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________________ प्रस्तावना प्रस्तुत ग्रन्थ और उसके संपादक इस ग्रन्थमें 'दसकालियसुत्त' और उसकी नियुक्ति'-नामक टीका तथा उक्त दोनोंकी 'चूर्णि' नामक टीका मुद्रित हैं। 'दसकालियसुत्त' के कई संस्करण प्रकाशित हुए हैं। और उसकी नियुक्ति' भी आचार्य हरिभद्रकी टीकाके साथ मुद्रित हो गई थी और एक चूर्णि भी प्रकाशित हो चुकी है। किन्तु इस ग्रन्थमें जो 'चूर्णि' मुद्रित है वह प्रथमवार ही प्रकाशित हो रही है। इसका संपादन पूज्यपाद मुनिराज श्री पुण्यविजयजीने किया है और वे ही इसकी विस्तृत प्रस्तावना लिखते किन्तु उनका स्वर्गवास ता. १४-६-७१ को हो गया अत एव उनके इस अधूरे कार्यकी पूर्ति मैं कर रहा हूं। ग्रन्थका मुद्रणकार्य भी कुछ अधूरा था उसे भी पूर्ण करना था जो पू. मुनिराजके दीर्घकालके साथी पं. अमृतलाल भोजकने किया, अत एव सोसायटीकी ओरसे तथा मेरी ओरसे मैं यहां उनका आभार मानता हूँ। पूज्यपाद मुनिराज श्री पुण्यविजयजी प्राकृत टेक्स्ट सोसायटीके स्थापक ही नहीं थे किन्तु उसके प्राण भी थे। इस ग्रन्थके प्रकाशनके पूर्व भी 'अंगविजा' आदि महत्त्वपूर्ण छः ग्रन्थोंका संपादन सोसायटी के लिए उन्होंने बडे परिश्रमसे किया है। इतनाही नहीं किन्तु इसके बाद प्रकाशित होनेवाली 'सूत्रकृतांगचूर्णि'का भी संपादन उन्होंने ही किया है। वह भी आधेसे अधिक मुद्रित हो चुकी है। सोसायटीके लिए वे एक दृढ आधारस्तम्भ थे। ता. १४-६-७१ की रात ८-४५ बजे उनका स्वर्गवास हो जानेसे सोसायटीका आधारस्तम्भ अस्त हो गया। इससे सोसायटीकी जो क्षति हुई है उसकी पूर्ति होना संभव नहीं है। सोसायटीकी स्थापनासे लेकर अब तक सोसायटीके विकासमें जो उनका प्रदान है वह अमर रहेगा। इस ग्रन्थमें प्रथमवार ही मुद्रित स्थविर अगस्त्यसिंहकृत 'चूर्णि' की हस्तप्रतकी शोधका श्रेय भी पू. मुनिराजको है। इसकी प्रत जेसलमेरके भंडारमें थी और प्राच्यविद्यामंदिर, वडोदराद्वारा प्रकाशित सूचीपत्रमें (G.O.s.xXI) संख्यांक २५४ (२) में उस प्रतका निर्देश 'दशवैकालिक चूर्णि' नामसे है किन्तु वह अगस्त्यसिंहकृत है और उसका क्या महत्त्व है-इस ओर किसीका ध्यान नहीं गया था। पू. मुनिराजश्ची जब ई. १९५० में जेसलमेर गये और जेसलमेर के हस्तप्रतसंग्रहोंका पुनरुद्धार किया तब अन्य कई ग्रन्थोंके साथ इस ओर भी उनका ध्यान गया और उनके द्वारा तैयार किये जेसलमेर भंडारके नये सूचिपत्रमें उस हस्तप्रतका योग्यरूपसे उन्होंने संख्यांक ८५/२ में परिचय दिया है। उसके आदि-अन्त तथा प्रशस्ति भी नये सूचिपत्र में मुद्रित किये हैं-पृ. २८॥ श्रीनगर काश्मीरमें १९६१ अक्तूबर में होनेवाले ओरिएन्टल कोन्फरंसके अधिवेशनमें जैनविभागके अध्यक्षपद के लिए लिखे गये अपने भाषणमें पू. मुनिजीने विद्वानों का ध्यान इस चूर्णिकी ओर दिलाया है-वह व्याख्यान 'ज्ञानाञ्जलि' में मुद्रित है। संपादनमें उपयुक्त हस्तप्रत आदि पूज्य मुनिराज श्री पुण्यविजयजीने जिन हस्तप्रतों आदिका उपयोग प्रस्तुत सम्पादनमें किया है उनका विवरण यहां दिया जाता है। इसका आधार उनके द्वारा लिखी गई कुछ नौधै जो हमें प्राप्त हुई हैं वे तथा मुद्रित ग्रन्थ में जो संकेत मिलते हैं वे हैं। १-दसकालियसुत्तं अपा=अगस्त्यसिंहचूर्णिस्वीकृत पाठ अचूपा=अगस्त्यसिंहकृतचूर्णिमें पाठान्तररूपसे निर्दिष्ट पाठ खं १= शान्तिनाथ जैनज्ञानभंडार, खंभात की यह ताडपत्रकी प्रत है। इसका परिचय उक्त भंडारके सूचिपत्र में जो प्राच्य विद्यामंदिर, बडोदाने प्रकाशित किया है (VOL-135), स्वयं पू. मुनिराजश्रीने संख्यांक ७३ में दिया है। इसके पत्र ५७ है और समय विक्रम १३ वीं का पूर्वार्ध अनुमानित है। १. इसे आ. हरिभद्रने वृद्धविवरण कहा है। २. यह सूचीपत्र पूरा छप करके तैयार है। और वह पू. पाद मुनिराजश्रीके रहते ही पूरा छप भी गया है। वह ला. द. विद्यामंदिरसे प्रकाशित हो गया है। ३. प्राप्तिस्थान श्री महावीर जैन विद्यालय, अगस्त क्रान्तिमार्ग, बंबई-३६. Jain Education Intemational Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001151
Book TitleAgam 42 mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorBhadrabahuswami, Agstisingh, Punyavijay
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2003
Total Pages323
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size9 MB
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