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टिप्पण -- १. जीवों के असंख्य प्रकार हैं और जीवों की स्थितियाँ भी असंख्य प्रकार की हैं। उन सबका कारण है कषाय । अतः कषाय बहुरूपी होगा ही । २. जैसा बीज वैसा फल होता है । असंख्य प्रकार के फलों को उत्पन्न करनेवाले असंख्य प्रकार के बीज होते हैं । वैसे ही संसारी जीवों की समस्त अवस्थाएँ कर्म के अनुसार घटित होती हैं । और कर्मों का संग्रह कषाय के निमित्त से होता है । तथा रूप कर्मों को आकर्षित करनेवाला तथारूप कषाय ही होता है । अतः कषाय के असंख्य स्तर बन जाते हैं । ३. कषाय से चेतना विकारी होती है और विकारी चेतना के विविध रूप ही संसार हैं । कषाय का अभाव होते ही चेतना निर्विकार हो जाती है । अतः ससार का भी अभाव हो जाता है । मात्र अवशिष्ट आयुष्य के अनुरूप वेदनीयादि तीन कर्मों का भोग शेष रहता है । अतः अकषायी जीव मुक्तवत् ही हो जाता है । इसीलिये कहा गया है— कषायमुक्तिः किलमुक्तिरेव ४. कषाय के असंख्य स्तरों को गिनाना संभव नहीं है । वे मात्र अनुमान से जाने जाते हैं ।
कषायों के प्रकार- प्रभेद
कसाओ खलु इक्किक्को, चउविहो य होइ ता । च - चउकयाइंति, सो सोलसविहो तहा ॥ १४ ॥
एक-एक कषाय चार प्रकार का हो जाता है । इस कारण (समान स्तर की अपेक्षा से ) चार चतुष्क हो जाते है और वह इस प्रकार सोलह प्रकार का हो जाता है । ( उसी प्रकार = इनके साथ ही नोकषाय के नव भेद भी समझ लेने चाहिये । )
टिप्पण - १. कषायों के विभिन्न स्तरों को चार प्रकारो में विभाजित कर दिया है अर्थात् प्रत्येक कषाय के चार प्रकार होते हैं-- अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन ।