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________________ (१२) प्रस्तावना वह उपलब्ध नहीं है अत एव यह जानना कठिन है। स्थविर अगस्त्यसिंहद्वारा किया गया वृत्तिका उल्लेख पूर्वोक्त तीनोंमेंसे किसी एकका है या अन्य कोई है यह भी कहना कठिन है। आचार्य अगस्त्य सिंहने अनेक मतभेद या व्याख्यान्तरोंका उल्लेख किया है। किन्तु यहां उन सबकी चर्चा न करके उनमें से कुछ की ही चर्चा की जाती है। ध्यानका सामान्य लक्षण दिया है-'एगग्गचिंता-निरोहो झाणं' और उसकी व्याख्यामें कहा गया है कि "एक आलम्बनकी चिन्ता करना यह छद्मस्थका ध्यान है। योगका निरोध यह केवलीका ध्यान है। क्योंकि केवलीके चिन्ता नहीं होती। इस विषयमें कोई कहते हैं कि केवलीको योगनिरोध अर्थात् मनोयोग का निरोध नहीं होता। किन्तु उनका यह कहना ठीक नहीं। क्योंकि भगवानको भी द्रव्य-मनका निरोध संभव है। यदि ध्यान एकाग्रचिन्ता है तब तो योगनिग्रह भी ध्यान है ही। किन्तु जो यह कहते है'एकाग्र चिन्ताका निरोध ध्यान है"तो यह लक्षण केवलीमें घटित नहीं होता है क्योंकि चिंता यह आमिनिबोधिक ज्ञानका भेद है। भत एव 'हद अध्यवसान ध्यान है' तो उनको समासके विग्रहका ज्ञान नहीं है यही कहना चाहिए। वे सूत्रका दूषण निकाल अपनी बुद्धिके माहात्म्यकी अभिलाषा करते हैं। उन्होंने व्यर्थ ही कहा है। क्योंकि दृढ अध्यवसाय और चिन्ता इनमें भेद नहीं है। जब यह कहा जाता है कि इसका क्या अध्यवसाय है तो यही समझा जाता है कि इसकी क्या चिंता है। और तत्त्वार्थमें तो तकादि सबकोआमिनिबोधिक ज्ञानके भेद बताये ही हैं।" वृद्धविवरण जो दशवकालिक चूर्णिके नामसे मुद्रित है उसमें ध्यानका जो लक्षण स्वीकृत है वह यहाँ अमान्य किया गया है। उक्त चूर्णिने यह मत प्राचीन वृत्तिसे स्वीकृत किया हो यह संभव है क्योंकि प्रस्तुत चूर्णि वृद्धविवरणसे पूर्ववर्ती है। देखो प्रस्तुत में पृ० १६ टि०४। प्रस्तुतमें ध्यानका जो लक्षण 'एगमाचिंता-निरोहो' स्वीकृत किया गया है वह तत्त्वार्थसंमत है। तत्त्वार्थ भाष्यमें स्पष्ट लिखा है कि 'एकाग्रचिन्ता निरोधश्च ध्यानम्'-९. २७ और मूलसूत्रके 'एकाग्रचिन्तानिरोधो" इस समस्तपदका ऐसा विग्रह भाष्यमें स्वयं आचार्य उमास्वातिने जो किया वह निर्मूल नहीं था किन्तु जैनपरंपरासंमत आध्यात्मिकविकासक्रमको देखकर ही किया था। आवश्यकनियुक्तिगत ध्यानातक गा. ३ में ध्यानविषयक जो स्पष्टीकरण है वह भी इस प्रकारके विग्रहका ही समर्थन है अंतोमुहुत्तमित्तं चित्तावत्थाणमेगवत्थुम्मि। छउमत्थाणं झाणं जोगनिरोहो जिणाणं तु॥ यद्यपि ध्यानशतकमें ध्यानका जो लक्षण दिया है-"जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं" गा०२, उसका तो प्रस्तुत चूर्णिमें निरास ही किया है। क्यों कि 'दढमज्झवसाओ' और 'थिरमझवसाणं' में शब्दका अन्तर है, अर्थका नहीं। 'एकाग्रचिन्तानिरोध' के विग्रह के विषयमें जो आक्षेप किया गया है वह आचार्य पूज्यपादने तत्त्वार्थकी टीकामें जो विग्रह किया है उसे लक्ष करके किया हो ऐसा संभव है। क्यों कि उसमें तत्त्वार्थ भाष्यके विग्रहसे विपरीत ही विग्रह दिखता है 'चिन्ता परिस्पन्दवती, तस्या अन्याशेषमुखेभ्यो ब्यावर्त्य एकस्मिन्नग्रे नियम एकाग्रचिन्तानिरोध इत्युच्यते'-सर्वार्थसिद्धि ९-२७५ सामान्यतौरसे उपांगग्रन्थ जीवाजीवाभिगमः नामसे प्रसिद्ध है किन्तु यहां उसका नाम 'जीवाजीवाधिगम' निर्दिष्ट है (पृ०९४)' प्रभ यह है कि क्या मि→हि-धि की प्रवृत्तिका यह परिणाम है या यही उसका नाम मूलतः होगा। आचार्य उमास्वातिने 'अधिगम। १. २.२९, ३.५, १६.९, २५.५, ६४.६; ७८.२९: ८१-३४: १००.२५, २४८ : २५४.५ इत्यादि। २. १६. ७. ३. तुलना करें इस चर्चाकी भगवती आराधनागत विजयोदया टीका गा० १६९९ । वहाँ चर्चा इसी लक्षणकी है किन्तु चर्चा अन्य ढंगसे की गई है। ४. वस्तुतः यहाँ मूलमें पाठ 'निरोधी' ही उचित था। और आचार्य उमास्वातिने उसे उस रूपमें ही लिखा होगा। किन्तु अन्य सभी वृत्तिकारों के समक्ष योगसूत्रगत लक्षण 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' १.२. मौजुद था, अत एव उसी रूपको समक्ष रखकर 'निरोधौ' के स्थानमें 'निरोधो' मानकर ही व्याख्याएँ की हो तो आश्चर्य नहीं है। राजवार्तिक और विजयोदयागत ध्यानके स्वरूपका वर्णन कई बातों में समान है फिर भी विवरणमें कई बातें ऐसी हैं जो एककी दूसरेमें नहीं हैं। ५. राजवार्तिक आदि में तथा सिद्धसेनमें भी इसी प्रकार विग्रह किया गया है। आचार्य उमास्वाति की ध्यानकी व्याख्यामें संगति बिठानेका विशेषप्रयत्न अपराजितसूरिने भगवती आराधनाकी टीकामें (१६९९) किया है वह भी यहां देखना जरूरी है। आचार्य उमास्वातिने योगसूत्रका अनुकरण करके ध्यानकी व्याख्या की किन्तु उसमें जैन दृष्टिसे विशेष स्पष्टीकरण की आवश्यकता थी उसकी पूर्ति भी उन्होंने की है। ६. नंदिसुत्तमें उसे 'जीवाभिगम' कहा गया है-सू. ८३ । दशवकालिक मूलमें (४.३७) जो तत्त्वचर्चा है उससे ये तत्व फलित होते हैं- जीव-अजीव-पुण्य-पाप-बंध-मोक्ष-संवर. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001151
Book TitleAgam 42 mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorBhadrabahuswami, Agstisingh, Punyavijay
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2003
Total Pages323
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size9 MB
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