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तीर्थंकर चरित-भूमिका
वहाँ पहुँचनेपर सिंहासनमें बैठे ही बैठे इन्द्र मूतिका गृहकी परिक्रमा देता है और फिर उसे ईशान कोणमें छोड़ आप हर्षचित्त होकर प्रभुके पास जाता है । वहाँ पहले प्रभुको प्रणाम करता है फिर माताको प्रणामकर कहता है,-" माता ! मैं सौधर्म देवलोकका इन्द्र हूँ। भगवानका जन्मोत्सव करने के लिए आया हूँ। आप किसी प्रकारका भय न रक्खें ।"
इतना कहकर वह भगवानकी मातापर अवस्वापनिका नामकी निद्राका प्रयोग करता है । इससे माता निद्रित-बेहोशीकी दशामें हो जाती है । भगवानकी प्रतिकृतिका एक पुतला भी बनाकर उनकी बगलमें रख देता है फिर वह अपने पाँच रूप बनाता है। देवता सब कुछ कर सकते हैं। एक स्वरूपसे भगवानको अपने हाथोमें उठाता है । दूसरे दो स्वरूपोंसे दोनों तरफ खड़ा होकर चँवर ढोलने लगता है। एक स्वरूपसे छत्र हाथमें लेता है और एक स्वरूपसे चोबदारकी भाँति वज्र धारण करके आगे रहता है । इस तरह अपने पाँच स्वरूप सहित वह भगवानको आकाश मार्गद्वारा मेरु पर्वतपर ले जाता है। देवता जयनाद करते हुए उसके साथ जाते हैं । मेरु पर्वतपर पहुँच कर वह निर्मल कातिवाली अति पांडुकंबला नामकी शिलासिंहासन-जो अन्तिस्नात्रके योग्य होती है-पर, भगवानको अपनी गोदमें लिए हुए बैठ जाता है। ___ जिस समय वह मेरु पर्वतपर पहुँचता है उस समय 'महाघोष' नामका घंटा बजता है, उसको सुन, तीर्थकरका जन्म जान, अन्यान्य ६३ इन्द्र भी मेरु पर्वतपर आते हैं।
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