SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दसकालियके कर्ता। कष्ट न हो-और भिक्षुको-योग्य भिक्षा भी मिले यह कहा गया है। जीवमें समभावकी पुष्टि अनिवार्य मानी गई है जिससे मनोवांछित भिक्षा न भी मिले तब भी क्लेश मनमें न हो तथा अच्छो भिक्षा मिलने पर रागका आविर्भाव न हो यह जीवनमंत्र दिया गया है। संयत पुरुषकी भाषा कैसी हो—जिससे किसीके मनमें उसके प्रति कभी भी दुर्भाव न हो यह भी विस्तारसे प्रतिपादित किया गया है। यह तभी संभव है जब उसमें आचारशुद्धि हो अर्थात् कषाय-राग-द्वेष आदिसे मुक्त होनेका जागरूक प्रयत्न हो, अहिंसा हो दयाभाव हो और अपने शरीरके कष्टोंके प्रति उपेक्षा हो। लेकिन आचारशुद्धिका मुख्य कारण सुगुरुकी आसना भी है अत एव विनयका विस्तारसे वर्णन इसमें किया गया है। अन्तमें सबका सार देकर सच्चा भिक्षु कैसा हो यह संक्षेपमें वर्णित है। . इस सूत्रमें दो चूलिका भी जोडी गई हैं। उनका उद्देश भिक्षुको अपने संयमी जीवनमें दृढ रहनेका उपदेश देना-यह है। अर्थात् ही इसमें गृहस्थ जीवनकी हीनता और संयमीजीवनकी उच्चताका प्रतिपादन अनिवार्य हो गया है। इस प्रकार संयमी जीवन के अनेक प्रभोंको लेकर इस ग्रन्थमें निरूपण होने से इसी सूत्रसे नये भिक्षुका पठनक्रम शुरू होता है। इसे ' - भिक्षु जीवनकी प्रथम पाठ्य पुस्तक कहा जाय तो अनुचित नहीं होगा। दसकालियके कर्ता 'दसकालिय' सूत्रके कर्ता कौन थे इसका संकेत हमे नियुक्तिकी अन्तिम गाथा से मिलता है जहाँ यह सूचित किया गया है कि मनकके समाधिपूर्वक मरणके अनन्तर (गा० २७०) 'सिजंभव थेरने आनन्दाश्रुपात किया तब जसभद्दने (कारण) पूछा। उसके उत्तर में स्थविरने जो कहा उसीकी विचालना (विआलणा) संघमें हुई' (गा० २७१)। यहां 'विआलणा' पदका स्पष्टीकरण करते हुए स्थ० अगस्त्यसिंहने कहा है कि 'मनक' अपना पुत्र है इस बात को सेज्जभवने छुपाकर इसलिए रखा था कि गुरुपुत्र समझकर उसका अन्य शिष्यसमुदाय अनावश्यक आदर न करे। जब अंतमें पता चला तब यह कथाका प्रचलन संघ में हुआ कि मनक शय्यभवका पुत्र है। इससे यह परंपरा स्थिर हुई है कि सिज्जभवने इस ग्रंथ की रचना मनकके लिए की थी। इसमें तो संदेह नहीं कि मनकके लिए यह ग्रन्थ 'णिज्जूद' किया गया था क्यों कि स्वयं नियुक्तिमें प्रारंभमें ही (गा. ७) यह कहा गया है-'एयं किर णिज्जूढं मणगस्स अणुग्गहवाए' और उपसंहारमें भी कहा गया है कि 'आर्य मनकने छ मासमें इसे पढा। उसका (दीचा) पर्याय छ मासका ही था और वह समाधिपूर्वक कालगत हुआ। (नि० गा० २७०) नियुक्तिमें मनक और सिजभवका क्या संबंध था इसकी कोई सूचना नहीं है। यह स्पष्टीकरण सर्वप्रथम हमें अगस्त्यसिंहकृत चूर्णिमें ही मिलता है।' वह इस प्रकार है (पृ. ४)_ 'भगवान वर्धमानस्वामीके बाद क्रमशः सुधम्म, जंबु और पभव हुए। पभवको चिन्ता हुइ कि परम्पराको कायम रखनेवाला गणधर कौन हो? उन्होंने अपने गणमें तथा गृहस्थोंमें उपयोग लगाया और देखा कि यज्ञकर्ममें