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________________ (८) प्रस्तावना पूज्य मुनिजीने विशेषरूपसे नियुक्तिका समय निर्धारित किया है और कहा है कि नियुक्तिकर्ता भद्रबाहु ये वराहमिहिर के भाई थे। और वराहमिहिर की पंचसिद्धान्तिकाका समय विक्रम सं. ५६२ निश्चित है। ऐसी स्थितिमें विक्रम छठी शती ही नियुक्तिका समय निश्चित किया जा सकता है। एक ओर भाष्य की अपेक्षा लेकर नियुक्तिका समय वि. ६३१ (ई. ५७५) से पूर्व है और दूसरी ओर वराहमिहिर के समय की अपेक्षा वि. ५६२ (ई०५०६) आसपास है। अत एव यह कहा जा सकता है कि नियुक्तिका समय ई० छठी शतीका प्रारंभ है। दश नियुक्तिकी गाथाएँ-दशवकालिक नियुक्तिकी गाथाओंकी संख्या कितनी है यह जानना जरूरी है। आचार्य हरिभद्रके अनुसार अर्थात् आचार्य हरिभद्रकृत टीकाकी मुद्रित आवृत्ति के अनुसार गाथासंख्या ३७१ है। स्थविर अगस्त्यसिंहकृत चूर्णिमें गाथासंख्या २७१ है। यहाँ यह स्पष्ट करना जरूरी है कि प्रस्तुत संपादनमें पूज्य मुनिश्रीने ग्रन्थ छप जानेके बाद गाथा. नं. २ को नियुक्तिकी-नही माना हे-अत एव उसे काट दिया है। गाथासंख्यांक १२९ तथा २२९ दियाही नही गया इस प्रकार तीन गाथाओंकी कमी हुई । अतएव २७१-३२६८ गाथासंख्या वस्तुतः हुई। किन्तु गाथासंख्यांक २१० दोबार मुद्रित है अतएव पू. मुनिजीके अनुसार स्थ, अगस्त्यसिंह की चूर्णिमें २६८+१=२६९ गाथाएँ हैं-यह फलित होता है। इस दृष्टिसे आचार्य हरिभद्रकी वृत्तिके संस्करणमें १०२ गाथाएँ अधिक है-ऐसा मानना चाहिए। यहाँ आ. हरिभद्र और स्थ, अगस्त्यकी गाथाओंकी समीकरणसूची दी जाती है। उसे देखने से पता चलता है कि-प्रारंभ में ही आचार्य हरिभद्र में कुछ गाथाएँ जोडी गई हैं। आ० हरिभद्रकी वृत्ति स्थ० अगस्त्यसिंह संमत गा० ३०, ३१, १२२-१२४, १२७१२८, १३०, १३१, १३५, १३६, १४३ और १४६ नियुक्तिगाथाओंको भाष्यकी मानी गई हैं। दो गाथाएं ऐसी हैं जिन्हें आचार्य हरिभद्र में प्रक्षिप्त माना गया है किन्तु स्थ० अगस्त्यमें वे नियुक्ति की हैं गा० ४४,६४। स्थ० अगस्त्यमें ऐसी भी कुछ गाथाएँ हैं जो आ. हरिभद्रमें नहीं है-गा० १३८ २६२ और २६७। इनमें से गा० १३८ के विषयमें आचार्य हरिभद्रने “वृद्धास्तु व्याचक्षते" कह कर वह गाथा अपनी वृत्तिमें उद्धृत की है और वृद्धव्याख्या भी दे दी है नि० गा० २२८ हरि०। यह ब्याख्या इतः पूर्व मुद्रित दशवकालिकचूर्णिमें उपलब्ध है-दशवै० चू० पृ० १२९। और उसमें प्रस्तुत गाथाको नियुक्तिकी माना है। आचार्य हरिभद्रमें जो अधिक गाथाएँ हैं उनमें से कुछके विषयमें थोडा विचार करना जरूरी है। साथकी सूची देखनेसे पता लगता है कि आ० हरिभद्रमै प्रारंभमें ही प्रायः अधिक गाथाए पाई जाती हैं। आचार्य हरिभद्रने प्रारंभमें जो गाथाएँ दी हैं उनको देखनेसे पता चलता है कि उनमें प्रथम मंगलगाथा है और शेष दशवैकालिकके अनुयोगके विषयमें उत्थानिकाकी सूचक गाथाएँ हैं। आ. भद्रबाहुने समग्रनियुक्तिओंका मंगल और उत्थानिका आदि आवश्यकनियुक्ति में दे ही दिया है। तदनुसार अन्यत्र भी समझ लेना जरूरी है। अतएव आचार्य अगस्त्यसिंहमें और इतःपूर्व मुद्रित चूर्णिमें इसके लिए स्वतन्त्र गाथाएँ देखी नहीं जाती। किन्तु आचार्य हरिभद्रने इसे स्वतंत्र नियुक्ति मानकर मंगलआदिकी पूरक गाथाएँ प्रक्षिप्त की हो तो आश्चार्य नहीं है। आ० हरिभद्रकी गाथा नं. १० वस्तुतः पाठान्तर के साथ निशीथमाध्यमें गा० ३५४५ उपलब्ध है अतएव वह नियुक्तिकी नहीं हो सकती। आ. हरिभद्रकी गाथा नं. १२ संपूर्तिरूप है। किन्तु गा. १४ तो निश्चितरूपसे आ. हरिभद्रकृत ही हो सकती है-उसमें सेज्जभवको नमस्कार किया गया है। ये दोनों गाथाएँ भी पूर्वमुद्रित चूर्णिम नहीं हैं। गा० १५ पुनरुक्त बनती है और वह भी अन्यत्र नहीं है। गा० १९ और २५ संपूर्तिरूप स्पष्ट है। यह गाथा नं० २५ प्रस्तुमें मुद्रित है (पृ० ६) किन्तु उसे नियुक्ति गाथा माना नहीं गया है। वह उपसंहारात्मक गाथा है और वह पूर्वमुद्रित चूर्णिमें भी प्राप्त होती है। दोनों चूर्णिओंमें इसकी व्याख्या नहीं की गई। आ० हरिभद्रकी गा०२६-३३ भी संपूर्तिरूप हैं। गा० २७ विशेषावश्यक में उपलब्ध है-विशे० ९५३ । गा० २८ भी विशेषावश्यक की गा० ९५४ का दशवै० के अनुरूप रूपान्तर है। गा० २९ भी अनुयोगद्वार में गा०२९ है। तथा वह उत्तराध्ययनकी नियुक्ति गा० ६ है। गा० ३० उत्तराध्ययननियुक्ति गा०७ है। तथा गा० ३१ भी उत्तरा०नि० गा० ८ है। वह अनुयोगद्वारमें भी उपलब्ध हैगा० १२६, पृ० १९७ । गा० ३२ उत्तरा०नि०९ का रूपान्तर है और गा० ३३ उत्तराध्ययन नि० की गा० ११ है। आ. हरि० की गा० ३६ उनके द्वारा जोडी गई हो ऐसा संभव है। पूर्वमुद्रित चूर्णिमें पुष्प के एकार्थ दिये हैं उन्ही के आधारपर यह गाथा निर्मित की गई है। गा०४३ का भाव गद्यके रूप में प्रस्तुत में और पूर्वमुद्रित चूर्णिमें है। आ. हरिभद्रने उसे पद्यबद्ध किया है। आ० हरिभद्रकी गा० ४५ की सूचना दोनों चूर्णिमें गद्यमें है उसे गाथाबद्ध किया गया है। गा० ४६ की तुलना ओघनियुक्तिके भाष्यकी - गा० १६९ से करना चाहिए। गा० ४७ उत्तराध्ययनमें पाठान्तर के साथ ३०.८ में है। गा० ४८ भी उतराध्ययनकी ही है३०.३०। गा०५१ आचार्य हरिभद्रकी ही कृति हो तो आश्चर्य नहीं, यहाँ वह संपूर्ति रूप है। __इस प्रकार यदि आचार्य हरिभद्रमें जो अन्य मी अधिक गाथाएं हैं उनकी तलाश की जाय तो पता लगेगा कि कहीं संपूर्तिके लिए और कहीं विषयके निरूपण के लिए ये गाथाएँ या तो स्वयं बनाकर या अन्यत्रसे लेकर यहां आचार्य हरिभद्रने रखी हैं। १ देखो बृहत्कल्पभाष्यकी प्रस्तावना। २. प्रस्तुत चुणि गत गाथा नं ५६ से पूर्व ही अधिकमात्रामें आ. हरिभद्रमें अधिक गाथाएँ हैं। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001151
Book TitleAgam 42 mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorBhadrabahuswami, Agstisingh, Punyavijay
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2003
Total Pages323
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size9 MB
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