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तीर्थंकर, निर्माण और उपघात ॥ (त्रस दशक-) सनाम, बादरनाम, पर्याप्तनाम, प्रत्येकनाम, स्थिरनाम,
शुभनाम, सुभगनाम, सुस्वरनाम, आदेयनाम, यशोनाम । (स्थावर दशक-)स्थावरनाम, सूक्ष्मनाम, अपर्याप्तनाम, साधारणनाम,
अस्थिरनाम, अशुभनाम, दुर्भगनाम, दुःस्वरनाम,
अनादेयनाम, अयशोनाम । ___ गोत्र कर्म के दो भेद । यथा-उच्चगोत्र और नीचगोत्र अन्तरायकर्म के पाँच भेद । यथा
१. दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, वीर्यान्तराय । २. ये बन्ध के योग्य १२० उत्तर प्रकृतियाँ है। उदय में ये १२२ हो जाती है। क्योंकि परिणाम विशेष से मिथ्यात्व मोहनीय प्रकृति तीन भागों में विभक्त हो जाती हैं-सम्यक्त्व मोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय और मिश्रमोहनीय । सत्ता में १४८ या १५८ हो जाती हैं। क्योंकि नाम कर्म की प्रकृतियों में वृद्धि हो जाती है । वर्णादि की सोलह और बन्धन-संघातन की पाँच-पाँच बढ़ने पर १४८ और बन्धन की ५ के स्थान पर पन्दरह गिनने पर १५८ प्रकृतियाँ हो जाती है। इन विषय में प्रथम कर्म ग्रन्थ आदि दृष्टव्य हैं। ३. इन मल-उत्तर कर्म प्रकृतियों के उल्लेख का यह आशय है कि कषाय के बन्ध हेतु के रूप में विविध प्रकार के स्वरूप का चिन्तन किया जा सके। एक ही कषाय तरतमता कितने विविधि फलों का उत्पादक बन जाता है। इसी बात को अगली गाथा में इस प्रकार कहा है
एवंविहो कसाओ हि, नाणा-भावेसुवट्टए । अकसाओ अबन्धो व, तम्मुत्तो चेव मुक्तओ ॥१३॥
इसप्रकार (बहुरूपिया) होकर कषाय ही नाना प्रकार भावों में प्रवर्तमान होता है। अकषायी (कर्म का) अबन्धक सदृश ही होता है। इसलिये कषायों से मुक्त ही मुक्त है।