दीक्षित राजगृहका एक ब्राह्मण सेजभव इस पदके योग्य है। राजगह जाकर उन्हीने अपने संघाडेके भिक्षुओं को कहा कि यज्ञवाडमें भिक्षाके लिए जाकर धर्मलाभ दो। वह तुम्हे मानेगा नहीं। तब इतना ही कहो कि तुम तत्त्वको नहीं जानते। भिक्षुओंने ऐसा ही किया। सेज्जभवने सोचा कि ये तपस्वी भिक्षु जूठ तो बोलेंगे नहीं। अत एव उसने अपने अध्यापक से पूछा 'तत्त्व क्या है ?' उत्तर मिला-'वेद तत्व है'। तब उसने तलवार खींच कर गुरुसे कहा यदि नहीं कहोगे तो मस्तक काट दूंगा। तब कहीं गुरुने सत्वर बताया कि तत्त्व तो आईत धर्म ही है। जिससे इस यशयूपके नीचे रखी गई आहेत की रत्नमयी प्रतिमाकी वेदमन्त्रों द्वारा स्तुति की जाती है। सुनकर वह पभवके पास जाकर धर्म सुनकर दीक्षित हो गया और स्वाध्याय करके चतुर्दशपूर्वी हो गया। जब उसने दीक्षा लीथी तब उसकी पत्नी गर्भवती थी और लोगोंके पूछने पर बताया था कि 'मणाग' अर्थात् 'छोटा' है। पुत्रके जन्म होने पर उसका नाम उसी उचर के आधार पर 'मणग' रखा गया। मणग जब आठ वर्षका हुआ तब उसने मातासे पूछा कि मेरा पिता कौन है। माताने उत्तर दिया कि उन्होंने श्वेतपटकी दीक्षा ली है। तब पुत्र घरसे भागकर पिताकी शोधमें निकला। उन दिनों आचार्य (सेजभव) चंपामें विहार करते थे। आचार्य शौचके लिए जा रहे थे वहां रास्तेमें मिलन हुआ। दोनोंमें परस्पर स्नेह हुआ। आचार्यके पूछने पर उसने उत्तर दिया कि मैं राजगृहसे आ रहा हूं, मेरे पिता का नाम सेजंभव ब्राह्मण है। और वे दीक्षित हो गए हैं। मैं भी दीक्षा लेना चाहता हूं। क्या आप मेरे पिताको जानते हैं। आचार्यने उत्तर दिया कि हां में जानता हूं। वे तो मेरे मित्र थे और मेरे शरीर जैसे थे। मेरे पास ही तुम दीक्षा ले लो। तुम अपने पिताको भी देखोगे। उसने दीक्षा ले ली। आचार्यने अपने ज्ञानसे देखा कि मनकका आयु तो छ मास ही है। उनको चिन्ता हुई कि वह आचारादि ग्रन्थोंको जो समुद्र जैसे विशाल हैं कैसे पूरा करेगा? वह सिद्धान्तके परमार्थको बिना जाने ही मरेगा। अत एव उन्होंने सोचा कि अब क्या किया जाय। उन्होंने मन में सोचा कि अन्तिम चतुर्दशपूर्वी तो-अवश्य निज्जूह करते हैं और अन्य चतुर्दशपूर्वी किसी कारण वश। तो मेरे समक्ष इसका अनुग्रह करना १ आचार्य हरिभद्रकी टीकामें प्रारम्भ में ही कुछ नियुक्तिगाथाएँ हैं जो प्रस्तुतमें नहीं हैं। और उनमें यह निर्देश हैं कि सेज्जभवने यह निज्जूढ किया है (गा०१२) और यह भी कहा है कि वे मनकके पिता थे (गा०१४)। ये गाथाएँ बादमें जोडी गइ हैं-यह निश्चित है। क्यों कि वृद्धविवरण में भी ये गाथाएँ नहीं है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001151
Book TitleAgam 42 mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorBhadrabahuswami, Agstisingh, Punyavijay
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2003
Total Pages323
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy