SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्थविर अगस्त्यसिंहकृत चूर्णि (११) वे अपनी इस व्याख्याको विभाषा कहना पसंद करते हैं ऐसा लगता है। बौद्धों के वहां सूत्र = मूल और विभाषा' = व्याख्या ये दो प्रकार ग्रन्थोंके हैं। वैसा जैनों में भी सूत्र और विभाषा ये श्रुतके भेद किये जा सकते हैं। विभाषाके स्वरूपके विषयमें स्पष्टीकरण अन्यत्र किया है। अत एव यहाँ उसके विवरणकी आवश्यकता नहीं है। उसका खास लक्षण यह है कि शब्दों के जो अनेक अर्थ होते हों, उन्हें बता देना चाहिए और प्रस्तुतमें जो अर्थ उपयुक्त हो उसका निर्देश कर देना चाहिए। प्रस्तुत चूर्णिमें यह पद्धति अपनाई गई है अत एव यदि इसे 'विभाषा' कहा जाय तो उचित ही होगा। केवल यही नहीं प्रस्तुत चूर्णिको ग्रन्थकर्ताने 'वृत्ति' नाम भी दिया है-पृ० ११२ चूर्णिमें अनेक दृष्टान्तों, कथानकों द्वारा मूलके वक्तन्यको स्पष्ट किया गया है। यह चूर्णिकी एक विशेषता ही समझी जा 'सकती है। अनेक ग्रन्थोंसे अवतरण दिये हैं उससे यह निश्चित होता है कि स्थविर अगस्त्यसिंह बहुश्रुत थे। वे केवल जैन शास्त्रके ही नही किन्तु अन्यशास्त्रोंके भी ज्ञाता थे। ये अवतरण ग्रन्थोंके नामके साथ और विना नामके भी दिये गये हैं। इसका कितना विस्तार है यह अंतमें दी गई अवतरण सूचीसे पता लग सकता है। प्रस्तुत चूर्णिके अध्ययनसे यह निश्चित होता है कि इसके पूर्वभी कोई वृत्ति दसक लियकी बनी थी। उस वृत्तिका निर्देश अगस्त्यसिंहने कई स्थानोंमें किया है-पृ. ६४, ७८,८१, १००, २५३ । अपने समय तक दशवकालिकमें तथा नियुक्तिमें जो पाठान्तर उपलब्ध थे उनका भी निर्देश चूर्णिमें किया गया है-पृ० ३८, ४८, ६०, ६१, ७७, ९९, १०१, १३२, १६४ इत्यादि। इससे यह अनुमान हो सकता है कि स्थविर अगस्त्यसिंहके समक्ष अन्य हस्तप्रतें मौजुद थीं। अन्य वृत्तिका निर्देश तो ऊपर हो चुका है। एक स्थानमें पाठान्तरके स्थान में स्थविर अगस्त्यसिंहने 'आलावगो' शब्दका मी प्रयोग किया है-पृ० १६४ । स्थ० अगस्त्यसिंहकी चूर्णिकी जो प्रत मिली है उससे यह निश्चित होता है कि प्राकृत शब्दके रूप एक जैसे ही प्रयुक्त नहीं हुए हैं। मूलके प्रतीक जो हैं उन शब्दों के भी रूपान्तरोंका प्रयोग चूर्णिमें दिखाई देता है। अत एव पाठको एक निश्चितरूप देकर ही मुद्रित करने की जो पद्धति है वह कहाँतक उचित है-यह विद्वानों के लिए विचारणीय है। प्राकृतभाषाकी यही विशेषता है कि उसमें कई रूपान्तरोंकी शक्यता है। लेखक स्वयं भी नानारूपोंका प्रयोग करे-यह भी संभव है ही-ऐसी परिस्थितिमें संपादनमें एकरूपता लानेका प्रयत्न करना कहां तक उचित है । यह प्रश्न है। इस एकरूपताकी कमी को देखकर यदि यह कहा जाय कि सम्पादन उचित ढंगसे नहीं हुआ है तो यह पू. मुनिजीके प्रति अन्याय होगा ऐसा मैं मानता हूँ। विदेशी विद्वानों का यह आग्रह रहा हैप्रतमें एकरूपता न भी मिले फिरभी संपादकको एकरूपता लानेका प्रयत्न करना चाहिए-संपादनकी यह पद्धति प्राकृतभाषाके मूलमें ही कुठाराघात जैसी दिखती है। ऐसी परिस्थितिमें यदि पू. मुनिजीने उस एकरूपताका आग्रह नहीं रखा है तो उनका दोष नहीं हैउन्होंने प्राकृत भाषाकी प्रकृतिका ही अनुसरण किया है। जैनोंमें प्रचलित अनुमानविद्याका भी तात्कालिक निरूपण उत विद्याके इतिहासकी एक कडी बन सके ऐसा विस्तृत है-जो अन्यत्र दुर्लभ है। आज्ञाका-आगमका महत्त्व होते हुए भी वातावरणमें जब अनुमानविद्या या तर्कविद्याका महत्त्व बढा तो जैन आगम भी उससे अछूता नहीं रह सकता था। अत एव उस विद्याका प्रथम प्रवेश नियुक्तिमें हुआ और विशदीकरण इस चूर्णिमें है। दशवैकालिक नियुक्तिकी गा० २२ से यह चर्चा शुरू होती है जो अतिविस्तारसे प्रस्तुत चूर्णिमें की गई है। विस्तृत होते हुए भी उसकी चर्चा की जो भूमिका है वह प्राथमिक ही कही जा सकती है। आचार्य अकलंक आदिने इस विषयमें जो आगे चल कर कहा वह इस भूमिका को छोड कर और तात्कालिक चर्चा विचारणा को लक्ष्य करके ही है। स्थविर अगस्त्यसिंहके समक्ष दशवकालिक की कई वृत्तियाँ होनेका संभव इस लिए है कि उन्होंने प्रारंभमें ही 'भदियायरिओ. वएस' और 'दत्तिलायरिओवएस' की चर्चा की है-पृ० ३। अन्यत्र भी वृत्तिके मतों का निर्देश कईबार किया है। इससे यह तो निश्चित होता है कि दशवकालिककी वृत्तिओंकी परंपरा प्राचीनकाल से ही प्रारब्ध हुई थी। आचार्य अपराजित जो यापनीय ये उन्होंने भी दशकालिककी विजयोदया नामक टीका लिखी थी। वह स्थविर अगस्त्यके समक्ष थी या नहीं इसका निर्णय जरूरी है। किन्तु १. व्याकरणगत परिभाषामें 'विभाषा' शब्दका जो अर्थ है उसके लिए देखें शाकटायन व्याकरण-प्रस्तावना, पृ०६९, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी. २. नंदीसुत्तं अणुयोगद्दाराई च (महावीर जैन विद्यालय) की प्रस्तावना-पृ०३७. ३. बृहत्कथा जैसे ग्रन्थका उनका अध्ययन अवश्य उन्हें इसके लिए सहायक हुआ है।-पृ. १९९ में बृहत्कथाके कथनको स्त्रीसंसर्गनामक दोष बताया है। किन्तु 'कोकास'को शिल्पीके रूपमें उदाहृत करनेमें उन्हें कोई संकोच नहीं हुआ है।-पृ. ५४। ४. ये व्याख्यायें मौखिक भी हो सकती हैं। संभव है कि इसीको लक्ष करके 'उपदेश' (उवएस) शब्दका प्रयोग किया गया है। ५. “दशवैकालिकटीकायां श्री विजयोदयायां प्रपञ्चिता उद्गमादिदोषा इति नेह प्रतन्यते" भगवती आराधना टीका विजयोदया-गा. १९९७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001151
Book TitleAgam 42 mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorBhadrabahuswami, Agstisingh, Punyavijay
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2003
Total Pages323
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy