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________________ प्रस्तावना खं २उक्त भंडारकी यह ताडपत्रीय प्रत है उसका संख्यांक ७४ है। उसके ६० पत्र हैं और उसका समय अनुमानसे विक्रमकी १४ वीं शतीका उत्तरार्ध है। खं ३= यह भी उक्त भंडारकी ताडपत्रीय प्रत है। और उसका संख्यांक ७५ है। इसकी पत्रसंख्या ५३ है। समय अनुमानसे विक्रम १४ वीं शतीका उत्तरार्ध है। खं ४= यह प्रत भी उक्त भंडारगत है। उसका संख्यांक ७६/१ है। उसके पत्र ७३ हैं, और समय अनुमानसे विक्रम १४ वीं शतीका उत्तरार्ध है' जे यह प्रत जेसलमेर भंडारगत हो सकती है। पू. मुनिराजजीने स्वयं एक नोंधमें यह लिखा है कि दशवकालिकसूत्रकी जेसलमेरकी प्रत के पाठान्तर मैने स्वयं लिए हैं। किन्तु जेसलमेरमें एकाधिक दशवैकालिकसूत्रकी हस्तमतें हैं। फिर भी जिसका उपयोग उन्होंने किया हो वह सूचीगत ८६ (३) संख्यांकवाली प्रत ही हो सकती है, क्यों कि यही ताडपत्रीय ऐसी प्रत है जो जेसलमेरकी दशवकालिककी सब प्रतोंमें प्राचीनतम है इतनाही नहीं किन्तु उसमें लेखन सं. १२८९ भी दिया हुआ है। डो. शुकिंगकी आवृत्तिमें स्वयं पू. मुनिराबजीने J संज्ञा इस प्रतकी दी है जब कि प्रस्तुतमें सर्वत्र जे संकेत है। बी-महिमा भक्तिज्ञान भंडार, बीकानेरकी यह प्रत है ऐसा सम्भव है। इसी संकेत बी का प्रयोग उन्होंने इसी मंडारकी एक अन्य प्रति जो अनुयोगद्वारसूत्रकी है, उसके लिए किया है। देखो नंदी-अनुयोगद्वारसूत्र, महावीर विद्यालय प्रकाशन, संपादकीय-पृ.७. वृद्ध इस संकेतका अर्थ है 'वृद्धविवरण' अर्थात बही मुदित पुस्तक वो 'दशवकालिक चूर्णि' के. नामसे श्री के. श्वे० संस्थाने रतलामसे इ. १९१३ में प्रकाशित किया है। 'स्वयं आचार्य हरिभद्रजीने इस चूर्णिका 'वृद्धविवरण 'के नामसे उद्धरण (दशवै० चूर्णि. पृ० २५२ से) अपनी दशव० की वृत्तिमें पृ. २१७/१ में दिया है तथा दशवै. की सुमतिसूरिकृत टीकामें भी यही नाम दिया गया है-पृ०२१४'-ऐसा संकेत पू. मुनिश्रीने अपनी एक नोंध में किया है। अत एव उन्होंने प्रस्तुत संपादनमें उक्त चूर्णिके लिए 'वृद्धविवरण' नाम मानकर 'पद्ध' ऐसा संकेत किया है। वृद्धपा पूर्वोक्त 'पद्धविवरण' गत पाठान्तर. शु-डॉ. लोयमान संपादित तथा डॉ. शुकिंगद्वारा अंग्रेजीमें अनूदित दसवेयालियसुत्त जिसे शेठ भाणंदजी कल्याणजीकी पेढीने अहमदाबादसे इ० १९३२ में प्रकशित किया है। उस पुस्तक में जो पाठ स्वीकृत है उसे शु संज्ञा देकर प्रस्तुतमें निर्दिष्ट किया है। शुपा उक्त आवृत्तिमें टिप्पणमें जिन पाठान्तरोंका निर्देश किया है उनका निर्देश प्रस्तुतमें शुपा संकेतसे किया है। हाटीआचार्य हरिभद्रसूरिकृत दशवकालिककी टीका जो-दे. ला. पु. फंडने १९५८ में प्रकाशित की है। उस टीकागत पाठका निर्देश हाटी संज्ञासे है। २-दसकालियनिज्जति खं संभवतः खंभातके शान्तिनाथ भंडारकी संख्यांक-७२ की यह प्रत है। इसी प्रतके आधार पर उन्होंने नियुक्तिकी अपने हस्ताक्षरसे कॉपी की है। अत एव उसी के पाठान्तरोंकी नोंध प्रस्तुतमें खं संज्ञा से की हो यह संभव है। यही प्रत खंभातमें नियुक्तियोंकी प्रतोंमें प्राचीनतम भी है। उन्होंने स्वयं भपने सूचिपत्रमें इसे अनुमानसे विक्रम १३ वीं शतीके पूर्वार्धकी बताई है। पु= यह पू. मुनिराज श्री पुण्यविजयजीके संग्रहगत प्रत है। यह संग्रह ला. द. विद्यामन्दिर, अहमदाबादमें है। वी=महिमा भक्तिशानभंडारकी यह दशवकालिकनियुक्तिकी प्रत हो सकती है। । खं १, २, ३, ४, प्रतोंके यहां दिये गये स्पष्टीकरण का आधार है डो. शुब्रिगकी दशवकालिक सूत्रकी आवृत्ति जिसमें स्वयं पू. मुनिजीने अपने हाथसे संशोधन किया है और अनेक हस्तप्रतोंके पाठांतरोंकी भी नोंध की है। उस पुस्तकमें १C, RC, ३C और ४C, ऐसे संकेत पाठान्तरों के लिये किये हैं और ये प्रतियाँ खंभातकी हैं यह भी उनके चिपत्र गत संख्यांक के साथ वहां निर्दिष्ट है। दशवैकालिक मूलका जो संशोधन उन्होंने इस मुद्रितमें किया था उनके आधार पर ही प्रस्तुतमें दशवकालिक संपादित करके चूर्णिके साथ उन्होंने छापा है। यहाँ C-Cambay रखा है. यहाँ खं संभात संकेत किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001151
Book TitleAgam 42 mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorBhadrabahuswami, Agstisingh, Punyavijay
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2003
Total Pages323
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size9 MB
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