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________________ (४) प्रस्तावना किन्तु उसे गौण समझना चाहिए। अत एव इसका मुख्य नाम 'दसकालिय' है जो यहां प्रस्तुत संस्करणमें पूज्य मुनिराजद्वारा यथार्थ रूपसे स्वीकृत किया गया वह उचित ही है। इसका एक नाम विधिसूत्र भी है-निशीथभाष्य गा०८८१ । बाह्यस्वरूप : यह दश अध्ययन और दो चूलिकामें समाप्त होता है। उसके नामसे ही स्पष्ट है कि इसमें मूलमें दश ही अध्ययन हैं और दो चुलाएं इसमें जोडी गई है। यह चुलिका नामसे ही सिद्ध होता है। नियुक्तिकारने इन चूलाओंको सूत्रार्थका संग्रह करनेवाली संग्रहणीरूप उत्तरतंत्र कहा हैं-नि० गा० २५८। यह ग्रन्थ पद्यप्रधान है। कुछ ही सूत्र ऐसे हैं जो गद्य में है। डो. शुब्रिगकी आवृत्ति, आचार्य हरिभद्रकी टीकासह आवृत्ति, और स्थविर अगस्त्यसिंहकी चूर्णिसह आवृत्तिमें जो गाथाओंकी संख्या है वह इस प्रकार है। डो० शुबिंग आचार्य अगस्त्य आ० हरिभद्र० म०३ १५ म०४ २८ अ०५-११०० ४७३ म०७ ५७ म०८ म०९-१ ९-२ २३ ९-३ १५ aum म. १० २१ इस सूचीसे स्पष्ट हो जाता है कि प्रस्तुत अगस्त्यसिंहकी चूर्णिमें गाथाओंकी संख्यामें विशेषरूपसे पांचवें अध्ययनके प्रथम उद्देश में गाथाओंकी विशेष अधिकता पाई जाती है। और वह भी अन्यत्र जो संग्रहणी गाथा है उसीका विस्तार होनेसे है। इससे यह निश्चित किया जा सकता है कि पुरानी पद्धतिके अनुसार विस्तृत करके कहनेकी शैलीका संग्रहणीमें संक्षेप है। विस्तारके स्थान पर संग्रहणी गाथाका आना यह सिद्ध करता है कि अगस्त्य चूर्णिका पाठ अन्य चूर्णिटीकाओंके पाठसे प्राचीन है। अगस्त्यसिंहकी चूर्णिकी प्राचीनताका यह भी एक प्रमाण है। आन्तरस्वरूप : इस ग्रन्थमें मिक्षुओंके धर्ममूलक आचारका निरूपण है। खासकर निर्ग्रन्थ मुनिओंके आचार के नियमोंका विस्तारसे निरूपण इस सूत्रमें है। उसमें संयम ही केन्द्रमें है। वह भिक्षु यदि संयत है तो जीवहिंसासे बचकर किस प्रकार अपना संयमी जीवन धैर्यपूर्वक बितावे इसका मार्गदर्शन इसमें है। अतएव भिक्षुके महाव्रत तथा उसके आनुषंगिक नियमोंका वर्णन विस्तारसे करना अनिवार्य हो जाता है। यही कारण है कि इसमें पांच महाव्रत और छठा रात्रिभोजनविरमण व्रतकी चर्चा की गई है। संयमका मुख्य साधन शरीर है और शरीरके लिए भोजन अनिवार्य है। वह भिक्षासे ही सम्भव है। अत एव किस प्रकार भिक्षा ली जाय जिससे देनेवालों को तनिक भी १. डो. शुकिंग और आचार्य हरिभद्रवृत्तिमें नं-२७ के बाद एक प्रक्षिप्त गाथा छापी गई है। २. अन्यत्र संग्रहणी रूप दो गाथासे काम लिया गया, जब यहां विस्तार है-देखे पृ. १०८ टि. ६ ३. गा. १० के स्थानमें अन्यत्र दो गाथाएं हैं-देखो पृ. १२७ टि.९ । गा. संख्याकी कमी के लिए यह भी कारण है कि गाथा २१३ वीं तीन पक्तिकी है। ओर भी देखो-पृ. १२९ टि. १ और ४ तथा पृ. १३५ टी. ४ ४. शुबिंगकी गा. नं-८ को प्रस्तुत में और आचार्य हरिभद्रने नियुक्तिकी बताया है ५. प्रस्तुतमें गा. ८-९ के स्थानमें अन्यत्र तीन गाथाएं है-देखो पृ. १६६ टि. ६ । ६. आ. हरिभद्रकी गा. ३५ को डॉ. शुबिंगने प्रक्षिप्त मानी है। देखो प्रस्तृत में पृ. १९३ टि. ५ ७. गा. ६ के बाद की एक गाथा को डॉ. शुबिंगने प्रक्षिप्त माना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001151
Book TitleAgam 42 mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorBhadrabahuswami, Agstisingh, Punyavijay
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2003
Total Pages323
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size9 MB
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