-४॥ ५ "गंधलाघवत्थमकारलोवं काऊण एवं पढिज्जइ जहा-'मुंचऽसाधु' ति" इति वृद्धविवरणे॥ ६ इत्थि खं ३-४ ॥ ७ माणरिहे अचू० विना ॥ Jain Education Intemational Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ४८२-८७] दसकालियसुत्तं। २२३ ४८५. जे माणिया सततं. वृत्तम् । जे इति उद्देसवयणं । पूयविसेसेहि पूतिया माणिया सततं माणयंति अञ्चंताऽऽयहितोवदेसकरणेहिं । जत्तेण कण्णं व निवेसयंति कुलत्थितिवृद्धिनिमित्तं बालभावप्पभिति लालितं रक्खितं च [कण्णं माता-पिता] अणुरूवकुलपुत्तप्पभितिप्पदाणविवाधधम्मेण महता पयत्तेण निवेसयंति जधा, एवं गुरवो सिक्खापदगाहणादिपयत्तेण आयरियपदे ठावयंति । विणयविसेसेहिं जधोवदिवहिं ते माणए, अरुहो जोग्गो. माणस्स ते अरुहा अतो ते माणए माणरहे। बारसविहे तवे रतो तवस्सी। जितसोतादिदिए [जितिदिए । सचं संजमो, तम्मि जधाभणितविणयसच्चकरणे वा रते सचरते। स एव पुज्जो भवति ॥१३॥ ते माणए माणरिहे इति पूयणमुपदिटुं । पूयाणंतरं सुणणमिति भण्णति४८६. तेसिं गुरूणं गुणसागराणं, सोचाण मेधावि सुभासिताणि। चरे मुणी पंचेंजते तिगुत्ते, चतुक्कसायावगतो स पुज्जो ॥१४॥ ४८६. तेसिं गुरूणं० वृत्तम् । तेसिमिति जे जत्तेण कणं व णिवेसयंतीति भणिता। गुरूणं ति 10 आयरियाणं, आयरियगुणेहिं समुद्दभूताणं गुणसागराणं, सोबाण सोऊण, मेधावी पुव्वभणितो, सोभणाणि भासिताणि सुभासिताणि]. सभासितोवदेसेण चरे मुणी। एवं चरेमाणो मुणी भवति पंचमहव्वतजते तिगत्तिगुत्ते. अवगता चत्तारि कोधादयो कसाया जस्स सो चतुक्कसायावगतो। एवं जहोवदिट्ठगुणो स पुज्जो ॥१४॥ उद्देसादावारब्भ “स पूज्यः" इति भणितं । ण पूज्यताफलमेव विणयकरणं, किंतु सगलमिदमस्स फलं ४८७. गुरुमिह सततं पडियरिय मुणी, जिणवयणणितुणे अभिगमकुसले। 15 धुणिय रय-मलं पुरेकुडं, भासुरमतुलं गतिं गय ॥१५॥ त्ति बेमि ॥ ॥ विणयसमाहीए तइओ उद्देसओ सम्मत्तो ॥ ९॥३॥ ४८७. गुरुमिह सततं० वृत्तम् । गुरुमिध गुरू आयरियो तं इहेति इह मणुयलोगे कम्मभूमी पाविऊण सततमामरणादविच्छेदेण जधाजोगं सुस्सूसिऊण पडियरिय। विदितवेदितव्वे मुणी जिणवयणणितुणे। जहारिहं विणयेणाभिगंतुं कुसले अभिगमकुसले। अभिगमकुशलस्सन् धुणिय रय-मलं अभिगमकुसलत्तणेण 20 रय-मलधूणणे कुशलः धुणितुं धुणित, रय-मलविसेसो-आश्रवकाले रयो, बद्ध-पुट्ठ-णिकायियं कम्म मलो। त कुसले धुणित रय-मलं पुव्वक्तं पुरेकडं, कुसलमावेणेव णवकम्मागर्म पि हंतुं। भासुरं-अतुलगुणेहिं दिप्पतीति भासुरं, गुणेहिं तुलितुमण्णेण असक्का अतुलं, तं भासुरमतुलं सिद्धिगतिं गय ति। स पूज्य इति पराधिकारवयणं । एवंगुणो सिद्धिगतिं गच्छति ति सदा प्रवृत्तकाले वर्तमाननिर्देशो पावति । अहवा ण एत्य संदेहो इति निरूविजाति-गत एवासौ जो एवंगुणो भवति । एतं अभिलसंतेण एतं कातव्वमिति सीसोपदेसनियमणं ॥१५॥ 25 येमि तहेव ॥ ॥ इति ततियो समत्तो ॥९॥३॥ १सुभासियाई अचू. विना । सुहासि खं ४॥ २पंचरते अचू० वृद्ध० विना ॥ ३ जिणमयणिउणे खं १-३-४ हाटी। जिणवयणिउणे खं २ जे० शु० । हाटी० ताडपत्रीयप्राचीनप्रत्यन्तरे जिणवयणणिउणे पाटस्य व्याख्यानं दृश्यते ॥ ४ गई वइति । त्ति बेमि वृद्ध०॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ 5 ४८८. सुतं मे आउ ! तेणं भगवता० । एवं जधा छज्जीवणियाए । इहेति इहलोगे सासणे वा । खल्लुसो अतीता - sणागतथेराण वि एवं पण्णवणाविसेसणत्थं । थेरा पुण गणधरा भगवंत इति जसंसिणो तेहिं । चतारीति संखा, विणयस्स विणये विणएण वा समाधी विणयसमाधी, ठाणं अवकासो, परूविता 10 पण्णत्ता ॥ १ ॥ सिं विभागपडिपुच्छणत्थमाह सिस्सो 15 णिज्जुत्ति- चुण्णिसं जुयं [णवमं विणसमाहिअक्षयणं चउत्थो उद्देसो [विणयसमाहीए चउत्थो उद्देसओ] विणयसमाधीए पढम-बितिय ततियुद्देसेसु विणयोत्रवण्णणं करूं । ततियुद्देसे य भणितं " आयारमट्ठा विणयं पउंजे" [सुत्तं ४७४] त्ति समुल्लिंगणमायारस्स । विणयपुव्वं पुण सुतं तवो आयारो य । एतेसिं विसेसपरूवणं चतुत्थुद्देसे, अतो तस्सावसरो । एतेण संबंधेणाऽऽगतस्स चतुत्थुद्देसगस्स इमं आदिसुतं - ४८८. सुतं मे आउ ! तेषं भगवता एवमक्खातं — इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं चत्तारि विणयसमाधिट्टाणा पण्णत्ता ॥ १ ॥ 20 25 ४८९. कतरे खलु ते थेरेहिं भगवंतेहिं चत्तारि विणसमाधिट्ठाणा पण्णत्ता ? ॥ २ ॥ ४९०. इमे खलु जाव पण्णत्ता, तं जधा - विणयसमाधी सुतसमाधी तवसमाधी आयारसमाधी विणय- सुत-तवा ऽऽयारा उवरि विसेसेण भण्णिहिन्ति ॥ ३ ॥ एस पदबद्धो अत्थो सिलोगेण संघेप्पति, तं० ४८९. कतरे खलु जाव पण्णत्ता ॥ २ ॥ वक्ष्यमाणं विभागविभागमंगीकरेतूणं आयरियो आह-४९०. इमे खलुं ते थेरेहिं भगवंतेहिं चत्तारि विणयसमाधिट्ठाणा पण्णत्ता । तं जधा - विणसमाधी १ सुतसमाधी २ तवसमाधी ३ आयारसमाधी ४ ॥ ३ ॥ - ४९१. विणये सुते तवे या आयारे णिच्चं पंडिता । अभिरामयंति अप्पाणं जे भवंति जितिंदिया ॥ ४ ॥ ४९१. विणये सुते तवे या [ आयारे ] जिन्वं० सिलोगो । उद्दिट्ठस्स अत्थस्स फुडीकरणत्थं सुभणणत्थं सिलोगबंधो। उक्तं च गद्येनोक्तः पुनः श्लोकैर्योऽर्थः समनुगीयते । स व्यक्तिव्यवसायार्थं दुरुक्तग्रहणाय च ॥ १ ॥ [ 1 अहवा पुव्वमुद्देसमत्तं सिलोगे विसेसिजति – [विणये सुते तवे या आयारे,] एतेसु णिचं पंडिता एतेसिं पडिविसेसजाणता जे ते एतेसु चेव अभिरामयंति अप्पाणं, एवं पुण जे जितिंदिया भवंति एवं वा जितिंदिया जे ते एतेसु अप्पाणं अभिरामयंति । विणयमूलो धम्मो, विणयातो य सुतादिपडिवत्ती भवतीति ॥ ४ ॥ १ निचपंडिया खं १-३ ॥ For Private Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तं ४८८-९३] दसकालियसुत्तं । २२५ विणयसमाधीवित्थरोवण्णासो इमो४९२. चतुविधा खलु विणयसमाधी भवति। तं जधा-अणुसासिज्जंतो सुस्सूसति, विणयसमाधीए पंढमं पदं १>। सम्मं पडिवर्जेति, विणयसमाधीए बीयं पदं २ » । वेदमाराधयति, विणयसमाधीए ततियं पदं ३ > । ण य भवति अत्तसंपर्गहिए, विनयसमाधीए चउत्थं पदं भवति ४> ॥५॥ ४९२. चतुविधा खलु विणयसमाधी भवति । चतुष्प्रकारा चतुव्यिहा । खलुसद्दो पत्तेयविधाणनियमणत्थं वा छिद्रप्रतिपूरणे वा, एवं सव्वत्थ । विणयस्स समाधी विणयसमाधी जं विणयसमारोवणं, विणएण वा जं गुणाण समाधाणं एस विणयसमाधी भवतीति । चतुम्विहाणनियमण[त्थं] तमिति वैयविण्णासो। जधा इति विहाणुद्देसो। अणुसासिज्जंतो सुस्सूसति पढमसासणाओ सीयमाणस्स पच्छासासणमणुसासणा। विणयपडिचोदणाए पडिचोतिजमाणो 'ममे हित 'मिति आयरिय-उवज्झाए तिव्वेण विणयाणुरागेण सुस्सूसति। 10 एतं पढमं विणयसमाधिट्ठाणमिति पढमं पदं १। सम्म इति एस णिवातो पसत्थाभिधाणो, पडिचोदणमेव सोभणेण विधिणा पडिवज्जति एवमेवं' ति, बीयं विणयपदं । वेदमाराधयति विदंति जेण अत्थविससे जम्मि वा भणिते विदंति सो वेदो, तं पुण नाणमेव, तं जधाभणियजाणणाणुट्ठाणेण वेदं आराधयति, ततियं विणयसमाधीपदमिमं ३ । ण य भवति अत्तसंपग्गहिए संपग्गहितो गव्वेण जस्स अप्पा सो अत्तसंपग्गहितो, तधा ण भवति । 'अहो हं विणीयो विणये गुरूहिं संभावितो, महतो थाणस्स जोगो 'ति एवमत्तसंपग्गहिते [ण] भवति । 15 विणयसमाधाणस्स इमं चउत्थं पदं भवति ४॥५॥ ४९३. भवति चेत्थ सिलोगो वीहेति हिताणुसासणं, सुस्सूसए तं च पुणो अहिट्ठए। ण य माणमदेण मज्जती, विणयसमाधीए आययहिते ॥६॥ ४९३. विणयसमाधिसुत्तत्थाणे इमो भवति चेत्थ सिलोगो, भवति चेत्थ इति सव्वस्स एतस्स 20 पडिसमाणणत्थं । वीहेति हिताणुसासणं, सुस्सूसए तं च पुणो अहिट्ठए। ण य माणमदेण मज्जती, विणयसमाधीए आययट्टिते॥ अभिलसति पत्थयति वीहेति । इह परभवे य हितस्स अणुसासणं हिताणुसासणं तं वीहेति । सुस्सूसति य परमेणाऽऽदरेण आयरियोवज्झाए । 'तं च' हितोवदेसं हिताणुट्ठाणक्रियाए अहिट्ठए ति जधा भणितं करेति । ण य 25 विणयसमाधिटाणे अप्पाणमसमाणं मण्णमाणो माण एव मतो माणमतो तेण मज्जति ‘विणयकुसलोऽह 'मिति २, ५, ७, ९<>एतचिह्वान्तर्गत: पाठ: सर्वासु सूत्रप्रतिषु हाटी० अब० नस्ति ।। सुस्सूसति, २ पदमं विणयसमाधीए पदं । वृद्ध०॥ ३ सम्म संपडि खं ४ अचू० विना ॥ ४ जति ति वितियं [विणयसमाधीए पदं २ वृद्ध० ॥ ६ राहइ त्ति ततियं [विणयसमाधीए] पदं ३ वृद्ध० ।। ८ गहिर, चउत्थं [विणयसमाधीए पयं भवति ४ वृद्ध० ॥१० पदविन्यासः ।। ११ भवह य एत्थ सर्वान सूत्रप्रति वृद्ध० ॥ १२ पेहेइ अचू० विना ॥ १३ °माधीआय खं १-३-४ जे० शु० अचूपा० वृद्धपा० ॥ २९ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं णवमं विणयसमाहिअझयणं चउत्यो उद्देसो विणयसमाधिमतेण। विणयसमाधीए आतयं अट्ठाणविप्पकरिसतो मोक्खो, तेण तम्मि वा अत्थी आययत्थी, स एव आययत्थीकः। अहवा आययी आगामी कालो तम्मि सुहत्थी आययस्थी । विणयसमाधीए वा सुट्ठ आदरेण अत्थी विर्णयसमाधीआययट्ठी ॥६॥ एसा विणयसमाधी १ । इदाणीं ४९४. चतुम्विधा खलु सुतसमाधी भवति । तं जधा-सुतं मे भविस्सति त्ति अज्झातितव्वं भवति, सुतसमाधीए पढमं पदं १ ~। एगग्गचित्तो भविस्सामि त्ति अझातितव्वं भवति, सुतसमाधीए बितियं पदं २ । सुंहमप्पाणं धम्मे ठावयिस्सामि त्ति अज्झातितव्वं भवति, सुतसमाधीए ततियं पदं ३।थितो परं धम्मे थावइस्सामि त्ति अज्झातितव्वं भवति, सुतसमाधीए > चतुत्थं पदं भवति ४॥७॥ ४९४. चतुविधा खलु सुतसमाधी भवति तं जधा-सुतं मे भविस्सति त्ति अज्झातितव्वं भवति। दुवालसंगगणिपिडगं सुतणाणं, तं सुतं मे भविस्सति त्ति एतेण आलंबणेण सदा वि साधुणा अज्झातियव्वं भवति। सुतसमाधीए एतं पढमं पदं १ । एगग्गचित्तो अव्वाकुलो । सो हं सुतोवदेसेण एगग्गचित्तो भविस्सामि त्ति तेणावि आलंवणेण साधुणा अज्झातितव्वं भवति । सुतसमाधीए चेव एतं वितियं पदं भवति २ । णाणोवदेसेण सुहमप्पाणं धम्मे ठावयिस्सामि त्ति एतेणावि आलंवणेण साधुणा 15 अज्झातितव्वं भवति । सुतसमाधीए चेव एतं ततियं पदं भवति ३ । तधा धम्मे सयमवत्थितो णाणोवदेसेण परमवि घितिदुब्बलं धम्मे थावइस्सामि त्ति एतं पि आलंबणमालंबिऊण साधुणा अज्झातितव्वं भवति । सुतसमाधीए चतुत्थमिमं पदं भवति ४॥७॥ ४९५. भवति येऽत्थ सिलोगो नाणमेगग्गचित्तो तु ठितो ठावयती परं । सुताणि य अधिज्जित्ता रतो सुतसमाधिए ॥ ८॥ ४९५. भवति यऽत्य सिलोगो नाणमेगग्गचित्तो तु ठितो ठावयती परं। सुताणि य अघिजित्ता रतो सुतसमाधिए॥ अज्झातिए नाणी भवति । तेण य णाणगुणेण [एगग्गचित्तो भवति । एगग्गचित्तो य धम्मे गिरिवि निप्पकंपो 25 भवति । सयं च सुट्टितो समत्थो परमवि धम्मे ठावेऊण । सुताणि य अधिज्जित्ता नाणाविधाणि तप्पभावेणेव रतो सुतसमाधीए ॥८॥ एस सुतसमाधी २। सुतसमाधिसमणंतरं--- 20 १विनयसमाध्याहतार्थी ॥ २ भवति, पढम सुतसमाधीए पदं १ वृद्ध० ॥ ३, ५,८,११ एतचिह्नान्तर्गतः पाठः सर्वासु सूत्रप्रतिषु हाटी० अव० नास्ति ॥ ४ भवति, बितियं सुयसमाधीए पदं २ वृद्ध० ॥ ६ अप्पाणं ठाव अचू० विना ॥ ७ भवति, तइयं सुयसमाहीए पदं ३ युद्ध० ॥ ९ठिओ परं ठाव अचू० विना ॥ १० भवति, चउत्थं सुयसमाहीए पयं भवति ४ वृद्ध० ॥ १२ य पत्थ सर्वासु सूत्रप्रतिषु वृद्ध० ॥ १३ य जे० अचू० युद्ध० विना ।। Jain Education Intemational Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तं ४९४-९८] दसकालियसुत्तं। २२७ ४९६. चतुविधा खलु तवसमाधी भवति। तं जधा-णो इहलोगट्ठताए तवमहिढेजो, तवसमाधीए पढमं पदं १ ।। णो परलोगट्ठताए तवमहिढेजा, तवसमाधीए बितियं पदं ।। णो कित्ति-वण्ण-सह-सिलोगट्ठताए तवमहिढेजों, तवसमाधीए ततियं पदं ३ ।। णऽण्णत्थ णिज्जरट्ठताए तवमहिटेजा, तवसमाधीए > चतुत्थं पदं भवति ४ ॥९॥ ४९६. चतुविधा खलु तवसमाधी भवति बारसविहो तवो । तं जधा-कामभोगाण इहलोइयाण पूयाहेतुं वा णो इहलोगहताए तवमहिढेज्जा, जधा धम्मिलेण अहिडितो। एवं तवसमाधीए पढमं पदं १। देवलोएसु चक्कवट्टिमादिसु वा जति एवंविहो होजामि त्ति [णो परलोगट्ठताए तवमहिढेज्जा], जधा वा यंभवत्तेणाधिद्वितो । वितियमिदं तवसमाधिपदं २ । परेहिं गुणसंसदणं कित्ती, लोकव्यापी जसो वण्णो, लोकविदितया सहो, परेहिं पूरणं (१ पूयणं) सिलोगो। एते उद्दिस्स णो कित्ति-वण्ण-सह-सिलो-10 गट्ठताए तवमहिढेज्जा । एतं ततियं तवसमाधिपदं ३ । णऽण्णत्थ णिज्जरहताए तवमधिद्वेज्जा, णण्णस्थ ति परिवजणसदो कम्मनिजरणं मोत्तूण, णऽण्णहा । तवसमाधीए चतुत्थं पदं भवति ४॥९॥ ४९७. भवति यात्थ सिलोगो विविहगुण-तवोरये य निच्चं, भवति निरासए निज्जरद्विते। तवसा धुणति पुराणपावगं, जुत्तो सदा तवसमाधिए ॥१०॥ ४९७. भवति यत्थ सिलोगो विविहगुण-तवोरये य निचं, भवति निरासए निजरहिते। तवसा धुणति पुराणपावगं, जुत्तो सदा तवसमाधिए । विविहेसु गुणेसु तवे य रते णिचं भवति । निरासए निग्गतअप्पसत्थासए निरासए । निजराए य ठिते निजरहिते। तवसा बारसविधेण धुणति पुराणपावगं अट्ठविधं सदा तवसमाधिजुत्ते ॥१०॥ 20 ४९८. चतुविधा खलु आयारसमाधी भवति । तं जधा-णो इहलोगट्ठताए आयारमहि?ज्जी, स आयारसमाधीए पढमं पदं १~। णो परलोगट्ठताए आयारमहिढेजी, आयारसमाधीए बितियं पदं २>। णो कित्ति-वण्ण-सह १जा , पढमंतवसमाधीए पदं १ वृद्ध० ॥ २ एतचिहान्तर्गतः पाठः सर्वासु सूत्रप्रतिषु हाटी• अव० नास्ति ॥३. ज्जा, वितियं तवसमाधीए पदं २ वृद्ध०॥४,६,८ > एतचिहान्तर्गतः पाठः सर्वासु सूत्रप्रतिषु हाटी• अव० नास्ति॥५'बा, ततियं तवसमाधीए पदं ३ वृद्ध०॥७°जा, चउत्थं तवसमाधीए पदं भवति ४ वृद्ध ॥९ "तहा णो कित्ति-चण्ण-सह-सिलोगट्टयाए तवमहिद्वेज्जा कित्ति-वण्ण-सह-सिलोगट्ठया एगठ्ठा, अञ्चत्यनिमित्तं आयारनिमित्तं च पउंजमाणा पुणरुतं न भवतीति।" इति वृद्धविवरणे पत्र ३२८ । “न कीर्ति-वर्ग-शब्द-श्लाघार्थ मिति सर्वदिग्व्यापी साधुवादः कीर्तिः, एकदिग्व्यापी वर्णः, अर्धदिग्व्यापी शब्दः, तत्स्थान एवं श्लाघा।" इति श्रीहरिभद्रसूरिवृत्ती पत्र २५७-२॥१० साओणय पुरा जे०॥११°ज्जा, पढमं आयारसमाधीए पदं १ पद्ध०॥ १२, १४ एतचिहान्तर्गतः पाठः सर्वास सूत्रप्रतिषु हाटी• अव० नास्ति ॥ १३ ज्जा वितियं आयारसमाहीए पयं २ वृद्ध० ॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [णवमं विणयसमाहिअझयणं चउत्थो उद्देसो सिलोगट्ठताए आयारमहिद्वेज्जो, आयारसमाधीए ततियं पदं ३ >णण्णत्थ आरहंतिएहिं हेतूहिं आयारमहिढेजा, आयारसमाधीए - चतुत्थं पदं भवति ४ ॥११॥ ४९८. चउविहा वि तबसमाधी भणिता जधा तधा आयारसमाधी चतुम्विहा णिव्विसेसा भाणियवा। 5 णवरं-णण्णत्थ आरहंतिएहिं हेतूहिं आयारमहिढेजा, एतम्मि आलावए सिलोगे य विसेसो-जे अरहंतेहि अणासवत्त-कम्मनिज्जरणादयो गुणा भणिता आयिण्णा वा ते आरहंतिया हेतवो- कारणाणि भवंति, ते मोत्तूणण्णस्स(१ स्थ) कारणे [ण] मूलगुण-उत्तरगुणमतं आयारमहिद्वेजा ॥११॥ ४९९. सिलोगो पुण एत्थ जिणवयर्णमते अतिंतिणे, पडिपुण्णाततमाययट्ठिते । आयारसमाहिसंवुडे, भवति य दंते भावसंधए ॥ १२ ॥ ४९९. सिलोगो पुण एत्थ जिणवयणमते अतिंतिणे, पडिपुण्णाततमाययहिते। आयारसमाहिसंवुडे, भवति य दंते भावसंधए। जिणाण वयणं जिणवयणं, मतं अभिरुयियं, तं जिणवयणं मतं जस्स से जिणवयणमते। तितिणो 15 पुव्वभणितो, तस्स पडिसेहो अतिंतिणो। निरवसेसं जं एतं पडिपुण्णं, आयतं आगामिकालं, सव्वमागामिणं कालं पडिपुण्णायतं। तम्मि आयतहिते एत्थ आयतवयणं धणितार्थम् , धणितमायारसमाधीए अत्थी आयतहिते आयारसमाधीए संवुडो आयारसमाधिसंवुडे । आयारसमाधीए करणभूताए संवरियासवे आयारसमाधिसंवुडे । आयारसमाधीसंवुडे सन् भवति य दंते इंदिय-णोइंदियदमेण दंते। अतिदमेण भवति य खादिकादिभावसाधए । चसद्दो अन्नाणि एताणि कारणाणि समुचिणोति, समुदितेहि एतेहि भावसंधणं ॥१२॥ विणय-सुत-तवा-ऽऽयारसमाधीए भावसंधाणस्स फलमिदमुपदिस्सते ५००. अधिगतचतुरसमाधिए, सुविसुद्धो सुसमाधियप्पयो। विपुलहित-सुहावहं पुणो, कुव्वति से पदखेममप्पणो ॥ १३ ॥ ५००. अधिगतचतुरसमाधिएक वृत्तम्। अविसेसमहिगताओ चतुरो समाधीओ जस्स सो अधिगतचतुरसमाधितो । मण-वयण-कायजोगेहिं सुट्ट विसुद्धो सुविसुद्धो । दसविधे समणधम्मे सुट्ट समाधितो अप्पा 25 जस्स सो सुसमाधियप्पयो । विपुलं विसालं, हितं आयतिक्खमं, सुहं सातं, हितं सुहं च हित-सुह, विउलं हित-सुहमावहति विउलहितसुहावहं। पुणोसद्दो सेससुहातिरंगेण मोक्खसुहविसेसणे वट्टति । कुव्वति करेति, १ज्जा , ततियं आयारसमाहीए पयं ३ वृद्ध० ॥२,४ > एतच्चिड्लान्तर्गतः पाठः सर्वासु सूत्रप्रतिषु हाटी अव० नास्ति । ३ ज्जा, चउत्थं आयारसमाहीए पयं भवति ४ वृद्ध० ॥ ५ आरुहंतिपहिं मूलादर्शे ॥ ६ गुणमयम् ॥ ७ भवह यऽत्थ सिलोगो-जिण सर्वासु सूत्रप्रतिषु ॥ ८ °णरए अचू० विना ।। ९ क्षायिकादि-॥ १० अभिगय वृद्ध । अभिगम्म खं २ अचू० वृद्ध० विना ॥ ११ चतुरो समाहिओ सर्वामु सूत्रप्रतिषु हाटी० अव० ॥ Jain Education Intemational Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुतगा० ४९९-५०१] दसकालियसुतं । २२९ से इति जं प्रति उवदेसो भण्णति, पदं थाणं, खेमं णिरवातं अप्पणो, वयणं जो करेति स एवाणुभवति कहंचि अविणट्ठो ॥ १३ ॥ जं विउलहित- सुहावहं पदं भणितं तस्स सरूवनिद्देसत्थं भण्णवि ५०१. जोति मरणातो मुच्चति, इत्थत्तं च जहाति सव्वसो । सिद्धे वा भवति सासते, देवे वा अप्परते महिड्ढिते ॥ १४ ॥ ति बेि विणयासमाधीए चउत्थो उद्देसो समत्तो ॥ ४ ॥ विणयसमाही समत्ता ॥ ९ ॥ ५०१. जाति - मरणातो ० वृत्तम् । जाती समुप्पत्ती, देहपरिचागो मरणं, अहवा जातीमरणं संसारो, ततो मुञ्चति । इत्थत्तं च जहाति सव्वसो अयं प्रकार इत्थं, णारग - तिरिय- मणुय - देवादिप्रकार निद्देसो इत्थं, तस्स भावो इत्थत्तं, तं जहाति परिचयति सव्वसो सव्वपज्जवेहिं, ण जधा भवंतरादौ, सव्वहा । किं बहुणा १ सिद्धे वा भवति सासते । सिद्धे इति भणिते पुणो सासयवयणं न विजातिसिद्धे, किं तर्हि ? सव्वदुक्खविरहिते सासते । 10 देवे वा अप्परते अप्पकम्मावसेसे अणुत्तरातिसु महिङ्किते ॥ १४ ॥ त्ति बेमि । णयत्रयणं जधा पढमज्झयणेसु ॥ 1 ॥ चतुत्थुसतो विणयसमाहीए चुण्णी समासपरिसमत्तं ॥ ४ ॥ पढमिलुदेसत्थो विणयेणा[ssराहणं ] गुरूणं ति १ । अविणयफलं अणि बिइउद्देसस्स पिंडत्थो २ ॥ १ ॥ ततियस्स इहेव भवे विणयफलं जेण एस पुज्जो त्ति ३ । सुत-तव- आयाराणं विणयो मूलं चतुत्थे [तु] ४ ॥ २ ॥ विणसमाधीए चुण्णी समत्ता इति ॥ १. जाई-जरा-मरणाओ खं २ ॥ २ इत्थत्थं च अचू० विना ॥ ३ चयाइ स खं १-३-४ हाटी० अव० । चयइ खं २ जे० शु० ॥ ४ समत्ता ॥ ९॥ एसा विणयसमाही चउहिं उद्देसएहिं संखाया। असिईइ समहियाए गंथग्गेणं परिसमत्ता ॥ खं २ ॥ ५ ' प्रथामाध्ययनेषु' पूर्वव्याख्यातेष्वध्ययनेष्वित्यर्थः ॥ 5 For Private Personal Use Only 15 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुणिसंजुयं [दसमं सभिक्खुअज्झयणं १० [दसमं सभिक्खुअन्झयणं] 5 इह कंचि विणय-मति-धम्मसाहणे जोग्गं पुरिसं प्रति पढेमज्झयणे धम्मो पसंसितो १ । धम्मसाहणत्थमेव बितिए [धिती] २ | धितीमतो य धम्मे ततिये आयारसमासो ३। आयारो विदितजीवनिकायस्स भवतीति चतुत्थे जीवपरिण्णा ४। विदितजीवस्स धम्मसाहणसरीरधारणत्थं पिंडसोही पंचमे ५। कतसरीरधारणस्स छठे महती आयारकथा ६। आयारसुत्थियस्स परोवदेसणत्थं सत्तमे वयणविभत्ती ७ । विदियवयणविणियोगस्स मणोविसोधणट्ठमट्ठमे आयारप्पणिधी ८। सुप्पणिधियस्स गुरुसमाराधणत्थं णवमे विणयो ९ । एवं णवअझयणाणुक्कमेण विणीयचेट्ठो जो दसमज्झयणगुणाणुक्करिसणे 10 नियमिज्जति पुणो स भिक्खू इति एस सभिक्खुआभिसंबंधो। तस्स चत्तारि अणिओगद्दारा जधा आवस्सए । मनिप्फण्णो सभिक्खू, सगारो निक्खिवितव्वो, भिक्खू य । सकारस्स निक्खेवो णामादि चउब्धिहो। णाम-ट्ठवणातो गतातो । जाणगसरीरदव्वसगारो य जहा सामाइए। जाणगसरीरभवियसरीरवतिरित्तो दव्वसगारो इमेण गाहापुव्वद्धण भण्णति निद्देस पसंसाए अत्थीभावे य होति तु सकारो। 15 निद्देस पसंसाए । सकारो तिसु अत्येसु वदृति--निद्देस १ पसंसाए २ अस्थिभावे ३ य। निदेसे जधा एत्थ-- नदीकूलं मित्त्वा कुवलयमिवोत्पाट्य सुतरून् , मदोद्वत्तान् हत्वा कर-चरण-दन्तैः प्रतिगजान् । जरां प्राप्याऽनायाँ तरुणिजनविद्वेषणकरी, स एवायं नागः सहति कलभेम्यः परिभवम् ॥१॥ पसंसाए जहा-सप्पुरिसो सजणो। अस्थित्ते जधा–सम्भावो एस । गतो दव्वसगारो। सगारोवयुत्तो जीवो 20 भावसगारो॥ निद्देस पसंसाएं य वमाणेणे अधिगारो ॥१॥॥२३०॥ निद्देस पसंसाए० गाधापच्छद्धं । एतम्मि दसमज्झयणे निदेस पसंसाए [य] वट्टमाणेण अधिकारो ॥१॥ २३० ॥ कहं ? जेण जे भावा दसकालियसुत्ते करणिज्ज वैण्णित जिणेहिं । 25 तेर्सि समाणणम्मी जो भिक्खू इति भवति स भिक्खू ॥२॥२३१॥ जे भावा दसकालियसुत्ते. [गाधा। जे भावा दसकालियसुत्ते] करणिज्जा इति वण्णिता जिणेहिं तेसिं समाणणम्मि कते ततो [जो] भिक्खू [इति] एवं भवति, जेण एते गुणा समाणिता स १निहेस १ पसंसा२ अस्थिभावो३य मूलादर्श ॥२°ए अधिकारो पत्थ अज्झयणे खं० वी० पु० सा० हाटी०॥३ पत्थ दव्यसगारो मूलादर्शे ॥ ४ दसवेयालियम्मि कर खं० वी० पु० सा. वृद्ध० हाटी० ।। ५ सणिय वृद्ध ॥ ६ समाणणम्मी सो-भिक्खू भण्णइ स भिक्खू वृद्ध० । समावणम्मी भिक्खू इइ भण्णइ स भिक्खू हाटी• । समाणणम्मी जो भिक्खू ते (त्ति) भन्नइ स भिक्खू खं० । समाणणम्मि जो भिक्खू इइ भन्नइ स भिक्खू वी० । समाणणम्मि ति जो भिक्खू भन्नड स भिक्खू सा० ॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निजुत्तिगा० २३०-३५ ] दसका लियसुतं । २३१ भिक्खू, एस निद्देससकारो । सोभणो सो भिक्खू भवति, एस पसंसाए । समाणणं पुण जं तेसिं गुणाणं आयरणं ॥ २ ॥ ॥ २३१ ॥ सगारो भणितो । भिक्खू भण्णति । तस्स इमा दारगाधा भिक्खुस यणिक्खेवो १ णिरुत्त २ एगट्टियाणि ३ लिंगाणि ४ । अगुणट्ठिएण भिक्खु त्ति ५ अवयवा पंच ६ दाराई ।। ३ ।। २३२ ॥ ० भिक्खु य निक्खेवो • गाहा । भिक्खुस्स निक्खेवो भाणितव्वो १ । तथा निरुतं २ एगट्ठियाणि 5 ३ लिंगाणि ४ अगुणेसुठितो ण भवति भिक्खू गुणेसु ठितो भवति ५ । पंच य अवयवा ६ । एताणि दाराणि ॥ ३ ॥ २३२ ॥ तत्थ इमो निक्खेवो नामं ठवणा भिक्खू दव्वभिक्खू य भावभिक्खू य । दव्वम्मि आगमादी अण्णो वि य पेज्जयो इणमो ॥ ४ ॥ २३३ ॥ नामं ठवणा भिक्खू० गाहा । चउन्विहं परूवेऊण नाम-ठवणातो गतातो । दव्वभिक्खू इमो, तं० - 10 दव्वम्मि आगमादी दव्वभिक्खू दुविहो तं० – आगमतो णोआगमतो य । आगमतो जाणते अणुवउते । णोआगमतो तिविहो, तं० – जाणगसरीरदव्वभिक्खू १ भवियसरीरदव्वभिक्खू २ जाणगसरीरभवियसरीरवतिरित्तो दव्वभिक्खू ३ । [भिक्खुपदत्थाधिगारजाणगस्स सरीरं ] मतं वा भिक्खुसरीरं जाणगसरीरदव्वभिक्खू, जधा — अयं घयकुंभे आसी १ । भवियसरीरदव्वभिक्खू जो जीवो भिक्खुपदत्थाधिकारं जाणिधिती जधा - अयं घयकुंभे भविस्सति २ । जाणगसरीरभवियसरीरवतिरित्तो दव्वभिक्खू तिविहो, तं० एगभवियो बद्धाउओ अभिमुहणामगोतो । जो 15 अनंतरं उव्वट्टिऊणं भिक्खू भविस्सति सो एगभविओ । भिक्खूसु जेण आउयं निबद्धं सो बद्धाउओ । जेण पदेसा निच्छूढा सो अभिमुहनामगोतो ३ । अण्णो वि एतस्स भिक्खुणो इणमो इमो अण्णो वि पज्जयो ॥ ४ ॥ २३३ ॥ तं० भेदतो भेदणं चेव भिंदितव्वं तहेव य । एतेसिं तिन्हं पि य पत्तेय परूवणं वोच्छं ॥ ५ ॥ २३४ ॥ भेदतो भेदणं वेव० गाहा । दव्वं भिंदतीति दव्वभेदतो परुवेयव्वो १ दव्वभेदणं परुवेतव्वं २ दव्वमेत्तव्वं परुवेतव्वं ३ । तं परूवणमेतेसिं तिन्हं पि पत्तेय वोच्छामि ॥ ५ ॥ २३४ ॥ सा परूवणा इमा ज दारुकंम्मका भेदण-भेत्तव्वसंजुतो भिक्खू । अणे विदव्वभिक्खु जे जातणका अविरता य ।। ६ ।। २३५ ।। ae areaम्मकारो० गाधा । जधासदो उद्देसवयणे । दारुकम्मकारो रहकारो सो भेततो । 25 भेदणं परसू । भेत्तव्वयं करूं । सो दारुकम्मकारो एतेहिं भेद - भिंदियव्वेहिं संजुत्तो भवति, दव्वभिक्खू । तधा अण्णे विदव्वभिक्खू ण दारुकम्मकार एव दव्वभिक्खू भवति, किंतु अण्णे वि दव्वभिक्खू जे पाणातिवाता[दी ]हिंतो अविरता जांतणका य ते असंजता लोगमुवजीवमाणा दव्वभिक्खुणो भवंति ॥ ६ ॥ २३५ ॥ ते य दुविहा- गहत्था लिंगिणोय । गिहत्था जधा १ पज्जवो सर्वासु नियुक्तिप्रतिषु ।। २ याजनका याचनका वा इत्यर्थः । 20 For Private Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [दसमं सभिक्खुअज्झयणं गिहिणो विसयारंभग उज्जुप्पण्णं जणं विमग्गंता । जीवणिय दीण किवणा ते विज्जा दवभिक्खु त्ति ॥७॥ २३६ ॥ __ गिहिणो विसयारंभय० गाधा। गिहिणो वि होति पंचेंदियविसयारंभगा बंभणा, 'लोगाणुग्गहत्थं अम्हे हि अवयरिया' एवं उज्जुप्पण्णं उज्जुबुद्धी जणं नाणाउवादेहिं विविधं मग्गंता विमग्गंता दवभिक्खवो 5 भवंति । अण्णे जीवणियानिमित्तं कप्पडिकादयो दीणा सरेण किवणा जातणेण ते विजा विज्ञेया दव्यभिक्खु त्ति । ७॥ २३६॥ तथा कुपासंडिणो वि मिच्छादिट्टी तस-थावराण पुढवादि-बेंदियादीणं । णिचं वधकरणरता अबभचारी य संचइया ॥८॥२३७॥ मिच्छादिट्टी० गाथा । रत्तवडादयो मिच्छादिट्टिणो तस-थावराण [पुढवादि-बेदियादीणं] । 10 वधकरणे रता। अवंभचारिणो कावालियादयो रत्तवडादयो य संचइया । एवमादयो दबभिक्खु(क्ख)वो भवंति ॥८॥ २३७॥ जे वि तेसिं 'सीलं रक्खामो' पडिवण्णा ते वि एवमबंभचारिणो भवंति-- दुपय चतुप्पय-धण-धण्ण कुविय तिग-तिगपरिग्गहे निरता। सचित्तभोति पयमाणगा य उद्दिट्टभोती य ॥९॥२३८॥ दुपय-चतुप्पय० गाहा । दुपयाण दासिमादीण चतुप्पदाण य महिसिमादीणं परिग्गहेण तग्गयमेधुणप्प15 योगनिसेवणेण अंबंभाणुमोद॑णयो अवंभचारिणो भवंति । संचयिया धण[-धण्ण-]कुविय [तिग-तिग]परिग्गहे निरता, धणं हिरण्णादि, धण्णं सालिमादि, कुवितं उवक्खरो कंस-दूसादि । सञ्चित्ता-ऽचित्त-मीसाण दव्वाण मण-वयण-कायजोगेहिं तिग-तिगपरिग्गहे निरता । सञ्चित्तं पाणियादि भुंजता पयमाणगा य, सतमपतंता वि उद्दिट्ठभोतिया ॥ ९॥ २३८ ॥ तिगतिगपरिग्गहे णिरता य एवं करणतिए जोगतिए सावजे आयहेतु पर उभए। 20 अट्ठा-ऽणट्ठपवत्ते ते विजा दवभिक्खु त्ति ॥१०॥ २३९ ॥ करणतिए० गाहा । करण-कारणा-ऽणुमोदणं मण-वयण-कायजोगेहिं आरंभे आयहेतुं सरीरोवभोगनिमित्तं, मित्त-सयणादीण परट्टा उभयट्ठा वा । अट्ठा सरीरादीण अणट्टाए परिहासादीहि पक्त्तमाणा ते विजा दव्यभिक्खु त्ति ॥ १० ॥ २३९ ॥ एस दबभिक्खू । भावभिक्खू इमेण गाधापुवर्तण भण्णति, तं० आगमतो उवउत्ते तग्गुणसंवेदए तु भावम्मि । आगमतो उवउत्ते. अद्धगाहा । भावभिक्खू दुविहो, तं०–आगमतो णोआगमतो य । आगमतो जाणए उवउत्ते । णोआगमतो तरगुणसंवेदए भिक्खुगुणसंफासओ तग्गुणसंवेदओ । तेणाधिकारो । भावभिक्खू समत्तो। भिक्खूनिक्खेवो इति गतं १ । वितियं निरुत्तमिति दारं । तं० तस्स निरुत्तं भेदग-भेदण-भेत्तव्वएण तिधा ॥११॥२४॥ १ गिहिणो वि सयारंभग इति पदच्छेदेन श्रीहरिभद्रसूरिपादेयास्यातमस्ति ।। २ नानोपायैः ॥ ३ अब्रह्मानुमोदनात् ।। ४ मोदमोदणयो अवंभ मूलादन ॥ Jain Education Intemational Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ निज्जुत्तिगा० २३६-४६] दसकालियसुत्तं । तस्स निरुत्तं भेदग० गाहापच्छद्धं । तस्स पुवमणितस्स भिक्खुणा निरुत्तमेवं तिषा-भेदकभेदण-भेत्तब्वएण ॥ ११ ॥ २४० ॥ एतेसिं तिण्हं पि इमं निदरिसणं । तं० भेत्ताऽऽगमोवयुत्तो दुविह तवो भेदणं च भेत्तव्वं । अट्ठविधं कम्मखुहं तेण णिरुत्तं स भिक्खु त्ति ॥१२॥ २४१॥ भेत्ताऽऽगमोवयुत्तो. गाहा। आगमोवयुत्तो साधू [भेत्ता] भेदयो। बाहिर-ऽभतरो तवो विहो। भेवणं । भेत्तव्वमट्ठविधं कम्मं तं च खुहं, जम्हा तं भिंदति अतो निरुत्तं स भिक्खु ति॥१२॥२४१॥ निरुत्तावसरे एगहिताणि य से भिदंतो यावि खुधं भिक्खू जतमाणतो जती भवति । संजमचरयो चरयो भवं खवेतो भवतो तु ॥१३॥ २४२॥ भिंदंतो यावि खुधंगाहा । जया खुहं भिंदतो भिक्खू भवति तथा जतमाणतो जती भवति । 10 रसविधं च संजमं चरमाणयो चरयो भवति । भवमवि चतुप्पगारं खमाणो भचंतो भवति ॥१३॥ २४२॥ अधवा भिक्खुसदस्स इमेण पजायंतरेण निरुत्तं भण्णति । अप्पसंगेण खमण-तवस्सीसद्दाण निरुत्तं । तं जधा जं भिक्खमेत्तवित्ती तेण व भिक्खू खवेति जं व अणं । तव-संजमे तवस्सि त्ति वा वि अण्णो वि पजायो ॥१४॥२४३ ॥ जंभिक्खमेत्तवित्ती० गाहा । जम्हा भिक्खमेत्तवित्ती भवति अतो भिक्खू भण्णति । अणं कम्मं, 15 जम्हा य अणं खवयति तम्हा खवणो भण्णति । तव-संजमे वट्टमाणो तबस्सी मण्णति । तस्सेव भिक्खुसहस्स अण्णो एसो खवण-तवस्सीमादी णिरुत्तपन्जायो भवति ॥ १४ ॥२४३ ॥ णिरुतं भणितं २ । एगट्टिताणि भिक्खुणो तिहिं गाहाहिं इमाहिं भण्णति तिपणे ताती दविए वतीय खंते य दंत विरते य। मुणि तावत पण्णवगुज्जु भिक्खु बुद्धे जति विदू य ॥१५॥२४४॥ पव्वयिये अणगारे पासंडी चरय भणे चेव । पारिवाये समणे निग्गंथे संजते मुत्ते ॥१६॥२४५॥ सावू लूहे य तथा तीरट्ठी होति चेव णातव्वे । णामाणि एवमादीणि होति तव-संजमरताणं ॥१७॥२४६॥ तिण्णे ताती दविए० गाहा । पव्वयिये अण० गाधा । साधू लूहे. गाधा । जम्हा संसारसमुदं 25 तरति तरिस्सति वा अतो तिण्णे । जम्हा त्राएति संसारसागरे पडमाणे जीवे तम्हा तायी। राग-दोसविरहित इति दविए । वयाणि से संतीति वती। खमतीति खंतो । इंदिय-कसायदमणेण दंतो। पाणवधादीणियत्तो विरतो। विजाणतीति मुणी, सावज्जेसु वा मोर्णवतीति मुणी। तवे ठितो तावतो। पण्णवतीति पण्णवयो। मातरहितो 20 १५जह खुहं खं० वी० सा०॥ २ तावस खं. वी. सा. वृद्ध० हाटी० ॥ ३ परिवायगे य समणे बी. सा.॥ ४ मौनव्रतीति ॥ ५ मायारहितः ॥ १० Jain Education Intemational Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [दसमं सभिक्खुअज्झयणं संजमे वा ठितो उज्जु । भिक्खू पुव्वभणितो । बुज्झतीति बुद्धो। जतणाजुत्तो जती। णाणासति ति(त्ति) विदू ॥१५॥ २४४ ॥ एगाए गाधाए अत्थो भणितो। बितियाए पुण वैधादीयो पावादो व्रजितो पव्वयितो । अगारं गृहं, तं से णत्थि अणगारो । अट्ठविधकम्मपासातो डीणो पासंडी। तवं चरतीति चरयो । अट्ठारसविधं बंभं धारयतीति बंभणो । भिक्खणसीलो भिक्ख । पावपरि5 वज्जणेण पारिव्वायो । सममणो समणो । बाहिर-ऽन्भंतरग्गंथविरहितो निग्गंथो । अहिंसादीहिं संजते । ते[हिं] चेव बाहिर-ऽभंतरेहिं गंथेहिं विप्पमुक्को मुत्तो ॥ १६ ॥ २४५ ॥ वितियाए गाधाए अत्थो भणितो । ततियाए पुण णेव्वाणसाधए जोए साधयतीति साधू । अंत-पंतेहि लूहेहि जीवतीति लूहे, अधवा राग-सिणेहविरहिते लूहे । संसारसागरस्स तीरं अत्थयति मग्गतीति तीरट्ठी, संसारसागरस्स वा तीरे ठितो तीरही ॥१७॥ २४६ ॥ 10 एताणि भिक्खुणो एगहिताणि ३। लिंगाणि पुणो से इमाहि दोहिं गाहाहिं भण्णंति । तं०-- संवेगो निव्वेगो विसर्यविरागो सुसीलसंसग्गी। आराधणा तवो णाण सण चरित्त विणओ य ॥१८॥२४७॥ खंती य महवऽजव विमुत्तया तह अदोणय तितिक्खा। आवस्सगपरिसुद्धी य होंति भिक्खुस्स लिंगाणि ॥१९॥२४८॥ 15 संवेगो निव्वेगोगाधा। खंती य महवऽजवगाहा। जिणपणीए धम्मे कहिन्जमाणे पुव्वा-ऽवरविरुद्धेसु पर समएसु दूसिजमाणेसु संवेगगमणं, सो तस्स संवेगो भिक्खुलिंगं । गन्भे वा गरगादिभयेसु निव्वेगगमणं निव्वेगो भिक्खुमावलिंग। तहा सद्दातिविसयविरागो भिक्खुलिंगं । तहा सुसीलेहिं संसग्गी भिक्खुलिंगमेव । तधा इहलोग-परलोगाराधणा भावभिक्खुलिंग। एवं तवो बाहिर-ऽभंतरो। आभिणियोहियणाणादि पंचविधं णाणं । सम्मइंसणं दुविहं णिसग्गज[मधि ]गमजं च। चरितं अट्ठारससीलंगसहस्समयं । विणओ य विणयसमाधीए 20 पुन्वभणियो । एते सव्वे वि भेया भिक्खुणो लिंगाणि भवंतीति । एगाए गाहाए अत्थो गतो॥१८॥२४७॥ अक्कोसादि खवणं खंती भावभिक्खुलिंगं । तधा मद्दवं भावभिक्खुसाहणं । एवमज्जवमवि। आहारादिसु विमुत्तया। आहारतं(?स्स) अलाभे अदीणता । एवं बावीसपरीसहतितिक्खणं । अवस्सकरणीयजोगाणुट्ठाणं ॥१९॥२४८ ॥ जथा भिक्खू भवति ण भवति वा एत्थ पंचावयवा । तं०-- अज्झयणगुणी भिक्खू, ण सेस, इति एस णे पतिण्ण त्ति १। अगुणत्ता इति हेतू २ को दिटुंतो? सुवण्णमिव ३ ॥२०॥ २४९॥ अज्झयण गाधा। 'जे एतम्मि अज्झयणे भिक्खुगुणा भण्णिहिन्ति तेहिं गुणेहिं जुत्तो भावभिक्खू, ण सेसा' इति एस णे एसा अम्हं पतिपणा १ । हेतू दिटुंतो य इमेण गाहापच्छद्धेण भण्णति-[अगुणत्ता इति हेतू० गाहापच्छद्धं । ] पुच्वं पतिण्णा, तयत्थसाधणत्थमयं हेतू भण्णति---अगुणजुत्तया अण्णेसिं अभिक्खुभावे कारणं । दिद्रुतो सुवणं ॥ २० ॥ २४९ ॥ दिटुंतयाए उवण्णत्थस्स सुवण्णस्स इमे अट्ठ गुणा भवंति । तं जधा १ नानास्मृतिरिति (?)॥२ वधादितः पापात् ॥ ३ °यविवेगो खं० वी० सा. वृद्ध० हाटी० ॥ ४ इति णे पहन, को हेऊ?। अगु ख० वी० सा. वृद्ध० हाटी०॥ Jain Education Interational Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निज्जुत्तिगा०२४७-५५]] दसकालियसुत्तं । ૨૩ विसघाति १ रसायण २ मंगलत्त ३ विणिए ४ पयाहिणावत्ते ५। गुरुए ६ अडजसकुच्छे ८ अह सुवण्णे गुणा भणिता ॥२१॥२५०॥ विसधाति रसायण० गाधा। विसघातित्तं १ रसायणता २ मंगलता ३ जधाभिप्पेतकुंडलादिपरिणतिसामत्यं विणीयता ४ आवट्टमाणस्स पदाहिणावत्तया ५ गुरुता ६ अदहणिजता ७ अकुहणं ८ एते सुवण्णगुणा ॥२१॥ २५०॥ उपसंहारो भण्णति चतुकारणपरिसुद्धं कस-छेदण-ताव-तालणाए थे। जं तं विसघाति-रसायणादिगुणसंजुतं होति ॥२२॥२५१॥ चतुकारण० गाहा । चतुहिं कारणेहिं-णिहस-च्छेद-ता-तालणाहिं परिसुद्धं सुवणं भण्णति । जं च एतेहिं परिसुद्धं तमेव विसघाति-रसायण-गुरुय-मडज्झ-अकुधणादिगुणसंजुतं भवति ॥ २२ ॥ २५१॥ किंच ते कसिणगुणोवेतं होति सुवण्णं, ण सेसयं जुत्ती। नं य नाम-रूवमत्तेण एवमगुणो भवति भिक्खू ॥ २३ ॥ २५२॥ तं कसिणगुणोवेतं. गाहा । जधा तं कसिणेहिं गिरवसेसेहि गुणेहि उववेतं सुवणं भवति, ण पुण सेसं जुत्ती कतसुवण्णपडिरूवगं सुवण्णं भवति । जधा सुवण्णपडिरूवगं सुवण्णं न भवति तथा [न य] नामरूवमत्तेण भिक्खुगुणेहिं अजुत्तो भिक्खू भवति ॥ २३ ॥ २५२॥ किंच 15 जुत्तीसुवण्णगं पुण सुवण्णवणं तु जति वि कीरजा । ण हु होति तं सुवण्णं सेसेहि गुणेहसंतोहें ॥ २४ ॥ २५३॥ जुत्तीसुवण्णगं पुण० गाधा । तं जुत्तीसुवण्णगं आरकूडगादि तं जति विकेणति उवातेण सुविण्ण]वणं कीरेज्जा तथा वि ण हु होति तं सुवण्णं सेसेहिं णिहसादीहि गुणेहि असंतेहिं ॥ २४ ॥ २५३॥ 10 तधा जे अज्झयणे भणिता भिक्खुगुणा तेहि होति सो भिक्खू । वण्णेणं जवसुवण्णगं व संते गुणनिहिम्मि ॥२५॥२५४॥ जे अज्झयणे भणिता० गाधा । जे एतम्मि अज्झयणे भिक्खुगुणा भाणता तेहि उववेतो सो होति भिक्खू । जेण य सव्वदेव सुद्धाऽणवजभिक्खवित्ती अतो। अण्णेसु गुणेसु संतेसैं चेव वण्णप्पधाणेण सोभणवण्णमिति सुवण्णं । ण पुण भिक्खणमेतेण भिक्खू ॥२५॥२५४॥ जो भिक्खूगुणरहितो भेक्खं हिंडति ण होति सो भिक्खू । वण्णेणं जुनिसुवण्णगं व असती गुणणिधिम्मि ॥२६॥ २५५॥ 25 १ लत्य ३ विणि खं० वी. सा. हाटी० ॥ २ होंति सं०॥३ य । तं विसघाय रसायण गुरुगमडझं अकुच्छंच खं० ॥ ४-अललिहिं परि मूलादर्श ॥ ५ तं निहसगुणोवेयं वृद्धः ॥ ६ण वि णाम खं० वी० । न हि नाम सा. हाटी। ७°सु वि वण्ण मूलादर्शे ॥ ८°क्खं गेहान खं० सा० । “भिक्षामटति" इति हाटी॥ Jain Education Intemational Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [दसमं सभिक्खुअज्झयणं _जो भिक्खु गुणरहितो० गाधा । जो भिक्खूगुणविरहितो भक्खं हिंडति ण सो भिक्खमेत्तेण भिक्खू भवति । कधं १ जधा वण्णेण जुत्तमवि जुत्तीसुवण्णगमसुवण्णं, असति निहसादिसुवण्णगुणवित्थरे ॥ २६ ॥ २५५ ॥ 'भिक्खणसीला सव्वे भिक्खवो' ति मण्णते उवालमंतेहि भण्णति उद्दिकर्ड भुंजति छकायपमहणो घरं कुणति । पञ्चक्खं च जलगते जो पियति कधण्णु सो भिक्खू? ॥२७॥ २५६ ॥ उहिकडं० गाधा । जो उद्दिट्टकडं भुंजति, पुढविमादिछक्कायपमहणेण जो घरं कुणति, पञ्चक्खं च जलगते पूतरगादि पियति । कधंसदो पुच्छाए, गुसद्दो वितक्के । प्रकारवितक्केण पुच्छति-केण प्रकारेण उद्दिवादिभोयिणो भिक्खुगा १ ॥ २७॥ २५६ ॥ उवसंहाराणंतरं णिगमणं भण्णति तम्हा जे अज्झयणे भिक्खुगुणा तेहि होति सो भिक्खू । 10 तेहि य सउत्तरगुणेहि चेव सो भाविततरो उ॥ २८ ॥ २५७॥ तम्हा जे अज्झयणे० गाधा । जतो गुणेहि भिक्खू भवति तम्हा जे एतम्मि दसमज्झयणे मूलगुणा भणिता तेहिं समण्णितेहिं समणुगतो भिक्खू भवति । पिंडविसोधि-समितिमादि उत्तरगुणा, तोह य सउत्तरगुणेहिं चेव सउत्तरगुणेहिं भिक्खुभावेण [सो] भाविततरो भवति ।। २८ ॥ २५७ ॥ नामनिप्फण्णो निक्लेवो गतो। सुत्ताणुगमे सुत्तं उचारेतव्वं जघा अणियोगद्दारे । तं च सुत्तं इमं15 ५०२. णिक्खम्ममाणाए बुद्धवयणे, निच्चं चित्तसमाहितो भवेज्जा। इत्थीण वसं ण यावि गच्छे, वंतं णो पंडियायियती स भिक्खू ॥१॥ ५०२. णिक्खम्ममाणाए० वृत्तम् । वैतालिकजातिः । निक्खम्मं निक्खमिऊण । निग्गच्छिऊण गिहातो आरंभातो वा आणा वयणं संदेसो तार निक्खम्ममाणाए। बुद्धा जाणगा तेसिं वयणं वुद्धवयणं दुवालसंग गणिपिडगं, तत्थ आणाए निक्खम्म पुव्वं, पच्छा निचं] चित्तसमाहितो भवेज्जा, पच्छा सत्तीए बुद्धवयणे एव 20 निचं सव्वकालमेव चित्तं मणो तं समाहितं जस्स सो चित्तसमाहितो तथा भवेज । चित्तसमाधाणविग्धभूता विसया, तत्थ वि पाहण्णेण इत्थिग त्ति भण्णति-इत्थीण वसं ण यावि गच्छे वसो छंदो, विसयाणुरागा ण इत्थिवसगतो होज । अपिसद्दो 'एत्थ दढव्यतो सेसेसु दढव्वतो'ति संभावेति तासिं अवसगतो वंतं असंजमं ण पंडियायियति अतो ण गच्छे, अपडिगमणेण य ण पडियातियते । जो एवं चित्तसमाहिती इत्थीण वसमगच्छमाणो वंतं ण पडियापिबेत् स भिक्खू, एस निदेसे । पसंसाय सोहणो भिक्खू सभिक्खू । 25 चोदगो भणति–'निक्खम्ममाणाय वुद्धवयणे सभिक्खू' इति च वयणेण सभिक्खू एस १ आयरिया भणंतिणणु दवभिक्खू भिक्खुतणेण निवारितो, जधा उद्दिटुकडं भुंजति छक्कायपमद्दणो घरं कुणति । १ मन्यमानान् ॥२°महओ घरं सा० हाटी० ॥३णाय वुखं २-३ जे० शु० वृद्ध० अचूपा० ॥४ पडियावियईस खं १२ । पडियातियति स वृद्ध । पडियायई जे स शु० । पडिआयए स खं ३ । पडियाइ स खं ४ जे० । श्रीमद्भिरगस्त्यसिंहपादैः पडियायियति पाठः प्राकृतभाषासम्बन्धिव्यञ्जनविकारसम्भावना पडियातियते इति पडियापिबेत् इति च प्रकारद्वयेनापि व्याख्यातोऽस्ति । श्रीहरिभद्रवृत्ती अवचूर्या च प्रत्यापियति इति व्याख्यातमस्ति । वृद्धविवरणकृता पुनः पडियातियति इत्येतावन्मात्रमुल्लिखितमस्ति ॥ ५ पडियायिति मूलाद” ॥ Jain Education Intemational Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निष्ठांना० २५६-५७, सुत्तमा० ५०२-४ ] दसका लियसुत्तं । पञ्चक्खं च जलगते जो पिबति कहण्णु सो भिक्खू १ ॥ १ ॥ [ निज्जुन्तिगा० २५६ ] तप्परिञ्चागेण भावभिक्खुणा अधिगारो । तदुवदेसतो वि ण भावबुद्धो, जतो हक्काये तेसिं जयणं [च] ण जाणति । भावबुद्धो पुण तित्थगरो, जेण भावभिक्खुलक्खणमणेग [विह]मुपदिडं, तम्हा ण दोसोऽयं ॥ १ ॥ उत्तमवि भावबुद्धस्स भावभिक्खुणो य नियामकमिमं छक्कायदयावयणं । तत्थ पढमुद्दिट्ठस्स पुढविकायस्स ताव भण्णति ५०३. पुढविंण खणे ण खणावए, सीतोदगं णं पिबे ण समारभेज्जा । अगणित्थं जधा सुणिसितं, तं ण जले ण जलावए स भिक्खू ॥ २ ॥ २३७ ५०३. पुढविंण खणे ० वृत्तम् । आराभागेण अंतरियाण तस-यावराण विणासणमिति पुढविं सयं ण खणे, परेण ण खणावए, तज्ज्ञातियाण गहणमिति अण्णं खणंतमवि ण समणुजाणेना । सीतोदगं ण पिबे ण समारभेज्जा, अविगतजीवं सीतोदगं, तं ण पिबे, ण वा हत्थादिधोवणादिकने समारभेजा मण-त्रयण-कायजोगेण करण-कारणा-ऽणुमोदणेण वा । अगणि सत्थं जधा सुणिसितं ति जधा खग्ग- परसु - 10 छुरिगादिसत्थमणुधारं छेदगं तथा समंततो दहणरूवं, तं न जले सयं, ण जलावए परेण, [परं] णाणुमोदए । जो एवं पुढविमादिदयापरोस भिक्खू । सीसो भणति — छज्जीवणिकाए वि एस अत्थो, जहा से पुढविं वा भित्तिं वा० [सुतं ४९] एवमादि, पिंडेसणाए वि पुढविजीवे ण (? वि) हिंसेज्जा [सुतं १६७ ] तहा उदओल्लेण हत्थेण [सुतं ११६] एवमादि, धम्मत्थकामाए वि वयछक्क० [निज्जुतिगा० १७० ] आयारप्पणिधीए वि पुढविं भित्तिं [सुत्तं ३७३] एवमदि, सेसेसु अज्झयणेसु वि पायो छक्कायपरिहरणमेव, किं पुणो दसमज्झयणे काया चेव ? 15 कथं एतं पुणरुतं ? | आयरिया आइ – अवीसरणत्थं सीसस्स पुणोपुणोवयणं, विदेसगमणे सुतहितोवदेसवत् । अपि च (6 'अनुवादा-ऽऽदर-वीप्सा-भृशार्थ - विनियोग - हेत्वसूयासु । ईषसम्भ्रम-विस्मय गणना- स्मरणेष्वपुनरुक्तम् ॥ १ ॥ आदरोपदरिसणत्थमिह अतो कायव्वयोवदेसे ण पुणरुतं ॥ २ ॥ पत्थुयं कायुद्देसाणुपुत्री भण्णति ५०४. अणिलेण णं वियावए ण वीए, हरियाणि ण छिंदावर ण छिंदे | बीयाणि सदा विवज्जयंतो, सच्चित्तं णाऽऽहारए स भिक्खू ॥ ३ ॥ १ण विए ण पियावए । अगणि अचू० वृद्ध० विना ॥ २° मिति भखणं मूलादर्शे ॥ ३°मादि से अज्झ मूलाद ॥ ४° त्सम्भृशमविस्मय ं मूलादर्शे ॥ ५ न वीर न वियावर हरि° अचू० वृद्ध० विना ॥ ६ याणि न छिंदे न छिंदावर । af अचू० विना ॥ 5 ५०४. अणिलेण ण० वृत्तम् । अणिलो वायू तेण अप्पणो कायं बाहिरं वा पोग्गलं परेण ण वियावए सयं ण वि । अण्णे ठाणेसु पढमं सयं करणं पच्छा परेण कारणं, इह पुण विवरीयं, कध पुण इदं १ भण्णतिचित्रोपदेशं सूत्रं भगवत इति तदत्थमिदं वयणं । समाणजातीयसवणेण अणुमोदणमवि । हरियाणि ण छिंदावए ण छिंदे हरितत्रयणं सव्ववणस्सतिसूयगं, करण-कारणा-ऽणुमोदणाणि तव । बीयाणि सदा विवज्जयंतो, बीयवयणं 25 कंदादिसव्यवणस्सतिअवयवसूयकं । सच्चित्तवयणं पत्तेय - साधारणत्रणस्सतिगहणत्थं, एवं सव्ववणस्सति सच्चित्तं हा । एवंगुणसंपणे स भिक्खू भवति ॥ ३ ॥ पुढविमादीण पत्तेयमुपरोधपरिहरणमुपदिहं । तेसिं पुणो सव्वेसिं एगिंदियादीणं परिहरणानिमित्तं भण्णति 20 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ णिज्जुत्ति-चुणिसंजुयं [दसमं सभिक्खुअज्झयणं ५०५. वहणं तस-थावराण होइ, पुढवि-दग-कट्ठणिरिसयाणं । तम्हा उद्देसियं ण भुंजे, णे पए ण पयावए स भिक्खू ॥ ४॥ ५०५. वहणं तस-थावराण. वृत्तम् । वधणं मारणं तं तसाण 'वितिंदियादीण थावराण य पुढविमादीणं उद्देसिए संभवति । जतो वधणपरिहारी तम्हा उद्देसियं ण भुंजे, ण पए ण पयावए। उद्देसियपरि5 हरणेणाणुमोदणं निसिद्धमेव। अण्णेण वि लोगजत्तातिणा केणति कारणेण ण पए ण पयावए स भिक्खू ॥४॥ उद्देसियपरिहरणं भगवतैवोपदिट्ट, ण परेण, अतो सव्वहा ५०६. रोतिय णायपुत्तवयणं, अत्तसमे मण्णेन्ज छप्पि काए। पंच य फासे महव्वताणि, पंचासव संवरे स भिक्खू ॥५॥ ५०६. रोतिय णायपुत्त० वृत्तम् । रुयिं उप्पायेऊण अप्पणो रोयिय णातकुलुप्पण्णस्स णातपुत्तस्स 10 भगवतो वद्धमाणसामिणो वयणं तं रोयेऊण अत्तसमे मण्णेज अप्पणो तुले “जध मम पियं ण दुक्खं" [अनुयोग-पत्रं २५६] एवमण्णेसामवीति एवं मण्णेज्ज जाणेजा, मण्णमाणो य आ(१ का तवधं परिहरेजा, छप्पि पुढविमादी। तधामण्णमाणो पाणातिवायवेरमणादीणि पंच य फासे महब्वताणि, फासणं आसेवणं । पंचासवदाराणि इंदियाणि, ताणि आसवा चेव, ताणि संवरे। कहं ? सद्देसु त भद्दय-पावएसु सोतविसयं उवगतेसु । तुट्टेण व रुद्रेण व समणेण सया ण होयव्वं ॥१॥" [णायाधम्म० श्रु.१०१७ प्रान्ते] एवं सव्वेसु एवंगुणो भवति स भिक्खू ॥५॥ भणिता मूलगुणा । उत्तरगुणा पुण ५०७. चत्तारि वमे सदा कसाये, (वजोगी य भवेज बुद्धवयणे। अधणे णिजायरूंव-रयते, गिहिजोगं परिवजएं स भिक्खू ॥ ६॥ ५०७. चत्तारि वमे सदा कसाये० वृत्तम् । पंचसु महव्वएसु ठितप्पा कोधादी वमे चत्तारि सदा 20 कसाए। धुवजोगी य भवेज्ज वुद्धवयणे बुद्धा जिणा तेसिं वयणं बुद्धवयणं तम्मि । जोगो काय-वात मणोमतं कम्म, सो धुवो जोगो जस्स सो धुवजोगीति, जोगेण जहाकरणीयमायुत्तेण पडिलेहणादिओ जोगो तत्थ णिचजोगिणा, ण पुण कदादि करेति कदायि न करेति। भणितं च-"जोगे जोगे जिणसासणम्मि दुक्ख." [ोध नि० गा० २७७]। बुद्धवयणे दुवालसंगे गणिपिडए धुवजोगी पंचविधसज्झायपरो । धणं चउप्पदादि तं जस्स नत्थि से अहणो। अकृतकं सुवर्ण जातरूवं, रयतं रुप्पं, निग्गतो जातरूव-स्ययातो तदुपादाणेण 25 निग्गतो जतो स भवति णिज्जायसवरयते। गिहिजोगो जो तेसिं वावारो पयण-पयावणं तं परिवजए स भिक्खू ॥६॥ धम्मोवएसणप्पभिति सम्मइंसणमुवदिटुं। तस्स वामोहका[रण]बोहणत्थं भण्णति १ पुढवि तण-कट्ठ खं १ अचू० वृद्ध० विना ॥ २ णो वि पर अचू० वृद्ध० विना ॥ ३°ए जे स खं ३-४ जे० अचू० वृद्ध विना ॥ ४ द्वीन्द्रियादीनाम् ॥ ५ रोयनायपुत्तवयणे सर्वासु सूत्रप्रतिषु ॥ ६ अप्पसमे शु.॥ ७ “पंचासवसंवरे णाम पचिंदियसंवुडे" इति वृद्धविवरणानुसारेण श्रीहरिभद्रपादादिभिः “पञ्चाश्रवसंघृतश्च" इति व्याख्यातं सम्भाव्यते। संवरए जे स खं २-४ शु०। संवरए य जे स खं १-३॥ ८ धुयजो जे०॥ ९ रूयर खं १ जे० ॥ १० °ए जे स खं १-२ शु०॥ ११ काय-वाग्-मनोमयम् ॥ १२ पुण कादि मूलादर्शे ॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९ सुत्तगा० ५०५-११] दसकालियसुत्तं। . २३९ ५०८. सम्मदिट्ठी सदा अमूढे, अत्थि हु णाणे तवे य संजमे य। तवसा धुणति पुराणपावगं, मण-वति-कायसुसंवुडे स भिक्खू ॥७॥ ५०८. सम्मट्ठिी सदा. वृत्तम् । सम्भावसद्दहणालक्खणा [सम्मा,] सम्मा दिट्ठी सा जस्स सी सम्मट्ठिी । परतिथिविभवादीहिं सदा अमूढे । एवं च अमूढे अस्थि हुणाणे, तस्स फले, तवे य पारसविहे सफले, सत्तरसविहे य संजमे, ताणि य इमम्मि चेव जिणसासणे । एवं मणसा सुणिच्छितेण तवसा धुणति । पुराणपावगं अणेगभवसतोवतियं पापं णवकम्मासवणिरोधहेतुं । मण-बति-कायसुसंवुडे मणसा अकुसलमणनिरोधो कुसलमणउदीरणं वा, वायाए जघा वक्कसुद्धीए उवदिटुं नहा मासणं मोणं वा, कारण अजुत्तचेट्ठानिरोहो । एवं एतेहिं संबुडे स भिक्खू ॥७॥ सति सम्मईसणे आहारनियमो मिक्खुमावोपपादण इति भण्णति५०९. तहेव असणं पाणगं वा, विविहं खाइम साइमं लभित्ता । होहिति अट्ठो सुते परे वा, तं ण णिहे ण णिहावएँ स भिक्खू ॥ ८॥ 10 ५०९. तहेव असणं० वृत्तम् । तहेवेति पुव्वमिक्खुमावसाधगं कारणसारिस्सत्यं । असण-पाण-खाइमसाइमाणि पुव्वभणिताणि । तेसिं अण्णतरं सव्वाणि वा लभिऊण उवयुत्तसेसं सरसं वा लोभेणं होहिति अट्ठो छुहाए अण्णस्स अत्थितं सुते कल्ले परे ततो परतरेण । एतेण पणिधाणेण तं सयं ण णिहे परेण ण णिहावए स भिक्खू ॥ ८॥ भिक्खुभावप्पसाधगमेव आहारसंविमागकरणं सपक्खे मण्णति ५१०. तहेव असणं पाणगं वा, विविहं. खाइम साइमं लभित्ता । छंदिय साधम्मियाण मुंजे, भोच्चा सज्झायरते य जे स भिक्खू ॥ ९॥ ५१.. तहेव असणं० वृत्तम् । तहेवेति भिक्खुत्तणे कारणस्स निरूवणं । असण-पाण-खाइमसाइमाणि लभित्ता छंदिय साघम्मियाण मुंजे छंदो इच्छा, इच्छाकारेण जोयणं छंदणं, एवं छंदिय, साधम्मिया समाणधम्मिया साधुणो जति गेण्हंति तेसिं दाऊण । सेसं अगहिते कतविणयो सव्वं एतेण कमेण मुंजिऊण ण विकंधा-विसोतियारते, किंतु पंचविहे सज्झायरते य जे स भिक्खू ॥९॥ आहारसमुप्पाइयप्राणो 20 सुंधं विकहा-विग्गहेहि अच्छति तन्निवारणत्यं भण्णति५११. ण य विग्गहियं कधं कहेजा, ण य कुप्पे णिहुतिदिए पसंते । संजमधुवैजोगजोगजुत्ते, उवसंते अविहेढएँ स भिक्खू ॥१०॥ ५११. [ण य विग्गहियं० वृत्तम् ।] भुत्तुत्तरकालं ग य विग्ग[हियं कोहं ण इति पडिसेहसदो विग्गहकधानिवारणत्यं । चसद्दो पुन्वकारणसमुच्चयत्यो । विग्गहो कलहो, तम्मि तस्स पा कारणं विग्गहिता। 25 जधा-अमुगो एरिसो राया देसो वा, एत्य सजं कलहो समुप्पजति । जति वि परो कहेज तथा वि 'अहं रायाणं देसं वा १.हुजोगे नाणे य सं वृद्ध० ॥२ वुढे जे स खं १-२ शु०॥३ समा दिट्ठी मूलादर्शे ॥ ४ सोमदिट्टी मूलादर्श ॥ ५ पाए णव मूलादर्श ॥ ६ होहीम सर्वास सूत्रप्रतिषु ॥ ७°ए जे स खं १-२ शु०॥ ८ विकथा-विश्रोतसिकारतः ॥ ९ सुखम् ॥ . १० बुग्गहियं सर्वास सूत्रप्रतिषु ॥११ बजोगजुसे अचू० विना ॥ १२ अधिहेडए खं ४ अचू० विना ॥ १३ ए जेसख १.२ जे. शु०॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० णिज्जुत्ति- चुण्णिसंजयं [दसमं सभिक्खु अज्झयणं जिंदसि 'त्ति ण कुप्पेज्जा । वादादौ वा सयमवि कहेज्जा विग्गहकहं, ण य पुण कुप्पेजा । तं कजत्थमेव निहुतसोतातिइंदियो करेन । कोधादिअणुद्धते पसंते । संजमे धुवजोगो तदवस्सकरणीयाण, संजमधुवजोगे कायावाया-मैणोमतेण जोगेण जुत्ते संजमधुवजोगजोगजुत्ते । लोगविग्गहकधातो वि' उवेच्च संते उवसंते। परे विग्गहविकधापसंगे सुसमत्थो विण तालणादिणा विहेढयति एवं अविहेढए । उषसंते अविहेढए वा स भिक्खु ॥ १० ॥ 5 ण य कुप्पेन त्ति से (स) हणमुपदि । इदमपि भिक्खुभावसाधगं सधैणमुपदिस्सति— 15 ५१२. जो सहइ हु० वृत्तम् । जो इति उद्देसवयणं, सहति मरिसेति, सोतादिइंदियसमवादो गामो, तस्स कंटका इव कंटका अणिट्ठविसया । ते य इमे विसेसेण - अक्कोसा पहारा य तज्जणा य, मादि-सगारादि 10 अक्कोसा, कसातीताडणं पधारा, धि ! -मुंडितादिअंबाडणं तज्जणा, पञ्चवायो भयं रौद्रं भेरवं, वेतालकालिवा(?या)दीण सद्दो, भय-भैरव-सद्देहि समेच्च पहसणं भय-भेरव सद्दसंपहासो । तम्मि समुवत्थिते समं सुहेण दुक्खं तं जो सहति सो समसुह- दुक्खसहे अहवा पुव्वभणिते य भय-भेरवे सद्दे, हसित- गीय-सिंगार [माइ], संपहसणे संपहासे, एत्थ एगम्मि समसुहे एगम्मि समदुक्खे विपरीतं जहासंखं पुण सुहे दुक्खे वा समे चैव जे एवं स भिक्खू ॥ ११ ॥ सज्झसंज ( १ गते सति भिक्खुभावपसाधगमिमं सुकरं भवति तस्स 25 . ५१२. जो सहइ हु गामकंटके, अक्कोस-पहार तज्जणाओ य । भय-भेरव सद संपहासे, समसुह-दुक्खसहे य जे स भिक्खू ॥ ११ ॥ ५१३. पडिमं पडिवज्जिता सुँसाणे, ण य भाती भय-भैरवाणि दंडुं । ५१३. पडिमं पडिवजिता० वृत्तम् । पडिमाओ अणेगहा सिद्धते वण्णितातो, तासिं अण्णतरं पडिवजिता । मयत्थाणमिदमिति विसेसिज्जति — सुसाणे तं पुण सबसयणं सुसाणं, तम्मि पडिमं पडिवज्जिता ण य भाति ण बिभेति पुल्वभणिताणि भय-भेरवाणि दट्ठण । जति पुण कस्सति मती भवेज, जधा - सक्कभिक्खूण एस उपदेसो20 मासाणिगेण भवितव्वं, ण य ते तम्मि बिर्भेति, तम्मतिणिसेधणत्थं उत्तमवि विसेसिज्जति — विविधमूलुत्तरगुणे बारसविधतवोरते य णिचं ण सरीरं उवसग्गादीहिं बाधिजमाणमभिकखती स भिक्खू ॥ १२ ॥ अणंतरमुवदिट्ठा भिक्खुभावप्पसाधणी क्रिया । तीसे अभिक्खणमारंभोवदेसत्थं भण्णति विविधगुण- तवोरते यणिचं, ण सरीरं अभिकंती स भिक्खू ॥ १२ ॥ ५१४. असतिं वोसट्ठ- चत्तदेहे, अंकुट्ठे व हते व लूसिते वा । पुढवी मए मुणी भवेज्जा, अणिदाणे अंकुतूहले स भिक्खू ॥ १३ ॥ ५१४. असतिं वो० वृत्तम् । असतिं अभिक्खणं पुणो पुणो, वोसट्ठो पडिमादिसु विनिवृत्त कियो, ण्हाणागुमद्दणातिविभूमाविरहितो चत्तो, सरीरं देहो, वोसो चत्तो य देहो जेण सो वोसट्ट- चत्तदेहो । एवं १ निभृतश्रोत्रादीन्द्रियः ॥ २ मनोमयेन ॥ ३ विदुवेश्च मूलादर्शे ॥ ४-५ सहनम् ॥ ६ सप्पहासे अचू० बिना ॥ ७ मसाणे अचू० वृद्ध० विना ॥ ८ णो भायई खं २ | णो भायप खं १-३-४ जे० । जो भाप शु० ॥ ९ दिस्स खं ४ अचू० वृद्ध० विना ॥ १० अभिषंखयई खं १ । अभिकखई सं १ अनू० वृद्ध० विना ॥ ११ °खई जे स खं ३ जे० अचू० वृद्ध० विना ॥ १२ आकुट्टे जे० ॥ १३ 'समे मुणी अचू० विना ॥ १४ अकोहल्ले य जे स खं १ २ ४ जे० शुपा० वृद्ध० । अकोहल्ले य जे स सं ३ शु० ॥ For Private Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ सुत्तगा० ५१२-१७] दसकालियसुत्तं। वोसट्ट-चत्तदेहे अकुठे वा मादि-सगारादीहिं, हते कसातीहिं, लूसिते पादकड्ढणिमादीहि, एवं कीरमाणे वि पुढवीसमए जधा पुढवी अक्कोसादीहिं ण विचलति तथा सो पुढविसमो तथा भवेजा। दिव्वादिविभवेसु अणिद्धचित्ते अणिदाणे, णचणगादिसु अकुतूहले, स भिक्खू ॥१३॥ पुढवीसमए मुणी भवेज ति अणंतरमुद्दिडं, ण तत्य अविण्णाणरूवं समाणीकन्नति, किंतु ५१५. अभिभूत कारण परीसहाई, समुद्धरे जाति-वधातो अप्पगं । विदित्त जाती-मरणं महब्भयं, भवे रते सामणिए स भिक्खू ॥ १४ ॥ ५१५. अभिभूत कारण० वृत्तम् । अभिमुहं भविऊण अभिभूत जिणिऊण, कायो सरीरं तेण, छुधादीणि बावीस परीसहाणि। छुहा-पिवासा-सी-उण्हादयो परीसहा पायेण कायसहणीया अतो कायेणेति भण्णति। जे वा बौद्धादयो “चित्तमेव णियंतव्य "मिति तप्पडिसेधणत्थं कायवयणं । समुद्धरे एकीभावेण उद्धरे। जातिवधो पुन्वभणितो ततो, अप्पगं। दुस्सहपरीसहसहणे इमं आलंषणं-विदित्तु जाती-मरणं महन्भयं जाणिऊण जम्मं 10 जाती मरणं मचू तमुभयं आणिऊण महाभयं भवे रते सामणिए समणभावो सामणियं तम्मि रतो भवे। एवं भवति स भिक्खू ॥१४॥ भवे रते सामणिए इति सामणियमुपदिटुं। तस्स सरूवनिदेसत्थं भण्णति५१६. हत्थसंजते पायसंजते, वायसंजते संजतिदिए। अज्झप्परते समाहितप्पा, सुत्तत्थं च विजाणऐं स भिक्खू॥१५॥ ५१६. हत्थसंजते. वृत्तम्। हत्थेहिं णच्चणाइ अकरेमाणे [हत्य संजते। पाएहि वग्गणाति 15 [अकरेमाणे पायसंजते।] अकसलवइनिरोधादिणा वायसंजते। इंदियविसयप्पयारनिरोघेण इंदियपत्तविसयरागहोसनिग्गहेण संजतिंदिए। अप्याणमधिकरेऊण जं भवति तं अज्झप्पं, तं पुण सुहज्झाणमेव । नाण-दंसणचरित्तेसु सुदु आहितप्पा समाहितप्पा । सुत्तं अत्थं च तदुभयं पि एतदेव तं विजाणए। एवं जधोवदिट्टकारणेहिं भवति स भिक्खू ॥१५॥ हत्थ-पाद-वाया-इंदियाण संजमो उवदिट्ठो। णोइंदियं मणो तस्स संजमणत्थमुवादिस्सति ५१७. उवधिम्मि अमुच्छिते अगढिते, अण्णाउंछपुलाए णिप्पुलाये । कय-विक्कय-साँण्णिधीहिंतो विरते, सव्वसंगावगते स भिक्खू ॥ १६ ॥ ५१७. उवधिम्मि अमु. वृत्तम् । वत्थ-पत्तादि उवधी, तम्मि अमुच्छिते, जधा मुच्छावसगतो अचेतणो भवति एवं लोभेण एस मुच्छित इव मुच्छितो, तधा जो ण भवति सो अमुच्छितो। जो पुण तप्पडिबंधेण ण विहरति बद्ध इव अच्छति सो गढितो, तधा य जो ण भवति स अगढिते । अधवा मुच्छितो गढित इति 25 समाणमिममादरत्थं भण्णति । अण्णाउंछपुलाए णिप्पुलाये, उंछं चउव्विहं परिबेतूण णाम-ठवणातो गतातो, दब्बुळं 20 १जाइपहाओ अचू० वृद्ध० विना । “जातिग्गहणेण जम्मणस्स गहणं कयं, वधगहगेण मरणस्स गहणं कयं" इति वृद्धविवरणे॥ २ तवे रते सर्वासु सूत्रप्रतिषु हाटी० अव० ॥ ३रते सुसमा अचू० विना ॥ ४°५ जे स अचू० वृद्ध० विना ॥ ५ अगिद्धे, अ' अचू० वृद्ध विना ॥ ६ अण्णातउंछं पुलनिप्पुलाए अचू० विना ॥ ७°सण्णिहिओ वि अचू. विना ॥ ८ गए य जे सवं २-३-४ जे. शु० । गए जे स खं १ ॥ ९ अण्णोतं उंछं पुलणिलाये। उंछं मूलादर्श ॥ दनगु.३१ Jain Education Intemational Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [दसमं सभिक्खुअज्झयणं तावसादीणं, उग्गमुप्पायणेसणासुद्धं अण्णायमण्णातेण समुप्पादितं भावुछमण्णाउंछं, तं पुलएति-तमेसति एस अण्णाउंछपुलाए। पुलाए चउविहे। नाम-ठवणातो गतातो। दव्वपुलाओ पलंजी। मूलुत्तरगुणपडिसेवणाए निस्सारं संजमं करेति एस भावपुलाए, ण] तथा णिप्पुलाए । मुलस्स पडिमुल्लेण गहणं दाणं वा कय-विक्कयो, सण्णिधाणं सण्णिधी। एतेहिंतो कय-विक्रय-सण्णिधीहिंतो विरते अण्णाउंछपुलाए ति "विधिसेसा णिसेधा" । 5 सव्वधा जे उवधिमुच्छादयो भणिता अभणिता य ते सव्वे संगा अवगता जस्स से सव्वसंगावगते। संगो यु "जत्थ सज्जंति जीवा जरहत्थी इव कद्दमे"। एतेहिं भिक्खुभावसाधगंहिं गुणेहिं वट्टमाणे स भिक्खू ॥१६॥ उवगरणे गेहीनिवारणमुपदिढे ' उवधिम्मि अमुच्छिते' आहारगेहिनिवारणत्थमिदं भण्णति५१८. अलोलु भिक्खू ण रसेसु गिडे, उंछं चरे जीवित णांवकंखे। इंड्ढी सक्कारण पूयणं वा, जहे ठितप्पा अँणिहे स भिक्खू ॥ १७ ॥ 10 ५१८. अलोलु भिक्खू० वृत्तम् । अपत्तरसपत्थणं लौल्यम् , ण तथा इति अलोले । भिक्खू जो एत्य चेव अधिकृतो। तित्तादिसु पत्तेसु वि ण रसेसु गिद्धे । उंछं जधा वण्णितं, तं चरे। अण्णाउंछपुलाए [सुत्तं ५०] त्ति एत्थं उवधि प्रति, इमं पुण आहारं, तेण ण पुणरुतं । 'सुहं चिरं वा जीवेजामि'त्ति एवं जीवितं नावकंखे । किञ्चइड्ढीसकारण पूयणं वा, इड्ढी विउव्वणमादि, सकार-पूयणविसेसो जधा विणयसमाधीए त(बि)तियुद्देस [सुतं १...] । सव्वाणि एताणि जहे “ओहाक् त्यागे” इति परिचये। नाण-इंसण-चरित्तेसु टितप्पा अणिहे 15 अकुडिले, अणिण्हे वा पंचेंदिएसु, अंणिहे वा असरिसे, स भिक्खू ॥१७॥ अलोले भिक्खू ण रसेसु गिद्धे इति जिभिदियनियमणमुपदि8 । रस[ण] तेण तस्सेव वयणत्तेण णियमणत्थं भण्णति__५१९. ण परं वदेजासि अयं कुसीले, जेणऽण्णो कुप्पेज ण तं वएज्जा। जाणिय पत्तेय पुण्ण पावं, अत्ताणं ण समुक्कसे स भिक्खू ॥ १८ ॥ ५१९. ण परं वदेज्जासिक वृत्तम् । परो पव्वतियस्स अपव्वतियो, तं अपत्तियादिदोसभयतो ण 20 वदेज्ज अयं कुसीलो घरत्थसीलपरिभट्ठो, कदायि सपक्खे चोदेज्ज अतो परग्गहणं, सव्वहा जेणऽण्णो कुप्पेज्ज जम्म-मम्म-कम्मादिणा ण तं वदेज्ज । केण पुण आलंबणेण न वदेजा ? जाणिय पत्तेय जं जस्स पुण्णं पावं वा स एव तस्स फलमणुभवति । जधा अण्णम्मि य पक्खुलिते एवं जाणिय ण परं वदेज्ज अयं कुसीले। एतेणेव आलंबणेण गव्वेण अत्ताणं ण समुकसे स भिक्खू ॥१८॥ अत्ताणं ण समुफसेज्ज ति मणितं । अत्तसमुक्कसे कारणमुद्देण नियमिज्जति जधा25 ५२०. ण जातिमत्ते ण य रूवमत्ते, ण लाभमत्ते ण सुतेण मत्ते । मैताणि सव्वाणि विवजयित्ता, धम्मज्झाणरते य जे स भिक्खू ॥ १९॥ १ अण्णायमण्णतेण मूलादर्श । वृद्धविवरणे अण्णायमण्णातेण इत्येव पाठो वर्तते ॥ २ सते संगा मूलादर्श ॥ ३ अलोलो शु० । अलोल खं २ वृद्ध० ॥ ४ णाभिकंखे जे०वृद्ध० हाटी० भव । णाभिकखी शु०॥ ५ इढि खं १-२-३ शु०॥ ६ च अचू० विना ॥ ७ मणिण्हे अचूपा० ॥ ८"अणिण्हे णाम अकुडिले ति वा अणिहे त्ति वा एगट्ठा" इति वृद्धविवरणे ॥ ९ अनिभः सं० ॥ १० कसे जे स खं ३ अचू० वृद्ध० विना ॥ ११ मयाणि खं ३ विना सर्वासु सूत्रप्रतिषु । मयाई खं ३ । मदाणि वृद्ध०॥ १२ विवज्जयंतो खं २-३ जे० शु० । विगिंच धीरे वृद्ध० ॥ Jain Education Intemational Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ सुत्तगा० ५१८-२२] दसकालियसुत्तं। ५२०. ण जाति० वृत्तम् । 'उत्तमजातीयोह' मिति एवं ण जातिमत्ते भवे इति वयणसेसो । तथा 'सुरुवो ह' मिति एवं ण य रूवमत्ते। 'लामसंपण्णो ह' मिति य ण लाभमत्ते । तधा ‘बहुस्सुतो ह' मिति ण सुतेण मत्ते। अणुद्दिद्रुपडिसमाणणत्थं भण्णति-इस्सरियादीणि मताणि सव्वाणि विवज्जयित्ता धम्मज्झाणंपुव्ववणितं तम्मि रते धम्मज्झाणरते। एवं जहा भणितगुणे जे स भिक्खू ॥१९॥ माणजतोवदेसाणंतरं मायानिमित्तं भण्णति५२१. पवेयए अजवयं महामुणी, धम्मे ठितो ठावयती परं पि । णिक्खम्म वजेज कुसीललिंगं, ण यांवि हैस्सकुहए स भिक्खू ॥२०॥ ५२१. पवेयए अज्जवयं० वृत्तम् । पवेदणं कहणं, [अज्जवयं] रिजुभावं दरिसिज ति, एवं विसुद्धप्पा भवति महामुणी। एवं च सुहं परो वि धम्मे पडिवादेतुं भवति । सुतधम्मे चरित्तधम्मे य सम्भावण ठितो ठावयति परं पि, जतो अद्वितो ण ठवेति परं । धम्मोवएसणं च निजरणाकारणं, कहं ? 10 निक्खित्तसत्थमुसलो सोता जति भवति किंचि वी कालं। सोतुं च जति नियत्तति कहगस्स वि तं हितं होति ॥१॥[ एवमज्जवतापवेदणं । निक्खम्म वजेज कुसीललिंगं निक्खम्म घरातो गिदत्थभावातो वा निक्खम्म निक्कारणे पंडरंगादीण कुसीलाण लिंगं वजेजा, अणायारादी वा कुसीलस्स लिंगं ण रक्खए। किं च ण यावि हस्सफुहए हस्समेव कुहगं तं जस्स अस्थि सो हस्सकुहतो तधा न भवे, हस्सनिमित्तं वा कुहगं हस्सकुहगं, 15 तधा करेति परस्स हासमुप्पजति, एवं ण यावि हस्सक्कुहए स भिक्खू । सबम्मि अज्ज्ञयणे भिक्खुसद्दो भवति, सद्दजोगी एसा सद्दत्थधम्मता ॥ २०॥ निक्खम्ममाणाए [सुत्तं ५०२] अतो पभितिं भिक्खुभावपसाधगा बहुगुणा भणिता । तस्सेवंगुणसमुदयपसाहितस्स भिक्खुभावस्स सगलफलोपदरिसणेण नियमणत्थमिदं भण्णति ५२२. तं देहवासं असुतिं असासतं, सदा जहे निच्चेंहिते ठितप्पा। छिदित्तु जाती-मरणस्स बंधणं, उवेति भिक्खू अपुणागमं गतिं ॥ २१॥ ति बेमि॥ ॥ सभिक्खु अन्झयणं दसमं सम्मत्तं ॥ ५२२. तं देहवासं० वृत्तम् । तं देहवासं तमिति पुल्वपत्थुताभिसंबंधणं, तेण भिक्खुभावपसाहगो देहोऽभिसंबज्झति, सो य ण अण्णत्थ भिक्खुभाव इति मणुस्सदेहो, तम्मि वासो देहवासो । विरागनिमित्तं तस्समावो 25 भण्णति-असुति आणिगंधादिपरिणामो असुती । भणितं च १अज्जपयं खं ४ अचू० विना ॥ २ आवि वृद्ध०॥ ३हासं कुहए खं ३ विना सर्वामु सूत्रप्रतिषु । हासकुहए वृद्ध०॥ ४दा चए अचू० वृद्ध० विना ॥ ५ चहियट्ठियप्पा अचू० हाटी. विना ॥ ६ गय॥ ति बेमि खं ३-४ जे०। गयं॥ ति बेमि खं १॥ Jain Education Intemational Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पढमा रइवक्का चूलिय' थाणं बीज[म]वट्ठभो णिस्सदो निहणं तहा । देहस्साणिगुरूवाणि तेणायमसुती मतो ॥१॥[ ] असूयीसभावत्ते पुणो असासतं खणमत्तभंगुरं । आध यकायो सपञ्चवायो समागमा विप्पयोगविरसरसा । उप्पादजुतं सव्वं विणासिमवि णस्थि संदेहो॥१॥[ ] सदा सव्वकालं जहे परिच्चये, जहे ण एक्कपयपरिच्चागेण, किंतु तदिट्ठलालणाविसेसपरिच्चागेण । णिश्वहितं 5 मोक्खो तस्साधणे निच्चं ठितो अप्पा जस्स सो निचहिते ठितप्पा । सो एवंविधो छिदित्तु जाती मरणस्स बंधणं जातीमरणं संसारो अट्टविधं वा कम्मं तं जेण वज्झति तं जातीमरणस्स बंधणं, तं पुण रागो य दोसो य, एतं कम्मस्स निबंधणं, तं छिंदित्तु वीतरागतामुपगतो उवेति उवागच्छति भिक्खू इति सगलदसवेतालितत्थनिद्दिट्ठगुणनिव्वत्तियो दसमज्झयणभणितगुणसमुदयनिरूवणनिद्दिट्ठो स भिक्खू अपुणागमं गतिं पुणरागमणं आजवंजवीभावो, तविरहिता अपुणागमा, सा य सिद्धी संसारदुक्खविणिवित्ती, तं उदेति भिक्खू अपुणागमं 10 गतिं ॥ २१ ॥ ति बेमि ॥णया य पूर्ववत् ॥ धम्मो ससाधणो जं पडुच्च भणितो णवऽज्झयणसुद्धो। तस्स निरूवणहेतुं दसमज्झयणं स भिक्खु ति ॥१॥ सभिक्खुगचुण्णी समत्ता ॥ १ आह च ॥ २ परित्यजेत् ॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निज्जुत्तिगा० २५८-६० ] दसकालियसुत्तं । १ [पढमा रहवका चूलिया ] धम्मादि नेव्वाणफलपज्जवसाणं विणीयमतिपुरिसबुद्धिबोधणत्थं समाणितं दसवेता लियसत्थं । तस्साऽऽदावु - पण्णत्थं "पढमे धम्मपसंसा" [णिज्जुतिगा० ८] तदणु धम्मसाधणोपकाराणुपुव्वीए समाणीतं " एस भिक्खु " त्ति । तस्स भिक्खुभावस्स साधणं गुणसमुज्जतस्स मतित्रिकप्पणिसेहातोपदिस्सति चूलादुयं रतिवकं चूलिका य । सत्ये अणुपसंग- 5 हितस्स तदोपधिगस्स उपसंगहत्थं चेदमुत्तरं तन्त्रम्, जधा उत्तरगमायणादीणि । तत्थ जं सामण्णं चूलावयणं तस्स वक्खाणत्थमिमा णिज्जुत्तिगाधा - दवे खेत्ते काले भावम्मि य चूलियाय निक्लेवो । तं पुण उत्तरतंतं सुतगहितत्थं तु संगहणी ॥ १ ॥ २५८ ॥ दवे खेत्ते काले भावम्मि य० गाधा । छन्ग्रिह निक्खेवस्स णाम-ठवणातो गतातो । तं पुण चूलिताद्भुतं 10 उत्तरतंतं जधा आयारस्स पंचचूला उत्तरमिति । जं उवरि सत्थस्स जं अवण्णितोवसंगहत्थं सुतगहितत्थं सुते जे गहिता अत्था तेसिं कस्सति फुडीकरणत्थं संगहणी ॥ १ ॥ २५८ ॥ दव्वचूलादीण विभागो दव्वे सचित्तादी कुक्कुडचूला - मणी-मयूरादी । खेत्तम्मि लोगनिक्खुड मंदरचूला य कूडा य ॥ २ ॥ २५९ ॥ २४५ isa सच्चित्तादी० [गाधा ] । दव्वचूला तिविधा -- सच्चित्ता अचित्ता मीसा । तत्थ सच्चिता कुक्कुडमत्थगचूला 15 मंसमता, अचित्ता चूलामणी, मीसा मयूरस्स मंसपिंछारद्धा । एसा दव्वचूला । खेत्ते पुणखेत्तम्मि लोगनिक्खुड० पच्छद्धगाहा। खेत्तचूला लोगणिक्खुडाणि मंदरचुला कूडा य एवमादि ॥ २ ॥ २५९ ॥ कालचूला पुण अतिरित्त अधिगमासा अधिगा संवच्छरा य कालम्मि । भावे खोवसमये मउ चूलाउ णेयव्वा ॥ ३ ॥ २६० ॥ - अतिरिक्त० अद्धगाहा । अतिरित्ता अधिगमासा अधिसंवच्छरा य । भावचूला भावे 20 खयोवसमिये [खयोवसमिये] भावे सुतनाणमिति एताओ चूलाओ खयोवसमियभावचूलाओ ॥ ३ ॥ २६० ॥ तत्थ पढमं चूलज्झयणं रतिवकं । तस्स चत्तारि अणिओगद्दारा, जधा आवस्सए । णवरं नामनिप्फण्णो रतिवकं । दो पदा-रती वक्कं च । रतीए चउक्कओ निक्खेवो । णाम- इवणातो गतातो ॥ इदाणिं दव्वरती १ अनुपसङ्गृहीतस्य ॥ २ कूटादी खं० वी० सा० हाटी० ॥ ३ " दव्वचूला इमेण गाधापुव्वद्वेण भण्णइ । तं जहा दब्बे सचित्तादी० अद्धगाथा । [द सचितादी तिविहा ] । तं० - सचित्ता अचित्ता मीसिया । तत्थ सचित्ता कुकुडस्स चूला, सा मत्थए भवइ । अचित्ता चूलामणी, साय सिरे कीरई । मीसिया मयूरस्स भवति । एवमादि दव्वचूला भणिया । इदाणिं खेत्तचूला भण्णइ-खेत्तम्मि लोगनिक्कुड० गाहापच्छद्धं । खेत्तचूला लोगणिकुडाणि, मंदरस्स पव्वयस्स चूला, कूडा य, एवमादि खेत्तचूला भण्णइ । अहवा अहेलोगस्स सीमंतओ, तिरियलोगस्स मंदरो, [उड्ढलोगस्स ईसीपब्भार ति ] ।" इति वृद्धविवरणे पत्र ३५० ॥ " 'द्रव्ये' इति द्रव्यचूडा आगम- नोआगमज्ञशरीरेतरादि । व्यतिरिक्ता त्रिविधा 'सचित्ताद्या' सचित्ता अचित्ता मिश्रा च । यथासंख्यं दृष्टान्तमाह – कुकुटचूडा सचित्ता, चूडामणिरचित्ता, मयूरशिखा मिश्रा । 'क्षेत्रे' इति क्षेत्रचूडा लोकनिष्कुटा अब उपरिवर्तिनः मन्दरचूडा च पाण्डुकम्बला, कूटादयश्च तदन्यपर्वतानाम्, क्षेत्रप्राधान्यात् । आदिशब्दादधोलोकस्य सीमन्तकः, तिर्यग्लोकस्य मन्दरः, ऊर्ध्वलोकस्येषत्प्राग्भारेति गाथार्थः ॥” इति हारिभद्रीवृत्तौ पत्र २६९ - ७० ॥ ४ इमा उ चूला मुणेयच्या खं० वी० । इमा उ चूडा मुणेयवा सा० ॥ For Private Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पढमा रइबक्का चूलिया देवरती खलु दुविहा कम्मरती चेव णो-य-कम्मरती। कम्म रतिवेदणीयं णोकम्मरती तु सदादी ॥४॥२६१ ॥ सह-रस-रूव-गंधा फासा रइकारगाणि दव्वाणि । दव्वरती भावरती उदए एमेव अरती वि ॥५॥२६२॥ दव्वरती० [गाहा]। सहरस० गाहा। दवरती दुविहा-कम्मदव्वरती णोकम्मदवरतीय। कम्मदव्वरती रतिवेदणिज्जं कम्मं वद्धं, न ताव उदिजति। नोकम्मदवरती इट्टा सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधा रतिकारगाणि दवाणि । भावरती पुण उदये भवति रतिवेदणिज कम्मं जाहे उदिण्णं भवति । एसा भावरती। विपक्खतापसंगेण अरती वि भण्णति-तधेव चउन्विधा । णाम-ट्ठवणातो गतातो। दव्वअरती दुविधा-कम्मदबअरतीणोकम्मदव्वअरतीय। कम्मदव्वभरती अरतीवेदणिज कम्मं बद्धमणुदिण्णं । णोकम्मदव्वअरती अणिट्टा सद्दादयो। 10 अरतिवेदणिज्ज कम्ममुदिण्णं भावअरती ॥४-५॥ २६१-२६२ ॥ रती मणिता। वक्कावसरे वक्वं, तं जधा वकसुद्धीए तहेव । रतीए हेतुभूतं रतये वक्कं रतिवक्कं । अरती पुव्ववण्णिता जाधे परीसहाण उदयेण उप्पजेजा ताहे सरीरपीडाकरी वि णिच्छयतो हि तमहितासणं ति अहियासेतव्वा । एत्थ दिटुंतो जध नाम आतुरस्सिह सिव्वण-छेज्जेसु कीरमाणेसु । जंतर्णमवच्छकुच्छाऽऽमदोसविरुती हितकरी तु ॥ ६ ॥ २६३॥ 15 जध नाम गाहा । जह नाम प्रकारसद्दो य आतुरो रोगी सो त वणेण आगंतुणा सरीरसमुत्थेण वा होना। इहेति इह सुहनिमित्तं दुक्खसहणं-सिव्वण-छेजेसु कीरमाणेसु जंतणमवच्छकुच्छाऽऽमदोसविरुती हितकरी तु, जंतणं आयासातिपरिहरणं । पागवेदणाकारीण अवच्छदव्वाण दुगुंछणं अवच्छकुच्छा। आमसमुत्थो दोसो आमदोसो ततो विणियत्तणं विरुती आमदोसविरुती । अहवा आमविरुयी दोसाण य विरुती । अपि च20 व्रणे श्वयथुरायासात् स च रागश्च जागरात् । तौ च रुक् च दिवास्वप्नात् ते च मृत्युश्च मैथुनात् ॥१॥ [सुश्रुत, सूत्रस्थान, अध्याय १९, श्लो. ३६] एताणि उत्तरकाल हितकराणि तस्स जधा ॥ ६॥ २६३ ॥ तहेव अट्ठविहकम्मरोगाउरस्स जीवस्स तवतिगिच्छाए । धम्मे रती अधम्मे अरती गुणकारिता होति ॥७॥२६४॥ १ न खल्वेते नियुक्तिगाथे साम्प्रतीनेषु नियुक्त्यादर्शेषु उपलभ्येते। केवलं स्तम्भतीर्थीयशान्तिनाथताडपत्रीयभाण्डागारसत्कनियुक्तिप्रतौ केनापि विदुषा तदानीन्तनादन्तिरेषु उपलब्धे बहिरुल्लिखिते लब्धे इति तत इह लिखिते स्तः । वृद्धविवरणकृता एते एव गाथे आदृते स्त इत्याभाति । श्रीमद्भिहरिभद्राचार्यपादस्तु साम्प्रतीनेष्वादशेषूपलभ्यमाना एतदर्थसङ्ग्राहिका एकैव गाथाऽहता व्याख्याता चास्ति । सा चेयम् दब्वे दुहा उ कम्मे णोकम्मरती उ सहदब्वाई। भावरई तस्सेव उ उदए पमेव अई वि॥ अस्याः नियुक्तिगाथायाः पूर्वार्धस्य खं० प्रतौ दव्वेयरबेयणियं नोकमने सद्दमाइ इजणगा। इति पाठान्तरं दृश्यते । २ तंदभ्यासनम् ॥ ३ सीवण खं० वी० सा०॥ ४ 'ण अवस्थकु वृद्ध । °णमपत्थकु वी० सा० । गमपच्छकु खं०॥ ५ विरती खं० वी० सा० हाटी• वृद्ध०॥ ६ दिवास्वापात् ताश्च मृ' इति निर्णयसागरप्रकाशिते सुश्रुते ॥ ७ तह तिगि खं. वी. सा. वृद्धा हाटी०॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निज्जुत्तिगा० २६१-६६ सुतं ५२३] दसकालियसुतं । अट्ठविहकम्म० गाधा । णाणावरणादिअट्ठविहकम्मरोगेण आउरस्स जीवस्स तवतिगिच्छाए कम्मदोसविसोधणीए कीरमाणीए बावीस परीसहा सुंस्सधा, अव्वाबाधसुहनिमित्तं सहमाणस्स दसविधसमणधम्मे रती विवरीए अधम्मे अरती जा संभवति सा तस्स गुणकारिता भवति ॥ ७ ॥ २६४ ॥ सा पुण एतेसुं धम्मसाहणेसुरती सज्झाय संजम तवे वेयावच्चे य झाणजोगे य । जो रमति ण रमति असंजमम्मि सो पावए सिद्धिं ॥ ८ ॥ २६५ ॥ सज्झाय० गाधा । वायणादिते पंचविहे सज्झाए, सतरसविधे य संजमे, तवे य बारसविधे, वेयावचे य, शाणजोगे दुविहे धम्मे सुक्के य । एतेसु जो रमति, हिंसादिविधाणेण ण रमति असंजमम्मि, कम्मरोगविरहितो परमणीरोगभावं सो पावए सिद्धिं । तवोवयणेण सिद्धे सज्झाय - वेयावच्च - ज्झाणाण गहणं पहाणभावोवदरिसणत्थं ॥ ८ ॥ २६५ ॥ जतो एवं धम्मे रती अधम्मे अरती सिद्धिगमणकारणं--- तम्हा धम्मे रतिकारगाणि अरइकारगाणि य अहम्मे । ठाण ताण जाणे जाई भणिताणि अज्झयणे ॥ ९ ॥ २६६ ॥ २४७ तम्हा धम्मे० गाधा । तम्हा दुक्खक्खयमिच्छता जधा भणिते धम्मे रतिकारगाणि अधम्मे य अरतिकारगाणि ठाणाणि ताणि जाणे, थाणसद्दी अत्थवयणो, अट्ठारस अत्थवत्थूणि जाणितव्वाणि, जाणि इहे तुझ उद्दिसिहिंति ॥ ९ ॥ २६६ ॥ गतो नामनिष्कण्णो । सुत्तालावगणिप्फण्णे सुत्तं उच्चारेतव्वं जधा 15 अणियोगहारे । तं च इमं जधा ५२३. इह खलु भो ! पव्वयियेणं उप्पण्णदुक्खेण संजमे अरतिसमावण्णचित्तेण ओहाणुप्पेहिणा अणोहावितेण चैव हयरस्सि - गतंकुस - पोतपडाँगारभूताइं इमाई अट्ठारस ठाणाणि सम्मं पडिलेहितव्वाणि भवंति ॥ १ ॥ ५२३. इह खलु भो ! पव्वयियेणं० । इहेति इह जिणप्पवयणे पञ्चयियेणं, खलुसदो णवधम्म - 20 थिरीकरणत्थं तं विसेसेति, भो ! इति आमंतणसद्दो सव्वस्स एवं समुप्पण्णवत्थुगस्स अभिधाणे, पावातो पवत्तो अवक्कमितुं पव्वतितो तेण । सारीरं सी - उण्हादिनिमित्तं, माणसं इत्थि-सक्कारादिनिमित्तं, उप्पण्णमिदं उभयं दुक्खं जस्स तेण उप्पण्णदुक्खेण । सत्तरसविधे संजमे, अरती पुव्वभणिता, समावण्णं उवगतं, मती-बुद्धीविष्णाणं चित्तं, संजमे अरतिं समावण्णं चित्तं जस्स सो संजमे अरतिसमावण्णचित्तो, तेण संजमे अरतिसमावण्णचित्तेण । ओघाणं अवसप्पणं अवक्कमणं । तं कतो अवधा[व]णं ? जेण संजमे अरतीसमावण्णचित्तेणेति 25 पत्थुतं अतो संजमातो अवधावणं । तं अणुपेहेतुं सीलं जस्स सो अवधावणाणुप्पेधी, अब इति एतस्स पा ओकारो भवति एवं ओहाणुप्पेधी, तेण ओहाणुप्पेहिणा । एवं कयसंकप्पेण पढमं ओहावणाओ अणोहावितेण । एवसद्दो अवधारणे, णियमादणोहाइतेण, पच्छाचिंतणमवत्थं ( १ मणत्थगं ) । अट्ठारस ट्टाणाणि चिंतणीयाणि । ताणि य अणुच्चारेऊण तेसिं पभावोवदरिसणत्थं भणति - हयरस्सि - गतं कुस- पोतपडागारभूताइं हतो अस्सो तस्स १ सुसहा ॥ २ बच्ची सिद्धिं सं० । बच्चई सिद्धिं वी० सा० ॥ ३ 'पडागाभूयाई अधू० वृद्ध० विना ॥ ४ सम्मं सुप्पडि° खं १ हाटी० । सम्मं संपडि° खं २-३-४ जे० शु० ॥ 10 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “ कोलाहलब्भूतं महिलाए आसि पव्वतंतम्मि । " [ उत्तरा० भ० ९ गा० ५ ] अतो य भूताणि तस्स सरिस्साणि, एवं हयरस्सि-गतंकुस - पोतपडागारभूताई । इमाई अट्ठारस इमाणीति जाणि इह भणीहामि ताणि ह्रिदए काऊण पच्चक्खाणि भण्णंति, अट्ठारस इति संखाभिधाणं प्रतीतम्, ठाणाणीति सदवि अत्थवादी, तेण अट्ठारस द्वाणाणि अट्ठारस अत्था, जहा अण्णत्थ वि इच्चेतेहिं " चतुहिं ठाणेहिं जीवा णेरइगत्ताए कम्मं पकरेंति " [स्थानाङ्ग स्था० ४ सूत्र ३७३] । अतो इमाई अड्डारस ट्टाणाई जहा हयादीण 10 रस्सिमादीणि णियामकाणि तथा जीवस्स ओहावणकुचेट्ठातो नियत्तेऊण पुव्त्रभणिते भिक्खुभावे थावगाणि सम्मं इति एस णिवातो पसंसाए। सम्मं पडिलेहितव्वाणि संविभसितव्वाई, अतो पसत्थमेगीभावेण वियारणीयाणि भवंति ॥ १॥ २४८ णिज्जुत्ति- चुणि संजयं [पढमा रक्का चूलिया रस्सी खलिणं, सो त सुदष्पितो वि खलिगेण नियमिज्जति, इत्थी गतो तस्सावि लोहमयं मत्थयक्खणणमंकुसो, तेण सुमत्तो वि विणयं गाहिज्जति, जाणवत्तं पोतो, तस्स पडागारो सीतपडो, पोतो वि सीतपडेण विततेण वीची हिं ण खोभिजति इच्छितं च देसं पाविज्जति । इयादीण रस्सिमादयो नियामगा अतो पत्तेयं ते हि सह पढिजंति हयरस्सिगतंकुस - पोत पडागारा, भूतसहो इवसद्दसारिस्सवाची, जधा 5 15 20 ५२४. तं जहा - - हंभो ! दुस्समाए दुष्पजीवं १ | लहुस्सगा ईत्तिरिया गिहीणं कामभोगा २ । भुजो ये सादी बहुला मैणुस्सा ३ । इमे य मे दुक्खे चिरकालोवट्ठाती भविस्सति ४। ओमजणपुरक्कारे ५ । वंतस्स व पडियांइयणं ६ । अघरगतिवासोवसंपदा ७ । दुल्लभे खलु भो ! गिहीणं धम्मे गिहवासमझे वसंताणं ८ । औयंके से वैध होति, संकप्पे से वैधाए होति, सोवक्केसे गिहॅवासे ९ । णिरुवक्केसे परियाए १० । बंधे गिवासे ११ | मोक्खे परियाए १२ । सावज्जे गिवासे १३ । tra परया १४ | बहुसाधारणा गिहीणं काम - भोगा १५ । पत्तेयं पुण्ण-पावं १६। अँणिच्चे मणुयाण जीविते कुसग्गजलबिंदुचंचले १७ । बहुं च खलें पार्व कम्मं पगडं, पावाणं च खलु भो ! कडाणं कम्माणं पुव्वि दुच्चिण्णाणं दुप्परकंताणं वेदयित्ता मोक्खो, नत्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता, अंहारसमं पदं भवति १८ ॥ २ ॥ १ संक्मिर्षितव्यानि ॥ २ दूसमा खं ३ ॥ ३ दुप्पजीवी अचू० विना ॥ ४ इत्तरिया शु० ॥ ५ य सातिव खं ४ वृद्ध० । य सायब° खं १-२-३ ॥ ६ मणूसा खं १ ॥ ७ इमं च मे दुक्खं खं ३ अचू० वृद्ध० विना ॥ ८ य अचू० विना ॥ ९ 'यावियणं खं १-२ । 'थाहणं जे० । 'यायणं शुपा० ॥ १० 'गयवा' जे० ॥ ११ दुल्लंमे जे० ॥ १२ श्रीअगस्त्य सिंह पादविहितव्याख्यानुसारेण इदं नवमं पदं त्रिपदात्मकं वर्तते । वधस्य क्लेशसमानजातीयत्वात् क्लेशस्तु क्लेशोऽस्त्येवेति त्रिपदात्मकेऽस्मिन् नवमे पदे न कोऽपि विरोध इति । सम्प्रत्यनुपलभ्यमानप्राचीनत्रृत्तावपि इत्थमेव पदविभागो निर्दिष्ट आसीदिति श्रीअगस्त्य सिंह श्री वृद्ध विवरणका रोल्लिखिततद्गाथाकदम्बकान्तस्तथादर्शनाद् ज्ञायते ॥ १३-१४ वहाय अचू० विना ॥ १५-१६-१७ गिहिवा से शु० ॥ १८ अणि खलु भो ! मणु अचू० वृद्ध० विना ॥ १९ खलु भो ! पावं खं ३-४ हाटी० अव० ॥ २० दुप्पक्कि खं. १-२-३ शु० । दुष्परिक्कं खं ४ जे० ॥ २१ श्रीअगस्त्य सिंह पाद श्रीवृद्ध विवरणकार श्रीहरिभद्रसूरिचरणैः स्वस्वव्याख्यायाम् अवधावनाभिमुखनिर्ग्रन्यैः समचिन्तनीयानामेतेषामष्टादशानां पदानां विभागो भिन्नभिन्नप्रकारेण विहितोऽस्ति । तत्रागस्त्य सिंहपादैः स्वचूर्णी सम्प्रत्यनुपलभ्यमानप्राचीनतमदशवैकालिक सूत्रवृत्यनुसारेणाष्टादशानां पदानां विभागो विहितोऽस्ति । श्रीवृद्ध विवरणकृद्भिः तत्पक्षपातिभिश्च श्रीहरिभद्राचार्यैः समानरूपेण For Private Personal Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तं ५२४ ] दसकालियसुतं । २४९ ५२४. तं जहेति वयणोवन्नासे । [हंभो ! इत्यादि । ] गणधरादीण जे वां सीसजुते आयरिया तेसिं सीयमाणसीसामंतणमिमं, “ “हं ! भो ! हे ! हरे ! हंघो !” इति जं आमंतणपदं ण तस्स पयोगो, हंभो ! इति सिस्सामंतणं काऊणं संहितया उच्चारणं, दुस्समाए दुष्पजीवं समा संवच्छरो, कुच्छिता समा दुस्समा, तस्समुदायो कालविसेसो दुस्समा, तीए दुस्समाए दुप्पजीवं दुक्खं एत्थ पजीव साधणाणि संपातिज्र्ज्जति ईसरेहिं, किं पुण सेसेहिं ? | रायादियाण चिंताभरेहिं वणियाण मंडविणएहिं । सेसाण पेसणेहिं पजीवसंपादणं दुक्खं ॥ १ ॥ सुसाधणस्य विभवस्स अभावे मंदसुहेणं किं अधम्मसाधणघरत्थभावेण ? इति अधम्मसाहणभावे एवं अरती करणीया, सेयो इहभवे परभवे य जिणदेसितो धम्मो ति धम्मे रती । एतं धम्मे रतिनिमित्तमुपदेसवयणं पढमं च पदं ॥ १ ॥ तथा लहुस्सा इत्तिरिया गिहीणं ते ण संपुण्णे वि पुरिसाउसे तधाविधा, किमुत इमे पहुच ? समयत्तणओ रतो वि बहुविघातो, जतो य लहुसगा इत्तिरिया अतो आसेविजमाणा वि ण तण्हीकरेंति, जतो य एवं तम्हा धम्म 10 एव रती करणीया । तत्थ —कामा थीविसया, [भोगा सद्दादिविसया ।] अवि य- लहुसा इत्तरकाला कयलीगन्भवदसारगा जम्हा । तम्हा गिहत्थभोगे चतिऊण रतिं कुणह धम्मे ॥ १ ॥ बितियं ठाणं ॥ २ ॥ किंच पदविभागो विनिर्मितोऽस्ति । अपि च श्रीहरिभद्रपादैः स्ववृत्तावन्याचार्यीयसम्मतः पदविभागोऽपि निर्दिष्टोऽस्ति । एषोऽन्याच्चार्थीय पदविभागः प्राचीनतमवृत्त्यनुसारविहिताद अगस्त्य सिंहसूरिकृताद् भिन्न एवेति न ज्ञायते ' क एते अन्याचार्याः ?' इति । विश्व श्रीहरिभद्रसूरिनिर्दिष्टोऽन्याच्चार्थीयमतः श्रीअगस्त्यसिंहचूर्णौ वृद्धविवरणे च निर्दिष्टो न दृश्यते । श्रीहरिभद्रसूरिपादोल्लिखितः पदविभागभिन्नता - वेदकस्तद्वृत्तिगतः पाठोऽयम् " तथा 'प्रत्येकं पुण्य-पापम्' इति माता- पितृ- कलत्रादिनिमित्तमप्यनुष्ठितं पुण्य-पापं 'प्रत्येकं प्रत्येकं' पृथक् पृथग् येनानुष्ठितं तस्य कर्तुरेवैतदिति भावार्थः, एवमष्टादशं स्थानम् १८ । एतदन्तर्गतो वृद्धाभिप्रायेण शेषग्रन्थः समस्तोऽत्रैव । अन्ये तु व्याचक्षते — 'सोपक्लेशो गृहिवासः' इत्यादिषु षट्सु स्थानेषु सप्रतिपक्षेषु स्थानत्रयं गृह्यते, एवं च बहुसाधारणा गृहिणां कामभोगाः' इति चतुर्दशं स्थानम् १४ प्रत्येकं पुण्यपापमिति पञ्चदशं स्थानम् १५ । शेषाण्यभिधीयन्ते - तथा 'अनित्यं खलु' अनित्यमेव नियमतः 'भो !' इत्यामन्त्रणे 'मनुष्याणां पुंसां 'जीवितम्' आयुः, एतदेव विशेष्यते - कुशाग्रजलबिन्दुचञ्चलं सोपक्रमत्वादनेकोपद्रवविषयत्वादत्यन्तासारम्, तदलं गृहाश्रमेणेति सम्प्रत्युपेक्षितव्यमिति षोडशं स्थानम् १६ । तथा 'बहु च खलु भोः ! पापं कर्म प्रकृतम्' बहु च चशब्दात् क्लिष्टं च खलुशब्दोऽवधारणे, ‘बह्वेव पापं कर्म' चारित्रमोहनीयादि ' प्रकृतं ' निर्वर्त्तितम्, मयेति गम्यते, श्रामण्यप्राप्तावप्येवं क्षुद्रबुद्धिप्रवृत्तेः नहि प्रभूतक्लिष्टकर्मरहितानामेवमकुशला बुद्धिर्भवति, अतो न किञ्चिद् गृहाश्रमेणेति सम्प्रत्युपेक्षितव्यमिति सप्तदशं स्थानम् १७ तथा 'पापानां च ' इत्यादि, 'पापानां च ' अपुण्यरूपाणां चशब्दात् पुण्यरूपाणां च ' खलु भोः ! कृतानां कर्मणां खलुशब्दः कारितानुमतविशेषणार्थः, 'भोः' इति शिष्यामन्त्रणे, ‘कृतानां' मनो-वाक् काययो गैरोघतो निर्वर्त्तितानां 'कर्मणां ' ज्ञानावरणीयाद्यसातवेदनीयादीनां 'प्राक् ' पूर्वमन्यजन्मसु 'दुश्चरितानां ' प्रमाद - कषाय दुश्चरितजनितानि दुश्चरितानि, कारणे कार्योपचारात्, दुश्चरितहेतूनि वा दुश्चरितानि, कार्ये कारणोपचारात् एवं 'दुष्पराक्रान्तानां ' मिथ्यादर्शना-ऽविरतिजदुष्पराक्रान्तजनितानि दुष्पराक्रान्तानि, हेतौ फलोपचारात्, दुष्पराक्रान्तहेतूनि वा दुष्पराक्रान्तानि, फले हेतूपचारात्, इह च दुश्चरितानि मद्यपाना - लीला ऽनृतभाषणादीनि, दुष्पराक्रान्तानि तु वध-बन्धादीनि तदमीषामेवम्भूतानां कर्मणां 'वेदयित्वा' अनुभूय, फलमिति वाक्यशेषः, किम् ? 'मोक्षो भवति' प्रधानपुरुषार्थों भवति, 'नास्त्यवेदयित्वा' न भवत्यननुभूय, अनेन सकर्मकमोक्षव्यवच्छेदमाह, इष्यते च स्वल्पकर्मोपेतानां कैश्चित् सहकारिनिरोधतस्तत्फलादानवादिभिस्तत्, तदपि नास्त्यवेदयित्वा मोक्षः, तथारूपत्वात् कर्मणः, स्वफलादाने कर्मत्वायोगात्, 'तपसा वा क्षपयित्वा' अनशन प्रायश्चित्तादिना वा विशिष्टक्षायोपशमिकशुभभावरूपेण तपसा प्रलयं नीत्वा, इह च वेदनमुदयप्राप्तस्य व्याधेरिवानारब्धोपक्रमस्य क्रमशः, अन्यानिबन्धनपरिक्लेशेन, तपःक्षपणं तु सम्यगुपक्रमेणानुदीर्णोदीरणदोषक्षपणवदन्यनिमित्तप्रक्रमेणापरिक्लेशमिति, अतस्तपोऽनुष्ठानमेव श्रेय इति न किश्चिद् गृहाश्रमेणेति सम्प्रत्युपक्षिप्तव्यमिति 'अष्टादशं पदं भवति' अष्टादशं स्थानं भवति १८ ।” [दशवै० हरिभद्रवृत्तिः पत्र २७३-७४ ] उपर्युल्लिखितनृत्यंशसमीक्षणेन एतदपि प्रतिभाति, यत् - श्रीमतां हरिभद्रसूरिपूज्यानां वृद्धविवरणकृद्विहितपदविभागानुसारेण व्याख्यानेsपि नैव सम्यक्सन्तोष इति, अत एव अन्याचार्थीयपदविभागनिर्देशव्याजेनाग्रे तनपदव्याख्यानानुसन्धानमिति ॥ १ वा सजुत्ते मूलादर्शे ॥ २ "हं! ति भो ! ति सम्बोधनद्वयमादराय" इति वृद्धविवरणे ॥ ३ किं घरत्थभावेणेति अधम्मसाधणघ' मूलादर्शे ॥ दस० सु० ३२ 5 For Private Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 गिज्जुत्ति- चुण्णिसं जुयं [पढमा रक्का चूलिया भुजो य सादी बहुला मणुस्सा । भुज्जो इति पुणो पुणो साति कुडिलं बहुलमिति पायोवृत्ति, पुणो पुण कुडलहिया प्रायेण । भुजो य सातिबहुला मणुस्सा काम भोगनिमित्तं निसु वि भाति - पिति पुत्तपभितिसु सातिसंपओगपरा अविस्सभिणो य । अविस्सत्थहिययाग य किं सुहमिति धम्म एव रती करणीया । 15 २५० (C 'इमे य मे दुक्खे णचिरकालोवद्वाती भविस्सति । गुरवो संदिसंति-वत्स ! एवं चिंतय, इमे य मे इमे इति जं सारीर-माणसं परीसहोदयेण दुक्खमुप्पण्णं तं पच्चक्खं काऊण । चसद्देण इमं दुक्खमायतिसुहेण विसेसयति । इति अप्पाणं निद्दिस । दुक्खं अरतिकारगं, चिरं पभूतो कालो, ण तथा णचिरं, [णचिरं ] कालमुपट्टाणं जस्स तं चिरकालोद्वाणं । तं च कथं ? अच्भासजोगोपचितेण धितिवलेण परीसहाणीयं जिणिऊण विजितसामंतमंडल 10 इव राया सुहं संजमरनपभुत्तं करेति । इह पुण परीसह पराजितस्स णरगादिसु दुक्खपरंपरा एव अतो धम्मे रमितव्वं । दुक्खं परीसहकतं नवधम्माणं विसेसतो जम्हा । तम्हा दुक्खमणागतमणिच्छमाणा रमह धम्मे ॥ १ ॥ ऐका ॥ लहुगभोगनिमित्तं परातिसंघणपरा जयो मणुया । विस्संभसुहविमुक्का य तेण धम्मे रतिं कुह ॥ १ ॥ ततियं ठाणं ३ ॥ तहा किश्च - ओमजणपुरकारे । ओमो ऊणो, जणो लोगो, ओमो जणो ओमजणो, सक्कार एव पुरक्कारों, ओमजणस्स ओमजणेण वा पुरक्कारो ओमजणपुरक्कारो । धम्मे ठितो पभूण वि पुज्जो, ततो चुओ पुण ओमजणमवि अब्भुट्टाणा -ऽसणपदाण - अंजलिपग्गहादीहिं सेवाविसेसेहिं पुरेकरेति, एतं ओमजणपुरक्करणं । अवा अग्गतो करणं पुरकारो, धम्मभट्टो रायपुरिसेहिं पुरतो कातुं विद्विमादीणि कारिजति, एवं ओमजणाओ वि परिभवकतं पुरतोक्कारं पावति, एस ओमजणातो पुरक्कारो । ओमजणपुरक्कारो धम्मातो चुतस्स जेण संभवति । परपरिभव परिहरणा य तेण धम्मे रतिं कुना ॥ १ ॥ र्तृ ॥ तहा - वंतस्स व पडियाइयणं । अण्णमन्भवहरिऊण मुद्देण उग्गिलियं वतं, तस्स पडिपियणं ण कयायि हितं भवति, तं आयीयरसं ण बल-वण्ण उच्छाहकारि, विलीणतया य पडिएति, वग्गुलिवाहिं वा जणयति, कोढं वा उव20 रिभागसमावृत्तदोसस्स, गरहितं च तहागतस्स पाणं वंतस्स य पडियातियणमिति । एत्थ इवसदस्स अत्थो - पव्वयपकाले सव्वा परिचत्ताण भोगाण पुणरासेवणं वंतभोयण - पाणसरिसं गरहादिदोसदूसियं । सुलसाकुलप्पसूता अगंधणा रोसवससमुग्गिणं । उच्चित्रं न भुयंगा पिबंति पाणञ्च विविसं ॥ १ ॥ अतो वंतपडियातियणसरिसं भोगाभिलासं मोत्तृण धम्मे रती करणीया फ्रें ॥ तहा य पमादिणो- अधरगतिवासोवसंपदा । अधो गतिः अधरगतिः, जत्थ पड़ते कम्मा दिभारगौरवेण ण सक्का धारेतुं सा 25 अधरगतिः, सा पुण णरगगतिरेव, तत्थ वासो अधरगतिवासो, तं उवसप्प संपजणं उवसंपनणं अधरगतिवासोवसंपया । सा कथं ? पुत्तदारस्स कते हिंसादीणि कूरकम्मादीणि अधरगतिमुवसंपजंति, इहावि सी - उन्ह-भय-परिस्समविप्पयोग-पराधीणत्तणादीणि णारगदुक्ख सरिसाणि वेदेंति । णरयाउयं निबंधति णरयसमाणि य इहेव दुक्खाणि । पावति गिदी वरागो जं तेण वरं रती धम्मे ॥ १ ॥ ॥ प्रायेण णरकगतिजोग्गकम्मकारीण दुल्लभे खलु भो ! गिहीणं धम्मे गिहवासमज्झे वसंताणं । १ अत्राष्टादशपदचूर्णि सन्दर्भे श्रीमद् गस्त्य सिंह पादाः तत्तत्पदसमाप्तिस्थाने प्रचलितान् ४, ५, ६, ७, ८, ९ प्रभृतीनङ्कान् विहाय का, र्ट, फ, ग्रह, उ प्रमुखैरक्षरास्तत्तत्स्थानसङ्ख्यां निर्देक्ष्यन्तीति नात्रार्थं भ्रान्तिराधेया । अत्र एका अक्षरेण चतुःसङ्ख्या ज्ञेया । एवमग्रेऽपि यथाक्रममक्षराङ्केण पदसङ्ख्या ज्ञेयेति ॥ २ र्तृ पञ्चेत्यर्थः ॥ ३ फ्रं षडित्यर्थः ॥ ४ ग्र सप्तेत्यर्थः ॥ For Private Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तं ५२४] दसकालियसुत्तं । २५१ दुक्खं लभते दुल्लभो पमादबहुलत्तणे सति । भो ! इति तधेवाऽऽमंतणं । गिहाणि संति जेसिं ते गिहिणो तेसिं । दुग्गतिपतणधारणातो धम्मो दुल्लभी पुणबोधिरूवो । धम्मालाभे य दुक्खपरंपरा इति सुहनिमित्तं धम्मे रती करणीया। दुलहो गिहीण धम्मो गिहत्थवासे पमादबहुलम्मि । मोतूण गिहेसु रतिं रतिपरमा होह धम्मम्मि ॥१॥हं॥ अयमवि गिहवासमझावसंताणं दोसो। तं जहा... आयंके से वधाए होति । सूलादिको आसुकारी सरीरवाधात्रिसेसो आतंको । समाणजातीयवयणेण रोगो- 5 पादाणमवि, सो पुण कुट्ठादिको दीहो रुयाविसेसो। सो य गिहनासमझावसंताणं आहार-विसमज्वरादि-भारवहणायासा-ऽसीलणि सेव गातो । आयंके से वधाए होति । रोगा-ऽऽतंका य ऐहिकसुखाणुभवणविग्धभूता इति धम्मे रतेण भवितव्वं। दुलभं गिहीण धम्मे सुहमातंकेहि विग्धितसमग्धे । तम्हा धम्मम्मि [रति] करेध विरता अहम्मातो ॥१॥ किञ्च-संकप्पे से वधाए होति। आतंको सारीरं दुक्खं, संकप्पो माणसं । तं च पियविप्पयोगा-510 णिसंवास-सोग-भय-विसादादिकमणेगहा संभवति । इटाण वि सण्णेज्झे सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधाणं । का मणुयसुहम्मि रेती अरति-भय-विओयविरसम्मि ॥१॥ एवं च विसेसेण धम्मे रती करणीया, जतो सोवकेसे गिहवासे । सह उवक्केसेहिं [ सोवक्केसे ] । उवक्केसा पुण-सी-उण्ह-भय-परिस्सम-किसि-पसुपालवाणिज-सेवादयो णेह-लवण-तंडुला-ऽऽच्छादणसमुप्पायणे वहवे परिकेसा इति सोवक्केसे गिहवासे । तमेवंगतं जाणिऊण : धम्मे रती करणीया ॥ वित्तिविधाणनिमित्तं सोवक्केसो जतो घरावासो । मोत्तूण घरावासं तम्हा धम्मे रत्तिं कुञा ॥१॥ॐ॥ ततो विरुद्धधम्मे य णिरुवक्केसे परियाए । निग्गतो उवक्केसो जतो सो णिरुवक्केसो पुव्वभणितोवक्केसविरहिततया । सव्वतो आतो परियातो, समंतयो पुण्णागमणं । पव्वजासहस्सेव अवन्भंसो परियातो, तत्थ उवक्केसो ण संभवतीति 20 [धम्मे] रती करणीया । णिरुवक्केसायासो परियायो जं इहेव पञ्चक्खं । परियाते तेग रतिं करेह विरता अधम्माओ ॥१॥ले.॥ दुलभधम्मे य सदारंभपरे बंधो गिहवासो। बंधणं बंधो । गिहेसु वासो गिहवासो । गिहं पुण दारभेव, दारभरण-पोसणनिमित्तमसुहकम्मपवत्तस्स कोसकारकीडगस्सेव कोसगेण अट्टविहमहाकम्मकोसेणं संभवति बंधी, अतो तेण बंधहेतुभूतातो 25 गिहवासातो विरतेण सदा धम्मे रती करणीया । घरचारगवंधातो कम्मट्टगबंधहेतुभूतातो । विरमह रतिं च धम्मे करह जिणवीरभणितम्मि ॥१॥ लैं१॥ परिचत्तसव्वारंभे य --मोक्खे परियाए । विमोत्ती मोक्खो । परियातो पुब्वभणितो। तम्मि परियाए सति अट्ठविधकम्मणिगलसंकलासु झाणपरसुप्पयोगविषयासु जीवस्स सतो भवति णिरवायो मोक्खो परियाए। १ ह अष्टावित्यर्थः ॥ २ रती माण-भय' वृद्धः ॥ ३ ॐ नवेत्यर्थः ॥ ४ ल० दशेत्यर्थः ॥ ५ लु१ एकादशेत्यर्थः। ६ ध्यानपरशुपयोगविहताम्॥ Jain Education Intemational Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 णिज्जुत्ति- चुण्णि संजयं [ पढमा रइवक्का चूलिया घरवासम्मि य बंधो मोक्खो संभवति जेण परियाए । मोक्खत्थं तेण रई धम्मे जिणदेसिए कुह ॥ १ ॥ २ ॥ एवं च तत्थ बंधो संभवति जतो -- सावज्जे गिहवासे । सह अवज्रेण सावज्जं । अवज्जं पुण गरहितं । तं च पाणवध मुसावादे अदत्त मेहुण परिग्गहे चेव । एतमवेचं भणितं सह तेण उ होति सावज्रं ॥ १ ॥ 5 अधवा “मिच्छत्तं अविरति ० " गाधा || २ || र्ले ३ ॥ ततो वैधम्मेण - अणवज्जो परियायो । पाणातिवातादिअवजविरहितो अणवज्जो परियायो । सावज्जो गिद्दवासो अणवज्जो जेण होति परियाओ । तेणाणवज्जमोक्खत्थताए धम्मे रतिं कुणह ॥ १ ॥ र्लेका ॥ किंच—जेसिं कते कम्मबंधणमिच्छति ते--बहुसाधारणा गिहीणं कामभोगा । सामण्णं साधारणं, बहूहि चोर-ऽग्गि-तक्कर- रायकुलादीहि सामण्णा बहुसाधारणा, एवंविधा गिहीणं कामभोगा । न यतित्तिक भोगा बहुजणसाधारणा य जं कामा । तम्हा नीसामण्णे होतु रती मे थिरा धम्मे ॥ १ ॥ लृर्तृ ॥ साधारणाण भोगाण उवज्जणे जं कम्ममारभते तं पुण -- पत्तेयं पुण्ण-पावं । एगमेगं प्रति पत्तेयं, दारा-5 वच्च-सयण-मित्तादीण वि अत्थे कतं कम्मं पावं जो कारओ तमेवाणुयाति, ण दारादीणमण्णमेगं संविभागेण वा । एवं पुण्णमवि । 15 २५२ दादी व अत् तस्स पत्तेयमेव संबंधो। मोत्तूण दारमादीणि तेण धम्मे मतिं ( रतिं ) कुणह ॥ १ ॥ ॥ काम-भोगाण आराध(धार)णभूता आउ-प्राणा, ते य जीवितं । सेविय I अणि मणुयाण जीविते । णियतं णिचं, ण णिचमणिच्चं । मणुया मणुस्सा एव, तेसिं जीवितमणिच्चं । खणिकताविसेसता दिट्ठतेण निदरिसिज्जति -- कुसग्गजलबिंदुचंचले दब्भजातीया तृणविसेसा कुसा, तेसिं अग्गाणि सुसण्हाणि भवंति, तेसु ओस्सायातिजलबिंदवो अतीव चंचला मंदेणावि वादुणा प्रेरिता पडंति, तहा मणुयाण जीविते अप्पेणावि रोगादिणोवक्कमविसेसेण संखोभिते विलयमुपयाति, अतो कुसग्गजलबिंदुचंचले । एवं20 गते जीविते को कामभोगाभिलासो १ इति धम्मे रती धारणीया । जीक्तिमवि मणुयाणं कुसग्गजलबिंदुचंचलं जम्हा । तम्हा का मणुयभवे रति त्ति धम्मे रतिं कुणह ॥ १ ॥ लेग्र ॥ कुसग्गजलबिंदुचंचलस्स जीवितस्स अत्थे - 1 बहुं च खलु पावं कम्मं पगडं, पावाणं च खलु भो ! कडाणं क्रम्माणं पुत्र्वि दुचिण्णाणं तुप्परकंताणं वेदयित्ता मोक्खो, नत्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता । बहुं पभृतं । चसदो पुव्दकारण25 समुच्चये । खल्लुसद्दो विसेसणे । एवं विसेसयति--पावं सव्वं कम्मं कम्मं पुण पुष्णं पावं च, तं बहुं च पावं कम्मं पगडं पगरिसेण कडं पकडं । पावाणं च खलु, इह खलुसद्दो पूरणे, भो ! इति सीसामंतणं, कडाणं सयमुपचिताणं, पुर्वित्र पढमकालमणंतेसु भवग्गद्दणेसु राग-दोसवसगतेहिं दुड्डु चिण्णाणं दुचिण्णाणं, पुव्वमेव मिच्छादरसणा-ऽविरती प्रमाद - कसाय - जोगेहिं दुहुपरकंताणं दुप्परकंताणं, तेसिं वेदणेण तेहिंतो मोक्खो अतो वेदइत्ता मोक्खो | अवंझाण अवझओपदरिसणत्थं भण्णति - णत्थि अवेदयित्ता । फुडाभिहाणत्थं वा अपुणरुतं, जहा १ ऌ २ द्वादशेत्यर्थः ॥ २ 'वज्जं सह तेग होति तम्हा उ सावज्जं वृद्ध० ।। ३ इयं हि गाथा कुतोऽपि शास्त्रान्तरान्नोपलब्धेति न पूरिता ॥ ४ लु ३ त्रयोदशेत्यर्थः ॥ ५ र्लण्का चतुर्दशेत्यर्थः ॥ ६ ले पञ्चदशेत्यर्थः ॥ ७ ऌफ पोडशेत्यर्थः ॥ ८ आधारभूता वृद्धविवरणे ॥ ९ अवश्यायादिजलबिन्दवः || १० र्लग्र इति सप्तदशेत्यर्थः ॥ ११ अवन्ध्यतोपदर्शनार्थम् ॥ For Private Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ५२५] दसकालियसुत्तं । २५३ कोडल्लए " क्रिया हि द्रव्यं विनयति नाद्रव्यम्" [१.४.५.] एवं वेदयित्ता मोक्खो, नत्थि अवेदयित्ता [इति] ण पुणरुत्तया । अधवा तवणं वारसविहेण जिणोवइटेण तवसा वा झोसइत्ता झूसणं निदहणं, तहा वा मोक्खो। तत्थ जं वेदयिता विमोक्खणं तमुदयपत्तस्स कम्मुणो महापरिकलेसेण, तवसा तु असणं अणुदिण्णोदीरणदोसनीहरणमिव लहुतरं । अणुभवणेण य विमोक्खणे आसयसंताणेण पुणरुपचय इति दरिदरिणसमुद्धरणदाणे इव अणमोक्ख एव । अतो कम्मनिजरणत्थं तवसि समासतो वा दसविधे समणधम्मे करणीया रती। जं मुञ्चति अणुभवणेण जदि व तवसा कडाण कम्माण । तम्हा तबोधणोवजणम्मि धम्मे रतिं कुणह ॥१॥ लह ॥ एवं धम्मे रतिजगणवयणं अट्ठारसमं ति ठाणं, एतदेव अट्ठारसमं पदं भवति ॥ एत्थ इमातो वृत्तिगतातो पदुईसमेत्तगाधाओ । तं जहा दुक्खं च दुस्समाए जीवियुं जे १ लहुसगा पुणो कामा २। सातिबहुला मणुस्सा ३ अचिरटाणं चिमं दुक्खं ४ ॥१॥ ओमजणम्मि य खिंसा ५ वंतं च पुणो निसेवियं भवति ६ । अहरोवसंपया वि य ७ दुलभो धम्मो गिहे गिहिणो ८ ॥२॥ नियति परिकिलेसा ९ बंधो ११ सावजजोगि गिहवासो १३ । एते तिण्णि वि दोसा न होति अणगारवासम्मि १०।१२।१४ ॥३॥ साधारणा य भोगा १५ पत्तेयं पुण्ण-पावफलमेवं १६। जीयमवि माणवाणं कुसग्गजलचंचलमणिचं १७ ॥४॥ णत्थि य अवेदयित्ता मोक्खो कम्मस्स निच्छओ एसो १८।। पदमट्ठारसमेतं वीरवयणसासणे भणितं ॥५॥ सविसेसमुपदिडेसु रतिवक्कादेसु पडिसमाणणत्थमुत्तरपडिसंधाणत्थं च भण्णति—अट्ठारसमं पदं भवति ॥२॥ ५२५. भवति य एत्थ सिलोगो जता य जैधती धम्म अणज्जो भोगकारणा। से तत्थ मुच्छिते बाले आतती णावबुज्झति ॥ ३॥ ५२५. भवति य एत्थ सिँलोगो। भवति विजते। चसद्दो समुच्चये । एत्थेति एतम्मि चेव धम्मरतीवयणे पदोवदिस्स अत्थस्स सदिटुंतस्सोवदंसणत्थं सिलोगो । तं जधा-- 25 20 १“अणुभवणेण विमोक्खणं असंतत्तणेणं दरिहरिणसमुद्धरणमिव अणमोक्ख एव।" इति वृद्धविवरणे पत्र ३५८ ॥ २ “गुणभवणे रिणमो खो जइ वा तवसा कडाग कम्माणं । तम्हा तवोबहाणे अज्जेतवे रतिं कुणह ॥ १॥” इतिरूपा गाथा वृद्धविवरणे ॥ ३ लह इति अष्टादशासूचकोऽक्षराङ्कः अष्टादशेत्यर्थः ॥ ४ “निवयंति परिकिलेसा ९" इति गाथापूर्वार्द्धन सोपक्लेशः ९ बन्धः ११ सावद्ययोगः १३ इति नवमैकादश-त्रयोदशानां दोषरूपाणां त्रयाणां पदानां ग्रहणम् , “एते तिणि वि दोसा" इत्युत्तरार्द्धन च निरुपलेशः १० मोक्षः १२ अनवद्यभावः १४ इति दशम-द्वादश-चतुर्दशाना दोषाभावरूपाणां त्रयाणां पदानां सङ्ग्रह इति ज्ञेयम् ॥ ५ चयइ सर्वासु सूत्रप्रतिषु ॥ ६ भवियत्थ पत्थ मूलादर्श ॥ ७ “भवति चात्र श्लोकः" अत्रेति अष्टादशस्थानार्थव्यतिकरे, उक्ता-ऽनुक्तार्थसङ्ग्रहपर इत्यर्थः, श्लोक इति च जातिपरो निर्देशः, ततः श्लोकजातिरने कभेदा भवतीति प्रभूतश्लोकोपन्यासेऽपि न विरोधः।" हरिभद्रपादाः स्ववृत्ती॥ Jain Education Interational Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पढमा रवइक्का चूलिया जता य जधती धम्म०मिलोगो। जता इति जम्मि चेव काले, चसदो पुव्वभणितकारणसमुच्चये, धम्मो सुतधम्मो चरित्तधम्मो य, तं जता जधति परिचयति । ण अजे अणजा मेच्छादयो, जो तधा चट्ठितो सो अणज इव अणजो। तं किमत्थं परिचयति ? माणुस्सगकाम-भोगनिमित्तं भोगकारणा। से तत्थ, से इति जो धम्मपरिचागकारी तत्थेति तीए लहुसगकाम-भोगलिच्छाए मुच्छिते गढिते अज्झोववण्णे बाले इति जे मंदविण्णाणे आतती 5 आगामी कालः तं णाववुज्झति, आततिहितं आयतिक्षममित्यर्थः णावबुज्झति ण परियच्छति । केयी भणंति-.. आयती गौरवं तं णाववुज्झति जधा-मम सामण्णपरिभट्ठस्स एवं मंदा आयतीति ॥ ३॥ अणवबुद्धायतीको य कामभोगमुच्छितो धम्म परिचतिऊण ५२६. 'जदा य ओधातियो होति इंदो वा पंडितो छमं । सव्वधम्मपरिभट्ठो स पच्छा परितप्पति ॥ ४ ॥ 10 ५२६. जदा य ओधातियो० सिलोगो। जदा य जम्मि काले । चसहो पुवकारणसमुच्चये ओधावणं अवसपणं, तं पुण पव्वजातो जता अवसरितो भवति । तस्स ओहातिधस्स सतो अवत्थंतरनिदग्मिणत्थं भण्णति-इंदो वा पडितो छमं इंदो सक्को देवेसो, वा इति उवमा, पडितो परिभट्टो, छमा भूमी तत्थ पडितो। जंघा धिधं इंदस्स महतो विभवातो पचुतस्स भूमिपडणं तथा तस्स परमसुहहेतुभूतातो जिणोवदिहातो धम्मातो अवधावणं । एवं च सव्वधम्मपरिभट्ठो जं चिरमवि वतधारणं कतं जावजीवितपइण्णालोवे तं निप्फलं, कतं पुण्णं सव्वं परिभट्ट 15 भवति । अहवा जे लोइया पुण्णपरिकप्पणविसेसा तेहिंतो वि परिभो सवधम्मपरिभट्टो। पमातित्तणेण सायगधम्मातो वि भट्ठो। काम-भोगसाधणविरहितो रागोदयावसाणे स पच्छा परितप्पति स इति धम्मपरिचागी पच्छा इति उत्तरकालं सारीर-माणसेहिं दुक्खेहिं सव्वतो तप्पति परितप्पति॥४॥ ओहाइयस्स इहभव एवाणेगदोसणिदरिसणत्थं पुणो भण्णति ५२७. जता य वंदिमो होति पच्छा होति अवंदिमो । 20 देवंता वा चुता ठाणा स पच्छा परितप्पति ॥ ५ ।। ५२७. जता य वंदिमोहोति सिलोगो। जता इति एस निवातो, यस्माद् एतस्स अत्थे वट्टति । चसद्दो इंदस्स छमापडणसमुच्चये, तहाजातीयं चेव इदमवि। वंदिमो वंदणिजो, 'सीलत्थितोऽय ' मिति राय-रायमत्तादीणमवि वंदणारिहो। तहाहोऊण सीलपरिक्खलणाणंतरं पच्छा 'सीलगुणविरहितो' इति होति अवंदिमो सक्कार समुचितो ण । तदलाभे देवता वा चुता ठाणा देवता इति पुरंदरं मोत्तूण अण्णो देवविसेसो सट्ठाणातो परिपडतो 25 माणसं महादुक्खमणुभवति । वासद्दो उवमाणत्थस्स इवसदस्स अत्थे, तेण जधा सा देवता देवताठाणातो चुता एवमेव सो ओधावितो संजमावसप्पणातो अणंतरं पच्छा माणसातिगेण दुक्खेण समंततो तप्पति ॥ ५॥ इंद-देवतापडणातो अपञ्चक्खातो फुडतरं पञ्चक्खमोधावणदोसनिदरिसणमुब्भावितेहिं भण्णति५२८. जता य पूतिमो होति पच्छा होति अपूतिमो । राया व रज्जपन्भट्ठो स पच्छा परितप्पति ॥ ६ ॥ १ जया ओहाविओखं ३ जे० विना सर्वान सूत्रप्रतिषु हाटी• अव० ॥ २ पलितो जे० ॥ ३ यथा ह्यत्र ॥ ४ देवया व चुयट्ठाणा सं १-२-४ जे हाटी, अवः । देवया व चुया ठाणा शु० । देवया वऽभुयट्ठाणा खं: ॥ ५ अवंदणीओ मूलादर्श ॥ Jain Education Intemational Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ५२६-३०] दसका लियसुतं । २५५ ५२८. जता य पूतिमो होति० सिलोगो । जतासदो चसदो य पुव्वभणिता । पूयिमो पूयणारिहो यदुक्तं पूज्यो होति जं एवं स भवति । ओहावणाणंतरं च पच्छा स भवति अतधाभूतो अपूतिमो । पूयणसुहलालितो तस्साभावे राया व रज्जप भट्ठो राया इव राया व, जधा कोति मंडलिकं महामंडलिकं सव्वभूमिपत्थिवत्तणं वा पाविऊण पुणो अपुण्णोदयमणुभवमाणो केणति कारणेण ततो रज्जातो अच्चत्थं भट्टो पन्भट्ठो परितप्पति, तथा सो पूजणीयो अपूयणीयत्तमुवगतो समणधम्मपन्भट्ठो पच्छा परितप्पति ॥ ६ ॥ जधा रायत्थाणपरिब्भंसातो तहा अण्णतो 5 महामणुस्सत्थाणातो अवसातिनमाणरस महादुक्खमेव भवति त्ति निदरिसंतेहि भण्णति ५२९ जता य माणिमो होति० सिलोगो । जता इति सह चसद्देणोववण्णितं । तत्थ माणिमो महणणजोग्गो माणणीयो । जता सो सीलप्पसादेण महतामवि माणणीयो, अतहाभूतो पच्छा स भवति [ अमाणिमो 10 अमाणणीयो,] तदाऽस्मात् माणणीयभावविगमात् सेट्ठि व्व कबडे छूढो रायकुल लद्धसम्माणो समाविद्धचेणो वणि गाममहत्तरो य सेट्ठी, चीड-चौबग-कूडस क्खिसमुब्भावित दुव्ववहारोंरंभं कब्बडं, जहा सेट्ठी तम्मि छूढो विभवहरणा-ऽयसमितो परितप्पति । अधवा कब्बडं कुणगरं, जत्थ जल-थलसमुब्भवविचित्तभंडविणिओगो तिमि एत्थ वसितव्वं 'ति रायकुलणिओगेण छूढो कयवियाभावे विभवोपभोगपरिहीणों जधा सो, तधा साधुधम्माभिनंदिणा जणेण पुव्विं माणितो धम्मपरिब्भट्ठो माणणाभावे स पच्छा परितप्पति । अंजलि पग्गह- 15 सिरकम्मा - Ssसणप्पदाणादि महंततरे जोग्गं वंदणं, वैत्थ-भत्तादिप्पदाणमुभयजोग्गं पूयणं, सदाणगुणुक्कित्तणामुण्णतिकरणं जुवजोग्गं माणणं, वंदण- पूयण- माणणाणं अध विसेसो ॥ ७ ॥ धम्मपरिच्चागाणंतरं वंदण-पूयणमाणणविरहितस्स जधा पच्छातावदुक्खं भवति तमुवदि । उत्तरकालमवि वयोपरिणाम-तग्गतकिले सोवद रिसणत्थं भण्णति ५२९, जता य माणिमो होति पच्छा होति अमाणिमो । सेट्टि व कब्बडे छूढो स पच्छा परितप्पति ॥ ७ ॥ - ५३०. जता य थेरयो होति समतिक्कंतजोव्वणो । मँच्छो गलं गिलित्ता वा स पच्छा परितप्पति ॥ ८ ॥ ५३०. जता य थेरयो होति० सिलोगो । जता जम्मि काले । चसो पुव्वभणितपच्छातावकारणसमुच्चये । पढमवयपरिणामेण थेरयो होति दूरसमतिक्कंतजोब्वणो । निदरिसणं-से मच्छो गलं गिलित्ता वा जलचरसत्ताविसेसो मच्छो णाम थोवेोवजीवि व्व बडिसामिसबद्धलोभेण गलमब्भवहरिऊण गलगे सुतिक्खलो हकीलगविद्धो थलमुवणीयो गलगिलणातो पच्छा परितप्पति । एवं सो बलिसा - ऽऽमिसत्थाणीयमंदकामभोगाभिलासेण 25 धम्मपरिचागी पच्छा परितप्पति ॥ ८ ॥ थेरभावे जधाजातीयाणि विसेसेण दुक्खाणि संभवंति तदुपदर्शनार्थ भण्णति १ सेट्ठीव क° खं ४ जे० । सेट्टी वा क सं १ ॥ २ वाडवोवगकूड वृद्ध० ॥ ३ 'रारंभो मूलादर्श ॥ ४ 'कयभावविव्भयोभोग मूलादर्श ॥ ५ " वत्थ पत्तादिप्पयाण " वृद्ध० ॥ ६ परिमाणत मूलादर्श | ७ मच्छो व्य गलं गिलित्ता स खं १-२-३-४ जे० शु० हाटी० भव० । खं ४ व । जे० गिलं । शु० गलिं ॥ ८ थोत्रोच जीवोवजिव्व पडिसा मूलादर्श | 20 For Private Personal Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [पढमा रइवका चूलिया ५३१. पुत्त-दारपंरिक्किण्णो मोहसंताणसंतयो । पंकोसण्णो जहा णागो स पच्छा परितप्पति ॥९॥ ५३१. पुत्तदारपरिकिण्णो० सिलोगो । पुत्ता अवच्चाणि दारा भजा, पुत्त-दुहिता-भज्जातीहिं संबंधीहिं परिकिण्णो परिवेढितो । तेहिं परिकिण्णो दंसण-चारित्तमोहणमणेगविधं कम्मं अविष्णाणं च मोहो तस्स संताणो 5 अवोच्छित्ती तेण मोहसंताणेण समधिट्टितो मोहसंताणसंतयो। निदरिसणं--पंकोसण्णो जहा णागो पंको चिक्खल्लो तम्मि खुत्तो पंकोसण्णो, जधा इति जेण प्रकारेण णागो इति हत्थी । जधा परिजिण्णो हत्थी अप्पोयग पंकबहुलं पाणियत्थाणमवगाढा अणुवलब्भ पाणियं पारं च 'किमहमवइण्ण ?' इति परितप्पति, तथा सो ओहाइओ पच्छा थेरभावे पुत्त-दारभरणवावडो परिहीणकामभोगासंगो उत्तरकालं समंतयो तप्पति ॥९॥ थेरभावपरिहीणुच्छाहो पुत्त-दारभरण-पोसणासमत्थो धातुपरिक्खयपरिहीणकामभोगपिवासो पञ्चागतसंवेगो संजमाधिकारणट्टचेट्टो बहविधमणु10 तप्पमाणो विसेसेण इमं ओधावणपच्छाणुतावगतं चिंतयति । जधा ५३२. अज याहं गणी होंतो भावितप्पा बहुस्सुतो। जति हं रमंतो परियाये सामण्णे जिणदेसिते ॥१०॥ ५३२. अन्ज याहं गणी होतो० सिलोगो। अज सो गणी सूरिपदमणुप्पत्तो अहमज्ज होतो। सम्मदंसणेण बहुविहेहि य तवोजोगेहि अणिच्चयादिभावणाहि य भावितप्पा। परिसमत्तगणिपिडगज्झयणस्सवणेण य विसेसेण य 15 बहुस्सुतो। अतिपण्णा एसा क्रिया इति भण्णति--जति हं रमंतो जदि त्ति [अतिक्रान्तक्रियामासंसति, अहमिति अप्पाणमेव निद्दिसति, रमंतो इति रतिं विदंतो। परियाओ णाम तहाप[व]जपरिणती, अधवा प्रवज्यासहस्स अवभंसो परियाओ। बहुविधाओ पव्वजाओ ति विसेसिजति--सामपणे सो य समणभावो तत्थ। पुणो विसेसोजिणदेसिते, ण बोडिग-णिण्हगादिसच्छंदगाहे ॥१०॥ जरापरिणतोधावितपच्छाणुताववयणनिदरिसणपसंगेणा णंतरसिलोगसुत्तं। इमं तु भगवतो अजसेजंभवस्स तदपराणं च गुरूण ओहाणुप्पेहीसिस्समतिथिरीकरणत्थमामंतण20 पुव्वं वयणं ५३३. सोम्ममुहा! देवलोगसमाणो तु परियाँओ महेसिणं । रताण अरताणं तुं महाणिरयसाँलिसो ॥ ११ ॥ ५३३. सोम्ममुहा ! । देवलोगसमाणो तु० सिलोगो। देवाणं लोगो देवलोगो, सो पुण देवदत्तणमेव, 25 तेण समाणो तत्तुल्लो । जधा पधाणेसु देवलोगेसु विसेसेण माणसाणि दुक्खाणि न संभवंति तथा पबनाए वि घिति १ एतत्सूत्रश्लोकात् प्राक् सर्वासु सूत्रप्रतिषु अयं सूत्रश्लोकोऽधिको दृश्यते--जया य कुकुडूंबरस कुतत्तीहि विहम्मद । हत्थी व बंधणे बद्धो स पच्छा परितप्पड ॥ नायं सूत्रलोकः अगस्त्यचूर्णी वृद्धविवरणे हरिभद्रसूग्वृित्तौ च व्याख्यातोऽस्ति । यद्यपि मुद्रितहरिभद्रवृत्तौ अस्य सूत्रश्लोकस्य व्याख्या वर्तते, किञ्च प्राचीनतमेप्वादशेषु नोपलभ्यतेऽस्य व्याख्या । अवचूरीकृता सुमतिसाधुना तु एष श्लोको व्याख्यातो दृश्यत इति ॥ २ परिकिण्णो खं ३ अचू• विना सर्वासु सूत्रप्रतिषु । परीकिण्णो वृद्ध० ॥ ३ ज ताऽहं वृद्ध० हाटी० अव० । अज्जत्ते हं वृद्धपा० ॥ ४°याओ य महेसिणो जे०॥ ५ च सर्वासु सूत्रप्रतिषु हाटी. अव० ॥ ६ हानरय° खं २ शु० वृद्ध० हाटी० अव० ॥ ७ सारिसो खं ४ वृद्ध० ॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ५३१-३५ ] दसका लियसुतं । २५७ 1 मतो, तेण देवलोगसमाणो तु । तुसद्दो विसेसणे, अरतेहिंतो परियायते विसेसयति । परियाओ पुव्वभणितो । मसिणं ति तत्थ ठिता महरिसिणो भवति । एवं सद्धासमणुगताणं परियागरताणं । तव्विवरीयाणं अरताणं, तुसद्दी तहेव, रतेहिंतो अरते विसेसेति । निदरिसणं मणोदुक्खा णुगमेण - महाणिरयसालिसो महाणिरयो जो सन्भावणिरयो, ण तु मणुस्सदुक्खे उवयारमत्तं, असत्तमादी वा महाणिरयो, तेण सारिस्सं जस्स सो महाणिसारिस्सो, साaaii महाणिरयसालिसो ॥ ११ ॥ एवं तस्स अरतस्स सामण्णपरियाए सामण्णे रताण 5 अनाणं च सुहं दुक्खं च सहोपमाणेण भणितं । एतस्स चेव अत्थस्स उवसंहरणोवदेसत्थमुण्णीयते- ५३४. अमरोवमं जाणिय सोक्खमुत्तिमं रयाण परियाए तहाऽरताणं । णिरैयोवमं जाणिय दुक्खमुत्तमं रैमेज्ज तम्हा परियोंए पंडिए ॥ १२ ॥ ५३४. अमरोवमं जाणिय सोक्ख० वृत्तम् । मरणं मरो, ण जेसिं मरो अत्थि ते अमरा, अमराण सोक्खं अमरसोक्खं, अमरसोक्खेण उवमा जस्स तं अमरसोक्खोवमं, उत्तरपदलोवे कते 10 अमरोवमं । जाणिय यदुक्तं जाणिऊण । सुहभावो सोक्खं तं उत्तिमं उक्तिरमण्णसुद्देहिंतो । तं पुण कस्स ? उच्यते-रयाण परियाए । एवं देवलोगसमाणं सोक्खं धितीमतो सामण्णे । इदाणिं तहाऽरताणं ति उत्तरेण वयणेण संत्रज्झति, तं पुण इमं - णिरयोवमं जाणिय दुक्खमुत्तमं, तहेति तेण प्रकारेण, जधा ता देवसोक्खसरिसं तहेव अरताण णरगवासोवमं दुक्खमुत्तमं जाणिऊण रमेज्ज सामण्णे धिइमुप्पाएन । तम्हा इति तुवणं या-रयाण सुह- दुक्ख परिण्णाणहेऊ । एतेण कारणेण परियाए रमेज्ज । एवं सति पंडितो भवति 15 ॥ १२ ॥ एवं परियाए ताणं सोक्खं अरताणं दुक्खमिति जाणिऊण इहभव एव परपरिभवपरिहारिणा धम्मे रती करणीयति तदत्थमिदमुपदिस्सति — ५३५. धम्मातो भट्ठ सिरीयो ववेतं, जण्णग्गि विज्झायमिवऽप्पतेयं । हीलेंति णं दुव्विधियं कुंसीलं, दादुद्धितं घोरविसं व णागं ॥ १३ ॥ ५३५. धम्मातो भट्ठ सिरीयो ववेतं वृत्तम् । दसविधो समणधम्मो पुच्ववणितो, ततो चुतं एवं 20 धम्मातो भट्ठ । सिरी लच्छी सोभा वा, सा पुण जा समणभावाणुरूवा सामण्णसिरी, ततो ववेतं ववगतं सिरीयो ववेतं, तमेवं धम्मसिरीपरिच्चत्तं । सिरीविरहे से दितो – जण्णग्गि विज्झायमिवऽप्पतेयं जधा मधमुहेसु समिधासमुदाय - वसा - रुहिर-महु-घतादीहिं हूयमाणो अग्गी सभावदित्तीओ अधिगं दिप्पति, हवणावसाणे य परिविज्झाणमुरंगारावत्थो भवति अप्पतेयो, एवं ओधावितो वि समणधम्मसिरीपरिञ्चत्तो अप्पतेयो भवति । अतो तमेवंविसिद्धं संतं हीलेंति णं दुब्विधियं कुसीलं ही इति लज्जा, लज्जामुपणयंति हीति, 25 यदुक्तं ड्रेपयन्ति, एवंगतं एतं हीलणं, विहितो उप्पादितो, दुहु विधितो दुव्विहितो, किं ते उप्पाद जो एवं णिंदाभायणं १ । तमेवंगतं हीलेंति सीलपरिच्चागिणं कुसीलं । जधा को पतावहीणो हीलिजइ ? त्ति निदरिसणं- दादुद्धितं घोरविसं व णागं अग्गदंतपरिपस्सदसणविसेसो दाढा, सा अवणीया जस्स सो दाढुद्धितो, तं दादुद्धितं, घोरं विसं जस्स सो घोरविसो, जधा पुव्वं घोरविसं पच्छा आहितुंडिगादीहि समुद्धितविसदाढं । वसद्दो उवमारूवस्स इवसदस्स अत्थे । जधा तं दाढसहितमतिधोरविसमुत्तरकालमुद्धृतदाढं ' निव्विसोऽय - 30 १°मोत्तमं जे० । 'मुत्तमं अचू० वृद्ध० जे० विना ॥ २ नरयो' खं २ हाटी० अव० ॥ ३ तम्हा रमेजा प सं ३ जे० ॥ ४ या पं० ॥ ५ सिरीओ अवेयं खं ४ जे० अव० ।। ६ कुसीला खं १-२-३ शु० हाटी० अव० ॥ दस० सु० ३३ For Private Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ णिज्जुत्ति-चुणिसंजुयं [ पढमा रइवक्का चूलिया मिति जणो परिभवति णागं, णामो पुण सप्पो । तधा तं 'दुविहित-कुसीलसमण-पच्चोगलितोऽयम्' एवमादि]दुव्यपणेहिं हीलेंति॥१३॥ ओधाइयस्स इहभवलजणगदोसो भणितो। इदाणि इह परत्थ य णेगदोससंभवाणत्थमुण्णीयते। जधा--- ५३६. इहेवऽधम्मो अयसो अकित्ती, दुण्णाम-गोतं च पिधुजणम्मि । चुतस्य धम्माता अधम्मसेविणा, मंभिण्णवित्तम्म य हे?तो गती ॥ १४ ॥ ५३३. इहवऽधम्मो अयसो० इन्द्रवत्रा । इह इमम्मि मणुस्सभवे । एवसद्दोऽवधारणे । एतं अवधारिम्नतिअच्छतु ता पग्लोगो, णणु इहेव दोसा अधम्मो अयसो अकित्ती, जं समणधम्मपरिचाग-छकायारंभेण अपुण्णमाचरति एस अधम्मा, सामण्णगुणपरिहाणी अयसो, एस समणगभूतपुव्व इति दोसकित्तणमकित्ती। जधाणुरूवस्स भूमिभागस्स गुणेहिं वायणमिह जसो, जणमुखपरंपरेण गुणसंसद्दणं कित्ती, अयं जस-कित्तीविसेसो। किंच-दुण्णाम10 गोतं च पिधुजणम्मि कुच्छितं णाम दुग्णामं पुराणातिगं, जो णियमारूढो तं मुंचति अवस्सं णीयजातीयो वित्ति दुगातं। दुस्सद्दो कुच्छितत्थो एगत्थपउत्तो उभयगामी। महत्ताविरहितो सौमण्णजणवतो पिहुजणो। एते अधम्मादयो ओधावितस्स पिधुजणे वि दोसा इति संभाविनंति, किं पुण उत्तमजणे ?। तस्स एवंदोसदूसितस्स चुतस्स धम्मातो परिभट्ठस्स धम्मातो सरीरसुह-पुत्त-दारभरणपरिमूढस्स विसेंसेण पाणातिवातादि अधम्मसेविणो। संभिण्ण वित्तस्स, वृत्तं सीलं समेच्च भिण्णं संभिण्णं । चसद्दो पुव्वुद्दिद्रुकारणसमुच्चये । तस्स धम्मपरिचुतस्स अधम्मसेविणो 15 समवलंबितसंभिण्णचारित्रस्य च रयणप्पभादिसु कम्मभारगुरुतया अधोगमणमिति हेट्टतो गती ॥ १४ ॥ अयं च समणभावपरिचागे अधम्मोऽजसोऽकित्ती दुग्णाम-गोत-दुग्गतिगमणेहिंतो पावयरो पञ्चवातो त्ति तदुब्भासणत्थमुण्णीयते-- ५३७ मुंजित्तु भोगाणि पसज्झ चेतसा, तधाविधं कट्टु असंजमं बहुं । गतिं च गच्छे अणभिज्झितं [दुहं], बोधीय से णो सुलभा पुणो पुणो ॥१५॥ ५३७. भुंजित्तु भोगाणि० वृत्तम् । भुजित्तु अब्भवहरणादिणा उवजीविऊण, दारा-ऽऽभरण-भोयणऽ20 च्छादणादीणि भोत्तव्वाणि भोगाणि । वैरि-दायाद-तक्करादीण एगदव्वाभिणिविट्ठाण बलकारण, एवं पसज्म विसयसंरक्खणे य हिंसा-मोसादिनिविद्वेण चेतसा, तस्स हिंसादियस्स अणुरूवं तधाविधं, करेऊण कह, अपुण्णमसंजमो तमुवचिणिऊण बहुं । अह मरणसमये गतिं च गच्छे अण [भिज्झितं दुहं] गतिं णरगादिकं तं एतेण सीलेण गच्छेन्जा, अभिलासो अभिज्झा, सा जत्थ समुप्पण्णा तं अभिज्झितं, तबिवरीयं अणभिज्झितं अणभिलसितमणभिप्रेतं [दुहं दुक्खरूवं] गतिं गच्छे। तस्स तहापमादिणो बोधी य से णो सुलभा पुणो पुणो 25 आरुहंतस्स उवलद्धा बोही य से णो सुलभा । चसदेण अणभिज्झितगतिगमणातिसंसूयणं । पुणो पुणो इति ण केवलमणन्तरभवे, किंतु भवसतेसु वि॥१५॥ जाणि आधाणुप्पेहीमतीथिरीकरणत्थमट्टारस पदाणि दुस्समाए दुप्पजीवं १ [सुत्तं ५२४] एवमादीणि समासतोऽभिहिताणि, तेसिमत्थवित्थरणत्थं जदा [य] जधती धम्म [सुत्तं ५२५] एवमादयो सिलोगा भणिता। जं पुण इमे य मे दुक्खे णचिरकालोवट्ठादी भविस्सति ४ [सुत्तं ५२४] ति आलंबणं तदुपदेसत्थमिदमारब्भते १ मधेजं च सर्वासु सूत्रप्रतिषु हाटी० अव० । मधेयं च खं ३॥ २ चित्तस्स उ खं २ जे० ॥ ३ सामान्यजनबजः ॥ ४ अणहिज्जियं सर्वासु सूत्रप्रतिषु ॥ Jain Education Intemational Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९ सुत्तगा० ५३६-४०] दसकालियसुत्तं। ५३८. इमस्स ता णेरयियस्स जंतुणो, दुहोवणीतरस किलेसवित्तिणो। पलिओवमं झिज्जति सागरोवमं, किमंग पुण मञ्झ इमं मणोदुहं ? ॥१६॥ ५३८ इमस्स ताणेरयियस्स० वृत्तम् । इमस्सेति अप्पणो अप्पनिदेसो। ता इति तावसहस्सावधारणत्थस्स अत्थे, इमस्सेव ताव, किमुत बहूणं संसारिसत्ताणं ? रयियस्स जंतुणो त्ति जता अधमेव णरएसूबवण्णो तस्सेवंगतस्स दुक्खाणि णरयोवगाणि दुक्खेहिं वा तप्पायोग्गेहिं णरगमुवणीतस्स, अतो दुहोवणीतस्स णिमसमेत्तमवि । णत्थि सुहमिति किलेसवित्तिणो तथागतस्स पलिओवमहितिएसु उववण्णरस तप्पभूतो कालो तहा वि झिनति, किं बहुणा ? ततो पभुततरं सागरोवममवि। किं पुण किमंग तु, अधवा अंग इति आमंत्रणे, संजमे अरतिसमावण्णमप्पाणमामन्त्रयति थिरीकरेति य। मज्झ इति मम इममिति जं अरतिमयमप्पणो पञ्चक्खं मणोदुहमिति मणोमयमेव ण सारीरदुक्खाणुगतं ॥ १६॥ ओहावणागुप्पेहाणियमणत्थमालंबणमणंतरुद्दिष्टुं जं तस्स सावसेससंगहत्थमिदं भण्णति५३९. ण मे चिरं दुक्खमिणं भविस्सति, असासता भोगपिवास जंतुणो। णे मे सरीरेण इमेणऽवेस्सती, वियरसती जीवितपजवेण मे ॥ १७ ॥ ५३९. ण मे चिरं दुक्खमिणं भविस्सति० वृत्तम् । ण इति पडिसेहसदो । मे इति अप्पणिद्देसो, यदुक्तं मम । चिरं दीहकालं। दुक्खमिति जं संजमे अरतिसमुप्पत्तिमयं । भविस्सतीति आगामिकालणिदेसो। तं एतं मम संजमे अरतिमयं दुक्खं णातिचिरकालीणमिति सुसहं । जण्णिमित्तं च अहं संजमातोऽवसप्पितुं ववसामि सा 15 असासता भोगपिवासा जंतुणो इमस्स मम जीवस्स । ण मे सरीरेण इमेणऽवेस्सतीति एत्थ काकुगम्यो जतिसदस्स अत्थो, जति दुक्खमिणं [इमेण] उपादत्तकेण सरीरगेण ण अवगच्छिहिति तहा वि अवस्समेव वियरसती जीवितपजवेण मे. वियस्सतीति विगच्छिहिति. परिगमणं पज्जयो अंतगमणं. तं पुण जीवितस्स पन्जायो मरणमेव । जति इमेण सरीरेण एतस्स अरतिदुक्खस्स अंतो ण कनिहिति तहा वि केत्तियमेव पुरिसायुमिति तदंते अरतिदुक्खस्स अंत एवेति अरतिमधियासेना। सरीरेणेति तृतीया, जं सरीरेण 20 सहगतं सरीरं सरीरिदुक्खाणि य समाणमिति भणितं होति । एवमिति सव्वं जाणिऊण रमेज तम्हा परियाए पंडिए [सुतं ५३४] ॥१७॥ संजमे रतिनिमितमालंबणमणतरुद्दिटुं। तस्स सुद्धस्साऽऽलंबणस्स फलोवदरिसणत्थमिदमारब्भते-- ५४०. जस्से+मप्पा तु भवेज निच्छितो, जहेज देहं ण य धम्मसासणं। तं तारिसं ण प्पचलेंति इंदिया, उर्वत वाया व सुदंसणं गिरिं ॥ १८ ॥ ५४०. जस्सेवमप्पा तु भवेज निच्छितो० वृत्तम्। जस्मेति अणिविट्ठणामधेयस्स एवमिति प्रकारोवदरिसणं भगवान् अजसेजंभवो आह। जस्स एतेण प्रकारेण आमरणाए वि संजमे अरतिआधियासणं प्रति अप्पा इति चित्तमेव, तुसदो संजमे रयं विसेसेति, भवेज त्ति प्रार्थनं उवेदेसो वा निच्छितो एकग्गकतववसातो। सो एवं 25 १ सवत्तिणो खं १.४ जे० शु०॥ २न चे सरी खं २ शु० हाटी० अव०॥ ३ अवेस्तई खं ३ जे० शुपा० । अविस्सई खं १। अवेसई खं २-४॥ ४ अण्गगमणं मूलादर्शे ॥ ५ होतिमिति। एव मूलादर्शे ॥ ६ पिडिए मूलादर्शे ॥ ७°व अप्पा खं १-४ जे०॥ ८चएज देहं न उ खं २-३ शु० हाटी० अव । चइज्ज देहं न हुखं १-४ जे०॥ Jain Education Intemational Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० णिज्जुत्ति- चुण्णिसंजयं [पढमा रइत्रक्का चूलिया कतनिच्छतो जहेज्ज देहं ण य धम्मसासणं जहेज्ज ति चयेज्ज, देहो सरीरं, ण् इति प्रतिषेधे, चसद्दो अवधारणे, सासिनति-णाये पडिवानिति जेण तं सासणं, धम्मस्स धम्म एव वा सासणं धम्मसासणं । एवं तवसायो देहसंदेहे विधम्मसासणं ण छड्डेज | धम्मधितिवणियणिच्छ्यं तं तारिसं ण प्पचलेंति इंदिया तमिति पडिनिसवयणं विम्हए वा । तारिसमिति देहविणासे वि धम्मापरिचागिणं ण प्पचलेति ण विकंपयंति धम्मचरणातो, 5 के ण प्पचलेंति ? इति, इंदिया सद्दादयो इंदियत्था इति तदभिसंबंधेण पुल्लिंगाभिघाणं । जधा के कं ण विचालयंति ? इति भण्णति - उवेंत वाया व सुदंसणं गिरिं उवेंता उवागच्छंता वाता पादीणादयो ते इव सुदंसणं गिरिं सुदंसणो सेलराया मेरुः । जथा वाता उवेंता मेरुं ण पचार्लेति तहा तं सुणिच्छितमाणसमिदियत्था ण पचालेंति ॥ १८ ॥ इदाणिं सुविदियङ्कारसङ्काणेण संजमे अरतिमुज्झिऊण धितिसंपण्णेण जं करणीयं तदुपदेसत्थं भण्णति 10 - ५४१. इच्चेव संपस्सिय बुद्धिमं णरो, आयं उवायं विविधं वियाणिया । कायेण वाया अदु माणसेण, तिगुत्तिगुत्तो जिणवयणमधिते ॥ १९ ॥ त्ति बेमि ॥ इवक्का नाम चूला पढमा समत्ता ॥ ५४१. इच्चैव संपस्सिय बुद्धिमं णरो० वृत्तम् । इतिसदो उवप्पदरिसणत्थो, जं इह अज्झयणे आदावारम्भ उपदि तमालोकयति । एवसद्दो अवधारणे पञ्चवलोगणे णियममाह । संपस्सिय एकीभावेण अवलोकेऊण बुद्धी जस्स अत्थि सो बुद्धिमं भवति णरो मणुस्सो, 'पुरुसुत्तरिया धम्मा' इति तस्स गद्दणं । एवमा15 लोगेऊण आयं उवायं विविधं वियाणिया आयो पुण्ण-विष्णाणादीण आगमो, उवायो तस्स साधणे आणुपुव्वी, तं आयं उवायं च विविधं अणेगागारं जाणिऊण । एवं संपस्सितूण आयोवायकुस लेण सव्वहा इमं धारणीयंकायेण वाया अदु माणसेण कायो सरीरं वागिति अभिधाणं माणसं मण एव, एतेहिं तिहिं विकरहिं जहोवदेसपवत्तण-णियत्तणेण । एतेहिं चैव सुणियमितेहिं एवं तिगुत्तिगुत्तो जिणस्स भगवतो तित्थगरस्स वयणं उवदेसो तं जिणवयणं अधिट्टते अधितिट्ठति, जं तत्थ अवत्थाणं करेति । अधिट्टए इंति भगवतः सूत्रकारस्स उवदेस20 aणं ॥ १९ ॥ इति- बेमिसदा पुत्र्ववण्णितत्था || णया तहेव ॥ संजमधितिपडिवायणहेतुं अट्ठारसत्यपडिलेहा । जिणवयणोवत्थाणं च होंति रतिवक्कपिंडत्था ॥ १ ॥ रतिवक्कं समत्तं ॥ १ नरे जे० ॥ २ महिद्वेज्जासि ॥ त्ति बेमि सर्वासु सूत्रप्रतिषु ॥ ३ रइवक्का पढमचूला समत्ता खं १ । रबक्कज्झयण समत्तं खं २-३ ॥ For Private Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [बितिया विवित्तचरिया चूलिया] धम्मे धितिमतो खुड्डियायारोवत्थितस्स विदितछक्कायवित्थरस्स एसणीयपिंडधारितसरीरस्स समत्तायारावत्थितस्स वयणविभागकुसलस्स सुप्पणिहितजोगजुत्तस्स विणीयस्स दसमज्झयणोपवण्णितगुणस्स समत्तसकलभिक्खुभावस्स विसेसेण थिरीकरणत्थं विवित्तचरियोवदेसत्यं च उत्तरतंतमुपदिटुं चूलितादुतं--रतिवक्कं१ चूलितार य। तत्थ धम्मे थिरीकरणत्था रतिवक्कणामधेया पढमचूला भणिता । इदाणिं विवित्तचरियोवदेसत्था बितिया चूला माणितव्वा । तीसे पढम-5 पदसंकित्तणे चूलिया इति णाम । एतेण अणुक्कमेण आगतं बितियं चूलियज्झयणं । तस्स इमा उवग्घातनिज्जुत्तिपढमगाहा । तं जहा अधिगारो पुव्वुत्तो चतुब्विहो वितियचूलियज्झयणे। सेसाणं दाराणं अधक्कम घोसणा होति ॥१॥२६७॥ आधिकारो पुवुत्तो० गाधा । अधिकरणमधिकारो; तस्स वत्थुस्स अंगीकरणं, सो पुव्वुत्तो पुव्वभणित एव 10 रतिवक्कणामाए पढमचूलाए। सो पुण चतुव्विहो णामादि इहावि तधेव भणितव्यो । तम्मि परूविते ततो बितियचूलियज्झयणे सेसाणं नामादीणं निदेसादीणं च दाराणं अधक्कमं घोसणा होति, अधक्कममिति जो जो अणुक्कमो तेण घोसणमिति जं तेसिं दाराणं अत्थेण स्पर्शनम् ॥१॥२६७॥ गतो नामनिप्फण्णो। दो सुत्तफासियगाधाओ सुत्ने चेव भणिहिति ति एतेण पुण उवग्यातेण इमं चूलियज्झयणपढमसुत्तमागतं तं जधा५४२. चूलियं तु पवक्खामि सुतं केवलिभासितं । जं सुणेत्तु सपुण्णाणं घम्मे उप्पज्जती मती ॥१॥ ५४२. चूलियं तु पवक्खामि० सिलोगो । तत्थ अप्पा चूला चूलिया, सा पुण सिहा । सा चतुविहा अणंतरज्झयणोववण्णिता । तुसद्दी भावचूलाविसेसणे । तं पकरिसेण वक्खामि पवक्खामि । श्रूयत इति श्रुतम् । तं पुण सुतनाणं केवलिभासितमिति सत्थगौरवमुप्पायणत्थं भगवता केवलिणा भाणितं, ण जेण केणति, तव्वयणं पुण सद्धासमुप्पायणत्थमिति भण्णति । जं सुणेत्तु जं चूलियत्थवित्थरं सोऊण सपुण्णाणं सह पुण्णेण सपुण्णा, 20 तिसिं सपुण्णाणं] । तं पुण (१ संपुण्णं) पुणाति-सोधयतीति पुण्णं सात-सम्मइंसणाति । धम्मे उप्पजति संभवति मती चित्तमेव । तं सद्धाजणणं चूलियसुतनाणं सोऊण सपुण्णाणं 'करणीयमेयं 'ति विसेसेण चरित्तधम्मे मती संभवति ॥१॥ पतिण्णा-पढमसिलोगे भणितं "चूलितं सुतं केवलिभासितं पवक्खामि"त्ति, अभिणवधम्मस्स सद्धाजणणत्थं तत्थ चरिता-गुण-नियमगतमणेगहा माणितव्वं । एवं तु सुहमत्यपडिपायणमिति णिदरिसणं ताव इमं भण्णति-- ५४३. अणुसोयपट्ठिते बहुजणम्मि पडिसोतलडलक्खेण । पडिसोतमेव अप्पा दातव्यो होतुकामेण ॥ २॥ 25 १ फासणा खं० वी० सा० ॥ २ “उद्देसे णिइसे य" तथा " किं कइविहं कस्स कहिं०" इत्येते द्वे गाथे बोद्धव्ये ॥ ३ चर्या-गुणनियमगतमनेकधा । Jain Education Intemational Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं (बितिया विवित्तचरिया चूलिया ५४३. अणुसोयपट्टिते. गाहामुत्तं । तत्थ अणुसद्दो पच्छाभावे, सोयमिति पाणियस्स णिण्णप्पदेसाभिसप्पणं, सोतेण पाणियस्स गमणे पवत्ते जं तत्थ पडितं कट्टाति छन्भति तं सोतमणुजातीति अणुसोतपट्टितं, एवं अणुसोतपट्टित इव, इवसदलोवो एत्थ दट्टयो, पहित इति एवं प्रवृत्तो । जधा कट्टातीण तदवलग्गाण व मणुस्सातीण णिण्णप्पदेसपट्टितपाणितवेगसमप्फलियाण सुहं ततो वेगेण गमणं, एवं बहुजणस्सावि बहुजणो, सो पुण असंजतजणो, 5 जेण संजतेहिंतो असंजता अणंतगुणा । जहा तेसिं पाणितवेगाहताणं तहा बहुजणस्सावि सद्द-फरिस-रस-रुव-गंधपडिबद्धस्म परोपरकारिकासमुच्छाहणसंघातियवेगेण संसारमहापाताले पतणं, एवमणुसोतपट्टितो बहुजणो। तम्मि अणुसोतपट्टिते सति बहुजणम्मि किं करणीयं ? इति भण्णति-पडिसोतलद्धलक्खेण पडिसोतमेव अप्पा दातव्वो, प्रतीपं सोतं पडिसोतं, जं पाणियस्स थलं प्रति गमणं तं पुण ण साभावितं, देवतायिणिओगेण होज जधा असक्कं, एवं सद्दादिविसयपडिलोमा प्रवृत्ती दुक्करा, एतं पडिसोतं । लद्धलक्खो पुण जधा ईसत्थं सुसिक्खितो सुसुण्हमवि १० वालादिगं लक्खं लभते तधा कामहभावणाभाविते लोगे तप्परिचागेण संजमं लक्खं जो लभते सो पडिसोतलद्धलक्खो भवति । तेण पडिसोतलद्धलक्खेण पुणो पुणो णियमेतूण पडिसोतमेव अप्पा दातव्वो, इह पडिसोतं रागविणयणं, एवसद्दो अवधारणे, एतं अवधारेति-एतातो ण अण्णहा, अप्पा इति जो एस अधिकृतो संजमातो, दातव्यो इति तधा पवत्तेयब्वो। भिक्खुभावेण निव्वाणगमणारुहो तहा भवितुकामो, अतो तेण होतुकामेण पडिसोतगेण पडिसोतमप्पा दातव्वो ॥२॥ एतस्सेव उदाहरणस्स विसेसेण निरूवणं भण्णति५४४. अणुसोतसुहो लोगो पडिसोतो आंसमो सुविधिताणं । अणुसोतो संसारो पडिसोतो तस्स निप्फेडो ॥३॥ ५४४. अणुसोतसुहो लोगो० गाधा । अणुसोतं पुव्वभणितं, तं जस्स सुह, तं जधा-पाणियस्स णिण्णाभिसप्पणं सुह, एवं सद्दातिसंगो सुहो लोगस्स, सो पुण अणुसोतसुहो लोगो, एवं सहावकरणं । एताओ विवरीयो पडिसोतो आसमो सुविधिताणं पडिसोतगमणमिव दुक्करं संसारे तधाभवितस्स विसय20 विणियत्तणं, आसमो णाम तोवणत्थाणं । सुङ जेसिं विधाणं ते सुचरित्त-सुविधाणवंतो सुविहिता तेसिं विसयविरॊगमंताणं सुविधिताणं आसमो पडिसोतो। उभयफलनिदरिसणं-अणुसोतो संसारो, तहा अणुसोतसा विसयसुहमुच्छिओ लोगो पवत्तमाणो संसारे निवडति, 'संसारकारणं सद्दादयो अणुसोता' इति कारणे कारणोवयारो, अतो अणुसोतो संसारो। तबिवरीयायरणेण पुण पडिसोतो तस्स निप्फेडो, जधा पडिलोमं गच्छतो ण पाडिजति पाताले णदिसोतेण, एवं सद्दादीहिं अमुच्छितो ण संसारमहापाताले पडति ॥३॥ संसारस्स 25 तब्चिमोक्खस्स य कारणमुद्देसेण भणितं । इदाणिं तु विमोत्तिकारणवित्थरोवदरिसणनिमित्तं भण्णति ५४५. एवं आयारपरक्कमेण संवरसमाधिबहुलेणं । चरिया गुणा य णियमा य होति साधूण दट्ठवा ॥ ४ ॥ ५४५. एवं आयारपरक्कमेण० गाधासूत्रम् । एवंसद्दो प्रकारोवदरिसणे, संसारकारणपडिकूलायरणेण विमुत्तिभावं दरिसयति । तं पुण आयारपरक्कमेण आयारे परक्कमो आयारपरक्कमो, आयारो मूलगुणा, १ आसवो अचू, हाटीमा अवपा० विना ॥ २ तस्स निग्घाडो वृद्धः । तस्स उत्तारो सर्वास सूत्रप्रतिषु हाटी• अव० ॥ ३ अस्संजमो इति मूलादर्श पाठः॥ ४ विसंगम मूलादर्शे ॥ ५ तम्हा आयार अचू० युद्ध० विना । Jain Education Intemational Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ५४४-४६, निज्जुत्तिगा० २६८] दसकालियसुत्तं । २६३ परक्कमो बलं आयारधारणे सामत्थं, आयारे परक्कमो जस्स अस्थि सो आयारपरक्कमवान्, मतुलोवे कते आयारपरक्कमो साधुरेव तेण, एवं आयारपरक्कमेणं। संवरसमाधिबहलेणं, संवरो इंदियसंवरी णोइंदियसंवरो य, संवरे समाधिबहुलो संवरे जं समाधाणं ततो अविकंपणं, बहुं [लाति-] गण्हति संवरे समाधिं बहुं पडिवजति संवरसमाधिबहुलो, तेण संवरसमाधिबहुलेण। किं करणीयं ? इति, भण्णति--चरिया गुणा य णियमा य होति साधूण दट्टव्वा, चरिता चरेत्तमेव मूलुत्तरगुणसमुदायो, गुणा तेसिं सारक्खणनिमित्तं भावणातो, 5 णियमा पडिमादयो अभिग्गहविसेसा, ते वि सत्तिओं दट्ठव्वा इति भणीहामि। चसद्देोभयं चरिया-णियमाणगभेदविकप्पणत्थं । होति दट्टव्वा तेण संभवंति । साधूण इति साधुणा, एसा तृतीया। तेण आयारपरक्कमवता संवरसमाधिबहुलेण चरिता-नियम-गुणा साधुणा अभिक्खणमालोएऊण विण्णाणेण जहोवदेसं कातव्या, एवं सम्मं दिट्टा भवंति ॥ ४॥ साधु त्ति वा संजतो ति वा भिक्खु नि वा एगहें, तेण भिक्खुं भणामि । तस्स भिक्खुस्स णामादिदारघोसणं काऊणं इमाए सुत्तफासियगाहाए उक्करिसिजति दव्वं सरीर भविओ भावेण तु संजतो इहं तस्स । औगहिता पग्गहिता विहारचरिता मुणेतव्वा ॥२॥ २६८॥ दव्वं सरीर० एसा निज्जुत्तिगाधा । तत्थ दवभिक्खं जाणगसरीर-भवियसरीर-तव्वतिरित्तं अणिओगदारक्कमेण वण्णेऊण भावेण तु संजतो भावभिक्खू जो संजमे ठितो इहं तस्सेति तस्स भावभिक्खुस्स इह अज्झयणे । ओगंहिता पग्गहिता० एतं गाहापच्छद्धं अज्झयणपिंडत्थोवदरिसणहेतुगं। उग्गहिता इति समीवभावेण 15 गहिता, जं पढमवयोपडिवण्णा एतं भणितं । पग्गहिता जं विसेसेण जधाभणितं गहिता। का पुण सा१ विहारचरिता विहरणं विहारो मासकप्पादी, तम्मि चरिता जधाभणिताणुट्ठाणं मुणेतच्या उवदेसवयणं एवं जाणितव्वा ॥२॥ २६८ ॥ 'आयारे परक्कमवता संवरसमाधिबहुलेण साधुणा चरिता गुणा य णियमा य दट्टव्वा' इति भणितं । तेसिं चरिया-नियम-गुणाण विसेसोवदरिसणायेदमुण्णीयते५४६. अणिएयवासो समुदाणचरिया, अण्णातउंछं पतिरिकया य। 20 अप्पोवधी कलहविवजणा य, विहारचरिया इसिणं पसत्था ॥५॥ ५४६. अणिएयवासो समुदाणचरिया० इति वृत्तम् । एतरस उवोग्घातो जो अणंतरसुत्तेण संबंधो भणितो । अणिएयवासो ति पदं, समुदाणचरिय ति पदं एवमादि २। पदत्थो पुण-'अणिएयवासोति णिकतं घरं तत्थ ण वसितव्वं उज्जाणातिवासिणा होतवं “अणिययवासो” वा जतो ण णिच्चमेगत्थ वसियव्वं किंतु विहरितव्वं । समुदाणचरिया इति मज्जायाए उग्गमितं-एगी- 25 भावमुवणीयमिति समुदाणं, तस्स विसुद्धस्स चरणं समुदाणचर्या । उंछं दवउंछं वित्तिमादीण, तमेव समुदाणं पुन्व-पच्छासंथवादीहिं ण उप्पादियभिति भावतो अण्णातउंछं। पतिरिकं रित्तगं, दवपतिरिकं जं विजणं, भावे रागादिविरहितं, तब्भावो पतिरिकया। उवधाणमुवधी, तत्थ दवओ अप्पोवधी जं एगेण वत्थेण परिसित एवमादि, भावतो अप्पकोधादिधारणं सपक्ख-परपक्वगतं । कोवाविट्ठस्स भंडणं कलहो, तस्स विविधं वजणा १य खं० वी. सा. हाटी०॥ २ उग्गहिता खं० वी० सा०॥ ३ अणिययवासो खं ३ अचूपा० वृद्धपा० हाटी० अव० । अणिएयवासो हाटीपा० अवपा० ॥ ४ विरहितव्वं । समुदाणचर्या इति मूलादर्शे ॥ ५ज चजणं मूलादर्श ॥ ६व्वअया पोषधी मूलादर्शे ॥ ७ दिवारणं वृद्ध० ॥ Jain Education Intemational Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 15 णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजयं [ वितिया विवित्तचरिया चूलिया कलहविवणा । चसदो अणिएयवासातीण चरियाविसेसाण अणुक्करिसणत्थो । सव्वा वि एसा विहारचरिया इस पत्था विहरणं बिहारो जं एवं पवत्तियव्वं, एतस्स विहारस्से चरणं विहारचर्या, इसिणं पसत्था इति रिसयो गणधरादयौ तेसिं, भगवता एसा चरिया पसंसिता । एवमायरंता रिसयो भवतीति वा एवं इसिणं पसत्था । एसा अक्खरभावण त्ति पदत्यो ३ । पदविग्गहो - समासपदे संभवति तदिह णत्थि ४ | 20 २६४ इदाणिं सुत्तत्यवित्थरणं निज्जुत्तीर करणीयमिति तीसे अवकासो, [तें] पुण सव्वसुत्तेसु जत्थ वक्सेसत्थाणीयं किंचिदणुपसंग हितमवस्सभणितव्वं च । इह तं अप्पेण विसेसेण भवितव्यमिति भण्णति- * अणिएतं पतिरिक्कं अण्णातं सामुदाणियं उंछं । अप्पोवधी अकलहो विहारचरिया इसिपसत्था ।। ३ ।। २६९ ।। अक्खरत्थो सुत्तभणितो । केणति विसेसेण विवरिजति -- अणिकेतं जं ण घरत्यतुल्लेसु आरंभेसु पवत्तति । पतिरिक्कं जं विवित्तसेनासणसेवी । अण्णातं जं ण तत्रस्सिमादिपगासणेण सति वा असति वा तम्मि गुणे । सामुदाणियं उंछं जं सीलंगाणि संघायतति फासूयत्तणेण । अप्पोवधी जं संजमोवघातीणं उवगरणाणं अधारणं । अकलहग्गहणेण सव्वकसायणि जयसूयणं । एसा अणेगागारा विहारचरिता इसीहिं इसीण वा पसत्था इसि - पसत्था ।। ३ ।। २६९ ॥ णणु निज्जुत्तिगाहाए पुणरुत्तीकरणमिति पचालणा ५ । पञ्चवत्थाणं - घरे [ण] वसितव्वमिति दव्वतो अणियेतं, घरत्यारंभेसु [ण] वट्टितव्वमिति भावतो अणियेतं । एवं सव्वपदेसु दव्त्र-भावगतो विसेसो । जधासंभवमेसा आजोजणा ६ ॥ ५ ॥ अणियेयवासी-विहार चरिया सविसेस पडिपादणत्थमिदमुण्णीयते । जधा -- ५४७. इण्णोमाणविवज्जणा य, उस्सण्णदिट्ठाहेडं भत्त-पाणं । संसट्टकप्पेण चरेज्ज भिक्खू, तज्जायसंसट्ट जती जँयेज्जा ॥ ६ ॥ ५४७. आइण्णो माणविवज्जणा य० इन्द्रवज्रा । आतिष्णमिति अञ्चत्थ पडिपूरियं, तं पुण रायकुलसंखडिमादि, तत्थ महाजणविमदे पविसमाणस्स हत्थ - पादादिदूमण - भाणभेदादी दोसा । उक्खेव-णिक्खेवा-ऽऽगमणातीणिय दायकस्स 'ण सो वेति' त्ति तव्विवज्रणं । ओमाणं पुण अवमं ऊणं माणं ओमाणं, ओमो वा माणो जत्थ संभवति तं ओममाणं ओमाणं । पत्थुतं पुण सपक्खेण वा संजतादिणा परपक्खेण वा चरगादिणा 25 पविसमाणेण 'बहूण दातन्त्र मिति तमेव भिक्खामाण मूणीकरिंति दातारो, 'कैतो पहुप्पति ? 'त्ति वा अवमाणणमारभंते, अतो तस्स विवज्जणं । चसदेण विहारचरिया इति अणुक्करिसिज्जति । उस्सण्णसदो प्रायोवृत्तीए वट्टति, जधा --" देवा उस्सण्णं सातं वेदणं वेदेति, आहच्च अस्सातं " [ ] ति । दिट्टं आहडं "दिट्ठाहडं 1 १ स आचरणं मूलादर्श ॥ २ यासावसेस' मूलादर्श ॥ ३ आइण्ण-ओमा सं २ जे० शु० ॥ ४ ओसन्न २-४ ० ॥ ५ हरं भत्त' अचूपा० ॥ ६ पाणे सर्वासु सूत्रप्रतिषु ॥ ७ जपज्जा खं २ अचू० विना ॥ ८ रायकुलकुलसंख' मूलादर्श ॥ ९ कतो दुप्पटु ति मूलादर्श | १० दिट्ठाहडं जं जत्थ उपयोगो कीरइ आइ [ति] घरंतराओ । परतो गोणिसाहाभिहडं, वारणे एयं । उस्सण्णं दिवाह भत्त-पाणं गेण्हेज्ज त्ति" इति वृद्ध विवरणे । " इदं चोत्सन्नदृष्टाहृतं यत्रोपयोगः शुध्यति, त्रिगृहान्तरादारत इत्यर्थः " इति हारि० वृत्तौ । त्रिगृहान्तरात् परत आनी भक्त पानं गृहान्तरनोनिशीयम्, त्रिगृहान्तरादारत आनीतं पुनर्ने गृहान्तरनोनिशीथमिति ज्ञेयम् ॥ For Private Personal Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निज्जुत्तिगा०२६९, सुत्तगा० ५४७-४९] दसकालियसुत्तं । २६५ जत्थ उ जोगो कीरति आरा तिघरंतरातो, परतो वि णोणिसीहाभिहडं । कारणे एतं उस्सण्णविट्ठाहडं भत्त-पाणं गेण्हेज ति वक्सेसो । केसिंचि पाढो-"हरं भत्त-पाणं" तेसिं उद्देसितं क्रीतमाहरं च आतिण्णोमाणमिव विवजणीयं । संसट्ठकप्पेण चरेज भिक्खू, संसर्ट संगुटुं ईसिं सम्मिस्सं, एवं घेतव्वमिति एस कप्पो, एतेण चरेज एस उवदेसो, एवं भवति भिक्खू । संसट्टमेव विसेसिज्जति "तज्जायसंसह जती जयेज्जा," तज्जायमिति जातसद्दो प्रकारवाची, तज्जातं तधाप्रकारं, जधा आमगो गोरसो आमगस्सेव गोरसस्स 5 तजातो, कुसणादि पुण अतजातं, एवं सिणेह-गुल-कट्टरादिसु वि । तत्थ असंसट्टे पच्छेकम्म-पुरेकम्मादिदोसा, अतज्जातसंसटे संसज्जतिमा-ऽसंसज्जिमदोसा, अतो संसट्ठमवि तज्जायसंसर्ट चरेजा। जती जतेज ति एवं अट्ठ भंगा अणुक्करिसिजंति, तं जधा-संसट्ठो हत्थो संसट्ठो मत्तो सावसेसं दवं, एवं अट्ठभंगा। तत्थ पढमो भंगो पसत्थो, सेसेसु वि चारेऊण गहणमग्गहणं वा । एवं जती जतेज ॥६॥ आतिण्णोमाणविवजणमणंतरमुपदिटुं। वियडपसंगे पुण नियमेण आतिण्णदोसा पोग्गले य कुच्छियावमाणदोसा इति तप्परिहरणत्थमिदमुण्णीयते५४८. अमज-मंसासि अमच्छरीया, अभिक्खणं निव्विगतीगता य । अभिक्खणं काउस्सग्गकारी, सम्झायजोगे पयतो भवेज्जा ॥७॥ ६४८. अमज्ज-मंसासि अमच्छरीया. उपेन्द्रवज्रोपजातिः । मदनीयं मदकारि वा मज्जं-मधु-सीहुपसण्णादि, मंसं प्राणिसरीरावयवो, तं पुण जल-थल-खचराण सत्ताण, तमुभयं जो भुंजति, सो मज्ज-मंसासी, 'साधूण [ण] तहा भवितव्वं' इति अकारेण पडिसेधो कीरति अमज-मंसासी । मच्छरो क्रोधो, सो विसेसेण 15 मजपाणे संभवति, विणा तु मजेण अमच्छरिया भवेजा इति वक्सेसो। विकृति विगति वा णेतीति विगती, मन्नमंसे पुण विगती, तदवसरेण सेसविगतीओ वि नियमिजंति-अभिक्खणं निश्विगतीगता य अप्पो कालविसेसो खणो, तत्थ अभिक्खणमिति पुणो पुणो निम्विइयं करणीयं, ण जधा मज-मंसाणं अचंतपडिसेधो तहा विगतीणं । केयि पढंति-"अभिक्खणिव्वीतियजोगया य” तेसिं अभिक्खणं णिन्वितियजोगा पडिवजितव्वा इति अत्थो । जधा णिन्वितियता तधेव अभिक्खणं काउस्सग्गकारी, काउस्सग्गे सुद्वितस्स कम्मनिजरा भवतीति 20 गमणा[-ऽऽगम]ण-विहारादिसु अभिक्खणं काउस्सग्गकारिणा भवितव्वं । जधा काउस्सग्गो उस्सितुस्सितो पयत्तवतो तहा सज्झायजोगे पयतो भवेना वायणातिपंचविधो सज्झायो, तस्स जधाविधाणमायंबिलादीहिं जोगो, तम्मि वा जो उज्जमो एस चेव जोगो, तत्थ पयतेण भवितव्वं । भवेजा इति अंते दीवगं सव्वेहि अभिसंबज्झते—अमजमंसासी भवेजा एवमादि । एत्य चोदणा-नणु पिंडेसणाए भणितं—“बहुअहितं पोग्गलं अणिमिसं वा बहुकंटगं" [सुतं १७१] इति बहुयद्वितं निसिद्धमिह सव्वहा, विरुद्धं तत्थ । इह परिहरणं से इमं उस्सग्गसुतं, 25 तं कारणियं, जता कारणे गहणं तदा परिसाडीपरिहरणत्यं सुद्धं घेत्तव्वं, ण बहुयट्टितमिति ॥७॥ मन्नं पातुकामस्स पीते वा सज्झायादिसु वा सयणादीहि उपयोग इति तेसु ममीकारनिसेधणनिमित्तं भण्णति ५४९. ण पडिण्णवेजा सयणा-ऽऽसणाई, सेजं निसेजं तह भत्त-पाणं । गामे कुले वा णगरे व देसे, मंमत्तिभावं ण कहिंचि कुज्जा ॥ ८॥ १°क्खणं निम्वियए य हुज्ज खं २ संशोधितः पाठः । 'खणिवीतियजोगया य अचूपा । 'कखणं णिब्वितिया [य] जोगो युद्धपा० ॥ २ बहेज्जा ख १॥ ३ ममत्तभावं खं १ जे. अचू० विना ॥ दस० सु०३४ Jain Education Intemational Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [बितिया बिवित्तचरिया चूलिया ५४९. ण पडिण्णवेजा सयणा-ऽऽसणाइं० वृत्तम् । णकारो पडिसव । अस्थिभाव( ? अत्थ भावि )कालंतरेण उपदरिसणं, ण पुण तक्खणमेव जातणं एतं पडिण्णवणं । णकारेण पडिण्णवणपडिसेधणं, एवं ण पडिण्णवेजा। जधा-परं मम ईंह वरिसारत्तो, ममेव दातव्वाणि, मा अण्णस्स देहिह। किं पुण ण पडिण्णवेन ? ति भण्णति-- सयणा-ऽऽसणाई सेजं निसेजं तह भत्त-पाणं, सयणं संथारगादि, आसणं पीढकादि, सेजा वसही, 5 णिसेजा सज्झायादिभूमी। तहेति तेणेव प्रकारेण [ण] पडिण्णवेज-सुए परसुए परतरेण वा भत्तं ओदणादि पाणं चउत्थरसिगादि, 'तं एत्तियं कालं एवंपरिमाणं वा देजह 'त्ति ण पडिण्णवेज । एतं पडिण्णवणं ममत्तेण अतो सव्वधा वि गामे कुले वा णगरे व देसे ममत्तिभावं ण कहिंचि कुजा, तत्थ कुलसमवायो गामो, कुलं एगकडुवं, महामणुस्ससंपरिग्गहो पंडितसमवायो णगरं, विसयस्स किंचि मंडलं देसो, एएसु जहुद्दिद्वेसु ‘मम इमं. मम इमं ' इति ममत्तिभावं ण कुजा । कहिंचिवयणेण विसय-गण-रायादिसु सव्ववत्थूसु, किं बहुणा ? धम्मोवकरणेसु 10 वि, जतो “मुच्छा परिग्गहो वुत्तो इति वुत्तं महेसिणा" [सुत्तं २६५] ॥ ८॥ ममत्तनिवारण[मणं]तरसुत्ते भणितं । इमं पि ममत्तनिवारणत्थमेवेति भण्णति५५०. गिहिणो वेयावडियं न कुजा, अभिवायण वंदण पूयणं च । असंकिलिटेहिं समं वसेज्जा, मुणी चरित्तस्स जतो ण हाणी ॥९॥ ५५०. गिहिणो वेयावडियं न कुजा. वृत्तम् । गिहं पुत्त-दारं, तं जस्स अत्थि सो गिही, 15 एगवयणं जातिपदत्थमुदिस्स, तस्स गिहिणो । वेयावडियं न कुजा, वेयावडियं नाम तव्वावारकरणं, तेसिं वा प्रीतिजणणमुपकारं असंजमाणुमोदगं न कुजा। अभिवायण वंदण पूयणं च, वयणेण णमोक्कारादिकरणमभिवादणं, सिरप्पणामातीहि वंदणं, वत्थादिदाणं पूयणं, एताणि वि असंजमाणुमोदणाणि न कुजा । मधा गिहीण एयाइं न करणीयाणि तहा सपक्खे वि असंकिलिटेहिं समं वसेज, गिहिवेयावडियादिराग-दोसवि बाहियपरिणामो संकिलिट्ठो, तहाभूते परिहरिऊण असंकिलिटेहिं [समं] संवासदोसपरिहारी संवसेज्जा । नेटिं 20 संवासो चरित्ताणुपरोधकारि ति भण्णति-मुणी चरित्तस्स जतो ण हाणी, मुणी साधू चरित्तं मूलुत्तरगुणा तस्स, जओ हेतुभूतातो तं ण उवहम्मति तविहेहिं असंकिलिटेहिं सह एव वसितव्वं । अणागतोमासि तमिदं सुत्तं, जतो तित्थकरकाले पासत्थादयो संकिलिट्ठा णेव संति, अतो अणागतमिदमत्थं परामसति ॥ ९॥ संवासपराहीणं चरित्तधारणमणंतरमुपदिहूँ। अप्पणो निच्छयबलाधाणत्थमिदमुण्णीयते ५५१. ण या लभेजा णिउणं सहायं, गुणाधिकं वा गुणतो समं वा। ___एको वि पावाइं विवजयंतो, चरेज्ज कामेसु असज्जमाणो ॥ १० ॥ ५५१. ण या लभेजा निउणं सहायं० इन्द्रवज्रा । ण इति पडिसेधसद्दो सदस्स अत्थे वदृति, णकाराणंतरो चसद्दो चेत् एतस्स अत्थे, णो चेत् इति जतिसदस्स अत्थे, लभेज त्ति प्रापेज, यदुक्तं यदि ण लन- . किं जति ण लभेज ? ति पुच्छिते भण्णति-निउणं सहायं णिउणो संजमावस्सकरणीयजोगेसु दक्खो, सह १ "णकारो पडिसंध वइ, पडिन्नवणं पडिसेधणमिति, जो आगामिकालपी , ण संपतिकालविसओ, आगामिकालियपडियरणपडिसेहणे एव, न पडिन्नवेजा, जधा--मम इह पर वरिसारत्तो भविरसइ, ममेव दायव्वाणि, [मा] अण्णस्स देह ।” इति वृद्धविवरणे ॥ २ इह परित्तो ममेव मूलादर्श ॥ ३ वा अचू० वृद्ध विना ॥ ४ अनागतावमर्षि तदिदम् ॥ ५ परामृशति ॥ ६ अप्पाण निच्छयपलावाणथ मूलादर्शे ॥ ७ विहरेज अचू० विना ॥ ८ णकारणा......हो मूलादर्श ॥ ९ संयमावदयकरणीययोगेषु ॥ Jain Education Intemational Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुत्तगा० ५५०-५३]] दसकालियसुत्तं । २६७ एगत्थ पवत्तत इति सहायो, तं जति ण लभेजा निउणं सहायं। कहं निउणं १ भण्णति-अविक्खितसाधूतो गुणाधिकं वा गुणा संजमजोगा तेहि ततो [वा] अतिरित्तो गुणाधिको तव्विधं, गुणतो समं वा इति जो गुणेहि हेतुभूतेहि समभावमुवगतो, तम्विधं वा जइ ण लभेजा इति वट्टति । वासद्ददुगं जोगितामधिकरेति, जो सिक्खाविनंतो वि गुणेहिं अधिको समो वा आसंसिजति पात्रतया तेणावि संवासो अविरुद्धो । जता पुण ण लभेन्ज गुणाधिकं समं वा ततो एको विपावाइं विवजयंतो, एक इति असहायो। अपि सद्दो संभावणे, जो अविचालणीय-5 संभावितगुणो तस्स एकाकिता। पातयतीति पावं, तं पुण अपुण्णं, ताणि विवजयंतो परिहरंतो इति भणितं, एवं चरेज । एतं पावागमणमुखमिति भण्णति-कामेसु असज्जमाणो, कामा इत्थिविसया, तग्गहणेण भोगा वि सद्द-फरिस[-रस-]रूव-गंधा सूयिया, तेसु असज्जमाणो संगं अगच्छमाणो चरेज ति उवदेसवयणं ॥१०॥ कामेसु असन्जमाणो त्ति विहरणमुपदिट्ठमणंतरं । तस्स कालनियमणनिमित्तमिदमुण्णीयते ५५२. संवच्छरं वा वि परं पमाणं, 'बितियं च वासं ण तहिं वसेज्जा। 10 सुत्तस्स मग्गेण चरेज भिक्खू, सुत्तस्स अत्थो जह आणवेति ॥११॥ ५५२. संवच्छरं वा वि परं पमाणं० इन्द्रवज्रोपजातिः । संवच्छर इति कालपरिमाणं, तं पुण णेह बारसमासिगं संबज्झति किंतु वरिसारत्तचातुम्मासितं, स एव जेट्टोग्गहो तं संवच्छर। वासद्दो पुव्वणितविवित्तचरियाकारणसमुच्चये । अपिसद्दो कारणविसेसं दरिसयति । परमिति परसद्दो उक्करिसे वट्टति, एतं उक्किट्ठ पमाणं, एत्तियं कालं वसिऊण बितियं च वासं, वितियं ततो अणंतरं, चसद्देण ततियमवि, जतो भणितं "तं दुगुणं दुगुणेण अपरिहरित्ता ण वट्टति।" [ बितियं ततियं च परिहरिऊण चउत्थे होज। एवं जे अभिक्खसंदरिसण-सिणेहादिदोसा ते परिहरिता भवंति, अतो तं ण वसेज त्ति उवदेसवयणं। एतस्स नियमणत्थं दसज्झायीभणितस्स अवलोकणत्थं भण्णति-सुत्तस्स मग्गेण चरेज भिक्खू, तं पुण अत्थसूयणेण अत्थप्पसतितो वा सुत्तं, तस्स मग्गेणेति तस्स वयणेण, जं तत्थ भणितं तहा चरेज एवं भिक्खू भवति। सूयणामेत्तेण सव्वं ण बुज्झति ति विसेसो वि कीरति-सुत्तस्स अत्थो 20 जह आणवेति, तस्स सुत्तस्स मासकप्पादिस उस्सग्गा-ऽपवाया गुरुहिं निरूविनंति, अत्थो जध आणवेति, जधा सो करणीयमग्गं निरूवेति, जम्हा “वक्खाणतो विसेसपडिवत्ती” “अत्थ[स्स] मग्गेणे"ति ण भण्णति, जतो सुत्तसूथिएण मग्गेण अत्यो पवत्तति, तेण उँ सुत्तं विवित्तचरियों, असीयण(?णं) फलं चेति वितियचूलाधिकारी ॥११॥ तत्थ विवित्तचरिया भणिया । असीतणं पुण जधाभणितमणुवसमाणो सुत्तत्थमणुसारी ५५३. जो पुवत्तअवरत्तकाले, सौरक्खती अप्पगमप्पएण । किं मे कडं किं वं मे किच्चसेसं ?, किं सक्कणिजं ण समायरामि ? ॥ १२ ॥ ५५३. जो पुव्वरत्तअवरत्तकाले० इन्द्रवज्रोपजातिः। जो इति अणिहिट्ठणामस्स उद्देसमत्तं । रायीए पढमजामो पुश्वरत्तो तम्मि, जो पुन्वरते अवरत्तो पच्छिमजामो तम्मि वा, अवररत्त एव अवरत्तो, एगस्स 25 १. अपेक्षितसाधुनः, विवक्षितसाधोरित्यर्थः ॥ २ बीयं च खं १ अचू० वृद्ध० विना॥ ३ भणितो विवि मूलादर्श ।। ४ उस्सुत्तं मूलादर्शे ॥ ५ या य सीयण मूलादर्श ॥ ६ रत्ताऽवररत्त खं ३ अचू० वृद्ध० विना ॥ ७ संपेहई अप्प शु० । संवेस्खई अप्प खं ४ । संपेक्खई अप्प ख १-२-३ जे० ॥ ८ च सर्वासु सूत्रप्रतिषु हाटी० अव०॥ Jain Education Intemational Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ णिज्जुत्ति- चुण्णिसंजयं [ बितिया विवित्तचरिया चूलिया रकारस्स अलक्खणियो 'लोवो । एत्थ कालिगपाढो त्ति काले इति वयणं । एते धम्मजागरियाकाला इति एतेसु भण्णति । खण-लवपडिबोधं पहुच सव्वकालेसु । पुव्वरत्तावरत्तकाले किं करणीयं ? इति भण्णति - सारक्खती अपगमप्पणं, एकीभावेण पालयति, संसदस्स साभावो, अप्पगमेव कम्मभूतं, अप्पएण कारगेण (? करणेण), जधा अप्पाणं पात्रीकरेति । सारक्खणोवायो पुण से इमो - जधुद्द्विकालमप्पमादं पडिसंधेंतो एवं चिंतेजा5 किं मे कडं अवस्सकरणीयजोगेसु बारसविधस्स वा तवस्स जं कतं तं लैद्धमिति किं मे कडं । किंसदो अप्पगते विचारणे, मे इति 'मम' सद्दस्स आदेसो, कडमिति निव्वत्तियं । किं व मे किचसेसं, किमिति वासदसहितं अविकप्पं करणीयं विचारयति — किं करणीयसेसं जा तम्मि उज्जमामि ? करणीयसेसे सामत्थविचारणापुव्वमाह – किं सक्कणिज्जं न समायरामि ?, वयो-बल- कालाणुरूवं सक्कं वत्युं किमहं ण समायरामि पमाददोसेण ? जा छड्डेऊण पमादं तमवि करेमि ॥ १२ ॥ पुव्वरत्तावरत्तकालेसु सारक्खणमप्पणी भणितं । असीतणं तस्साव सेसमिदमुण्णीयते— 10 ५५४. किं मे परो पस्सति ? किं व अप्पा १० इन्द्रवज्रा । कतकिच्च सेसेसु चेव किं मे परो परसति ? अप्पगतमेव विचारणं, मे इति मम, पर इति अप्पगवतिरित्तो, सो परो किं मम पासति पमादजातं १ । संपक्खो वा सिद्धंतविरुद्धं, परपक्खो वा लोकविरुद्धं, किं व अप्पा इति पमादबहुलतणेण जीवस्स किं मए निद्दादिपमादेण णो 15 लोकितं ? जं इदाणिं कतोवओगो पस्सामि, एवं किं परो अप्पा वा मम पासति १ । किं वा हं खलितो विवज्जयामि ?, किंसदो तहेव, वासदो विकप्पे धम्मावस्सगजोगविकप्पणे, अहमिति अप्पणो निद्देसो । किं वा मम पमादकतं बुद्धिखलियं १, खलणं पुण विचलणं सभावत्थाणातो, सो हं किं करणीयं बुद्धिखलितो विवज्जयामीति ण समायरामि ? । केति पदंति - " किं वा हं खलितं ण विवज्जयामि " तं किमहं संजमखलियं ण परिहरामि ? । इच्चैव सम्मं अणुपस्समाणो, इतिसद्दो उवप्पदरिसणे, 'किं कडं ? किं किचसेस मे ? ' एवमादीण अत्थाण उव[प्प]20 दरिसणे । [एवसद्दो अप्पगतकिरियाउवप्पदरिसणे, ] अधवा एवसद्दोऽयमवधारणत्थो तदा प्रकारमेवावधारयति, एवमेव णऽण्णहा, सम्ममिति अव्वभिचारेण अणुपस्समाणो नाम पढमं भगवता दिद्रुमुवदिट्ठे च पच्छा बुद्धिपुव्वमालोएमाणी अणुपस्समाणो । अभिगतं पायच्छित्तादीहिं समीकरेमाणो य अणागतं णो पडिबंध कुज्जा, अणागयमिति आगामिके काले, णो इति पडिसेधसदो, पडिबंधणं पडिबंधो, सो य इच्छितफललाभविग्घो, असंजमपडिबंधणबद्धो विमुतिपडिबंधं णो कुज्जा, निदाणं वा ॥ १३ ॥ एवं पुव्वरत्तावरत्तादिसु अप्प - परावदेसेण सम्मं समभिलोगेमाणो— 25 ५५४. किं मे परो पेस्सति ? किं वे अप्पा ?, किं वा हं खलितो विवज्जयामि ? | इच्चैत्र सम्म अणुपस्समाणो, अणागतं णो पडिबंध कुज्जा ॥ १३ ॥ ५५५, जत्थेव पँस्से कति दुप्पणीयं, कायेण वाया अदु माणसेण । तत्थेव धीरे पडसाहरेज्जा, आतिण्णो खित्तमिव क्खीणं ॥ १४ ॥ ५५५. जत्थेव पस्से कति दुप्पणीयं ० इन्द्रवज्रोपजातिः । जत्थेति जम्मि संजमखलणावकासे । एवसद्दो तदवकासावधारणे, ‘ण कालंतरेण "संवरणं काहामि त्ति पमादेण अंतरितं । पस्से इति जत्थ पेक्खेज्जा कयि ति १ लोगो एत्थ मूलादर्शे ॥ २ लट्ठमिति वृद्ध ० ॥ ३ सविकप्पं वृद्ध० ॥ ४ पास अचू० वृद्ध० विना ॥ ५ च अप्पा ?, किं चाहं सं २-३ जे० शु० ॥ ६ खलितं विव वृद्ध० । खलितं न विव सर्वासु सूत्रप्रतिषु अचूपा० वृद्धपा० हाटी० अव० ॥ ७ मणुपासमाणो नं २-३ जे० शु० ॥ ८ पासे कर दुप्पउतं अचू० वृद्ध० विना ॥ ९ सूत्रप्रतिषु अनूपा • वृद्धपा० हाटी० अव० ॥ ११ संहरणे का मूलादर्शे ॥ संहरेज्जा खं १ ॥ १० खिप्पमिव सर्वासु For Private Personal Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ५५४-५६] दसकालियमुत्त। २६९ कम्हि संजमट्ठाणे "किं मे परो पस्सति किं व अप्पा ?" इति स-परोभयदिढे दुप्पणीयमिति दुईं पणीयं संजमजोगविरोधेण पवत्तियं । इमेहिं तं जोगेहिं होज ति भण्णति-कायेण वाया अदु माणसेणं, कायेण इरियादिअसमितित्तणं वायाए भासादिअसमिती माणसेण दुचिंतितादि, अदु अहसद्दस्स अत्थे, मण एव माणसं । एतेहिं काया-वाया-माणसेहिं जत्थ दुप्पणीयं पासेज तत्थेव धीरे पडिसाहरजा, तत्थेवेति तम्मि चेत्र काय-वाय-माणसावगासे, तम्मि वा काले, ण कालंतरेण, एवसद्दो उभयावधारणे, धीरो पंडितो तवकरणसूरो वा । उज्झितस्स पडिसंहरणं पडिसाधरणं, 5 तं कायदुप्पणीयादि, तम्मि चेव विरोधितावगासे, तम्मि चेव वा काले पडिसाहरेजा। सणिदरिसणो सुहमत्यो घेप्पति त्ति निदरिसणं भण्णति-आतिण्णो खित्तमिव खलीणं, गुणेहिं जव-विणयादीहि आपूरितो आतिण्णो, सो पुण अस्सो, जातिरेव वा आइण्णा कत्थकादि, जधा सो पडिसाहरति पडिवजति खित्तं खलिणं, खित्तमिति उच्छूढमवि खंधदेसमागतं नातिकमति, अधवा खित्तं जं सारहिणा आकड्ढियं, सारहिणा ईसदवि क्खित्तं गोयियाति प्रायेण । [अधवा] पाढ एवं-"खिप्पमिव क्खलीणं" खिप्पमिति सिग्धं, इवसद्दो ओवम्मे, वैभ-लोह-10 समुदायो हयवेगनिरुंभणं खलिणं । जधा सो परमविणीतो आतिण्णो सैयमवि सुहेण खिप्पं पडिवजति, सारहिछंदिएण वा खलीणवसेण पवत्तमाणो ईसदपि प्रेरितं पडिवजति, एवं तव्वसेण वेगपडिसाहरणादिणा खलीणमेव पडिसाहरियं भवति । जधा आइण्णो खिप्पं खलीणं पडिसाहरति तहा कायिकादिदुप्पणीयं ॥१४॥ "कायेण वाया अदु माणसेण" इति कायिग-वायिग-माणसजोगाणं नियमणमुपदिट्ठमणंतरं । तं समुक्करिसेंतो भगवं अजसेजंभवो सिस्से आमंतेऊण आणवेति-वत्स! अतियारनियमणं पडिसंहरिता “जस्सेरिसा जोग जितिंदियस्स"। सव्वं वा 15 "धम्मो मंगला"दिकमुपदेसजातं पञ्चवलोगणेणोवदरिसेंतो भगवं सेलंभवसामी आणवेति सकलदसकालियसत्योवदेसत्थणियमिता----- ५५६. जस्सेरिसा जोग जितिंदियस्स, धितीमतो सप्पुरिसस्स णिचं । तमाहु लोगे पडिबुद्धजीवी, सो जीवती संजमजीवितेण ॥ १५ ॥ ५५६. जस्सेरिसा जोग जितिंदियस्स० वृत्तम् । जस्सेति अणिट्टिनामधेयस्स, छट्ठीणिद्देसेण जोग- 20 संबंधं दरिसयति । एरिसा इति प्रकारोवदरिसणे । एवं नियमिता जोगा इति कायिक-वायिक-माणसा वावारा। सदातिविसयविणियत्तियेदियो जितिंदियो तस्स । धिती जस्स [अत्थि] सो धितिमं तस्स धितिमतो। सोहणो पुरिसो सप्पुरिसो, पसंसितो वा पुरिसो, तस्स । णिच्चमिति आ महव्वतोपादाणातो मरणपजंतं, ण पुण जो विसुद्धिमविसुद्धिं च संजमट्ठाणाण पडिवजति । तमाहु लोगे पडिबुद्धजीवीं तमिति संसदेण अणंतरोववण्णितो सप्पुरिसोऽभिसंबज्झते, तं आहुरिति कहयंति । भगवतो अजसज्जंभवस्स तित्थगर-गणधरादिपतिहितमिदं 25 वयणमिति गौरवसमुप्पादणत्थमयमुपदेसो-तमाहु तित्थकर-गणधरादयो पडिबुद्धजीवी, जो ण भवति पमादसुत्तो सो पडिबुद्धो, पडिबुद्धस्स जीवितुं सीलं जस्स स भवति पडिबुद्धजीवी । सो एवंगुणो जीवति संजमजीवितणं, तमेव सुजीवितमसारे माणुसत्तणे ॥१५॥ ___धितिमतो सप्पुरिसस्स जितिंदियस्स जस्सेरिसा जोगा स जीवति संजमजीवितेणं 'ति भाणितं अणंतरं । तस्स जीवितस्स फलोवदरिसणनिमित्तं भण्णति-अप्पा खल सततं०। अधवा बितियचूलाधिगारा विवित्तचरिया 30 असीतणफलं चेति, तत्थ विवित्तचरिया अणिएयवासादि [सुत्तं ५४६], असीदणं “जो पुव्वरत्तावरतकाले" [सुत्तं ५५३] १ नातियाति नातिकाम्यति इत्यर्थः ॥२"म-लोहसंडासादयो हयवेगनिरंभगा खलिणं" वृद्धविवरणे ॥ ३ सयमेव वृद्ध०॥ Jain Education Intemational Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 20 २७० णिज्जुत्ति- चुण्णिसंजयं [ बितिया विवित्तचरिया चूलिया एवमादि, उभयफलोवदरिसणत्थं भण्णति - अप्पा खलु सततं । सव्वस्स वा दसकालिय सत्थ भणितस्स धम्मपसंसादिगस्स उवदेसस्स सव्वदुक्खविमोक्खणेण फलमिदमिति भण्णति 25 ➖➖➖ ५५७. अप्पा खलु सततं रक्खितव्त्रो० इन्द्रवज्रोपजातिः । जो धम्मपसंसा१धितिगुणा २ऽऽयसंजमा ३ जी नाभि गमण ४ भिक्खावि सोथणा ५ऽऽयारवित्थर ६वयण७पणिधाण ८विणयोववातिय ९ भिक्खुभाव १० चूलियझयण ११-१२ सुणित्रत्तियंगोवंगो एस संजमाता । जतो भणितं- -" सो जीवती संजमजीवितेणं " [सुत्तं ५५६ ] । एवंगुणो अप्पा | खलु विसेसणे, तित्थंतरिय भणितकजकरणपरमप्पाणेहिंतो संजमप्पाणं विसेसेति । सततमिति 10 आ महव्वतारोणा मरणपचन्तं सव्वं कालं । रक्खितव्व इति पडिपालणीयो । तस्स रक्खणोवायो भण्णतिसविदिहिं सुसमाधिएहिं, सोय- चक्खु - घाण-रसण- फरिसणाणि सव्वाणि इंदियाणि सव्वेंदियाणि तेहिं, सुड्डु समाहितेहिं विसयविणियत्तणेण आतभावमेगंतेण आरोविताणि समाधिताणि एवंविहिं । पञ्चवायोवदरिसणत्थं भण्णति -- अरक्खितो जाति-वधं उवेति, ण रक्खितो अरक्खितो, तहा णिज्जंतणो जातिवधं उबेति, जाती जणणं उप्पत्ती, वधो मरणं, जाती य वधो य जाति-वधो, तं अरक्खितो जाति-वधं 15 जम्म-मरणमुवेति । केति पढंति - " जातिपधं " तं पुण संसारमग्गं चयुरासीतिजोणिलक्खपरमगंभीरं भयाणगमुवेति । सुरक्खणे गुणोववण्णणनिमित्तं समत्थसत्थफलोवदरिसणत्थं च भणति - सुरक्खितो सव्वदुहाण मुच्चति, सुठु सव्वपयतेण पावत्रिणियत्तीए रक्खितो सुरक्खितो, तहाणियमितो सत्र्वदुहाण सारीर-माणसाण मुद्दति, सव्वदुक्खविरहितो न्वाणमणुत्तरं परमं संतिमुवेति ॥ १६ ॥ इति सद्दो अज्झयणपरिसमत्तिविसयो । बेमिसदो तित्थकरवयणाणुकरिस || ॥ बितियं चूलियज्झयणमेवं परिसमत्तं ॥ " चरिया य परिवित्रिता असीतणं जो य तस्स फललाभो । एते विसेसभणिता पिंडत्था चूलियज्झयणे ॥ १ ॥ सयलदसवेयालियस्सऽत्योत्रसंहरणत्थं तु जं आदितो उद्दिट्टं " जेण व जं व पडुच्चा' इति तत्थ कारगस्स हेतुपडि साधणनिमित्तमिमा णिज्जुत्तिगाधा भण्णति [ णिज्जुतिगा०४ ] ५५७. अप्पो खलु सततं रक्खितव्वो, सव्विदिएहिं सुसमाधिएहिं । अरक्खितो जाति-वधं उवेति, सुरक्खितो सव्वदुहाण मुच्चति ॥ १६ ॥ त्ति बेमि ॥ छहि मासेहि अधीतं अज्झयणमिणं तु अज्जमणएणं । छम्मासा परियाओ अह कालगतो समाधीए ॥ ४ ॥ २७० ॥ छहि मासेहिं अधीतं गाधा । छहिं इति परिमाणसदो, मास इति कालपरिसंखाणं तेहिं, छहिं [मासेहिं] अधीतं, एत्तिएण कालेन पढितं । अज्झयणसद्दो सव्वम्मि दसकालिये वट्टति । अधवा अज्झयणमिणं तुजं इमं पच्छिमं चूलियज्झयणं एतम्मि आणुपुव्वीए अहीते सगलं सत्थमधीतं भवति । अज्जमणएणं ति अज्जसदो सामिपचायवयणो, मणयो पुत्रं भणितो, तेण तस्स एत्तियो चेव छम्मासा परियाओ । अह कालगतो 30 अधसदो अनंतरत्थे, अज्झयणपरियायाणंतरं । अह तदणु कालगतो समाधीए जीवणकालो जस्स गतो सो १ पाहु खखं २-३ विना सर्वासु सूत्रप्रतिषु । अचू० वृद्ध० हाटी० अव० हु नास्त्येव || २ जातिपदं अचू० वृद्ध० विना ॥ For Private Personal Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ५५७, निज्जुत्तिगा० २७०-७१] दसकालियसुतं । २७१ कालगतो समाधीए ति । जधा तेण एत्तिएण चेव सुतनाणेण आराधितं एवमण्णे वि एत्तिएणेव आराधगा भवती ॥ ४ ॥ २७० ॥ बितिया निज्जुत्तिगाथा आनंदअंसुपातं कासी सेजंभवा तहिं थेरा । सभद्दाण य पुच्छा कधणा य वियालणा संघे ॥ ५ ॥ २७९ ॥ ॥ चूलियज्झयणचूलाणिज्जुत्ती समत्ता ॥ १२ ॥ दसवेयालियणिज्जुत्तीसमत्ता ॥ आणंदअंसु० गाधा । आणंदणमाणंदो तेण अंसुपातो, ' जधाइट्टसमादौ आराधितमिमेणं " ति एते अत्थेण कासी इति अकार्षीत् अतिक्कंतकालवयणं, सेज्जंभवा थेरा इति जे पढमं परूविता, तहिं तितमि काले । समिधाणसिस्साणं जस भद्दाण य पुच्छा अंसुपातं प्रति - किं खमासमणा ! इमम्मि खुड्डए कालगते अंसुपातो अकतपुव्वो कतो ? | कघणा य अजसेजंभवाण, जधा - एरिसो संसारसंबंधी ति, एस मम सुतो । अजGeeta 'एस गुरूणं सुतो 'त्ति एवं कधणा । वियालणा संघे सव्वेहि य आणंदअंसुपातो मिच्छादुक्कडाणि 10 य कताणि, पडिचोदणादिसु गुरुसुतो आसाइतो ति । सेज्जंभवसामिणा वि ' मा गोरवेण ण पडिचोदेन' ति । अतो पढमं न कधियं ॥ ५ ॥ २७९ ॥ एवमणुगमे परिसमत्ते गया । तत्थ - [णायम्मि गेण्हित वे अगेण्हितव्वम्मि चेव अत्थम्मि । जतियत्र्वमेव इति जो उवदेसो सो गयो णाम ॥ १ ॥ ] णायम गेहिवे० गाधा । गाधाविचारणं जधा आवस्सए ॥ १ ॥ बितिया - [सवेसि पि णयाणं बहुविधवत्तव्वतं णिसामेत्ता । तं सव्वणयविसुद्धं जं चरण-गुणट्ठितो साधू ॥ २ ॥ ] Hari पि याणं० गाधा । अक्खरत्थविचारो से तव ॥ २ ॥ एवमेतं धम्मसमुक्कित्तणादिचरणकरणाणुओग परूवणागब्भं नेव्वाणगमणफलावसाणं भवियजणाणंदिकरं चुण्णिसमासवयणेण दसकालियं परिसमत्तं ॥ [ चुण्णिकारपसत्थिया ] वीरवरस्स भगवतो तित्थे कोडीगणे सुविपुलम्मि । गुणगणवइराभस्सा वेरसामिस्स साहा ॥ १ ॥ मरिसिसरिससभावा भावाऽभावाण मुणितपरमत्था । रिसिगुत्तखमासमणा खमा- समाणं निधी आसि ॥२॥ तेसिं सीसेण इमा कलसभवमइंदणामधे जेणं । कालियरस चुणी पयाण रयणातो उवण्णत्था ॥ ३ ॥ १ जसमद्दस्स य सं० वी० सा० हाटी० ॥ 5 15 20 25 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं रुयिरपद-संधिणियता छड्डियपुणरुत-वित्थरपसंगा। वक्खाणमंतरेण वि सिस्समतिबोधणसमत्था ॥४॥ ससमय-परसमयणयाण जंथ ण समाधितं पमादेणं । तं खमह पसाहेह य इय विण्णत्ती पवयणीणं ॥५॥ ॥ दसकालियचुण्णी परिसमत्ता ॥ Jain Education Intemational Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमं परिसिटुं दसकालियसुत्तगाहाणुकमो गाईको १५२ १४३ ६ १५० १४६ १४७ १९४ १९० २७४ २७५ १७५ सुत्तगाहा अंग-पञ्चंग-संठाणं अंजणगतेण हत्थेण अंतलिक्खे ति णं वूया अकाले चरसि भिक्खो! अगुनी बंभचेरस्स अग्गलं फलिहं दारं अजतं आसमाणस्स अजतं चरमाणस्स अजतं चिट्ठमाणस्स अजतं भासमाणस्स अजतं भुंजमाणस्स अजत सुतमाणस्स अजए पज्जए वा वि अज याहं गणी होतो भजिते पजिते यावि अज्जीवं परिणयं णच्चा अट्ठ सहुमाइं मेधावी अट्ठावए य णालीया अणाययणे चरंतस्स अणायारं परकम्म भणिएयवासो समुदाणचरिया अणिलस्स समारंभ अणिलेण ण वियावए ण वीए अणुण्णते णावणए अणुण्णवेतु मेधावी अणुसोतसुहो लोगो अणुसोयपट्टिते बहुजणम्मि अण्णटुप्पगडं लेणं अण्णायउँछं चरती विसुद्धं भतिन्तिणे अचवले अतिभूमि न गच्छेजा अत्तद्वगुरुओ लुद्धो अत्थंगतम्मि आइच्चे अदीणो वित्तिमेसेजा अधिगतचतुरसमाधिए अधुवं जीवितं णचा अपुच्छितो ण भासेजा अप्पग्धे वा महग्धे वा गाहको सुत्तगाहा अप्पणट्ठा परट्ठा वा कोधा १२४ अप्पणट्ठा परट्ठा वा सिप्पा ३६५ अम्पत्तियं जेण सिया २०३ | अप्पा खलु सततं रक्खितब्बो. ३०३ आपे सिता भोयणजाते २०७ अबंभचरियं घोरं | अभिभूत काएण परीसहाई ५५. अमज-मंसासि अमच्छरीया अमरोवर्म जाणिय सोक्खमुनिमं | अमोहं वयणं कुन्ना अरसं विरसं वा वि अलं पासायखंभाणं अलोलुए अकुहए अमादी अलोलु भिक्खू ण रसेसु गिद्धे ३२७ अवण्णवायं च परम्मुहस्स असंथडा इमे अंबा असंसट्टेण हत्थेण असंसत्तं पलोएजा असच्चमोसं सचं च ४०१ असणं पाणगं वा वि अ... उक्कड्डिया दए २८१ असणं पाणगं वा वि अ... उजालिया दए असणं पाणगं वा वि | अ... उस्सक्किया दए | असणं पाणगं वा वि | अ... उस्सिंचिया दए असणं पाणगं वा वि अ... ओतारिता दए असणं पाणगं वा वि १०७ २२८ अ... ओवत्तिया दए ३९७ असणं पाणगं वा वि २२२ अ... ओसकिया दए असणं पाणगं वा वि अ... णिस्सिचिया दए ४१५ असणं पाणगं वा वि ३५८ अ... विज्झाविया दए गाईको | सुत्तगाहा असणं पाणगं वा वि अ... संघट्टिया दए ४१६ असणं पाणगं वा वि...उ' असणं पाणगं वा वि...दाण?' १७२ | असणं पाणगं वा वि...पुण्ण? | असणं पाणगं वा वि...पु-फेहिं ; असणं पाणगं वा वि... वणिमट्ठ ५४८ असणं पाणगं वा वि...समण? ५.३४ । असतिं वोसट्टचत्तदेहे ४०२ अहं च भोगरातिस्स १९६ अह केति ण इच्छेना ३३९ ' अहो ! जिणेहिं असावजा ४८२ : अहो : निच्चं तथोकम्म ५१८ आइण्णोमाणविवज्जणा य ४८१ आउक्काय ण हिंसंति ३४५ / आउकायं विहिंसंतो १३३ | आगाहइत्ता चलइत्ता आतावयंति गिम्हासु ३१६ आतावयाहि चय सोउमलं । आभोएत्ताण निस्सेस १६१ - आयरिए आराहेति आयरियऽग्गिमिवाऽऽहिअग्गी १५८. आयरियपादा पुण अप्पसण्णा आयरिये नाऽऽराधेति १५५ आयार-पण्णत्तिधरं आयारप्पणिधि लद्रं जहा आयारमट्ठा विणयं पउंजे आलोगं थिग्गलं दारं आसंदी-पलियंकेसु आसणं सयणं जाणं आसीविसो यावि परं १६३ आहरेंती सिया तत्थ ३४७ ४४२ २३६ ४१८ १८१ ४७४ १६० ४२० २९८ ३९८ ३४१ ४३७ १११ ३७७ ro, इंगालं अगणिं अचिं इंगालं छारियं रासि १६२ इच्चेयं छजीवणियं इच्चेव संपस्सिय बुद्धिमं णरो १५९ | इत्थियं पुरिसं वा वि FO २२५ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ सुप्तगाहा इमरसता रयियरस जंतुणो लोग पार अपसो हस्थे गमं से पुच्छेगा उच्चारं पासवणं उ उदओ अपनी बा उदओल्लं बीर संसतं उदभोग इत्ये उद्देसियं की यगडं णियाग उद्देमियं कीयगडं पूतीक्रम्मं उप्पण्णं णातिहीलेजा उप्पलं पउमं वा वि ...चिया दए उप्पलं पचमं वा वि ... तं च सम्मद्दिया दए उच् उसमे कोई उगते हत्येन . एगतमवक्कमित्ता जयणाए एगतमवकमित्ता • जयतं एतं च भट्ठ अष्णं [एस] [] [दी बहू अणुमार्य एतं च दोसं दहूण सव्वाहार एतेऽण्णेण वट्टेण एमेते समणा मुक्का एलगं दारगं साणं एवं आवारपरमेण एवं करेंति संपण्णा एवं तु गुणप्पेधी एवं धम्मस्स विणओ मूलं एवमादि तु जा भासा एवमेताणि जाणित्ता ओषार्थ विसमं सा कंद मूलं पलंबं वा कंसेमु कंसपातीसु को समणि अमाणि कपिलच गाईको | सुतगादा ५३८ | कहूं चरे ? कहूं चिट्ठे ? ४१२ व णु कुजा सामण्णं ५३६ कालं छंदोवयारं काले नमे भ १३२ १४९ २८० १८८ ३७६ २६९ किं पुण जे सुतग्गाही किं मे परो परसति ? किं व अप्पा ? कोधं माणं च मायं च कोधो पीतिं पणासेति कोहो य माणो य अणिग्गिहीता ११६ १८ खवेंति अप्पाणम मोहदंसिणो १४८ १९७ २१३ ५१७ खवेत्तु पुव्वकम्माणि खुद्द पिपासं दुस्सेज्जं २११ | गंभीरं सिरं चेव गंभीरविजया एते ग्रहणम्मि ण चिट्ठेज्जा गिहिणो वेतावडियं जा य ४०७ गिहणो वेयावडियं न कुजा १२० गुणेहिं साधू अगुणेहिऽसाधू गुरुमि सततं पडियर मुणी १८४ गुणा १७९ | गेरुयगतेण हत्थेण ३१७ गोरापद्विस्स २४४ । गोयरग्गपविट्टो उ वच्च २०० गोरा गुण ३२५. ३. चतुण्हं खलु भासाणं १०५ चत्तारि वमे सदा कसाये ५४५ चलं कडं सिलं वा वि १६ | चित्तभित्तिं ण णिज्झाए २३९ चित्तमंतम चित्तं वा ४०.१ चूलियं तु पवक्खामि ३२० ३८५ जं जाणेज चिराधोतं जं पि वत्थं व पातं वातं पि ८६ जं पि वत्थं व पायं वा...ण ते जं भवे भत्त-पाणं तु १६८ जता गर्ति बहुविहं २९५ जता जहती संजोगे ३९५ जता जीवे अजीवे य ૩૮૩ जता णिविंदती भोगे २१९ जता य जधती धम्मं ६१ जता य धेरयो होति ६ जता य पूतिमो होति जता य माणिमो होति जता य बंदिमोहोति जता लोगमलोगं च जति तं काहिति भावं जत्थ पुकाणि बीयाणि जत्थेव परसे कति दुप्पणीयं जदा कम्मं खवित्ताणं ४६९ २०२ ४६५ ४ १३१ ४०५ ४०६ ४०८ ३१२ जदा पुष्णं च पावं च ३१ जदा मुंडे भक्त्तिा णं ३९६ | जदा य ओधातियो होति जदा संवरमुकटुं जदा सव्यत्तगं णाणं जधा ससी कोमुदिजोगजुत्तो जयं चरे जयं चिट्ठे जरा जाव ण पीलेति १६५ ३०० ३८० २२ ५५० ४८३ जस्संतियं धम्मपदाणि सिक्खे जरसेरिसा जोग जितिंदियस्स ४८७ जरसेवमप्पा तु भवेज्ज निच्छितो १३७ जहा कुक्कडपोतस्स १२६ जहा णिसंते तबतऽच्चिमाली जहा दुमस्स पु फेसु ३०१ जदा जोगे निरंभित्ता जदा धुणति कम्मरयं १०२ २०६ । जाइता इमे रुक्खा जाए एपि ३१४ जाणंतु ता मए समणा ५०७ जाणि चत्तारिऽभोज्जाई ८९ ४२३ जायतेयं ण इच्छंति जाति-मरणातो मुच्चति २५८ जा य सच्चा अवतव्वा ५४२ जावंति लोए पाणा विगणमते अतिि ६९ ७२ ६८ जहाऽऽ हिअग्गी जलणं णमंसे १७४ जुगंगवे त्ति वा बूया २६४ २०३ १४० ७१ ५२५ जे आयरिय उवज्झायाण पिए भोर जेण बंध वधं घोरं जेण वंदे ण से कुप्पे जे नियागं ममायंति जे माणिया सततं माणयंति जे चंडे मिते थद्धे जे या डेरिवे गाईको ५३० ५२८ ५२५. ५.२७ 6.0 ४० १०४ ५५५ ७९ ૮. ७५ ७० ७३ ५.२६ ७४ ७६ ૪૭ ६२ イガイ 6から ५५६ ५४० ४२२ ? ३४३ ४२९ २३० २९१ ५०१ २७७ ३१५ २४४ ४९९ ३३७ ४६१ ४६३ २२६ २९३ ४८५ ४५२ ४७१ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७५ २०१ - जे यावि णागं डहरे ति णचा जे यावि मंदे त्ति गुरुं विदित्ता जोगं च समणधम्मस्स जो जीवे विण याणति जो जीवे वि विताणति जो पब्बत सिरसा मेत्तुमिच्छे जो पावकं जलितमवक्कमेजा जो पुब्वरत्तअवरनकाले जो सहइ हु गामकंटके ७ ४४० ३४६ गाईको सुसगाहा गाईको तहेव फलमंथूणि २२० तहेव मणुस्स पस ३३४ तहेव मेहं व णहं व माणवं ३६४ तहेव संखडिं णच्चा तहेव सत्तुचुण्णाई १६९ तहेव सावजं जोगं तहेव सावजऽणुमोयणी तहेव सुविणीयप्पा देवा ४६. तहेव सुविणीयप्पा लोगसि ४५८ ४५५ तहेव होले गोले त्ति ३२६ ९४ तहेवाणागतं अटुं जं वऽण्ण- ३२१ तहेवाणागतं अटुं जं होति ३२२ तहेवासंजतं धीरो | तहेवुच्चावयं पाणं १७३ तहेवुचावया पाणा २०५ तहेवोसहिओ पक्काओ तारिस भत्त-पाणं तु १४४, १५१, १५३ तालियंटेण पत्तेण...ण ते वीयितु. २८२ | तालियंटेण पत्तेण...ण वीये | तिहमण्णतरातस्स ३०४ | तित्तगं व कडुयं व कसायं तीसे सो वयणं सोचा १५ ते वि तं गुरु पूति तेसिं अच्छणजोगेण तेसिं गुरूणं गुणसागराणं ४८६ तेसिं सो णिहुतो दंतो २४८ २८४ णक्खतं मुमिणं जोगं ण चरेज वासे वासन्ते ण चरेज वेससामंते ण जातिमत्ते ण य स्वमते गऽणत्येरिसं वुत्तं ण पक्खतो ण पुरतो ण पडिग्णवेजा सयणा-5ऽसणाई ण परं वदेज्जासि अयं कुमीले ण बाहिरं परिभवे ग मे चिरं दुक्खमिणं भविस्सति ण य भोयणम्मि गिद्धो ण य विगहिये कधं कहेज्जा ण या लभेजा णिउणं सहायं ण सम्ममालोइयं होज्जा ण सो परिग्गहो चुत्तो णाण-दसणसंपणं णामधेज्जेण णं बूया पुरिसणामहेज्जेण णं बूया इत्थीणाऽऽसंदी-पलियं के णिक्खम्ममाणाए बुद्धवयणे णिगिगस्स वा वि मुंडस्स णिच्चुब्बिगो जधा तेणो णि च ण बहमणेज्जा णीयं सेज्ज गतिं ठाणं णीयदुवार-तमसं १९५ गाईको | सुत्तगाहा तण-रुक्खे ण छिंदेज्जा ततो कारणमुप्पण्णे ततो वि से चइत्ताणं तत्थ से चिट्ठमाणस्स तत्थ से भुंजमाणस्स तस्थिमं पढमं ठाणं तत्येव पडिलेहेजा तधेव अविणीयप्पा देवा तधेव अविणीयप्पा लोगसि तधेय सुविणीयप्पा तम्हा असणपाणाती तम्हा एतं विजाणित्ता...आउतम्हा एवं विजाणित्ता...पुडवितम्हा एवं विद्याणित्ता...तस तम्हा एवं वियाणित्ता...तेउ११४ तम्हा एवं वियाणित्ता...वणस्सति५४९ तम्हा एयं वियाणित्ता...वाउ. १९ तम्हा एवं वियाणित्ता...बनते ३९९ तम्हा गच्छामो वक्खामो १३९ तम्हा तेण ण गच्छेज्जा ३९२ तम्हा ते ण सिणायंति ५११ तरुणियं वा छिवाडि ५५.१ तवं कुम्वति मेधावी १८९ तवं चिमं संजमजोमयं च २६५, तवतेणे वतितेणे ३६१ तबोगुणपहाणस्स | तसकायं ण हिंसंति | तसकायं विहिंसंगे | तसपाणे ण हिंसेज्जा तस्स पस्सध कलाण | तहा कोलमणुस्सिणं २३५ तहा नदीओ पुग्णाओ तहा फलाणि पक्काणि तहेव अविणीयप्पा १०३ तहेत्र असणं पाणगं वा...छंदिय तहेव असणं पाणगं वा...होहिति तहेव काणं काणे त्ति तहेब गंतुमुज्जाण...रुक्खा | तहेव गंतुमुज्जाणं...रुक्खे तहेव गाओ दोज्झाओ तहेव चाउलं पिटुं ५२२ तहेव डहरं व महल्लग वा २१२ तहेव तरुणगं पवालं १५६ / तहेव फरसा भासा ८१ ४३३ ४५७ थंभा व कोधा व मय प्पमादा थणगं पजेमाणी ૨૧૮ । थोवमासायणस्थाए २७ ३४४ दंड-सत्थपरिजूणा ३४४ दगमट्टितआताणे दगवार एण पिहितं ५१० दवदवस्स ण चरेज्जा दस अट्ठ य ठाणाई ३२४ दिटुं मितं असंदिद्ध दुक्कराति करेंता ३३० दुग्गवो व पतोदेण ३३६ | दुलभा हु मुहादायी २१८ | देवलोगसमाणो तु ४८४ देवाणं मणुयाणं च २१५, दोहं तु भुंजमाणाणं एगो ३२३ दोण्हं तु भुंजमाणाणं दो वि २५२ ४१७ ३४२ तं अप्पणा ण गेण्हति तं उक्खिवित्नु ण णिक्खिवे तंच अचंबिलं पूर्ति तं च उभिदिया देजा च होन अकामेण देहवासं असु ने असासन भवे भत्त-पाणं तु...एरिसं भवे भत्त-पाणं तु...नारिसं ४६८ १९० ३६२ १३५ १३६ Jain Education Intemational Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ गाहको सुत्तगाहा ५३५ पोग्गलाणं परिणाम गाईको ३०५ ४२८ मुत्तगाहा धम्मातो भट्ट सिरीयोववेतं धम्मो मंगलमुक्कर्ट धिरत्यु ते जसोकामी धुवं च पडिले हेम्जा धूवणे नि वमण य २६२ २२३ १२ बहवे इमे असाधू ३८६ बहुं परघरे अस्थि २५ बहुं सुणेति कण्णेहि बहुअट्ठियं पोग्गलं १९१ बहुपाहडा अगाहा नमोकारण पारना नाण दसणसंपणं नाणमेगग्गचिनो तु निट्ठाणं रमनिज्जुई निद्देसवनी पुण जे गुरुण गाईको | सुत्तगाहा वाहितो वा अरोगो वा विकायमाणं पसदं रयेण विडमुम्भेइमं लोणं विणएण पविसित्ता विणयं पि से उवाएण विणये सुते तवे या वितहं पि तहामुति विभूसा इत्थिसंसग्गी विभूसावत्तियं चेतं विभूसावत्तिय भिक्खु विरूढा बहुसंभृता विवनी अविणीयस्स विवत्ती बंभचेरस्स विवित्ता य भवे सेज्जा विविहगुण-तवोरये य निचं ! विसएमु मणुण्णेसु ४.४८ विस्समंती इमं चिंते | वीहेति हिताणुसासणं ४९१ ३१८ ४२५ ३११ ३१० ३४७ ४९५. भासा य दोसे य गुणे य जाणए ३९१ भुंजिनु भोगाणि पसझ चेतसा ४७२ भूताणं एसमाधानो ३०२ S ११९ १२३ १९२ २७ मंचं खीलं च पासायं ३३३ मट्टियागतेण हत्थेण ११ मणोसिलागतेण हत्थेण मधुकारसमा बुद्धा २९७ महागरा आयरिया महेसी १०० मुसाबादो य लोगम्मि १२९ मुहुत्तदुक्खा हु भवंति कंटगा मूलए सिंगबेरे य मूलमेतमहम्मस्स मूलातो खंधो पभवो दुमस्स ३५१ RBA २६८ ७५ ४७७ पंचासवपरिण्णाता पंचेंदियाण पाणाण पक्खंदे जलियं जोति पगतीए मंदा वि भवति एगे पत्छेकम्मं पुरे गम्म पडिकुटु कुलं ण पक्सेि पडिग्गहं संलिहिनाणं पडिम पडिवनिता सुसाणे पडिसेहिते व दिण्णे पढमं नाणं ततो दता पयत्तपके नि ण पक्वमालवे परिक्खभासी सुसमाहितिदिए परिबूटे त्ति णं वूया परीसहरिवूदंता पवडते व से तत्थ पविसिनु परागारं पवेयए अजवयं महामुणी पाईर्ण पडिणं वा वि पिंड सेज्जं च वत्थं च पिट्ठगतेण हत्येण पियातेगतियो तेणो पीटए चंगर य पुढविण खणे ण खणावए पुढविभिनि सिलं लेलु पुडविकार्य न हिंसंति पुयिक यं विहिंमत पुचिकाय विहिंसेज्जा पुदवि दग अगणि वाऊ पुनदारपरिविकण्णो पुरतो जुगमाताए पुरेकम्माकतेण हत्यण पूयणट्टी जसोगामी ५५२ १३४ रण्णो गहवतीणं च राइणिएसु विणयं पयुंजे डहरा राइणिएसु विणयं पयुंजे धुव रायाणो रायमना य ३८८ रोतिय णायपुत्तवयणं ५२१ २७८ लज्जा दया संजम बंभचेरं २९२ लद्भूण वि देवत्तं १३० लूहक्तिी सुसंतुट्ठो २३१ लोणगतेण हत्थेण ३४० लोभस्सेसो अणुफासो ४७८ २४२ २३ |संखडि संखडि बूता २६१ संघट्टइत्ता कारण ! संजमे सुट्टितप्पाणं | संतिमे सुहुमा पाणा घसीसु | संतिमे मुहुमा पाणा तसा संथारसेज्जाऽऽसण भत्त-पाणे संपत्ते भिक्खकालम्मि संवच्छरं वा वि परं पमाणं संसट्टेण हत्थेण सक्का सहितुं आसाए कंटगा सखुग-वियत्ताण सज्झाय-सज्झाणरतस्स तातिणो ३९४ सण्णिहिं च ण कुम्वेना १२५ सण्णिही गिहिमत्ते य २६३ सति काले चरे भिक्ख सतोवसंता अममा अकिंचणा २३४ समणं माहणं वा वि समाए पेहाए परिव्वयंतो २८६ समावयंता वयणाभिघाता २०९ समुयाणं चरे भिक्खू १२७ सम्ममाणी पाणाणि सम्मट्ठिी सदा अमूढे ४ सयणाऽऽसण वत्थं ५०५ स-वक्कसुद्धी समुपेहिता सिया ३६३ | सव्वजीवा वि इच्छति २५१ ४३१ ३९३ २०४ ३१३ २०८ वडती सोंडिया तस्स २७१ वणस्सति ण हिंसंति २७२ वणस्सतिं विहिंसंतो १६१ वणीमगस्स वा तस्स ३१ वण्णियगतेण हत्थेण ५३१ वत्थ-गंध-मलंकारं ८" वयं च विनि लब्भामो ११. वहणं तस-थावराण होइ ..३१ वाओ वुटुं व सीउण्हं Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुतगाहा सम्वणि बुद्धा सव्वभूतऽप्पभूतस्स सव्वमेतमनातिष्णं सम्बमेदं वदिस्सामि सव्युह पर ना सरवण हत्थे सारिणि इथे सावि साणी-पावारपिहितं साधवो तो चियत्तेण सालुगं वा विरालियं साह निक्खिवित्ता सिक्खिऊण भिक्खे सणसोधी सिणाणं अथवा ककं सिहं पुष्फ शिया एगतियो कोण सिया एगतियो लद्धुं विविधं गाहंको सुरुगाहा २६६ ६२ सिपालु २६ सिया य गोयर ग्गगतो ३५६ ३५५ ११. ११७ ९५ सिया य समणट्ठाए सिया य सीसेण गिरिं पि भिंदे सिया य से पावत णो डहेज्जा सीतोदगं ण सेवेज्जा सीतोदगसमारंभ सुपके लि १०१ वा १९३ सुतं वा जदि वा दि २१४ सुद्धढवीण णिसिए ११३ २४५ सुरं वा मेरगं वा वि ३०८ सुहसीलगस्स समणस्स ३८४ से गामे वा नगरे वा २२७ से जाणमजाणं वा २२९ | सेज्जातरपिंडं च गाहंको ૧૮૦ १८५ ११८ से तारसेक्स जिलिदिए सोच्चा जाणति कलाणं ४४१ सोश्वाण मेधावि सुभासिताणि इत्ये सुतगाहा सेज्जा- निसीहियाए ४३९ २०५ २९६ सोवच्चले सिंधवे लोणे ३५३ ३५७ हंदि धम्म- इत्थ- कामाणं ३९० हत्थं पायं च कार्य च ३७४ हत्य-पातपलिच्छिण्णं २१२ ८४ ४०० २१ हज हरिताले हत्ये हले हले त्ति अण्णे ति हिंगोलयगतेण हत्थे हे भो हरे त्ति अण्ण ति २७७ गाईको २०० १२९ ४३२ ६५ ४४९ १२९ २४ २४९ ४१३ ४२४ ५१६ १२१ ३२८ १२२ ३३१ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीयं परिसिढे दसकालियनिहुत्तिगाहाणुकमो गाहको ८१ २० गाहको निज्जुत्तिगाहा | गम्म पसु देस रजे गावी महिसी उही १०६ गिहिणो विसयारंभग गुणि उड्ढगतित्ते या २३६ २१८ २५६ १६९ २५१ चवीसं चउवीस चतुकारणपरिसुद्ध चरितं च कल्पितं या चितं चेयण सण्णा F १३१ ० १५६ २४३ १९. ११३ निजुत्तिगादा गाहको निनुत्तिगाहा अकुसलमणोनिरोहो २२३ इंदियविसयकसाया अक्खेवाणिअक्खिता इच्छा पसत्थमपसत्थिका अज्झयणगुणी भिक्खू २४९ इत्थिकहा भत्तकहा अट्ठविधं कम्मचर्य अट्ठावधं कम्मरयं उढिकडं भुंजति अट्ठविकम्मरोगाउरस्स उप्पण्ण विगत मीसग अट्ठारस ठाणाई उरग गिरि जलण सागर अणभिग्गहिता भासा उवमा खलु एस कता अणसातणा य भत्ती २२७ उपसंहारो देवा अणिएतं पतिरिक २६९ एको कातो दुहा जातो अणिंदियगुणं जीवं एता चेव कहातो अणिगृहितबल-विरिओ एत्थं पुण अधिकारी अण्णं पिय सिं णाम एत्य य भणेज्ज कोति अतसि हिरिमिथ तिउडग एत्य य समणमुविहिया अतिरित्त अधिगमासा २६० एमेव भावसुद्धी अत्थकहा कामकहा एसो दुविहो पणिधी अत्थबहुलं महत्थं एसो मे परिकहितो अत्थमहंती वि कहा अत्थि बहुगाम-देसा कंतारे दुब्भिक्खे अत्थि बहू वणसंडा कत्थति पंचावयवं अध ओवगारिओ पुण . कत्थति पुच्छति सीसो अधिगारो पुवुत्तो , करणतिए जोगतिए अप्फासुय-कय-कारित कामो चउविसतिविहो अब्भासवित्ति छंदाणुवत्तणं कार्य वायं च मण अन्भुट्ठाणं अंजलि आसणाणं अभिग्गह २२२ ! कारणविभाग कारणविणास अन्भुट्ठाणं अंजलि आसणदाणं च अतिधि २१२ काले विणये बहुमाणे अवणेति तवेण तमं किंच दुमा पुती भवि भमरमहुकरिगणा किंची सकायसत्थं अस्संजतेहिं भमरेहि किष्णु गिही रंधती अह कीस पुण गिहत्या कुसुमे सभावपुप्फे कोडीकरणं दुविहं आओडिम मुक्किणं कोधे माणे माया आगमतो उवउत्ते कोई माणं मायं आणंदअंसुपातं आमंतणि आणमणी खंती य महवऽज्जव मुत्ती आयप्पवायपुव्वा खंती य महवऽज्जव विमुत्तया आयाणे परिभोगे आराहणी यु दम्वे १७४ गजं पजं गेतं २६३ २०० २०२ १६२ छज्जीवणियाए खलु १३९ छहि मासेहि अधीतं जं च तवे उज्जुत्ता जं भत्त-पाण-उवकरण १८८ जं भिक्खमेत्तवित्ती २०४ जं वकं वदमाणस्स २२५ अणवत समुति ट्ठवणा जध दारुकम्मकारो जध नाम आतुरस्सिह जस्स पुण दुप्पणिहिताणि जस्स वि त दुप्पणिहिता ૨૩. जह एत्य चेव इरियादिएम जह एसो सहेसं जह चेव य उहिट्ठो जह दुमगणा उ तह णगर८८ जह भमरो ति य एत्थं जह मम ण पियं दुक्खं जा ससमएण पुचि जा ससमयवज्जा खलु जिणवयण सिद्धं चेव जीवस्स उ निक्खेवो जीवस्स उ परिमाण जीवा-ऽजीवाभिगमो १५.१ जीवाऽजीवाहिगमो २४८ जुत्तीसुवण्णगं पुण जे अज्झयणे भणिता ७६ | जेण य धरति भवगतो १९९ १४८ १३२ २१९ ११९ १३५ २०१ ११५ २५३ १२५ २५४ १२१ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७९ १५. २२१ गाहको निज्जुत्तिगाहा गाईको २०७ पंच य अणुव्वयाई ८६ पगती एस गिहीणं २१५ पगती एस दुमाणं १८९ पजं पि होति तिविहं ९४ पडिरूवो खलु विणयो कायिय१८ पडिरूवो खल विणयो पराणु१४० पढम-बितिया चरित्ते १८४ २६८ : पढमे धम्मपसंसा २६१' पणिहाणजोगजुत्तो २१६ पतिखुइएण पगतं ३ पत्थेण व कुलएण व १३६ २५८ परलोग मुत्तिमन्तो १६८ १९६ : पव्वइए अणगारे पासंढी चरक तावसे ६५ १७३ पन्वयिये अणगारे पासंडी चरय बंभणे २४५ २१ पावाणं कम्माणं २५९ पुचि बुद्धीए पासित्ता VVV १०१ निज्जुत्तिगाहा गाईको निज्जुत्तिगाहा जेण व जंव पडुच्चा ४' दंसण नाण चरितं जे भावा दसकालियसुत्ते २३१ देसण नाण चरित्ते तव आयारे जोगे करणे सण्णा दसण नाण चरिते तवे य जोणिभूते बीए १४२ / दंसण-नाण-चरित्ते तवोविसुद्धी जो पुव्वं उवदिट्ठो दक्खत्तणगं पुरिसस्स जो भिक्खू गुणरहितो दन्वं च अस्थिकायो जो संजतो पमत्तो दव्वं सत्थ-ऽग्गि-विसं दव्वं सरीर भविओ णस्थि य से कोति वेसो दव्वरती खलु दुविहा णवकोडीपरिसुद्धं दव्वाण सव्वभावा णव चेवऽद्वारसगं दव्वे अद्ध महाउय णाणाविहोवकरणं १६१ ; दम्वे खेत्ते काले जातं आहरणं ति य २४ दब्वे णिधाणमादी णामं ठवण सरीरे १३०, दव्वे तिविधा गहणे णामं ठवणाकामा ६८ दब्वे भावे वि य मंगलाणि णाम ठवणाजीवो १२१ दब्वे सच्चित्तादी णाम ठवणा दविए खेत्ते काल दिसि ६. दिटुंतो अरहंता णाम ठवणा दविए खेत्ते काले तहेव ११८ दिट्ठीए संपातो णाम ठवणा दविए खेत्ते काले पहाण ८३ दुपय-चतुप्पय-धण-धण्ण “पमं ठवणा दविए माउगपय १.११७ दुप्पणिधियजोगी पुण .नं ठवणाधम्मो १. दुमपुफियं च आहारएसणा णा-ठवणापिंडो दुमपुफियाए णिज्जुत्तिसमासो णाम दुवणासुद्धी | दुमा य पायवा रुक्खा णामण होवण वासण । दुविहा य होति जीवा नामदुमो ठवणदुमो १३ देसं खेतं कालं मपदं ठवणपदं ७३ दो अज्झयणा चूलिय ण.यम्मि गेण्हियब्वे | धण्णाणि चउब्धीसं तं कसिणणोवेतं २५२ धण्णाणि रयण थावर तंतिसमं वागसम धम्मकहा बोधव्वा ततिए आयारकहा . धम्मत्थिकायधम्मो तत्थ असंपत्तोऽत्थी १६३ धम्मस्स फलं मोक्खो तम्हा जे अज्झयणे २५७ धम्मो अत्थो कामो उवइस्सड तम्हा तु अप्पसत्यं २१० धम्मो अत्थो कामो तिण्णेते तम्हा धम्मे रतिकारगाणि २६६ धम्मो एमुवदिट्ठो तव-संजमगुणधारी धम्मो गुणा अहिंसादिया तिण्णे या दविए धम्मो बाविसतिविहो तिण्णे ताती दविए २४४ तित्थकर सिद्ध कुल गण नाणं सिक्खति नाणं गुणेति तिविधा य दव्वसुद्धी १८६ नाम ठवणा भिक्खू ते उ पतिण्णा सुद्धी निक्खेवो तु चउको तो समणो जति सुमणो निद्देस पसंसाए निरामया-ऽऽमयभावा दंत त्ति पुण पदम्मी ५० निस्संकित णिकंखिय १६४ फरिसेण जहा वाऊ २३८ २०८ बारसविम्मि वि तवे १५. बितिओ वि य आदेसो ५५ बितियपइण्णा जिणसासणम्मि १४, १४ १२ २२८ '.६ २४२ १२४ भवति तु असच्चमोसा ११४ भावपदं पि य दुविहं भावसमाधि चउम्विध भिक्खविसोधी तव-संजमस्स १५५ भिक्युस्स य णिस्खेवो भिदंतो यावि खुधं ९६ भूमी घरं तरुगणा १९ भेत्ताऽऽगमोवयुत्तो १६७ भेदतो भेदणं चेव १०५ १६६ मधुरं हेउनिउत्तं १५२ माया-गारवसहितो २६ मिच्छत्तं वेदेंतो १४९ मिच्छादिट्ठी तस-थावराण मिच्छा भवेतु सम्वत्था २१७ मोक्खम्मि वि पंचविधो १२८ २१४ १७१ रयणाई चउव्वीस २३० रूवं बतो व वेसो ८७ लोगसत्याणि... Jain Education Intemational Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० निज्जुत्तिगाहा लोगोवारी वर्ष वयणं च गिरा वण्ण-रस-गंध-फासे वयछक कायछकं वयणविभत्तिअकुसलो वयणविभत्तीकुसलस्स वयणविभत्ती कुसलो वयविमती पुगसत्तमम्मि वासति ण तणस्स कते विज्जा चरणं च ततो का सिपमुवाओ विनयस्स समाधीय य विसघाति रसायण मंगलतविस तिणिस वाउ वंजुल गाईको | निम्युतिगाहा २११ सय प वीरिय-विउव्वणिड्डी १७२ वेणतितस्स पढमया १८७ १७० १९२ १९१ १९.३ संखो तिणिसो अगर संम्मे संवेगो निव्वेगो सच्चपवातपुव्वा सज्झाय संजम तवे सद्द-रस- रूव-गंधा- फासा उदयं सद्द-रस रूव-गंधा- फासा रइकार ११ ३४ ९७ ९३ | सद्देसु य रूवेसु य समणस्स उणिक्खेवो २१० २५० | समणेण कहेतव्वा ६४ सम्मीि तु सुतम्मि गाईको निगा ७१ सम्बदिता १०० १०३ सव्वा वियसा दुविधा सव्वेसि पि णयाणं साधू लूहे यतधा १५८ सामण्णपुण्वगस्स तु १२२ सामण्णमणुचरंतस्स २४७ | सिंगाररसुग्गुतिया ६ सिद्धं जीवस्स अस्थित्तं २६५ | सिद्धी य देवलोगो ६९ सुतधम्मे पुण तिविधा २६२ सुप्पणिधितजोगी पुण १९७ सेसं सुत्त फार्स ५९ सोदिवरसम्मु काहि ११२ १८२] गूहित गाईको १३४ १८० ५७ २४६ ५८ २०३ १११ १२७ १०२ १८१ २०९ १४३ १९८ १६५ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं परिसिटुं दसकालियचुण्णिअंतग्गयगंयंतरावतरणाणुकमो २४ अवतरण पिढेको बदतरणं पिढेको | भवतरणं पिढेको अंवं फलाणं मम दालिमं प्रियं १३ उवओग-जोग-इच्छा घरवासम्मि य बंधो भकोस-हणण-मारण उवयुजिऊण पुग्वं [ओध नि. गा. चतुर्हि ठाणेहिं जीवा जेरइगताए। भच्छेद्योऽयं भिगवद्गीता अ० २०२४] ६८ २८७ पत्र ११६.२] [स्थानाङ्ग स्था० ४ सूत्र ३७३] २४८ महे तिरिक्खजोणी उक्युजिऊण पुल्वि चतुर्हि ठाणेहिं संते गुणे णासेना अट्ठारस पुरिसेसुं [स्थानाङ्ग स्था० ४ उ. ४ सू० भण्णस्स पिता छासी एकं पंडियमरणं ३७० पत्र २८४-1] ४३ अण्णातं थितितोपेतं | एको करेति कम्म० [महापचरखाणे चित्तमेव णियंतव्य २४१ भयकरी छेदकरी गा० १५] १८ अत्थं भासति अरहा एगग्गहणे गहणं समाणजातीयाणं १८९ भत्यि ति जा वितका एगग्गहणे वि [गहणं] तजातियाण १८५ | जंबुद्दीवे दीवे मंदरपव्वयस्स भधीयाणा अणझाए एवं चकिया एवं से कप्पति [दशा. (स्थानाङ्ग स्था० १० सूत्र ७२०] ३८ भनुवादा-ऽऽदर-वीप्सा २३७ म०८ सू० २३३] १७६ / जं मुच्चति अणुभवणेण २५३ अरहतेसु य रागो एवं जीवाकुले लोके जति पुण सो वि वरिजेज अलोए लोयप्पमागमेत्ताई खंडाई [नन्दि० सू० ४२] [नन्दी० सूत्र १६ पत्र ९७-२] ओद्धसितो य मरुतो [कल्पभा० गा. जम्म-जरा-मरण [मरण. गा०५५८] १८ अविशेषोके हेतौ प्रतिषिद्ध १७१६ पत्र ५०६] जलमझे जहा णावा भोमजणपुरकारो जस्स धिती तस्स तवो. आकंपतित्ता अणुमाणतित्ता० [स्थानाङ्ग ओमजणम्मि य खिंसा जह तुम्मे तह अम्हे स्था० १० सू० ३३ पत्रं ओस्सुदय (सुद्धोदए) [भाचा०नि० जहा पुण्णस्स (कच्छति] [आचा० ४८४-१] १९३ गा० १०८ श्रु० १ अ०२ उ०६ सू. ४] ३७ भागारिंगित-चेट्ठागुणेहि जाती कुल गण कम्मे आपो देवता, पृथिवी देवता काए वि हु अझप्पं जीवितमवि मणुयाणं आवंती केयावंती लोगसि [भाचाराग कामं सव्वपदेस वि जोगे जोगे जिणसासणम्मि [ओघश्रु.१०५उ०१सू०१] काम! जानामि ते रूपं नि० गा० २७७] आवस्सगस्स दसकालियस्स कायो सपचवायो २४४ जो चेट्टति कायगतो [आव. नि. गा. ८४] कोलाहलगन्भूतं [उत्तरा० भ०९ माहाकम्मं णं भंते! भुंजमाणे कति गा. ५] २४८णत्थि य अवेदयित्ता . २५३ कम्म. [भग. श. १३०९ क्रिया हि द्रव्यं विनयति, नाद्रव्यम् ण पक्खतो ण पुरतो (उत्तरा० भ०१ १४५, २५३ गा०१८] इंगाल [आचा. नि. गा० ११] ७५ | णरयाउयं निबंधति ___ २५० खणमवि ण खमं गंतुं [ओघनि. णालं ते तव ताणाए वा [आचाराश इट्ठाण वि सण्णेमो गा० ७६८] १८३ श्रु०१ अ०२ उ०१ सूत्र २] इन्द्रियमिन्द्र लिङ्गम् [पाणि. ५२१९३] ६५ खरिया तिरिक्खजोणी [ओषनि० णिर[स्थ]गमवत्थं च इस्सा-विसाय-मय-कोह गा. ७६०] १८५ णिश्वक्केसायासो २५१ उक्कलिया [आचा०नि० गा.१६६] उचालियम्मि पाए गयेनोक्तः पुनः श्लोक . २२४ | तं दुगुणं दुगुणेण अपरिहरित्ता ण वति २६७ उसे णि• [आव०नि० गा.१४०.४१ तमेव सचं निस्संकं पत्र १०४] (घरचारगबंधातो २५१ ताव पइण्णाओ हेउणा ११. २५१ 5 Jain Education Intemational Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ २५१ २६४ १८७ २८२ तइयं परिसिह अवतरणं __ पिढेको अवतरणं पिटुको अवतरणं पिटुको ते चव सुम्भिसद्दा पोग्गला दुब्भिसद्दत्ताए । पुरिसादीया धम्मा १६५. व्रणे श्वयथुरायासान मुश्रुत, सूत्रस्थान, (ज्ञाताधर्म० श्रु० १ अ० १२ सू० | पृथिव्यापस्तेजो वायुराकाशं [वैशेषिक- अध्याय १९, लो०३६ २४६ ९२ पत्रं १७४] १९९ दर्शन अ. १ आ० १सू०५] ६८ संदसणण पीती पेच्छति जहा सचक्बू थाणं वीज म]वटुंभो संदंसणेण पि(पी)ती दश धर्म न जानन्ति [महाभारते १२९ बहूण या विहारो १६६। संवच्छरवारसाण दारादीण वि अत्थे बह्वचोऽन्तोदात्ता. [पाणि० ४॥३॥६५ ७३ संहिता य पदं चैव दिट्ठा सि कसेरुमती । बातालीसेसणसंकडम्मि [पिण्डनियुक्ति१०६ सग्गाम परग्गामे गाथा ६३४] १२५ दुक्खं च दुम्समाए सद्देसु त भद्दत-पावगेमु [णायाधम्म० २५३ | बारसविग्मि वि तवे [कल्पभाष्य दुक्खं परीसहकतं शु०१, अ०१७ प्रान्ते दुलभं गिहीण धम्मे ___ गा० ११६९) २०. सद्देसु त भद्दय-पावएस [मायाधम्म दुलहो गिहीण धम्मो बे मज्झ धातुरत्ताई [आव० चूर्णी विभाग श्रु. १ अ० १७ प्रान्ते] दुःखमेव वा तत्त्वा० ७-५] १ पत्र ५६५ हाटी० पत्र ४३५] ५४ समानकर्तृकयोः पूर्वकाले [पाणिक दृह दृहि वृह वृहि वृद्धो १७० भिक्षादिभ्योऽण (पाणि० ४-२-३८] .. ३१४।२१] देवा उस्सण्णं सातं वेदणं वेदेति, सम्मट्टिी जीवो विमाणवज आहच अस्सातं मणपज्जव आहारक सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः मत्तं गयमारुहतिए! ४७ [तत्त्वा० अ० १.१] धमे धमे णातिधमे मातृवत, परदाराणि सव्वं कुटुं तिदोसं हि धम्मेण समणधम्मे मिच्छत्तं अविरति० २५२ । सव्वजीवाणं अक्खरस्स अणतभागो. धी संसारो जहियं० [मरण० गा०५९९] १८ मुत्तनिरोहे चक्टुं ओघनि० गा० १९७] १०५ . निच्चुग्घाडिओ [नन्दि० स० ४२] ४ नदीकूलं भित्त्वा कुवलयमिवोत्पाट्य मोरी णउलि. [आव० मूलभाष्यगा. सव्वट्ठाणाई असासताई [मरणसमाहीए सुतरून् १३८ हाटी० पत्र ३१९] गा०५७४] न य तित्तिकरा भोगा रक्खंति अप्पमत्ता----- सव्वविसुद्धे उवओगे नादंसणिस्स नाण. (उत्त० अ० २८ रागो द्वेषश्च मोहश्च सव्वो वि किसलओ खलु गा०३० रायादियाण चिंताभरेहि साधारणा य भोगा २४९ निक्खित्तसत्थमुसलो सावजो गिहवासो निक्खेवेगट्ठ णिरुन लहुसगभोगनिमित्तं २५० सिया य केलाससमा अणंतका [उत्त. निवयंति परिकिलेसा लहुसा इत्तरकाला २४९ अ० ९ गा०४८ सिरीए मतिमं तुस्से पक्षाः पिपीलिकानां वयं मणुस्सा ण सढा ण निट्ठरा सीतालं भंगसतं पडमिल्लुयाण उदए [आव० नि० वर्तमानसामीप्ये० [पाणि. मुण्हातं ते पुच्छति गा० १०८] १८१! ३-३-१३१] ११०, १११, १६६, सुभगा होंतु णदीओ पणिवाएण पहाणं | वारत्तगनिदरिसणं (पिंडनि. सुमहग्यो वि कुमुंभो पभू णं चोइसपुव्वी घडाओ [भग० श०५ गा० ६२८] १०५ सुलसाकुलप्पसूता उ० ४ सू० २०० पत्र २२४-१] ५७ विअट्ठभत्तियस्स कप्पंति सम्वे गोयर सुलसागभप्पसवा परियंदति सुण्हा गहवतिस्स ___ काला दिशाश्रु० अ० ८ सूत्र २४४] १२६ सुह-दुक्खसंपओगो पाणवध मुसावादे २५२ विणतो सासणे मृलं [आव. नि. सूतीपदपमाणाणि पाणवधातो नियत्ता गा० १२२८] से गृणं भंते ! मग्णामीति ओधारिणी पातेण दुन्विणीतो वित्तिविधाणनिमित्त भासा [प्रज्ञापना, पद ११, सूत्र पिंडस्स जा विसोही व्यव० भा० उ० वीतरागो हि सव्वष्णू १६१, पत्र २४६] २२१ १ गा० २८९] वीयरागा हि सव्वष्णू पुच्छह पुणो पुणो आदरेण वीरं कासवगोत्तं हव्ववाहो सव्वदेवाण हव्वं पावेति २०९ पुढविकाइया वेमाताए याऽऽणमंति वा ७५ वेयण वेयावच्चे ३२ | हिंसादिविहामुत्र चापायाऽवद्यदर्शनम् पुढवी य सकरा वालुगा य [आचा० व्याधिप्रतीकारत्वात् कण्डूपरिगतवञ्चा- [तत्त्वा० ७-४] नि० गा० ७३] ७५ | ब्रह्म (तत्त्वा० -५ सूत्रभाष्ये] ८५ हे जं व तं व आसीय : १६१ १०२ Jain Education Intemational Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थं परिसिटुं दसकालियसुत्तं-चुण्णिअंतग्गयविसेसनामाणुकमो पिढेको जंबु . कणाद ५१ २७१ ठाण २३, ४३ २६ २६ २५३ विसेसनाम पिढेको । विसेसनाम पिढेको । विसेसनाम अंधगवहि ओणामणी ओहानिज्जुत्ति अग्गिगिह १२,२४ जमुणा १७४ जरासंध अजमण जसभद्द अजवाइर कप्प जातकसता अजसेजंभव कम्मापवायपुव्व जिणदत्त अट्ठाव कयमाल जीवा-ऽजीवाधिगम भट्ठावय कलसभवमइंद जोगसंगह अणुओगदार काल जोणिपाहुड १३८, २०६ अणुओगद्दार कावालिय अम काविल अभत कासव ७२,७३ अभय काहावण णागदत्त अयल कुत्तितावण णातपुत्त १३७, २३८ अग्टिणेमिसामि कूणि णाय १४७ असंख कोकास णायपुत्त १४६, १४७, १४९, २३८ असगडपिता कोडला णारय असगडा कोडीगण णालिया कोसंबी णालीया मामड भायप्पवायपुष्व खुडियायार णिण्हग आयार ४, १९७, २४५ खुडियायारकहा तंदुलवेयालिअ आयारकहा गंगा १७४ आयारपणिधी गागलिग तरंगवई आयारपणिही गोतम २९, १६९ तरंगवतियादि आयारप्पणिधिअज्झयण १८० गोयमसामि तिमिसगुहा आवस्सअ६,२५,३५,५०,५१,५४,५८, गोल थंभणि ९८,१३८,१५९,२०२, २३०, २४५, गोविंदवाय आवस्सग १,२६,५१, १८० दक्खिणावह आसाढ चउरैगिज दत्तिलायरिअ चंदगुत्त दसकालिय २, ३, ६, ९, २७०, २७१ दाइमहामह चंदणा दसवेकालिय इसिभासिय चंपा दस[वे] कालिय चरग दसवेतालित उग्गसेण २४४ चाणक २६, ४२, ५४, १८० उजेणी दसवेतालिय ३, २४५ चूलुत्तरचूला उण्णामणी दसवेयालिय . २७० छज्जीवणिका उत्तरज्झयण दसार २१३ उत्तरावह छज्जीवणिया २३, ६५, १४९, १५१, २२४ | दसारा उसभसामी | छलुअ ' २६,२८ | दिढिवात तत्त्वार्थ २८, Jain Education Intemational Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ विसेसनाम दिद्विवाद दिलीप दीवायण धम्मिल नलदाम कोलिय नागदत्त दुमपत्तअ दुमपुष्पित अक्षयण ३५ दुमपुष्फिला ५३, ५९, ८२, १४०, १०२ पुण्या ५, ६, ३५, ५२, १३९ देवदत्ता देसी ५५. १६८, १६९ दोवती दोवतीणाते धम्मगति धम्मपण्णत्तिअज्झयण धम्मपणत्ती धम्मपण्णत्ती अज्झयणं पउमरह पंचकप्प पंजोय पण्णत्ति पण्णत्ती पभव पाडलिपुत्त पिंडी पिंडेस पडेगा समिति पोंडरीयाण यंभदच बारवती बिंदुसार वुद्ध बोडिंग महियारिभ भरद्द भारह भोगरात भोयराय भांया पिको विसेसनाम २,१९७ मंडुकलियाखमगा १६६ मंदर २१ मणअ २६ मणग मणय मथुरा मम्मण 9-1 मरट्ठा मरहट्ठगा ५५ मरहट्ठा ५५ महतिमायारकहज्झयण १४९ ९८ ५, ७३ ६५ २२७ २६ २२ ३२६०, ६१, १०७, ११३ ५५रतिव २३ रतवडा २६ रहणेमी १९७ रहनेमी ५रातीमती ४, ९ रायगिह २४ रायमति १९० रायीमई ६, २६५ महावीर मालवगा मिगावती ९८, १३८ रुप्पिणि २४ मृदेव मेह मोहन ५४, ५५, २२७ २१ ४२ ६८ २५.६ रसिद २ लोहक ५६, ५८ रिसिमासमण बर यही उत्थं रिसिहं २ वररुचि भाग वटुकहा वद्धमाणसामि - मी वरधणु ४२वलपुर वसुदेव ४६ वारत्तगनिदरिसगं ४६ वासुदेव ४६ पिट्टको | बिसेसनाम विदेहा वीर १९१ २४५ ४, ५, २७० वेदवाद २१ वेरसामि ५४ वैसेसिय २०७ व्यास ११३ १६९ ૩૮ ७२, ७३, १४४ २१ २५ २८, ५५ २६० २०९ २ ५, ६, २३२ ४६, ४८ ४७ ४७ ४, ४३, ५० *દ્ * २७१ ५५ प्राचीनतमा वृत्तिः ૪ सक सबाद सच्चपवाय सच्चप्पवातपुव्व सभित्रक सभा समुद्रविजय सामण्णपुव्वअ सामाइअ सामानिमी सारस्सत सिद्धत्थ सिरिगुत सिवावी काकिमस्याप्राप्या समा गुरुप सुधम्म सुधम्मसामि सुधम्मा मुबुद्धी सुभद्दा सुरट्ठ सुलसा सरपति सेभव ५, ६, १८० १५९ १९९ ७३, १३७, २३८ ५.४ १७३ ४७ ५५ १०७ हरिवंस २१३ हिंगुसव ६ हिमवंत सेमिन सेणित सेणिय सेवपड सोगरिक २६९, २७१ सेजंभवसामि पिको २१८ २७१ २५३ २०९ २७१ २७ ६८ ११, ५६ ५४ ४६ ७३ २३० ३ ۱۹ १४७ २: ४६ २५९, २६० ४, ४३ २१३ ४२ २४, २५ २१ ५० २, ३८ ४, ४८, १४७, २५६, २५९, १५७, २६९, २७१ ५०, ५२ २२ ५० * 2 * * * १७ ४६ ૨૪ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमं परिसिटुं दसकालियचुण्णिअंतग्गयवक्खात-अवक्खातविसिट्ठसद्दाणमणुकमो सहो पिढेको १२२ २२५ १८३ ५३, १४० ० ० ० ० २४१ ११८ पिट्टको | सहो १४ | अतियार असव १६५ अनसंपग्गहित | अत्तोवण्णास अत्थ अत्यंतर अत्थकहा २६४ अत्थबहुल अत्थविणय अत्थविरमणविरामजुत्त अत्थि अत्थिकाय ६१,६२ भत्थिकायकात अत्थी अदत्तादाण २०४ अदिण्णादाण अदीणता अद्धद्धमीसिय १८ अद्धसम १६, १९ अधरगतिवासोवसंपया अधितगामिणी १ 0 0 २४२ २३४ अंजलिकरण अंजली अंबिल अकल्पित अकहा अकिंचण अकुह भक्खेवणी अगढित अगणी भगारधम्म अग्गवीत अग्गला अचंतिय अच्चि अच्चियत्त अच्ची अच्चुसिण अच्छण अजय अजीवमीसिय अजीवाभिगम अजव अजवय अजीव अज्झप्प अट्ठ अट्ठावय अणंग अणंगकीडा अणंतनाणोवगत अणंतमीसिया अणगार अणगारधम्म अणगारिता अणच्चासातणाविणय अणभिग्गहिय अभिज्झित २६८ पिढेको सहो अणवट्ठ २०४ अणसण अणाइण्ण अणाचिण्ण अणाततण २०१ अणादिट्ठ अणासातणा अणिकेत २४१ | अणिण्हव १८६ | अणिदाण अणि मिस अणियोगदार १२५, १७१ अणिव्वुड अणिव्वेद अणिह अणुगच्छण अणुगम ११६ अणुपस्समाण १८५ | अणुपेहा | अणुप्पेहा | अणुयोग अणुवीतिभासी ११,१९,२३४ अणुब्बत २४३ अणुम्बिग्ग अणुसट्ठी अणुसासणा अणुसोत अणुसोतमुह अणुसोयपद्वित १४२ अणुस्सिःण अणेगंतपक्खावलंबण १६१ अणेगंतवान अणोहावित १३९ अण्णत्थ अण्णाउंछपुलाम अण्णातउंछ अण्णायउंछ | अतिधिपूया १६१ अधुणा १३९ २५० १९७ ४० १६१ ४० २२२ २४४ २५५ २०५ २४ २६२ अपजत्तिग अपाद अपिसुण २२५ अपुणागम अपूतिम २६२ अप्पडिरूव २६२ अफरुसभासी अबंभवरमणगुण अबोधिलाभ | अबोही अब्भासविती अन्भुट्ठाण अभिगमकुसल २६३, अभिग्गह २२. अभिग्गहिता २०२ अभिग्गहो १३० १४६ २४१ २२३ १४ १६१ १६१ २०४ Jain Education Intemational Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ पंचम परिसिटुं सहो पिटुको | सहो १० आरुहंत २६ | आलित पिटुको | सहो अहम्मत्थिकाय ६. अहम्मपउत्त अहिंसा १६ अहिगम २५५ अहेतुगेज्झ २२१ अहेतुवात अहेमालोहड १४४ | आलिहण | आलोग ५०/ आलोयण आसंदी आसण आसणदाण आसव आसवदार १४९ आसुर आसुरी आहरण आहरणतद्देस आहरणतहोस १३२ २०२, २०४ ६३, २३८ २३८ १९१ १४० २०, २१ २१, २४ २१, २६ इंगाल इंगिणिमरण ८९, १०१, १८६ इंगित २१९ १७ इंदितातीतविषणाण इंदिय ४१, ६७ * अभिप्पात अभिहड अभूतुब्भावण अमणुण्ण अमाणिम अमादी अमुच्छित अमूढदिट्टि अयपुर भरस अरहंतपडिमा अलात अलिसिंद अलोग अलोल अलोलु अवंदिम अवगृहण अवज्ज अवणत अवण्णवाय अवतेस अवधारण अवभंस अवयव अवरन अवराहपद अवस्सकरणीयजोगाणट्ठाण अवात अविसोधिकोडी अविहेडअ अव्वह अव्वोकड अव्वोच्छिण्ण असंकिलिट्ठ असंपन्न असंभंत असंविभागी असंसत्त असचमोस असच्चामोसा असण असम्मोह असूचित १७ इच्छा इच्छाकाम इच्छाणुलोम १९०, १९७ । आउकाइत आउकाय ४, आउजयणा १८६ आओडिम १४० । आकिंचणीय ९६ आगम २४२ आगमप्पहाण आगासस्थिकाय आगाहण आजीवणा आणमणी आणा आणापाणु आणास्यी आतंक आतती आताण आदिट्ठ आदेसभावमुद्ध आदेससुद्धि १७, २१, २२ आमंतणी आमग आमपिट्ठ आयतट्ठी १६१ आयती आययत्थी २६६ आयरिय आयाण आयार आयारक्खेवणी १९३ आयारगोयर १६१ आयारधर आयावण आरकूडग आराधणा १२४ आराहणी-विराहणी उंछ १६२ १६१ ६२, ११७, १८६ उंदुय उकलियड उक्का २४० ११. उचिट्ठ १३३ २५४ १८९ उग्गमकोडी उग्गहिता उच्चार उच्चावय उछु उजालण ११८ ११८ ११५ ६३, २३४ उज्जु १३९ उड्ढमालोहड उण्णत उत्तरगुण १०२ ६, ८६, २३६ ११४, १८७ १८८ उनिंग २३४ उत्तिंगसहुम १५९ | उदओल्ल १८६ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सो उदग उदय उदाहरण उद्दंड उद्देसित उप्पण्ण मीसिया उपस्थित उप्पल उप्फुट उमुत उम्मात उबओग उवग्धाअ उवग्घात उवज्झात उवज्झाय उवणत उवण्णासोवणअ उवमा उदयारविणय उ उवसंत उपसंहार उपसंहारविही उवसग्ग उषसम उवहाण उवाअ उवात उवालंभ उस्सड उस्सण्ण उस्सण्णदिडाहड उस्सिकण ऊस 文 एतदिडी एगंतिय एगधार एलग एस णिज्ज ओकिरण ओगाढस्यी पिट्ठको | सड़ो १८८ ઃઃ ६७ ओमजणपुरकार २१ | ओमोदरिय ओवम्म १०६ ६० १६० ओसकिय १६१ ओहजीव १२८ | ओहाणुपेधी ८९ खा १४२ कंगु ܕ ܪ . ܂ ܘ . . ܘ ܘ ܚ ܚ ܐ ܘ ܗ ܘ ܘ ܕ ६७ कंद १७८ ९ कंवल १५ २०९ २० २१ २० २०४ ५० २४० २०, ३२ ३३ ४० ओज १९४ ओवम्मसच्च २२, ५४ २१ २५ १३१ २६४ २६५ ११५ ११० २, ६५ ३६ १९ १५० १०५ १११ ३९ १८ ५२ कविट्ठ कसाय कंबोपदेश कटु कडुय कप्पित कम्म कम्मदव्वरत करग करण करह कलह कलाय कवाड कलिंच कहा काइय काउस्सग्ग काम कामकहा कामविणअ काय काल कालखडय कालचूला कालमहंत काला लोण पंचमं परिसिहं कालावात कालोवात कितिकम्म किनी पिडंको सहो ३९ किवण कीतक २५० १३ २० १६० ११५ ६६ कुवित कुविय केवलिसमुरघात मोडल कोध २४६ ܘܝ १४० ६२, ११७ ९१ १८८ પ १२४ २१, १०७ ६७, ९१ २४६ ઢ ४१, १४२ १४२ १०२ कुप्पचयग कुमुद कुम्मास कोल कोला १४ १७, ३८, ४१, १४१ - ५५ २०३ खेत खंती खंध खंबीय खनिय खमा खवण १४० खाणु १०४, १२७ खादिम ८७ खील खेल खमासमण खलिण १३० ६७, १२४ खुड़त ५३, ५८ खुड्डिय २०४ खेचूना खेऩमहंत खेत्तावात खेनोवात १० मंडिग ५.१ गंथित ४९ गंथिम गंध गज्ज २४५ ४९ ६२ २१ २२ २०४ २१२ गम-णयसुद्ध गणधम्म गणहर गणी गतिकात २८७ पिको १२७ ६० २३२ ११ १२८ १२४ २३२ १४१ ४९ १२० १९४ १३० ११७ ३८, २३३ २३४ ७३ ७५ १३८ ११ २०० २६९ २३३ १०० ८६ ११७ १८९ ४९ ४९ २४५ ४९ २१ २२ १७२ ४० ३९ ६० ४० ܝ ܢ १३८ ७२ ४० Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ पंचमं परिसिटुं सहो पिढेको | सहो पिढेको | सहो जुत्तीसुवष्णग १०४ पिटुको २३५ १.१ चियत्त गम्मधम्म गहसम गहित गाम चुष्ण जोग चुष्णपद चूलिया जोगसच्च जोती गिद्ध गिह चेदणा ११ २३१ चेलकण्ण झुसण २५३ २१, २४ १.४ ठवणाकम्म ठवणासच १९० १६. १५४ १५३ णंगल गिहत्य गिहवइ गिहिजोग गिहिणिसेज्जा गिहिभायणवजणत्थ गीतत्थ गुज्झग गुण गुणणा गुणब्बत छंदाणुवत्तण छक्कक छक्कायदया छारिय छिवाडिया छीरविराली छेज्ज | जगर १३० १२९ ३९ १४, १३, १४ णय णाणणाणिड्डि गुत्ति णात गुन्विणी गेरुय २१४ गोद्विधम्म गोयर २५, २६ जती जयणा घण घसी २४२ १४. ४० २०७ १२६ चंगबेर चक्कारबद्ध चतुधार चतुप्पय चरक चरण चरणक्खेवणी चरणिति चरय चरित १३९ जंतलट्ठी णाभि जक्ख णालिया जणवदसच्च णाहितवाती ५९, १३९ २३३, २३४ णिकायकात णिगमणविमुद्धी जल्लिया १८९ णिट्ठाण जवणता णिदाण जस २१२ णिपुला जातणक २३१ णिप्फाव जाति २७० णिवाय जातिपध णिसीहिया १४१ जाति-वध णिस्सावयण जातीसरण णिहुत जायणी णीय जाल णीरत जावा णीसा २३३, २३४ जिण णेता २१ जिणवयण णेपुणित २३४ जित णोअवराहपद | जीव ६५, १४, १८४ णोकम्मदपरति जीव[अजीवमीसिया १६१ गोणिसीहाभिहड जीवचिंता २२ तः २५, २७, २८,२९,३६ व्हाणमंडव | जीवत्थिकाय जीवत्थित्त २. | तंतिसम जीवमीसिया तज्जायसंस? | जीवाहिगम तणग्गहण १६, १४२ जुग सणलता १३१ ११२ ५१ २१५ चरित्त २४६ २६५ १०३ १०८ चरित्नधम्म चरित्तविण चरित्तायार चलण चाउलोदग चाग चालणा चिंता Jain Education Interational Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहो तत निती तलनिष्युड तदण्णवत्थुय तम्बमुदि तन्भवजीवित तन्भावणा तब्भावसुद्धि तव तवविणय तब- सायजोग त्यसमाथि तवायार तब्बत्थुत तसकाय fteemed तसकायजयणा तालसम तायी ताबत तावस तिणिस तिष्ण तितिक्खण तित्तग तिलकर तित्थगर तिधार तिपुड तिरितपातिम तिलपपडग लिपिड वीरडी बाग तुसरासी तूयरी ਰੇਡ ते उकायोपरोधपरिहरण सेवाय तोरण तोस्स अस थंभ पिको सो थावअ थावर थिग्गल थिरीकरण ६१ १३० २७ १६२ | थेर ६६ १४२ १६३ १२, १४, २३४ २०४ दंत दंसण २०१ २२७ १५, २३३ दग ५.३ दगभवण २७ दगवारअ २३३ २३३ दंसणविणय दंसणायार ९१ दया १८७ दयाधिकारी ३७ १४१ दक्खन दक्खिण्ण ४० दवदव दवदव दविअ दवित विका ३७, २३३ २३४ १२४ ४९ दव्व दव्वअरति दव्यात दव्वचूला दव्वछकक २३७ १५० दयनीय १४० इष्णभी १०१ दव्वत्थ १३० १३० ३८, २३४ दव्यपद दव्वप्पणिधी दव्वभिक्खु ११७ दव्वमहंत १०१ दव्वविणय ۱۷۰ दव्वविराधणी રે दव्वसत्थ दव्वसमाधी दि १८६ ८९, १५० १७१ e ७३ दम्यावाअ दोबा २०६ | दसकालिय दव्वायार दव्वाराधणी पंचमं परिसि पिको | सरो २८ ۱۷۹ १०३ ५१ १५, २२४ ३८, २३३ २३४ २०३ दिठ्ठ ५० १८७, २१० १८७ १०३ १०३ २३३ सणसणवा दसावयव दसावयवपरूवण ५५ १९१०६ संपात १०२ दिट्टिया २४५ दार दारुक्रम्मकार दिक्खागुरु विनंत दिनुंविसुखी ११२ दुक्ख १८० विद्वाहर दिट्टिवाद दिडिमादलवणी वुम दुरुवणीत ३८ दुरुहमाण ७२ दुम्बिहित १८० २३१ २३२ २०३ २४६ देव ४९ देस दुधार दुप्पणीय दुष्परत दुस्समा ६५ दोणी ६६ धण्ण १४० धण्णा ३९ धम्म धम्मकहा महि सम्म ४९ धम्मत्थकाम २०२ | धम्मत्थिकाय १५९ धम्मलाभ ७४ धातुवातिता २०६ धारणा १६२ | विजाइत rs धूमण १५९ धूषण २१ २२ नाणविणय २ | माणायार २८९ पिट्ठको १४२ ३० २० १०३, १२७ २३१ २०९ २०, २९, ३० ३२ १९७ २६४ १९७ ५६ १४२ १४२ २०१ ܕ २६९ २५२ २७ ११७ २५७ २४९ २१४ १७१ १४० १४० ४, ९, १०, ३९ (टि०) १६, ५५, ५८ ५१ १३९ ܙ २२ ६७ १९० ६२ ६२ २०३ ५१ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० सो निकाय निगमण निग्गंथ निदरिसण नियडी निव्वेग निवेदन निवेदनी कहा निसागरती निस्सेणी पउम पंचावयव पंचासवदार पंखार पग्गहिता पचक्खाणी पच्छेकम्म पज पजत्तिग पज्जवकात पंजाद पजाय पडिकुट पडिकमण पडिणिभ परिपुष्ण पहिच पडिमा पत्रिग्रासण पडिरूवजोगजुंजणाविणय पडिरूवलक्खण पंडिविय पडिलोम पडिलीण पडिसोत पडिल पडुच्च महंत पहुचसच्च पणअ पणगमुहुम पशिद्वाग पणिहाणजोग जुन पिट्ठको सड़ो ७१ २०, ३४ ३७, २३४ । २० पण्णवय १३४ पतिष्णत २३४ पतिष्णा ५५ पतिष्णामुद्धी ५७ | पतिरिक १८ पतिरिया ११७ १२८ २०, २९ २३८ । पमाद १६१ ७२ ६२ परकम परमधम्मित २६३ १६१ | परमाहम्मिय १५४ ! परलोगाराधणा ४० परिग्गह परिझ परिणा २ पण्णति अकवणी पण्णनिधर पश्णवणी पद पदविभाग पधाणदव्वमुद्धि पधाणभावभुद्धि १० १०४ | परियहण १४ परियाअ १२५ परियात परिऩमीसिया परिभोग २७ परूवण १९७ पलंब २६९ | पलिक २४० पव्वइअ २५० । पव्वयित २०४ पसंत 1 २०५ " ४९ १६० ११४, १८७ २०५ पसुधम्म २६ परसवण ૬૩ पसिद्धी पहाणखड्डय २६२ पहाणमहंत २६२ पहाड पंचमं परिसिहं • पहुल पागतभासानिबद्ध पाण १८८ पाणमुहुम १८० पाणातिवात पाणानिवातविरति ५.३ पिको सो ५६ १९.७ १६१ २३३ ४० २० ३० २६४ पारिव्वात २६३ पारिव्वाय ३९ ९ ७७ पावारत पाखंडी १६२ पासाण १६३ पासाद १४२ पिट्ठ १०० ララ પ २०० २५१ ६६ ११७ पाणियकम्मन्त पाणियमंचिका पादोरामण २३४ २४० २३४ ८, १४६ -१७ ६३ पुच्छण १६१ पुच्छणी पुच्छा १६ पुढवि ६७ १९ १० १८९ ४९ ४९ १६२ ११७० पाय पायच्छित पारंचित पारधम्मित ܘ पिट्ठीमंस पिपीडि पि ६१ पुढवी ३७ पुष्फ पीढ पीढग पीलिय पुलविकास पुढविकायसं जम पुढविवाइय पुढविक्कायजयणा पुण्फमुहुम पुर पुराणपावग पुरिम पुरिसकारवखेवणी पुरेकम्म पुलाअ पुव्वत पूर्णिम पेहा पोग्गल ८६, ९१, ९९ ૧૮૮ ८० १४५. पोरबीय पोग्गलत्थिकाय पिट्ठको १०३ १०३ १२ १८८ १४ १४ ७७ ३७ २३४ १०४ ३७, २३४ १४१ ११७,१७१ १३० १९६ १८८ २५७ ११७ ९१, १७२ ३९ १६ १६१ २६ ७४ १४९ ४१ ७३ १४९ ७५, ८७ ७ १८८ १० २३९ ३९ ५.६ १०८, १५४ २४२ ३८ २५५ ४४ ११८ १० ७५ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमं परिसिटुं २९१ सहो पिढेको सहो पिटुको फलग फलिह . २४६ १०१ फाणिय फासण फासुग फुमण २०२ महरिसि महन्वय महंत महावात महित महेसि माउयापद माण माणिम २५७ २५५ माता बंध बंभ बंभचेर बंभण बकर बहुपद पिटुको | सहो १८६ भावप्पणिधी भावबुद्ध भावभिक्खु भावमहंत २३८ भावरति भावविणय भावसगार भावसच भावसत्य भावसमाधी १०१,२१० भावसद्धि २३४ भावायार । भावावा भावोवात ५१, २०५ भासा भिंदण भिक्खायरिया भिक्खु १८८ भिक्खुलिंग भित्ति भिलुधा भिलुहा १३० भूत भूताधिकरण २३४ मेतब्ध २३६, २३८ बहुमाण मातुकात मातुयपद मातुलिंग मामक माया मालोहड माहण मित मितभासी ३५, २३१, २३३ बहुसाधारण बहुस्मत बादर वितियसहुम बिमेलग बीत धीय बीयमथु बीयरुह १२. १५६ १५६ मुच्छा मुणालिया ९१,१८७ मुणि २३३ १२९ ९९,१३, १८६, २३३ ३७, २३४ १९. बुद्धवयण मेत्ता मेदण २३ बुद्धि २३३ १२४ बुध मंगल मंगलपरिग्गहिय १,११,३० ८२ भत्त भत्तपरचक्खाण मंच मुधाजीवी मुधालद्ध मुम्मुर मुसा मुसावात मुसावाद मुहाजीवी मूल मूलगुण मूलबीय मूलवयण मंडसुहुम १८८ मंथु १२४ १२४ १४, ६२, ११. ६, ८२, ८६, २३६ २०. | मंद मटिया मणविणय मणुण्ण मेरग भयविण भवंत भवजीवित भारकात भारकात भाव भावअरति भावकात भावग्याय भावचूला भावजीव भावपद मति महव | महवता मधुर मयणकाम मेहुण मोक्खविणय मोसा मोहसंताणसंतय ३९ मरण रंगपद ३९मल Jain Education Intemational Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ पंचम परिसिट्ट सहो पिट्टको १४, २०२, २१२ २०४, २२५ १४१ २३४ २३४ रयण रसनिज्जद रहस्सारक्खिता राइणि रातिभत्त रातीभोयण रातीभोयणपडिसेह रातीभोयणवेरमण रायधम्म रायमत्त रायमास राया रायाण रिजुता स्वखग्गहण रूमालोण २०६ २५९ ३८, २३३ १२४ १२९ १३० २३३ विवेग S.०८ १६. पिढेको । सहो पिढेको । सहो २.१ वंसक विणय बक्क विणयस्माधि १९० वस्खेव विण्णाण बच्छल वितक वणस्सति वितिकिंछ वसतिकातजतणा वितोसम्म वणस्सतिकातिय विद. वणस्सतिकायजतणा विभूसादोस वणस्सतिसमारंभपरिहारोबदेसत्य १५१ विमुनया वणीमग ११३, १२७ विय वण्णसम वियस्सति वण्णसंजलणा विरत १०४ वणित विरस वती विरालिय १९४ वत्थ १३२ विलिहण वस्थातिपरिग्गह वत्थिकम्म विसंवादण वनस्पति विसम वयणसंजोग १४२ विसयविराग ववहारक्खेवणी क्सिोत्तिका ववहारसच्च १६० विसोहिकोटी वहदोसदूमिय विहारचरिता वाउछायवजणत्थ वाउकायविसेस वेडिम बादीभ वायण वेयणा वायिग २०४ वेयावच्च ३८, २३४ वायु वेयावडिय १९८ । वायुसमारंभपरिहरणत्य १८६ केलय ८७, १८५ वालधोवण वेससामंत ६७ विओसग्ग वैर १. विकहा वोकडा विक्कवता १४२ वोस? विक्खेवणी विगडभाव संकप्प विगतमीसिया संकम विगहिय ११. विजाण संकित १९४ विजल संफिलिट्ठ विजा संबडी বিলাসী संगह विजालद्धि संगहणिकात २५४ विण ५२, २३४ संघाडग १५३ लक्षण लज्जा लजाणास लद्धि लयसम ललित लवण १५१ 44.. ०८. कालिय बातिम सूसम लाह लेण ११८ १३० १०१ १४१ लेसा १६१ २४० 22 लोउत्तरिय लोकायतिक लोग लोगोवयारविणय लोड संका . लोण लोभ . : बंजण बंदण वैदिम AN. Jain Education Intemational Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सो संघातिम संचअ संजत संजतिदिन संजम संडिन्भ संतही संथार संथारग संधी संपत्त संपराअ संपुच्छण संभम दवद्दव संभरण संभास भिण्णवित्त संलीणता संवर संवाधणा संवेग संवेगणी संवेदणी संसग्गी संसद्व संस कप्प संसत्त संसयकरणी संसाधणा संसदम संहिता सकार सकुली सचितपणा सच्च सच्चा सच्चामोसा सज्झाअ सज्झाण सज्झाय सज्झायजोग सण सण्णा पिट्ठको सहो ३९, ११७ सतुया ५४ सत्थ सातबिसयपिराम ३०७ २२४ २४१ ११, १२, ५९, २०१, २१० १०२ १९४ २२० ९१ १०३ १४२ ४५ समाहितप्पा ६० समिति १०३ समुतिसच्च १४२ समुदाण १४२ २५८ सद्धा सम्भावपडिसेह सम्भावसद्दहणा सम समण समणधम्म समा समाधी २३० ११७ १४ सम्मद्दिि ९५, २३८ सम्माण ६० सम्मुच्छिम २३४ सयण ५७ सरक्ख ५५ सरण २३४ सरीरकात १०८ ११, १५९ समुदाणचरिया समुद्दिसणविधि ११० सलागा २६५ | सव्वओधार १०६ | सन्त्रणयविसुद्ध १६१ सव्वत्तग २०४ सव्वपज्जाय ११९ सव्वभाव सव्वसंगावगत सांभरिलोण पंचम परिसि साणी साति सातिबहुल सादिम साधम्मिय १५९ १५९, १६० १६ २०१ २०१ २०० १४० १०४ सावज्जणुमोदणी साधु सामण्ण सामुदाणिय सालुय २४, ४१, ६७ | साहम्मित पिटुंको | सड़ो ११७ साहु ७४, १५० २३४ १४२, २०० ८२ २३९ ४० ३६, ३७, १२७, २३४ ४१, १४० ४४ २०६ २४१ ५३ सिंगबेर सिंघाणअ सिक्खग सिक्खावत सिणाण सिहराम सिद्ध सिप्प सियारा सिला सीलंगसहस्स सुत सुतधम्म शुतसमाथि १६० २२० २६३ सुद्धि १२१ २२९ १३३ सुरा ७५ सुवण्णगुण १३२ सुसमाधि सुद्धोदन पाहि ૮. सुसाण ६१ सुस्सूसणा ७२ सहुम ८७ सूचित १५.० सेंधव सेलेसि सोंडिय सोभवज्जण २५० सोय २५० सोरद्विय ८६ सोवच्चल २३९ २३४ हंभो ३६ हरतणुत २६४ हरित १२९ हरित सुहुम १७८ | हरिताल १६ | हलियंड २९३ पिट्ठको ३४ ११७ १८९ १६ १३९ ६०, १५५ १८८ ९६ ५४, २१५ ४४ २७ सेंबली ११८ ९५. सेना ९१, १२१, १२६, १८८, २२० २०३ | सेज्जातर पिंड २०३ सेयपडत २४२ ६२ १०४ 62 ४१ २०१ ११ २२६ १६२ ९३ १३४ २३५ २७० २४० २०४ ६६, १८८ १२४ ६२ ९६ १३४ १५६ ११ ११० ६२ २४९ . ܘ ར་ १८८ ११० 1 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ पंचमं परिसिटुं सहो हल्लोहलिभंड हसित पिटुको | सहो हितभासी पिढेको २०, २७, ३., ४. १८८ हिम पिटुको | सहो २.५ हेउ , हेउनिउत्त १४१ | हेउविसुद्धी १४० | हेतुगेज्म २४३ हिरण्ण . हिरिमिथ हिंसा -0000000 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________